RbiSearchHeader

Press escape key to go back

पिछली खोज

थीम
थीम
टेक्स्ट का साइज़
टेक्स्ट का साइज़
S2

Notification Marquee

आरबीआई की घोषणाएं
आरबीआई की घोषणाएं

RbiAnnouncementWeb

RBI Announcements
RBI Announcements

असेट प्रकाशक

79030486

वर्ष 2002-03 के लिए मौद्रिक और ऋण नीति

वर्ष 2002-03 के लिए मौद्रिक और ऋण नीति
के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक के
गवर्नर, डॉ. विमल जालान का वक्तव्य

इस वक्तव्य के तीन भाग हैं : (I) वर्ष 2001-02 के दौरान समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा, (II) वर्ष 2002-03 के लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य, तथा (III) वित्तीय क्षेत्र के सुधार और मौद्रिक नीति उपाय ।

2. पिछले वर्ष की तरह, समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की एक तकनीकी और विश्लेषणात्मक समीक्षा एक अलग दस्तावेज के रूप में जारी की जा रही है । इस दस्तावेज में सरल तालिकाओं और सारणियों की सहायता से आवश्यक समष्टि आर्थिक और अन्य जानकारी कुछ अधिक विस्तृत रूप में दी गई है ।

I. समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों
की समीक्षा : 2001-02
घरेलू गतिविधियां

3. हाल ही में, केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) ने वर्ष 2000-01 के लिए राष्ट्रीय आय वृद्धि के संशोधित आंकड़े जारी किए हैं । नवीनतम अनुमानों के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर, पहले अनुमानित दर की तुलना में पर्याप्त कम थी, जो मुख्यत: सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर के निम्नगामी संशोधन के कारण थी । एक ओर जहां सेवा क्षेत्र की वृद्धि दर 7.5 प्रतिशत से घटाकर 5.0 प्रतिशत कर दी गई, वहीं दूसरी ओर कृषि और संबद्ध गतिविधियों के क्षेत्र में इसे 0.2 प्रतिशत से संशोधित करके (-) 0.2 प्रतिशत कर दिया गया । दूसरी ओर, औद्योगिक क्षेत्र की वृद्धि में ऊर्ध्वगामी संशोधन करके उसे 5.3 प्रतिशत से 6.2 प्रतिशत कर दिया गया । इसके परिणामस्वरूप, संशोधित आधार पर समग्र सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 2000-01 के दौरान 4.0 प्रतिशत रखा गया जबकि पहले उसका अनुमान 5.2 प्रतिशत लगाया गया था ।

4. वर्ष 2001-02 के दौरान, केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन के प्रारंभिक अनुमान के अनुसार, पिछले वर्ष के 0.2 प्रतिशत की ऋणात्मक वृद्धि की तुलना में कृषि क्षेत्र में लगभग 5.7 प्रतिशत वृद्धि होने की संभावना है । तथापि, औद्योगिक क्षेत्र का समग्र वृद्धि निष्पादन पिछले वर्ष के 6.2 प्रतिशत की तुलना में घटकर 3.3 प्रतिशत होने का अनुमान है । सेवा क्षेत्र के तर्क संगत निष्पादन के साथ ही,जिसके बारे में यह अनुमान लगाया गया था कि इसमें मुख्य रूप से व्यापार और परिवहन, वित्त और कारोबार सेवाओं के कारण 6.2 प्रतिशत की वृद्धि होगी, सीएसओ ने अपने नवीनतम अनुममानों में 2001-02 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि को 5.4 प्रतिशत बताया है जबकि इसकी तुलना में 2000-01 में यह 4.0 प्रतिशत थी । यह भारतीय रिज़र्व बैंक की अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में निर्दिष्ट 5.0 और 6.0 प्रतिशत के बीच की वृद्धि दर के अनुरूप है ।

5. वर्ष 2001-02 के दौरान घरेलू मुद्रास्फीति स्थिति अत्यधिक अनुकूल थी । बिंदु-दर-बिंदु आधार पर, मुद्रास्फीति की वार्षिक दर, थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) (आधार:1993-94=100) में घट-बढ़ से की गई माप के अनुसार मार्च अंत 2001 के 4.9 प्रतिशत से घटकर मार्च अंत 2002 में 1.4 प्रतिशत रह गई । विनिर्मित उत्पादों (भार:63.7) की मुद्रास्फीति में पिछले वर्ष की 3.8 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में 0.4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई, जो औद्योगिक क्षेत्र की शिथिल स्थिति को प्रतिबिंबित करती है । प्राथमिक वस्तुओं (भार :22.0) में पिछले वर्ष की 0.4 प्रतिशत की गिरावट की तुलना में 3.8 प्रतिशत की वृद्धि परिलक्षित हुई । मुद्रास्फीति दर में यह स्थिति, ‘ईंधन, पावर, बिजली और चिकनाई के पदार्थ’ के समूह (भार:14.2) में 3.8 प्रतिशत की अपेक्षाकृत अत्यंत कम वृद्धि के कारण आई जो एक वर्ष पहले इसकी तुलना में 15.0 प्रतिशत थी । पिछले वर्ष तेल की अपेक्षाकृत अधिक कीमतों का आधारभूत प्रभाव स्पष्ट रहा, क्योंकि औसत आधार पर थोक मूल्य सूचकांक में वृद्धि से मापी गई वार्षिक मुद्रास्फीति, एक वर्ष पूर्व के 7.2 प्रतिशत की तुलना में 3.6 प्रतिशत रही । उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से प्रतिबिंबित मुद्रास्फीति फरवरी 2002 तक बिंदु-दर-बिंदु आधार पर (5.2 प्रतिशत) और औसत आधार पर (4.1 प्रतिशत) पर उच्चतर थी । पिछले वर्ष के लिए इसके तुलनात्मक आंकड़े क्रमश: 3.0 प्रतिशत और 4.0 प्रतिशत थे ।

6. वर्ष 2001-02 के दौरान मुद्रा-आपूर्ति (एम3) में वार्षिक वृद्धि अनुमानित सीमा अर्थात् 14.0 प्रतिशत (1,83,912 करोड़ रुपए) पर ही थी जबकि एक वर्ष पहले 16.8 प्रतिशत (1,89,046 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई थी । घटकों में, 14.3 प्रतिशत की अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की सकल जमाराशि-वृद्धि पिछले वर्ष में हुई 18.4 प्रतिशत की वृद्धि से कम थी जब इंडिया मिलेनियम जमाराशि के कारण जमाराशियों में काफी वृद्धि हुई थी । जनता के पास मुद्रा-विस्तार पिछले वर्ष के 10.8 प्रतिशत (20,468 करोड़ रुपए) के मुकाबले अधिक अर्थात् 15.2 प्रतिशत (31,890 करोड़ रुपए) रहा । यह आंशिक रूप से कृषि गतिविधियों में पहले से अधिकता तथा खाद्यान्नों की खरीद में वृद्धि के कारण हो सकता है ।

7. आरक्षित मुद्रा में वर्ष 2001-02 के दौरान 11.4 प्रतिशत (34,514 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई जो पिछले वर्ष में हुई 8.1 प्रतिशत (22,757 करोड़ रुपए) की वृद्धि से अधिक है । रोचक बात यह है कि आरक्षित मुद्रा में जो वृद्धि हुई है वह पूर्णत: भारतीय रिज़र्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में वृद्धि होने से हुई है जिसमें वर्ष 2000-01 में हुई 18.9 प्रतिशत (31,295 करोड़ रुपए) की वृद्धि के मुकाबले 33.9 प्रतिशत (66,794 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई है । दूसरी ओर, विगत के विपरीत, भारतीय रिज़र्व बैंक की निवल घरेलू परिसंपत्तियों में गिरावट केंद्र सरकार को निवल भारतीय रिज़र्व बैंक ऋण तथा वाणिज्यिक क्षेत्र को ऋण के कारण हुई है । नई सरकारी दिनांकित प्रतिभूतियों में 28,892 करोड़ रुपए के भारतीय रिज़र्व बैंक के अंशदान के होते हुए भी, 30,335 करोड़ रुपए की सरकारी प्रतिभूतियों की खुले बाज़ार में बिक्री के कारण केंद्र सरकार को भारतीय रिज़र्व बैंक के निवल ऋण में 0.3 प्रतिशत (- 506 करोड़ रुपए) की कमी आई । बैंकों और वाणिज्यिक क्षेत्र पर भारतीय रिज़र्व बैंक के दावों में 9,575 करोड़ रुपए की कमी आई है जो उनके पास पर्याप्त चलनिधि होने को प्रतिबिंबित करता है ।

8. वर्ष 2001-02 के दौरान खाद्येतर ऋण में पिछले वर्ष की 14.9 प्रतिशत (61,176 करोड़ रुपए) की वृद्धि के मुकाबले 12.8 प्रतिशत (60,411 करोड़ रुपए) की ही वृद्धि हुई जो औद्योगिक उत्पादन में गिरावट को प्रतिबिंबित करती है । सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों तथा निजी कंपनी क्षेत्र के बांडों/डिबेंचरों/शेयरों, वाणिज्यिक पत्रों आदि में बैंकों के निवेश-सहित वर्ष 2001-02 के दौरान वाणिज्यिक क्षेत्र को अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों से निधियों के कुल प्रवाह में पिछले वर्ष में हुई 16.1 प्रतिशत (75,791 करोड़ रुपए) की वृद्धि के मुकाबले कम वृद्धि हुई जो 12.0 प्रतिशत (65,862 करोड़ रुपए) थी । पूंजी निर्गम, जीडीआर तथा वित्तीय संस्थाओं से उधार-सहित वाणिज्यिक क्षेत्र को संसाधनों का कुल प्रवाह 1,37,429 करोड़ रुपए था जबकि पिछले वर्ष यह 1,71,928 करोड़ रुपए रहा ।

9. खाद्य ऋणों में वर्ष 2001-02 के दौरान 13,987 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई जो पिछले वर्ष में हुई 14,300 करोड़ रुपए की वृद्धि के लगभग समान ही थी और यह बड़ी मात्रा में खरीद परिचालनों को प्रतिबिंबित करती है । खाद्यान्नों का सुरक्षित भंडार फरवरी 2001 के अंत के 46.8 मिलियन टन से बढ़कर फरवरी 2002 के अंत में 54.5 मिलियन टन हो गया । इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि अनुसूचित वाणिज्य बैंकों का बकाया खाद्यान्न खरीद ऋण मार्च 2002 में 53,978 करोड़ रुपए के उच्च स्तर पर था, बड़ी मात्रा में सुरक्षित भंडार रखने के संबंध में इष्टतम स्तर से अधिक लागत पर सावधानीपूर्वक विचार किए जाने की जरूरत है।

10. वर्ष 2002-03 के बजट के संशोधित अनुमानों के अनुसार, केंद्र सरकार का वर्ष 2001-02 का राजकोषीय घाटा पिछले वर्ष के 1,16,314 करोड़ रुपए के बजट अनुमान के मुकाबले 1,31,721 करोड़ रुपए था । वित्तीय वर्ष 2001-02 के दौरान केंद्र सरकार के निवल बाज़ार उधार 92,302 करोड़ रुपए (सकल 1,33,801 करोड़ रुपए) रहे जो बजट अनुमान से 14,949 करोड़ रुपए और संशोधित अनुमान से 822 करोड़ रुपए अधिक है । राज्य सरकारों के निवल बाज़ार उधारों में भी बजट में पहले दिए गए 12,857 करोड़ रुपए से 4,404 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई है । हालांकि, वर्ष 2002-03 के बजट भाषण में दिए गए बल के अनुसार, केंद्र और राज्य सरकारों के उधारों में 19,353 करोड़ रुपए की संयुक्त कमी से पर्याप्त चलनिधि की उपलब्धता तथा ऋण के लिए कम मांग के कारण ब्याज दरों पर कोई अनुचित दबाब नहीं पड़ा, तथापि इस बात की तत्काल आवश्यकता है कि राजकोषीय घाटे में कमी लाई जाए ताकि मध्यावधि परिप्रेक्ष्य से मौद्रिक और ऋण प्रबंध के कार्य में सुधार हो सके ।

11. जैसाकि विभिन्न नीतिगत वक्तव्यों में कहा गया है, समग्र मौद्रिक प्रबंध ऐसी स्थिति में कठिन हो जाता है जब वर्ष-दर-वर्ष सरकार का बड़ा और बढ़ता हुआ उधार कार्यक्रम बाज़ार

की अवशोषण क्षमता पर दबाब डालता है । बैकिंग प्रणाली पहले ही अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं के 36.5 प्रतिशत से अधिक सरकारी प्रतिभूतियां रखती हैं जबकि सांविधिक न्यूनतम आवश्यकता 25.0 प्रतिशत की है । मात्रा के रूप में, सांविधिक चलनिधि अनुपात से अधिक ऐसी राशियां 1,40,300 करोड़ रुपए हो गईं जो सरकार की सकल उधार राशियों से अधिक हैं । सरकारी प्रतिभूतियों में इतनी बड़ी राशि का निवेश अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों में ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए बैंकों की क्षमता में अवरोध उत्पन्न कर सकता है, बशर्तें चालू वर्ष के दौरान मांग में विशेष तेजी आ जाए । साथ ही, वर्धमान ब्याज भुगतानों की स्थिति को देखते हुए सरकारी ऋण की निरंतरता अब एक चिंता की बात है । राजकोषीय घाटे में कटौती ब्याज दर प्रणाली को लोचनीयता प्रदान करेगी और बदले में भौतिक और सामाजिक मूल्य ढांचे में अधिक आवश्यक निवेश के लिए सरकारी संसाधन उपलब्ध होगा । साथ ही, राजकोषीय समेकन का अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीतिकारी अपेक्षाओं पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा ।

12. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीति वक्तव्य में यह बताया गया था और अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में इस बात पर बल दिया गया था कि भारतीय रिज़र्व बैंक उभरती हुई परिस्थिति के अनुरूप ब्याज दर को कम करने की वरीयता के साथ बाज़ार में पर्याप्त चलनिधि बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है । इस उद्देश्य से, वर्ष 2001-02 के दौरान सरकारी उधार कार्यक्रम के उच्च स्तर के बावजूद, पर्याप्त चलनिधि और अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीतिकारी परिस्थितियां उत्पन्न किए बिना कम ब्याज दर वातावरण बनाए रखना संभव था । यह इस तथ्य से स्पष्ट है कि 91 दिवसीय और 364 दिवसीय खज़ाना बिलों पर प्राथमिक बाज़ार प्रतिफल क्रमश: 262 आधार अंक और 280 आधार अंक तक गिर गए । इसी के साथ-साथ वर्ष के दौरान मांग मुद्रा दर और वाणिज्य पत्र की भारित औसत बट्टाकृत दर क्रमश: 156 आधार अंक और 153 आधार अंक तक घट गई ।

13. वर्ष के दौरान, सभी प्रकार की परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर गौण बाज़ार प्रतिफल में बोधगम्य निम्नगामी परिवर्तन भी हो गया था । 1 वर्ष की अवशेष परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रतिफल मार्च 2001 के 9.05 प्रतिशत से कम होकर मार्च 2002 में 6.10 प्रतिशत हो गया जिससे 295 आधार अंकों तक की प्रतिफल में

गिरावट आई । इसी प्रकार, 10 वर्ष की अवशेष परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रतिफल मार्च 2002 तक 287 आधार अंकों से गिरकर 7.36 प्रतिशत तक आ गया जो मार्च 2001 में 10.23 प्रतिशत था । ये गिरावटें पिछले तीन दशकों में एक वर्ष के दौरान ब्याज दरों में अधिकतम गिरावटों में से हैं । तथापि, यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि हर वर्ष, विशेष रूप से जब ऋण की मांग बढ़ जाती है, अपेक्षाकृत अधिक बाज़ार उधारों को देखते हुए उधार की लागत को घटाना संभव नहीं होगा ।

14. इस संदर्भ में, यह उल्लेख करना होगा कि जहां सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रतिफलों में तीव्र गिरावट आई, वहीं गैर-सरकारी बांडों में कम गिरावट नज़र आई जिसके परिणामस्वरूप निर्धारित आय वाली प्रतिभूतियों की इन दो श्रेणियों के बीच अंतर बढ़ गया । उदाहरणस्वरूप, प्रमुख वाणिज्य पत्र और 91 दिवसीय खज़ाना बिलों में मार्च 2001 के अंत तक 82 आधार अंकों से मार्च 2002 के अंत में 202 आधार अंकों का अंतर पाया गया । इसका कारण निवेशकों की, विशेषत: बैंकिंग क्षेत्र के, अधिकतर वरीयता को दिया जा सकता है जो औद्योगिक क्षेत्र की शिथिल वृद्धि को देखते हुए उच्च स्तर की प्रतिभूतियों की तरफ झुक गए । "गुणवत्ता झुकाव" (फ्लाइट टू क्वालिटी) इतना मज़बूत था कि 10-वर्षीय सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रतिफल दर मार्च 2002 के अंत में 287 आधार अंकों तक गिरकर 7.36 प्रतिशत तक पहुंच गई । दूसरी ओर, जमा दरों में कमी सरकारी क्षेत्र के बैंकों की मीयादी जमा दरों के साथ कम रखी गई जो मार्च 2001 में विविध परिपक्वताओं के लिए 4.0-10.5 प्रतिशत से कम होते हुए मार्च 2002 तक 4.25-8.75 प्रतिशत हो गई ।

15. ब्याज दरों के मीयादी ढ़ांचे से यह प्रकट होता है कि अल्पावधि दरों की तुलना में दीर्घावधि ब्याज दरों में अधिक तेजी से गिरावट आई । उदाहरण के लिए, सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में 10-वर्षीय सरकारी प्रतिभूतियों और 91-दिवसीय खज़ाना बिलों में अप्रैल 2001 के अंत तक 237 आधार अंकों का अंतर रहा जो मार्च 2002 के अंत तक 123 आधार अंकों तक नीचे आ गया । जहां एक ओर सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में वास्तविक अंतर कम हुआ, वहीं दूसरी ओर, अन्य बातों के साथ-साथ्।, मुद्रास्फीतिकारी अपेक्षाओं में संतुलन आया और अत्यंत उच्च दर वाले कंपनी पत्र तथा सरकारी प्रतिभूतियों के बीच अवधि अंतर बढ़ गया ।

उदाहरणार्थ, एएए श्रेणीकृत 5-वर्ष वाले कंपनी बांडों तथा समान अवशिष्ट परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों संबंधी प्रतिफल अप्रैल 2001 के अंत में लगभग 65 आधार बिंदुओं से बढ़कर मार्च 2002 के अंत तक लगभग 177 आधार बिंदुओं तक पहुंच गया, जो अन्य बातों के साथ-साथ, सर्वश्रेष्ठ पेपर हेतु निवेशक अधिमानता में वृद्धि प्रदर्शित करता है ।

16. यह आवश्यक है कि भारत में ब्याज दर ढांचे में और अधिक लचीलापन लाया जाए जो विद्यमान समष्टिगत आर्थिक स्थितियों के अनुकूल हो । यदि बैंक यथाशीघ्र और अधिक समय वाली मीयादी जमाराशियों से संबंधित परिवर्तनीय ब्याज-दर ढांचे की ओर कदम बढ़ाएं तो इस दिशा में और प्रगति हो सकती है । चूंकि व्यापार चक्र का चरण तथा मुद्रास्फीति विषयक दृष्टिकोण के आधार पर ब्याज-दरें दोनों दिशाओं में परिवर्तित हो सकती हैं, दीर्घावधि जमाराशियों पर परिवर्तनीय ब्याज-दर की स्थिति के कारण यह आवश्यक नहीं होगा कि वह कुछ समय के पश्चात् जमाकर्ताओं द्वारा अर्जित औसत ब्याज-दर कम कर सके (निर्धारित दर सीमा की तुलना में, जो ब्याज-दर नीचे आने की स्थिति में नई जमाराशियों के बजाए पुरानी जमाराशियों को पसंद करता है, और इसके विपरीत, जब दरें प्रतिकूल दिशा की ओर बढ़ रही हों) । इसके अलावा, उत्पादकता में सुधार लाकर और अपने ऋण की मात्रा में वृद्धि करके निर्धारित समय के भीतर बैंकों को अपनी परिचालन संबंधी लागतों में कमी लानी चाहिए । जिन क्षेत्रों में, इस समय, उच्चतर लागतें हैं उनमें प्रौद्योगिकी का समुचित उन्नयन करने के बाद यह संभव हो सकता है ।

17. आसान चलनिधि की स्थितियों और कम ब्याज-दर के वातावरण की दृष्टि से, इस समय समग्र मौद्रिक स्थिति काफी अच्छी है । फिर भी, हाल के वर्षों का अनुभव एक बार पुन: इस बात की पुष्टि करता है कि मौद्रिक प्रबंधन कुछ वर्ष पहले की अपेक्षा अब काफॅी अधिक जटिल हो गया है । यह कई कारणों से है, जैसे - पूरे विश्व में वित्तीय बाजारों में हो रहा एकीकरण, कुल वित्तीय कारोबार में उल्लेखनीय वृद्धि, अर्थव्यवस्था का उदारीकरण तथा वह तेजी जिसके साथ अप्रत्याशित घरेलू तथा अंतर्राष्ट्रीय उथल-पुथल नई प्रौद्योगिकी के कारण पूरे विश्व के वित्तीय बाज़ार तक पहुंच जाती है ।

18. स्मरण रहे कि 2001-02 के प्रारंभ में, रिज़र्व बैंक ने मौद्रिक नीति को सरल बनाने के लिए कदम उठाए थे । फिर भी, 11 सितंबर के बाद प्रतिकूल बाह्य गतिविधियाें तथा भारत में वित्तीय बाजार पर उनके प्रभाव के कारण मौद्रिक स्थितियों को कठोर किए बिना देशी वित्तीय बाजार को स्थिरता प्रदान करने तथा आश्वासन देने के लिए एक त्वरित प्रतिक्रिया की आवश्यकता थी । सौभाग्य से, मौद्रिक स्थिति में कोई बदलाव लाए बगैर वित्तीय स्थितियों को स्थिरता प्रदान करने में इन उपायों ने सफलता प्राप्त की । उभरती परिस्थितियों में अमरीकी और यूरोपियन सेंट्रल बैंको सहित, अन्य मौद्रिक प्राधिकरणों को भी सक्रिय प्रतिचक्रीय नीति की आवश्यकता का अनुभव हुआ है ।

