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भारतीय रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2006-07 के लिए वार्षिक रिपोर्ट जारी किया वर्ष 2006-07 का आकलन

30 अगस्त 2007

भारतीय रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2006-07 के लिए वार्षिक रिपोर्ट जारी किया वर्ष 2006-07 का आकलन

समग्र निष्पादन

वर्ष 2006-07 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था में निर्माण और सेवा क्षेत्र की गतिविधियों के कारण वृद्धि में तेजी आई। घरेलू बचत और निवेश बढ़ने के कारण वर्ष 2003-04 से जारी उच्चतर वृद्धि को बल मिला है। तथापि, इसी के साथ वर्ष 2006-07 के दौरान मजबूत वृद्धि के साथ-साथ कुछ क्षेत्रों में क्षमता बाध्यता के कारण मुद्रास्फीति का दबाव, कुल मौद्रिक और ऋण राशियों में सुदृढ़ वृद्धि, खाद्यान्न और तिलहन के घरेलू उत्पादन में मांग और पूर्ति में अंतर तथा वस्तुओं की कीमतों में दुनिया भर में मजबूती देखी गई। रिज़र्व बैंक द्वारा समय पर किए गए समुचित उपायों और सरकार द्वारा बढ़ते हुए मूल्यों के संबंध में आपूर्ति की ओर की गई अन्य कार्रवाई से हेडलाइन मुद्रास्फीति को रोकने में मदद मिली। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि इन उपायों से कुछ हद तक मुद्रास्फीति की संभावना को रोकने में मदद मिली। समग्र रूप में सभी क्षेत्रों में और विशेष रूप में औद्योगिक क्षेत्र में हुई सुदृढ़ वृद्धि से कार्पोरेट क्षेत्र को ऊँची लाभप्रदता बनाए रखने में मदद मिली है। इसके परिणामस्वरूप भारी कर संग्रहण हुआ है और इस ने लोक वित्त के सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। विकास प्रक्रिया को वित्तीय बाजार की स्थिति ने सुविधा प्रदान की है, जो उतार चढ़ाव की कुछ घटनाओं को छोड़कर व्यवस्थित रही है। तथापि, वित्तीय बाजार के विभिन्न घटकों की ब्याज दरें कुछ हद तक बढ़ गईं। मजबूत वृद्धि के फलस्वरूप व्यापार का घाटा अधिक हो गया। फिर भी सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के रूप में चालू खाते का घाटा पिछले वर्ष की तुलना में अपरिवर्तित रहा क्योंकि विशुद्ध अगोचर अधिशेष (नेट इनविजिबल्स सरप्लस) में जारी उछाल ने पण्य व्यापार के घाटे की काफी हद तक क्षतिपूर्ति कर दी। मुख्यतः बाहरी वाणिज्यिक उधारों और विशुद्ध विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) के रूप में आए बड़े पूंजी प्रवाहों से विदेशी मुद्रा भंडार में भारी वृद्धि हुई।

वर्ष 2005-06 के दौरान वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि 9.0 प्रतिशत से बढ़कर 2006-07 में 9.4 प्रतिशत हो गई। इस प्रकार, 2006-07 को समाप्त चार वर्ष की अवधि में वृद्धि औसतन 8.6 प्रतिशत रही। दसवीं पंच वर्षीय योजना में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि का औसत 7.6 प्रतिशत प्रतिवर्ष था, जो किसी भी योजना अवधि में अधिकतम है। वर्ष 2006-07 के दौरान वृद्धि दर में तेजी औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में उछाल के कारण आई जिसने दुहरे अंकों में वृद्धि (11.0 प्रतिशत) दर्शायी क्योंकि उद्योग और सेवा क्षेत्र की उच्चतर वृद्धि ने कृषि क्षेत्र की गिरावट की भरपाई से भी अधिक का योगदान कर दिया। कृषि क्षेत्र में वृद्धि 2005-06 के दौरान 6.0 प्रतिशत से कम होकर 2006-07 में 2.7 प्रतिशत हो गई, जो अंशतः दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून के दौरान छिट-पुट वर्षा तथा 2005-06 में अधिक वृद्धि दिखाने वाले आधार प्रभावों के कारण थी। यद्यपि 2006-07 में समग्र खाद्यान्न उत्पादन में 3.6 प्रतिशत वृद्धि हुई, मुख्य फसलों का उत्पादन अभी भी 2001-02 की पिछली ऊँचाइयों तक नहीं पहुँचा है।

मौद्रिक गतिविधियाँ

2006-07 के दौरान मुद्रा आपूर्ति (एम3) 2005-06 के 17.0 (3,96,878 करोड़ रुपए) प्रतिशत से बढ़कर 21.3 (5,80,733 करोड़ रुपए) प्रतिशत हो गई। प्रमुख हिस्सों को देखें तो, मीयादी जमाराशियों में वर्ष 2005-06 के दौरान 15.3 प्रतिशत (2,53,056 करोड़ रुपए) की वृद्धि की तुलना में 2006-07 के दौरान 23.2 प्रतिशत (4,41,913 करोड़ रुपए) की वृद्धि देखी गई जो बैंक जमाराशियों पर उच्चतर ब्याज दरों तथा समुचित परिपक्वता वाली बैंक जमाराशियों के लिए 80सी के अंतर्गत उपलब्ध कर लाभों के कारण हो सकती हैं। संसाधनों की ओर, बैंक ऋण में वृद्धि ऊँची रही, वैसे पिछले दो वर्षों की तुलना में उसमें कुछ नरमी थी। बैंक ऋण की मांग का आधार वर्ष 2006-07 के दौरान व्यापक रहा जिसमें समग्र खाद्येतर ऋण में क्रमिक विस्तार का 14 प्रतिशत, 36 प्रतिशत और 24 प्रतिशत क्रमशः कृषि, उद्योग और व्यक्तिगत ऋण क्षेत्रों की ओर गया। जमीन-जायदाद (रियल इस्टेट) जैसे क्षेत्रों में ऋण की वृद्धि अधिक रही है यद्यपि कुछ नरमी बनी रही। आस्ति गुणवत्ता बनाए रखने के लिए रिज़र्व बैंक ने ऋण में अधिक वृद्धि वाले क्षेत्रों के लिए प्रावधानीकरण और जोख़िम भार संबंधी अपेक्षाओं को और कड़ा कर दिया है। बैंकों का सांविधिक चलनिधि अनुपात निवेश, उनकी निवल मांग और मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) के अनुपात के रूप में मार्च 2007 के अंत तक और कम होकर 28.0 प्रतिशत हो गया (25 प्रतिशत के निर्धारित अनुपात के समीप) क्योंकि निवेश में विस्तार निवल माँग और मीयादी देयताओं के विस्तार के अनुरूप नहीं था। निवल विदेशी आस्तियाँ प्रारक्षित मुद्रा का मुख्य संचालक बनी रहीं और रिज़र्व बैंक ने बाजार चलनिधि को चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के अंतर्गत परिचालनों, बाजार स्थिरीकरण (एमएसएस) योजना के अंतर्गत प्रतिभ्झातियाँ जारी करके और नकदी प्रारक्षित निधि अनुपात (सीआरआर) के उपयोग के माध्यम से नियंत्रित करना जारी रखा।

