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एल.के. झा स्मारक व्याख्यान

भारतीय रिज़र्व बैंक ने स्वर्गीय श्री एल. के. झा की स्मृति में व्याख्यान श्रृंखला शुरू की है, वे 1 जुलाई 1967 से 3 मई 1970 तक भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर थे।

श्री लक्ष्मी कांत झा एक बहु-व्यक्तित्व थे जो जीवन के कई क्षेत्रों में अग्रणी रहे। वे एक प्रसिद्ध अर्थशास्त्री, विशिष्ट प्रशासक, योग्य कूटनीतिक और बुद्धिमान परामर्शदाता थे। अच्छी विशेषज्ञता और परिपक्व निर्णय वाले व्यक्ति के रूप में, भारत और विदेशों में उनकी सलाह बड़ी उत्सुकता से ली जाती थी। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में राजदूत और जम्मू तथा कश्मीर के गवर्नर के रूप में बड़ी विशिष्टता के साथ सेवा की। वे ब्रैंड्ट कमीशन के सदस्य थे और उनकी मृत्यु के समय वे राज्य सभा के सदस्य थे। रिज़र्व बैंक और राष्ट्र के लिए उनकी अमूल्य सेवाओं की पहचान तथा उनकी स्थायी स्मृति के लिए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने एल.के. झा व्याख्यान के नाम से एक व्याख्यान श्रृंखला शुरू की है।

एल.के. झा ने लगभग 40 वर्षों तक देश की आर्थिक नीतियों को रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सिद्धांत और व्यवहार के अच्छे मिश्रण तथा दुर्लभ व्यवहारवाद के साथ, एल.के. झा के अंदर नीतियों की एक विशेष भावना थी जो नीतियां भारतीय संदर्भ में कार्य कर सकी। इसी समय, उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था की गतिशील वृद्धि के लिए प्रगतिशील नीतियों की अवधारणा बनाई और इनकी शुरुआत की। उन्होंने 1956 के औद्योगिक नीति संकल्प को रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई जिसमें मिश्रित अर्थव्यवस्था को परिचालनरत करने की अवधारणा बनाई गई और देश के औद्योगिक विकास को प्रोत्साहन प्रदान किया। आर्थिक प्रशासन सुधार आयोग के अध्यक्ष के रूप में, वे आर्थिक नीति की दिशा को पूर्ण उदारता के प्रथम कदम के रूप में नियंत्रित अविनियमन की ओर बदलने के लिए उत्तरदायी थे। इसके अलावा, परोक्ष कराधान पूछताछ समिति के अध्यक्ष के रूप में, उन्होंने देश की राजकोषीय प्रणाली में सुधार करने के लिए अनगिनत बहुमूल्य और स्थायी योगदान दिए। उन्होंने भारत और अन्य विकासशील देशों की बात बहुत प्रभावशाली ढंग से कई अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाई और वे ब्रैंड्ट कमीशन के बहुत सम्मानित सदस्य थे जिसने विश्व की नई आर्थिक व्यवस्था का समर्थन किया जिसमें विकासशील देशों को अधिक समान हिस्सेदारी मिलेगी।

लोकप्रिय रूप से एल.के. के नाम से प्रसिद्ध, लक्ष्मी कांत झा का जन्म बिहार के दरभंगा जिले में 22 नवंबर 1913 को हुआ था। उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय और ट्रिनिटी कॉलेज, कैम्ब्रिज, यूके से स्नातक किया। कैम्ब्रिज में वे पिगाऊ, कीन्स और रोबर्टसन जैसे प्रसिद्ध अर्थशास्त्रियों के विद्यार्थी रहे। उन्होंने 1936 में भारतीय सिविल सेवा में कार्यभार संभाला। जिलों और प्रांतीय सचिवालय में बिहार में सेवा करने के बाद, उन्होंने 1942 में भारत सरकार में प्रतिनियुक्ति मिली। उन्होने बाद में आपूर्ति विभाग में उप सचिव, आयात और निर्यात के मुख्य नियंत्रक, वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय में संयुक्त सचिव और बाहरी उद्योग मंत्रालय के सचिव के रूप में कार्य किया। वे टैरिफ और ट्रेड पर सामान्य करार (जीएटीटी) की बैठकों में भारत के प्रधान प्रतिनिधि थे और 1957-58 में इसके अध्यक्ष थे। वे 1960 में वित्त मंत्रालय के आर्थिक कार्य विभाग के सचिव बने तथा 1964 में उन्हें तत्कालीन प्रधान मंत्री लाल बहादुर शास्त्री के प्रधान सचिव के रूप में नियुक्त किया गया, यह नया बनाया हुआ पद था। बाद में, उन्होंने प्रधान मंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के अधीन इसी क्षमता में कार्य किया।