19. इस बात पर जोर देना महत्वपूर्ण है क्योंकि, यदि वर्तमान आर्थिक परिस्थितियां बदल जाएं, तो यह पुन: आवश्यक हो सकता है कि ऐसे यथोचित मौद्रिक उपाय किए जाएं जो वर्तमान आसान चलनिधि स्थितियों के अनुकूल न हों । इन वास्तविकताओं को ध्यान में रखते हुए, बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं के लिए यह विशेष रूप से महत्वपूर्ण है कि वे अपनी व्यापार योजनाओं में अप्रत्याशित आकस्मिकताओं के लिए उपयुक्त प्रावधान करें और उनके परिचालनों के संबंध में मौद्रिक और बाह्य वातावरण में परिवर्तन के प्रभाव का पूरी तरह ध्यान रखें । इस संदर्भ में, जनवरी 2002 में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने यह प्रस्ताव रखा कि बैंकों को चाहिए कि वे पांच वर्षों के भीतर निवेशों की बिक्री से प्राप्त लाभ को अंतरित करके अपने निवेश संविभाग के कम-से-कम 5.0 प्रतिशत तक निवेश घट-बढ़ आरक्षित निधि (आइएफआर) बनाएं । फिर भी, बैंकों को इस बात की स्वतंत्रता है कि वे अपने निदेशक मंडल की सहमति से, अपने संविभाग के आकार और संघटन के आधार पर अपने संविभाग के 10.0 प्रतिशत तक आइएफआर का प्रतिशत विकसित करें । अब चूंकि सरकारी प्रतिभूति के मूल्य ज्यादा हैं, अत: बैंकों के लिए यह अच्छा अवसर होगा कि वे आइएफआर विकसित करें ।

बाह्य गतिविधियां

20. जब कि वर्ष 2001 की पहली छमाही के दौरान विश्व-अर्थव्यवस्था काफॅी मंद हो गई है, द्वितीय छमाही में इसमें सुधार की उम्मीद साधारण रही। सेवाओं एवं व्यापार पर 11 सितंबर की घटनाओं के प्रतिकूल प्रभावों से भी मंदी की प्रवृत्तियां बढ़ गईं । इसके अतिरिक्त, वित्तीय बाजार के सभी घटक, विशेषत: ईक्विटी बाजार, बुरी तरह प्रभावित हुए । इसका असर उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्था के वित्तीय बाजारों पर भी महसूस किया

गया क्योंकि जोखिम वाली परिसंपत्तियों से दूर रहने की प्रवृत्ति रही। इन अनिश्चितताओं के चलते अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष को अपनी विश्व अर्थव्यवस्था के विकास-अनुमान को तेज़ी से कम करके 2.4 प्रतिशत करना पड़ा, जो वर्ष 2000 के विकास-स्तर का तकरीबन आधा है । सौभाग्य से, हाल के सप्ताहों में विश्व अर्थव्यवस्था में, खासतौर से अमरीकी अर्थव्यवस्था में, सुधार की संभावना काफी बढ़ गई । इस स्थिति को देखते हुए, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने दिसंबर 2001 में विश्व अर्थव्यवस्था के लिए पहले जो 2.4 प्रतिशत का विकास-अनुमान लगाया था उसे अब वर्ष 2002 के लिए बढ़ाकर 2.8 प्रतिशत करना पड़ा । विश्व व्यापार के तहत कुल जितना व्यापार हो रहा है वह वर्ष 2001 की तुलना में वर्ष 2002 में और बेहतर होने की संभावना है । विश्व-मुद्रास्फीति और ब्याज दरों में गिरावट की वजह से विश्व-अर्थव्यवस्था की विकास संभावना ने जो रुख अपनाया है, वह पिछले कुछ महीनों की तुलना में निश्चित रूप से काफी अनुकूल लगता है । जैसे-जैसे अनिश्चितताएं कम हो रही हैं, आत्मविश्वास पैदा हो जाने एवं वित्तपोषण शर्तों में सुधार के कारण, विश्व आर्थिक दृष्टिकोण के प्रति जोखिम अब काफी संतुलित हो गए हैं, सिवाय हाल के अंतर्राष्ट्रीय तेल मूल्यों में अस्थिरता पैदा हो जाने के जो निरंतर चिंता का विषय बनी हुई है ।

21. 11 सितंबर की घटना के फलस्वरूप जो अंतर्राष्ट्रीय हलचल हुई, उसने भारतीय वित्तीय बाजार को अस्थिर बना दिया जिससे इक्विटी कीमतों और विदेशी संस्थागत निवेशकों के निवल पूंजी बहिर्वाह में तीव्र गिरावट आई । विदेशी मुद्रा बाजार में भी अस्थिरता आ गई जिससे डॉलर की तुलना में रुपए का मूल्यहा्रस हुआ, फलस्वरूप जो अनिश्चितताएं पैदा हुईं उससे सरकारी प्रतिभूति बाज़ार पर भी असर पड़ा । तथापि, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बड़ी मुस्तैदी से उपयुक्त चलनिधि उपलब्ध करवाते रहने का अपना इरादा घोषित किया और विभिन्न उपाय किए ताकि घरेलू वित्तीय बाज़ार को स्थिर रखा जा सके । भारतीय रिज़र्व बैंक की इन कार्रवाइयों से स्थिरता बहाल हुई और वित्तीय बाज़ार में आत्मविश्वास पैदा हुआ, जिसका असर यह हुआ कि इन बाज़ारों की स्थिति तेज़ी से पुन: सामान्य हो गई ।

22. प्रतिकूल बाह्य गतिविधियों के बावजूद, भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि में वर्ष 2001-02 के दौरान निरंतर अच्छी वृद्धि हुई क्योंकि व्यापार घाटा सामान्य रहा और पूंजी एवं अन्य अंतर्वाह तेज़ रहे । विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि मार्च 2001 की समाप्ति पर 42.3 बिलियन अमरीकी डालर थी जिसमें 11.8 बिलियन की वृद्धि हुई और वह मार्च 2002 के अंत में 54.1 बिलियन अमरीकी डालर हो गई । इनमें से विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में 11.5 बिलियन अमरीकी डालर की वृद्धि हुई । यह एक वर्ष में रिकॉड़ की गई सबसे अधिक वृद्धि है और यह इस बात का प्रमाण है कि 1991 की अवधि के बाद भारत ने भुगतान संतुलन का जिस प्रकार से प्रबंधन किया गया है उसमें उसे कितना मजबूत घरेलू एवं अंतर्राष्ट्रीय आत्मविश्वास प्राप्त है । इसी आत्मविश्वास के बल पर, 1997-98 के पूर्व एशियाई संकट से लेकर पिछले चार वर्षों में, तेल आयात में काफी वृद्धि के बावजूद और विकासशील देशों की विकास-संभावनाओं को प्रभावित करनेवाली बहुत-सी प्रतिकूल गतिविधियां घटित होने पर भी भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि दुगुनी हुई है ।

23. विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि के पर्याप्त स्तर को बनाए रखने के लिए भारत ने जो निरंतर प्रयास किए हैं, उसे वैश्विक अनिश्चितता ने संगत सिद्ध कर दिया है । अब यह व्यापक रूप से माना जा रहा है कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में आरक्षित निधियों की पर्याप्तता का पता लगाने के लिए यह पर्याप्त नहीं होगा कि आरक्षित निधि की मात्रा की तुलना पण्य-आयात की मात्रा से की जाए अथवा चालू खाते में घाटे की मात्रा से की जाए । अत:, हाल के वर्षों में भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि के प्रबंधन के प्रति जो समग्र दृष्टिकोण अपनाया गया है, वह भुगतान संतुलन की रकम में परिवर्तन को परिलक्षित करता है । इससे चालू खाते में होनेवाली तब्दीलियों का पता तो चलता ही है, साथ ही आरक्षित निधि के प्रबंधन से विभिन्न प्रकार के प्रवाहों एवं अन्य अपेक्षाओं से जुड़े चलनिधि-जोखिमों का भी पता लगता है । अत: आरक्षित निधि प्रबंधन की नीति, न्यायोचित ढंग से बहुत से पहचाने जानेवाले कारकों एवं अन्य आकस्मिकताओं को ध्यान में रखकर बनाई गई है । इन कारकों में अन्य बातों के साथ-साथ, ये शामिल हैं : चालू खाता घाटे की राशि कितनी है; अल्पावधि देयताओं की राशि कितनी है (इसमें दीर्घावधि ऋण से संबंधित वर्तमान चुकौती दायित्व शामिल हैं); संविभाग निवेश एवं अन्य प्रकार के पूंजीगत प्रवाहों में संभावित घट-बढ़; बाहरी आघातों के फलस्वरूप भुगतान संतुलन पर पड़नेवाला अप्रत्याशित दबाव (जैसे-1997-98 के पूर्व एशियाई संकट अथवा 1999-2001 के दौरान तेल के मूल्यों में वृद्धि का प्रभाव); और अनिवासी भारतीयों की प्रत्यावर्तनीय विदेशी मुद्रा जमाराशियों की प्रवृत्ति । आरक्षित निधि का पर्याप्त उच्च स्तर रखा जाना यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक है कि यदि अनिश्चितता का माहौल लंबे समय तक बना भी रहता है तो भी, उक्त आरक्षित निधि सभी मामलों में ‘चलनिधि संबंधी जोखिम’ को एक लम्बे समय तक समाहित कर लेगी । इन बातों को देखते हुए भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि की स्थिति अब काफी सुकर है ।

24. मौजूदा राष्ट्रीय सुरक्षा वातावरण सुदृढ़ रिज़र्व की आवश्यकता को अधिक रेखांकित करता है । रिज़र्व स्तर में अल्पावधि अंतर को एक ओर रखते हुए हमें यह सुनिश्चित करते रहना चाहिए कि दीर्घकाल में रिज़र्व की मात्रा जोखिम-समायोजित पूंजी प्रवाह का आकार और राष्ट्रीय सुरक्षा अपेक्षाएं आर्थिक वृद्धि के अनुरूप हों । यह हमें प्रतिकूल या अप्रत्याशित घटनाओं, जो अचानक ही घट सकती हैं, के प्रति अधिक सुरक्षा प्रदान करेगा ।

25. 11 सितंबर की घटनाओं से और अधिक वैश्विक मंदी के कारण पिछले वर्ष भारत के निर्यात अच्छा नहीं रहा, इससे सेवा निर्यात प्रभावित हुआ । अमरीकी डालर के रूप में निर्यात की वृद्धि दर पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 20.6 प्रतिशत की तुलना में 2001-02 (अप्रैल-फरवरी) में घटकर 0.05 प्रतिशत रह गई । घरेलू शोधन क्षमता वृद्धि को देखते हुए तेल निर्यात (12.7 प्रतिशत) की वृद्धि निर्यात वृद्धि की महत्वपूर्ण मद के रूप में उभरी है । दूसरी ओर, तेल से इतर निर्यात में पिछले वर्ष में हुई 15.7 प्रतिशत की वृद्धि की अपेक्षा 0.5 प्रतिशत की कमी आई है । आयात में वृद्धि पिछले वर्ष की इसी अवधि के 1.6 प्रतिशत की तुलना में 2.1 प्रतिशत हुई, जो अंतर्राष्ट्रीय तेल मूल्य में आई कमी के कारण अपेक्षाकृत कम तेल आयात को परिलक्षित करती है । यद्यपि, तेल आयात में पिछले वर्ष के 55.0 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में 11.9 प्रतिशत की कमी आई, लेकिन तेल से इतर आयात में पिछले वर्ष की इसी अवधि में आई 12.6 प्रतिशत की कमी के विपरीत 8.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई । अलग-अलग स्तर पर सोना और चांदी-सहित तेल से इतर आयात पिछले वर्ष की इसी अवधि में हुई 6.4 प्रतिशत की कमी की तुलना में 2001-02 (अप्रैल-दिसंबर) में 6.3 प्रतिशत बढ़ गया । निर्यात में कमी के फलस्वरूप 2001-02(अप्रैल-फरवरी) में व्यापार घाटा पिछले वर्ष की इसी अवधि के 5.8 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़कर 6.7 बिलियन अमरीकी डालर का हो गया ।

26. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीति वक्तव्य में घोषणा की गई थी कि निर्यात ऋण देने और बैंक सेवा के प्रति निर्यातकों के संतुष्टिकरण का स्तर बढ़ाने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा प्रक्रिया के सरलीकरण से संबंधित प्रतिसाद (फीडबैक) प्राप्त करने के लिए एक स्वतंत्र बाहरी एजेंसी से सर्वेक्षण कराया जाएगा । तदनुसार, सर्वेक्षण का काम नेशनल काउंसिल आफ एप्लाइड इकानॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर), नई दिल्ली को सौंपा गया । एनसीएईआर ने

अब अपनी रिपोर्ट दे दी है । सर्वेक्षण के निष्कर्षों से निर्यातकों को ऋण देने की प्रणाली में सुधार लाने में भारतीय रिज़र्व बैंक की पहल को सकारात्मक प्रतिसाद मिला है । तीन-चौथाई से अधिक निर्यातक निर्यात ऋण वितरण संबंधी समग्र बैंक सेवा के प्रति संतुष्ट हैं । लगभग एक चौथाई निर्यातकों ने इसे ‘‘सर्वोत्तम’’ और आधे से अधिक ने इसे ‘‘अच्छा’’ माना है । केवल पूर्वी क्षेत्र इसका अपवाद रहा है, जहां केवल 12 प्रतिशत ने इसे ‘‘सर्वोत्तम’’ और आधे से कम ने ‘‘अच्छा’’ माना है । निर्यातकों को ऋण वितरण में सुधार करने के लिए रिपोर्ट में भी कुछ सुझाव दिए गए हैं, जिनका परीक्षण भारतीय रिज़र्व बैंक कर रहा है । रिपोर्ट का सार विचार और आवश्यक कार्रवाई के लिए बैंकों को भेजा जाएगा । जन-साधारण की जानकारी के लिए रिपोर्ट जारी करने का प्रस्ताव भी है । इस सर्वेक्षण के परिणाम निर्यातकों को दी जानेवाली बैंक सेवा में और अधिक सुधार लाने के लिए उपयोगी

होंगे ।

27. आपूर्ति की सहज स्थिति को देखते हुए विदेशी मुद्रा बाजार ने 2001-02 में बाजार संवेदनशीलता में अनियमित अनिश्चितता से उत्पन्न उतार-चढ़ाव के कतिपय दृष्टांतों को छोड़कर सामान्यत: स्थिर स्थिति दशाई है । विदेशी मुद्रा बाजार में मई 2001 में तेल मूल्य पर दबाव और राष्ट्रीय साख निर्धारण में कमी, 11 सितंबर की घटनाओं के कारण पूंजी अंतर्वाह में कमी और पुन: दिसंबर 2001 में भारतीय संसद पर आतंकवादी हमले और सीमा पर तनाव उत्पन्न होने के कारण कुछ समय के लिए अनिश्चितता दिखाई पड़ी । हालांकि पूरे वर्ष में अमरीकी डालर की तुलना में रुपए का मूल्यहा्रस हुआ, लेकिन जापानी येन, यूरो और पौंड स्टर्लिंग-जैसी अन्य मुख्य मुद्रा की तुलना में उसने मिला-जुला रुख दर्शाया ।

28. यूरोपियन मॉनेटरी यूनियन में एकल मुद्रा के रूप में यूरो 1 जनवरी, 1999 से लागू की गई । प्रारंभिक उपाय के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक ने 20 नवंबर, 1998 को फेरा के अंतर्गत अनुमतियोग्य लेनदेन की मुद्रा के रूप में यूरो को अधिसूचित किया और बैंकों से कहा कि वे यूरो में एफसीएनआर(बी) जमाराशि स्वीकार कर सकते हैं और मौजूदा जमाराशि को विदेशी मुद्रा अर्जक विदेशी मुद्रा खाते (ईईएफसी) और निवासी विदेशी मुद्रा खाते की शेष राशि के अलावा यूरो में स्वतंत्र रूप से बदल सकते हैं । बैंकों को उनके विदेशी मुद्रा लेनेदेन के मूल्यन के लिए बेंचमार्क के रूप में यूरोबोर और यूरोलिबोर का उपयोग करने की स्वतंत्रता दी गई ।

रिज़र्व बैंक के अनुरोध पर फेडाई ने बैंकरों को यूरो नोट और सिक्कों के कारबार संबंधी प्रक्रिया से परिचित कराने के लिए एक प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाया । 1 जनवरी, 2002 से यूरो नोट और सिक्कों में सहज संक्रमण से रिज़र्व बैंक ने प्राधिकृत व्यापारियों और संपूर्ण मुद्रा परिवर्तकों को यह अनुदेश दिया कि वे यात्री चेकों और करेंसी नोटों के लिए यूरो विनिमय दरों को प्रदर्शित करने की व्यवस्था करें और 31 जनवरी, 2002 तक पारंपरिक मुद्राओं के यूरो में परिवर्तन के लिए निवासियों को सुविधाएं प्रदान करें और इस तारीख के बाद भी बैंकों और मुद्रा परिवर्तकों के लिए पारंपरिक मुद्रा के मूल्य प्राप्त करने संबंधी आवश्यक व्यवस्था करें । रिज़र्व बैंक ने अपने वेब साइट पर भी यूरो संबंधी आवश्यक सूचना उपलब्ध कराई और अमरीकी डालर के अलावा यूरो संबंधी संदर्भ दर की घोषणा भी शुरू कर दी ।

29. इस क्षेत्र में हुई एक और प्रमुख घटना यह है कि भारत सरकार ने रिज़र्व बैंक को यह विकल्प दिया है कि वह अमरीकी डालर के अलावा यूरो का भी हस्तक्षेपक मुद्रा के रूप्में इस्तेमाल कर सकता है । हैदराबाद और नागपुर को अमरीकी डालर और यूरो की खरीद-बिक्री के लिए नए केंद्र के रूप में शामिल कर लिया गया ।

30. स्मरण रहे कि अप्रैल 1998 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में, एशियाई संकट के तुरंत बाद, रिज़र्व बैंक ने उभरती अर्थव्यवस्थाओं में विनिमय दर के प्रबंधन में सावधानी बरतने की आवश्यकता पर बल दिया था । यह देखा गया कि ‘‘सभी देशों को, खासकर विकासमान देशों को, उन घटनाओं के प्रति सतत सचेत रहना है, जिनसे विनिमय बाजारों पर बुरा असर पड़ सकता है । इस संबंध में आत्मसंतुष्टि के लिए कोई जगह नहीं है ।’’ अक्तूबर 1998 की मध्यावधि समीक्षा में भी इसे पुन: दोहराया गया कि ‘‘रिज़र्व बैंक देशी और विदेशी वित्तीय बाजारों की घटनाओं की सूक्ष्म निगरानी करेगा और समय-समय पर यथावश्यक मौद्रिक और प्रशासनिक कार्रवाई करेगा । बाजार में होनेवाले दैनिक आपूर्ति और मांग संबंधी तीव्र असंतुलनों को नियंत्रित करने के लिए जब कभी जरूरत होगी, रिज़र्व बैंक अपनी आरक्षित निधियों का इस्तेमाल करने में भी नहीं हिचकेगा । पहले की तरह, वह सुनिश्चित करेगा कि तीव्र और अनियमित मांग, खासकर तेल आयात और सरकार की ऋण चुकौती संबंधी दायित्व, विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार के सुव्यवस्थित कामकाज में विघ्न उपस्थित न करने पाए ।

31. परवर्ती अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं ने भी बाजारों में (बिना किसी विशिष्ट स्तर को लक्ष्य बनाते हुए) व्यवस्था की हालात बनाए रखने के लिए विनिमय दर के जागरुक प्रबंधन की आवश्यकता को रेखांकित किया है । अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में इस निष्कर्ष का एक महत्वपूर्ण कारण यह बताया गया था : ‘‘बहुत अल्पावधि में दूसरे दिन अथवा सप्ताह या पखवाडे के दौरान एक मुद्रा के संभावित व्यवहार के बारे में ‘अनुमान’ विदेशी मुद्राओं, खासकर अमरीकी डालर के मुकाबले इसके घट-बढ़ के निर्धारण में प्रमुख भूमिका अदा कर सकता है । किसी नुकसानदेह घट-बढ़ के सामूहिक (बैंडवैगन) प्रभाव और बाजार के सहभागियों की भेड़चाल की स्थिति में अनुमान अक्सर सच हो सकते हैं । बहुत कम विकासमान देशों के बाजारों के मामले में यह खासकर सच है, क्योंकि उनकी निवल मात्राएं अपेक्षाकृत छोटी होती हैं । मुद्रा बाजारों में दैनिक घट-बढ़ निजी पूंजी प्रवाह की अस्थिरता से, जो अल्पावधि घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं के साथ-साथ भावी अनुमानों के प्रति बेहद संवेदनशील होते हैं, और जटिल हो जाता है ।’’

32. वास्तविक अर्थव्यवस्था पर विदेशी मुद्रा बाजार की विपरीत गतिविधियों के संभावित प्रभाव के कारण विदेशी मुद्रा विनिमय दर पर सचेत नजॅर रखने की जरूरत है, जैसाकि दो वर्ष पहले अनेक पूर्वी एशियाई और लैटिन अमरीकी देशों और हाल में टर्की और अर्जेंटाइना में देखा गया है । ‘संक्रामक’ असर बहुत तेज होता है और मुद्रा मूल्य में तीव्र परिवर्तन से वास्तविक अर्थव्यवस्था पर अनुपात से अधिक असर पड़ सकता है । अप्रत्याशित तीव्र वृद्धि से निर्यातकों को नुकसान पहुंच सकता है और तीव्र गिरावट से देनदारों अथवा अन्य कंपनियों पर भारी बुरा असर पड़ सकता है, इसके चलते बैंक फेल और दीवालिया भी हो सकते हैं ।