1 अप्रैल 2006 को वर्ष-दर-वर्ष आधार पर हेडलाइन मुद्रास्फीति 4.0 प्रतिशत से बढ़कर 31 मार्च 2007 को 5.9 प्रशित हो गई जो वर्ष के दौरान 27 जनवरी 2007 को सबसे अधिक 6.7 प्रतिशत और 15 अप्रैल 2006 को सबसे कम 3.7 प्रतिशत थी। वर्ष 2006-07 के दौरान मांग और पूर्ति दोनों के कारकों से मुद्रास्फीति का दबाव बढ़ा है। माँग का दबाव उच्चतर निवेश और उपभोग माँग दोनों, ऋण और मौद्रिक सकल राशियों में सुदृढ़ तथा बढ़े हुए आस्ति मूल्यों से उत्पन्न हुआ। आपूर्ति की ओर से दबाव प्रमुख खाद्यान्नों और तिलहनों के घरेलू उत्पादन में बढ़ती हुई वैश्विक कीमतों के बीच माँग-आपूर्ति अंतर से उत्पन्न हुआ। यद्यपि, वर्ष 2006-07 के दौरान घरेलू कृषि उत्पादन में कुछ सुधार था, विगत कुछ वर्षों के दौरान प्रमुख खाद्यान्नों के उत्पादन में ठहराव आया है। उदाहरण के लिए मुख्य फसलों में, 2006-07 के दौरान चावल, गेहूं और दालों की पैदावार क्रमशः2001-02,1999-2000 और 1998-99 की ऊँचाइयों से कम थी। उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति मार्च 2006 के 4.9 - 5.3 प्रतिशत से बढ़कर मार्च 2007 में 6.7 - 9.5 प्रतिशत हो गई जो मुख्यतः खाद्य पदार्थों के उच्चतर मूल्यों का प्रभाव बतलाता है। मुद्रास्फीति को कम करने और मुद्रास्फीति संबंधी संभावनाओं को स्थिर करने के लिए रिज़र्व बैंक ने विभिन्न उपायों का लचीलेपन के साथ प्रयोग करते हुए समय से पहले ही प्रतिकारक कार्रवाई करने और मौद्रिक निभाव को धीरे-धीरे हटाने की अपनी नीति जारी रखी। वर्ष 2004 की दूसरी छमाही और 31 जुलाई 2007 के मध्य तक रिपो और रिवर्स रिपो दरों में क्रमशः 175 आधार पाइंट और 150 आधार पाइंट तक की वृद्धि हुई है। इसके साथ-साथ नकदी प्रारक्षित अनुपात में 250 आधार पाइंट (4 अगस्त 2007 से प्रभावी 50 आधार बिन्दुओं की वृद्धि सहित) की वृद्धि हुई है। सरकार ने 2006-07 के अन्तिम भाग में मुद्रास्फीति कम करने के विभिन्न राजकोषीय तथा आपूर्ति संबंधी उपाय किए हैं।

भुगतान संतुलन

वर्ष 2006-07 के दौरान भारत के भुगतान संतुलन में कई सकारात्मक विशेषताएं दिखाई दीं। 2005-06 की मजबूत वृद्धि में कुछ धीमेपन के बावज़ूद 2006-07 में व्यापारिक वस्तुओं के व्यापार में सतत सुदृढ़ वृद्धि बनी रही। भुगतान संतुलन आधार पर निर्यात की तुलना में आयात में अपेक्षाकृत अधिक वृद्धि के कारण व्यापार घाटे में लगातार वृद्धि होती रही। तो भी, सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के प्रतिशत के रूप में चालू खाता घाटा पिछले वर्ष से अपरिवर्तित (जीडीपी का 1.1 प्रतिशत) बना रहा क्योंकि निवल अदृश्य अधिशेष में सतत उछाल से व्यापारिक वस्तुओं का व्यापार घाटा काफी हद तक पूरा हो गया। भारत में विशुद्ध पूंजी अंतर्वाह उछाल भरा रहा (जीडीपी का 4.9 प्रतिशत) जो चालू खाता घाटा से बहुत ज्यादा था। उच्च पूंजी प्रवाहों का श्रेय समष्टि आर्थिक मूलभूत संरचना की मजबूती, निवेशकों के बढ़े विश्वास और वैश्विक रूप से प्रचुर चलनिधि को दिया जा सकता है। वर्ष 2006-07 के दौरान विदेश से 19.4 बिलियन अमरीकी डालर का निवल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश कुल 3.2 बिलियन अमरीकी डालर (निवल) के विदेशी संस्थागत निवेश से अधिक रहा। 25.0 बिलियन अमरीकी डालर के रहे ऋण प्रवाह (निवल) में बाह्य वाणिज्यिक उधारों का स्थान सबसे आगे था जो सुदृढ़ निवेश मांग दर्शाता है। चालू खाता घाटा का वित्तपोषण करने के बाद निवल पूंजी प्रवाह से 2006-07 में विदेशी मुद्रा भंडार में 36.6 बिलियन अमरीकी डालर की वृद्धि हुई जिसमें मूल्यन के कारण होने वाले परिवर्तन शामिल नहीं हैं।

वित्तीय बाजार

वित्तीय बाजार, अस्थिरता के कुछ प्रकरणों खासकर मार्च 2007 की दूसरी छमाही के कुछ प्रकरणों को छोड़कर, 2006-07 में व्यवस्थित रहे। पूंजी अंतर्वाह और सरकारी नकद शेषों की गतिविधियां चलनिधि स्थितियों और रात भर की ब्याज दरों की प्रमुख संचालक बनी रहीं — वर्ष के दौरान विभिन्न बाजार खंडों में ब्याज दरें बढ़ गईं जो रिज़र्व बैंक द्वारा पूर्वकृत मौद्रिक सुदृढ़ता उपायों के लिए उठाए गए कदमों के अनुरूप थीं। कमोबेश भारतीय रुपए की विनिमय दर ने 2006-07 में प्रमुख आरक्षित करेंसियों की तुलना में दुतरफा चाल दर्शाई। शेयर बाजार में बीच-बीच में करेक्शन के साथ 2006-07 में उछाल बना रहा और बेंचमार्क सूचकांक रिकार्ड ऊंचाइयों पर पहुंचा।

