भारतीय रिज़र्व बैंक वार्षिक नीति वक्तव्य - 2009-10 - डॉ.डी.सुब्बाराव, गवर्नर - आरबीआई - Reserve Bank of India
भारतीय रिज़र्व बैंक वार्षिक नीति वक्तव्य - 2009-10 - डॉ.डी.सुब्बाराव, गवर्नर
भारतीय रिज़र्व बैंक डॉ.डी.सुब्बाराव वर्ष 2009-10 के इस वार्षिक नीति वक्तव्य को वैश्विक अर्थव्यवस्था की अभूतपूर्व चुनौतीपूर्ण स्थितियों के संदर्भ में निर्धारित किया गया है। संकट की इस स्थिति ने उन कई मूलभूत धारणाओं तथा मान्यताओं के लिए प्रश्नचिहन लगा दिया है जो आर्थिक मजबूती तथा वित्तीय स्थिरता के विषय में प्रचलन में थीं। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के वित्तीय क्षेत्र में उथल-पुथल के रूप में जो बात उठी वह पिछले 60 वर्षों के गहनतम और सर्वाधिक व्यापक संकट के रूप में तेज़ी से फैल गई है। समस्त उन्नत अर्थव्यवस्थाएँ एक समकालिक मंदी के दौर में से गुजर रही हैं, इसके चलते वैश्विक (जीडीपी) सकल देशी उत्पाद(जीडीपी) में द्वितीय विश्व युद्ध से लेकर अब तक पहली बार कमी आने का अनुमान है जो अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के मार्च 2009 के पूर्वानुमान के अनुसार 0.5 और 1.0 प्रतिशत के बीच रहेगा। विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) ने पूर्वानुमान दिया है कि वर्ष 2009 में वैश्विक व्यापार की मात्रा में 9.0 प्रतिशत तक कम हो जाएगी। 2. विश्व भर की सरकारों तथा केंद्रीय बैंकों ने पारंपरिक तथा अपारंपरिक - दोनों ही प्रकार के राजकोषीय एवं मौद्रिक उपाय करते हुए इस संकट का सामना किया है। इन उपायों की उनकी मात्रा, समयपरकता, क्रमबद्धता तथा रचना के संदर्भ में आलोचना की गई है; इससे भी काफ़ी महत्वपूर्ण रूप से आर्थिक तथा वैचारिक समर्थन के लिए उनकी आलोचना हुई है। बहुत अधिक आलोचना कुछ इस रूप में रही कि एक अति गंभीर वैश्विक संकट के उपाय के रूप में विशुद्ध राष्ट्रीय प्रतिक्रियाएं अपर्याप्त सिद्ध हुई हैं। वैश्विक समन्वयन तथा सहकारिता की बढ़ती जरूरत को स्वीकार करते हुए, विशेष रूप से विश्वभर के आर्थिक एजेंटों की आस्था और विश्वास को अभिप्रेरित करने की दृष्टि से, जी-20 समूह के देशों के नेताओं की पिछले छ: महीनों में दो बैठकें हुईं। अप्रैल 2009 के प्रारंभ में हुई अपनी हाल की बैठक में जी-20 के नेताओं ने विकास की गति में फिर तेजी लाने, वित्तीय प्रणाली में पुन: स्थिरता लाने, बाधित ऋण बाजारों को पुन: प्रारंभ करने तथा वित्तीय बाज़ारों एवं संस्थाओं में पुन: विश्वास जगाने के लिए निर्णायक, मिले-जुले और व्यापक कदम उठाने के प्रति सामूहिक प्रतिबद्धता व्यक्त की। 3. बैठक के पूर्व कुछ आशंकाओं के बावजूद बाज़ार की प्रत्याशाओं को व्यवस्थित करने में जी-20 बैठक का समग्र प्रभाव सकारात्मक रहा है। इसके बाद भी, वैश्विक वित्तीय स्थिति अनिश्चित बनी हुई है और वैश्विक अर्थव्यवस्था कई कारणों से चिंता उत्पन्न करती रही है। अभी भी, दोषपूर्ण आस्तियों की मात्रा का कोई सुस्पष्ट अनुमान नहीं लग पाया है तथा इस बात के संदेह बने हुए हैं कि क्या की जानेवाली पहल वित्तीय प्रणाली की स्थिरता को फिर से कायम करने के लिए पर्याप्त है। सभी देशों के राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेजों की पर्याप्तता और मंदी के दौर को कम करने, नौकरियों में आई कमी को दूर करने तथा उपभोक्ताओं के विश्वास को फिर से जगाने में उनकी कारगरता पर निरंतर बहस चल रही है। अधिकांश प्रमुख केंद्रीय बैंकों की नीतिगत ब्याज दरों को व्यवस्थित करने के पारंपरिक साधन लगभग या पूरी तरह समाप्त होने के बाद अब वे मात्रात्मक और ऋण को आसान बनाने जैसे अपारंपरिक उपायों का सहारा ले रहे हैं। मौद्रिक नीति के असर में कमी को देखते हुए भी, इस बात की चिंता है कि ये जोरदार मौद्रिक उपाय कब से तथा कहां तक असरकारक होंगे जिससे ऋण प्रवाहों को पुनर्जीवित किया जा सके और कुल मांग को बढ़ाया जा सके। 4. समस्त उभरती अर्थव्यवस्थाओं के समान ही, भारत भी इस संकट से प्रभावित हुआ है और यह प्रभाव ,प्रारंभ में जो अनुमान लगाया गया था, उससे बहुत अधिक है। इस प्रभाव ने घबराहट फैलाई है जो मुख्यत: दो आधारों पर है पहला, क्योंकि हमारा वित्तीय क्षेत्र स्वस्थ बना हुआ है, इसका दोषपूर्ण आस्तियों पर प्रत्यक्ष एक्सपोज़र नहीं था और इसकी तुलनपत्र से इतर गतिविधियां सीमित थीं; और दूसरा, यह कि भारत के वाणिज्यिक निर्यात इसके सकल घरेलू उत्पाद से 15 प्रतिशत से कम होने के कारण थे जो अपेक्षाकृत मामूली हे। इन कम असरकारक तत्वों के बावजूद भारत पर पड़ा संकट का प्रभाव वैश्वीकरण की प्रभावशीलता तथा भारत के माल और सेवाओं के बढ़ते दोहरे (आवक-जावक) व्यापार तथा शेष विश्व के साथ वित्तीय एकीकरण का प्रमाण है। 5. पिछले पांच वर्षों (2003-08) में औसतन 8.9 प्रतिशत वार्षिक वृद्धि के बाद भारत 2008-09 में चक्रीय गिरावट की ओर बढ़ रहा था। परंतु वृद्धि में आई कमी संकट की स्थिति के नकारात्मक प्रभाव के कारण काफ़ी तीव्र थी । वस्तुत:, वर्ष 2008-09 की पहली दो तिमाहियों में वृद्धि में कमी बहुत ही मामूली कमी देखी गई; संकट की स्थिति का पूरा प्रभाव लेहमैन संकट के बाद तीसरी तिमाही में महसूस किया जाने लगा जिससे वृद्धि में एक तीव्र गिरावट दर्ज हो गई। सेवा क्षेत्र, जो कि हमारा पिछले पांच वर्षों से प्रमुख वृद्धि इंजिन रहा है, में गिरावट देखी जाने लगी, जो मुख्यत: विनिर्माण, परिवहन और संचार, व्यापार, होटल उद्योग और उप-क्षेत्र रेस्तरां के क्षेत्रों में रही है। सात वर्षों में पहली बार, अक्तूबर 2008-फरवरी 2009 के दौरान लगातार पांच महीनों में निर्यात की मात्रा घटी हैं। हाल के आंकड़े दर्शाते हैं कि बैंकिंग तंत्र में चलनिधि की अच्छी स्थिति के बावजूद बैंक ऋण की मांग में कमी होती जा रही है। निरुत्साही मांग के कारण कारपोरेट मार्जिन घट गए हैं जबकि इस संकट के इर्द-गिर्द विद्यमान अनिश्चितता के कारण कारोबारी विश्वास को धक्का लगा है। पिछले पांच महीनों (अक्तूबर 2008 से फरवरी 2009 ) में, औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक (आइआइपी) लगभग स्थिर रहा है, जिनमें से दो महीनों में ऋणात्मक वृद्धि दर्ज हुई है। निवेश मांग भी घट गई है। ये समस्त संकेतक दर्शाते हैं कि वृद्धि पहले के अनुमानित स्तर से भी अधिक मामूली रहेगी। 6. जैसा कि ऊपर कहा गया है, प्रतिकूल प्रभाव के बावजूद भारत के संकट से बच निकलने में सहायक कई अच्छे घटक थे। पहले, हमारे वित्तीय बाज़ार, विशेष रूप से हमारे बैंक सामान्य रूप से कार्य करते रहे। दूसरे, भारत की अच्छी विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि (रिज़र्व) हमारे भुगतान संतुलन को प्रबंधित करने की हमारी क्षमता के प्रति विश्वास जगाती है; भले ही, निर्यात मांग न्यूनतर तथा ऋण प्रवाह निरुत्साहजनक थे। तीसरे, थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) द्वारा नापी जानेवाली हेडलाइन मुद्रास्फीति तेज़ी से घट गई। उपभोक्ता मूल्यस्फीति भी कम होने लगी है। चौथा, अधिदेशात्मक कृषि ऋण और सामाजिक सुरक्षा-नेट कार्यक्रमों के कारण ग्रामीण मांग सृदृढ़ बनी रही है। 7. सरकार तथा रिज़र्व बैंक - दोनों ने ही भारत पर संकट की स्थिति के प्रभाव को कम करने की चुनौती का समन्वयन तथा आपसी परामर्श के साथ सामना किया। वर्ष 2008-09 की पहली छमाही में व्याप्त बढ़े हुए स्फीतिकारी दबावों की प्रतिक्रिया में रिज़र्व बैंक ने अपना नीतिगत बल मौद्रिक तंगी से बदलकर मौद्रिक सुलभता वाला कर दिया जो संकट की स्थिति से उत्पन्न स्फीतिकारी दबावों को कम करने और वृद्धि में धीमेपन की प्रतिक्रिया में था। रिज़र्व बैंक की नीतिगत प्रतिक्रिया अच्छी देशी और फोरेक्स चलनिधि स्थिति बनाए रखने के साथ-साथ वैश्विक वित्तीय संकट के संसर्ग को सीमित रखने के प्रति लक्षित थी। रिज़र्व बैंक की उक्त मौद्रिक शिथिलता लाने के इस कार्य से प्रेरणा लेकर अधिकांश बैंकों ने अपनी जमाराशियां तथा ऋण संबंधी दरें घटा दीं। 8. केंद्र सरकार ने दिसंबर 2008 - फरवरी 2009 के दौरान तीन राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज लागू किए। ये प्रोत्साहन पैकेज ग्रामीण निर्धनों के लिए पहले ही घोषित विस्तारित सुरक्षा-नेट कार्यक्रम, कृषि ऋण माफ़ी पैकेज और छठे वेतन आयोग के बाद दिये गये पे- आउट के अलावा थे, इन सभी के कारण भी, मांग में बढ़ोतरी हुई। 9. वर्ष 2009-10 का यह वार्षिक नीति वक्तव्य दो भागों में तैयार किया गया है। भाग ‘क’ में मौद्रिक नीति को समाविष्ट किया गया है जिसमें समष्टि आर्थिक (मैक्रोइकॉनॉमिक) और मौद्रिक गतिविधियों का मूल्यांकन (भाग I), मौद्रिक नीति बल (भाग II) और मौद्रिक उपाय (भाग III) दिए गए हैं। भाग ‘ख’ विकासात्मक और विनियामक नीतियों के संबंध में है और इसमें वित्तीय स्थिरता (भाग I), ब्याज दर नीति (भाग II), वित्तीय बाज़ार (भाग III), ऋण सुपुर्दगी तंत्र तथा अन्य बैंकिंग सेवाएं (भाग IV), विवेकपूर्ण उपाय (भाग V) और संस्थागत गतिविधियां (भाग VI) शामिल हैं। इस वक्तव्य को कल जारी की जा चुकी समष्टि आर्थिक (मैक्रोइकॉनॉमिक) और मौद्रिक गतिविधियों की विश्लेषणात्मक समीक्षा के साथ-साथ पढ़ा और समझा जाए। भाग क. मौद्रिक नीति वक्तव्य 2009-10 I. समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियां वैश्विक दृष्टिकोण 10. वैश्विक दृष्टिकोण में पिछली तिमाही में गिरावट बनी रही जिसमें वर्ष 2009 में वैश्विक वृद्धि के अनुमानों में तेज़ी से संशोधन होकर कमी आती गई। आइएमएफ के मार्च 2009 के पूर्वानुमानों के अनुसार वैश्विक वृद्धि में 2008 में हुए 3.2 प्रतिशत के विस्तार के विपरीत 2009 में 0.5 से 1.0 प्रतिशत कमी आने का अनुमान है। अन्य अनुमान इससे भी भयंकर हैं। विश्व बैंक ने वैश्विक जीडीपी में 1.7 प्रतिशत तथा ओईसीडी में 2.7 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान लगाया है। अमेरिका में आर्थिक गतिविधियां काफ़ी धीमी हो गई हैं, जो मुख्य रूप से उपभोग और निर्यातों में गिरावट के कारण थीं। यूरो क्षेत्र में भी भारी तथा समकालिक संकोच की स्थिति पाई गई। उपभोक्ता मूल्य स्फीति मांग में तीव्र कमी के कारण कई विकसित देशों में लगभग शून्य हो गई जिससे भविष्य में निरंतर अवस्फीति (डिफ्लेशन) के आसार की चिंता बढ़ गई। अमेरिका में बेरोजगारी की दर बढ़कर 8.5 प्रतिशत हो गई जो वर्ष 1983 के बाद सर्वाधिक है। यूरो क्षेत्र में, बेरोजगारी की दरें ब्रिटेन तथा जापान में भी उल्लेखनीय रूप से बढ़ गईं। डब्ल्यूटीओ ने अनुमान लगाया है कि वैश्विक व्यापार में वर्ष 2009 में मात्रात्मक रूप से 9.0 प्रतिशत की कमी आयेगी, जबकि वर्ष 2008 में 2.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। वर्ष 1990 और 2007 के दरम्यान वैश्विक व्यापार में सकल देशी उत्पाद की तरह दो बार वृद्धि हुई, ठीक इसके विपरीत "व्यापार वृद्धि का इंजिन है" इस नीति के अनुसार वर्ष 2009 में वैश्विक व्यापार वैश्विक सकल देशी उत्पाद के बराबर दोगुना संकुचित होने का अनुमान है। 11. विकसित देशों में, पर्याप्त चलनिधि उपलब्ध कराने और नीति दरों में अनुवर्ती कटौतियों के परिणामस्वरूप लघु अवधि ब्याज दरों में विशेष रूप से ओवरनाइट खंड में नरमी ला दी। तथापि,यह सुझाव देते हुए कि डिलिवरेजिंग प्रक्रिया अधूरी है, ऋण बाज़ार के परेषण को क्षीण बना दिया गया है। परिसंपत्तियों के मूल्य अभी भी स्थिर होने हैं और ऋण दर विस्तार आगे कम करने क ा आवश्यकता है। बैंक और वित्तीय संस्थाएं अभी भी तुलन-पत्र के निवेशों से इतर उत्पन्न होनेवाली हानियां पहचानने की प्रक्रिया में लगी हुई हैं। इससे अपेक्षित पुनर्पूंजीकरण की सीमा के बारे में चिंता बढ़ रही है और यह अनिश्चितता नये उधार देने में अवरोध पैदा कर रही है। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि वैश्विक वित्तीय प्रणाली को अभी भी खोया हुआ विश्वास और आत्मविश्वास पुन: प्राप्त करना है। जी-20 देशों के प्राथमिक उपायों में वैश्विक वित्तीय ढाँचे को मजबूत बनाना और समन्वित कार्रवाइयों के माध्यम से वैश्विक वृद्धि की गति बनाये रखने के प्रयास चल रहे हैं।
14. अप्रैल 2008 में जारी रिज़र्व बैंक के पिछले वार्षिक नीति वक्तव्य के अनुसार वर्ष 2008-09 के लिए वास्तविक सकल देशी उत्पाद वृद्धि 8.0 -8.5 प्रतिशत के बीच थी। उस समय, आइएमएफ ने वर्ष 2008 में 3.7 प्रतिशत वैश्विक वृद्धि का अनुमान लगाया था। बाद में संकट और बढ़ गया और आर्थिक संभावनाएं वैश्विक रूप से और भारत में भी तीसरी तिमाही 2008-09 में तीव्र गति से बिगड़ गई । जुलाई 2008 से आइएमएफ ने वर्ष 2008 के लिए अपने वृद्धि पूर्वानुमान में बार-बार कमी की। रिज़र्व बैंक ने भी अपनी मध्यावधि समीक्षा (अक्तूबर 2008 ) में वर्ष 2008-09 के लिए 7.5 -8.0 प्रतिशत के लिए भारत के लिए वृद्धि अनुमान और तीसरी तिमाही समीक्षा (जनवरी 2009) में 7.0 प्रतिशत तक होने को परिलक्षित किया था। कमी होने के जोखिमों ने अब वास्तविक रूप धारण कर लिया है और वर्ष 2008-09 की सकल देशी उत्पाद वृद्धि अब 6.5 से 6.7 प्रतिशत तक होने का अनुमान है। कृषि 15. कृषि मंत्रालय के दूसरे अग्रिम अनुमान फरवरी 2009 में जारी किए गए जिसके अनुसार वर्ष 2008-09 में सकल खाद्यान्न 227.9 मिलियन टन हुए जोकि पिछले वर्ष में 230.8 मिलियन टन के उत्पाद से कम थे। रबी फसल के लिए अच्छी बुआई होने संबंधी तदनुरूपी जानकारी और सरकारी खरीद की प्रवृत्ति यह दर्शाती है कि वर्ष 2008-09 के दौरान कृषि उत्पाद पहले के अनुमानों से बेहतर होगा। उद्योग 16. वर्ष 2008-09 के दौरान अब तक (अप्रैल-फरवरी ), औद्योगिक उत्पाद सूचकांक (आइआइपी) पर आधारित औद्योगिक वृद्धि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 8.8 प्रतिशत से दो -तिहाई से भी अधिक गिरकर 2.8 प्रतिशत हो गई। जबकि औद्योगिक उत्पाद सूचकांक वृद्धि 2008-09 की पहली छमाही में 5.0 प्रतिशत थी,अगले पाँच महीने में औसत वृद्धि उल्लेखनीय नहीं थी (0.2 प्रतिशत)। तथापि, कुछ सकारात्मक प्रारंभिक संकेत अवश्य दिखाई दिए हैं। यद्यपि औद्योगिक उत्पाद सूचकांक फरवरी 2009 में 1.2 प्रतिशत कम हुआ, मशीनरी और उपकरण (परिवहन उपकरण से इतर) में दो अंकों की वृद्धि आई। उपयोग आधारित वर्गीकरण के अनुसार,पूंजी माल उत्पाद में भी दो अंकों की वृद्धि दर्ज हुई। सकल देशी उत्पाद के मांग घटक
कारपोरेट निष्पादन