33. उपर्युक्त पृष्ठभूमि में, किसी समयावधि के दौरान व्यवस्थित रूप से विदेशी मुद्रा विनिमय दर के निर्धारण के लिए अंतर्निहित मांग और आपूर्ति हालात को छूट देना और बिना कोई नियत लक्ष्य दर निर्धारित किए अस्थिरता के प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करने की भारत की विदेशी मुद्रा विनिमय दर नीति संकट की घड़ी में खरी उतरी । अनेक अप्रत्याशित बाह्य और आंतरिक घटनाओं के बावजूद भारत की बाह्य स्थिति अत्यंत संतोषजनक बनी रही । विदेशी

मुद्रा बाजार के साथ व्यवहार में रिज़र्व बैंक सजगता, सावधानी और नरमी के इसी रुख को बनाए रखेगा । यह संतोष का विषय है कि नए बाजारों में व्यवहार्य विनिमय-दर रणनीति पर हाल के अंतर्राष्ट्रीय शोध ने भारत द्वारा अपनाई गई विनिमय-दर नीति को बहुत समर्थन दिया है । अनेक देश (पूर्व एशिया स्थित देशों-सहित) अब समरूप नीतियों को अपना रहे हैं ।

34. पिछले दो वर्षों में, अनिवासी भारतीयों द्वारा विप्रेषण, निवेश और बैंक खातों के रखरखाव की विभिन्न योजनाओं में अनेक परिवर्तन किए गए हैं । बजट 2002-2003 में की गई घोषणा के परिणामस्वरूप पूंजीगत खाते के उदारीकरण की नीति को जारी रखते हुए रिज़र्व बैंक ने निम्नलिखित उपाय किए हैं :

  • अनिवासी जमा योजनाओं को पूर्ण परिवर्तनीयता प्रदान करने के लिए अनिवासी अप्रत्यावर्तनीय खाता (एनआरएनआर) और अनिवासी विशेष रुपया (एनआरएसआर) खाता योजनाओं को 1 अप्रैल, 2002 से समाप्त कर दिया है । बैंक 1 अप्रैल, 2002 से इन योजनाओं के अंतर्गत, चाहे वह वर्तमान जमाराशियों अथवा किसी अन्य प्रकार की जमाराशियों का नवीकरण हो, किसी प्रकार की जमाराशि स्वीकार नहीं करेगा । तथापि, अनिवासी अप्रत्यावर्तनीय खाता योजना के अंतर्गत वर्तमान खातों को परिपक्व होने की तारीख तक जारी रखा जाए । अनिवासी अप्रत्यावर्तनीय खाता योजना के अंतर्गत, वर्तमान जमाराशियों की परिपक्वता पर, खाताधारक को सूचना देकर परिपक्वता आय को खाता धारक के अनिवासी (बाह्य) खाते में जमा किया जाएगा । इसी प्रकार, अनिवासी विशेष रुपया खाता योजना के अंतर्गत सावधि जमाराशियों के रूप मे वर्तमान खातों को परिपक्वता की तारीख तक जारी रखा जाए । परिपक्व होने पर परिपक्व आय को खाता धारक के अनिवासी (सामान्य) खाते (अनिवासी सामान्य खाते) में जमा किया जाएगा । सावधि जमाराशियों से इतर, वर्तमान अनिवासी विशेष रुपया खाते 30 सितंबर, 2002 के बाद जारी नहीं रहेंगे तथा खाता धारकों के विकल्प पर उक्त तारीख को या उसके पहले खाते को बंद कर दिया जाए अथवा उसकी शेष राशि को अनिवासी सामान्य खाते में जमा कर दिया जाए ।
  • ऑटोमेटिक रूट के अंतर्गत भारत से बाहर भारतीय प्रत्यक्ष निवेश के लिए वर्तमान सीमा को एक वित्तीय वर्ष में 50 मिलियन अमरीकी डालर से बढ़ाकर 100 मिलियन अमरीकी डालर कर दिया गया है । ऐसे भारतीय निवेश अब पिछले लेखा परीक्षित तुलन पत्र की तारीख को अपनी निवल मालियत के 50 प्रतिशत तक की विदेशी मुद्रा खरीद सकते हैं जबकि वर्तमान में यह सीमा 25 प्रतिशत है ।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुमोदन से कंपनी उधारकर्ता अपने निर्यात अर्जक विदेशी मुद्रा खातों की शेष राशि की सीमा तक बाह्य वाणिज्यिक उधार का समयपूर्व भुगतान कर सकते हैं । निर्यातोन्मुख इकाई और अन्य कंपनियां अपने निर्यात अर्जक विदेशी मुद्रा खातों में अपने विदेशी मुद्रा अर्जन का क्रमश: 70 प्रतिशत और 50 प्रतिशत जमा कर सकते हैं । अब भारतीय रिज़र्व बैंक ने कंपनियों को उनके निर्यात अर्जक विदेशी मुद्रा खातों में मामले के आधार पर निर्यात आय के उपर्युक्त प्रतिशत से और अधिक प्रतिशत जमा करने देने की अनुमति देने का निर्णय लिया है ताकि वे निम्न ब्याज दरों का लाभ उठा सकें और अपने बाह्य वाणिज्यिक उधारों का समयपूर्व भुगतान कर सके ।
  • यह निर्णय लिया गया है कि अच्छे कार्य-निष्पादन रिकाड़ वाली भारतीय कंपनियों को विदेश स्थित शैक्षणिक संस्थाओं में अपने विदेशी मुद्रा अर्जनों से पीठ स्थापित और इसी प्रकार के उद्देश्यों के लिए निधियां दान करने की अनुमति दी जाए । ऐसे मामलों पर भारतीय रिज़र्व बैंक मामले के आधार पर विचार करेगा ।
  • भारतीय रिज़र्व बैंक ने सितंबर 2001 को एक अधिसूचना जारी करके भारतीय कंपनियों को विदेशी संस्थागत निवेशकों की क्षेत्रीय उच्चतम सीमा/सांविधिक उच्चतम सीमा, जैसा लागू हो, को 24 प्रतिशत तक बढ़ाने की अनुमति दी है । वर्ष 2002-03 के अपने बजट भाषण में वित्त मंत्री की घोषणा के अनुसार विदेशी संस्थागत निवेशक संविभाग निवेश, विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए, विशिष्ट क्षेत्रों को छोड़कर, क्षेत्रीय सीमाओं के अधीन नहीं होंगे । सरकार यथासमय क्षेत्रों और प्रयोज्य सीमाओं के विवरण निर्दिष्ट करेगी ।
  • अनिवासी भारतीय किराया, लाभांश, पेंशन, ब्याज, आदि - जैसे अपनी चालू आय को प्रत्यावर्तित कर सकेंगे और इसके लिए उन्हें अपने सनदी लेखाकार से इस आशय का प्रमाणपत्र लेना होगा कि प्रस्तावित राशि विप्रेषण के लिए पात्र है और यह कि लागू करों का भुगतान किया गया है /की व्यवस्था की गई है ।
  • भारतीय म्युचुअल फंड को वर्तमान सीमाओं के अंदर, पूर्णत: परिवर्तनीय मुद्राओं वाले देशों में श्रेणी निर्धारित (रेटेड) प्रतिभूतियों में निवेश करने की अनुमति दी जाएगी । पहले इस प्रकार के निवेश की अनुमति विदेशी बाजारों में भारतीय कंपनियों द्वारा जारी एडीआर/जीडीआर में ही दी जाती थी ।
  • पूंजी खाते से संबंधित लेनदेनों को आगे और उदार बनाने की दृष्टि से यह निर्णय किया गया है कि आटोमेटिक रूट के अंतर्गत विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बांड (एफसीसीबी) स्कीम के लिए सीमा 50 मिलियन अमरीकी डालर तक रखी जाए ।

35. रिज़र्व बैंक ने परामर्श की प्रक्रिया के एक भाग के रूप में संबंधित नीतिगत विषयों पर विभिन्न कार्य-दलों का गठन किया जिनमें बैंकराें, बाजार सहभागियों और विशेषज्ञों की सहभागिता है । अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्यमान सर्वोत्तम कार्यप्रणालियों एवं सामान्य रूप से वित्तीय प्रणाली और विशेष रूप से बैंकिंग क्षेत्र में प्रचलित प्रथाओं के कार्यान्वयन के लिए प्रारूप सुझाने के लिए भी कार्य-दल गठित किए गए । इन कार्य-दलों की रिपोर्टों का परीक्षण आंतरिक रूप से किया गया और आवश्यकतानुसार इन्हें व्यापक प्रसार और अभिमतों के लिए आरबीआइ वेबसाइट पर भी रखा गया । हाल ही में गठित कुछ कार्य-दलों के संबंध में की गई प्रगति के ब्योरे इस वक्तव्य के संलग्नक में दिए गए हैं ।

II. वर्ष 2002-03 के लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य

36. वर्ष 2001-02 की मौद्रिक नीति का समग्र उद्देश्य निम्नानुसार था, जिसकी रूपरेखा पिछले वर्ष के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में दी गई थी :

  • मूल्यों के स्तर में उतार-चढ़ाव पर सतत निगरानी रखते हुए ऋण वृद्धि की पूर्ति और निवेश मांग को समर्थन देने के लिए पर्याप्त चलनिधि का प्रावधान ।
  • मध्यावधि में ब्याज दर व्यवस्था में अधिक लचीलापन लाने के समग्र ढांचे के भीतर, उभरती स्थिति के अनुसार आवश्यक सीमा तक कमी लाने के लिए वरीयता के साथ वर्तमान स्थिर ब्याज दर वातावरण को जारी रखना है ।

वर्ष 2001-02 में मौद्रिक प्रबंध अधिकतर उस मौद्रिक नीतिगत उद्देश्य के अनुरूप रहा जिसकी घोषणा अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में की गई थी और जिसे अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में दुहराया गया था । फिर भी, वर्ष 2001-02 में मौद्रिक प्रबंध को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा, जैसे - चलनिधि का आधिक्य होना, विश्व स्तर पर मंदी, 11 सितंबर के बाद बाह्य गतिविधियां तथा सीमाओं पर तनावपूर्ण स्थिति ।

37. जैसाकि अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में स्पष्ट किया गया था, भारतीय रिज़र्व बैंक ब्याज-दरों में आगे और कमी लाने की ओर झ्ुाकाव-सहित वर्ष-भर में स्थिर ब्याज-दर व्यवस्था को बनाए रखने में समर्थ रहा है । द्वितीयक बाजार में ंसरकारी प्रतिभूतियों पर लाभ वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में विद्यमान लाभों से काफी कम रहे । सरकार का बाजार से बड़ा उधार कार्यक्रम सामान्य ब्याज दरों को अनुचित रूप से प्रभावित किए बिना निम्नतर लागत पर पूरा किया जा सका ।

38. यद्यपि आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) में कमी और कम ब्याज-दर व्यवस्था की मौजूदगी के कारण बैंकों के पास पर्याप्त उधार देने योग्य संसाधन उपलब्ध रहे हैं, फिर भी, जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, सामान्य रूप से न्यून स्तर की आर्थिक गतिविधि के कारण खाद्येतर ऋण का उठाव अपेक्षित स्तर तक नहीं रहा जो औद्योगिक उत्पादन में हा्रसमान वृद्धि से स्पष्ट है ।

39. वर्ष 2001-02 की अंतिम तिमाही के दौरान खाद्येतर ऋण में तेजी पाई गई है जिसके जारी रहने का अनुमान है । इसके अलावा, धीमी मुद्रास्फीति, कृषि की अच्छी संभावनाओं तथा अमरीका और यूरो क्षेत्र में आर्थिक मंदी से उबरने के लक्षणों, यद्यपि वे प्रारंभिक रूप में हैं, से हमारी अर्थव्यवस्था में मंदी से उबरने की प्रक्रिया में मदद मिलनी चाहिए । कृषि में सुधार से टिकाऊ और गैर-टिकाऊ दोनों वस्तुओं की ग्रामीण क्षेत्र में मांग बढ़नी चाहिए । विश्व स्थिति में सुधार होने से हमारे निर्यातों, विशेषकर साफटवेयर और ज्ञान-आधारित उद्योगों, को भी सहायता प्राप्त होनी चाहिए । ऐसी स्थिति में, यह प्रत्याशा है कि ऋण की मांग में चालू वर्ष के दौरान वृद्धि होने की संभावना है ।

40. वर्ष 2001-02 के दौरान, विदेशी मुद्रा बाजार ने विनिमय दर पर कोई अनुचित दबाब डाले बिना काफी स्थिरता दर्शाई । जैसाकि पिछले खंड में बताया गया है, किसी नियत दर लक्ष्य के बिना उतार-चढ़ाव के प्रबंध पर जोर देने की भारत की विनिमय दर नीति, समय के चलते विनिमय दर की गतिविधियों को सुव्यवस्थित रूप से निर्धारित करने के लिए अंतर्निहित मांग और आपूर्ति की स्थितियों द्वारा विनिमय दर के निर्धारण की प्रक्रिया समय की कसौटी पर खरी उतरी । अनेक प्रत्याशित बाह्य और घरेलू गतिविधियों के बावजूद, भारत की बाह्य स्थिति अत्यधिक संतोषप्रद बनी रही । भारतीय रिज़र्व बैंक विदेशी मुद्रा बाजार के संबंध में निगरानी, सतर्कता और लचीलेपन का यही दृष्टिकोण अपनाना जारी रखेगा । अप्रत्याशित प्रमुख वैश्विक घटनाक्रम को छोड़कर, भारतीय रिज़र्व बैंक यह सुनिश्चित करना भी जारी रखेगा कि आरक्षित निधियों के स्तरों में अल्पकालिक घट-बढ़ को एक तरफ रखते हुए दीर्घकाल में आरक्षित निधियों की प्रमात्रा अर्थव्यवस्था में वृद्धि-दर, अर्थव्यवस्था में बाह्य क्षेत्र के अंश तथा जोखिम-समायोजित पूंजीगत प्रवाहों के आकार के अनुरूप है । यह हर्ष की बात है कि विनिमय दर और आरक्षित निधि प्रबंध की हमारी प्रणाली के प्रति अब अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता बढ़ रही है ।

41. केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा 2001-02 के बजट में सकल घरेलू उत्पाद का 4.7 प्रतिशत रखा गया था जिसे ऊर्ध्वगामी संशोधित करके 5.7 प्रतिशत कर दिया गया । वर्ष 2002-03 के लिए, राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद का 5.3 प्रतिशत रखा गया था और बाजार से केंद्र का उधार कार्यक्रम 1,42,867 करोड़ रुपए (सकल) और 95,859 करोड़ रुपए (निवल) का था । यद्यपि कुछ राज्यों के बाजार उधार कार्यक्रमों पर दबाव रहा, तथापि भारतीय रिज़र्व बैंक को ऐसी आशा है कि समग्र चलनिधि और ब्याज दरों पर गंभीर दबाव डाले बिना ऋण प्रबंध का संचालन किया जाएगा ।

42. वर्ष 2002-03 की समग्र वृद्धि दर का अनुमान मूलत: औद्योगिक क्षेत्र में सुधार की गति और कृषि में प्रत्याशित वृद्धि दर पर निर्भर करता है । वर्तमान संकेत यह दर्शाते हैं कि कृषि में पिछले वर्ष की अपेक्षा उच्चतर दर से वृद्धि होने की संभावना है तथा निर्यात क्षेत्र में अच्छी संभावना के साथ औद्योगिक क्षेत्र में भी तेज सुधार के सकारात्मक संकेत हैं । मौद्रिक नीति निर्माण के प्रयोजन से पूरे वर्ष के लिए 2002-03 में वास्तविक सकल देशी उत्पाद की वृद्धि दर 6.0-6.5 प्रतिशत रखी गई है । मुद्रास्फीति की दर 4.0 प्रतिशत से थोड़ी कम मानी गई है । व्यापक मुद्रा (एम3) में 2002-03 के दौरान 14.0 प्रतिशत वृद्धि होने का अनुमान है । एम3 में इस वृद्धि के अनुरूप अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशि में 1,54,000 करोड़ रुपए की वृद्धि का अनुमान है । वाणिज्य पत्र, सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों और निजी कंपनी क्षेत्र के शेयरों/डिबेंचरों/ बांडों में निवेश को छोड़कर खाद्येतर बैंक ऋण में 15.0-15.5 प्रतिशत वृद्धि होने का अनुमान है । ऋण में इस पैमाने पर वृद्धि से ऐसी आशा है कि अर्थव्यवस्था के सभी उत्पादक क्षेत्रों की ऋण आवश्यकता की समुचित पूर्ति होगी ।

43. इस पृष्ठभूमि में भारतीय रिज़र्व बैंक यह सुनिश्चित करना चाहता है कि मूल्य स्थिरता के साथ-साथ ऋण की सभी उपयुक्त अपेक्षाएं पूरी होती रहें । इस उद्देश्य से भारतीय रिज़र्व बैंक खजाना बिलों की दोतरफा खरीद/बिक्री-सहित खुला बाजार परिचालन के माध्यम से तथा यथावश्यक उपलब्ध नीतिगत साधनों का प्रयोग कर चलनिधि के सक्रिय मांग प्रबंध की अपनी नीति जारी रखेगा । परिस्थितियों में यदि अप्रत्याशित परिवर्तन न हो तो भारतीय रिज़र्व बैंक मध्यावधि में आसान ब्याज दर प्रणाली की ओर झ्ुाकाव के साथ वर्तमान ब्याज दर वातावरण बनाए रखेगा । इसके अलावा, दीर्घावधि उद्देश्य यह होगा कि सरकारी और निजी क्षेत्र के सभी प्रकार के ऋण लिखतों की ब्याज दरें एक संकीर्ण दायरे के भीतर हों ।

44. पिछले कुछ वर्षों में मौद्रिक नीति के स्वरूप में भारी परिवर्तन आया है और मौद्रिक नीति प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष साधनों की ओर बढ़ी है और नीति की संचरण प्रणाली में सुधार हुआ है । तात्कालिक सकल निपटान प्रणाली (आरटीजीएस) आरंभ होने के साथ इस प्रक्रिया में तेजी आएगी । आरटीजीएस की पुरोगामी प्रणालियों के रूप में निगोशिएटेड डीलिंग सिस्टम (एनडीएस) आरंभ किया गया है तथा भारतीय समाशोधन निगम लिमिटेड स्थापित किया गया है । बैंकों के विनियमन और पर्यवेक्षण की प्रणाली में काफी सुधार हुआ है । इस परिप्रेक्ष्य में वर्तमान कानूनी ढांचे के भीतर उधारकर्ताओं से संबंधित ऋण सूचना एकत्र करने, उसका संसाधन करने और उस सूचना का बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के बीच आदान-प्रदान करने के लिए एक ऋण सूचना ब्यूरो स्थापित करने का प्रस्ताव महत्वपूर्ण होता है ।

45. आरक्षित नकदी निधि अनुपात और रिपो दर परिवर्तनों-सहित बैंक दर परिवर्तन ब्याज दर परिवर्तनों और चलनिधि व मौद्रिक प्रबंध के महत्वपूर्ण साधनों के लिए संकेतक के रूप में उभरे हैं । चलनिधि समायोजन सुविधा अधिक लचीले रूप में दिन-प्रति-दिन के आधार पर चलनिधि समाहित करने और या देने की एक प्रभावी प्रणाली के रूप में विकसित हुई है और,

इस प्रक्रिया में, मांग मुद्रा बाजार के लिए एक निश्चित सीमांकित मार्ग (कॉरिडार) प्रशस्त हुआ है । ज्यादातर प्रक्रियागत और प्रौद्योगिकीगत विवशताओं के दूर होने के साथ ही, चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) को अधिक कुशल बनाने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक का प्रयास जारी रहेगा । भारतीय रिज़र्व बैंक वित्तीय बाज़ार के विकास और उसके सुचारु रूप से कार्य संचालन के लिए भी अपने प्रयास जारी रखेगा तथा अधिकतर वित्तीय स्थिरता प्राप्त करने की दिशा में आगे और वित्तीय क्षेत्र सुधार करता रहेगा ।

46. कुल मिलाकर, सामान्य स्थितियों में तथा अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में किसी प्रतिकूल और अप्रत्याशित घटनाक्रम को छोड़कर, वर्ष 2002-03 के लिए मौद्रिक नीति का समग्र उद्देश्य निम्नानुसार रहेगा :

  • मूल्यों के स्तर में उतार-चढ़ाव पर सतर्कतापूर्वक निगरानी जारी रखने के साथ-साथ ऋण वृद्धि की पूर्ति करने के लिए पर्याप्त चलनिधि का प्रावधान और अर्थव्यवस्था में निवेश की मांग को सहायता प्रदान करना ।
  • उपर्युक्त के अनुरूप, कम ब्याज-दरों के लिए वरीयता-सहित ब्याज-दरों के संबंध में वर्तमान उद्देश्य को जारी रखना ।
  • मध्यावधि में ब्याज-दर संरचना को अधिकतर लचीलापन प्रदान करना ।

III. वित्तीय क्षेत्र सुधार और
मौद्रिक नीति उपाय

47. वार्षिक नीति वक्तव्यों और मध्यावधि समीक्षाओं ने ढांचागत और विनियामक उपायों पर ध्यान केंद्रित किया है ताकि वित्तीय प्रणाली को मजबूत बनाया जा सके और वित्तीय बाज़ार के विविध खंडों के कार्य में सुधार लाया जा सके । विशेषज्ञों और बाज़ार सहभागियों के साथ विस्तृत चर्चा के बाद लागू किए गए इन उपायों का मुख्य उद्देश्य है मौद्रिक नीति की परिचालनगत प्रभावशींलता को बढ़ाना, रिज़र्व बैंक की विनियामक भूमिका को पुनर्परिभाषित करना, विवेकपूर्ण और पर्यवेक्षी मानदंडों को मजबूत बनाना, ऋण सुपुर्दगी प्रणाली को सुधारना तथा वित्तीय क्षेत्र की तकनीकी और संस्थागत संरचना को विकसित करना ।