2007-08 में संभावनाएं

अब तक उपलब्ध सूचना दर्शाती है कि 2007-08 में वृद्धि की गति लगातार जोरदार बनी हुई है और वृद्धि के आवेगों का आधार ज्यादा व्यापक होता जा रहा है। सकल घरेलू बचत और निवेश, उपभोग मांग की दर में स्थिर वृद्धियों और नई क्षमताओं के जुड़ने के साथ-साथ मौज़ूदा क्षमता के अधिक सघन और सक्षम उपयोग/लाभ उठाने से 2007-08 में वृद्धि को अधिक समर्थन मिलने की आशा है।

मौद्रिक नीति के प्रयोजनों से रिज़र्व बैंक ने अपने वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में 2007-08 के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि दर 8.5 प्रतिशत के आसपास मानी है, मगर इसमें यह मानकर चला गया है कि तेल के अंतरराष्ट्रीय मूल्य में और वृद्धि नहीं होगी और कोई घरेलू या बाह्य आघात नहीं लगेगा। कुल मांग पर मौद्रिक नीति के पिछले और संचित प्रभाव के मद्देनज़र और यह मानते हुए कि आपूर्ति प्रबंधन सुगम रहेगा, पूंजीगत प्रवाह का प्रबंधन सक्रिय ढंग से किया जाएगा तथा घरेलू और वैश्विक अर्थव्यवस्था से उत्पन्न होने वाले आघात न लगने की स्थिति में रिज़र्व बैंक ने अपने वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में यह उल्लेख किया है कि 2007-08 में मुद्रास्फीति को 5.0 प्रतिशत के आसपास रखने के लिए नीतिगत प्रयास किए जाएंगे। रिज़र्व बैंक ने मौद्रिक नीति के अपने वार्षिक नीतिगत वक्तव्य की पहली तिमाही की समीक्षा में जुलाई 2007 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि का अनुमान 8.5 प्रतिशत के आसपास रखा है। इसमें घरेलू और बाह्य आघातों को शामिल नहीं किया गया है। यह मानते हुए कि सकल आपूर्ति प्रबंधन पर सरकार की नीतियों में ध्यान दिया जाना जारी रहेगा और पूंजीगत खाता में सक्रिय प्रबंधन देखने में आएगा, 2007-08 की पहली तिमाही समीक्षा में मुद्रास्फीति की संभावना अपरिवर्तित रही। तदनुसार, समीक्षा में यह भी बताया गया कि नीतिगत व्यवस्था में 2007-08 में हेडलाइन इनफ्लेशन को 5.0 प्रतिशत के अंदर रखने को पहली प्राथमिकता दी जाएगी; जबकि मुद्रास्फीति को घटाकर लगातार 4.0 - 4.5 प्रतिशत पर बनाए रखने की दृष्टि से नीति व अवधारणाओं को शक्ल देने के मध्यावधि उद्देश्यों पर जोर बनाए रखा जाएगा।

मौद्रिक प्रबंध

03 अगस्त 2007 को मुद्रा आपूर्ति में हुआ (वर्ष-दर-वर्ष) विस्तार (21.7 प्रतिशत) पिछले वर्ष (19.3 प्रतिशत) से अधिक रहा तथा यह वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में निर्दिष्ट 17.0-17.5 प्रतिशत के संकेतिक अनुमान से भी अधिक रहा। मीयादी जमा के नेतृत्व में कुल जमा की वृद्धि में तेजी आई। बैंक ऋण में पिछले तीन वर्ष की सुदृढ़ तेजी के बाद कुछ मंदी दिखी। वर्ष-दर-वर्ष आधार पर 3 अगस्त 2007 को अनुसूचित वाणिज्य बैंकों का खाद्येतर ऋण पिछले वर्ष के 32.5 प्रतिशत की तुलना में 23.6 प्रतिशत रहा। एसएलआर प्रतिभूतियों में वाणिज्य बैंकों का निवेश उनकी निवल और मांग देयताओं के 28.6 प्रतिशत के स्तर पर रहा जो मार्च 2007 के अंत के प्रतिशत से कुछ अधिक रहा पर पिछले वर्ष के 31.1 प्रतिशत से कम रहा। 10 अगस्त 2007 को आरक्षित मुद्रा में 26.9 प्रतिशत (सीआरआर वृद्धि के प्रथम चरण के प्रभाव के समायोजन के लिए 19.6 प्रतिशत) की वृद्धि पिछले वर्ष (17.2 प्रतिशत) से अधिक थी और मुख्यतः इसलिए कि इसमें रिज़र्व बैंक निवल विदेशी आस्तियों में हुई वृद्धि का सहयोग मिला।

थोक मूल्य संचकांक (डब्ल्यूपीआइ) की गतिविधि पर आधारित हेडलाइन इनफ्लेशन मार्च 2007 के अंत के 5.9 प्रतिशत तथा पिछले वर्ष के 5.1 प्रतिशत से कम होकर 11 अगस्त 2007 को 4.1 प्रतिशत हुआ। डब्ल्यूपीआई के तीनों उप-समूहों की मुद्रास्फीति उनके मार्च समाप्ति के स्तर से कम रही। ईंधन समूह मुद्रास्फीति नकारात्मक हो गई (-2.1 प्रतिशत) जो नवंबर 2006 तथा फरवरी 2007 में घरेलू कीमतों में आई गिरावट को दर्शाती है। तथापि, घरेलू बाजार में जब अंतिम बार कमी की गई तबसे तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों (औसत) में फरवरी 2007 से जुलाई 2007 तक 28 प्रतिशत की वृद्धि हो चुकी है। खाद्य और धातुओं के नेतृत्व में तेल से इतर वैश्विक पण्यों की कीमतों में मजबूती बनी रही। मार्च 2007 (6.7 - 9.5 प्रतिशत) की तुलना में जून 2007 (5.7 - 7.8 प्रतिशत) में उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति की विभिन्न गतिविधियां नीचे रहीं। तथापि, उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति मुख्यतः खाद्यान्नों की ऊंची कीमत के चलते थोक मूल्य मुद्रास्फीति से अधिक रही। यद्यपि, मार्च 2007 की समाप्ति के बाद मुद्रास्फीति कुछ कम हुई है मगर कई संभाव्य कारणों से मुद्रस्फीतिय दबाव बने रह सकते हैं। पण्यों की अंतरराष्ट्रीय कीमतों, विशेषकर तेल की कीमतों में और तेजी आने के बारे में चिंता बनी हुई है। इसके अलावा, मौद्रिक राशि में सुदृढ़ वृद्धि, आस्तियों के उच्चतर मूल्य और घरेलू चलनिधि परिस्थितियों पर प्रभाव डाल सकने वाले बड़े पूंजी आगम जैसे घरेलू कारकों से उत्पन्न होने वाले संभाव्य मुद्रास्फीतिकारी दबावों को समझने की आवश्यकता है। तदनुसार, मूल्य स्थायित्व को बनाए रखने के लिए आवश्यक है कि सभी संबंधित पक्ष समुचित नीतिगत कार्रवाईयों के साथ-साथ निरंतर निगरानी रखें ताकि मुद्रास्फीतिजन्य प्रत्याशाओं पर नियंत्रण कायम रखा जा सके।