कारोबारी विश्वास 19. जनवरी-मार्च 2009 के लिए रिज़र्व बैंक के औद्योगिक संभावना सव&झ्i्ा;क्षण से पता चलता है कि भारतीय विनिर्माण क्षेत्र की स्थिति और खराब हो जाने की आशंका है। समग्र कारोबारी और वित्तीय विश्वास, जो कि पिछली तिमाही में सात-वर्ष के न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया था, वह 2002 में सूचकांक तैयार करने के समय से पहली बार तटस्थ 100 अंक से नीचे पहुंच गया। सव&झ्i्ा;क्षण के अनुसार, बाह्य स्रोतों से कार्यशील पूंजी की मांग जनवरी-मार्च 2009 के दौरान कारोबार की मंदी के कारण कम हो गयी हालांकि वित्त की उपलब्धता सहज हो गयी थी। अन्य एजेंसियों द्वारा किये गये कारोबारी विश्वास सव&झ्i्ा;क्षण भी इन निष्कर्षों के अनुरूप ही हैं। अग्रणी संकेतक 20. अर्थव्यवस्था के अग्रणी संकेतकों के अनुसार, कई सेवा क्षेत्रों में आर्थिक गतिविधि में कमी आयी है। प्रमुख पत्तनों पर माल, विमानतलों पर यात्रियों, रेल मालभाड़ा यातायात तथा विदेशी पर्यटकों के आगमन में निम्नतर/नकारात्मक वृद्धि हुई। मजबूत ग्रामीण मांग, मौद्रिक और राजकोषीय प्रोत्साहनों के विलंबित प्रभाव, देशी इन्पुट मूल्यों में कमी, ब्राउनफील्ड परियोजनाओं से निवेश की मांग तथा पुनर्गठन संबंधी कुछ पहल से आगामी कुछ महीनों में औद्योगिक उत्पादन पर सकारात्मक प्रभाव पड़ने की आशा है। मुद्रास्फीति 21. थोक मूल्य सूचकांक में वर्षानुवर्ष परिवर्तनों के द्वारा मापी गयी हेडलाइन मुद्रास्फीति 2 अगस्त 2008 को अंतर-वर्ष के अधिकतम 12.91 प्रतिशत से काफी कम होकर 28 मार्च 2009 तक 0.26 प्रतिशत हो गयी। अगस्त 2008 से थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति में गिरावट के सापेक्ष अंशदान के संदर्भ में, खनिज तेल तथा मूल धातु (थोक मूल्य सूचकांक में सम्मिलित भाग 15.3 प्रतिशत) का अंशदान 83 प्रतिशत से अधिक था जो कि पण्य मूल्यों में वैश्विक प्रवृत्ति दिखलाता है। लेकिन खाद्य पदार्थों के मूल्य अभी भी उच्च स्तरों पर बने हुए हैं। विभिन्न उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों के आधार पर मुद्रास्फीति अभी भी दो अंकों में है। यह खाद्य पदार्थों (सारणी 4) के उच्च मूल्यों में दिखलायी पड़ती है। 4 अप्रैल 2009 को थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति कम होकर 0.18 प्रतिशत हो गयी।
22. पिछले चार वर्ष के विश्लेषण से पता चलता है कि थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति अप्रैल 2007 तक एक सी थी। उसके बाद, थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की मुद्रास्फीति में भिन्नता दिखलायी पड़ी। लेकिन, हाल ही की अवधि में जो विभिन्नता दिखलायी पड़ी है, वह असामान्य रूप से उच्च स्तर पर है। यह पण्य मूल्यों में अत्यधिक उतार-चढ़ाव के कारण है जिनका थोक मूल्य सूचकांक (चार्ट I) में काफी अधिक भार है। थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति में गिरावट से, आगामी महीनों में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति में कमी आने की संभावना है। नीतिगत प्रयोजनों के लिए मुद्रास्फीति की संभावना के समग्र आकलन के उद्देश्य से, रिज़र्व बैंक सभी मूल्य संकेतकों की निरंतर निगरानी करता है। राजकोषीय परिदृश्य 23. वर्ष 2008-09 में केंद्र सरकार के वित्त में बजट अनुमानों की तुलना में काफी भिन्नता दिखलायी पड़ी। निम्नतर राजस्व प्राप्तियों के साथ-साथ उच्चतर राजस्व व्यय के कारण राजस्व और राजकोषीय घाटों में काफी अधिक वृद्धि हुईं। राजकोषीय उत्तरदायित्व तथा बजट प्रबंधन नियमों (एफआरबीएम) में विनिर्दिष्ट लक्ष्य से घाटे के संकेतकों की भिन्नता सरकार द्वारा समग्र मांग को बढ़ाने के लिए किये गये वित्तीय प्रोत्साहन उपायों के कारण थी। वित्तीयन अंतर को बाजार से उधार में वृद्धि करके पूरा किया गया (सारणी 5) ।
24. राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेजों तथा व्यय की बजटोत्तर अतिरिक्त मदों के कारण, प्रारंभिक बजट अनुमानों की तुलना में 2008-09 के दौरान केंद्र सरकार का उधार काफी अधिक था। वस्तुत:, वास्तविक निवल उधार प्रारंभिक बजट अनुमान (सारणी 6) के ढाई गुना से भी अधिक था।
25. वर्ष 2008-09 के दौरान दिनांकित प्रतिभूतियों, अतिरिक्त खजाना बिलों और बाजार स्थिरीकरण योजना(एमएसएस) के योजना शेषों को मुक्त करने से सरकार द्वारा जुटायी गयी निवल राशि 2,98,536 करोड़ रुपये थी। इसके अलावा, 2008-09 में केंद्र सरकार द्वारा बाजार उधार कार्यक्रम से इतर जारी विशेष प्रतिभूतियों (तेल तथा उर्वरक बांड) की राशि 95,942 करोड़ रुपये थी। पहले के 47,044 करोड़ रुपये के प्रारंभिक अनुमान की तुलना में, राज्य सरकारों ने 2008-09 के दौरान 1,03,766 करोड़ रुपये की निवल राशि जुटायी(सारणी 7) । वर्ष 2008-09 में केंद्र तथा राज्य सरकारों का सम्मिलित बाजार उधार 2007-08 में उनके निवल उधार का लगभग ढाई गुना था। हालांकि, उधार में यह वृद्धि बहुत बड़ी और अप्रत्याशित थी लेकिन बाजार स्थिरीकरण योजना, खुला बाजार परिचालनों और मौद्रिक स्थितियों में सहजता जैसे उपाय करके इस पर नियंत्रण रखा गया। पिछले वर्ष के 8.12 प्रतिशत की तुलना में 2008-09 में जारी की गयी केंद्र सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों पर भारित औसत प्रतिफल 7.69 प्रतिशत था। वर्ष 2007-08 में 14.90 वर्ष की तुलना में इन प्रतिभूतियों की भारित औसत परिपक्वता 13.80 वर्ष थी।
26. वर्ष 2009-10 में राजकोषीय प्रोत्साहन की लगातार आवश्यकता के कारण 2008-09 की तुलना में केंद्र तथा राज्य सरकारों की उधार संबंधी आवश्यकताएं उच्चतर होंगी(सारणी 8) ।
27. वर्ष 2009-10 की पहली छमाही (अप्रैल-सितंबर) के लिए जारी उधार कैलेंडर के अनुसार, केंद्र सरकार के निवल बाजार उधार की राशि 2,07,364 करोड़ रुपये होगी। लेकिन बाजार स्थिरीकरण योजना के प्रभाव के समायोजन और खुले बाजार के कार्यकलापों के द्वारा रिज़र्व बैंक की सहायता से, नयी प्रतिभूतियों की निवल आपूर्ति की राशि 85,364 करोड़ रुपये होगी। हालांकि पिछले वर्ष की पहली छमाही की तुलना में प्रतिभूतियों की नयी आपूर्ति उच्चतर होगी लेकिन 2007-08 की पहली छमाही (सारणी 9) की तुलना में यह बहुत कम होगी।
28. वर्ष 2008-09 के दौरान बाजार उधारों में हुए पर्याप्त विस्तार को देखते हुए वर्ष 2009-10 में सरकारी बाजार उधारों में की गई अत्यधिक वृद्धि के मद्देनजर रिज़र्व बैंक के लिए यह आवश्यक हो गया कि वह बाजार में ऐसा माहौल पैदा करे जिससे उधार कार्यक्रम बिना किसी व्यवधान के पूरा हो सके। इसके साथ ही रिज़र्व बैंक ने तदनुसार, वर्ष 2009-10 की पहली छमाही में खुले बाजार के कार्यकलापों के अंतर्गत 80,000 करोड़ रुपये की सूचक राशि के लिए सरकारी प्रतिभूतियों की खरीद की अपनी मंशा जाहिर कर दी। 29. वर्ष 2008-09 के दौरान वृद्धि में आई कमी पर लगाम लगाने के लिए केंद्र सरकार ने दिसंबर 2008-फरवरी 2009 के दौरान तीन राजकोषीय प्रोत्साहन उपायों की घोषणा की। सरकार ने अक्तूबर - दिसंबर 2008 के दौरान अनुदान के लिए दो अनुपूरक मांगों के माध्यम से 1,48,093 करोड़ रुपये (जीडीपी का 2.7 प्रतिशत) का अतिरिक्त व्यय भी प्रदान किया। राजस्व में कटौती की वजह से वर्ष 2008-09 में कुल 8,700 करोड़ रुपए (जीडीपी का 0.2 प्रतिशत) और वर्ष 2009-10 में कुल 28,100 करोड़ रुपए (जीडीपी का 0.5 प्रतिशत) की राजस्व हानि हुई। वर्ष 2008-09 के दौरान अतिरिक्त प्रेरक उपाय जीडीपी के लगभग 2.9 प्रतिशत थे। इसके अलावा आर्थिक मंदी की वजह से राजस्व वसूली पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। परिणामस्वरूप, वर्ष 2009-10 के अंतरिम बजट में वर्ष 2008-09 के अनुमानित राजस्व घाटे को संशोधित कर जीडीपी का 4.4 प्रतिशत और राजकोषीय घाटे को जीडीपी का 6.0 प्रतिशत कर दिया गया जो कि बजट अनुमानों में क्रमश: 1.0 प्रतिशत और 2.5 प्रतिशत दर्शाए गए थे। इसके अलावा वर्ष 2008-09 के दौरान तेल और खाद की बिक्री करने वाली कंपनियों को विशेष बांड जारी किए गए जो जीडीपी के 1.8 प्रतिशत के बराबर थे। 30. वर्ष 2009-10 के अंतरिम बजट के अनुसार वर्ष 2009-10 के दौरान राजस्व घाटे और राजकोषीय घाटे में क्रमश: 4.0 प्रतिशत और 5.5 प्रतिशत की मामूली गिरावट का अनुमान है। सरकार ने अपने व्यष्टि आर्थिक ढांचागत वक्तव्य में यह दर्शाया कि इस समय अर्थव्यवस्था जिन असाधारण परिस्थितियों से गुजर रही है उसका सामना करने के लिए राजकोषीय नीति को समर्थ बनाने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए राजकोषीय समेकन प्रक्रिया को अस्थायी तौर पर रोक रखना होगा। आर्थिक स्थितियों में सुधार होते ही राजकोषीय समेकन प्रक्रिया को आरंभ कर देना होगा। 31. उपलब्ध मौजूदा जानकारी यह दर्शाती है कि वर्ष 2008-09 में राज्यों का समेकित बजटीय राजस्व अधिशेष शायद मूर्तरूप न ले पाये। परिणामस्वरूप राज्यों के समेकित राजकोषीय घाटे में जीडीपी के लगभग 3.0 प्रतिशत वृद्धि होने का अनुमान है। वर्ष 2008-09 के दौरान केंद्र और राज्य सरकारों का संयुक्त राजकोषीय घाटा जीडीपी का लगभग 9.0 प्रतिशत होगा। यदि केंद्र सरकार द्वारा बाजार उधारी कार्यक्रम से हटकर जारी की गई विशेष प्रतिभूतियों को गणना में लिया जाए, तो समेकित राजकोषीय घाटा जीडीपी के लगभग 10.8 प्रतिशत के बराबर होगा। हालांकि राजस्व और राजकोषीय घाटे में हुई कुछ वृद्धि छठें वेतन आयोग की सिफारिशों को लागू किए जाने के कारण बकाया राशि के भुगतान से उपजी बजट बाद की व्यय प्रतिबद्धताओं की वजह से है। लेकिन अधिकांश वृद्धि वैश्विक वित्तीय संकट के प्रभाव से उपजी आर्थिक मंदी के कारण हुई है। यद्यपि पिछले कई वर्षों से चली आ रही समेकन प्रक्रिया के विपरीत राजकोषीय प्रेरक पैकेज राजकोषीय जवाबदेही तथा बजट प्रबंध (एफआरबीएमफ) अधिनियम द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों से अलग राह दिखाते हैं लेकिन मौजूदा परिस्थितियों में यह आवश्यक भी था। तथापि यह महत्वपूर्ण है कि मौजूदा संकट की तात्कालिकता समाप्त होने के बाद केंद्र और राज्य सरकारें एफआरबीएम के संशोधित दिशानिर्देशों को नए सिरे से लागू करें। मौद्रिक परिस्थितियां 32. वर्ष 2008-09 के दौरान मूलभूत मौद्रिक घटकों - आरक्षित मुद्रा (आरएम) और मुद्रा आपूर्ति (एम 3) में हुई वृद्धि घरेलू और वैश्विक वित्तीय परिस्थितियों तथा मौद्रिक नीति की प्रतिक्रियास्वरूप उभरी चलनिधि स्थिति में हुए बदलाव को दर्शाती है। वर्ष 2008-09 के दौरान आरक्षित मुद्रा में हुई घट-बढ़ प्रमुख रूप से संचलन की मुद्रा में वृद्धि और बैंकें के नकदी आरक्षण अनुपात (सीआरआर) में कमी को दर्शाता है। 33. जैसा कि तीसरी तिमाही समीक्षा में बताया गया था सीआरआर में कटौती का आरक्षित मुद्रा पर तीन अंतर-संबंधित परिणाम होते हैं। सबसे पहले, इससे आरक्षित मुद्रा में कमी होती है क्योंकि बैंकों द्वारा रिज़र्व बैंक के पास रखे जानेवाले नकदी जमा में गिरावट आती है। दूसरे मुद्रा गुणक में वृद्धि होती है। तीसरे, मुद्रा गुणक में वृद्धि के साथ एम3 में धीमी गति से प्रसार होता है। हालांकि आरंभिक प्रसार मजबूती लिए होता है लेकिन पूरा प्रभाव 4-6 माह में दिखाई देता है। इन परिवर्तनों को दर्शाते हुए वर्ष 2008-09 में आरक्षित मुद्रा की वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि पिछले वर्ष की तुलना में काफी कम थी। तथापि, सीआरआर में हुई कटौती के पहले दौर के प्रभाव के समायोजन के बाद आरक्षित मुद्रा वृद्धि में आई गिरावट कम प्रखर थी। वर्ष 2008-09 में वार्षिक एम3 वृद्धि पिछले वर्ष की तुलना में कम होने के साथ ही जनवरी 2009 की तीसरी तिमाही समीक्षा में अनुमानित स्तर से भी नीचे थी (सारणी 10) ।
34. वर्ष 2008-09 में विशेषकर तीसरी तिमाही के दौरान, मौद्रिक प्रबंधन में वैश्विक वित्तीय संकट के परिणामों की प्रतिक्रिया और घटती घरेलू मांग पर रोक लगाने की प्रवृत्ति का बोलबाला रहा। चूंकि रिज़र्व बैंक को आयातकों की मांग को पूरा करने के लिए और विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) द्वारा पूंजी निकालने से उत्पन्न विदेशी मुद्रा बाजार की अस्थिरता को रोकने के लिए विदेशी मुद्रा चलनिधि का प्रावधान करना पड़ा, उसकी निवल विदेशी मुद्रा आस्तियों (एनएफईए) में कमी आयी। इसका रुपया चलनिधि पर समग्र सकुंचनकारी प्रभाव पड़ा। रिज़र्व बैंक ने इस मसले का सामना करने के लिए निम्न कार्रवाई कर निवल घरेलू आस्तियों (एनडीए) को बढ़ाकर रुपया चलनिधि का प्रबंध किया : (i) पारंपरिक खुले बाजार के कार्यकलापं; (ii) बैंकों के लिए 14 दिवसीय विशेष रेपो सुविधा; (iii) बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत रखी गई प्रतिभूतियों की वापसी-खरीद; (iv) तेल बांडों की खरीद सहित विशेष बाजार कार्यकलाप; (v) निर्यात ऋण के पुनर्वित्त की सहूलियत; (vi) गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, म्यूचुअल फंडों और आवास वित्त कंपनियों की चलनिधि संबंधी चिंताओं से निपटने के लिए बैंकें के लिए विशेष पुनर्वित्त सुविधा; (vii) वित्तीय संस्थानों (सिडबी, एनएचबी और एक्जिम बैंक) के लिए विशेष पुनर्वित्त सुविधा; और (viii) विशेष प्रयोजन साधन (एसपीवी) के माध्यम से गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का निधीयन। इस प्रकार 2008-09 की दूसरी छमाही के दौरान मौद्रिक कार्यकलापों की उल्लेखनीय विशेषता घरेलू आस्तियों द्वारा विदेशी आस्तियों का प्रतिस्थापन रहा। अत: चलनिधि स्थितियां मध्य नवंबर 2008 से सुखद रहीं चूंकि एलएएफ विंडो सामान्यत: अवशोषण में परिलक्षित हुई और मौद्रिक नीति के उद्देश्य से मांग/सूचना दर एलएएफ दायरे के निम्न स्तर के नजदीक या नीचे रही । ऋण स्थितियां 35. वर्ष 2008-09 के दौरान खाद्येतर बैंक ऋण (वर्ष-दर-वर्ष आधार पर) में वृद्धि अक्तूबर 2008 में शीर्ष 29.4 प्रतिशत से घटकर मार्च 2009 में 17.5 प्रतिशत रही। इस दर पर खाद्येतर ऋण विस्तार 2007-08 में 23.0 प्रतिशत से कम था, व जनवरी 2009 की तीसरी तिमाही समीक्षा में 24.0 प्रतिशत का सांकेतिक पूर्वानुमान से भी कम है। ऋण प्रवाह में वर्ष के दौरान हुए परिवर्तन विभिन्न पहलुओं की विशेषता हो सकती है। पहला, अप्रैल-अक्तूबर 2008 के दौरान बैंक ऋण के लिए मांग तीव्र गति से बढ़ी क्योंकि कंपनियों ने यह पाया कि ऋण के उनके बाह्य स्रोत बंद हो गए थे और बैंक ऋण की मांग घरेलू ऋण में स्थानांतरित हो गयी थी। दूसरा, तेल विपणन कंपनियों के लिए ऋण में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 1,146 करोड़ रुपए की कमी की तुलना में अप्रैल-अक्तूबर 2008 के दौरान 36,208 करोड़ रुपए की तीव्र वृद्धि हुई। तथापि, बाद की अवधि में सामान्यत: अर्थव्यवस्था और विशेष रूप से औद्योगिक क्षेत्र की मंदी के कारण ऋण की मांग में कमी दिखाई दी। कार्यकारी पूंजी अपेक्षाओं में भी कमी आयी क्योंकि वस्तुओं की कीमतें कम हुईं और कंपनियों के स्टाकों में गिरावट आयी। तेल विपणन कंपनियों द्वारा ऋण की मांग भी संयत रही। इसके अलावा, निजी और विदेशी बैंकों द्वारा निम्न ऋण विस्तार से वर्ष के दौरान बैंक ऋण का समग्र प्रवाह मंद पड़ गया (सारणी 11) ।
36. एलएएफ के लिए समायोजित एसएलआर प्रतिभूतियों में वाणिज्यिक बैंकों के निवेश में मार्च 2008 में एनडीटीएल के 28.4 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2009 में 26.7 प्रतिशत की बहुत थोड़ी सी कमी आयी।
38. वर्ष 2008-09 के दौरान तीन बड़े बैंक समूहों द्वारा विभिन्न क्षेत्रों के लिए ऋण प्रवाह में भी उल्लेखनीय परिवर्तन देखा गया। वर्ष 2008-09 में उद्योग के लिए सरकारी क्षेत्र के बैंकों द्वारा ऋण वृद्धि में तेजी आयी।तथापि, निजी ऋणों और सेवाओं के लिए ऋण वृद्धि में कमी आयी। सभी तीन बैंक समूहों द्वारा स्थावर संपदा के लिए ऋण में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुई जबकि छोटे उद्यमों के लिए ऋण में कमी आयी (सारणी 13) ।