48. हाल के नीतिगत उपायों में तकनीकी प्रगति को ध्यान में रखने का प्रयास किया गया है जिनका प्रमुख प्रभाव वित्तीय क्षेत्र पर है । सूचना प्रौद्योगिकी से अत्याधुनिक उत्पाद-विकास, बेहतर बाज़ार संरचना, जोखिमों के नियंत्रण के लिए विश्वसनीय तकनीकों का कार्यान्वयन संभव होता है तथा इससे वित्तीय मध्यवर्तियों को भी दूरवर्ती और विविधीकृत बाज़ारों तक पहुंचने में सहायता मिलती है । इसे ध्यान में रखते हुए, प्रौद्योगिकी ने बैंकों द्वारा किए जानेवाले तीन प्रमुख कार्यों अर्थात् चलनिधि तक पहुंच, परिसंपत्तियों का रूपांतरण और जोखिमों की निगरानी की रूपरेखा ही बदल दी है । अविनियमन के साथ प्रौद्योगिकी की पारस्परिक क्रिया भी एक अधिक खुले, प्रतिस्पर्धी और विश्व-व्यापी वित्तीय बाज़ार के उभरने में मददगार साबित हो रही है जिससे अर्थव्यवस्था में कार्यकुशलता सुधरनी चाहिए तथा इसके साथ ही परिसंपत्ति-देयता प्रबंध में अधिक सतर्कता और समझदारी की भी आवश्यकता होगी । इस संबंध में, बैंकों ने अपने कार्यकलापों में आवश्यक प्रौद्योगिकी अपनाने के लिए रिज़र्व बैंक के निदेशों के प्रति सकारात्मक प्रतिक्रिया दर्शाई है ।

49. अब तक किए गए उपायों के कार्यान्वयन में की गई प्रगति तथा भारतीय बैंकिंग प्रणाली की सुदृढ़ता पर उनके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए इस प्रक्रिया को आगे और गतिशील बनाने का प्रस्ताव है ताकि वैश्विक प्रतिस्पर्धा का सामना करने के लिए भारतीय वित्तीय क्षेत्र को बेहतर रूप में तैयार किया जा सके ।

मौद्रिक उपाय

(क) आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर)
का युक्तिकरण और उसमें कमी

50. रिज़र्व बैंेक सीआरआर को 3.0 प्रतिशत के सांविधिक न्यूनतम स्तर तक लाने के अपने मध्यावधि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है । इस दिशा में भारतीय रिज़र्व बैंक ने सीआरआर में क्रमश: अगस्त 1998 के 11.0 प्रतिशत से कमी करते हुए मई 2001 तक इसे 7.5 प्रतिशत कर दिया है । अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में, अनुसूचित वाणिज्य बैंकों (क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर) के सीआरआर को 200 आधार अंक कम करके उनकी निवल मांग और मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) के 5.5 प्रतिशत के वर्तमान स्तर तक लाया गया है । सीआरआर की अपेक्षा के लिए कुछ विशिष्ट श्रेणियों की देयताओं पर बैंकों को दी गई विभिन्न छूटें समाप्त करते हुए सीआरआर का युक्तिकरण भी प्रारंभ किया गया । उसके बाद, सहकारी बैंकों-सहित सभी प्रकार के बैंकों को भी उसी प्रकार सीआरआर के निर्धारण के अधीन लाया गया, जैसाकि यह अनुसूचित वाणिज्य बैंकों पर लागू है । इन उपायों को इस प्रकार बनाया गया ताकि अल्पावधि आय वक्र (यील्ड कर्व) का विकास सुसाध्य हो सके, मुद्रा बाज़ार विकसित हो सके, बैंकों के पास उधार देने योग्य संसाधनों की उपलब्धता में वृद्धि हो सके तथा मौद्रिक नीति के संचालन में अप्रत्यक्ष साधनों की क्षमता में सुधार हो सके । इसके अलावा, भारतीय रिज़र्व बैंक ने क्षेत्र विशेष के पुनर्वित्त से दूर हटने का अपना संकल्प घोषित किया है । चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) को मजबूत बनाने और बेहतर विवेकपूर्ण मानदंड लागू करने के साथ ही, सीआरआर कम करने के मध्यावधि लक्ष्य की ओर आगे एक और कदम बढ़ाने के तौर पर यह प्रस्ताव किया जाता है कि :

  • 15 जून, 2002 से प्रारंभ होनेवाले पखवाड़े से सीआरआर को 5.5 प्रतिशत से और कम करके 5.0 प्रतिशत करना ।

15 जून, 2002 से लागू होनेवाली सीआरआर में प्रस्तावित कमी बैंकिंग प्रणाली के पास विद्यमान अधिक चलनिधि को देखते हुए की गई है । इसका पता मांग मुद्रा बाज़ार में भारी लेनदेन (टर्न ओवर) एवं भारतीय रिज़र्व बैंक को अपेक्षाकृत अधिक पुनर्खरीदों के औसत आश्रय से चलता है । फिर भी, यदि बाज़ार में चलनिधि की स्थितियों में अप्रत्याशित परिवर्तन हो तो भारतीय रिज़र्व बैंक उपर्युक्त घोषित तारीख से पहले कमी की प्रभावी तारीख आगे ला सकता है ।

(ख) बैंक दर

51. वर्तमान में, प्रणाली में काफी अधिक चलनिधि है जो कि पिछले छह सप्ताहों के दौरान रिज़र्व बेंक द्वारा प्राप्त रिपो राशियों में प्रतिबिंबित है । 4 अप्रैल, 2002 को रिपो के माध्यम से दी गई कुल राशि 30, 055 करोड़ रुपए तक रही । औसतन, पिछले छह सप्ताहों में एक या तीन दिवसीय रिपो में बैंकों द्वारा अदा की गई राशियां 1,565 करोड़ रुपए से 16,024 करोड़ रुपए के दायरे में रहीं । रिपो दर वर्तमान में 6.0 प्रतिशत है, जो 6.5 प्रतिशत की बैंक दर से नीचे है, तथा कई दिन मांग मुद्रा दरें भी बैंक दर से कम रही हैं । सुलभ चलनिधि की स्थिति के प्रतिसाद के रूप में, कुछ बैंकों ने हाल में अपनी जमा ब्याज दरें एवं उधार ब्याज दरें भी कम कर दी हैं । इसके अलावा, नियत आय प्रतिभूतियों पर प्राप्तियां भी काफी नीचे आई हैं । इन परिस्थितियों के अंतर्गत संतुलित रूप में यह वांछनीय समझा गया है कि बैंक दर को अपरिवर्तित रहने दिया जाए । फिर भी, यह विषय सतत समीक्षा के अधीन रखा जाएगा । यदि समग्र चलनिधि और ऋण की स्थिति में आवश्यकता है तथा मुद्रास्फीति की दर लगातार नीचे रहती है, तो जब भी आवश्यक होगा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा बैंक दर में आधा प्रतिशत अंक (50 आधार अंक) तक कमी करने पर विचार किया जाएगा ।

(ग) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का सांविधिक
चलनिधि अनुपात(एसएलआर)

52. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों से यह अपेक्षित है कि वे अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) के 25 प्रतिशत पर (एसएलआर) नकद या स्वर्ण या अभारित सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में बनाए रखें । अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से भिन्न, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा अपने प्रवर्तक बैंकों के पास मांग या मीयादी जमाराशियों के रूप में रखी गई शेष राशियां ‘नकदी’ के रूप में मानी जाती हैं और इसलिए उनके द्वारा एसएलआर के अनुरक्षण के रूप में गिनी जाती हैं । एक विवेकसम्मत उपाय के रूप में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के लिए यह वांछनीय है कि वे अपना समूचा एसएलआर संविभाग सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में बनाए रखें जो कि इनमें से कई बैंक पहले से ही कर रहे हैं । तदनुसार :

  • सभी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अपनी समूची एसएलआर धारिताएं सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में रखें । क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को प्रवर्तक बैंकों के पास रखी अपनी मौजूदा जमाराशियों को सरकारी प्रतिभूतियों में परिवर्तित करने हेतु पर्याप्त समय की अनुमति देने के लिए इस प्रावधान का पालन 31 मार्च, 2003 तक किया जाए ।

ब्याज दर नीति

(क) ब्याज दर में लचीलापन

53. जैसाकि पूर्ववर्ती खंड में बताया गया है, वर्ष 2001-02 में दीर्घावधिक सरकारी प्रतिभूतियों पर ब्याज-दरों में तीव्रतम गिरावटों मे से एक गिरावट देखी गई । 10-वर्षीय सरकारी प्रतिभूतियों पर आय में 287 आधार अंकों की कमी रही । 10-वर्षीय पत्र पर द्वितीयक बाजार प्राप्ति फिलहाल 7.27 प्रतिशत है । बैंक दर, रिपो दर और एक दिवसीय मांग मुद्रा दरें हाल के महीनों में बहुत निम्न रही हैं जो 6.0 और 7.0 प्रतिशत के दायरे में रही हैं । वर्ष 2001-02 के दौरान मुद्रास्फीति की 3.6 प्रतिशत की औसत दर के संबंध में, यह स्पष्ट है कि दीर्घावधि पत्र पर वास्तविक ब्याज दरें, बैंक दर और अल्पावधि दरें अब काफी तर्कसंगत हैं ।

54. तथापि, सामान्य और वास्तविक ब्याज दरों में आई तीव्र कमी उन ब्याज दरों में अभी पूरी तरह प्रतिबिंबित नहीं हुई है जो सामान्यत: बैंकों द्वारा अग्रिमों पर लगाए जाते हैं । इस बात का भी साक्ष्य है कि बैंकों द्वारा अलग-अलग उधारकर्ताओं से प्रभारित ब्याज दरों के अंतर के बढ़ने की संभावना है । सरकार द्वारा पिछले तीन वर्षों में राहत बांडों और लघु बचतों, आदि पर निम्नतर ब्याज दरें लगाने की कार्रवाई के साथ-ही-साथ बैंकों की नकदी आरक्षित निधि में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा की गई तीव्र कमी के बावजूद (जिसमें भारतीय रिज़र्व बैंक के पास बैंकों द्वारा रखी गई पात्र नकदी बकाया राशियों पर भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा प्रदत्त ब्याज दरों में की गई वृद्धि शामिल है), अधिकांश उधारकर्ताओं को ब्याज दर में अपेक्षाकृत कम ब्याज दर की अदायगी करनी पड़ी है । वाणिज्यिक ब्याज दर विन्यास की अपेक्षाकृत निम्नगामी अलोचनीयता के कारण मुख्यत:निम्नलिखित तथ्य हैं :

  • प्रमुख बैंकों के लिए जमाराशियों की औसत लागत अपेक्षाकृत उच्च बनी रही (6.25 से 7.25 प्रतिशत) । साथ ही, जमाराशियों का एक काफी बड़ा भाग, नियत ब्याज दर युक्त दीर्घावधि जमाराशियों के रूप में है । अत: कम समय में ब्याज दर को कम करने के लिए बैंकों के पास उपलब्ध लोचनीयता सीमित है जो परिसंपत्तियों से प्राप्त होनेवाले अर्जनों पर प्रतिकूल प्रभाव न डाले । अनुत्पादक परिसंपत्तियों के अपेक्षाकृत उच्च स्तर से बैंकों विशेषकर सरकारी क्षेत्र के बैंकों, की निधियों की औसत लागत और बढ़ी है ।
  • बैंकों के गैर-ब्याज परिचालन व्यय की राशि कुल परिसंपत्तियों का 2.5 से 3.0 प्रतिशत हो गई है इससे निधियों की लागत के अपेक्षित विस्तार पर दबाव बढ़ा है ।
  • कानूनी अवरोधों और बैंकों द्वारा बकाया राशियों की वसूली में होनेवाली कार्यविधिक कमियों के कारण प्रीमियम के खतरे के बढ़ने की संभावना है जिससे जमा दरों और उधार दरों के बीच अंतर बढ़ सकता है ।
  • सांविधिक चलनिधि अनुपात अपेक्षाओं के अतिरिक्त, सरकार के बड़े उधार कार्यक्रम, सर्वश्रेष्ठ पेपर (सावरिन पेपर) पर बैंकों द्वारा निधियों के नियोजन के लिए महत्वपूर्ण संभावनाएं प्रदान करते हैं ।

55. मध्यावधि स्थितियों के परिप्रेक्ष्य में यह आवश्यक है कि भारत में ब्याज दर विन्यास को अधिक लचीला बनाने के प्रयास किए जाएं जिससे वह अंतर्निहित मुद्रास्फीतिकारी स्थिति को प्रतिबिंबित कर सके । जहां तक विस्तार में कमी का संबंध है, इसमें कोई संदेह नहीं कि मानव-शक्ति उत्पादकता में सुधार लाने की (उदाहरणार्थ मात्रा में वृद्धि के जरिए) और साथ ही स्थापना लागत में कमी लाने की आवश्यकता है । पिछले दो वर्षों में इस क्षेत्र में कुछ प्रगति हुई है किंतु फिर भी अभी काफी कुछ करना शेष है । फिर भी, यह माना जाना चाहिए कि विविध अवरोधों (बैंकिंग क्षेत्र में सरकारी स्वामित्व और कानूनी प्रावधान), विशेष रूप से कमजोर ऋण-वसूली प्रणाली के परिप्रेक्ष्य में, औसत विस्तार कम करने की दिशा में वास्तविक प्रगति कम ही होने की संभावना है ।

56. विस्तार में कमी लाने के प्रयासों और वसूली में होनेवाले विलंब को कम करने के अन्य उपायों के संबंध में बिना किसी प्रकार के पूर्वाग्रह के, ब्याज दर विन्यास को लोचनीयता प्रदान करने के लिए निम्नलिखित उपायों पर जल्द-से-जल्द विचार किया जाना चाहिए :

  • सभी नई जमाराशियों के लिए लचीली ब्याज दर प्रणाली की शुरूआत को प्रोत्साहित करना जिसमें छमाही मध्यांतर पर री सेटिंग होती हो । इसके साथ ही, जमाकर्ताओं के लिए नियत दर विकल्प भी उपलब्ध होना चाहिए । उदाहरणार्थ, बैंक छमाही री-सेटिंग व्यवस्था के साथ दीर्घावधि जमाराशि के प्रस्ताव रख सकते हैं और उसी समय में समकक्ष परिपक्वता अवधि के लिए नियत दर का प्रस्ताव रख सकते हैं , जिस पर ब्याज दर उच्चतर या निम्नतर हो सकती है, जो जिमा राशि की अवधि पर और दीर्घावधि जमाराशियों के लिए मुद्रास्फीति और ब्याज दर के संबंध में बैंकों की अवधारणा पर निर्भर करेगी । सभी बैंकों को यह सूचित किया गया है कि वे जल्द-से-जल्द लचीली दर प्रणाली (जमाकर्ताओं के लिए नियत दर विकल्प भी हो) को व्यवहार में लाएं ।
  • बैंकों से यह अपेक्षा की गई है कि वे जमाकर्ताओं को प्रोत्साहित करने के लिए वर्तमान दीर्घावधि नियत दर की पिछली जमाराशियों को विविध दर जमाराशियों में परिवर्तित करें । वाणिज्यिक बैंक जमाकर्ताओं को पहले से चली आ रही जमाराशि अवधि के लिए संविदा दर की अदायगी कर सकते हैं और अवधि पूर्व आहरण के लिए दंड से छूट दे सकते हैं बशर्ते उसी जमाराशि को विविध दर आधार पर नवीकृत किया जाता है ।

(ख) मूल उधार दर और अंतर

57. अक्तूबर 1996 की मध्यावधि समीक्षा में यह उल्लेख किया गया था कि ‘‘बहुत से बैंक 2 लाख रुपयों से अधिक की ऋण सीमाओंवाले उधारकर्ताओं को बैंक ऋण के एक बड़े भाग के लिए मूल उधार दर से अत्यधिक उच्चतर उधार दर से ब्याज लगा रहे हैं । अतएव, यह निर्णय किया गया है कि बैंक अपनी मूल उधार दर की घोषणा के साथ-साथ उपभोक्ता ऋणों को छोड़कर अन्य समस्त अग्रिमों के लिए मूल उधार दर से अधिक अधिकतम अंतर को भी घोषित करें । बैंकों को मूल उधार दर से अधिक, अधिकतम अंतर को निर्धारित करने के लिए अपने-अपने बोर्डों का अनुमोदन प्राप्त करना चाहिए । ’’

58. उपलब्ध नवीनतम सूचना के अनुसार, कुछ बैंकों के मूल उधार दरों पर अंतर पर्याप्त हैं । वर्तमान ब्याज दर परिवेश में, मूल उधार दर के संदर्भ में बहुत उच्च अंतर रखना संगत नहीं है । अत: बैंकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे मूल उधार दर से अधिक अधिकतम अंतर की समीक्षा करें और जहां भी वे असंगत रूप में उच्च हों उसे कम करें ताकि उधारकर्ताओं को संगत ब्याज दर पर ऋण उपलब्ध हो सके । साथ ही, बैंकों को चाहिए कि वे अपनी मूल उधार दर की घोषणा के साथ ही, मूल उधार दर से अधिक अधिकतम अंतर की भी जनता के लिए घोषणा करें । रिज़र्व बैंक अक्तूबर 2002 में ऐसे चयनित बैंक, जिनका मूल उधार दर से अधिक अत्यधिक उच्च अंतर है, से विचार-विमर्श कर पुन: मामले की समीक्षा करेगा ।

59. ग्राहक संरक्षण के हित में, साथ ही सार्थक स्पर्धा के परिप्रेक्ष्य में, यह आवश्यक है कि जमाकर्ताओं के साथ-ही-साथ उधारकर्ताओं के लिए वास्तविक उधार दरों के संबंध में विशुद्ध पारदर्शिता रखी जाए । इस दिशा में, निम्नलिखित उपाय प्रस्तावित हैं :

  • बैंकों को चाहिए कि वे अपने जमाकर्ताओं को विभिन्न परिपक्वता अवधियों की जमा दरों और प्रभावी वार्षिक प्राप्तियों के संबंध में सूचना प्रदान करें । यह सूचना भारतीय रिज़र्व बैंक को भी उपलब्ध कराई जानी चाहिए ताकि भारतीय रिज़र्व बैंक सभी बैंकों के लिए इसकी समेकित सूचना अपनी वेबसाइट पर डाले सके ।
  • बैंकों को उधारकर्ताओं से प्रभारित अधिकतम और न्यूनतम ब्याज दरों के संबंध में जानकारी प्रदान करनी चाहिए । भारतीय रिज़र्व बैंक इसकी सूचना जनता को प्रदान करेगा ।
  • बैंकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे उधारकर्ताओं के लिए ‘‘समस्त लागत’’ संकल्पना को अपनाएं और उधारकर्ताओं से लिए जानेवाले प्रक्रिया प्रभार, सेवा प्रभार आदि की स्पष्टत: घोषणा करें । ऐसे बैंक प्रभारों की सार्वजनिक रूप में भी घोषणा की जाए ।

(ग) बचत खाते पर ब्याज दर - कोई परिवर्तन नहीं

60. हाल ही के वर्षों में, बैंकों को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे अपने बोर्डों के अनुमोदन से विभिन्न जमा देयताओं पर ब्याज दरें निर्धारित करें और जमाराशियों की अवधि और आकार के आधार पर ब्याज दरों को लचीला रखें । जमाराशि पर एकमात्र ब्याज दर, जिसे रिज़र्व बैंक विनियमित करता है, चेक सुविधा के साथ ‘‘बचत खाता’’ । इस समय इस पर वार्षिक 4.0 प्रतिशत की दर है ।

61. तथापि, सामान्य ब्याज दर वार्षिक 4.0 प्रतिशत है, किंतु इस प्रकार की जमाराशियों पर आय वार्षिक केवल 3.4 प्रतिशत तक पहुंचता है क्योंकि ब्याज प्रत्येक महीने के दसवें और अंतिम दिन के बीच न्यूनतम बकाया राशि पर देय होता है । इस प्रकार की बचत जमाराशियों का लगभग 4/5 वां अंश परिवार धारित करते हैं ।

62. वर्तमान अविनियमित ब्याज दर परिवेश और हाल ही में सरकार द्वारा लघु बचत योजनाओं पर ब्याज दरों में की गई कटौती के परिप्रेक्ष्य में, बचत खाते पर भी ब्याज दरों के अविनियमन के लिए स्पष्ट मामला बनता है । फिर भी, इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि इस प्रकार की बचत जमाराशियों के अधिकांश को परिवारों द्वारा ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों के परिवारों-सहित, धारित किया जाता है । यह उचित समय नहीं माना गया है कि इस समय बचत खाते पर ब्याज दर को अविनियमित किया जाए । किसी भी प्रकार से, समकक्ष अल्पावधिक लिखतों पर अन्य वर्तमान ब्याज दरों की तुलना में 3.4 प्रतिशत की वर्तमान प्रभावी आय बहुत संगत है ।

(घ) निर्यात ऋण पर ब्याज दर

63. निर्यातकों को भारत में बैंकों से विदेशी मुद्रा में पोतलदानपूर्व तथा पोतलदानोत्तर ऋण लेने का विकल्प उपलब्ध है । फिलहाल ऐसा ऋण 1.0 प्रतिशत अंक का अधिवतम अंतर (स्प्रैड) जोड़ते हुए लाइबोर पर उपलब्ध है जिससे यह दर भारतीय निर्यातकों के लिए अंतर्राष्ट्रीय रूप से प्रतिस्पर्धी-दर बन जाती है । विद्यमान कम ब्याज दर के माहौल में ब्याज दर को और अधिक प्रतिस्पर्धी बनाने की दृष्टि से यह वांछनीय है कि बैंकों द्वारा भारतीय निर्यातकों के लिए विदेशी मुद्रा ऋणों पर अधिकतम दर को और भी कम किया जाए । तदनुसार :

  • विदेशी मुद्रा में निर्यात ऋण पर अधिकतम दर को वर्तमान की लाइबोर प्लस 1.0 प्रतिशत अंक से घटा कर लाइबोर प्लस 0.75 प्रतिशत अंक किया जा रहा है ।