जैसा कि वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में देखा गया है उसी के अनुसार 2007-08 में मौद्रिक नीति का रुझान उस स्थिति पर निर्भर करेगा जिसके हिसाब से वैश्विक और विशेषतः घरेलू माहौल उभरेगा। जिस ढंग से समष्टि आर्थिक तथा वित्तीय परिस्थितियां उभर रहीं हैं उसके हिसाब से भारत के वर्तमान वृद्धि स्तर को अनवरत आधार पर बनाए रखने के लिए समर्थक महौल बना रहेगा। विकास में योगदान देने के साथ ही मौद्रिक नीति को कीमत और वित्तीय स्थायित्व के लिए सही परिस्थितियां भी सुनिश्चित करनी होगी। तदनुसार, आगे आने वाले समय में नीतिगत अधिमानता हेतु मूल्य स्थायित्व तथा मुद्रास्फीतिकारी प्रत्याशाओं से निपटने पर प्राथमिकता देने की वकालत की गई। रिज़र्व बैंक ने वार्षिक नीतिगत वक्तव्य की जुलाई 2007 में हुई अपनी पहली तिमाही समीक्षा में यह कहा कि घरेलू अर्थव्यवस्था की वृद्धि तथा स्थायित्व के लिए खतरा उत्पन्न करने वाली उन वैश्विक अनिश्चितताओं की प्रबलता की स्थिति में भारत में मौद्रिक नीति को सतर्क और सक्रिय रहना होगा। घरेलू संभावनाएं सकारात्मक रहेंगी और आगे आने वाले समय में मौद्रिक नीति तैयार करने में इनका प्रमुख स्थान होगा। इसलिए ऐसी मौद्रिक नीति बनाना महत्वपूर्ण है जो स्थायित्व बनाए रखकर विकास को सुरक्षित रखने में अपना योगदान दे। तद्नुसार जहां एक ओर मूल्य स्थायित्व और सुस्थिर मुद्रास्फीतिकारी संभावनाएं जिसके द्वारा विकास की रफ्तार जारी रहे, पर जोर देने का मौद्रिक नीति का रुझान बरकरार रहेगा वहीं परिस्थितियों के अनुसार आगे आने वाले महीनों में वित्तीय स्थैर्य अधिक महत्व हासिल कर सकता है।

कृषि

प्रमुख खाद्य वस्तुओं की हाल में बढ़ती हुई वैश्विक कीमतों ने घरेलू कृषि क्षेत्र और समग्र रूप से समष्टि आर्थिक एवं वित्तीय स्थिरता पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डाला है। वैश्विक स्तर पर खाद्यान्न की कीमतों में वृद्धि दर्शाती है कि खाद्यान्नों के वैश्विक उत्पादन में कमी आई है और जैव-ईंधनों जैसे खाद्येतर उपयोगों के लिए, उनकी माँग बढ़ी है।प्रमुख खाद्य कीमतों में जारी वृद्धि को प्रतिबिम्बित करते हुए खाद्य मूल्य सूचकांक (अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा संकलित) जून 2007 में 26 वर्षों के उच्च स्तर तक पहुँचा, जो वर्ष 1981 के प्रारंभ से उच्चतम स्तर पर है। वैश्विक खाद्य मूल्यों में बढ़ोतरी की इस प्रवृत्ति की पृष्ठभूमि में भारतीय कृषि, विशेषतः खाद्यान्न फसलों में वृद्धि को बढ़ाने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने की आवश्यकता है।

यद्यपि समग्र सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि का हिस्सा वर्षों के दौरान वर्ष 1980-81 के लगभग 40 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2006-07 में पाँचवें हिस्से से भी कम हो गया है फिर भी भारतीय अर्थव्यवस्था में इसकी एक महत्वपूर्ण भूमिका बनी हुई है। तथापि, 90 के दशक के मध्य से कृषि क्षेत्र का विकास कम होने के साथ-साथ उतार-चढ़ाव भरा रहा है, इसका विकास 1980 के दशक के दौरान प्रतिवर्ष 4.7 प्रतिशत के वार्षिक औसत से कम होकर 1990 के दशक में 3.1 प्रतिशत और पुनः दसवीं योजना अवधि के दौरान कम होकर 2.2 प्रतिशत हो गया। कृषि उत्पादन में उतार-चढ़ाव का केवल समग्र विकास पर ही प्रभाव नहीं पड़ा है बल्कि न्यून और स्थिर मुद्रास्फीति बनाए रखने में भी, जैसाकि वर्ष 2006-07 में व्यापक रूप से अनुभव में आया है, प्रभाव हुआ है। कृषि क्षेत्र का परिवर्धित विकास खाद्य सुरक्षा, गरीबी उन्मूलन, मूल्य स्थिरता, समग्र अर्थव्यवस्था के विकास के संपूर्ण सम्मिलित विकास और निरंतरता के लिए परमावश्यक है।