वाणिज्यिक क्षेत्र के लिए संसाधनों का कुल प्रवाह 39. वर्ष 2008-09 में शुरू से अंत तक घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय पूंजी बाजार की निराशाजनक स्थिति प्रतिबिंबित होकर वाणिज्यिक क्षेत्र के लिए गैर-बैंक स्रोतों से संसाधनों का प्रवाह पिछले वर्ष की तुलना में कम था। तथापि, जनवरी 2009 के मध्य तक उच्चतम बैंक ऋण क्षतिपूर्ति गैर-बैंकों के संसाधनों में कमी करके की गई। 16 जनवरी 2009 को समाप्त पखवाड़े के आरंभ में खाद्येतर बैंक ऋण वृद्धि में पिछले वर्ष की तुलना में कमी आयी। अन्य स्रोतों से बैंक ऋण और निधियों दोनों में कमी दर्शाते हुए, वर्ष 2008-09 के दौरान बैंकों और अन्य स्रोतों से वाणिज्यिक क्षेत्र को संसाधनों का कुल प्रवाह पिछले वर्ष की तुलना में उल्लेखनीय रूप से कम रहा (सारणी 14) । ब्याज दरें 41. रिज़र्व बैंक की नीतिगत दरों में कटौती और चलनिधि की सुगम स्थिति से संकेत लेते हुए सरकारी क्षेत्र के सभी बैंकों , निजी क्षेत्र के अधिकांश बैंकों और कुछ विदेशी बैंकों ने अपनी जमा ब्याज और उधार दरें घटायीं। अक्तूबर 2008 से 18 अप्रैल 2009 के दौरान मीयादी जमा ब्याज दरों में सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने 125-250 आधार अंक, निजी क्षेत्र के बैंकों ने 75-200 आधार अंक और पांच बड़े विदेशी बैंकों ने 100-200 आधार अंकों की कटौती की। सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने अपनी बेंचमार्क मूल उधार दर 125-225 आधार अंक घटायी, जिसके बाद निजी क्षेत्र के बैंकों ने इसे 100-125 आधार अंक और पांच बड़े विदेशी बैंकों ने 100 आधार अंक घटाया (सारणी 16) । 42. जमा ब्याज दरों में कटौती तीन वर्ष तक की परिपक्वता वाली जमाराशियों में अधिक परिलक्षित हुई। सरकारी क्षेत्र के बैंक, निजी क्षेत्र के बैंक और पांच बड़े विदेशी बैंकों के बेंचमार्क मूल उधार दर के दायरे में अक्तूबर 2008 से 18 अप्रैल 2009 के दौरान गिरावट आयी (सारणी 17) ।
43. सरकारी क्षेत्र के बैंकों द्वारा बी पी एल आर में कटौती का दायरा 125-200 आधार अंक था, जिसके बाद निजी क्षेत्र के अधिकांश बैंकों ने 50-150 आधार अंक और विदेशी बैंकों ने 50 आधार अंकों की कटौती की (सारणी 18)।
45. नीतिगत दरों में परिवर्तन की प्रतिक्रियास्वरूप बाजार ब्याज दर में समायोजन कुछ विलंब से परिलक्षित हुआ। बहरहाल, ऋण बाजार में अंतरण की क्रिया कई संरचनागत कठोरता के कारण कमोबेश धीमी रही। इस संदर्भ में, बैंकों ने रिज़र्व बैंक के साथ अपनी चर्चा में निम्नलिखित अवरोध रेखांकित किए। पहला, छोटी बचतों की नियंत्रित ब्याज दर संरचना जमा ब्याज दर के लिए आधार का कार्य करती है। जमा ब्याज दरों में कटौती किए बिना बैंकों के लिए केवल नीति के संकेत के आधार पर उधार दर घटाना मुश्किल है। दूसरा, जहां बैंकों को लंबी मीयादी जमाराशि पर ‘परिवर्तनीय’ ब्याज दर देने की अनुमति है, वहीं जमाकर्ताओं को ऐसी जमाराशि पर ‘स्थिर’ ब्याज दर की विशेष प्राथमिकता होती है जिससे संविदागत संबंध में असंगति आती है। बढ़ती ब्याज दरों के इस परिदृश्य में, जहां एक ओर जमाकर्ताओं के पास अपनी वर्तमान जमा राशि के समयपूर्व आहरण और फिर इसे ऊंची ब्याज दरों पर पुन: लगाने की सुविधा होती है, वहीं दूसरी ओर ब्याज दरों में गिरावट के इस माहौल में बैंकों को इन ऊंची लागत वाली जमाराशियों को उनकी परिपक्वता तक आवश्यक रूप से जारी रखना होता है। तीसरा, 2004-07 की भांति क्रेडिट बूम के दौरान, थोक जमाराशि के लिए बैंकों के बीच प्रतिस्पर्धा अक्सर जमाराशि ब्याज दर को कठोर बनाती है, जिससे निधि की लागत बढ़ जाती है। चौथा, बैंकों के बीपीएलआर के साथ रियायती नियंत्रित उधार दर, जैसे कृषि और निर्यात के लिए, का संबंध समूचे उधार दर को कम लचीला बनाता है। पांचवाँ, सरकार द्वारा बड़ी मात्रा में बाजार से उधार लेना ब्याज दर आकांक्षाओं को कठोर बनाता है। तथापि, वास्तविक अर्थव्यवस्था के परिप्रेक्ष्य में, मांग-आधारित प्रभाव वाली मौद्रिक नीति के लिए उधार दरों को कम करना होगा। 46. बेंचमार्क मूल उधार दर में परिवर्तन पूरी तरह से उधार दरों में हुए परिवर्तन को परिलक्षित नहीं करता है। रिज़र्व बैंक के साथ नीतिपूर्व परिचर्चा के दौरान बैंकों ने बताया कि उधार दरें केवल बीपीएलआर में कटौती के परिप्रेक्ष्य में नहीं देखी जानी चाहिए क्योंकि तीन तिमाहियों से उधार दर बीपीएलआर से नीचे है जिसमें कृषि, निर्यात क्षेत्र, और सरकारी क्षेत्र के उपक्रम सहित अच्छा दर्जा प्राप्त कंपनियों को उधार देना शामिल है। भारित औसत उधार दर जो 2006-07 में 11.9 प्रतिशत थी, 2007-08 में बढ़कर 12.3 प्रतिशत (अनंतिम) हो गयी। चुनिंदा बैंकों से एकत्रित सूचना के अनुसार, अग्रिमों पर वार्षिक प्रतिफल, प्रभावी उधार दर का एक आभासी उपाय 2008-09 के दौरान लगभग 10.9 प्रतिशत था। चूंकि अधिकांश वाणिज्य बैंकों ने 2008-09 की दूसरी छमाही में अपने बीपीएलआर घटाए, अत: 2008-09 के अंत में प्रभावी उधार दर 10.9 प्रतिशत से भी कम हो सकती है। तथापि, यह नोट किया जाए कि वर्तमान जमा और उधार दरें अभी 2004-07 की तुलना में अधिक हैं, जबकि नीतिगत दरें उक्त अवधि की तुलना में कम हैं। यह प्रणाली में होनेवाली प्रतिक्रिया में शैथिल्य का द्योतक है। सरकारी क्षेत्र के बैंकों की 1-3 वर्ष परिपक्वता वाली जमा राशि दर में अक्तूबर 2008 के 9.50-10.75 प्रतिशत से अप्रैल 2009 तक 7.00-8.75 प्रतिशत की कमी मुद्रास्फीति में नरमी के अनुरूप नहीं रही है। 2004-07 के अनुभव के आधार पर कहा जा सकता है कि जमा ब्याज दर कम हो सकती है और उसे कम होना चाहिए। 47.उपर्युक्त कारकों के बावजूद, बैंकों के पास अपनी उधार संबंधी ब्याज दरों में कमी करने की गुंजाइश है। वर्तमान डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति दर शून्य के आस-पास होने की ओर इशारा करते हुए कुछ लोगों का मत है कि वास्तविक उधार संबंधी ब्याज दरें बहुत उँंची हैं। मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं के साथ-साथ, विभिन्न मूल्य सूचकांकों के बीच भिन्नता के कारण डब्ल्यूपीआई के अंक-दर-अंक परिवर्तन वास्तविक ब्याज दर के स्तरों को अतिरंजित कर रहा है। गणनात्मक चुनौतियों के बावजूद, अंतर्निहित प्रवृत्ति के आधार पर जब मुद्रास्फीति को 4.0-4.5 प्रतिशत माना गया है, वास्तविक उधार संबंधी ब्याज दरें अभी भी उंची प्रतीत होती हैं। अत: बैंकों को अपनी उधार-संबंधी ब्याज दरों को कम करने का प्रयास करना चाहिए। वित्तीय बाजार
49. 2008-09 के दौरान, व्यापार और चालू खाता घाटे के साथ-साथ पूंजी-बहिर्गमन में बढ़ोत्तरी के कारण वर्ष के दौरान बहुत ज्यादा परिवर्तनों के साथ रुपया का पाउंड स्टर्लिंग को छोड़कर सामान्यत: सभी प्रमुख मुद्राओं के समक्ष अवमूल्यन हुआ। वर्तमान वित्तीय वर्ष (17 अप्रैल 2009 तक) के दौरान रुपए का मूल्य सामान्यत: स्थिर रहा (चार्ट 2)। बाह्य क्षेत्र
52. भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षितों के प्रबंधन का समग्र दृष्टिकोण भुगतान संतुलन के बदल रहे गठन को ध्यान में रखता है और विभिन्न प्रकार के प्रवाहों और अन्य आवश्यकताओं के साथ संबंधित ‘चलनिधि जोखिमों’ को दर्शाने का प्रयत्न करता है। जैसा कि 2007-08 के दौरान पूंजी आगमन अर्थव्यवस्था की खपाने की सामान्य क्षमता से बहुत ज्यादा थी, जिसके कारण प्रारक्षित विदेशी मुद्रा में 110.5 बिलियन अमेरिकी डालर की बढ़ोत्तरी हुई। चूंकि पूंजी आगमन में तीव्रता से कमी आई है, प्रारक्षित विदेशी मुद्रा 53.7 बिलियन अमेरिकी डालर कम होकर दिसंबर 2008 के अंत तक मूल्यांकन हानि सहित 256.0 बिलियन अमेरिकी डालर पर पहुंच गई जो मार्च 2008 के अंत तक 309.7 अमेरिकी डालर थी। मूल्यांकन प्रभावों को छोड़कर अप्रैल-दिसंबर 2008 के दौरान कमी 20.4 बिलियन अमेरिकी डालर थी। भारत का विदेशी मुद्रा भंडार मार्च 2009 के अंत तक 252.0 बिलियन अमेरिकी डालर था जो 10 अप्रैल 2009 को बढ़कर 253.0 बिलियन अमेरिकी डालर हो गया। II. मौद्रिक नीति का रुझान 53. भारत में सितंबर 2008 से नीति प्रतिक्रिया का निर्माण मुख्य तौर पर भारतीय अर्थव्यवस्था पर वैश्विक वित्तीय संकट के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिये किया गया है। मौद्रिक नीति का कार्य बाहरी झटकों की तीव्रता और मात्रा से बचाव करना और वास्तविक, वित्तीय और विश्वास के माध्यम से अनुवर्ती प्रभावों को कम करना है। नीति का विकासवादी रुझान प्रगति में आती हुयी कमी को रोकते हुए वित्तीय स्थिरता रखने की आवश्यकता की बढ़ती हुई शर्त के साथ जुड़ा हुआ है। नीतिगत दरें
रुपया चलनिधि
विदेशी मुद्रा चलनिधि
विनियामक सहिष्णुता
55. सितंबर 2008 से रिज़र्व बैंक द्वारा किये गये विभिन्न नीतिगत उपायों की विस्तृत सूची अनुबंध-I में दी गई है। चलनिधि प्रभाव 57. रिज़र्व बैंक द्वारा किये गये उपायों से चलनिधि की स्थिति में काफी सुधार हुआ है। अल्पकालिक मुद्रा बाजार दरें जो सितंबर-अक्तूबर 2008 के दौरान सामान्यत: रेपो दर से ऊपर थीं, उनमें काफी कमी आई और वे नवंबर 2008 के पूर्वार्द्ध से सामान्यत: एल.ए.एफ. के सन्निकट या उसके निचले स्तर के आस-पास रहीं। अन्य मुद्रा बाज़ार दर जैसे कि सी.डी., सी.पी. और सी.बी.एल.ओ. की बट्टा दरों में भी अल्पकालिक मुद्रा बाज़ार दरों की तरह ही नरमी देखी गईं। नवंबर 2008 के मध्य से एल.ए.एफ. प्रक्रिया निवल आमेलन स्वरूप धारण किए हुए है। म्युचुअल फंडों द्वारा सामना की जा रही चलनिधि की समस्या में काफी सुधार हुआ है। अधिकतर वाणिज्यिक बैंकों ने अपनी बैंचमार्क मूल उधार दरों में कटौतियां की हैं। रिज़र्व बैंक द्वारा हाल ही में प्रारंभ की गई पुन: वित्तीयन/चलनिधि सुविधाओं के तहत कुल उपयोग; समग्र चलनिधि स्थितियों के पर्याप्त रहने के कारण कम रहा है (सारणी 22) । तथापि, उनकी उपलब्धता से बैंकों/वित्तीय संस्थानों राहत महसूस हुई है और वे आवश्यकता पड़ने पर उनका सहारा ले सकते हैं। 58. रिज़र्व बैंक के पास रेपो और रिवर्स रेपो दर, आरक्षित नकदी निधि अनुपात, सांविधिक चलनिधि अनुपात, खुला बाजार प्रचालन, बाजार स्थिरीकरण योजना और एल.ए.एफ. सहित, विशेष बाजार परिचालन और क्षेत्र-विशेष चलनिधि सुविधाओं जैसे विभिन्न साधन हैं। इसके अलावा, रिज़र्व बैंक वित्तीय स्थिरता के साथ-साथ कुछ क्षेत्रों में ऋण के प्रवाह में सामंजस्य स्थापित करने के लिये विवेकपूर्ण साधनों का भी उपयोग करता है। विविध प्रकार की लिखतों की उपलब्धता और मौद्रिक नीति को लागू करने में इन लिखतों की ग्रहणशीलता ने रिज़र्व बैंक को सक्षम बनाया है कि विश्वव्यापी अनिश्चित समष्टि आर्थिक स्थितियों के बीच में चलनिधि और ब्याज दर स्थितियों में आवश्यकतानुसार बदलाव कर सके। 61. तथापि, 2009-10 के प्रारंभ में थोक मूल्य सूचकांक की स्फीति में नकारात्मक रुझान रहने की संभावना है। तथापि, नीतिगत प्रयोजनों के लिए इसकी व्याख्या अवस्फीति के रूप में नहीं की जानी चाहिए। भारत में इस अपेक्षित नकारात्मक स्फीति का केवल सांख्यकीय महत्व है और यह मांग संकुचन को प्रकट नहीं करता, जैसा कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं के मामले में होता है। नकारात्मक ज़ोन में थोक मूल्य सूचकांक की अस्थायी स्फीति 2009-10 के मध्य के आगे विद्यमान नहीं भी रह सकती है। जैसा कि विभिन्न सूचकांकों से प्रकट है उपभोक्ता कीमत की स्थिति अपने वर्तमान उच्च स्तर से थोड़ा नरम रहेगी, लेकिन थोक मूल्य सूचकांक स्फीति के विपरीत यह 2009-10 के दौरान सकारात्मक क्षेत्र में रहेगी। इसके अलावा, यह भी ध्यान दिया जाए कि थोक मूल्य सूचकांक स्फीति में तेज गिरावट के समनुरूप ही स्फीति प्रत्याशाओं में गिरावट नहीं हुई है। 62. रिज़र्व बैंक का यह प्रयास रहेगा कि कीमतों में स्थिरता सुनिश्चित की जाए और स्फीति संभावनों पर अंकुश रहे। इस प्रयोजन के लिए रिज़र्व बैंक हमेशा की तरह सभी कीमत सूचकांकों और इनके घटकों के आचरण को ध्यान में रखेगा। मौद्रिक नीति संचालन ऐसा रहेगा कि स्फीति की स्थिति और इसके दायरे को 4.0-4.5 प्रतिशत के बीच रखा जाए, ताकि लगभग 3.0 प्रतिशत की स्फीति दर मध्यावधि का उद्देश्य बनी रहे, जो भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ व्यापक रूप से एकीकृत करने और मध्यावधि के दौरान स्वत: गतिमान संवृद्धि बनाए रखने के लक्ष्य के अनुरूप हो। मौद्रिक अनुमान समग्र मूल्यांकन 65. विभिन्न प्रकार के बड़े, आक्रामक और गैर पारम्परिक उपायों द्वारा समस्त विश्व की सरकारों और केंद्रीय बैंकों ने विद्यमान वैश्विक वित्तीय संकट पर प्रतिक्रिया की है। तथापि, इस बारे में कलहपूर्ण वाद-विवाद हो सकता है कि क्या ये उपाय पर्याप्त और समुचित हैं और सब कुछ है तो अपेक्षित परिणाम कब दिखाई देने लगेंगे। इस बात पर अलग से वाद-विवाद है कि अब तक जो उपाय किए गए हैं, क्या उनकी प्रतिक्रिया वैसी ही है जैसी अल्पावधि बाध्यताओं के प्रति रहती है, या इनसे दीर्घावधि वहनीयता में गिरावट आ रही है। आगे चलकर बहुत से कठिन मुद्दों पर विचार करना होगा। विद्यमान वित्तीय और आर्थिक संकट से निबटने और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय ढांचे को सुदृढ़ करने के लिए मौद्रिक, राजकोषीय, विनियामक और संस्थागत सुधारों के बारे में अभूतपूर्व समन्वयकारी नीतिगत कार्रवाई करनी होगी। इस संदर्भ में जी-20 के लीडरों द्वारा अप्रैल 2009 में घोषित प्रयासों में कहा गया : (i) विश्वास, संवृद्धि और नौकरियों की बहाली; (ii) कर्ज-बहाली के लिए वित्तीय प्रणाली को दुरुस्त करना; (iii) भरोसा कायम करने की लिए वित्तीय नियंत्रणों को सुदृढ़ करना; (iv) वर्तमान संकट से निपटने और भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं को निधि देना और सुधार करना; (v) समृद्धि का पुन:निर्माण करने के लिए वैश्विक व्यापार और निवेश को बढ़ावा और संरक्षणवाद का परित्याग; और (vi) समग्र, हरित और वहनीय पूर्वावस्था का निर्माण करना, जो कि वित्तीय और आर्थिक दृष्टिकोण के चारों ओर व्याप्त अनिश्चितता से निपटने में मदद करे। 66. यहां भारत में अर्थव्यवस्था के समक्ष तत्काल ही बहुत-सी चुनौतियां हैं, जिनसे आगे चलकर निपटना है। प्रथम तो यह कि उच्च संवृद्धि के पांच साल के बाद 2008-09 की पहली छमाही में भारतीय अर्थव्यवस्था में नरमी का रुख रहा। तथापि, अंतरर्राष्ट्रीय गतिविधियों के दुष्प्रभावों के कारण 2008-09 की तीसरी तिमाही में संवृद्धि में गिरावट की गति बढ़ गई। यद्यपि ऐसा लग रहा था कि संवृद्धि में यह नरमी 2008-09 की चौथी तिमाही में भी बनी रहेगी; लेकिन रिज़र्व बैंक और सरकार द्वारा तुरंत ही आक्रामक नीति बनाकर इससे बचाव किया गया। वैश्विक मांग में संकुचन के बावजूद अधिकांश देशों की तुलना में भारत में संवृद्धि की संभावनाएं लगातार अनुकूल बनी हुई हैं। यद्यपि गिरावट के दौरान अल्पावधि में सरकारी निवेश महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है, तो भी बहाली प्रक्रिया शुरू हो जाने के बाद निजी निवेश को बढ़ाना होगा। इस अवस्था में प्रधान समष्टि आर्थिक चुनौती यह है कि सकल मांग के प्रचालकों का समर्थन किया जाए ताकि अर्थव्यवस्था अपने उच्च संवृद्धि मार्ग पर वापस आ सके। 