1 मई 1967 से 3 मई 1970 तक एल.के. झा भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर के पद पर रहे। आरबीआई के गवर्नर के रूप में उन्होंने बैंकिंग क्षेत्र को सुदृढ़ करने के लिए योगदान दिया। उन्होंने अर्थव्यवस्था की वृद्धि संभावनाओं को बढ़ाने में रिज़र्व बैंक की विकासात्मक भूमिका को अधिक महत्व दिया। उन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका में भारत के राजदूत के रूप में कार्यभार ग्रहण करने के लिए 1970 में रिज़र्व बैंक को छोड़ दिया। जब 1971 में बंगलादेश युद्ध हुआ तब एल.के. झा ने प्रभावी ढ़ग से भारतीय दृष्टिकोण प्रस्तुत किया। 1973 में उन्हें जम्मू और कश्मीर के गवर्नर तथा 1977 में ब्रैंड्ट कमीशन के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया। इसके उपाध्यक्ष के रूप में, उन्होंने 1970 और 1982 में इसकी दो रिपोर्टों को आकार देने में प्रमुख भूमिका निभाई। 1981 में दिल्ली वापस आने के बाद, उन्हें आर्थिक प्रशासन सुधार आयोग के अध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया गया। 1986 से उनकी मृत्यु तक उन्होंने अपने पैतृक राज्य बिहार से राज्य सभा के सदस्य के रूप में सेवा की।

एल.के. झा उदारीकरण के उत्साही समर्थक थे, यह ऐसी प्रक्रिया थी जिसने हाल के वर्षों में गति पकड़ी है। उन्होंने यह विचार रखा कि उदारीकरण से शुरुआत में ट्रेड के मामले में क्षणिक प्रतिकूल प्रभाव हो सकता है किंतु लंबे समय में इससे निर्यात में वृद्धि होगी और अर्थव्यवस्था में अधिक प्रतिस्पर्धात्मकता आएगी।

उनके द्वारा लिखी गई अनेक पुस्तकों में से, इकॉनोमिक डिवलेपमेंटः एंड्स एंड मीन्स, शोर्टेजिज एंड हाई प्राइसिजः द वे आउट, इकॉनोमिक स्ट्रेटजी फॉर द एटीज – प्रायरिटीज फॉर द सेवन्थ प्लान, द नोर्थ-साउथ डिबेट, ग्रोथ, इंफ्लेशन एंड अदर इश्यूज, इंडियाज इकॉनोमिक डिवलेपमेंटः ए क्रिटिक, और मिस्टर रेडटेप, नौकरशाही प्रक्रियाओं पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी का उल्लेख किया जा सकता है। उनकी रचनाएं व्यापक विषयों को कवर करती हैं। उनमें से अधिकांश क्रेडिट, बैंकिंग, मौद्रिक नीति और अंतरराष्ट्रीय भुगतान से संबंधित हैं जिनका केंद्रीय बैंकर से सीधा संबंध है। इसके अतिरिक्त, उन्होंने भारतीय संदर्भ में आर्थिक विकास के विभिन्न पहलुओं जैसे औद्योगिक वृद्धि, उद्योग में सक्षमता, आयोजना प्रक्रिया, आर्थिक कार्यनीतियां, सार्वजनिक क्षेत्र की स्वायत्तता आदि पर भी कार्य किया है।

आर्थिक क्षेत्र में एल.के. झा की विशेषज्ञता को न केवल राष्ट्रीय बल्कि अंतरराष्ट्रीय रूप से पहचाना गया। वे जीएटीटी के पहले भारतीय अध्यक्ष थे। वे लेनदेन-संबंधी निगमों पर प्रसिद्ध व्यक्तियों के यू.एन. समूह के अध्यक्ष, अंतरराष्ट्रीय कमोडिटी करार की अंतरिम समन्वय समिति के सदस्य और बाद में ब्रैंड्ट कमीशन के उपाध्यक्ष भी थे। उन्होंने नई आर्थिक व्यवस्था के लिए तर्क प्रस्तुत किया और अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के सुदृढ़ीकरण पर बल दिया जो संस्थाएं उनके विचार में विकासशील देशों की बेहतरी के लिए काफी योगदान दे सकती हैं।

एल.के. झा का 16 जनवरी 1988 को पुणे में देहांत हो गया और वे अंतिम समय तक अपने कार्य के प्रति पूरी तरह से वचनबद्ध रहे।