1990 के दशक के मध्य से कृषि विकास में कमी का कारण स्थिर/ह्रासशील उपज हो सकती है जो विभिन्न कारकों जैसे निवेश में ह्रास, समुचित सिंचाई सुविधा का अभाव, अपर्याप्त अन्य मूलभूत सुविधाओं, अधिक उपज देनेवाले बीजों के विकास के लिए अनुसंधान और विकास (आर एण्ड टी) में अपर्याप्त ध्यान, प्रमुख प्रौद्योगिकीय सफलताओं के अभाव और उर्वरकों / पोषक तत्वों के अनुचित प्रयोग एवं संस्थागत कमजोरियों के परिणाम के रूप में लक्षित होता है। प्रमुख खाद्यान्नों के उत्पादन में ठहराव को देखते हुए, परंपरागत क्षेत्रों की अपेक्षा उपयुक्त कृषि-जलवायु स्थितियों के साथ वैकल्पिक संभाव्य क्षेत्रों विशेषतः चावल और गेहूँ के मामले में उत्पादन प्रयासों पर पुनः ध्यान केंद्रित करने की आवश्यकता है। चूँकि भारतीय कृषि मानसून पर भारी मात्रा में निर्भर रही है, कृषकों की पानी के लिए बढ़ती अपेक्षाओं को पूरा करने हेतु सिंचाई की संभावना में वृद्धि तथा कृषि उत्पादन और उपज को स्थिरता प्रदान करने पर अत्यधिक जोर देने की आवश्यकता है। आनेवाले वर्षों में कृषि अनुसंधान पर और ज्यादा ध्यान केंद्रित करने की जरुरत है क्योंकि अब तक सफलता चुनिंदा फसलों तक ही सीमित रही है। वास्तविक और संभावित उपज के बीच बढ़ती हुई असमानता अनुसंधान और विस्तार के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर का संकेत देती है। विस्तार प्रणाली को पुर्नजीवित करना अत्यावश्यक है ताकि यह नवीकृत कृषि विकास की उभरती हुई माँग को पूरा कर सके।विपणन सुधारों को लाने के लिए सभी राज्यों में कृषि उत्पाद विपणन समिति (एपीएमसी) अधिनियम के कार्यान्वयन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। एक ऐसे समुचित विधायी संरचना की भी जरूरत है जो सहभागी संगठनों के लिए सहायक हो सके। महत्त्वूपर्ण मौसम और मूल्य जोखिमों की दृष्टि से, आपदग्रस्त किसानों को राहत उपलब्ध कराने तथा उत्पादन क्षमता में वृद्धि करने के लिए समुचित जोखिम ह्रास नीतियों को लागू करने की आवश्यकता होगी। जहाँ ग्यारहवीं योजना के दौरान प्रति वर्ष चार प्रतिशत तक कृषि विकास की परिकल्पना की गई है, योजना आयोग के पूर्वानुमान खाद्यान्नों के उत्पादन में प्रति वर्ष 2-2.5 प्रतिशत तक वृद्धि का संकेत करते हैं। इस प्रकार चार प्रतिशत के समग्र लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए खाद्येतर उत्पादन को और अधिक उच्चतर दर से बढ़ाना होगा जिसके लिए बागवानी, दुग्ध-उत्पादन, मुर्गी-पालन और मत्स्य-पालन जैसी गतिविधि में भारी विकास करना होगा। इसके लिए 1970 के दशक जैसी हरित क्रान्ति की आवश्यकता होगी।

सम्मिलित विकास में अन्य बातों के साथ-साथ संस्थागत ऋण की परिवर्धित और आसान उपलब्धि के लिए महत्तम वित्तीय समावेशन की आवश्यकता होती है। आधुनिक प्रौद्योगिकी को अंगीकृत करते हुए बैंकों और कई राज्य सरकारों के सहयोग से रिज़र्व बैंक द्वारा शुरू किये गये वित्तीय समावेशन कार्यक्रम को तेज करने और अतिशीघ्र विस्तार प्रदान करने की आवश्यकता है। लघु और विखण्डित फॉर्म जोतों की दृष्टि से कृषि गतिविधि और आय पर निर्भर जनसंख्या को भविष्य में कृषीतर आय के स्रोतों पर व्यापक रूप से निर्भर रहना होगा। अतः मुर्गी-पालन, खाद्य संसाधन, अन्य ग्रामीण उद्योगों जैसी अलग-अलग गतिविधियों की ओर बढ़ना ग्रामीण क्षेत्र में जीवन स्तर को बेहतर बनाने के लिए महत्वपूर्ण होगा। जबकि वर्ष 1990 के दशक के प्रारंभ से ही वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारतीय अर्थव्यवस्था का तेजी से एकीकरण होता रहा है, देश के भीतर अंतर-क्षेत्रीय एकीकरण में प्रगति को और तेज करने की आवश्यकता है ताकि ग्रामीण क्षेत्र उच्चतर विकास का लाभ उठा सकें।

उद्योग और मूलभूत सुविधा

वर्ष 2002-03 के दौरान औद्योगिक उत्पादन में उछाल बढ़ती हुई घरेलू और बाहरी माँग के परिणामस्वरूप वर्ष 2006-07 तक जारी रहा। लगातार जारी विकास से क्षमता में और अधिक बढ़ोत्तरी हुई है और इससे उच्चतर निवेश गतिविधियों में सहयोग मिल रहा है। पूँजी स्टॉक का आधुनिकीकरण, आयात शुल्क तथा अन्य करों में कमी / विवेकसम्मत बनाए जाने, अर्थव्यवस्था के खुलेपन में बढ़ोत्तरी, उच्चतर प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अन्तर्वाह, उच्चतर प्रतिस्पर्धात्मक दबाव, सूचना और संचार प्रौद्योगिकी में बढ़े हुए निवेश तथा व्यापक वित्तीय गहनता से उद्योग में उत्पादकता लाभों को सहयोग मिल रहा है।उद्योग क्षेत्र का निरंतर विकास रोजगार के अवसर पैदा करने और कृषि क्षेत्र पर निर्भर प्रच्छन्न श्रम-शक्ति को आमेलित करने के लिए महत्त्वपूर्ण है।

कई मूलभूत सुविधा कमियों के बावजूद, विनिर्माण क्षेत्र ने मजबूत विकास किया है। उद्योग के फलने-फ़ूलने लायक वातावरण उपलब्ध कराने के लिए यह अनिवार्य है कि मौजूदा आधारभूत व्यवस्थाओंं, विशेषतः सड़कों, बन्दरगाहों और विद्युत में बढ़ोत्तरी की जाए। अब तक मूलभूत सुविधा क्षेत्र में मिश्रित प्रगति हुई है। दूर-संचार क्षेत्र में महती प्रगति हुई है जैसा कि देश में बढ़ते हुए मोबाइल टेलीफोन के त्वरित प्रसार में प्रतिबिम्बित हुआ है। रेलवे और बन्दरगाहों में भी कुछ सुधार हुआ है। तथापि, अन्य क्षेत्रों जैसे कि विद्युत, कोयला, जल, सड़क, शहरी मूलभूत सुविधा और ग्रामीण मूलभूत सुविधा में प्रगति पर्याप्त से कम है। विकास की प्रक्रिया में शहरी इफ्रास्ट्रक्चर एक महत्वपूर्ण कारक होता है। अध्ययन से पता चलता है कि शहरी क्षेत्रों के आकार में वृद्धि के फलस्वरूप उत्पादन को काफी फायदे मिलते हैं। ये फायदे उत्पाद तथा श्रम बाजारों से निकटता के कारण मिलते हैं जो एक तरफ व्यापार एवं परिवहन की लागत में बचत और दूसरी तरफ कुशल श्रम की उपलब्ध कराते हैं। समग्र सक्षमता में सुधार के लिए सभी प्रकार के आाकारवाले शहरों की सक्षम कार्यप्रणाली आवश्यक है। गरीबों के कल्याण के लिए शहरी क्षेत्रों में जल, परिवहन, सफाई, स्वास्थ्य तथा शिक्षा की सुविधाओं में सुधार की भी आवश्यकता है। प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में गठित आधारभूत संरचना पर उच्चस्तरीय समिति का अनुमान है कि विश्व स्तरीय आधारभूत संरचना विकसित करने के लिए ग्यारहवीं योजना के दौरान 14,50,000 करोड़ रुपये का निवेश जरूरी होगा। इसके लिए सार्वजनिक तथा निजी क्षेत्रों द्वारा आधारभूत संरचना पर अपने खर्च में ठोस वृद्धि करते हुए उसे प्रतिवर्ष सकल घरेलू उत्पाद के 4.6 प्रतिशत के मौजूदा स्तर को बढ़ाकर लगभग 8 प्रतिशत करना होगा।