67. आगे चलकर दूसरी चुनौती यह है कि गैर-खाद्य क्षेत्र की ऋण आवश्यकताओं को पूरा किया जाए। यद्यपि 2008-09 के लिए समग्र रूप से देखें तो बैंकिंग क्षेत्र द्वारा क्रेडिट में विस्तार हुआ है, तथापि अक्तूबर 2008 में ऋण प्रवाह की गति में गिरावट आई। यह गिरावट गैर-बैंक स्वदेशी और बाह्य संसाधनों के प्रवाह में महत्वपूर्ण गिरावट के साथ-साथ रही। समस्त संसाधन प्रवाह में यह गिरावट आंशिक रूप से मांग में गिरावट, कंपनियों द्वारा उपयोग के कारण स्टॉक में गिरावट और जिंसों की कीमतों में गिरावट को प्रकट करती है। तथापि, क्रेडिट में यह विस्तार अलग-अलग क्षेत्रों में असमान रहा। इसलिए, अर्थव्यवस्था के सभी उत्पादक क्षेत्रों खासकर अति लघु, लघु और मध्यम उद्यमों को ऋण प्रवाह बढ़ाने की तत्काल जरूरत है,ताकि आर्थिक बहाली की प्रक्रिया को सहायता मिले। रिज़र्व बैंक ने प्रणाली में भरपूर नकदी बना रखी है और बनाए रखेगा। वाणिज्य बैंकों का यह प्रयास होना चाहिए कि प्रत्येक सुपात्र उधारकर्ता को सही लागत पर वित्त दिया जाए और साथ ही यह भी सुनिश्चित करें कि ऋण-गुणवत्ता बरकरार रहे। 68. यह भी ध्यान दिया जाए कि 2004-07 के दौरान बैंक ऋण में तेजी रही थी। इसे यदि 2008-09 में अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण गिरावट के साथ मिलाकर देखें तो अनर्जक आस्तियों में कुछ बढ़ोतरी हो सकती है। यद्यपि यह असामान्य नहीं है कि उच्च ऋण विस्तार और अर्थव्यवस्था में गिरावट के दौरान अनर्जक आस्तियों में बढ़ोतरी हो जाती है, तथापि चुनौती यह रहती है कि जल्दी कार्रवाई करके आस्ति गुणवत्ता को बरकरार रखा जाए। इसके लिए बैंकों का गहन दृष्टिकोण, पर्याप्त तत्परता और संतुलित निर्णय की जरूरत है। 69. तीसरा, रिज़र्व बैंक 2008-09 में केंद्र तथा राज्य सरकारों के विशाल उधार कार्यक्रम का प्रबंधन व्यवस्थित तरीके से कर पाया। वर्ष 2009-10 में केंद्र तथा राज्य सरकारों का बाजार उधार उच्चतर होने की संभावना है। इस प्रकार एक बड़ी चुनौती यह है कि 2009-10 में विशाल सरकारी उधार कार्यक्रम को सुव्यवस्थित ढंग से अंजाम दिया जाये। विशाल उधार कार्यक्रम उस निम्न ब्याज दर परिवेश के विरूद्ध कार्य करते हैं जो कि रिज़र्व बैंक बनाये रखना चाहता है ताकि मौद्रिक नीति के रुझान के अनुरूप निवेश मांग में वृद्धि हो सके। इसलिये रिज़र्व बैंक सरकारी उधार कार्यक्रम का प्रबंध करने के लिए मौद्रिक तथा ऋण प्रबंधकीय साधनों के मिश्रण का इस्तेमाल करना जारी रखेगा ताकि सरकारी उधार कार्यक्रम एक सुव्यवस्थित ढंग से पूरा किया जा सके। सरकारी प्रतिभूतियों के द्वितीयक बाजार क्रय के माध्यम से सरकार के बाजार उधार कार्यक्रम में सहायता देने के लिए रिज़र्व बैंक ने एक खुला बाजार परिचालन कैलेंडर की घोषणा पहले ही कर दी है। वर्ष 2009-10 की पहली छमाही में, नियोजित खुला बाजार परिचालन क्रय तथा बाजार स्थिरीकरण के प्रभाव से 1,20,000 करोड़ रुपए की प्राथमिक चलनिधि की वृद्धि होगी जिसका मौद्रिक प्रभाव प्रारक्षित नकदी निधि में 3.0 प्रतिशत की कमी करने जैसा है। इससे बैंकों को ऋण का विस्तार करने के लिए पर्याप्त संसाधन उपलब्ध होंगे। 70. चौथा, भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने एक और चुनौती राजकोषीय समेकन प्रक्रिया को फिर से स्थापित करने की है। सरकार द्वारा किये गये राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेजों तथा कुछ और उपायों से राजस्व तथा राजकोषीय घाटों में काफी वृद्धि हुई है जिसके चलते निजी निवेश में कमी के कारण आर्थिक गतिविधि की गति में कमी आयी है। लेकिन राजकोषीय प्रोत्साहन को व्यवस्थित रूप से लागू करने और विश्वसनीय राजकोषीय समेकन के मार्ग पर लौटने में एक बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा। इस संदर्भ में, अर्थव्यवस्था के निष्पादन पर कड़ी निगरानी और प्रभाव की प्रक्रिया के यथोचित क्रम को सुनिश्चित करना होगा। 71. पांचवां, हमारी वित्तीय स्थिरता को बरकरार रखना एक चुनौती बना हुआ है। रिज़र्व बैंक ऐसी परिस्थितियां बनाए रखेगा जो वैश्विक संकट के बावजूद वित्तीय स्थिरता के लिए सहायक हैं। वित्तीय स्थिरता के लिए एक मजबूत बैंकिंग क्षेत्र, सुचारू रूप से काम कर रहे वित्तीय बाजार तथा मजबूत भुगतान और निपटान संबंधी बुनियादी सुविधाओं का होना जरूरी है। भारत में बैंकिंग क्षेत्र मजबूत है, पर्याप्त रूप से पूंजीकृत है और भलीभांति विनियमित है। हर प्रकार से, विश्व के बहुत से देशों की तुलना में, भारतीय वित्तीय और आर्थिक परिस्थितियां बेहतर हैं। वित्तीय क्षेत्र आकलन के संबंध में समिति की रिपोर्ट (अध्यक्ष: डॉ.राकेश मोहन तथा सह-अध्यक्ष: श्री अशोक चावला) के एक भाग के रूप में किये गये एकल फैक्टर दबाव परीक्षणों से यह पता चलता है कि भारत की बैंकिंग प्रणाली, ऋण की गुणवत्ता, ब्याज दर और चलनिधि परिस्थितियों में विशाल संभावित परिवर्तनों के कारण हुए बड़े आघातों को भी सहन कर सकती है। ऋण, बाजार और चलनिधि जोखिम के संबंध में किये गये यह दबाव परीक्षण दिखलाते हैं कि सामान्यतया भारतीय बैंक गतिशील हैं। 72. छठां, रिज़र्व बैंक ने सितंबर 2008 के मध्य से प्रणाली में काफी चलनिधि उपलब्ध करायी है। उसने प्रारक्षित नकदी निधि में काफी कमी की है और कुछ क्षेत्रों को ऋण प्रवाह में वृद्धि करने के लिए क्षेत्र-विशेष सुविधाएं उपलब्ध करायी हैं। बाजार को सहज बनाने के लिए इन सुविधाओं की अवधि बढ़ायी गयी है। रिज़र्व बैंक अर्थव्यवस्था की उत्पादक आवश्यकताओं के लिए सहायता देना जारी रखेगा लेकिन यह भी सुनिश्चित करेगा कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास में गति आती हैं तो प्रणाली में उपलब्ध करायी गयी विशाल चलनिधि को सुव्यवस्थित ढंग से निकाला जाए। यह ध्यान में रखा जाए कि रिज़र्व बैंक द्वारा मौद्रिक सहजता के कारण प्रणाली में काफी चलनिधि आयी है लेकिन समग्र स्तर पर यह हमारे मौद्रिक समग्रों के विरूद्ध नहीं है जैसा कि कई उन्नत देशों में होता है। इस प्रकार, इसके प्रभाव की चुनौती उतनी विघ्नकारी नहीं होगी जितनी कि कई देशों के लिए है। 73. अंत में, हमें ऐसा ब्याज दर परिवेश सुनिश्चित करना होगा जो निवेश मांग में वृद्धि करे। अक्तूबर 2008 से मुद्रास्फीति दर में कमी आयी है और नीतिगत दरों में भी कमी आयी है, बाजार ब्याज दरें भी नीचे आयी हैं। लेकिन अवधि तथा बाजारों में ब्याज दरों में कमी एकसमान नहीं है। लागत तथा मूल्यन ढाँचे को दृष्टिगत रखते हुए बैंक अपनी उधार दरों को कम करने में सुस्त रहे हैं और इसका कारण वे जमाराशियों की उच्च लागत का होना बतलाते हैं। इस संदर्भ में यह ध्यान रखा जाए कि 2004-07 की तुलना में वर्तमान जमा और उधार दरें उच्चतर हैं हालांकि अब नीतिगत दरें कम हैं। जमा दरों में कमी लागत को केवल मार्जिन पर प्रभावित करती है क्योंकि वर्तमान आवधिक जमाराशियां उसी स्तर पर हैं जो कि मूल रूप में संविदागत लागत पर थीं। इसलिये उधार दरें समायोजित होने के लिए कुछ अधिक समय लेती हैं। वर्ष 2004-07 के अनुभव से हम यह कह सकते हैं कि जमाराशि दरों में कमी की गुंजाइश हैं। थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति के लगभग शून्य पर आ जाने, भले ही कुछ समय के लिए नकारात्मक हो जाने, तथा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति के कम हो जाने के चलते, स्फीतिकारक जोखिमों में स्पष्ट रूप से कमी आयी है। रिज़र्व बैंक का अब यह अनुमान है कि थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति मार्च 2010 के अंत तक लगभग 4.0 प्रतिशत होगी। बैंकों के अनुसार छोटी बचत दर बैंकों की जमाराशि ब्याज दर के लिए न्यूनतम दर का काम करती हैं। लेकिन यह ध्यान रखा जाए कि छोटी बचतें और बैंक जमाराशियां एक दूसरे का पूरा स्थान नहीं ले सकतीं। इसलिये बैंकों को इस बात को लेकर बहुत चिंतित नहीं होना चाहिए कि जमाराशियों पर ब्याज दरें कम कर देने से उन्हें छोटी बचतों से प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ेगा, इसलिए कि समग्र प्रणालीगत चलनिधि बहुत सहज है। रिज़र्व बैंक द्वारा पहले ही से नीतिगत दर को सहज कर देने से ब्याज दरों में कमी करने की गुंजाइश है। इस प्रक्रिया को मजबूत करने के लिए नीतिगत दरों के संबंध में अब और कार्रवाई की जा रही है। नीति का रुझान
75. पिछले कुछ महीनों में, रिज़र्व बैंक सक्रिय रूप से ऐसी नीतिगत कार्रवाई करता रहा है जिससे कि भारत पर वैश्विक संकट का प्रभाव न्यूनतम हो। रिज़र्व बैंक की नीति के कारण हमारे वित्तीय बाजार सामान्य रूप से कार्य कर रहे हैं और विकास में कमी पर नियंत्रण रखा गया है। संकट के प्रभाव को न्यूनतम रखने के लिए तथा मूल्य और वित्तीय स्थिरता के साथ-साथ उच्च वृद्धि प्राप्त करने के उद्देश्य से रिज़र्व बैंक सजग रहेगा, देशी तथा वैश्विक गतिविधियों पर निगरानी रखेगा तथा प्रभावी और त्वरित उपाय करेगा। III. मौद्रिक उपाय बैंक दर रिपो दर
रिवर्स रेपो दर
79. परिस्थितियों के अनुसार, रिज़र्व बैंक नियत दर या परिवर्तनीय दरों पर रेपो/रिवर्स रेपो नीलामियां आयोजित करेगा। 80. बाजार की परिस्थितियों तथा अन्य संगत बातों के आधार पर, रिज़र्व बैंक को यह विकल्प होगा कि चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत एक दिवसीय या अधिक अवधि के रेपो/रिवर्स रेपो आयोजित करे। रिज़र्व बैंक को यह स्वतंत्रता होगी कि दैनिक चलनिधि प्रबंधन में एलएएफ के कुशल उपयोग के लिए, आवश्यक समझे जाने पर, चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत किसी निविदा/निविदाओं को आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से स्वीकार या अस्वीकार कर दे। आरक्षित नकदी निधि अनुपात पहली तिमाही समीक्षा भाग ख. विकासात्मक और विनियामक नीतियां 2009-10 83. वित्तीय क्षेत्र की नीतियों का प्रमुख उद्देश्य आर्थिक वृद्धि की प्रक्रिया को मूल्य और वित्तीय स्थिरता के अनुरूप सहायता प्रदान करना है। इस परिप्रेक्ष्य में, रिज़र्व बैंक ऋण सुपुर्दगी में सुधार लाने, वित्तीय बाजारों का विकास करने तथा वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित करता रहा है। अंतर्राष्ट्रीय रूप से, वित्तीय मध्यस्थता प्रक्रिया निरंतर चल रहे वित्तीय संकटों के कारण उल्लेखनीय रूप से प्रभावित हुई है। इसके फलस्वरूप, विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय निकाय और वित्तीय बिचौलिए वैश्विक वित्तीय बाजारों की कार्यपद्धति में सामान्य स्थिति को पुन: स्थापित करने के लिए वित्तीय विनियामक ढांचे में परिवर्तन करने और वित्तीय स्थिरता को सुदृढ़ बनाने का विचार कर रहे हैं। विनियामक ढ़ांचे के एक ऐसे उचित डिज़ाइन पर निरंतर बड़े पैमाने पर विचार किया जा रहा है जिससे जोखिमों को कम करने के साथ-साथ ऋण प्रवाह को प्रोत्साहन मिलेगा। देशी स्तर पर, हालांकि, विशेष रूप से वर्ष 2008-09 की दूसरी छमाही में ऋण वृद्धि में कुछ कमी आयी है, और बैंकिंग प्रणाली स्वाभाविक रूप से स्वस्थ रही है और अंतर-बैंक बाजार सहित वित्तीय बाजारों के कार्य-कलाप सामान्य रूप से चल रहे हैं। इस बात के होते हुए भी, वैश्विक वित्तीय संकट के आने से यद्यपि भारत वैश्विक संकट के दायरे से बाहर है, फिर भी, विनियमन और पर्यवेक्षण को और मज़बूत बनाने की बात और महत्वपूर्ण हो जाती है। I. वित्तीय स्थिरता 84. वर्तमान संकट के कारण वैश्विक स्तर पर एक अभूतपूर्व समन्वित रूप में कई पहलें की जा रही हैं ताकि संकट से निपटा जा सके और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय ढांचे को मजबूत बनाया जा सके (बॉक्स)।
बॉक्स: अंतर्राष्ट्रीय सहकारिता - हाल में की गई पहलें वित्तीय प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रस्ताव तैयार करने हेतु हाल ही में कई अंतर्राष्ट्रीय पहलें की गई हैं। इस संबंध में की गई प्रमुख पहलें निम्नानुसार थीं
II. ब्याज दर नीति (क) बीपीएलआर प्रणाली : समीक्षा
(ख) बचत बैंक खातों पर एक दैनंदिन उत्पाद आधार पर ब्याज का भुगतान
III. वित्तीय बाजार
(ख) विशेष सावधि रिपो सुविधा: विस्तार 90. रिज़र्व बैंक ने सितंबर 2008 में बैंकों के लिए उनकी निवल और माँग देयताओं के 1.5 प्रतिशत तक सांविधिक चलनिधि अनुपात के रखरखाव में छूट के माध्यम से एक विशेष 14 दिवसीय सावधि रिपो सुविधा का प्रारंभ किया ताकि बैंक पारस्परिक निधियों की, गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और आवास वित्त कंपनियों की चलनिधि आवश्यकताओंं को पूरा कर सकें । विशेष 14 दिवसीय सावधि रेपो के लिए नीलामी दैनिक आधार पर की जाती है। समीक्षा करने पर यह प्रस्ताव किया जाता है क:
(ग) निर्यात ऋण पुनर्वित्त : समीक्षा
घ) मुद्रा बाज़ार पारस्परिक निधियां 92. पारस्परिक निधियों, विशेष रूप से मुद्रा बाज़ार पारस्परिक निधियों द्वारा हाल ही में अनुभव किए गए चलनिधि दबाव, प्राथमिक रूप से बैंकों के चालू खातों जैसी प्रतिदान सुविधाएं देते हुए, बड़ी कंपनियों और बैंकों से भारी मात्रा में संसाधन जुटाने के कारण हुआ था। इस संबंध में, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने चलनिधि जोखिमों को कम करने के लिए कई उपाय अपनाए। ऐसी निधियों की गतिविधियों के प्रणालीगत निहितार्थ को देखते हुए यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
(ङ) ब्याज दर फ्यूचर्स 93. मुद्रा, विदेशी मुद्रा और सरकारी प्रतिभूतियों के बाज़ार के लिए तकनीकी परामर्शदात्री समिति(टीएसी) ने अगस्त 2008 में ब्याज दर फ्यूचर्स के लिए कार्यकारी दल (अध्यक्ष : श्री वी.के.शर्मा) की रिपोर्ट जारी की। कार्यदल ने अन्य बातों के साथ-साथ यह सिफारिश की कि 10 वर्षीय नोशनल कूपन बियरिडग सरकारी बॉन्ड पर आधारित वास्तविक रूप में निपटाई गई संविदा की शुरुआत की जाए। रिज़र्व बैंक ने ब्याज दर फ्यूचर्स में बैंकों को पहले ही ट्रेडिंग पोजीशन लेने की अनुमति दे दी है। भारतीय रिज़र्व बैंक-सेबी स्थायी तकनीकी समिति ने प्रारंभिक कार्य पूरा कर लिया है और 10 वर्षीय नोशनल कूपन बियरिडग सरकारी बांडों पर शेयर बाजार में सौदा किए गए ब्याज दर फ्यूचर्स शीघ्र ही प्रारंभ होने की अपेक्षा है। सरकारी प्रतिभूति बाज़ार (क) केद्र सरकार प्रतिभूतियां (i) अस्थिर दर वाले बांड 94. सितंबर 2004 तक भारत सरकार द्वारा जारी किए गए परिवर्तनशील दर वाले बॉन्डों को 364-दिवसीय खज़ाना बिलों से प्राप्त अधिकतम अर्जन के साथ जोड़ा गया था; जिससे द्वितीयक बाजार में एफआरबी के कीमत निर्धारण से संबंधित कुछ समस्याएं पैदा हुईं। इस अनुभव को ध्यान में रखते हुए बाजार सहभागियों तथा मुद्रा, विदेशी मुद्रा तथा सरकारी प्रतिभूति बाजारों से संबंधित तकनीकी सलाहकार समिति के परामर्श से इस संरचना में संशोधन किया गया है। संशोधित संरचना में यह अभिकल्पना की गई है कि : (i) नीलामी का आधार पहले से चले आ रहे ‘प्रति अर्जन आधारित’ प्रक्रिया के स्थान पर ‘कीमत आधारित’ प्रक्रिया होनी चाहिए; और (ii) एफआरबी से होने वाले मूलभूत उपार्जन को 182-दिवसीय खज़ाना बिल के कट-ऑफ उपार्जन के साथ सम्बद्ध किया जाए। इस संशोधित संरचना से अपेक्षित है कि द्वितीयक बाजार में एफआरबी के कीमत निर्धारण की क्रियाविधि सरल हो जाएगी। एफआरबी के लिए संशोधित निर्गमन संरचना को नेगोशियेटेड डीलिंग सिस्टम (एनडीएस) में शामिल किया जा चुका है और इसकी नीलामी का प्रारूप भारतीय समाशोधन निगम लि. द्वारा तैयार किया जा रहा है। 95. केंद्र सरकार की प्रतिभूतियों के निर्गमन हेतु सूचक कैलेंडर में एफआरबी के निर्गमन का प्रावधान किया गया है। तदनुसार :