नवंबर 22, 2019
Fiscal Federalism: Ideology and Practice
भारतीय रिजर्व बैंक ने 22 नवंबर, 2019 को मुंबई में सत्रहवें एल.के. झा स्मृति व्याख्यान का आयोजन किया। श्री एन.के. सिंह, पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष द्वारा व्याख्यान प्रस्तुत किया गया। गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने अपने उद्बोधन में अतिथियों का स्वागत करते हुए कहा कि आज के दिन श्री लक्ष्मी कांत झा की 106वीं जयंती है जो 1967-1970 के दौरान भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर रहे। गवर्नर श्री शक्तिकान्त दास ने भारतीय रिज़र्व बैंक और राष्ट्र के प्रति श्री झा की सेवाओं की पहचान के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा शुरू की गई व्याख्यान श्रृंखला के महत्व पर बल दिया। आज के व्याख्यान में, श्री एन.के. सिंह ने "राजकोषीय संघवाद: विचारधारा और व्यवहार" के विषय पर बात करते हुए केंद्र-राज्य संबंधों और भारत के गतिशील संघीय राजनीति के बदलते परिदृश्य पर ध्यान केंद्रित किया। उन्होंने यह बताते हुए कि आज भारत में राज्यों की स्वायत्तता पूर्व-वैश्वीकृत युग की तुलना में बहुत भिन्न है, भारत में राजकोषीय संघवाद की मूल संरचना को रेखांकित किया। उन्होंने केंद्र प्रायोजित योजनाओं और परिव्यय के युक्तिकरण के लिए एक विश्वसनीय नीति रखते हुए राज्यों और केंद्र के बीच संवाद को प्रोत्साहित और सुविधाजनक बनाते हुए और केंद्र और राज्य स्तर पर राजकोषीय प्रबंधन बनाए रखते हुए वित्त आयोग और जीएसटी परिषद के कामकाज में समरूपता स्थापित करने की आवश्यकता पर प्रकाश डाला। श्री सिंह ने अपने भाषण के समापन में राजकोषीय संघवाद की विचारधारा और व्यवहार पर एक नए संदर्भ को अपनाने की आवश्यकता की सिफ़ारिश की जो कि उच्च आर्थिक विकास और भारत के नागरिकों की भलाई के लिए केंद्र-राज्य राजकोषीय साझेदारी बनाने के उद्देश्य से समकालीन और लक्षित है।
Lecture Series No. 17
दिसंबर 14, 2018
National Monetary Authorities and the Global Financial Cycle
भारतीय रिजर्व बैंक ने 14 दिसंबर 2018 को मुंबई में सोलहवें एल.के.झा स्मारक व्याख्यान की मेजबानी की। प्रोफेसर हेलेन रे, लंदन बिजनेस स्कूल, लंदन, ब्रिटेन द्वारा व्याख्यान दिया गया। गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने अतिथियों का स्वागत किया और श्री एल.के.झा की स्मृति को कायम रखने के लिए रिज़र्व बैंक द्वारा जारी व्याख्यान श्रृंखला के महत्व, और रिजर्व बैंक और राष्ट्र के लिए उनकी अमूल्य सेवाओं की पहचान पर प्रकाश डाला। प्रोफेसर हेलेन रे, अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त एक मेक्रोइकॉनामिस्ट, लंदन बिजनेस स्कूल में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। प्रोफेसर रे ब्रिटिश एकेडमी ऑफ द इकोनॉमेट्रिक सोसाइटी और यूरोपीयन इकॉनामिक एसोशिएशन की फेलो हैं। वह सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीईपीआर) में रिसर्च फेलो और नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च (एनबीआर) में रिसर्च एसोसिएट भी हैं।
Lecture Series No. 16
दिसंबर 11, 2017
India’s Economic Reforms: Reflections on the Unfinished Agenda
भारतीय रिजर्व बैंक ने 14 दिसंबर 2018 को मुंबई में सोलहवें एल.के.झा स्मारक व्याख्यान की मेजबानी की। प्रोफेसर हेलेन रे, लंदन बिजनेस स्कूल, लंदन, ब्रिटेन द्वारा व्याख्यान दिया गया। गवर्नर श्री शक्तिकांत दास ने अतिथियों का स्वागत किया और श्री एल.के.झा की स्मृति को कायम रखने के लिए रिज़र्व बैंक द्वारा जारी व्याख्यान श्रृंखला के महत्व, और रिजर्व बैंक और राष्ट्र के लिए उनकी अमूल्य सेवाओं की पहचान पर प्रकाश डाला। प्रोफेसर हेलेन रे, अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त एक मेक्रोइकॉनामिस्ट, लंदन बिजनेस स्कूल में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर हैं। प्रोफेसर रे ब्रिटिश एकेडमी ऑफ द इकोनॉमेट्रिक सोसाइटी और यूरोपीयन इकॉनामिक एसोशिएशन की फेलो हैं। वह सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च (सीईपीआर) में रिसर्च फेलो और नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च (एनबीआर) में रिसर्च एसोसिएट भी हैं।
Lecture Series No. 15
दिसंबर 17, 2013
Policy Debates in the Aftermath of the Financial Crisis
Lecture Series No. 14
सितंबर 27, 2012
Achieving Inclusive Growth: The Challenge of a New Era
Lecture Series No. 13
दिसंबर 13, 2011
Gross Financial Flows, Global Imbalances, and Crises