64. विदेशी मुद्रा ऋणों पर इस प्रतिस्पर्धी ब्याज दर तथा किसी भी संभावित विदेशी विनिमय जोखिम को न्यूनतम करने की दृष्टि से निर्यातकों को इस बात के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है कि वे अपनी निर्यात प्राप्तियों की मुद्राओं (जैसे-अमरीकी डालर, यूरो, पौंड स्टर्लिंग आदि) को ध्यान में रखते हुए अपनी इच्छित एक अथवा अधिक मुद्राओं में विदेशी मुद्रा ऋणों का अधिकतम उपयोग करें । निर्यातकों के केंद्रीकरण वाले क्षेत्रों में स्थित भारतीय बैंकों को यह सूचित किया जा रहा है कि वे इस महत्वपूर्ण सुविधा का समुचित प्रचार करें तथा इसे छोटे निर्यातकों-सहित सभी निर्यातकों को आसानी से उपलब्ध कराएं ।

  1. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में रुपए के रूप में निर्यात ऋण पर ब्याज दरों को युक्तिसंगत बनाया गया था तथा मूल उधार दर से सहबद्ध पोतलदानपूर्व और पोतलदानोत्तर दोनों ऋणों के लिए अधिकतम सीमा निर्धारित की गई थी । मूल उधार दर से 1.5 प्रतिशत अंक कम की इन अधिकतम सीमाओं से निर्यातकों को बैंकों की मूल उधार दर से काफी कम दरों पर ऋण उपलब्ध हुआ है । असाधारण अंतर्राष्ट्रीय गतिविधियों को ध्यान में रखते हुए 26 सितंबर, 2001 से निर्यात ऋण ब्याज दरों की अधिकतम सीमा को छह माह (अर्थात् 31 मार्च, 2002 तक) तक की अवधि के लिए और घटा कर मूल उधार दर से 2.5 प्रतिशत अंक नीचे लाया गया है । 1 अप्रैल 2002 से अधिकतम दरों को वापस मूल उधार दर से 1.5 प्रतिशत अंक पर लाया जाना था । लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय अनिश्चितताओं की निरंतरता को देखते हुए उस अवधि को बढ़ाकर 30 सितंबर, 2002 कर दिया गया है जिसमें मूल उधार दर से 2.5 प्रतिशत अंक कम की ब्याज दर लागू रहेगी । इस रियायत से 180 दिन तक के पोतलदानपूर्व रुपया निर्यात ऋण पर अधिकतम दर अधिकांश सरकारी क्षेत्र के बैंकों के लिए 7.5 से 8.5 प्रतिशत होती है । चूंकि निर्यातक अपनी निर्यात आय को वायदा बाज़ार में बेचने के लिए पात्र हैं, अत: वायदा प्रीमियम को विचार में लेते हुए निर्यातकों को प्रभावी ब्याज लागत केवल 2.0 से 3.0 प्रतिशत रह जाती है जो अंतर्राष्ट्रीय रूप से अत्यधिक प्रतिस्पर्धी दर है ।
  2. पारदर्शिता सुनिश्चित करने तथा प्रतिस्पर्धी दरों पर वित्त उपलब्ध कराना जारी रखने के लिए बैंकों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से यह आवश्यक है कि एक ऐसी रिपोर्टिंग प्रणाली बनाई जाए जिसके जरिए वाणिज्यिक बैंक पोतलदानपूर्व तथा पोतलदानोत्तर ऋण पर प्रभारित ब्याज दरों की जानकारी उपलब्ध कराएं । इससे निर्यातकों को सर्वाधिक प्रतिस्पर्धी दर चुनने में आसानी होगी । तदनुसार :
  • 15 जून 2002 से शुरू होने वाले पखवाड़े से बैंक भारतीय रिज़र्व बैंक को न्यूनतम और अधिकतम दरों की सूचना देंगे । इस सूचना को जनता की जानकारी में लाया जाएगा ।
  1. उपर्युक्त प्रस्तावों (अर्थात् निर्यातकों को विदेशी मुद्रा ऋणों के लिए ब्याज दरों में कमी तथा निर्यातकों को बैंकों द्वारा प्रभारित न्यूनतम और अधिकतम उधार दरों की सूचना देने की अनिवार्यता) को ध्यान में रखते हुए एक और प्रस्ताव जिस पर विचार किए जाने की आवश्यकता है, वह है घरेलू मुद्रा में निर्यात ऋण पर ब्याज दर को अविनियमित करना । निर्यात ऋण पर घरेलू ब्याज दरों को मूल उधार दर से संबद्ध करना ऐसी वर्तमान परिस्थितियों में असंगत हो गया है जब निर्यातकों के लिए प्रभावी ब्याज दरें किसी भी स्थिति में मूल उधार दर से कम हैं । घरेलू मुद्रा के लिए ब्याज दर पर वर्तमान अधिकतम सीमा का अविनियमन वास्तव में बैंकों के बीच अधिक प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित कर सकता है तथा अच्छे ऋण रिकाड़ वाले निर्यातकों के लिए ब्याज दरों को और कम करने के परिणाम के रूप में सामने आ सकता है । इस प्रस्ताव पर भारतीय रिज़र्व बैंक यथावश्यक परामर्श के बाद विचार करेगा ।

(ङ) निर्यात - समकक्षता

68. विद्यमान मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुसार निर्यात-समकक्षता के संबंध में आपूर्तियों के लिए आदेशों पर पार्टियों को रियायती ब्याज दर पर रुपया पोतलदानपूर्व तथा आपूर्ति पश्चात् रुपया ऋण देने की अनुमति है । पोतलदानपूर्व तथा आपूर्ति पश्चात् दोनों चरणों पर ऐसे रुपया निर्यात ऋण भारतीय रिज़र्व बैंक से पुनर्वित्त के लिए पात्र हैं । फिर भी, यह अभ्यावेदन किया गया है कि कुछ निर्यातकों को निर्यात-समकक्षता के मामले में अभी भी रियायती ब्याज दर का लाभ प्राप्त नहीं होता । अत: बैंकों से यह आग्रह किया जाता है कि वे निर्यात-समकक्षता के लिए ब्याज दरों में दी गई रियायत का व्यापक रूप से प्रचार-प्रसार करें तथा सभी पात्र निर्यातकों को ये रियायतें उपलब्ध कराएं ।

(च) सहकारी बैंकों के लिए न्यूनतम
उधार दर की समाप्ति

69. राज्य और मध्यवर्ती सहकारी बैंकों को यह स्वतंत्रता दी गई थी कि वे 18 अक्तूबर 1994 से रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित 12.0 प्रतिशत वार्षिक की न्यूनतम उधार दर के अधीन अपनी उधार दरें निर्धारित कर सकते हैं । इसी प्रकार, शहरी सहकारी बैंकों पर 21 जून 1995 से 13.0 प्रतिशत वार्षिक की न्यूनतम उधार दर लागू थी, जिसे 2 मार्च 2002 से घटा कर 12.0 प्रतिशत कर दिया गया था । 26 अगस्त 1996 से क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को अपनी उधार दरें निर्धारित करने की स्वतंत्रता दी गई थी । वर्तमान में, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर अन्य वाणिज्य बैंकों को यह स्वतंत्रता है कि वे अपने निदेशक बोर्डों के अनुमोदन से अपनी मूल उधार दरें तय कर सकते हैं । अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में मूल उधार दर को संदर्भ/निर्देश चिह्न दर बनाया गया था ताकि वाणिज्य बैंक ऋण-पात्र उधारकर्ताओं को मूल उधार दरों से कम दर पर उधार देने के लिए स्वतंत्र हो सकें । प्रतिस्पर्धी वातावरण में सहकारी बैंकों को अधिक लोच प्रदान करने की दृष्टि से यह प्रस्ताव किया जाता है कि -

  • समस्त सहकारी बैंकों के लिए न्यूनतम उधार दर की शर्त तुरंत प्रभाव से हटा ली जाए । अब सहकारी बैंक अपनी निधि-लागत, लेनदेनों की लागत आदि को ध्यान में रखते हुए अपनी उधार दरें अपनी प्रबंध समिति के अनुमोदन से निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र होंगे । इससे सहकारी बैंकों को अच्छे/प्रमुख उधारकर्ताओं को आकर्षित करने में सहायता मिलेगी ।
  • यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि सहकारी बैंकों द्वारा प्रभारित ब्याज दरें पारदर्शी हों तथा उनकी जानकारी उनके सभी ग्राहकों को हो । अत: बैंकों से यह अनुरोध किया जाता है कि वे अपनी प्रभारित न्यूनतम और अधिकतम ब्याज दरों को प्रकाशित करें तथा प्रत्येक शाखा में उसकी सूचना प्रदर्शित करें ।

(छ) विदेशी मुद्रा अनिवासी (बी) (एफसीएनआर
(बी)) जमाओं के अंतर्गत जुटाई गई निधियों
के निवेश मानदंडों का उदारीकरण

70. फिलहाल, बैंकों को 1-3 वर्ष की अवधि के लिए एफसीएनआर(बी) जमाराशियां स्वीकार करने की अनुमति है । लेकिन, परिसंपत्ति पक्ष में, इन निधियों के नियोजन पर कुछ प्रतिबंध हैं । वर्तमान में बैंक, भारतीय निवासियों को उनकी विदेशी मुद्रा की आवश्यकताओं अथवा संयुक्त उपक्रमों के वित्तपोषण अथवा निवासी कंपनियों द्वारा स्थापित पूर्णत: स्वामित्व वाली सहायक कंपनियों के वित्तपोषण के लिए निधियां उधार दे सकते हैं । इसके अलावा, बैंक ऐसी निधियों को कतिपय ऐसे मुद्रा बाज़ार लिखतों में निवेश भी कर सकते हैं जो निर्धारित श्रेणीकरण को पूरा करते हाें । निधियों के नियोजन पर प्रतिबंधों को देखते हुए देयता पक्ष की तुलना में परिसंपत्ति पक्ष की अवधि कम हो सकती थी जिसके परिणामस्वरूप परिसंपत्ति-देयता में असंतुलन उत्पन्न हो जाता है । साथ ही, यदि बैंकों को तदनुरूपी निवेश अवसर उपलब्ध नहीं होते तो लाइबोर दरों में परिवर्तनों के परिप्रेक्ष्य में ब्याज दर जोखिम निहित रहता है । इस संबंध में, भारतीय रिज़र्व बैंक को बैंकों से कई अभ्यावेदन प्राप्त हुए हैं कि निवेश मानदंडों की पुनरीक्षा की जाए ।

71. परिसंपत्ति-देयता के असंतुलन से बचने तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जोखिम प्रबंध के संबंध में जारी मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुरूप बैंकों को अब निम्नलिखित के लिए अनुमति दी जाती है :

  • अपनी एफसीएनआर (बी) जमाराशियों को अधिक अवधि और निर्धारित आय वाले लिखतों में निवेश करने की, बशर्ते ये लिखत मुद्रा बाज़ार लिखतों के लिए निर्धारित उपयुक्त श्रेणी वाले हों । इसके अलावा, बैंकों को परिसंपत्ति-देयता प्रबंध संबंधी लागू मार्गदर्शी सिद्धांत के भीतर ऐसे निदेशों की संभावित अधिकतम सीमा तथा संगत श्रेणीकरण के साथ-साथ लिखतों के प्रकार/अवधि के संबंध में अपने बोर्डों का पूर्वानुमोदन प्राप्त करना होगा ।

(ज) विदेशी मुद्रा अनिवासी खाता (बी)
जमाराशियों पर ब्याज दरें

72. फिलहाल, बैंकों को यह छूट दी गई है कि वे 1-3 वर्षों की परिपक्वता अवधि के लिए विदेशी मुद्रा अनिवासी खाता (बी) जमाराशियों को स्वीकार करें तथा निश्चित और अस्थायी दरें प्रस्तावित करें बशर्तें वे लाइबोर/स्वैप दरों की उच्चतम सीमा के अधीन हों । कम ब्याज दरों के विद्यमान अंतर्राष्ट्रीय वातावरण को देखते हुए तथा विदेशी मुद्रा अनिवासी खाता (बी) जमाराशियों की लागत को कम करने के लिए, यह निर्णय लिया गया है कि :

  • उपर्युक्त अधिकतम दरों को तदनुरूपी परिपक्वता अवधियों के लिए घटा कर लाइबोर/स्वैप दरों से 25 आधार अंक कम किया जाय ।

(झ) बैंकों द्वारा विदेशी बाज़ार से उधार लेने और
विदेशी बाज़ार में निवेश के संबंध में रियायत

73.वर्तमान में, भारत में कार्यरत बैंकों को यह अनुमति दी गई है कि वे अपनी अक्षत स्तर I पूंजी के 15 प्रतिशत तक अथवा 10 मिलियन अमरीकी डालर जो भी अधिक हो, विदेशी बाज़ार से उधार ले सकते हैं और वहां निवेश कर सकते हैं । बैंकों को अधिक परिचालनात्मक लोच प्रदान करने तथा घरेलू ब्याज दर को विदेशी बाज़ार के अनुरूप लाने की दृष्टि से, यह निर्णय लिया गया है कि :

  • बैंकों को उनके अक्षत स्तर I पूंजी का 25 प्रतिशत विदेशी बाज़ार से उधार लेने के लिए अनुमति दी जाए । ये उधार बैंकों की जोखिम स्थिति सीमा और परिपक्वता बेमेल सीमाओं (गैप लिमिट्स) के भीतर होने चाहिए जिसके लिए विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए जाएंगे ।
  • इसी आधार पर विदेशी बाज़ार में निवेश के लिए अक्षत स्तर I पॅूंजी के 15 प्रतिशत की वर्तमान सीमा को बढ़ाकर अक्षत स्तर I पूँजी का 25 प्रतिशत किया जा रहा है । मुद्रा बाज़ार लिखतों में निवेश वर्तमान जोखिम स्थिति सीमा और परिपक्वता सीमाओं के भीतर होगा । इस से विदेशी उधार में और बैंकों के निवेश संविभाग में एकरूपता सुनिश्चित हो सकेगी ।

बढ़ी हुई उधार सीमा के कारण बैंकों को सस्ती निधियां मिल सकेंगी और उन्हें पर्याप्त रुपए संसाधन रखने और बैंकों के लिए निधियों की लागत घटाने में सहायता मिलेगी । जहां एक ओर यह सार्वभौमिक बाज़ार के साथ भारतीय वित्तीय बाज़ार के एकीकरण की प्रक्रिया को बढ़ाएगा, वहीं घरेलू बाज़ार के विभिन्न खंड भी और एकीकृत होंगे ।

(ञ) बाह्य वाणिज्यिक उधारों को सुस्पष्ट रूप देना

  1. विदेशी विनिमय के लिए प्राधिकृत व्यापारियों की विदेशी शाखाओं के लिए यह प्रथा है कि वे भारत में अपनी शाखाओं द्वारा जारी गारंटियाें/सुविधा पत्रों पर भारतीय कंपनियों को बाह्य वाणिज्यिक उधार प्रदान करें । बैंकों ने एक सुझाव यह दिया था कि उन्हें ऐसे चयनित मामलों में रुपए में विदेशी मुद्रा देयताएं सुनिश्चित करने की स्वतंत्रता दी जाए जहां कंपनियों के खाते की स्थिति को तथा विदेशी शाखाओं की देयताओं पर उनके प्रभाव को देखते हुए परिस्थितिवश आवश्यक हो । बैंकों को अपने निधि प्रबंध में अधिक स्वतंत्रता और लोच प्रदान करने के लिए,यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
  • जहां बैंक आवश्यक समझें वहां उन्हें उपयुक्त सुरक्षोपाय सहित बाह्य वाणिज्यिक उधारों को रुपया ऋणों में सुनिश्चित करने की अनुमति प्रदान की जाय ।

ऋण सुपुर्दगी व्यवस्था

(क) प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र उधार

75. प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्रों के लिए ऋण सुपुर्दगी व्यवस्था में सुधार लाने की दृष्टि से रिज़र्व बैंक ने प्रक्रियागत विलंब को कम करने और बैंकों को अधिक लोच प्रदान करने के लिए विविध उपाय किए हैं । प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र को और विशेष रूप से कृषि को ऋण सुपुर्दगी में और सुधार करने के लिए निम्नलिखित उपायों का प्रस्ताव किया जाता है :

  • प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र के अंतर्गत अनुषंगी गतिविधियों जैसे पशु चारा, मुर्गी चारा आदि के लिए (निविष्टि) इनपुट के वितरण के वित्तपोषण की सीमाओं को 15 लाख रुपए की वर्तमान सीमा से बढ़ाकर 25 लाख रुपए किया जा रहा है ।
  • कृषकों को उनके उत्पादों के विपणन में सहायता करने की दृष्टि से फसल के विपणन (गिरवी वित्तपोषण) के लिए 1 लाख रुपए की ऋण सीमा को बढ़ाकर 5 लाख रुपए किया जा रहा है । साथ ही, ऐसे ऋणों के पुनर्अदायगी कार्यक्रम को वर्तमान के 6 माह से बढ़ाकर 12 माह किया गया है । इस उदारीकरण के कारण कृषकों को अपने कृषि उत्पादों के विपणन में अधिकतम लाभ मिल सकेगा ।
  • दोहरी गणना से बचने के लिए, प्रायोजक बैंकों को प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र के लक्ष्य प्राप्त करते समय क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्रों को आगे उधार देने के लिए प्रदत्त निधियों को छोड़ देना चाहिए ।

(ख) लघु उद्योगों के लिए ऋण सुविधाएं

76. अत्यंत लघु इकाइयों को बैंक ऋण के प्रवाह में गत्यावरोध के रूप में संपार्श्विक प्रतिभूतियां प्रदान करने की आवश्यकता को पहचानते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक ने अप्रैल 2000 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में अत्यंत लघु क्षेत्रों के लिए 5 लाख रुपए तक के ऋणों के लिए संपार्श्विक आवश्यकता की समाप्ति की घोषणा की थी । बाद में इसे लघु उद्योग इकाइयों पर लागू कर दिया गया था । लघु उद्योग इकाइयों को ऋण का और प्रवाह बढ़ाने के लिए :

  • इकाइयों के पिछले रिकाड़ और उनकी वित्तीय स्थिति के आधार पर बैंक ऋणों के लिए संपार्श्विक अपेक्षा को समाप्त करने की सीमा को वर्तमान के 5 लाख रुपए से बढ़ाकर 15 लाख रुपए कर सकते हैं ।

77. बैंकों को यह भी सूचित किया जाता है कि वे ऐसी लघु इकाइयों के पुनर्गठन के लिए समय पर सहायता प्रदान करने में अधिक सक्रिय उद्देश्य अपनाएं जो औद्योगिक गिरावट और बड़े पैमाने के और अन्य इकाइयों को उनके द्वारा की गई आपूर्तियों के लिए भुगतानों में विलंब के कारण प्रभावित हुई हैं । जनवरी 2002 में उच्च स्तरीय कार्यकारी दल की रिपोर्ट का अनुपालन करते हुए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने संभाव्य रूप से अर्थक्षम लघु उद्योग इकाइयों को समय पर सहायता प्रदान करने के लिए अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए थे । इन मार्गदर्शी सिद्धांतों में अन्य बातों के साथ-साथ ऐसी इकाइयों को ब्याज की दंडात्मक दर से छूट देने तथा प्रचलित निश्चित/मूल उधार दरों से 1.5 प्रतिशत अंक कम पर कार्यशील पूंजी देने हेतु प्रावधान किया गया है । इन मार्गदर्शी सिद्धांतों में ब्याज की घटी दर पर मीयादी ऋण देने के लिए भी प्रावधान किया गया है । बैंकों से यह अनुरोध किया जाता है कि वे इन मार्गदर्शी सिद्धांतों का पूरी तरह से कार्यान्वयन करें तथा वर्तमान कैलेंडर वर्ष के अंत तक नए मार्गदर्शी सिद्धांतों के अंतर्गत लघु इकाइयों को सहायता करने में की गई प्रगति पर अपने बोर्डों को एक रिपोर्ट प्रस्तुत करें ।

(ग) आवास वित्त के लिए जोखिम भारों
का प्रतिभूतिकरण

78. राष्ट्रीय आवास और निवास नीति के लक्ष्यों के अनुरूप आवास क्षेत्र को ऋण प्रदान करने में बैंक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते आ रहे हैं । अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों के साथ भावी तथा पिछले संबंधों सहित निर्माण क्षेत्र के बढ़ते हुए महत्व को पहचानते हुए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने इस क्षेत्र को ऋण प्रवाह बढ़ाने के लिए बैंकों को प्रोत्साहित किया है तथा उन्हें यह सूचित किया है कि वे वर्ष 2001-02 के लिए आवासन हेतु वृद्धिशील जमाराशियों का न्यूनतम 3.0 प्रतिशत आबंटित करें । ऋण का प्रवाह बढ़ाने के लिए बैंकों द्वारा मध्यस्थ एजेंसियों को उनके द्वारा मंजूर ऋणों पर दिए गए मीयादी ऋणों को आवास वित्त के एक भाग के रूप में मानने की अनुमति दी गई थी । साथ ही, केवल आवास के वित्तपोषण के लिए आवास और शहरी विकास निगम (हुडको) तथा राष्ट्रीय आवास बैंक द्वारा जारी बांडों में निवेश को प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र के लक्ष्यों के लिए गिना जा रहा है ।

79. वर्तमान में, बैंकों के ऋणों और अग्रिमों को पूंजी पर्याप्तता प्रयोजनों के लिए आवासीय तथा वाणिज्यिक संपत्ति की बंधक जमानत पर 100 प्रतिशत का जोखिम भार निश्चित किया गया है । अब तक प्रतिभूतिकृत पेपरों में बैंकों के निवेश के लिए कोई सुस्पष्ट जोखिम भार निर्धारित नहीं किया गया है । वर्ष 1988 में बासले पूंजी समझौते तथा नए पूंजी पर्याप्तता ढांचे में जो परामर्शी चरण पर है, आवासीय संपत्ति और वाणिज्यिक वास्तविक संपदा द्वारा सुरक्षित दावों के लिए क्रमश: 50 प्रतिशत और 100 प्रतिशत का जोखिम भार रखा गया है ।