(ii) भारत सरकार की प्रतिभूतियों के नीलामी की प्रक्रिया 96. अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में निर्दिष्ट किये अनुसार आंतरिक कार्यदल (अध्यक्ष: एच.आर.खान) जिसमें रिज़र्व बैंक शामिल है, की सिफारिशें, जैसे बोली प्रस्तुत करने और नीलामी के परिणामों घोषणा के बीच के बीच समय के अंतर को कम करना, आदि पहले ही कार्यान्वित हो गई हैं। कार्यदल की अन्य सिफारिशें जैसे (i) भौतिक रूप से बोली प्रस्तुत करने की सुविधा को हटाना और केवल एनडीएस के माध्यम से प्रतिस्पर्धात्मक बोली प्रस्तुत करना; (ii) गैर प्रतिस्पर्धात्मक बोलियों के संबंध में बैंक/प्राथमिक व्यापारी द्वारा इसके सभी घटकों की ओर से एक एकल समेकित नीलामी-बोली को प्रस्तुत करना, इसको भारत सरकार द्वारा विशेष अधिसूचना में और गैर प्रतिस्पर्धात्मक बोली की सुविधा के लिए योजना में संशोधन करने के बाद कार्यान्वित किया जा सकेगा। (iii) भारत सरकार को अर्थोपाय अग्रिम : स्थिति 97. रिज़र्व बैंक ने भारत सरकार के परामर्श से वित्तीय वर्ष 2009-10 के लिए अर्थोपाय अग्रिमों की वर्तमान सीमाओं को संशोधित किया है। संशोधित व्यवस्थाओं के अनुसार अर्थोपाय अग्रिम सीमाएं अर्धवार्षिक आधार पर निर्धारित की जाती रहेंगी और वर्ष 2009-10 की पहली छमाही के लिए 20,000/- करोड़ रुपये और दूसरी छमाही के लिए 10,000/- करोड़ रुपये रहेंगी। अर्थोपाय अग्रिमों और ओवरड्राफ्टों के लिए अनुमेय ब्याज दर, वर्तमान परिपाटी की तरह, आगे भी रेपो दर से सम्बद्ध रहेगी। तथापि, भारतीय रिज़र्व बैंक ने वर्तमान परिस्थितियों पर ध्यान देते हुए भारत सरकार के साथ परामर्श करते हुए सीमाओं को संशोधित करने का लचीलापन कायम रखा है। (ख) राज्य सरकारों के लिए ऋण प्रबंध (i) राज्य विकास ऋणों की नीलामी में गैर-प्रतिस्पर्धात्मक नीलामी बोलियां : स्थिति 98. राज्य विकास ऋणों के लिए निवेशक-आधार बढ़ाने और चलनिधि में वृद्धि करने के लिए 20 जुलाई, 2007 को सभी राज्य सरकारों द्वारा राज्य विकास ऋणों की नीलामी में गैर प्रतिस्पर्धात्मक बोलियों के लिए एक योजना अधिसूचित की गई। अक्तूबर 2008 में मध्यावधि समीक्षा की घोषणा के बाद एसडीएल की नीलामी में गैर-प्रतिस्पर्धी बोलियों की व्यवस्था करने के लिए सीसीआइएल द्वारा तैयार किए गए एनडीएस नीलामी प्लेटफार्म में आवश्यक बदलाव किए जा चुके हैं। 99. राज्य विकास ऋणों में गैर प्रतिस्पर्धात्मक बोलियों की योजना को वर्तमान वित्तीय वर्ष के दौरान कार्यशील बना दिया जाएगा। 100. वर्ष 2009-10 के लिए सामान्य अर्थोपाय अग्रिम की राज्य-वार सीमाओं के निर्धारण में वर्ष 2008-09 के लिए निर्धारित सीमाओं को अपरिवर्तित रखा गया है। तदनुसार, राज्य सरकारों के लिए सकल सामान्य अर्थोपाय अग्रिम सीमाएं, 9,925 करोड़ रुपये रखी गई हैं जिसमें पुडुचेरी संघ शासित क्षेत्र की सरकार के लिए 50 करोड़ रुपये की अर्थोपाय अग्रिम सीमा भी शामिल है। उक्त योजना की अन्य शर्तें अपरिवर्तित रहेंगी। (ग) बाज़ार के लिए बुनियादी सुविधाओं का विकास (i) प्रतिभूतियों के लिए निबद्ध ब्याज और मूलधन हेतु अलग से ट्रेडिंग (स्ट्रिप्स) 101. स्ट्रिपिंग ऐसी प्रक्रिया है जिसमें आवधिक कूपन भुगतान और वर्तमान सरकारी प्रतिभूतियों के मूलधन को व्यापार योग्य जीरो कूपन प्रतिभूतियों में परिवर्तित किया जाता है, अर्थात्, प्रतिभूतियों के लिए निबद्ध ब्याज और मूलधन की अलग से ट्रेडिंग। सावधी संरचना में सभी स्थानों पर स्ट्रिप्स की उपलब्धता होगी तो सरकारों के लिए जीरो-कूपन आय-वक्र तैयार करने में सहायता मिलेगी। अप्रैल 2008 के वार्षिक नीति वक्तव्य में दर्शाये गये अनुसार स्ट्रिप्स की शुरुआत के लिए परिचालनात्मक व्यवस्थाएं तैयार हैं। स्ट्रिप्स की शुरूआत के लिए जरूरी सॉफ्टवेयर तैयार करने का काम रिज़र्व बैंक के लोक ऋण कार्यालय - एनडीएस (पीडीओ-एनडीएस) के प्लेटफॉर्म के एक भाग के रूप में किया जा रहा है। इसके अलावा, स्ट्रिप्स में पर्याप्त मात्रा/चलनिधि सुनिश्चित करने के प्रयोजन से और स्ट्रिप्स कूपनों की चिरकालिकता को देखते हुए ऐसी प्रतिभूतियों को अभिनिर्धारित किया गया है जो बाजार-सहभागियों द्वारा स्ट्रिपिंग/ पुनर्गठन के योग्य हैं। तदनुसार:
(ii) रिपो लेखांकन में संशोधन 102. रिज़र्व बैंक द्वारा 2003 में रेपो सौदों के लिए लेखांकन मानदंड निर्धारित किए गए थे, जिनमें रेपो को दो स्वतंत्र आउटराइट सौदे के एक सेट के रूप में माना गया है। भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 में 2006 में संशोधन के पश्चात, रेपो को ऐसी लिखत के रूप में परिभाषित किया गया है जो प्रतिभूतियों का विक्रय करके उधार लेने के लिए है। तदनुसार, लेखांकन दिशानिर्देशों में संशोधन का प्रस्ताव किया गया ताकि रेपो की आर्थिक मूलभावना समर्थक आधार वाले उधार लेने और उधार देने वाली लिखत के रूप में रहे न कि आउट राइट क्रय-विक्रय की लिखत के रूप में। तदनुसार, प्रस्ताव किया जाता है कि :
(iii) सरकारी प्रतिभूतियों में मल्टी-माडल निपटान : स्थिति 103. अप्रैल 2008 के वार्षिक नीति वक्तव्य में उल्लेख किए गए अनुसार वाणिज्य बैंकों के जरिए नई निपटान प्रणाली (मल्टी-माडल निपटान) शुरू की गई है जिससे रिज़र्व बैंक के पास चालू खाता न रखनेवाले म्यूच्युअल फंड जैसी संस्थाओं के लिए सरकारी प्रतिभूति बाजार में सीधे ही भाग लेने में सुविधा हो सके। नई प्रणाली के अंतर्गत जहां प्रतिभूति भाग का निपटान रिज़र्व बैंक के पास बनाए रखे एसजीएल खाते में होना जारी रहेगा वहीं निधि भाग का निपटान सीसीआइएल द्वारा नियुक्त नामित निपटान बैंकों (डीएसबी) के द्वारा किया जाएगा। इस संबंध में दिशानिर्देश 2 जून 2008 को जारी किए गए हैं। 30 जून 2008 से आगे गौण बाजार लेनदेनों में एमएफ द्वारा किया जा रहा सरकारी प्रतिभूतियों के लेनदेन का निपटान केवल इसी प्रणाली द्वारा किया जा रहा है। 104. मल्टी माडल निपटान की सुविधा का लाभ बीमा कंपनियों, पेंशन फंडों और को-आपरेटिव बैंकों जैसी बैंकों से इतर अन्य संस्थाओं द्वारा भी लिया जा सकता है जो रिज़र्व बैंक के पास चालू खाता नहीं रखती हैं। (iv) ओटीसी रुपया ब्याज दर डेरिवेटिव का समाशोधन और निपटान : स्थिति 105. अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किए गए अनुसार सीसीआइएल ने 27 नवंबर 2008 से गैर-जमानती आधार पर काउंटर पर (ओटीसी) रुपया ब्याज दर डेरिवेटिव के समाशोधन और निपटान की व्यवस्था कार्यान्वित की है। मार्च 2009 के अंत में 13 सदस्यों ने ओटीसी रुपया ब्याज दर डेरिवेटिव के गैर-जमानती निपटान में भाग लेने का निर्णय लिया है। ओटीसी रुपया ब्याज दर डेरिवेटिव के लिए व्यापार रिपोर्टिंग प्लॅटफार्म पहले से ही कार्यरत है। (v) कारपोरेट बांडों में ओटीसी व्यापारों का निपटान 106. सुपुर्दगी बनाम भुगतान (डीवीपी) - I आधार (अर्थात व्यापार - दर - व्यापार आधार) पर साथ-साथ सकल निपटान (आरटीजीएस) प्रणाली में ओटीसी कारपोरेट बांड लेनदेनों के निपटान में सुविधा प्रदान के लिए सेबी के साथ परामर्श करके यह निर्णय किया गया है कि शेयर बाजारों के समाशोधन गृहों को रिज़र्व बैंक के पास ट्रांजिटरी पूलिंग खाता रखने की सुविधा दी जानी चाहिए। प्रस्तावित निपटान प्रणाली धके अधीन प्रतिभूतियों का खरीदार आरटीजीएस के द्वारा इस ट्रांजिटरी खाते में अपने बैंक से निधियों का अंतरण करेगा। उसके बाद समाशोधन गृह विक्रेता के खाते से खरीदार के खाते में प्रतिभूतियों का अंतरण करेगा और ट्रांजिटरी खाते से जारी निधि विक्रेता के खाते में जमा करेगा। विदेशी मुद्रा बाजार (क) समग्र लागत सीमा छूट में विस्तार 107. प्रचलित ईसीबी नीति के अनुसार ईसीबी के लिए समग्र लागत सीमा इस प्रकार हैं : ऐसी ईसीबी जिनकी औसत परिपक्वता अवधि तीन वर्ष और पांच वर्ष तक है के लिए लिबोर और 300 बीपीएस; ऐसी ईसीबी जिनकी औसत परिपक्वता पांच वर्ष से अधिक है के लिए लिबोर और 500 बीपीएस। तथापि, ये समग्र लागत सीमाएं इस शर्त के अधीन 30 जून 2009 तक हटानी हैं कि निर्धारित समग्र लागत सीमा से अधिक के ईसीबी प्रस्ताव के लिए अनुमोदन लेना होगा फिर चाहे उधार की राशि कुछ भी क्यों न हो। अंतरराष्ट्रीय बाजारों में क्रेडिट स्प्रेड के संकुचन को ध्यान में रखते हुए यह प्रस्ताव है कि :
(ख) एफसीसीबी की पुनर्खरीद संबंधी नीति का उदारीकरण 108. भारतीय कंपनियों तथा साथ ही अर्थव्यवस्था को हो रहे लाभ को स्वीकार करते हुए एफसीसीबी की अवधि - पूर्व पुनर्खरीद संबंधी नीति को दिसंबर 2008 में उदार किया गया। भारतीय कंपनियों द्वारा एफसीसीबी की पुनर्खरीद के प्रस्ताव पर अनुमोदन और स्वचालित रूट दोनों प्रणालियों के अधीन विचार किया जाता है बशर्ते पुनर्खरीद का वित्तपोषण भारत अथवा विदेश में धारित उनके विदेशी मुद्रा संसाधनों में से और / अथवा प्रचलित ईसीबी मानदंडों के अनुरूप जुटाए गए नए ईसीबी में से तथा प्रति कंपनी 50 मिलियन अमेरिकी डालर के शोधन मूल्य तक आंतरिक संचित राशि में से किया जाए। एफसीसीबी की पुनर्खरीद की समग्र क्रियाविधि 31 दिसंबर 2009 तक पूर्ण करना आवश्यक है और रिज़र्व बैंक को पुनर्खरीद के ब्योरे की सूचना देना भी आवश्यक है। 109. रिज़र्व बैंक विद्यमान मानदंडों के अनुसार प्रति कंपनी 50 मिलियन अमेरिकी डालर के शोधन मूल्य तक आंतरिक संचित राशि में से एफसीसीबी की पुनर्खरीद के लिए भारतीय कंपनियों द्वारा अंकित मूल्य पर 25 प्रतिशत के न्यूनतम डिस्काउंट पर किए गए प्रस्तावों पर अनुमोदन रूट के अंतर्गत विचार कर रहा है। रिज़र्व बैंक ने 15 अप्रैल 2009 तक एफसीसीबी की पुनर्खरीद के 18 प्रस्तावों को अनुमोदन दिया है जिसमें 25 प्रतिशत से 50 प्रतिशत तक के डिस्काउंट की सीमा में निहित राशि 765 मिलियन अमेरिकी डालर है। 110. वर्तमान नीति की समीक्षा की गई है। भारतीय कंपनियों को होनेवाले लाभों को ध्यान में रखते हुए ऐसा प्रस्ताव है कि पुनर्खरीद की उच्चतर राशि को भारी डिस्काउंट के साथ संबद्ध करते हुए प्रति कंपनी 50 मिलियन अमेरिकी डालर के शोधन मूल्य से बढ़ाकर 100 मिलियन अमेरिकी डालर करते हुए आंतरिक संचित राशि से अनुमत पुनर्खरीद की कुल राशि को बढ़ाया जाए। तदनुसार :
(ग) अनिवासी जमा के आधार पर ऋण 111. विद्यमान मानदंडों के अनुसार प्राधिकृत व्यापारी श्रेणी - I और प्राधिकृत बैंकों को अनिवासी (बाह्य) रुपया खाता और विदेशी मुद्रा अनिवासी (बैंक) जमा में धारित निधियों की जमानत के आधार पर 20 लाख रुपए तक के ऋण मंजूर करने की अनुमति दी गई है। समीक्षा करने पर ऐसा प्रस्ताव किया गया है कि :
(घ) करेंसी प्यूचर्स 112. सितंबर 2008 में पहला करेंसी प्यूचर्स एक्सचेंज शुरू हो जाने के बाद से तीन मान्यताप्राप्त एक्सचेंज में करेंसी प्यूचर्स के लेनदेन हो रहे हैं। सभी एक्सचेंज में किए जानेवाले करेंसी प्यूचर्स के सौदों की औसतन दैनिक मात्रा सितंबर 2008 के 260 करोड़ रुपए से बढ़कर दिसंबर 2008 में 2,181 करोड़ रुपए हो गई और मार्च 2009 में और बढ़कर 5,235 करोड़ रुपए हो गई। एक्सचेंज के कार्यों की समीक्षा रिज़र्व बैंक - सेबी स्थायी तकनीकी समिति द्वारा की जा रही है। समिति की सिफारिश पर ग्राहकों और ट्रेडिंग सदस्यों के संबंध में स्थिति की सीमाएं दुगनी हो गई हैं जो क्रमश: 5 मिलियन अमेरिकी डालर और 25 मिलियन अमेरिकी डालर से बढ़कर 10 मिलियन अमेरिकी डालर और 50 मिलियन अमेरिकी डालर हो गई है। तथापि ग्राहक और ट्रेडिंग सदस्यों के संबंध में टोटल ओपन इंटरेस्ट की 6 प्रतिशत और 15 प्रतिशत की उच्चतर सीमा अपरिवर्तित है। बैंक के लिए स्थिति की सीमा टोटल ओपन इंटरेस्ट के 15 प्रतिशत अथवा 100 मिलियन अमेरिकी डालर, इसमें से जो भी अधिक है बनी रहेगी। IV. ऋण वितरण प्रणाली और अन्य बैंकिंग सेवाएं (क) एमएसई क्षेत्र के लिए ऋण प्रवाह 113. अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किए गए अनुसार रिज़र्व बैंक ने बीमार एसएमई के पुनर्वास के लिए कार्य दल नियुक्त किया है (अध्यक्ष : डॉ. के.सी.चक्रवर्ती)। कार्य दल ने कई उल्लेखनीय सिफारिशे की हैं जो केवल बीमार एसएमई की पुनर्वास के विषय से नहीं बल्कि एसएमई क्षेत्र को ऋण प्रवाह के व्यापक मामले और अन्य विकासात्मक विषयों से संबंधित हैं। जिन सिफारिशों पर भारत सरकार, राज्य सरकार और सिडबी को कार्रवाई शुरू करनी है वे उन्हें प्रेषित की जा रही हैं, प्रस्ताव है कि :
114. रोजगार, उत्पादन और निर्यात की दृष्टि से महत्वपूर्ण माइक्रो और लघु उद्यम (एमएसई) क्षेत्र को ऋण प्रवाह बढ़ाने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए प्रस्ताव है कि :
(ख) ग्रामीण सहकारी बैंक (i) सहकारी बैंकों को लाइसेंस देना 115. वित्तीय क्षेत्र मूल्यांकन संबंधी समिति (अध्यक्ष : डॉ. राकेश मोहन और सह - अध्यक्ष: श्री अशोक चावला) ने पाया है कि सहकारी क्षेत्र में केवल लाइसेंसीकृत बैंक परिचालन में है इसे सुनिश्चित करने के लिए रूपरेखा बनाने की आवश्यकता है। साथ ही, समिति ने सुझाव दिया है कि जो बैंक 2012 तक लाइसेंस प्राप्त नहीं करते हैं उन्हें परिचालन में रहने की अनुमति न देने के लिए रूपरेखा तैयार करने की आवश्यकता है। इससे सहकारी क्षेत्र के समेकन और असक्षम संस्थाओं को कम करने की प्रक्रिया में शीघ्रता आएगी। तदनुसार प्रस्ताव है कि :
(ii) ग्रामीण सहकारी ऋण ढांचे का पुनरुत्थान : स्थिति 116. अप्रैल 2008 के वार्षिक नीति वक्तव्य में उल्लेख किए गए अनुसार भारत सरकार ने ग्रामीण सहकारी ऋण संस्थाओं संबंधी कार्य दल (अध्यक्ष : प्रोफेसर ए.वैद्यनाथन) की सिफारिशों के आधार पर अल्पावधि सहकारी ऋण ढांचे के पुनरुत्थान के लिए पैकेज अनुमोदित किया है । अब तक, पैकेज में दिए गए अनुसार, 25 राज्यों ने भारत सरकार और नाबार्ड के साथ समझौता ज्ञापन (एमओयू) निष्पादित किया है। आठ राज्यों ने अपने सहकारी समिति अधिनियमें में आवश्यक संशोधन किए हैं। 28 फरवरी 2009 को आठ राज्यों में प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (पीएसीएस) के पुनर्पूंजीकरण के लिए भारत सरकार के अंश के रूप में नाबार्ड द्वारा 4,740 करोड़ रुपए की कुल राशि जारी की गई है। आठ राज्य सरकारों ने पीएसीएस के पुनर्पूंजीकरण के लिए 459 करोड़ रुपए के अपने अंश जारी किए हैं। भारत सरकार द्वारा स्थापित राष्ट्रीय कार्यान्वयन और निगरानी समिति (एनआइएमसी) अखिल भारतीय आधार पर पुनरुज्जीवन पैकेज के कार्यान्वयन का दिशानिर्देशन और निगरानी कर रही है।