I am much honored to stand here at the Reserve Bank of India as the twelfth L. K. Jha Memorial Lecturer. Shri Lakshmi Kant Jha was a diplomat, administrator, counselor to government, and central bank governor, among other notable achievements. His writing spanned the most important economic and social issues of the day, as debated both within India and throughout the broader world. My eleven predecessors at this podium form an exceptional group of economic thinkers: leaders in academia, in the policy world, and in most cases, in both. It will be very hard for me to live up to the high standard of insight and relevance that they have set. My task of engaging your interest is made easier, however, by the fascinating yet frightening tableau that the global economy continues to present after four years of lost income, wealth, and jobs. We would all be better off if the supply of interesting current topics were less copious! Alas, global boom and bust have alternated historically, and failure to draw the right lessons from previous crises seems inevitably to contribute to the next. We have been here before. One such time was in the early 1980s, when L. K. Jha, as a member of the Brandt Commission, contributed to that group's somewhat lesser known second report of 1983, entitled Common Crisis and subtitled North-South: Cooperation for World Recovery. The document is remarkable in identifying numerous economic and financial problems that are still relevant today. For example, the authors wonder if the interbank market could transmit liquidity or solvency problems contagiously; they worry about the oversight of bank lending to indebted sovereigns; and, while concerned about moral hazard, they bemoan both the inadequate resources of the International Monetary Fund and the absence of formal lender-of-last resort arrangements covering the foreign operation of national banks. Sound familiar?
Lecture Series No. 12
नवंबर 26, 2007
The growing importance of emerging economies in the globalised world and its implications for the international financial architecture
Ladies and gentlemen, It is a great honour for me to give this lecture to pay tribute to the memory of the late Shri Lakshmi Kant Jha. L.K. Jha was a man of many talents: a distinguished administrator, a diplomat and an eminent economist. He was the first Chairman of the General Agreement on Tariffs and Trade in the late 1950s and Governor of the Reserve Bank of India in the late 1960s. He held several important positions in the Government of India. In the course of his career, L. K. Jha also became a respected member of the Brandt Commission. As some of you perhaps remember, this commission advocated a new world economic order in which the developing countries, including India, would have a more equitable share. L. K. Jha sadly left us about 20 years ago. However, if he and other members of the Brandt Commission were to look at the world economy today, they would be probably surprised to see how much it has changed. And one of the most important of these changes is precisely the growing share of the rapidly developing economies, which we now term the emerging markets, in the global economy. India represents one striking example of this success. Together with other emerging markets, India is playing a crucial role in the process of globalisation of the world we live in. Some might think that this is a new phenomenon. It is not. India has been at the core of globalisation since its very outset. Let us just remember how it all started. Globalisation did not start 20 years ago, when capital controls around the world began to be lifted. It did not start 50 years ago, when multilateral discussions on trade were launched. Nor did globalisation start 150 years ago, with the industrial revolution. Nor did it start 600 years ago, with the voyage of Christopher Columbus to America. Of course, this voyage marked the linking of two continents, Europe and America. But there is one thing which we tend to forget. Christopher Columbus did not want to travel to America. He wanted to reach India! His ambition was not to discover a new continent. It was to open an alternative route to India using knowledge about the spherical nature of the earth to sail directly west across the “Ocean Sea“, i.e. the Atlantic. India was part of the globalisation process from its very historical outset, as much as it is part of it today.
Lecture Series No. 10
जनवरी 12, 2004
Budget Deficits and National Debt
Lecture Series No. 8
अक्‍तूबर 16, 2000
Targets, Instruments and Institutional Arrangements for an Effective Monetary Authority
Lecture Series No. 7
जून 17, 1999
Inflation Targeting: Is New Zealand's Experience Relevant to Developing Countries?
Lecture Series No. 6
दिसंबर 05, 1996
Strengthening the Financial Marketplace
Lecture Series No. 4
नवंबर 30, 1992
The Strategy of Economic Adjustment
Lecture Series No. 2

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पृष्ठ अंतिम बार अपडेट किया गया: नवंबर 23, 2022

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