80. आवासीय क्षेत्र के लिए ऋण का प्रवाह और बढ़ाने के लिए यह प्रस्ताव है कि बैंकों द्वारा आवास वित्त की विवेकपूर्ण अपेक्षाओं को उदार बनाया जाए तथा आवास वित्त कंपनियों के प्रतिभूतिकृत ऋण लिखतों में बैंकों के निवेश को प्रोत्साहन दिया जाए । तदनुसार :

  • निवासीय आवास संपत्तियों पर ऋण प्रदान करनेवाले बैंकों के लिए यह आवश्यक होगा कि वे वर्तमान के 100 प्रतिशत के बजाय 50 प्रतिशत का जोखिम भार निश्चित करें । वाणिज्यिक अचल संपत्ति के तहत ऋण 100 प्रतिशत जोखिम भार उठाना जारी रखेगा जैसा कि अब तक होता रहा है ।
  • आवास वित्त कंपनियों (एचएफसी), जो कि राष्ट्रीय आवास बैंक (एनएचबी) द्वारा मान्यताप्राप्त और पर्यवेक्षित होती हैं, द्वारा आवासीय परिसंपत्तियों की बंधक समर्थित प्रतिभूतियों (एमबीएस) में बैंकों द्वारा किए गए निवेश को भी पूंँजी पर्याप्तता के लिए 50 प्रतिशत जोखिम भार दिया जाएगा । फिर भी, आवासीय परिसंपत्तियों के एमबीएस में, जिनमें वाणिज्यिक संपत्तियां भी शामिल हैं, बैंेकों द्वारा किए गए निवेश पर 100 प्रतिशत जोखिम भार होगा ।
  • एनएचबी द्वारा पर्यवेक्षित एचएफसी द्वारा जारी एमबीएस में बैंकों द्वारा किए गए निवेशों की गणना 3.0 प्रतिशत के निर्धारित आवासीय वित्त आबंटन में शामिल करने के लिए भी की जाएगी ।
  • इस तरह की परिसंपत्तियों तथा अन्य संबंधित मामलों में निवेशक आधार को बढ़ाने, परिसंपत्तियों की गुणवत्ता सुधारने, इस तरह की परिसंपत्तियों में व्यापार हेतु चलनिधि उत्पन्न करने के लिए तौर-तरीके का सुझाव देने हेतु एक कार्य-दल का गठन किया जाएगा ।

(घ) किसान क्रेडिट काड़

81. किसान क्रेडिट काड़ (केसीसी) योजना ने, जो कि 1998 में बनाई गई थी, किसानों की काफी मदद की है तथा यह काफी सफल रही है । 2002-03 की बजट-घोषणा के पश्चात् रिज़र्व बैंक ने सभी बैंकों को सूचित किया था कि वे मार्च 2002 तक 33 लाख केसीसी का वार्षिक लक्ष्य प्राप्त करने के लिए संयुक्त प्रयास करें । पुनश्च, बैंकों को यह सुनिश्चित करने के लिए सूचित किया गया था कि सभी वर्तमान एवं संभावित केसीसी धारक व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना में शामिल किए जाएं । इसके अलावा, बैंकों से यह अनुरोध किया गया है कि वे मार्च 2004 तक कृषि क्षेत्र के अंतर्गत सभी पात्र उधारकर्ताओं को केसीसी में शामिल करें । यह प्रस्ताव किया गया है कि लाभार्थियों पर इस योजना के प्रभाव की जांच के लिए सर्वेक्षण किया जाय । सर्वेक्षण का यह काम किसी बाहरी एजेंसी को सौंपा जाय ।

(ङ) ग्रामीण आधारभूत सामग्री विकास निधि (आरआइडीएफ)

82. 2002-03 बजट में की गई घोषणा के पश्चात् आरआइडीएफ VIII के लिए निधियों को बढ़ाकर रु.5,500 करोड़ रुपए किया जाएगा तथा राज्य सरकारों को दिए गए ऋणों पर ब्याज-दर को घटा कर 10.5 प्रतिशत से 8.5 प्रतिशत किया जाएगा अर्थात् बैंक-दर से 2.0 प्रतिशत अंक अधिक । अब से, आरआइडीएफ से राज्यों को दिए गए ऋणों पर ब्याज-दर, बैंक-दर से संबद्ध होगी ।

(च) व्यष्टि-ऋण

83. व्यष्टि-ऋण संस्थाएं तथा स्व-सहायता समूह (एसएचजी) स्वयं-नियोजित व्यक्तियों को ऋण प्रदान करने और आय पैदा करने के लिए महत्वपूर्ण साधन हैं । महिलाओं/अजा/अजजा एवं अन्य पिछड़े वर्गों सहित ग्रामीण क्षेत्रों में असुरक्षित क्षेत्रों द्वारा निर्मित व्यष्टि उद्यमों को विकसित करने के लिए भी विशेष जोर दिया गया । बैंकों को यह भी सूचित किया गया था कि वे इस संबंध में एसएचजी को अधिकतम सहायता प्रदान करें । चूंकि एसएचजी के माध्यम से व्यष्टि-ऋण योजना अच्छी तरह विकसित हो रही है, 2002-03 के लिए उसका लक्ष्य 1.25 लाख तक बढ़ा दिया गया है । तदनुसार, अनुसूचित वाणिज्य बैंक और नाबाड़ देश भर में इस तरह का ताल-मेल बनाने के लिए तुरंत कार्रवाई करें ताकि उक्त लक्ष्य को प्राप्त किया जा सके ।

मुद्रा बाज़ार

(क) शुद्ध अंतर-बैंक मांग मुद्रा
बाज़ार की ओर अग्रसर होना

84. यह ध्यान देने योग्य है कि अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में, गैर-बैंक सहभागिता को धीरे-धीरे चरण-बद्ध करते हुए, शुद्ध अंतर-बैंक मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार की ओर बढ़ने का इरादा, रेखांकित किया गया था । तदनुसार, कार्यान्वयन के लिए चार चरणों में एक समय-ढांचे को बनाया गया था । प्रथम चरण में, गैर-बैंक सहभागियों को यह अनुमति दी गई थी कि वे एक रिपोर्टिंग पखवाड़े में औसतन 2000-01 के दौरान अपने ऋण का 85 प्रतिशत तक ऋण दे सकते हैं । इन सीमाओं की भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा कड़ाई से निगरानी की जाती है । फिर भी, यदि किसी समय किसी विशेष वित्तीय संस्था के पास अतिरिक्त चलनिधि है परंतु वह निवेश हेतु कोई समुचित स्थान नहीं ढूंढ पाई तो भारतीय रिज़र्व बैंक उस संस्था को उपयुक्त सीमाओं के साथ एक विशेष अवधि के लिए निर्धारित सीमा से अधिक ऋण देने की अनुमति प्रदान करता है । प्रगति की समीक्षा से यह पता चला था कि गैर-बैंकों को चरण-बद्ध करने से बाज़ार पर कोई दबाव नहीं पड़ा है । मांग मुद्रा दर की अस्थिरता घट गई है तथा मांग मुद्रा बाज़ार में औसत दैनिक पण्यावर्त बढ़ गया है । इसके साथ ही, गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं और म्युचुअल निधियों द्वारा रिपो लेन-देनों के माध्यम से निवल ऋण देने में भी बढ़ोत्तरी हुई है । इन उत्साहवर्धक गतिविधियों की दृष्टि से, एनडीएस तथा सीसीआइएल के परिचालन के साथ, यह आवश्यक समझा गया है कि शुद्ध अंतर-बैंेक मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार की ओर बढ़ने की गति तेज की जाय तथा रिपो बाज़ार में और गहराई लाने के लिए सुविधा प्रदान की जाय । तदनुसार, निम्नलिखित निर्णय लिया गया है :

  • चरण II की ओर बढ़ा जाय, जिसमें गैर-बैंक सहभागियों को बाद में सूचित की जानेवाली तारीख से 2000-01 के दौरान मांग मुद्रा बाज़ार में उनके औसत ऋण के औसतन 75 प्रतिशत तक, एक रिपोर्टिंग पखवाड़े में, ऋण देने की अनुमति दी जाएगी । जब एनडीएस/सीसीआइएल पूरी तरह परिचालनशील हो जाएंगे और व्यापक रूप से पहुंचने के योग्य हो जाएंगे तो उस तारीख के आधार पर चरण II के लागू होने की तारीख भारतीय रिज़र्व बैंक सूचित करेगा ।

(ख) मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार पर निर्भर होना

85. नरसिंहम समिति II ने यह अनुशंसा की है कि स्पष्ट रूप से परिभाषित विवेकपूर्ण सीमाएं अवश्य होनी चाहिए जिसके बाहर बैंकों को मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार पर निर्भर रहने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और यह कि इस बाज़ार में प्रवेश अनिवार्यत: अप्रत्याशित विषमताओं से निपटने के लिए होना चाहिए, न कि बैंकों के ऋण संबंधी परिचालनों के वित्तपोषण के नियमित साधन के रूप में । फरवरी 1999 में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन प्रणाली से संबंधित दिशानिर्देशों में भी इसे मान्यता प्रदान की गई थी जिसमें, अन्य बातों के साथ-साथ, यह अपेक्षा की गई थी कि प्रथम दो समय समूहों के दौरान, अर्थात् 1-14 दिन और 15-28 दिनों के दौरान, विषमताएं, किसी भी स्थिति में, प्रत्येक समय समूह में नकदी बाह्य गमन के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए । पुनश्च, अल्पावधि निधीकरण पर अधिक आस्था को कम करने के लिए, बैंकों को यह भी सूचित किया गया था कि वे अंतर-बैंक उधारीकरण, विशेषत: मांग उधारीकरण, पर रोक लगाएं ।

86. कुछ बैंक अभी भी अपने बैंकिंग कारोबार के लिए मांग मुद्रा बाज़ार पर पूरी तरह निर्भर रहते हैं । इसे ध्यान में रखा जाना चाहिए कि मांग मुद्रा उधार असंपार्श्वीकृत प्रकृति के होते हैं और इसलिए कुछ प्रतिभागियों के अनैतिक या अविवेकपूर्ण व्यवहार के कारण इन उधारों से वित्तीय बाज़ार में गंभीर अस्थिरता उत्पन्न हो सकती है । गत वर्ष की आरंभिक अवधि में जो अस्थिरता देखी गई थी उसे ध्यान में रखते हुए मांग मुद्रा बाज़ार के एक चुनिंदा खंड में पहुंच की एक सीमा निर्धारित की गई । वर्तमान में शहरी सहकारी बैंकों पर पिछले वित्तीय वर्ष की उनकी कुल जमाराशि के 2.0 प्रतिशत तक उधार की सीमा लागू है । इनके अलावा अन्य संस्थाएं किसी स्पष्ट सीमा के भीतर नहीं हैं ।

87. एक आंतरिक कार्य समूह ने मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में आरक्षित राशि पर एक विवेकपूर्ण सीमा लगाने की आवश्यकता पर विचार किया है ताकि वित्तीय प्रणाली की सुव्यवस्था कायम रखी जा सके । समूह का यह विचार था कि कुछ प्रतिभागी निरंतर रूप से अपने तुलनपत्र के आकार की तुलना में अधिक अनारक्षित राशि रखते हैं, जिससे न केवल चूक और प्रणालीगत अस्थिरता की संभावना बढ़ती है, बल्कि मुद्रा बाज़ार के अन्य अंगों, खासकर मीयादी मुद्रा बाज़ार का विकास भी बाधित होता है । मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाज़ार संबंधी तकनीकी परामर्शी समिति ने भी यह सुझाव दिया है कि तुलनपत्र के आकार से मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में ऋण और उधार को संबद्ध किया जाए । अत:

  • मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों द्वारा दिया जाने वाला ऋण, दैनिक आधार पर, पिछले वित्त वर्ष के मार्च के अंत की उनकी स्वाधिकृत निधि (प्रदत्त पूंजी और रिज़र्व) के 25 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए ।
  • मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों द्वारा लिया जाने वाला उधार, दैनिक आधार पर, पिछले वित्त वर्ष के मार्च के अंत की उनकी कुल जमाराशियों के 2.0 प्रतिशत या उनकी स्वाधिकृत निधियों के 100 प्रतिशत, इनमें जो भी उच्चतर हो, से अधिक नहीं होना चाहिए ।
  • यह सुनिश्चित करने के लिए कि अनुसूचित वाणिज्य बैंक इस अपेक्षा का पालन करने में अपने परिसंपत्ति देयता प्रबंध में कोई कठिनाई अनुभव न करें, यह निर्णय लिया गया है कि वर्तमान उधारकर्ताओं और ऋणदाताओं की अपनी स्थिति अगर विवेकपूर्ण सीमा से अधिक हो तो अगस्त 2002 के अंत तक वह ठीक कर लेना चाहिए ।
  • मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में राज्य सहकारी बैंकों और ज़िला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों द्वारा लिया जानेवाला उधार, दैनिक आधार पर, पिछले वित्त वर्ष के मार्च के अंत की उनकी कुल जमाराशियों के 2.0 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए ।
  • यदि किसी बैंक की चलनिधि स्थिति में कुछ समय के लिए कतिपय असंतुलन पैदा हो जाते हैं, तो भारतीय रिज़र्व बैंक, अनुरोध किए जाने पर, उन्हें मांग/सूचना बाजार में सहभागिता की उनकी सीमा बढ़ाने की अनुमति देने पर विचार कर सकता है । इसी प्रकार, यदि किसी बैंक ने परिसंपत्ति-देयता प्रबंध प्रणाली को पूरी तरह से लागू कर रखा है और भारतीय रिज़र्व बैंक उस प्रणाली से संतुष्ट है, तो भारतीय रिज़र्व बैंक उसे निर्धारित मानदंडों से अधिक प्रवेश की अनुमति लंबे समय तक के लिए दे सकता है ।
  • पात्र संस्थाओं के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक कार्यदल गठित किया जा रहा है जो 30 जून, 2002 तक मांग/सूचना मुद्रा बाजार में प्राथमिक व्यापारियों के लिए सीमा-निर्धारित करने हेतु मापदंडों की सिफारिश करेगा और उन्हें मांग मुद्रा बाजार से चरणबद्ध रूप से बाहर करने के लिए मार्ग सुझाएगा । तब तक, सभी प्राथमिक व्यापारियों से आग्रह किया गया है कि वे अपनी मांग मुद्रा उधार देने/उधार लेने की सीमा को अपनी निवल स्वाधिकृत निधि को देखते हुए यथोचित सीमा के भीतर रखें ।

88. मांग/सूचना मुद्रा बाजार के लिए इस प्रकार से निर्धारित की गई सीमा विवेकपूर्णस्वरूप की होती है तथा बाजार में अधिकांश सहभागियों के लिए यह सीमा काफी ऊंची होती है और यह उम्मीद की जाती है कि बैंकों की सभी वाजिब चलनिधि आवश्यकताएं पूरी होंगी ।

(ग) संर्पाश्विकीकृत उधार सुविधा

89. वर्तमान में, भारतीय रिज़र्व बैंक, बैंकों को (i) निर्यात ऋण पुनर्वित्त (ईसीआर) और संर्पाश्विकीकृत उधार सुविधा (सीएलएफ) तथा (ii) प्राथमिक व्यापारियों को चलनिधि सहायता, के रूप में स्थायी चलनिधि सुविधाएं प्रदान करता है । ये सुविधाएं, चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के माध्यम से दी जानेवाली सुविधाओं तथा खुला बाजार परिचालन (ओएमओ) के तहत सरकारी प्रतिभूतियों की सीधी बिक्री /खरीद सुविधाओं के अलावा हैं । इस खूबी को ध्यान में रखते हुए कि वित्तीय प्रणाली में चलनिधि को सामान्य बनाने में चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) सबसे अच्छी है, बैंक और प्राथमिक व्यापारी दोनों ही काफी हद तक चलनिधि समायोजन सुविधा पर ही निर्भर रहे हैं ।

90. अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को, उनकी एसएलआर अपेक्षा की तुलना में भारत सरकार की दिनांकित प्रतिभूति/खजाना बिलों की अधिक धारिता की जमानत पर सांर्पश्विीकृत उधार सुविधा (सीएलएफ) प्रदान की जाती है । प्रत्येक बैंक के लिए उपलब्ध चलनिधि सहायता सीमा वर्ष 1997-98 में उनकी पाक्षिक औसत बकाया सकल जमाराशि के 0.125 प्रतिशत के बराबर निर्धारित की गई है । तदनुसार, अब इस प्रणाली के अंतर्गत समग्र सीमा 656.61 करोड़ रुपए है; हालांकि, वर्ष 2001-02 में 22 मार्च, 2002 को समाप्त पखवाड़े तक इसका औसत उपयोग 124 करोड़ रुपए रहा है । अंतर-बैंक रिपो बाजार विकसित होने और सीसीआइएल के क्रियान्वित हो जाने से, स्थायी सुविधाओं को हटाया जा सकता है ।

तदनुसार :

  • संर्पाश्विकीकृत उधार सुविधा (सीएलएफ) को 5 अक्तूबर, 2002 से शुरू होनेवाले पखवाड़े से समाप्त किया जा सकता है । तथापि, यदि मौद्रिक स्थितियों में होने वाले परिर्वतनों के परिप्रेक्ष्य में ऐसा करना आवश्यक समझा जाए तो भविष्य में अस्थायी अवधि के लिए सीएलएफ को पुन: प्रारंभ करने का विकल्प भारतीय रिर्जॅव बैंक के पास होगा ।
  • प्राथमिक व्यापारियों को चलनिधि सुविधाओं के सामान्य और बैक-स्टॉप अंशाें के आबंटन की समीक्षा पैराग्राफ 87 के अनुसार गठित कार्यदल करेगा ।

(घ) जमा प्रमाणपत्र

91. भारतीय रिज़र्व बैंक ने वित्तीय बाजार में अब तक कई कार्य किए हैं जिनमें बाजार के खिलाड़ियों से परामर्श करके वाणिज्य-पत्रों (सीपी) के लिए दिशानिर्देश जारी करना शामिल है । बाद में, नियत आय मुद्रा बाजार एवं व्युत्पन्नी संघ (एफआइएमएमडीए-फिमडा) से अनुरोध किया गया कि वे वाणिज्य पत्र बाजार के सहभागियों द्वारा अपनाई जानेवाली आवश्यक मानक प्रक्रिया और प्रलेखन तैयार करें । फिमडा ने इस प्रकार के मार्गदर्शी सिद्धांत जून 2001 में जारी किए । इसके अलावा, अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में की गई घोषणा के अनुसार, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को अनुदेश जारी किए गए कि वे निवेश कार्य अमूर्त रूप में करें तथा वाणिज्य पत्र केवल अमूर्त रूप में रखें और वर्तमान बकायों को भी 31 अक्तूबर, 2001 तक अमूर्त रूप में परिवर्तित कर लें । यह महसूस किया गया कि इसी प्रकार से जमा प्रमाणपत्रों के जारी करनेवालों के लाभ के लिए जमा प्रमाणपत्र जारी करने की मानक प्रक्रिया और मार्गदर्शी सिद्धांत भी बनाए जाएं । तदनुसार, फिमडा ने बाजार सहभागियों, निक्षेपागारों और भारतीय रिज़र्व बैंक के परामर्श से मार्गदर्शी सिद्धांत और प्रलेखन क्रियाविधि तैयार की । जब तक अंतिम मार्गदर्शी सिद्धांत जारी नहीं हो जाते तब तक इसमें और अधिक पारदर्शिता लाने के उपाय के रूप में यह निर्णय किया गया है कि :

  • बैंक और वित्तीय संस्थाएं 30 जून, 2002 से वाणिज्य पत्र केवल अमूर्त रूप में जारी करें । वाणिज्य पत्रों के वर्तमान बकायों को अक्तूबर 2002 तक अमूर्त रूप में बदल दिया जाना होगा ।

सरकारी प्रतिभूतियां - हाल की गतिविधियों की समीक्षा

92. भारतीय रिज़र्व बैंक, प्राथमिक और द्वितीयक दोनों घटकों में सरकारी प्रतिभूति बाजार को गहन एवं व्यापक बनाने के लिए निरंतर प्रयास करता रहा है । इस संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक ने जो महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं वे हैं : 25 वर्षीय परिपक्वता अवधिवाले बांडों के निर्गमों सहित बकाया निर्गमों की परिपक्वता अवधि को बढ़ाना, प्रमुख परिपक्वता अवधिवाले नए निर्गमों को समेकित करते हुए नई बेंचमार्क सरकारी प्रतिभूतियां विकसित करना, वर्तमान ऋणों के पुनर्निर्गमन द्वारा समेकन करके प्रतिमोच्यता (फनजिबिलिटी) और चलनिधि बढ़ाना, सरकारी प्रतिभूतियों के खुदरा क्रय-विक्रय को बढ़ावा देना और अस्थायी दर वाले बांडों को प्रारंभ करना ।

93. मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजार में व्यापार एवं निपटान को सहज बनाने के लिए जो महत्वपूर्ण संरचनागत प्रगति हुई है वह है एनडीएस और सीसीआइएल का परिचालनशील हो जाना । नए सहभागियों जैसे-उच्च निवल मालियत वाले व्यक्तियों, सहकारी बैंकों, बड़ी कंपनियों, पारस्परिक निधियों और बीमा कंपनियों के प्रवेश से बाजार में और अधिक विविधता आ गई है । फिमडा द्वारा घोषित समान मूल्यांकन आधार, बाजार में पारदर्शिता लाता है और संविभागों के सक्रिय प्रबंधन को सहज बनाता है । बाजार में निहित जोखिमों को देखते हुए अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के अनुसार प्राथमिक व्यापारियों के लिए विनियामक और पर्यवेक्षीय ढांचे को मजबूत किया गया है ।