(ii) वित्तीय समावेशन के लिए आइसीटी समाधान अपनाने हेतु आरआरबी की सहायता: स्थिति
(iii) आरआरबी का समामेलन (iv) आरआरबी का पुनर्पूंजीकरण 120. केंद्रीय बजट 2007-08 में घोषित किया गया कि आरआरबी, जिनकी निवल हैसियत ऋणात्मक हो गई हैं, का पुनर्पूंजीकरण चरणबद्ध तरीके से किया जाएगा। 31 मार्च 2009 को 26 आरआरबी को पूरी तरह से पुनर्पूंजीकृत किया गया है जिसकी राशि 1,783 करोड़ रुपए है और एक धआरआरबी को आंशिक रूप से पुनर्पूंजीकृत किया गया है जिसकी राशि 13 करोड़ रुपए है। उत्तर प्रदेश राज्य के एक आरआरबी को छोड़कर पुनर्पूंजीकरण की प्रक्रिया पूरी हो गई है। (v) समामेलित आरआरबी का अनुसूचीकरण (vi) शाखा लाइसेंसीकरण: और उदारीकरण (vii) आरआरबी का प्रौद्योगिकी उन्नयन (घ) कृषि और प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के अन्य घटकों को ऋण की सुपुर्दगी (i) किसान क्रेडिट कार्ड योजना 124. किसान क्रेडिट कार्ड योजना, जिसे किसानों को कृषि निविष्टियाँ खरीदने तथा उनकी उत्पादन आवश्यकताओं के लिए नकदी का आहरण करने हेतु 1998-99 में शुरू किया गया था, को सिंगल विंडो के अंतर्गत लोचपूर्ण और सरल प्रक्रिया के साथ, समग्र कृषि दृष्टिकोण अपना करके किसानों की व्यापक ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए पर्याप्त और समय पर वित्त प्रदान करने हेतु संशोधित किया गया था। 2008-09 के दौरान (दिसंबर 2008 तक) सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) ने 3.9 मिलियन किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए थे जिसकी स्वीकृत कुल सीमा 23,366 करोड़ रुपए थी। योजना की शुरुआत से पीएसबी ने 35.08 मिलियन किसान क्रेडिट कार्ड जारी किए है जिसकी कुल स्वीकृत सीमा 1,77,607 करोड़ रुपए है। (ii) ग्रामीण मूलभूत सुविधा विकास निधि 125. वर्ष 2009-10 के अंतरिम बजट में ग्रामीण मूलभूत सुविधा परियोजनाओं के वित्तयन को जारी रखने की घोषणा की गई, ऐसा आरआइडीएफ XV के माध्यम से, जिसकी स्थापना नाबार्ड के साथ की जाएगी तथा जिसकी 14,000 करोड़ की आधारभूत निधि होगी तथा भारत निर्माण कार्यक्रम के ग्रामीण रोड घटक के लिए आरआइडीएफ XV के अंतर्गत एक पृथक विंडो के माध्यम से, जिसकी 4,000 करोड़ की आधारभूत निधि होगी, किया जाएगा। 126. केंद्रीय बजट 2008-09 में की गई घोषणा के परिणामस्वरूप, कई निधियां स्थापित की गई जैसे :(i) नाबार्ड के पास अल्पकालिक सहकारी ग्रामीण ऋण (एसटीसीआरसी) (पुनर्वित) निधि जिसकी आधारभूत निधि 5000 करोड़ रुपए होगी; (ii) भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी) के पास एमएसएमई (पुनर्वित) निधि और एमएसएमई (जोखिम पूँजी) निधि जिसकी आधारभूत निधि 1,600 करोड़ रुपए और 1000 करोड़ रुपए होगी; तथा (iii) राष्ट्रीय आवास बैंक के पास ग्रामीण आवास निधि जिसकी आधरभूत निधि 1000 करोड़ रुपए होगी। अप्रैल 2008 के वार्षिक नीति वक्तव्य में घोषित किया गया कि घरेलू अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों द्वारा कमजोर वर्ग को उधार देने के लिए 10 प्रतिशत के उपलक्ष्य को प्राप्त करने में हुई कमी को अप्रैल 2009 से, जैसा कि रिज़र्व बैंक ने निर्धारित किया है, नाबार्ड के पास ग्रामीण आधारभूत सुविधा विकास निधि (आरआइडीएफ) अथवा अन्य वित्तीय संस्थाओं के पास निधियों में अंशदान के लिए राशियों के आबंटन के प्रयोजन हेतु हिसाब में लिया जाएगा। 127. अति लघु और लघु उद्यमों तथा आवासों के नियोजन प्रधान क्षेत्रों में वृद्धि गति बनाए रखने के लिए 15 नवंबर 2008 को रिज़र्व बैंक द्वारा उपायों की घोषणा के परिणामस्वरूप, एमएसएमई (पुनर्वित) निधि और ग्रामीण आवास निधि की आधारभूत निधि में क्रमश: 2,000 करोड़ रुपए (3,600 करोड़ रुपयों से) और 1,000 करोड़ रुपए (2,000 करोड़ रुपयों से)वृध्दि कर दिया गया। 31 मार्च 2009 को विभिन्न अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों ने एसटीसीआरसी (पुनर्वित) निधि में 4,622 करोड़ रुपए एमएसएमई (पुनर्वित) निधि में 3,326 करोड़ रुपये, 250 करोड़ रुपए एमएसएमई (जोखिम पूंजी) निधि में और ग्रामीण आवास निधि में 1,760 करोड़ की जमाराशियां रखी है। (ङ) किसानों को ब्याज संबंधी सरकारी अनुदान राहत 128. केंद्रीय बजट 2008-09 में, 2006-07 में शुरू की गई अल्पकालिक फसल ऋण के लिए ब्याज संबंधी सरकारी अनुदान योजना को जारी रखने की घोषणा की गई। 2008-09 के लिए सरकारी अनुदान की दर 2 प्रतिशत से बढ़ाकर 3 प्रतिशत कर दी गई। 2009-10 के अंतरिम बजट में घोषणा की गई कि भारत सरकार भी यह सुनिश्चित करने के लिए 2009-10 में ब्याज संबंधी सरकारी अनुदान देना जारी रखेगी कि किसान प्रति वर्ष 7.0 प्रतिशत की दर से 3 लाख रुपए तक के अल्पकालिक फसल ऋण ले सकें। (च) लघु वित्त 129. स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) - बैंक सहबद्ध कार्यक्रम देश में प्रमुख लघु वित्त कार्यक्रम के रूप में उभरा है और इसे वाणिज्यिक बैंक, आरआरबी और सहकारी बैंकों द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है। 31 मार्च 2008 को 3.6 मिलियन एसएचजी के पास 17,000 करोड़ रुपए बैंक ऋण बकाया था जो एसएचजी ऋण सहबद्धों की संख्या के संबंध में 31 मार्च 2007 से 25 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है। 2007-08 के दौरान, बैंकों ने 1.2 मिलियन एसएचजी को 8,849 करोड़ रुपए का वित्त प्रदान किया। मार्च 2008 के अंत में, एसएचजी के 5 मिलियन बचत खाते बैंकों के पास थे जिसकी राशि 3,785 करोड़ रुपए थी। (छ) वित्तीय समावेशन (i) 100 प्रतिशत वित्तीय समावेशन के लिए राज्य स्तरीय बैंकर समिति (एसएलबीसी) की प्रयोगिक परियोजना 130. अब तक, 100 प्रतिशत वित्तीय समावेशन के लिए एसएलबीसी द्वारा 344 जिलों की पहचान की गई है। इनमें से 21 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों के 175 जिलों में लक्ष्य प्राप्ति की सूचना दी है। हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, कर्नाटक, केरल, उत्तराखंड, गोवा, चंडीगढ़, पुडुचेरी, दमण तथा दीव, दादर एवं नागर हवेली और लक्षद्वीप के सभी जिलों ने 100 प्रतिशत वित्तीय समावेशन का लक्ष्य प्राप्त करने की सूचना दी है। 131. अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में दर्शाए गए अनुसार उस बाहरी एजेंसी जिसे 26 जिलों में 100 प्रतिशत वित्तीय समावेशन का लक्ष्य प्राप्त करने के संबंध में मूल्यांकन अध्ययन का कार्य सौंपा गया था, के निष्कर्ष व्यापक परिचर्चा के लिए रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर प्रदर्शित किए गए। इन निष्कर्षों के आधार पर, बैंकों को, जनवरी 2009 में अन्य बातों के अलावा, सूचित किया गया कि वे : (i) नो - फ्रिल खाता धारकों के स्थल के समीप विभिन्न माध्यमों के जरिए बैंकिंग सेवाएं मुहैया कराना सुनिश्चित करें, (ii) नो - फ्रिल खाताधारकों को सक्रिय रूप से खाता चालू रखने के लिए प्रोत्साहित करने हेतु सामान्य क्रेडिट कार्ड (जीसीसी)/छोटे ओवरड्राप्ट की सुविधा दें, (iii) जागरुकता मुहिम चलाएं ताकि उपलब्ध सुविधाओं के बारे में नो-फ्रिल खाताधारकों को जानकारी हो सके; (iv) 100 प्रतिशत वित्तीय समावेशन के रूप में घोषित जिलों की व्यापकता की सीमा की समीक्षा करें आाठर (v) वर्तमान में उपलब्ध टैक्नॉलॉजी युक्त वित्तीय समावेशन समाधान का दक्षतापूर्वक उपयोग करें। (ii) पूवा&झ्i्ा;त्तर क्षेत्र में विशेष कार्य बल 132. अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में दर्शाए गए अनुसार पूवा&झ्i्ा;त्तर क्षेत्र में ऐसे केंद्र जो बैंकों द्वारा वाणिज्यिक दृष्टि से व्यवहार्य नहीं पाए गए, वहां बैंकिंग सुविधाएं (करेंसी चेस्ट, विदेशी मुद्रा और सरकारी कारोबार सुविधाओं का विस्तार) मुहैया कराने के प्रयोजन से रिज़र्व बैंक द्वारा बैंकों को वित्तीय सहायता देने के लिए एक योजना निरुपित की गई, बशत&झ्i्ा; राज्य सरकार आवश्यक परिसर और अन्य आधारभूत सहायता उपलब्ध कराए। मेघालय सरकार परिसर और सुरक्षा मुहैया कराने के प्रस्ताव पर सहमत हुआ है तथा राज्य सरकार द्वारा चिन्हित केंद्रों में शाखाएं स्थापित करने के लिए सरकारी क्षेत्र के बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा बोलियां स्वीकार की गई हैं और इसकी प्रक्रिया जारी है। पूवा&झ्i्ा;त्तर क्षेत्र के अन्य राज्य जहां से अनुरोध प्राप्त हुए हैं, के संबंध में कार्रवाई शुरू की गई है। (iii) प्रायोगिक आधार पर ऋण परामर्श केंद्र की स्थापना 133. अब तक बैंकों ने देश के विभिन्न राज्यों में 123 ऋण परामर्श केंद्र स्थापित करने या स्थापित करने के प्रस्ताव की सूचना दी है। इस संबंध में प्राप्त प्रतिसूचना दर्शाती है कि इनमें से अधिकांश केंद्र बैंक शाखाओं में विस्तार और बैंक के विशेष उत्पादों के संवर्धन के रूप में स्थापित हुए हैं। तदनुसार, वित्तीय साक्षरता और ऋण परामर्श केंद्र (एफएलसीसी) पर एक मॉडल योजना निरुपित की गई और इस बारे में सभी अनुसूचित वाणिज्य बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को इस सुझाव के साथ सूचित किया गया कि वे इन केंद्रों की स्थापना बैंकों से कुछ दूरी रखते हुए अलग संस्था के रूप में करें ताकि उस जिले में एफएलसीसी सेवाएं अन्य बैंक के ग्राहकों को भी मिल सके। (iv) ग्रामीण स्व-रोजगार प्रशिक्षण संस्थान की स्थापना 134. रिज़र्व बैंक ने भारत सरकार द्वारा बनाए गए दिशानिर्देश एसएलबीसी संयोजक बैंक को जारी किए कि वे 2010 तक प्रत्येक जिले में कम से कम एक ग्रामीण स्व-रोजगार प्रशिक्षण संस्थान (आरएसइटीआई) स्थापित करें। ये संस्थान गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले प्रत्येक परिवार के कम से कम एक सदस्य को विभिन्न क्षेत्रों में प्रशिक्षित करेंगे और उनके क्षमता निर्माण में वृद्धि करेंगे। 31 दिसंबर, 2008 तक कुल 134 आरएसईटीआई स्थापित किए गए। वर्ष 2008-09 के दौरान बैंकों द्वारा 100 आरएसईटीआई खोलने का लक्ष्य निर्धारित किया गया और इन संस्थानों की स्थापना के लिए योजना आयोग ने एक करोड़ रुपए प्रति आरएसईटीआई का अनुदान मंजूर किया है। रिज़र्व बैंक के क्षेत्रीय कार्यालयों को सूचित किया गया कि वे तिमाही आधार पर अपने क्षेत्राधिकार के तहत स्थापित हुए आरएसईटीआई की प्रगति की निगरानी करें। (ज) अग्रणी बैंक योजना पर उच्च स्तरीय समिति 135. वर्ष 2007-08 के वार्षिक नीति वक्तव्य की मध्यावधि समीक्षा में घोषित किए गए अनुसार अग्रणी बैंक योजना की समीक्षा के लिए विभिन्न वित्तीय संस्थानों, बैंकों और चुनिंदा राज्यों के मुख्य सचिवों को सदस्य बनाते हुए एक उच्च स्तरीय समिति (अध्यक्ष: श्रीमती उषा थोरात) गठित की गई। इस समिति ने विभिन्न राज्य सरकारों, बैंकों और शिक्षाविदों, लघु वित्तीय संस्थानों (एमएफआई) और गैर सरकारी संगठनों (एनजीओ) सहित अन्य हितधारकों के साथ कई दौर की वार्ताएं की। इस समिति की ड्राप्ट रिपोर्ट 15 मई 2009 तक रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर प्रदर्शित कर दी जाएगी। (झ) बैंकिंग लोकपाल योजना 2006 में संशोधन 136. बैंकिंग लोकपाल योजना 2006 के दायरे में विस्तार किया गया ताकि इसमें इंटरनेट बैंकिंग की वजह से होनेवाली कमियें को शामिल किया जा सके। संशोधित योजना के तहत ग्राहक, बैंकों द्वारा ऋणदाताओं के लिए निर्धारित उचित व्यवहार संहिता के प्रावधानों या भारतीय बैंकिंग संहिता और मानक बोर्ड (बीसीएसबीआई) द्वारा ग्राहक के प्रति निर्धारित बैंक की प्रतिबद्धता का पालन न किए जाने पर, उस बैंक के विरुद्ध शिकायत दर्ज कर सकता है। V. विवेकपूर्ण उपाय (क) शाखा प्राधिकार नीति में अतिरिक्त रियायतें देना 137. वर्तमान शाखा प्राधिकार नीति में बैंकों के लिए आवश्यक है कि वे शाखा विस्तार के संबंध में मध्यावधि योजना अपनाएं। ऑफ-साइट एटीएम स्थापित करने का अनुरोध भी इस योजना के भाग के रुप में आवश्यक था। समीक्षा करने पर यह प्रस्तावित है कि :
138. शाखा प्राधिकार नीति के संबंध में प्रस्ताव है कि :
(ख) भारत में विदेशी बैंकों की उपस्थिति : समीक्षा 139. फरवरी, 2005 में भारत सरकार और रिज़र्व बैंक ने भारत में विदेशी बैंकों की उपस्थिति पर रोड मैप जारी किया जिसमें द्विमार्गी और क्रमिक दृष्टिकोण का उल्लेख था और यह भारत में बैंकिंग क्षेत्र की दक्षता और स्थिरता पर केंद्रित था। निजी और सरकारी दोनों क्षेत्र में घरेलू बैंकिंग प्रणाली का समेकन पहला मार्ग था और समन्वित रूप में विदेशी बैंकों की उपस्थिति में धीमी वृद्धि दूसरा मार्ग था। यह रोडमैप दो चरणों में विभाजित था, पहले चरण मार्च 2005 - मार्च 2009 की अवधि का दायरा और पहले चरण में हुए अनुभवों की समीक्षा के बाद दूसरा चरण अप्रैल 2009 की शुरुआत था। 140. वैश्विक वित्तीय बाजार की वर्तमान उथल पुथल के मद्देनजर विश्वभर में बैंकों की वित्तीय सुदृढ़ता पर अनिश्चितता बनी हुई है। इसके अलावा, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर विनियामक और पर्यवेक्षी नीतियां समीक्षा के अधीन हैं। इन सब के मद्देनजर यह उचित समझा गया कि कुछ समय के लिए भारत में उपस्थित विदेशी बैंकों को शासित करने वाली वर्तमान नीति और प्रक्रिया जारी रखी जाए। एक बार स्थिरता के संबंध में अधिक स्पष्टता आने, वैश्विक वित्तीय प्रणाली में सुधार और विश्वभर में विनियामक और पर्यवेक्षी ढांचे पर आपसी समझ होने, हितधारकों से उचित परिचर्चा के बाद, इसकी प्रस्तावित समीक्षा की जाएगी। (ग) चक्रीय अनुकूलता कम करना : परिवर्तनीय प्रावधानों का प्रयोग 141. मजबूत विनियमन और सुदृढ़ पारदर्शिता पर गठित जी-20 कार्यदल ने सिफारिश की है कि चक्रीय अनुकूलता कम करने के उपाय के तौर पर उचित समय में न्यूनतम आवश्यकता से ऊपर पूंजी बफर और ऋण नुकसान प्रावधान निर्मित किए जाएं ताकि बड़े झटकों को रोकने के लिए विनियमित वित्तीय संस्थानों की योग्यता बढ़ाई जा सके। इसके लिए रिज़र्व बैंक के 22 जून, 2006 के परिपत्र में संशोधन करने की आवश्यकता होगी। रिज़र्व बैंक सभी बैंकों को प्रोत्साहित करता रहा है कि वे आस्ति गुणवत्ता पर संभावित दबाव के लिए कालांतर में बफर के रूप में परिवर्तनीय प्रावधान निर्मित करें। यह प्रस्ताव है कि :
(घ) क्रेडिट रेटिंग एजेंसी 142. भारत में सभी क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां सेबी में पंजीकृत हैं। रिज़र्व बैंक ने सेबी में पंजीकृत चार क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों को बासल II समझौते के ढांचे के तहत जोखिम भार बताने के लिए की गई रेटिंग के सीमित उद्देश्य के लिए प्रयोग के लिए प्राधिकृत किया। चूंकि भारतीय बैंकिंग प्रणाली ने बासल II ढांचे को अपना लिया है, अत: विशेषकर संचयी चूक दर और रेटिंग एजेंसी की संक्रमण स्थिति के संबध में नवीनतम डाटा के मद्देनजर, क्रेडिट रेटिंग एजेंसी प्राधिकार जारी रखने के लिए उनके निष्पादन की समीक्षा की आवश्यकता है। तदनुसार,