सेवाएं

विनिर्माण गतिविधियों की अनवरत मजबूती, पर्यटन में मजबूत वृद्धि, दूरसंचार के क्षेत्र में सुधारों, सूचना प्रौद्योगिकी (आईटी) एवं बीपीओ क्षेत्रों में उछाल, निर्माण क्षेत्र में भारी-भरकम वृद्धि, जमा एवं ऋण वृद्धि में तेजी तथा बीमा क्षेत्र के खुलने के कारण हाल के वर्षों में सेवाओं के क्षेत्र में तेजी आई है। सेवा क्षेत्र के प्रभावशाली प्रदर्शन का मुख्य श्रेय कुशल एवं सस्ते श्रम की उपलब्धता को जाता है। तथापि, सेवाओं एवं विनिर्माण गतिविधियों में अनवरत तेजी का प्रारंभिक दबाव गुणवत्ता संपन्न कुशल श्रम की आपूर्ति पर पड़ रहा है। हालांकि मानवशक्ति की उपलब्धता हमारे देश के जनसांख्यिकी प्रेफाइल के कारण उसके पक्ष में है फिर भी इस तरह की सूचनाएं मिल रही हैं कि प्रतिभाओं की कमी उभरकर सामने आ रही है। जनसांख्यिकीय प्रतिलाभ का लाभ उठाने के लिए शिक्षा क्षेत्र को ठोस ढंग से विस्तार देने तथा उसमें सुधार की तात्कालिक आधार पर जरूरत है।

राजकोषीय नीति

एफ आर बी एम के नियम आधारित ढांचे के अंतर्गत केंद्र सरकार के वित्त में राजकोषीय सुदृढ़ीकरण की प्रक्रिया की विशेषता रही है: वर्ष 2004-05 के दौरान घाटा सूचकांक में शुरू में ही खर्च कर दिए जाने के कारण कमी, वर्ष 2005-06 के दौरान ठहराव तथा वर्ष 2006-07 के दौरान इस प्रक्रिया की पुनः शुरुआत। राजकोषीय सुधार की प्रक्रिया 2007-08 में जारी रहेगी। वर्ष 2007-08 के दौरान सकल राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 3.3 प्रतिशत के स्तर पर रहने के कारण वर्ष 2008-09 तक 3.0 प्रतिशत का एफआरबीएम लक्ष्य व्यावहारिक प्रतीत होता है। वर्ष 2007-08 के लिए बजट में राजस्व घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के 1.5 प्रतिशत पर रखा गया है; वहीं वर्ष 2008-09 में एफआरबीएम के जरिए राजस्व घाटे को समाप्त करने की परिकल्पना की गई है। एफआरबीएम लक्ष्य को पूरा करने के लिए वर्ष 2008-09 के दौरान राजस्व घाटे/ सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात में 1.5 प्रतिशत की कमी करनी होगी —

राजकोषीय समेकन की रणनीति को राजस्व-प्रधान सुधारों और परिणामों पर फोकस के साथ व्ययों के पुनर्प्राथमिकीकरण के द्वारा समर्थन प्राप्त हुआ,जो समायोजन की सुधरी हई गुणवत्ता को परिलक्षित करता है। कर राजस्व में चालू वृद्धि के उच्च स्तर को बनाए रखने के लिए उच्च आय को अनवरत एवं स्थिर गति से बढ़ाने के प्रयास करना जरूरी होगा। कर राजस्व में सुधार के जरिए राजकोषीय मजबूती को और अधिक गहरा करने का अवसर, कर की दरों का एक सुसंतुलित ढांचा बनाए रखने एवं अर्थव्यवस्था के विकास की गति को प्रभावित किए बगैर उसके आधार को व्यापक बनाने, में निहित है। व्यय की प्राथमिकताओं को पुनःनिर्धारित करने की सरकार की नीति के फलस्वरूप सामाजिक क्षेत्र के लिए ज्यादा परिव्यय की आवश्यकता पड़ी है। फिर भी, भारत में शिक्षा तथा स्वास्थ्य पर सार्वजनिक व्यय की हिस्सेदारी अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से कम है। सामाजिक क्षेत्रों के लिए व्यय की प्राथमिकताओं को पुनःनिर्धारित करने और पूंजीगत परिव्यय में बढ़ोतरी से सरकार की परिचालनात्मक क्षमता को सीमित किए बिना राजकोषीय अनुशासन को बढ़ावा मिलेगा। सामाजिक सेवाओं पर सार्वजनिक व्यय में बढ़ोतरी से सामाजिक आधारभूत संरचना में सुधार होगा तथा इससे उत्पादकता के लाभ प्राप्त होंगे।

बाह्य क्षेत्र

अर्थव्यवस्था में बढ़ते हुए खुलेपन तथा वित्तीय प्रवाह की दो तरफा गति के आधार पर वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ भारत का जुड़ाव मजबूत होता जा रहा है। सकल घरेलू उत्पाद के मुकाबले पण्य निर्यात का अनुपात 90 के दशक के प्रारंभ से बढ़ रहा है जो बढ़ती हुई अतरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा को प्रदर्शित करता है। इसी के साथ आयात में तेजी लगातार बढ़ रही है क्योंकि घरेलू संस्थाओं की पहुँच अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपलब्ध कच्ची सामग्री तथा अंतरराष्ट्रीय वस्तुओं तथा गुणवत्ता इनपुट तक हुई है जिससे घरेलू उत्पादन एवं निर्यात क्षमताओं को नई धार मिली है। सॉफ्टवेयर तथा अन्य व्यापार सेवाओं की अग्रणी भूमिका के कारण सेवाओं के निर्यात में संरचनात्मक परिवर्तनों तथा विप्रेषणों से भारत के भुगतान संतुलन को स्थिरता और मजबूती मिली है। निवल अदृश्य मदों की अधिशेष मात्रा से बढ़ते हुए व्यापार घाटे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा समायोजित कर लिया गया है तथा इससे 90 के दशक के प्रारंभ से चालू खाता घाटे को सकल घरेलू उत्पाद के एक प्रतिशत के औसत तक सीमित करने में सहायता मिली है। पूंजी प्रवाह (निवल) काफी हद तक चालू खाता घाटे से अधिक बना रहा और मौद्रिक नीति के संचालन तथा समष्टि आर्थिक एवं वित्तीय स्थिरता पर इसका प्रभाव रहा है।