(क) समान भाव नीलामी

94. 91-दिवसीय खजाना बिलों के निर्गमों (6 नवंबर, 1998 से) में समान भाव नीलामी प्राप्त अनुभव के आधार पर अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में प्रस्ताव किया गया कि समान भाव नीलामी फार्मेट को चयनित एवं प्रायोगिक आधार पर भारत सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों की नीलामी के लिए लागू किया जाए । इस नीति के अनुसरण में, समान भाव नीलामी फार्मेट को 21 नवंबर तथा 5 दिसंबर, 2001 को अस्थिर दर वाले बांडों की नीलामी के लिए लागू किया गया । 4 अप्रैल, 2002 को हुई सरकारी प्रतिभूति नीलामी भी प्रयोग के तौर पर समान भाव नीलामी पर आधारित थी । भारतीय रिज़र्व बैंक इस कैलेंडर वर्ष के दौरान तथा जैसा वह आवश्यक समझे, प्रायोगिक एवं चयनित आधार पर समान भाव नीलामी का सहारा लेता रहेगा ।

(ख) निगोशिएटेड डीलिंग सिस्टम (एनडीएस)

95. निगोशिएटेड डीलिंग सिस्टम (चरण I) ने 15 फरवरी, 2002 से कार्य करना प्रारंभ कर दिया है । एनडीएस, केंद्र/राज्य सरकार की प्रतिभूतियों की प्राथमिक नीलामियों में ऑन-लाइन बोली लगाने की सुविधा, ओएमओ/एलएएफ नीलामियां, स्क्रीन-आधारित इलेक्ट्रॉनिक डीलिंग और रिपो, सरकारी प्रतिभूति में द्वितीयक बाजार कारबार तथा व्यापार से संबंधित सूचनाओं का न्यूनतम समयांतराल पर प्रसारण सहित मुद्रा बाजार लिखतों में हुए लेनदेन की रिपोर्टिंग की सुविधा उपलब्ध कराता है। इसके अलावा, एनडीएस, सीसीआइएल और लोक ऋण कार्यालय की डीवीपी निपटान प्रणाली के साथ संबद्धता सहित सरकारी प्रतिभूतियों में लेनदेन के ’कागजरहित’ तरीके से निपटान को सहज बनाता है । अब तक, 31 गैर-बैंक सहभागियों सहित एनडीएस के 80 बाजार सहभागी हैं । जिन संस्थाओं के एसजीएल खाते भारतीय रिज़र्व बैंक में हैं, उनको सूचित कर दिया गया है कि वे 31 मई, 2002 तक एनडीएस के सदस्य बन जाएं ।

(ग) सरकारी प्रतिभूति अधिनियम

96. भारतीय रिज़र्व बैंक ने यह प्रस्ताव किया कि सरकारी प्रतिभूतियों में लेन-देन की प्रक्रिया आसान बनाने, प्रतिभूतियों की लियन-मार्विंग/प्लेजिंग की अनुमति देने तथा अमूर्त रूप में इलेक्ट्रॉनिक अंतरण के लिए वर्तमान लोक ऋण अधिनियम, 1944 के स्थान पर सरकारी प्रतिभूति अधिनियम लाया जाए । इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने अनुमोदित कर दिया है । राज्य सरकारों ने सरकारी प्रतिभूति विधेयक लाने के लिए संसद को शक्ति प्रदान करते हुए भारत के संविधान के अनुच्छेद 252 के अंतर्गत अपेक्षित संकल्प पारित करने की प्रक्रिया पूरी कर ली है । वित्त मंत्री ने वर्ष 2002-03 के अपने बजट भाषण में यह प्रस्ताव किया है कि सभी राज्य की विधान सभाओं की सहमति से जिसे प्राप्त भी किया जा चुका है, उक्त विधेयक संसद के मौजूदा सत्र में पेश किया जाएगा ।

(घ) गैर-प्रतिस्पर्धी बोली के द्वारा
सरकारी प्रतिभूतियों की फुटकर बिक्री

97. अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में भारतीय रिज़र्व बैंक ने सरकारी दिनांकित प्रतिभूतियों के प्राथमिक बाजार में विशेषकर शहरी सहकारी बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, न्यास, आदि जैसे मध्यम क्षेत्रीय निवेशकों में फुटकर बिक्री सहभागिता योजना को प्रोत्साहन देकर अंतिम रूप देने की घोषणा की थी । तदनुसार, प्रतिस्पर्धी बोली के मामले में प्रस्तुत भारित दर पर फुटकर निवेशकों को अधिसूचित राशि के 5.0 प्रतिशत तक के आबंटन के लिए प्रावधान सहित गैर-प्रतिस्पर्धी बोली सुविधा योजना की घोषणा 7 दिसंबर 2001 को की गई ।

98. 14 जनवरी, 2002 को 15-वर्षीय सरकारी स्टॉक की नीलामी करके यह योजना शुरू की गई । इस नीलामी में 250 करोड़ रुपए के आबंटन की तुलना में 148.3 करोड़ रुपए की राशि के लिए प्राथमिक व्यापारियों और बैंकों के माध्यम से 273 आवेदकों से 36 गैर-प्रतिस्पर्धी बोलियां प्राप्त हुईं । 7-वर्षीय और 10-वर्षीय सरकारी स्टॉक के लिए 4 अप्रैल, 2002 को आयोजित जुड़वां नीलामी में 350 करोड़ रुपए की आरक्षित राशि की तुलना में 238.5 करोड़ रुपए की राशि के लिए 304 आवेदकों से 46 गैर-प्रतिस्पर्धी बोलियां प्राप्त हुईं । 14 जनवरी, 2002 को हुई नीलामी में अधिसूचित राशि के 2.97 प्रतिशत का आबंटन किया गया, जबकि 4 अप्रैल, 2002 को 3.41 प्रतिशत का आबंटन किया गया था । यह योजना 15 अप्रैल, 2002 को 6,000 करोड़ रुपए के नए 15-वर्षीय सरकारी स्टॉक की नीलामी में भी जारी रही जिसमें 95.49 करोड़ रुपए की राशि (अधिसूचित राशि का 1.59 प्रतिशत) के लिए 137 आवेदकों से 19 बोालियां प्राप्त हुई और पूरी-की-पूरी आबंटित की गईं ।

99. बैंकों को सलाह दी जाती है कि वे निक्षेपागारों ों के पास डिमेट खाते या सीएसजीएल खाता धारक के माध्यम से अपने काउंटर पर खुदरा निवेशकों को सरकारी प्रतिभूतियों की बिक्री /खरीद के लिए योजनाएं तैयार करें । कुछ बैंकों और प्राथमिक व्यापारियों ने निक्षेपागारों के पास रखे मौजूदा डिमेट खाते या सीएसजीएल खाते के माध्यम से धारिता निवेश और उसकी चुकौती (सर्विसिंग) की सुविधा के साथ-साथ इन प्रतिभूतियों की बिक्री का प्रस्ताव करके सरकारी प्रतिभूतियों में फुटकर निवेश बढ़ाने के लिए उपयोगी पहल की है । प्रस्तावित सरकारी प्रतिभूति अधिनियम में ऐसे निवेशकों के स्वामित्व अधिकार को विशेष रूप से मान्यता दी गई है । ऐसी योजनाएं तैयार करने में फुटकर निवेशकों के लिए ऐसे निवेश की तरलता सुनिश्चित करने हेतु प्राथमिक व्यापारी और बैंक भी बिक्री और खरीद दोनों सुविधा प्रदान कर सकते हैं । बैंक भी आकर्षक दर पर ऐसे निवेश, जिसके द्वारा तत्काल नकदी प्रदान की जाती है, की जमानत पर स्वत: वित्त की उपलब्धता योजना के साथ-साथ सरकारी प्रतिभूतियों की फुटकर बिक्री बढ़ा सकते हैं ।

(ङ) खजाना बिल

100. 14-दिवसीय और 182-दिवसीय खजाना बिल की नीलामी 14 मई, 2001 से बंद कर दी गई । 91-दिवसीय खजाना बिल की अधिसूचित राशि 16 मई, 2001 से बढ़ाकर 250 करोड़ रुपए कर दी गई । 364-दिवसीय खजाना बिल की अधिसूचित राशि 3 अप्रैल, 2002 को 750 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 1,000 करोड़ रुपए कर दी गई ।

(च) सरकारी स्टॉक का समेकन

101. प्रतिमोच्यता (फनजिबिलिटी) बढ़ाकर सरकारी स्टॉक समेकित करने से मौजूदा स्टॉक की तरलता बढ़ेगी, चल स्टॉक की संख्या सीमित होगी और आधारभूत (बेंचमार्क) प्रतिभूतियां तैयार करने में सहायता मिलेगी । लेकिन, वर्ष-दर-वर्ष सरकार के भारी बाजार उधार कार्यक्रम के कारण सक्रिय समेकन में नमनीयता कम होती है । अप्रैल 1999 से भारतीय रिज़र्व बैंक मूल्य-आधारित नीलामी के द्वारा मौजूदा स्टॉक को पुन: जारी करके ‘‘निष्क्रिय समेकन’’ का प्रयास करता आ रहा है, जिसके फलस्वरूप बकाया स्टॉक की संख्या सीमित हुई है । मार्च 2002 के अंत में 5,36,325 करोड़ रुपए की बकाया राशि की 111 सरकारी प्रतिभूतियां थीं, जिनमें से 23 प्रतिभूतियों की राशि, जिनमें प्रत्येक की बकाया राशि 10,000 करोड़ रुपए थी, 50 प्रतिशत से अधिक थीं ।

(छ) अस्थायी दर वाले बांड

102. सरकारी प्रतिभूतियों में निवेशकों की विविध आवश्यकताएं पूरी करने के लिए पहले जीरो कूपन बांड, अस्थिर दर वाले बांड, इंडेक्स लिंक्ड बांड आदि जैसे अनेक नए लिखत जारी किए गए । इस समय, केपिटल इंडेक्स्ड बांड जो इस वर्ष परिपक्व होगा, को छोड़कर सभी बकाया सरकारी बाजार ऋण प्लेन वनीला फिक्स्ड रेट बांड के रूप में हैं । बैंक जैसे बड़े निवेशकों के परिसंपत्ति देयता प्रबंध और जोखिम भार आवश्यकता की दृष्टि से नवंबर-दिसंबर 2001 में 5,000 करोड़ रुपए की कुल राशि के 5-वर्षीय और 8-वर्षीय परिपक्वता के दो फिक्स्ड रेट बांड जारी किए गए, जिन्हें पूरा अभिदान मिला । फिक्स्ड रेट बांड ऋण प्रबंध में विशाखीकरण लिखत की तरह काम करते हैं, क्योंकि ये सावधि प्रीमियम का लाभ उठाते हैं और वित्तीयन जोखिम को कम करते हैं । लेकिन फिक्स्ड रेट बांड ब्याज दर जोखिम से असुरक्षित होते हैं । लाभ और जोखिम दोनों पर विचार करते हुए इस वर्ष और अधिक फिक्स्ड रेट बांड जारी करने के संबंध में जांच की जाएगी ।

(ज) दिनांकित प्रतिभूतियों का कैलेंडर

103. संस्थागत और फुटकर निवेशक, दोनों को अपना निवेश बेहतर बनाने की आयोजना में सक्षम बनाने के लिए सरकार ने 2002-03 की दिनांकित प्रतिभूतियों का कैलेंडर जारी करने की घोषणा की है । इस प्रकार का उन्नत कैलेंडर सरकार के उधार कार्यक्रम को पारदर्शिता प्रदान करता है और आशा है कि इससे सरकारी प्रतिभूति बाजार में स्थिरता आएगी । पहली छमाही के कुल अनुमानित उधार में से 68,000 करोड़ रुपए की राशि के कैलेंडर की घोषणा की गई । पहले की तरह, वर्ष की पहली छमाही के शेष बाजार उधार कार्यक्रम की घोषणा समय-समय पर सरकार और बाजार की स्थितियों की आनेवाली आवश्यकताओं के आधार पर की जाएगी ।

(झ) प्रतिभूतियों के पंजीकृत ब्याज और
मूलधन का अलग व्यापार (स्ट्रिप्स)

104. स्ट्रिप्स के विकास के लिए कार्ययोजना तैयार की गई और बाजार सहभागियों से अभिमत और सुझाव प्राप्त करने के लिए आरबीआइ वेबसाइट पर दे दी गई है । जीरो कूपन बांड पर कर लगाने के संबंध में सरकार से आवश्यक स्पष्टीकरण जारी करने के लिए अनुरोध किया गया । स्ट्रिप्स योजना को कार्यांवित करने के लिए निर्णय लिया गया है कि :

  • स्ट्रिप्स के संबंध में परिचालन और समुचित दिशा-निर्देश का सुझाव देने के लिए बैंकों और बाजार सहभागियों को मिलाकर एक कार्यदल बनाया जाए ।

(ञ) सेटेलाइट डीलर सिस्टम

105. अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में भारतीय रिज़र्व बैंक ने बाजार सहभागियों से परामर्श करके सेटेलाइट डीलर सिस्टम की समीक्षा करने के अपने निर्णय की घोषणा की थी । भारतीय प्राथमिक व्यापारी संघ के विचार प्राप्त करने और टीएसी में पुन: चर्चा करने तथा वर्तमान स्थितियों में उनकी भूमिका पर विचार करने के बाद इस प्रणाली को समाप्त करने का निर्णय लिया गया है । तदनुसार :

  • किसी नए सेटेलाइट डीलर को लाइसेंस नहीं दिया जाएगा ।
  • मौजूदा सेटेलाइट डीलरों से ऐसी कार्ययोजना बनाने की अपेक्षा की जाएगी जो 31 मई, 2002 तक सेटेलाइट डीलर के रूप में उनका कार्य समाप्त करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक को संतोषजनक लगे ।

(ट) बीमा कंपनियों और अन्य के लिए दीर्घकालिक बांड का निर्गम

106. सरकार की वार्षिक उधार आवश्यकताओं और ऋण शोधन विधि पर सरकारी ऋण की परिपक्वता अवधि, बुनियादी संरचना के लिए दीर्घकालिक वित्तीयन के लिए निर्देश चिह्न स्थापित करने की आवश्यकता तथा बीमा कंपनियों, भविष्य निधियों और पेंशन निधियों जैसे दीर्घकालिक निवेशकों की आवश्यकताएं पूरी करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक सरकारी ऋण की परिपक्वता अवधि को जानबूझ कर बढ़ाता रहा है । 2001-02 में 17 वर्ष के बाद 8,000 करोड़ रुपए का 25-वर्षीय बांड जारी किया गया । ऐसे निवेशकों की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दीर्घावधि बांड जारी करने की नीति बनाए रखने का रिज़र्व बैंक का प्रस्ताव है ।

(ठ) स्वचलित नामे (डेबिट) प्रणाली

107. कुछ मामलों में, राज्य सरकारों ने निर्दिष्ट तारीखों को कतिपय दायित्वों की पूर्ति के लिए सामान्य तौर पर अथवा विशिष्ट घटना के मामले में उनके खातों को डेबिट करने के लिए रिज़र्व बैंक को अनुदेश दे रखे हैं । ऐसे स्वचलित डेबिट को अन्य भुगतानों के मुकाबले प्राथमिकता दी जाती है । स्वचलित डेबिट के पिछले अनुभवों की जांच करने के बाद राज्य सरकार गारंटियों से संबंधित राज्य वित्त सचिवों की एक तकनीकी समिति ने यह टिप्पणी की थी कि स्वचलित डेबिट प्रणाली के माध्यम से पूर्वाधिकार देने में वेतन, पेंशन, परिशोधन और ब्याज भुगतान जैसे नाजुक न्यूनतम अनिवार्य भुगतानों के वित्तपोषण के लिए अपर्याप्त निधि उपलब्ध होने में जोखिम बना रहता है । उक्त समिति की सिफारिशों और ऋण बाजारों के लोक ऋण खंड की विश्वसनीयता बनाए रखने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए यह प्रस्ताव है कि

  • भविष्य में, सामान्य नीति के तौर पर, संभावित प्रभाव से, जहां कोई विधिक अथवा अन्य बाध्यताएं नहीं हैं, वहां ऐसे स्वचलित डेबिट को समाप्त करना ।
  • ऐसी प्रणाली के निर्माण के लिए जहां विधिक बाध्यता है, ऐसे प्रावधानों में संशोधन सुझाना ।
  • जहां संभव हो, ऐसी प्रणालियों को समाप्त करने की दृष्टि से राज्य सरकारों और अन्य संबंधितों के परामर्श से वर्तमान सभी स्वचलित डेबिटों की समीक्षा करना ।

शहरी सहकारी बैंक

(क) नया शीर्ष पर्यवेक्षण निकाय

108. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में केंद्र सरकार के परामर्श से अनुसूचित और गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों से संबंधित संपूर्ण निरीक्षण/पर्यवेक्षण कार्यों के अधिग्रहण के लिए एक नए शीर्ष पर्यवेक्षण निकाय की स्थापना की घोषणा की गई थी । अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में यह उल्लेख किया गया था कि रिज़र्व बैंक ने एक अलग पर्यवेक्षण प्राधिकरण की स्थापना से संबंधित एक प्रारूप विधेयक प्रस्तुत किया है । मामला सरकार के विचाराधीन है ।

109. पिछले दो वर्षों की घटनाओं से यह बिल्कुल स्पष्ट हो चुका है कि सहकारी बैंकों के कुशल कार्यनिष्पादन के लिए दोहरा/तिहरा विनियामक और पर्यवेक्षकीय नियंत्रण (जिसमें केंद्र, राज्य और रिज़र्व बैंक शामिल है) जमाकर्ताओं के हित में सहायक नहीं है । पहले भी अनेक समितियों ने इस क्षेत्र के पर्यवेक्षण और नियंत्रण की बहुस्तरीय व्यवस्था को समाप्त करने की सिफारिश की है । स्थानीय हितों की संबद्धता को देखते हुए यह भी स्पष्ट है कि केंद्र/राज्य सरकार स्तरों पर पर्यवेक्षण और नियामक दायित्वों को समाप्त करने, और उन्हें केवल रिज़र्व बैंक को सौंपने के पक्ष में फिलहाल कोई आम राय नहीं है । परिणामस्वरूप, अनेक सहकारी संस्थाओं के प्रबंधन और बोर्डों में सच्ची सहकारी भावना की अपेक्षा राजनीतिक हित परिलक्षित हो रहे हैं, और वे अपने काम-काज में सामान्य बैंकिंग अनुशासन के प्रति जिम्मेदार नहीं रहते हैं । इसे ध्यान में रखते हुए जमाकर्ताओं के हित में सबसे अच्छा यह होगा कि स्थिति का पूरी तरह से सामना किया जाए और एक अलग पर्यवेक्षण प्राधिकरण की स्थापना की जाए जिसमें केंद्र, राज्य और अन्य हितवाले तत्वों का प्रतिनिधित्व हो । ऐसे निकाय को तब सहकारी संस्थाओं के कुशल काम-काज के लिए अकेले जिम्मेदार ठहराया जा सकता है और वह जनता की जमाराशियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी ले सकता है ।

(ख) परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन संबंधी कार्यदल

110. अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में यह उल्लेख किया गया था कि रिज़र्व बैंक ने चयनित शहरी सहकारी बैंकों को उनके अभिमत के लिए परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन संबंधी कार्यदल की रिपोर्ट भेजी है । केवल छह बैंकों ने उत्तर दिए हैं, जो सकारात्मक हैं । यह महसूस किया गया कि मार्गदर्शी सिद्धांतों को सरल बनाए जाने की जरूरत है और उनके सहज कार्यान्वयन के लिए कुछ कार्यशालाएं आयोजित की जाएं जिसमें शहरी सहकारी बैंकों के अधिकारियों/मुख्य कार्यपालक अधिकारियों से कार्यान्वयन के संबंध में प्रतिसाद प्राप्त करने के लिए इन मार्गदर्शी सिद्धांतों को उनके समक्ष स्पष्ट किया जाए । कृषि बैंकिंग महाविद्यालय, पुणे में 14-15 जनवरी 2002 को आयोजित पहली कार्यशाला में 17 शहरी सहकारी बैंकों के 37 कार्यपालकों ने भाग लिया । दूसरी कार्यशाला बैंकर प्रशिक्षण महाविद्यालय, मुंबई में चलाई गई । दोनों कार्यशालाओं में सहभागी बैंकों से प्राप्त सुझावों को ध्यान में रखते हुए मार्गदर्शी सिद्धांत जारी कर दिए गए हैं ।

(ग) शहरी सहकारी बैंकों के लिए पर्यवेक्षीय श्रेणी-निर्धारण प्रणाली

111. रिज़र्व बैंक ने अपने प्रत्यक्ष निरीक्षण के आधार पर भारतीय वाणिज्य बैंकों के लिए पर्यवेक्षीय श्रेणी-निर्धारण ‘कैमेल्स’ माडल और विदेशी बैंकों के लिए ‘कैक्स’ माडल लागू कर दिया है ताकि उनके कार्य-निष्पादन का मूल्यांकन किया जा सके । वर्ष 1999 में प्रत्यक्ष निरीक्षण के आधार पर ‘कैमेल्स’ आधारित माडल को पर्यवेक्षण के एक अतिरिक्त साधन के रूप में शहरी सहकारी बैंकों पर भी लागू किया गया । शहरी सहकारी बैंक चूंकि भुगतान-प्रणाली के सदस्य हैं और जमा-बीमा योजना के हिताधिकारी भी हैं, इसलिए हाल के अनुभवों को मद्देनजर रखते हुए यह महसूस किया जाता है कि शहरी सहकारी बैंकों की पर्यवेक्षण व्यवस्था को और सुदृढ़ बनाने की जरूरत है । इस उद्देश्य के लिए अक्तूबर 2001 में रिज़र्व बैंक ने एक कार्यदल का गठन किया जो शहरी सहकारी बैंकों की परिचालन विशिष्टताओं को ध्यान में रखते हुए उनके लिए उचित श्रेणी-निर्धारण माडल तैयार करे । कार्यदल ने बड़े शहरी सहकारी बैंंकों के मुख्य कार्यपालक अधिकारियों के परामर्श से अपनी रिपोर्ट 23 मार्च 2002 को प्रस्तुत की । दल की सिफारिशों की जांच की जा रही है और आवश्यक मार्गदर्शी सिद्धांत यथासमय जारी किए जाएंगे ।

पर्यवेक्षण और निगरानी

112. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में की गई कतिपय घोषणाओं के संबंध में हुई प्रगति की समीक्षा इस प्रकार है :