(ङ) चलनिधि जोखिम 143. आस्ति चलनिधि प्रबंधन के अनुसार भारत में बैंकों की चलनिधियों पर परपारंपरिक परिपक्वता अथवा नकदी प्रवाह असंतुलन के माध्यम से निगरानी रखी जाती है। रिज़र्व बैंक ने बैंकों द्वारा स्थापित किए जा रहे उस अत्यधिक संतुलित चलनिधि जोखिम प्रबंधन ढांचे के मुद्दे की जाँच की जो बैंकों के जोखिम प्रबंधन प्रक्रिया में वैश्विक चलनिधि योजनाओं के अपनाने से अच्छी तरह से एकीकृत हो चुकी है। इस संदर्भं में, बैंकों को भारत में अपनी शाखा परिचालनों से होने वाली अपनी विभिन्न विदेशी मुद्रा आस्तियों और देयताओं के साथ रुपया आस्ति-देयता स्थिति को एकीकृत करने की आवश्यकता पड़ेगी। तदनुसार, यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
(च) वित्तीय समावेशन : बैंकिंग प्रतिनिधियों के लिए पात्रता शर्तों में छूट 144. व्यापक वित्तीय समावेशन के लक्ष्य को प्राप्त करने और बैंकिंग क्षेत्र की पहुंच को बढ़ाने के लिए बैंकों को सोसायटी के रूप में स्थापित एनजीओ/एमएफआई, धारा 25 के अंतर्गत आनेवाली कंपनियें, डाक घरों, सहकारी समितियों और हाल ही में सेवानिवृत्त बैंक कर्मियों, भूतपूर्व सैनिकों तथा सेवानिवृत्त सरकारी कर्मचारियों की सेवाएं बैंकिंग प्रतिनिधि (बीसी) के तौर पर लेने की अनुमति दी गई। बीसी मॉडल के स्तर को बढ़ाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य है। अत: यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
(छ) केंद्रीय प्रतिपक्षों के जोखिम भार के लिए एक्सपोज़र 145. केंद्रीय प्रतिपक्ष (सीसीपी) एक ऐसी इकाई है जो एक या अधिक वित्तीय बाजारों में दो सहमत प्रतिपक्षों के बीच होने वाले व्यापार में स्वयं को इस तरह से स्थापित करती है कि वह एक वैधानिक प्रतिपक्ष बनकर प्रत्येक विक्रेता के लिए खरीदार और प्रत्येक खरीदार के लिए विक्रेता की भूमिका निभाती है। सीसीआईएल वित्तीय बाजार के विभिन्न खंडों में बैंकों के लिए सीसीपी के तौर पर कार्य कर रही है। इसी प्रकार, शेयर बाजार में खरीद-फरोक्त की जाने वाली ब्याज दर वायदा कारोबार और मुद्रा वायदा कारोबार जैसी सविदाएं भी इन बाजारों से जुड़े हुए समाशोधन गृह के माध्यम से निपटाई जाती है।
(ज) पूंजी का प्राइवेट पूल 147. यह पाया गया है कि हाल ही में भारतीय बैंक जोखिम पूंजी निधि और संरचनागत निधि जैसे पूंजी के प्राइवेट पूलों को प्रायोजित और प्रबंधित कर रहे हैं। 15 जनवरी, 2009 को ‘वित्तीय सुधार - वित्तीय स्थिरता के लिए एक ढांचा’ पर जारी की गई जी-30 रिपोर्ट में यह पाया गया है कि बड़े , प्रणालीगत महत्वपूर्ण बैंकिंग संस्थानों को उन स्वामित्व कार्यकलापों में शामिल होने से रोका जाना चाहिए जिसमें अधिक जोखिम हो और जो हितों के विरुद्ध हों। पूंजी (अर्थात् ऐसा हेज और प्राइवेट ईक्विटी फंड जिसमें बैंकिंग संस्थानों की अपनी पूंजी ग्राहक फंड के साथ मिली हुई हो) के मिश्रित प्राइवेट पूल का प्रायोजन और प्रबंधन सामान्यत: प्रतिबंधित होना चाहिए और बड़े स्वत्वधारी सौदों को यथातथ्य पूंजी और चलनिधि अपेक्षाओं द्वारा सीमित किया जाना चाहिए। अत:, बैंकों को ऐसे कार्यकलापों में निहित जोखिमों के प्रति अतिजागरुक होना चाहिए और ऐसे एक्सपोजरों को अपने जोखिम प्रबंधन और उपलब्ध पूंजी के माध्यम से अनुपातिक रूप से सीमित करना चाहिए। ऐसे कार्यकलापों में निहित साख जोखिम को ध्यान में रखते हुए रिज़र्व बैंक ने पूर्व में अनुमोदित कुछ मामलों में आर्थिक पूंजी के निश्चित स्तरों को बनाए रखने का अधिदेश दिया है। अब यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
(झ) स्ट्रेस टेस्ट 148. अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में यह संकेत दिया गया था कि रिज़र्व बैंक स्ट्रेस टेस्ट के दिशा-निर्देशा में सुधार करेगी। तदनुसार, बीसीबीएस ने जनवरी 2009 में विवेकपूर्ण स्ट्रेस टेस्ट प्रथाओं और पर्यवेक्षण पर टिप्पणी प्राप्त करने हेतु एक पेपर जारी किया। इस पेपर में बैंकों और पर्यवेक्षकों के लिए वित्तीय संकट के कारण उभरे तथ्यों का वर्णन है और जोखिम को कम करने तथा जोखिम अंतरण के विशिष्ट क्षेत्रों सहित स्ट्रेस टेस्ट की कमजोरियों के दूर करने के उपाय बताए गए हैं। इस संदर्भ में, सीएफएसए ने सिफारिश की है कि बैंकों द्वारा स्वयं ऐसे आवधिक स्ट्रेस टेस्ट किए जाने की आवश्यकता है। प्राप्त टिप्पणी के आधार पर बीसीबीएस द्वारा पेपर को अंतिम रूप देने के पश्चात स्ट्रेस टेस्ट दिशा-निर्देशों में सुधार प्रस्तावित हैं। (ञ) बैंक ऋण का प्रतिभूतिकरण 149. भारत में प्रतिभूतिकरण ढांचा विवेकपूर्ण है और उन उद्दीपकों को कम करने में सफल रहा है जो वर्तमान संकट में उत्पन्न हुई समस्याओं के लिए कारणीभूत रहे हैं। यह रिज़र्व बैंक के ध्यान में आया है कि कुछ बैंकों ने अन्य बैंकों से ऋणों को प्राप्त करने या खरीदने के तुरंत बाद ही उनका प्रतिभूतिकरण कर दिया। बैंकों ने एक परियोजना के कुल ऋणों को विभिन्न स्तरों में बांट दिया और संपूर्ण संवितरण के पूरा होने के पहले ही कुछ स्तरों का प्रतिभूतिकरण कर दिया और इस प्रकार से परियोजना कार्यान्वयन जोखिम को निवेशकों के हिस्से में डाल दिया। अत: यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
(ट) ऋण संबंधी सूचना प्रदान करने वाली कंपनियों को पंजीयन प्रमाणपत्र 150. ऋण सूचना कंपनी (विनियम) अधिनियम, 2005 के तहत ऋण सूचना के कारोबार में प्रवेश के लिए इच्छुक कंपनियों से पंजीयन प्रमाणपत्र की मंजूरी के लिए 18 अप्रैल 2007 के रिज़र्व बैंक की प्रेस विज्ञप्ति के माध्यम से आमंत्रित आवेदनों के संबंध में 13 आवेदन प्राप्त हुए। रिज़र्व बैंक द्वारा स्थापित एक उच्च स्तरीय सलाहकार समिति (अध्यक्ष : डॉ.आर.एच.पाटिल) ने आवेदनों की जांच की और पंजीयन प्रमाणपत्र के लिए चार आवेदनों के नामों की सिफारिश की। तदनुसार इन चारों आवेदनों को ‘सैद्धांतिक’ रूप से अनुमति प्रदान की गई। VI. संस्थागत गतिविधियां भुगतान और निपटान प्रणाली (क) भारत में प्रीपेड भुगतान लिखतों के लिए अंतिम दिशा-निर्देश 151. भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007 के लागू होने से प्रीपेड भुगतान लिखतों को जारी करने में शामिल भुगतान प्रणाली को रिज़र्व बैंक के विनियमकारी अधिकार क्षेत्र में ला दिया है। रिज़र्व बैंक ने पहले ही ऐसे लिखतों के जारी करने / परिचालनों के लिए प्रारूप दिशा-निर्देशों को व्यापक प्रसार और टिप्पणी के लिए पब्लिक डोमेन में रखा था। देश के भीतर और बाहर की विभिन्न इकाइयों से प्राप्त टिप्पणियों को ध्यान में रखते हुए अब यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
इस संबंध में परिचालन से जुड़े दिशा-निर्देशों को अलग से जारी किया जा रहा है। (ख) सूचना प्रौद्योगिकी प्रणाली का समेकन : डाटा केंद्र 152. रिज़र्व बैंक ने डाटा केंद्रों को स्थापित किया है जिन्होंने 2008 की दूसरी छमाही में कार्य करना शुरू कर दिया। इन आधुनिकतम डाटा केंद्रों में उच्च स्तरीय सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) प्रणालियों को उपलब्ध कराया गया है और वे अधिकतम कारोबार निरन्तरता प्रबंधन को सुनिश्चित करते हैं। रिज़र्व बैंक की महत्वपूर्ण भुगतान एवं निपटान प्रणाली को अब डाटा केंद्रों की प्रणालियों का उपयोग करते हुए कार्यान्वित किया जाता है। आपदा निवारण के पर्याप्त अभ्यासों का आयोजन आवधिक अंतरालों पर किया जाता है। जहां सभी सहभागी सदस्य बैंक अपने आपदा निवारण स्थलों से कार्यों को कार्यान्वित करते हुए इन अभ्यासों में पूर्ण सहभागिता सुनिश्चित करते हैं, वहीं कुछ बैंक ऐसे भी हैं जो इस उद्देश्य को पूरा नहीं कर सके हैं। ऐसे अभ्यासों के अत्यावश्यक महत्व को देखते हुए और समग्र प्रणालीबद्ध कुशलता प्राप्त करने के लिए:
(ग) प्रबंधित सूचना प्रौद्योगिकी प्रणालियों के लिए अतिरिक्त व्यवस्थाओं की पर्याप्तता 153. हाल ही में, कई बैंकों ने अपनी सूचना प्रौद्योगिकी आधारित परिचालनगत अपेक्षाओं का प्रबंध करने के लिए सेवा प्रदाताओं का सहारा लिया है। अत: यह आवश्यक हो जाता है कि बैंकों के पास पर्याप्त योजनाएं/प्रणालियां हों ताकि ऐसी आउटसोर्सिंग व्यवस्थाओं संबंधी जोखिमों से निपटने का प्रबंध किया जा सके। ये जोखिम प्रणाली द्वारा एकल इकाई (संकेद्रित जोखिम), अपर्याप्त प्रणालियों (परिचालनगत जोखिम) पर अतिरिक्त निर्भरता के कारण और इन सेवा प्रदाताओं की असफलता के कारण भी उत्पन्न होते हैं। रिज़र्व बैंक ने पहले ही नवंबर 2006 में आउटसोर्सिंग के संबंध में व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए हैं। उसमें दिए गए जोखिम प्रबंधन संबंधी विस्तृत पहलुओं का प्रौद्योगिकी सेवा प्रदाता से विशेष संबंध है। इसलिए यह प्रस्ताव किया जाता है कि:
(घ) नेटवर्कध आधारित कार्यकलाप: रिज़र्व बैंक द्वारा समर्थित प्रणालियां 154. रिज़र्व बैंक ने एप्लिकेशन सिस्टम डएनडीएस, तत्काल सकल भुगतान (आरटीजीएस), केंद्रीकृत निधि प्रबंध प्रणाली (सीएफएमएस) और संरचनागत वित्तीय संदेश समाधान (एसएफएमएस) बनाने के लिए कदम उठाए हैं ताकि वह मल्टी प्रोटोकाल लेबल स्विचिंग (एमपीएलएस) का प्रयोग करते हुए नेटवर्क आधारित परिवेश में कार्यान्वित हें। जालीदार (मेश्ड) नेटवर्क तकनीक का प्रयोग करते हुए एमपीएलएस प्रक्रिया सुरक्षा पहलुओं से समझौता किए बिना सस्ती लागत पर बिंदु से बिंदु संपर्क बनाने के साथ ही साथ बढ़ी हुई गति प्रदान करती है। तदनुसार:
(ङ) हाल की गतिविधियां (i) इलेक्ट्रानिक भुगतान प्रणाली 155. इलेक्ट्रानिक भुगतान नेटवर्क अर्थात् आरटीजीएस और राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण (एनईएफटी) के अंतर्गत बैंक शाखाओं की सहभागिता उल्लेखनीय रूप से बढ़ी है। मार्च 2009 के अंत तक एनईएफटी नेटवर्क में 54,200 शाखाएं थीं और आरटीजीएस नेटवर्क में 55,000 शाखाएं थीं। आरटीजीएस में औसतन प्रतिदिन 80,000 लेनदेन संचालित हुए जबकि 30 मार्च, 2009 को इसमें 1,28,295 लेनदेनों की उच्चतम संख्या दर्ज की गई। (ii) राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक समाशोधन सेवा 156. सितंबर 2008 में प्रारंभ की गई राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक समाशोधन सेवा के माध्यम से किए गए लेनदेनों की संख्या भी बढ़ रही है। केंद्रीकृत एनईसीएस प्रणाली की ओर अग्रसर होने के उद्देश्य से, मुंबई में इलेक्ट्रानिक समाशोधन सेवा को एनईसीएस में मिला दिया गया है। इस प्रकार, मुंबई में अलग से कोई स्थानीय ईसीएस इलेक्ट्रानिक समाशोधन सेवा नहीं है। (iii) राष्ट्रीय वित्तीय स्विच 157. राष्ट्रीय वित्तीय स्विच की सदस्यता/ परिमाण में निरंतर वृद्धि हो रही है। 31 मार्च 2009 की स्थिति के अनुसार, एनएफएस नेटवर्क में 34 बैंकों के 38,714 एटीएम काम कर रहे थे। औसतन, मार्च 2008 में 2,67,598 के दैनिक लेनदेनों की तुलना में, मार्च 2009 में एनएफएस के माध्यम से 8,90,180 लेन-देन किए गए (इनमें से 2,56,156 लेनदेन शेष राशि की पूछताछ के संबंध में थे तथा 6,34,024 लेनदेन नकद आहरण के संबंध में थे)। इसके अतिरिक्त, औसतन मार्च 2008 में 26 करोड़ रुपए की तुलना में, मार्च 2009 में एनएफएस माध्यम से निपटाए गए लेनदेनों का दैनिक मूल्य लगभग 45 करोड़ रुपए था। 1 अप्रैल 2009 से ग्राहकों को यह सुविधा उपलब्ध है कि, बिना कोई शुल्क दिए, नकद आहरण के लिए किसी भी बैंक के एटीएम का प्रयोग कर सकते हैं। इस प्रकार, अब एटीएम किसी बैंक -विशेष के आउटलेट न होकर राष्ट्रीय भुगतान आउटलेट बन गए हैं। इस उपाय से एनएफएस नेटवर्क में लेनदेनों की संख्या में भारी वृद्धि हुई है और 11 अप्रैल 2009 को 1.1 मिलियन लेनदेनों की उच्चतम संख्या दर्ज की गई। (iv) मोबाइल भुगतान 158. जैसा कि अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में बताया गया था, मोबाइल भुगतानों के लिए परिचालनात्मक दिशा-निर्देश 8 अक्तूबर 2008 को जारी किए गए थे। अभी तक अपने ग्राहकों को मोबाइल भुगतान सुविधा उपलब्ध कराने के लिए 19 बैंकों ने भारतीय रिज़र्व बैंक से अनुमति प्राप्त कर ली है। (v) भुगतान प्रणालियों के लिए प्रभारें का युक्तिकरण 159. रिज़र्व बैंक ने भुगतान प्रणालियों के लिए विभिन्न प्रभारों का युक्तिकरण किया है। तदनुसार, जावक आरटीजीएस लेनदेनों के अंतर्गत निधियों के अंतरण के लिए लगाए गए सेवा प्रभार 1 लाख रुपए तथा 5 लाख रुपए तक के लिए 25 रुपए से अधिक नहीं होंगे, तथा 5 लाख तथा उससे अधिक की राशि के लेनदेनों के लिए 50 रुपए से अधिक नहीं होंगे। इसी प्रकार, जावक एनईएफटी लेनदेनों के लिए लगाए गए सेवा प्रभार 1 लाख तक की निधियों के अंतरण के लिए 5 रुपए से अधिक नहीं होंगे और एक लाख रुपए तथा उससे अधिक की राशि के लिए 25 रुपए से अधिक नहीं होंगे। 160. रिज़र्व बैंक ने बाहरी चेकों की उगाही के लिए भी अधिकतम प्रभार निर्धारित किए हैं। इसके अंतर्गत 10 हजार रुपए तक की राशि के चेक के लिए सेवा प्रभार 50 रुपए से अधिक नहीं होंगे। 10,000 से1,00,000 लाख रुपए तक के चेक के लिए अधिकतम प्रभार 100 रुपए होगा। 1,00,001 रुपए तथा अधिक की राशि के चेक के लिए सेवा प्रभार 150 रुपए से अधिक नहीं होगा। (vi) चेक ट्रंकेशन प्रणाली 161. चेक ट्रंकेशन प्रणाली की प्रायोगिक परियोजना फरवरी 2008 में दिल्ली में प्रारंभ की गई और दिल्ली समाशोधन गृह में चेकों का 90 प्रतिशत समाशोधन अब सीटीएस के माध्यम से किया जाता है। रिज़र्व बैंक ने सीटीएस प्रणाली का विस्तार करने के लिए उपाय जारी रखे हैं और तदनुसार, चेन्नै में सीटीएस प्रणाली स्थापित करने का निर्णय लिया गया है। (च) भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007 162. जैसाकि अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में बताया गया था, अगस्त 2008 में भुगतान और निपटान प्रणाली अधिनियम, 2007 को अधिसूचित कर देने के फलस्वरुप, विभिन्न भुगतान प्रणालियों का परिचालन करने के लिए व्यक्तियों को प्राधिकार जारी करने की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई है। अधिनियम के अनुसार क्रेडिट कार्ड जारीकर्ता कंपनियों तथा धन अंतरण गतिविधि से जुड़ी सभी ईकाईयों सहित सभी भुगतान प्रणाली प्रदाताओं/परिचालकों को प्रधिकार लेना होगा। शहरी सहकारी बैंक (क) शहरी सहकारी बैंकों के परिचालनों का कार्यक्षेत्र 163. जिन राज्यों ने समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए हैं उनमें सुचारू रूप से कार्य कर रहे शहरी सहकारी बैंकों के विकास को सुविधाजनक बनाने के लिए, यह प्रस्ताव है कि :
(ख) विनियामक/पर्यवेक्षी फ्रेमवर्क की समीक्षा: शहरी सहकारी बैंक 164. शहरी सहकारी बैंक अभी बाजार जोखिमों संबंधी पूंजी प्रभार के प्रतिनिधि (अतिरिक्त जोखिमभार) के रूप में बासल I पूंजी फ्रेमवर्क पर आधारित हैं। वित्तीय क्षेत्र आकलन समिति (अध्यक्ष: डॉ. राकेश मोहन और सह अध्यक्ष श्री अशोक चावला) जो शहरी सहकारी बैंकों के वर्तमान विनियामक और पर्यवेक्षी फ्रेमवर्क को देखती है, ने यह देखा है कि इस समय शहरी सहकारी बैंकों पर बासल II पूरी तरह से लागू करने के लिए अभी उचित समय नहीं है। लेकिन उसने सिफारिश की है कि ऐसे अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के लिए जो प्रणालीगत रूप से महत्वपूर्ण हैं और जिनकी तुलना मध्यम आकार के वाणिज्यिक बैंकों से की जा सकती है उनके लिए बाजार जोखिम के लिए अवधि पर आधारित पूंजी प्रभार निश्चित किया जाए। तथापि, अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के बाजार जोखिम हेतु नियत अवधि आधारित पूंजी प्रभार के लिए की गई सिफारिश और आकार में तुलनात्मक से मध्यम आकार के वाणिज्यिक बैंकों के लिए सर्वांगी महत्वपूर्ण है। इसके अतिरिक्त पैनल ने यह सिफारिश की है कि (i) शहरी सहकारी बैंकों के लिए वर्तमान आंतरिक नियंत्रण प्रणालियों, जोखिम प्रबंध प्रणालियों, आस्ति देयता प्रबंध तथा सूचना प्रकटीकरण मानदंडों की समीक्षा की जाए। (ii) यथोचित दिशा-निर्देश जारी किए जाएं। तदुनसार यह प्रस्ताव किया जाता है कि :-