भारत के समान, कई अन्य देश विदेशी मुद्रा के अत्यधिक इनफ्लो की स्थिति का सामना कर रहे हैं जो इन देशों में भी के मौद्रिक प्रबंधन को प्रभावित कर रही है। किंतु, इस समय कई कारणों से भारत में मौद्रिक प्रबंधन की स्थिति अन्य उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं से कहीं ज्यादा जटिल है। पहला कारण, घरेलू ब्याज दरें विदेशी मुद्रा भंडार से प्राप्त होने वाले प्रतिफल से अधिक हैं, जो अर्ध-राजकोषीय लागतों को बढ़ाती हैं। दूसरा कारण, हालांकि भारत में हाल के वर्षों में अंतरराष्ट्रीय मानकों के हिसाब से राजकोषीय घाटे और लोक ऋण में कमी हुई है, किंतु वे अभी भी बहुत अधिक हैं। ये राजकोषीय नीति की मुद्रास्फीति को अपेक्षतया कम स्तर पर बनाए रखने के लचीलेपन को बाधित करते हैं। तीसरा कारण, भारत में वास्तविक क्षेत्र को पिछले कई वर्षों में उदार बनाया गया है जो आपूर्ति प्रबंधन के संबंध में प्रशासनिक उपाय करने की योग्यता को बाधित करता है। वहीं, अनेक नीतिगत जटिलताएं भी विद्यमान हैं, जो तीव्र और लचीले समायोजन को रोकती हैं जिसकी सुव्यवस्थित तरीके से कार्य कर रही बाज़ार अर्थव्यवस्था को सख्त्ा जरूरत है। इसके अलावा, भारत में बैंकिंग प्रणाली को धीरे-धीरे अविनियमित कर दिया गया है और मौद्रिक नीति का संचालन काफी हद तक बाज़ार आधारित लिखतों के उपयोग के माध्यम से किया जा रहा है। इससे प्रशासनिक उपकरणों जैसे जमा और उधार दरों को इस्तेमाल करने की क्षमता पर रोक लगती है, वहीं इनका उपयोग कुछ अन्य देश कर सक ते हैं। अंत में, यह भी जान लेना आवश्यक है कि भारत उभरती हुई ऐसी कुछ बाजार अर्थव्यवस्थाओं में से एक है जहां अत्यधिक ऊँचे व्यापार घाटे के साथ चालू खाता घाटा भी है।

पिछले कुछ वर्षों में पूंजी बहिर्वाह (आउटफ्लो) से संबंधित नीतिगत ढांचे में काफी उदारता बरती जा रही है। विशिष्ट देश के संदर्भ में विशेषतः वास्तविक क्षेत्र की विशेषताओं की दृष्टि से पूँजी बर्हिवाह के लिए अपनी नीति व्यवस्था तैयार करनी चाहिए, केवल अंतर्वाह के संदर्भगत स्तर और अर्थव्यवस्था के वर्तमान अवशोषक क्षमता को दखेकर नहीं। पहला, भारत में बहिर्वाह की वर्तमान व्यवस्था उदार है किंतु इतनी भी उदार नहीं है कि कार्पोरेटस को अधिग्रहण मार्ग के माध्यम के साथ-साथ भारत के बाहर वास्तविक अर्थव्यवस्था में निवेश करने को प्रोत्साहित करे। इस प्रणाली ने देश में सुचारु रूप से कार्य किया है क्योंकि भारतीय कार्पोरेटस ने विदेशी इकाइयों के साथ बढ़-चढ़कर सहयोग स्थापित किया है, पैमाने के अभाव को पूरा कर लिया है जो भारत की परंपरागत समस्या रही है और अधिग्रहण के माध्यम से तेज़ी से डोमेन जानकारी हासिल कर ली है। दूसरा, व्यक्तिगत परिवारों द्वारा बहिर्वाह के महत्वपूर्ण उदारीकरण को संपूर्ण पूंजी खाता परिवर्तनीयता पर समिति (अध्यक्ष : श्री.एस.एस.तारापोर, 2006) की सिफारिशों का पालन करते हुए कार्यान्वित किया जा चुका है। तथापि, अंतरराष्ट्रीय अनुभव यह दर्शाता है कि जब घरेलू अर्थव्यवस्था के निष्पादन अथवा स्थायित्व के संबंध के प्रतिकूल अवधारणा बनती दिखती है तब निवासी व्यक्ति अक्सर बहिर्वाह शुरु करने में विदेशी निवेशकों से आगे निकल जाते हैं। इसके अलावा, देशी निवेशों की तुलना में विदेशी गंतव्य के निवेशों पर अधिक अनुकूल कर व्यवहार, यदि कोई हो, से अधिक गतिविधि का बाध्यकारी प्रोत्साहन मिलता है। तीसरा, जहाँ तक वित्तीय मध्यस्थों के माध्यम से बहिर्वाह के लिए व्यवस्था का संबंध है, सतर्कता और परिमाणात्मक विनिर्धारणों का दृष्टिकोण लिया जाता है जिसके द्वारा विवेक सम्मत मानदंड और पूंजी खाता प्रबंध की बाध्यताएँ दोनों ही संगत होती हैं।

वित्तीय क्षेत्र

वर्ष 2006-07 के दौरान रिज़र्व बैंक ने विनियामक और पर्यवेक्षीय पहल को बेहतर बनाना जारी रखा। आस्तियों की गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए विशिष्ट क्षेत्रों के लिए प्रावधान की अपेक्षाओं तथा जोखिम भारों को बढ़ाते हुए विवेकपूर्ण उपायों को अधिक सख़्त किया गया है। विभिन्न विवेकपूर्ण और पर्यवेक्षीय उपायों का ज़ोर वित्तीय प्रणाली को छूट प्रदान करते हुए वित्तीय स्थिरता को नियंत्रित करना था। घरेलू बैंकिंग क्षेत्र को और अधिक सुदृढ़ तथा बैंकिंग क्षेत्र को अंतरराष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप बनाने की दृष्टि से वाणिज्य बैंक मार्च 2008 से चरणबद्ध रूप में बासेल II मानदण्डों को अपनाएंगे। हालांकि बासेल II का कार्यान्वयन बैंकें तथा विनियामकों दोनों के समक्ष बड़ी चुनौती है, वहीं बैंकों को इससे दो बडे अवसर प्राप्त होंगे अर्थात जोखिम प्रबंधन प्रणाली का परिष्करण होगा तथा पूंजी क्षमता में सुधार होगा।