(ग) शहरी सहकारी बैंकों के लिए विज़न दस्तावेज 165. शहरी सहकारी बैंकों के लिए विज़न दस्तावेज में यह परिकल्पना की गई थी कि राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के साथ समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए जाए जिससे शहरी सहकारी बैंकों के दोहरे विनियमन और पर्यवेक्षण में सामंजस्य लाया जाए और शहरी सहकारी बैंकों के लिए कार्यदल गठित किए जाएं ताकि अर्थक्षम शहरी सहकारी बैंकों के पुनस्थापन और गैर-अर्थक्षम शहरी सहकारी बैंकों को निर्विहन समाप्त करने का कार्य किया जा सके। मार्च 2005 में सार्वजनिक रूप से दस्तावेज जारी करने के पश्चात रिज़र्व बैंक ने 25 राज्य सरकारों के साथ समझौता ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए (अप्रैल 2008 से मार्च 2009 के दौरान 9 ज्ञापनों पर हस्ताक्षर किए गए)। आज की तिथि तक, 99% शहरी सहकारी बैंक और शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र जमाराशियों का 99% समझौता ज्ञापनों द्वारा किए गए प्रबंधों के तहत आ गया है। ग्रेड III और ग्रेड IV में शहरी सहकारी बैंकों की संख्या जिनमें विभिन्न श्रेणियों की रूग्णता दृष्टिगोचर होती है उनकी संख्या 31 मार्च 2008 की स्थिति के अनुसार 496 थी जबकि 31 मार्च 2005 की स्थिति के अनुसार उनकी संख्या 725 थी। 31 मार्च 2009 तक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करनेवाले राज्यों में 85 बैंकों के संबंध में लाइसेंस निरस्त अथवा अस्वीकृत किए गए और 31 गैर लाइसेंस शुदा बैंकों को लाइसेंस जारी किए गए। नई शाखाओं हेतु अनुमति दिए जाने की पुन: शुरुआत किए जाने के साथ ही समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करनेवाले राज्यों में शहरी सहकारी बैंकों द्वारा शाखाएं खोले जाने हेतु 232 लाइसेंस जारी किए जा चुके हैं। इस क्षेत्र में समेकन करने हेतु स्वैच्छिक विलयन और समामेलन संबंधी पहलों को और आगे बढ़ाया गया और विलयन पर नई नीतिगत दिशा-निर्देशों की घोषणा की गई। अब तक सुदृढ़ और कमजोर बैंक ाटं के बीच 68 विलयन हो चुके हैं। वित्तीय स्थिति में आये सुधारों, रिज़र्व बैंक के विनियामक और पर्यवेक्षीय क्षेत्राधिकार में हुए विस्तार के परिप्रेक्ष्य में, भलीभांति कार्य कर रहे बहुराज्यीय शहरी सहकारी बैंकों, समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर करनेवाले राज्यों में शहरी सहकारी बैंकों के लिए अतिरिक्त व्यापार अवसर उपलब्ध कराये गये। (घ) शहरी सहकारी बैंकों को सूचना प्रौद्यागिकी सहयोग 166. शहरी सहकारी बैंकों में सूचना प्रौद्योगिकी की शुरुआत करने हेतु सहयोग प्रदान करने की पड़ताल करने वाले कार्यदल की सिफारिशों के आधार पर, आइडीआरबीटी को एप्लीकेशन सर्विस प्रोवाइडर (एएसपी) मॉडल के आधार पर शहरी सहकारी बैंकों को कोर बैंकिंग प्लेटफार्म उपलब्ध कराने हेतु सहयोग प्रदान करने को कहा गया है। इसके प्रयोग से शहरी सहकारी बैंक मितव्ययी और आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाकर बेहतर ग्राहक सेवा प्रदान करने और सुदृढ़ विनियामक अनुपालन करने में समर्थ होंगे। गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां (क) व्यवस्थागत रूप से महत्वपूर्ण तथा जमाराशि स्वीकार न करने 167. अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में यह दर्शाया गया था कि व्यवस्थागत रूप से महत्वपूर्ण तथा जमा राशि स्वीकार न करनेवाली गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए सीआरएआर 31मार्च 2009 तक 10 प्रतिशत से बढ़ाकर 12 प्रतिशत और इसके बाद 31 मार्च 2010 तक 15 प्रतिशत कर दिया जाएगा। वर्तमान आर्थिक परिदृश्य में इक्विटी पूंजी उगाहने में होनेवाली कठिनाईयों को ध्यान में रखते हुए, यह निश्चय किया गया है कि :
(ख) प्रतिभूतिकरण कंपनियों/पुनर्संरचना कंपनियों द्वारा 168. मौजूदा दिशानिर्देशों के अनुसार प्रतिभूतिकरण कंपनियों (एससी)/ पुनर्संरचना कंपनियों से यह अपेक्षित है कि वे एक निश्चित समय सीमा में वित्तीय आस्तियों की वसूली करें जो किसी भी मामले में वित्तीय आस्ति के अधिग्रहण की तारीख से पांच वर्ष से अधिक नहीं होगी। इस बारे में समय सीमा में विस्तार किए जाने संबंधी अनुरोधों पर विचार किया जा रहा है। एक अंतरिम उपाय के रूप में, यह प्रस्ताव किया जाता है कि
(ग) गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों द्वारा वाहनों को अपने कब्जे में लेना 169. हाल ही में गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों द्वारा दिए गए ऋणों के ब्याज और / अथवा मूलधन का भुगतान न करने की स्थिति में वाहनों को अपने कब्जे में लेने का मुद्दा सामने आया है और इस संबंध में कई न्यायालयों द्वारा निर्णय भी दिए गए ।
इस संबंध में गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को एक परिपत्र अलग से जारी किया जा रहा है। (घ) व्यवस्थागत रूप से महत्वपूर्ण तथा जमा राशि स्वीकार न करने वाली पात्र गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए विशेष चलनिधि सुविधा 170. केद्र सरकार द्वारा व्यवस्थागत रूप से महत्वपूर्ण तथा जमा राशि स्वीकार न करनेवाली पात्र गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए अस्थायी चलनिधि असंतुलन को पूरा करने के लिए चलनिधि सहायता उपलब्ध कराये जाने का प्रबंध करने की घोषणा की गयी। भारतीय औद्योगिक विकास बैंक दबावग्रस्त आस्ति स्थिरीकरण कोष (आईडीबीआई.एसएएसएफ) ट्रस्ट को इस परिचालन के लिए विशेष प्रयोजन साधन के रूप में विर्निदिष्ट किया गया है। यह सुविधा गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के अस्थायी चलनिधि असंतुलन को पूरा करने के लिए विशेष रूप से बनायी गयी है न कि उनकी आस्ति संवृद्धि के लिए। 171. यह सुविधा 31 मार्च 2009 तक गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों द्वारा जारी किए गए पात्र दस्तावेजों के लिए उपलब्ध थी जिसे बाद में पात्र दस्तावेजों हेतु पुन: तीन माह की अवधि के लिए 30 जून 2009 तक बढ़ा दिया गया, इस सुविधा की अधिकतम सीमा 20,000 करोड़ रुपये थी। आज की तारीख तक इस सुविधा के तहत 750 करोड़ रुपए का उपयोग किया जा चुका है। द्वितीय तिमाही समीक्षा 172. विकास तथा विनियामक नीतियों पर वार्षिक वक्तव्य की आगामी समीक्षा मौद्रिक नीति की द्वितीय तिमाही समीक्षा के एक भाग के रूप में 27 अक्तूबर 2009 को की जाएगी। मुंबई अनुबंध I भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा उठाए गए नीतिगत उपाय : सितंबर 2008
अक्तूबर 2008
नवंबर 2008
दिसंबर 2008
जनवरी 2009
फरवरी 2009
मार्च 2009
अनुबंध-II
युक्तिसंगत समर्थ नियमन को बढ़ाने और पारदर्शिता को सुदृढ़ करने पर जी-20 कार्य समूह द्वारा वित्तीय प्रणाली के सुदृढ़ीकरण और उसके नियमन के उपायों पर विचार किया गया। समूह की सिफारिशें और भारत के लिये संगत मदों के संबंध में स्थिति निम्नानुसार है।
सिफारिश 2
सिफारिश 3
सिफारिश 4
विनियमन की व्याप्ति
सिफारिश 6
सिफारिश 7
सिफारिश 8
क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की निगरानी
पूंजी के प्राइवेट पूल
विनियामक प्रणाली का पारदर्शी मूल्यांकन
चक्रीय अनुकूलता
सिफारिश 13 लेखांकन मानक के निर्धारकों को ऋण हानि का पता लगाने तथा उसके मापन के लिए ऐसा वैकल्पिक दृष्टिकोण जिसमें कि ऋण के संबंध में व्यापक सीमा तक सूचना उपलब्ध रहेगी, बनाने पर विचार करते हुए ऋण हानि प्रावधानों की लेखा निर्धारण पद्धति को सुदृढ़ बनाना चाहिए। उनको, आंकड़े अथवा मॉडलिंग कमज़ोर होने पर मूल्यनों में सुधार सहित, उचित मूल्य लेखांकन से सम्बद्ध प्रतिकूल गतिशीलता को कम करने संबंधी मानकों में हुए परिवर्तनों की भी जांच करनी चाहिए। लेखांकन मानकों के निर्धारकों और विवेकशील पर्यवेक्षकों को उन समाधानों को पहचानने के लिए एक साथ काम करना चाहिए जो वित्तीय क्षेत्र की स्थिरता के संवर्धन तथा वित्तीय रिपोर्टों में आर्थिक परिणामों की पारदर्शिता के पूरक उद्देश्यों से सम्बद्ध है।
पूंजी पूंजी को, चक्र के दौरान, हानियों को अवशोषित करने के लिए एक प्रभावी बफर के रूप में कार्य करना है, जिससे हानि की दशा में वित्तीय संस्थानों की ऋण चुकाने की क्षमता और उधार देने की उनकी क्षमता दोनों की रक्षा की जा सके। नीयर टर्म में, अपेक्षित न्यूनतम स्तर से ऊपर पूंजी बफर को गिरती आर्थिक स्थितियों और ऋण गुणवत्ता के अनुसरण में घटने दिया जाना चाहिए और उन उपायों पर तुरंत विचार किया जाना चाहिए जो मंदी के दौर में निजी क्षेत्र की अतिरिक्त पूंजी तक पहुंच को सुगम बनाने में सहायक होंगे। एक बार जब वित्तीय प्रणाली में सुधार आ जाये, बैंकों के लिए पूंजी के न्यूनतम स्तर के संबंधी अंतर्राष्ट्रीय मानक की पर्याप्तता की समीक्षा की जानी चाहिए और पूंजी की गुणवत्ता तथा वैश्विक सुसंगतता को बढ़ाया जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यूनतम अपेक्षाओं से अधिक पूंजी के सुरक्षित स्टॉक (बफर) और ऋण हानि प्रावधानों को अनुकूल समय में निर्मित कर रखा जाना चाहिए जिससे वे विनियमित वित्तीय संस्थाओं बडे आघातों का सामना करने के सक्षम रहे।
सिफारिश 15 जी -20 के नेताओं को बासल II के पूंजी ढ़ांचे को क्रमिक रूप से अपनाने का समर्थन करना चाहिये, जिसमें, जी - 20 के देशों में निरंतर आधार पर सुधार जारी रहेगा।
चलनिधि सिफारिश 16 विवेकशील पर्यवेक्षकों और केंद्रीय बैंकों को विदेशी संस्थाओं सहित बैंकों में सुदृढ़ चलनिधि बफर को बढ़ावा देने के लिये एक वैश्विक ढ़ांचा देना चाहिये जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे बाज़ार की लम्बी अवधि और निधीयन चलनिधि दबाव का सामना कर सकें।
ओटीसी डेरिवेटिव के लिये बुनियादी ढांचा सिफारिश 17 वित्तीय संस्थाओं को ओटीसी डेरिवेटिव बाज़ार को समर्थन देने वाले बुनियादी ढ़ांचे को मज़बूती प्रदान करना जारी रखना चाहिये। ऋण डेरिवेटिव के मामले में, इसमें एक केंद्रीय प्रतिपक्ष के माध्यम से उनके समाशोधन को सुगम बनाने के लिये संविदाओं का मानकीकरण करना शामिल हैं। राष्ट्रीय प्राधिकारियों को ओटीसी ऋण डेरिवेटिव के समाशोधन के लिये प्रमुख प्रतिपक्षों के प्रयोग के लिए अपेक्षित रूप में प्रोत्साहन सुविधाएं बढ़ानी चाहिये । सिफारिश 18 केंद्रीय बैंक सहित विवेकशील पर्यवेक्षकों और अन्य संबंधित प्राधिकारियों के द्वारा केंद्रीय प्रतिपक्षों का पारदर्शी तथा प्रभावी निरीक्षण होना चाहिये और उन्हें जोखिम प्रबंधन, परिचालन प्रबंधन, मूलगामी प्रक्रियाओं, सुगम पहुंच तथा पारदर्शिता के संबंध में उच्च मानकों की पूर्ति करनी होगी। सीपीएसएस और आइओएससीओ को डेरिवेटिव के प्रमुख प्रतिपक्षों पर अपनी सिफारिशों को लागू करके अपने अनुभवों की समीक्षा करनी चाहिये।
प्रतिपूर्ति योजनाएं और जोखिम प्रबन्धन सिफारिश - 20 विवेकपूर्ण जाखिम वहनीयता के लिए प्रोत्साहनों को बढ़ावा देने के प्रयोजन से प्रत्येक वित्तीय संस्था को अपनी क्षतिपूर्ति संरचना की समीक्षा अवश्य करनी चाहिए, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि वह एफएसएफ द्वारा तैयार किए गए सुदृढ़ व्यावहारिक सिद्धांतों का अनुसरण करती है। इनमें ऐसी पारिश्रमिक प्रणालियों की जरूरत भी शामिल है जो फर्म के दीर्घावधिक लक्ष्यों के समानुरूप प्रोत्साहन प्रदान कर सकें, जिन्हें कर्मचारियों द्वारा उठाए जा रहे जोखिम के अनुरूप समायोजित किया जाए और क्षतिपूर्ति के परिवर्तनशील घटकों के अनुरूप बनाया जाए जो कि कार्यनिष्पादन के अनुसार सामंजस्यपूर्ण रूप से अलग-अलग हो सके। सिफारिश - 21 विवेकपूर्ण पर्यवेक्षकों को चाहिए कि जोखिम प्रबन्धन प्रथाओं का आकलन करते समय पारिश्रमिक प्रणालियों के डिजाइन को ध्यान में रखते हुए क्षतिपूर्ति योजनाओं के लिए अपने दृष्टिकोण का विस्तार करें। बीसीबीएस को चाहिए कि राष्ट्रीय विवेकपूर्ण पर्यवेक्षकों द्वारा अपनाई जा रही जोखिम प्रबन्धन प्रथाओं के लिए दिशानिर्देशों में इस पहलू को और अधिक विस्तारपूर्वक शामिल करें।
पारदर्शिता सिफारिश - 22 लेखांकन मानक निर्धारकों को चाहिए कि वित्तीय लिखतों के लिए लेखांकन मानकों की जटिलता को कम करें और प्रस्तुति के मानकों को बढ़ाएं ताकि वित्तीय विवरणी के प्रयोगकर्ता वित्तीय लिखतों के मूल्यांकन के चारों ओर व्याप्त अनिश्चितता का बेहतर आकलन कर सकें।
सिफारिश - 23 आइएएसबी को चाहिए कि इस प्रक्रिया को पूरा कर चुके देशों के अनुभवों को बाँटकर और तकनीकी सहायता प्रदान करके उच्च-कोटि के लेखांकन मानकों के सिंगल-सेट के प्रति विश्वव्यापी संपरिवर्तन की सुविधा देने वाले प्रयासों को तेज करे।
प्रवर्तन सिफारिश - 24 विनियमों को प्रभावी रूप से लागू करना सभी वित्तीय विनियामकों की प्राथमिकता होनी चाहिए। इस प्रकार, राष्ट्रीय वित्तीय नियामकों और निगरानी प्राधिकरणों को अपने प्रवर्तन क्रियाकलापों की प्रभावशीलता सुनिश्चित करनी चाहिए और यह भी सुनिश्चित करना चाहिए कि विनियम के अनुप्रयोग की निगरानी और अपराधियों पर मुकदमा चलाने के लिए समुचित संसाधन उपलब्ध हैं। प्रवर्तन का कार्य अन्य क्रियाकलापों या बाहरी प्रभावों से मुक्त होना चाहिए।
उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में तकनीकी सहायता और क्षमता निर्माण सिफारिश - 25 इस सत्य को स्वीकार करते हुए कि वित्तीय प्रणालियों के विकास की डिग्री जी-20 में भी पर्याप्त रूप से अलग है, तो राष्ट्रीय प्राधिकरणों को चाहिए कि विनियामक संरचनाओं को सुदृढ़ करने के लिए क्षमता बढ़ाने में आपस में मदद करने के लिए वचनबद्ध रहें। इसके अलावा आइओएससीओ, आइएआइएस और बीसीबीएस में तकनीकी सहायता प्रदान करने के लिए समुचित क्षमता होनी चाहिए। उदीयमान बाजार अर्थव्यवस्थाओं की जरूरतों पर विशेष रूप से विचार करना होगा।
जी -20 नेताओं की घोषणा जी-20 लीडरों की घोषणा में वित्तीय प्रणाली को सुदृढ़ बनाने के लिए महत्वपूर्ण तत्व निम्नलिखित रहे: अन्तरराष्ट्रीय सहयोग महत्वपूर्ण विदेशी फर्मों के लिए शेष बचे पर्यवेक्षी कॉलेजों को जून 2009 तक स्थापित कर दिया जाएगा, 28 ऐसे कॉलेज पहले ही हैं।
कराधान सुविधा और असहयोगी अधिकार क्षेत्र करदाताओं और वित्तीय संस्थानों से बढ़ती हुई प्रकटन अपेक्षाएँ जिनमें कहा जाता है कि असहयोगी अधिकारक्षेत्रों में हुए लेनदेन की रिपोर्ट करें।
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