मौद्रिक नीति

मुद्रास्फीति के प्रारंभिक दबावों के चलते मौद्रिक नीति का रुझान मूल्य-स्थिरता तथा विकास दर (अक्तूबर 2004/अप्रैल 2005) पर समान रूप से ज़ोर दिए जाने से हटकर तत्काल मौद्रिक उपाय के रूप में मूल्य-स्थिरता कायम रखने पर हो गया था तथा उत्पन्न परिस्थितियों (जनवरी 2007) के प्रति प्रतिक्रियास्वरूप सभी संभव उपाय तुंत करने की ओर बढ़ा। साथ ही, रिज़र्व बैंक ने मुद्रास्फीति और मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं को नियंत्रित करने के लिए मध्य 2004 से एहतियाती उपाय करने शुरू कर दिए थे। हाल की अवधि में मौद्रिक नीति के समक्ष चुनौती यह थी कि मुद्रास्फीति के दबावों को नियंत्रित रखते हुए उच्च विकास-पथ की ओर अंतरण की इस प्रकार व्यवस्था की जाए कि संभाव्य उत्पादन तथा उत्पादकता विकास को जारी रखने में सुदृढ़ता प्रदान करें। आपूर्ति तथा राजकोषीय उपायों से समर्थित मौद्रिक उपायों ने मुद्रास्फीति को नियंत्रित करने और वृद्धि दर की गति को बनाए रखने के साथ-साथ मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं पर लगाम कसने में सहायता की है।

मुद्रास्फीति पर रिज़र्व बैंक की स्वतः निर्धारित 5.0 प्रतिशत की मध्यावधि उच्चतम सीमा का मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं पर हितकारी प्रभाव पड़ा है और सामाजिक रूप से सहने योग्य मुद्रास्फीति दर नीचे आ गई है। भारत के विश्व अर्थव्यवस्था के साथ के उभरते एकीकरण तथा इस संबंध में सामाजिक तरजीह के मद्देनज़र संकल्प यह होगा कि मुद्रास्फीति प्रत्याशा को 4.0 - 4.5 प्रतिशत के बीच कैसे बनाए रखा जाए। भारत का विश्व के साथ सहज एकीकरण सुनिश्चित करने के लिए मुद्रास्फीति को लगभग 3 प्रतिशत तक रखने की अपेक्षा को ध्यान में रखते हुए इससे मध्यावधि में स्वतः स्फूर्त वृद्धि बनाए रखने में मदद मिलेगी।

हाल के वर्षों में मौद्रिक नीति का संचालन अनेक कारणों से अधिक जटिल हो गया है। वैश्वीकरण ने निहित समष्टि आर्थिक और वित्तीय गतिविधियों को समझने की इसकी गति में काफी अस्पष्टता पैदा कर दी है, वित्तीय मूल्यों से प्राप्त होने वाले संकेतों को दुरुह बना दिया है और मौद्रिक प्राधिकारी द्वारा वास्तविक अर्थव्यवस्था के प्रदर्शन के आकलन को प्रभावित कर दिया है। पूरे विश्व में मौद्रिक प्राधिकारियों द्वारा मुद्रास्फीति, विशेष रूप से मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं, का पता लगाने और इनको मापने, के संबंध में अत्यधिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है। भारत में भी मौद्रिक नीति परिचालन को अर्थव्यवस्था में नीतिगत संकेत भेजने में कतिपय अनिश्चितताओं की बाध्यता का सामना करना पड़ रहा है।

भारत में मौद्रिक नीति को अन्य क्षेत्रों से उत्पन्न होने वाली चुनौतियों के बोझ का भी सामना करना पड़ रहा है। पहली, अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुसार राजकोषीय असंतुलन काफी अधिक बने हुए हैं और उन्हें ऐसे तरीके से नियंत्रित किए जाने की आवश्यकता है जिससे उलट-फेर न हो। दूसरा, विदेशी मुद्रा अंतर्वाह सुदृढ़ बने रहना मौद्रिक नीति के संचालन को जटिल बनाता है। तीसरा, भारत में जनसंख्या के बड़े भाग की आजीविका के स्तर इतने अपर्याप्त हैं कि वे तीव्र वित्तीय उतार-चढ़ाव के सामने नहीं टिक सकते जो वास्तविक उत्पादकता को प्रभावित करता है। तदनुसार, मौद्रिक नीति को अर्थव्यवस्था के इस खंड पर भी वित्तीय बाज़ारों के उतार-चढ़ाव का ध्यान रखना होता है, जो प्रायः पूंजी प्रवाह के अचानक बदलाव से जुड़े होते हैं। चौथा, घरेलू तौर पर सकल आपूर्ति में लचीलेपन की सीमा मौद्रिक नीति पर अतिरिक्त दबाव डालती है। जहां खुले व्यापार ने अनेक अर्थव्यवस्थाओं की आपूर्ति क्षमता को बढ़ा दिया है, वहीं ऐसा प्रतीत होता है कि इसका आपूर्ति - लचीलेपन पर कोई खास अल्पकालिक अनुकूल प्रभाव नहीं पड़ा है। वस्तुओं और सेवाओं के मूल्यों पर लगातार आपूर्ति आघात, जिसके प्रति हेडलाइन इनफेक्शन दर संवेदनशील है, मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं पर स्थायी प्रभाव डाल सकती है। आपूर्ति में भी दीर्घकालिक संरचनागत अवरोधों, समयोचित, विश्वसनीय और प्रदर्शित समाधान के अपर्याप्त आश्वासन के बीच मौद्रिक नीति को समुचित कार्रवाई करनी पड़ती है। वस्तुतः दबाव और दुविधा, संरचनागत आपूर्ति समस्या के कारण तब और बढ़ जाती है जब इसका लगातार प्रभाव मुद्रास्फीति पर बना रहता है। वृद्धि की गति को मंद किए बिना मुद्रास्फीति को कम और स्थिर बनाए रखते हुए संरचनागत परिवर्तन को नियंत्रित करना मौद्रिक नीति के लिए आने वाले समय में सबसे मुख्य चुनौती होगी।

अल्पना किल्लावाला
मुख्य महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी: 2007-2008/308

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