(क) अप्रत्यक्ष निगरानी और चौकसी

113. वर्ष 1999 में रिज़र्व बैंक ने तिमाही आधार पर चलनिधि और ब्याज दर जोखिमों की निगरानी के लिए अप्रत्यक्ष विवरणी को युक्तिसंगत बनाया था । अंतत: पाक्षिक रिपोर्टिंग प्रणाली को अपनाने के इरादे से बैंकों के परामर्श से एक संशोधित प्रणाली जून 2000 में लागू की गई । अक्तूबर 2001 से (i) ब्याज दर संवेदनशीलता (ii) रुपए और विदेशी मुद्रा दोनों के लेन-देन के लिए संरचनागत चलनिधि, (iii) परिसंपत्तियां, देयताएं और ऋण, (iv) संवेदनशील क्षेत्र को दिए गए ऋण और (v) भारत में बैंकों की सहायक संस्थाओं से संबंधित रिपोर्टों की मासिक आधार पर भेजने का निर्णय किया गया ।

(ख) जोखिम आधारित पर्यवेक्षण

114. वर्ष 2003 तक जोखिम आधारित पर्यवेक्षण को सहज रूप से अपनाने के लिए गठित परियोजना कार्यान्वयन दल ने कतिपय प्रबंधन संबंधी प्रक्रियाएं शुरू कर दी हैं जिनमें चर्चा-पत्र तैयार करना, जोखिम विवरण, मैनुअल लेखन, प्रशिक्षण और विधिक अपेक्षाएं शामिल हैं । चर्चा-पत्र पर बैंकों के प्रतिसाद का विश्लेषण किया गया और इस संबंध में उनकी प्रगति और आवश्यकताओं का मूल्यांकन करने के लिए एक परामर्श प्रक्रिया शुरू की गई है । जोखिम आधारित पर्यवेक्षण दृष्टिकोण के अंतर्गत बैंकों के जोखिम विवरण के लिए दल ने एक प्रारूप जोखिम आकलन टेंप्लेट तैयार किया है । उक्त टेंप्लेट की कुछ बैंकों में जांच की जा रही है ताकि उसे ग्राहक के और अनुरूप और बेहतर बनाया जा सके । मैनुअल तैयार करने के लिए एक आंतरिक दल का गठन किया गया ।

(ग) तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई

115. जैसा कि अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, पर्यवेक्षकों द्वारा तत्काल प्रतिसाद के लिए विभिन्न आरंभिक बिंदुओंवाली तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई की योजना तैयार की गई और कार्यान्वयन के पहले सरकार को उनके अभिमत के लिए भेजी गई । सरकार से योजना को मंजूरी मिल गई है और उसे शीघ्र ही लागू किया जाएगा ।

(घ) समष्टिगत विवेकपूर्ण संकेतक

116. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में यह उल्लेख किया गया था कि मार्च 2000 और सितंबर 2000 में समाप्त छमाही के लिए समष्टिगत विवेकपूर्ण संकेतकों का प्रयोग करते हुए प्रथम (पायलट) समीक्षाएं आंतरिक परिचालन के लिए तैयार की गईं । बाद में, मार्च 2001 और सितंबर 2001 में समाप्त छमाही के लिए भी समीक्षाएं भी तैयार कर ली गई । पूर्ववर्ती समीक्षाएं जहां अधिकांशत:समष्टिगत विवेकपूर्ण संकेतकों (एमपीआई) का संकलन थीं, बाद की समीक्षाओं के दायरे और व्याप्ति को पूंजी बाजार, विदेश मुद्रा बाजार और वित्तीय प्रणाली के अन्य घटकों को शामिल कर विस्तार दिया गया ।

(ङ) समेकित लेखा और पर्यवेक्षण

117. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीति वक्तव्य में किए गए उल्लेख के अनुसार, वित्तीय पर्यवेक्षण बोड़ ने भारतीय संदर्भ में उपयुक्त समेकित पर्यवेक्षण के लिए एक समेकित दृष्टिकोण विकसित किया है । अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुसार समेकित पर्यवेक्षण के लिए समेकित लेखा और मात्रात्मक तकनीकों की शुरुआत की जांच-पड़ताल हेतु एक बहु-अनुशासनिक कार्य दल का गठन किया गया है । कार्यदल की रिपोर्ट 29 जनवरी, 2002 को वित्तीय पर्यवेक्षण बोड़ के समक्ष रखी गई । इस रिपोर्ट को टिप्पणियों/सुझावों के लिए जनता के बीच भी रखा गया । भारतीय रिज़र्व बैंक टिप्पणियों पर आधारित आवश्यक मार्गदर्शी सिद्धांत जारी करेगा ।

विवेकपूर्ण उपायों की वर्तमान स्थिति

118. बढ़ते हुए भूमंडलीकरण और वित्तीय मध्यर्वत्ायिों के विभिन्न घटकों के बीच घटते हुए अंतर ने बैंकिंग क्षेत्र के लिए एक विशेष चुनौती खड़ी कर दी है । वित्तीय मध्यस्थता का मुख्य घटक होने के कारण वित्तीय स्थिरता को बनाए रखने के लिए विवेकपूर्ण वित्तीय प्रथाओं को प्रोत्साहित करने के माध्यम से एक स्वस्थ बैंकिंग प्रणाली का विकास आवश्यक हो गया है । यह स्वीकार किया गया है कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली को पूंजी पर्याप्तता और विवेकपूर्ण मानदंडों के लिए समुचित रूप से निर्धारित अंतर्राष्ट्रीय स्तरों के साथ तालमेल बिठाना चाहिए ।

119. कालक्रम में वित्तीय स्थिति को सुधारने और भारतीय बैंकिंग प्रणाली की क्षमता, उत्पादकता एवं लाभप्रदता को बढ़ाने के लिए वित्तीय प्रणाली के संबंध में समिति की सिफारिशों के अनुसार भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकिंग क्षेत्र में सुधारों की पहल की । वित्तीय क्षेत्र के विकास की गति और पद्धति में हुए परिवर्तन को ध्यान में रखकर भारतीय स्तरों और अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के बीच समरूपता की प्राप्ति के प्रयास के लिए पूर्व नीति वक्तव्यों में अनेव उपायों की घोषणा की गई है ।आवश्यक समझे गए और उपायों के साथ इन उपायों के कार्यान्वयन में की गई प्रगति नीचे दी गई हैं :

(क) ऋण हा्रस की पहचान के लिए
90-दिवसीय मानदंड अपनाना

120. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीति वक्तव्य में बताए गए अनुसार, बैंकों को यह सूचित किया गया कि वे 31 मार्च, 2004 को समाप्त होनेवाले वर्ष से अपनी परिसंपत्तियों के वर्गीकरण के लिए 90-दिवसीय मानदंड अपनाएं । उनसे यह कहा गया कि वे 90-दिवसीय मानदंड को अपनाने के लिए एक उपयुक्त संक्रमण कार्यविधि तैयार करें तथा अपने बोर्डों के अनुमोदन से अपनी कार्य योजना भारतीय रिज़र्व बैंक को प्रस्तुत करें । सरलीकरण के एक उपाय के रूप में, उन्हें यह सूचित किया गया कि वे 1 अप्रैल, 2002 तक मासिक शेषों पर ब्याज लगाना शुरू कर दें । इस संबंध में कुछ बैंकों ने कृषि संबंधी अग्रिमों पर ब्याज लगाने, अपेक्षाकृत लंबी अवधियों के लिए ब्याज लगाने हेतु उपलब्ध विकल्पों, आदि पर स्पष्टीकरण मांगा है । भारतीय बैंक संघ के परामर्श से यह स्पष्ट करते हुए विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए हैं कि 1 अप्रैल, 2002 से बैंक कृषि अग्रिमों को छोड़कर ऋण/अग्रिमों के मासिक शेषों पर ब्याज लगाना शुरू करें ।

(ख) नया बासले पूंजी - समझौता

121. अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में यह उल्लेख किया गया कि बैंकिंग पर्यवेक्षण पर गठित बासले समिति (बीसीबीएस) द्वारा जारी नए पूंजी-समझौते संबंधी द्वितीय परामर्शदात्री पेपर पर भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपनी टिप्पणियां दी थीं । समिति को राष्ट्रीय पर्यवेक्षकों, बैंकों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और अन्य से 200 से अधिक प्रतिसाद प्राप्त हुए जिन्हें www.bis.org में देखा जा सकता है । टिप्पणियों की ऐसी विविधता इस तथ्य को दर्शाती है कि पूंजी नियमन की कार्य पद्धति के संबंध में सार्वभौमिक राय की प्राप्ति आसान काम नहीं है । प्रतिसाद देनेवाले अनेक लोगों ने उन समस्याओं पर चिंता जताई है जो प्रस्तावों की जटिलता और लागत के कारण उनके कार्यान्वयन के दौरान महसूस की जाएंगी । प्रतिसाद देनेवाले अनेक लोगों ने यह भी बताया है कि नए प्रस्तावों के कारण अधिकतर अधिकार क्षेत्रों में पूंजीगत आवश्यकताओं में सभी स्तरों पर वृद्धि हो सकती है ।

122. उपर्युक्त को देखते हुए, परामर्श प्रक्रिया का विस्तार किया गया तथा बैंकिंग पर्यवेक्षण के संबंध में गठित बासले समिति के साथ प्रस्तावों में कुछ संशोधनों पर विचार-विमर्श चल रहा है जो पूंजीगत आवश्यकताओं पर प्रत्याशित ऊर्ध्वमुखी प्रभावों को कम कर सकता है । दूसरा मात्रात्मक प्रभाव अध्ययन (क्वांटिटिव इम्पैक्ट स्टडी) आगामी महीनों में विस्तृत सहभागिता के साथ किया जाएगा तथा इस प्रभाव के मूल्यांकन में रिज़र्व बैंक भी सहभागी होगा । इसी के साथ, भारतीय रिज़र्व बैंक का एक आंतरिक दल बासले समिति के दर्शन-संबंधी ढांचे के दायरे में उपयुक्त संशोधित दृष्टिकोण के विकास में लगा हुआ है जो भारतीय परिस्थिति में अपनाई जा सकती है और कार्यान्वयन और पर्यवेक्षण में भी अपेक्षाकृत सरल हैं । इस प्रयोजन के लिए, आंतरिक दल संशोधित दृष्टिकोण और भावी मात्रात्मक प्रभाव अध्ययन के विकास हेतु इनपुट मुहैया कराने के लिए चुनिंदा बैंकों से प्रतिनिधियों को आमंत्रित करेगा । इसके अलावा, बैंक परिसंपत्तियों का जोखिम भार निर्धारित करने का कार्य मुख्यत: बैंकों अथवा उसके पर्यवेक्षकों का होना चाहिए । बैंकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे नए प्रस्तावों और इसके भावी प्रभावों की कार्य-पद्धति के अध्ययन के लिए एक विशेषज्ञ आंतरिक टीम का गठन करें ।

(ग) प्रति पक्ष (काउंटर पार्टी) और देश विशेष को
ऋण देने में निहित जोखिम (कंट्री रिस्क्स)

123. बैंकिंग पर्यवेक्षण पर गठित बासले समिति द्वारा बनाए गए ‘प्रभावी बैंकिंग पर्यवेक्षण के मुख्य सिद्धांत’ के कार्यान्वयन के लिए रिज़र्व बैंक वचनबद्ध है । यह संतोष का विषय है कि भारत की बैंकिंग प्रणाली मुख्यत: अधिकांश मुख्य सिद्धांत के अनुरूप है ।

124. अक्तूबर 1999 में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने जोखिम प्रबंधन मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए थे जिसमें, अन्य बातों के साथ-साथ, बैंकों को यह सूचित किया गया था कि वे अंतर्राष्ट्रीय श्रेणी निर्धारक एजेंसियों के देश श्रेणी निर्धारण का उपयोग करें तथा देशों का वर्गीकरण अल्प जोखिम, सामान्य जोखिम और उच्च जोखिम संवर्गों के अंतर्गत करें तथा प्रतिपक्ष (काउंटर पार्टी) और देश विशेष को ऋण देने में निहित जोखिम (कंट्री रिस्क्स) का अनुमान लगानेवाले एक आंतरिक सांचे (मैट्रिक्स) के विकास का प्रयास करें । मुख्य सिद्धांतों के अनुपालन में और आगे बढ़ने के लिए बैंकों, भारतीय बैंक संघ और अन्य बाजार सहभागियों से परामर्श करके भारतीय रिज़र्व बैंक जल्द ही देश विशेष को ऋण देने में निहित जोखिम प्रबंधन और उसके प्रावधानीकरण के संबंध में मार्गदर्शी सिद्धांत का प्रारूप जारी करेगा ।

(घ) बाजार जोखिम के लिए पूंजी

125. अक्तूबर 1998 की मध्यावधि समीक्षा में यह घोषणा की गई कि 31 मार्च, 2002 तक सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में बाजार जोखिम के लिए 2.5 प्रतिशत का जोखिम भार मुहैया करवाना पड़ेगा । अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं से सामंजस्य स्थापित करके बैंकों के निवेशों के संवर्गीकरण और मूल्यांकन के संबंध में मार्गदर्शी सिद्धांतों की घोषणा भी की गई तथा इन्हें 30 सितंबर, 2000 को समाप्त छमाही से लागू किया गया । तदनुसार, बैंकों से यह अपेक्षा की गई कि बासले समिति द्वारा सुझाए गए ढांचे तक बैंकों के पहुंचने तक एक आंतरिक व्यवस्था के रूप में सांविधिक चलनिधि अनुपात और गैर-सांविधिक चलनिधि अनुपात वाली प्रतिभूतियों पर क्रमश: 31 मार्च, 2000 और 2001 तक 2.5 प्रतिशत जोखिम भार मुहैया कराए ।

126. बासले मानदंड, मानकीकृत अथवा आंतरिक रूप से विकसित वैल्यू एट रिस्क पद्धतियों पर बाजार जोखिम के लिए पूंजी का निर्धारण करता है । चूंकि बैंकों के निवेश संविभाग संबंधी मूल्यांकन के मानदंडों को लागू किया गया है और अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के साथ जोड़ दिया गया है, अत: बाजार जोखिम के लिए पूंजी संबंधी बासले समिति के मानदंडों को अपनाना उपयुक्त है । उपर्युक्त को देखते हुए बैंकों को यह सूचित किया जाता है कि वे बैंकिंग पर्यवेक्षण के संबंध में गठित बासले समिति द्वारा जनवरी 1996 में प्रकाशित पूंजी समझौते में बाजार जोखिम को शामिल करने के लिए किए गए संशोधन में यथा उल्लिखित बाजार जोखिम के लिए पूंजी के संबंध में बासले ढांचे का अध्ययन करें तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा घोषित किए जानेवाले किसी उपयुक्त तारीख को इस संबंध में अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं का अनुसरण करने के लिए स्वयं को तैयार करें ।

(ङ) काले धन को वैध बनाने पर रोक

127. काले धन को वैध बनाने और आतंकवाद के वित्तपोषण के लिए वित्तीय प्रणाली के उपयोग पर बढ़ती हुई अंतर्राष्ट्रीय चिंता में भारत सम्मिलित रहा है । वित्तीय अपराधों से जूझने में अंतर्राष्ट्रीय समुदायों द्वारा झेली जा रही चुनौतियों को, भारत और विदेश दोनों में, दायित्वों के विनियमन और प्रवर्तन के प्रति चिंतित विभिन्न एजेंसियों के बीच निरंतर और समन्वित कार्रवाई की जरूरत है । भारतीय रिज़र्व बैंक और सरकार ने आपराधिक गतिविधियों से प्राप्त आय को वैध बनाने हेतु वित्तीय प्रणाली के किसी भी दुरुपयोग को रोकने के लिए समय-समय पर विभिन्न कदम उठाने की पहल की है ।

128. इस पहल के एक भाग के रूप में बैंकों द्वारा लागू किए जाने हेतु अपेक्षित नीति संबंधी कार्यविधियां और नियंत्रण निर्धारित करते हुए भारतीय रिजर्व बैंक एक मास्टर परिपत्र जारी करने की प्रकि्रया में है । इनमें अवैध रूप से प्राप्त धन को वैध बनाने और आतंकवादी गतिविधि का वित्तपोषण करने हेतु बैंकिंग प्रणाली के दुरुपयोग को रोकने के लिए "अपने ग्राहक को जानो" (नो योर कस्टमर) (केवाइसी) प्रक्रियाओं का सख्ती से पालन करना शामिल है । मार्गदर्शी सिद्धांत बनाते समय, भारतीय बैंक संघ द्वारा गठित, अवैध धन को वैध बनाने की रोकथाम पर कार्य-दल की सिफारिशों को भी ध्यान में रखा जाएगा ।

(च) अवमानक श्रेणी से संदिग्ध श्रेणी में परिसंपत्ति
के संक्रमण की अवधि में कमी

129. नरसिंहम समिति II ने यह सिफारिश की थी कि किसी परिसंपत्ति को उस स्थिति में संदिग्ध के रूप में वर्गीकृत किया जाना चाहिए यदि वह पहले चरण में 18 महीनों के लिए तथा उसके बाद 12 महीने के लिए अवमानक श्रेणी में हो । तदनुसार, भारतीय रिज़र्व बैंक ने अक्तूबर 1998 की मध्यावधि समीक्षा में घोषणा की थी कि 31 मार्च, 2001 से किसी परिसंपत्ति को उस स्थिति में संदिग्ध परिसंपत्ति के रूप में वर्गीकृत करना चाहिए, यदि वह 18 महीने के लिए अवमानक श्रेणी में रही हो ।

130. नरसिंहम समिति II की सिफारिशों के अनुरूप एवं सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के नजदीक पहुंचने की दृष्टि से यह प्रस्ताव है कि :

  • 31 मार्च, 2005 से किसी परिसंपत्ति को संदिग्ध परिसंपत्ति के रूप में वर्गीकृत किया जाएगा बशर्ते वह अवमानक श्रेणी में 12 महीने के लिए रही हो । बैंकों को अनुमति है कि वे इसके परिणामस्वरूप होनेवाले अतिरिक्त प्रावधान को चार वर्ष की अवधि में चरणबद्ध रूप में करें, जिसमें प्रत्येक वर्ष न्यूनतम 20 प्रतिशत का प्रावधान हो ।

(छ) अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) की वसूली

131. अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में यह निर्दिष्ट किया गया था कि 1995 में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी एनपीए के समझौता निपटानों के लिए बनाया गया व्यापक ढांचा जारी रहेगा तथा बैंक इस बात के लिए स्वतंत्र होंगे कि वे अपने बोर्डों के अनुमोदन से वसूली के लिए अपनी स्वयं की नीतियां बनाकर कार्यान्वित करें तथा समझौता और बातचीत से तय निपटान शामिल करते हुए बट्टे खाते डालें । माननीय वित्त मंत्री ने 12 नवंबर, 2001 को नई दिल्ली में बैंकों के अध्यक्षों और प्रबंध निदेशकों के साथ हुई अपनी बैठक में यह निर्दिष्ट किया था कि 25,000 रुपए तक की प्राप्य राशियों की वसूली के लिए बैंकों द्वारा छोटे उधारकर्ताओं के लिए एक उपयुक्त स्कीम विकसित की जाएगी । तदनुसार, बैंकों को सूचित किया गया है कि वे कारबार या उद्देश्य के स्वरूप का विचार किए बिना सभी क्षेत्रों में प्राप्य राशियों और ऐसे मूल धन (ब्याज के तत्व को छोड़कर) की वसूली के लिए एक नीति बनाएं जो 31 मार्च, 1998 की स्थिति के अनुसार एनपीए बन गए हों। जैसाकि बजट 2002-03 में घोषित किया गया है, छोटे और सीमांत कृषकों के लिए एक विशेष एक समय निपटान (ओटीएस) स्कीम 50,000 रुपए तक के ऋणों को शामिल करते हुए जारी की गई है । भारत सरकार के अनुरोध पर भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को देय कर्जों की वसूली (संशोधन) अधिनियम, 2000 में किए गए विभिन्न संशोधनों के बाद कर्ज वसूली अधिकरणों (डीआरटी) के कार्य की समीक्षा 31 मार्च, 2001 को विद्यमान उनकी स्थिति के संदर्भ में कराई ।

(ज) कंपनी ऋण पुन:संरचना

132. याद रहे कि अगस्त 2001 में भारतीय रिजर्व बैंक ने वित्तीय समस्याओं का सामना कर रही सक्षम कंपनियों के कर्जों की पुन:संरचना हेतु सामयिक और पारदर्शी तंत्र सुनिश्चित करने के लिए बीआइएफआर, डीआरटी और अन्य कानूनी प्रकि्रयाओं के दायरे से बाहर एक रूपरेखा बनाने हेतु बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के कार्यान्वयन के लिए कंपनी ऋण पुन:संरचना (सीडीआर) पर मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए थे । जैसा कि बजट 2002-03 में प्रस्तावित है, भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक उच्चस्तरीय समूह (अध्यक्ष : श्री वेपा कामेशम, उप गवर्नर) का गठन किया है ताकि सीडीआर स्कीम के कार्यों की समीक्षा की जा सके । इस स्कीम के सुचारू रूप से कार्यान्वयन में यदि कोई परिचालनगत कठिनाइयां हों तो उनकी पहचान की जा सके तथा इस योजना को और भी प्रभावी बनाने के लिए उपाय सुझाए जा सकें । एक अंतरिम उपाय के रूप में यह निर्णय किया गया है कि भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा सीडीआर ‘‘कोर ग्रुप’’ की विशिष्ट सिफारिशों के आधार पर ऋण पुन:संरचना के लिए अनुमति दी जाएगी, बशर्ते बैंकों/वित्तीय संस्थाओं द्वारा परिसंपत्तियों के वर्गीकरण में विभेदों का विचार किए बिना बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को मिलाकर ऋणदाताओं का कम-से-कम 75 प्रतिशत (मूल्यानुसार) सीडीआर के लिए सहमति देता हो ।

(झ) बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा सांविधिक चलनिधि
अनुपात (नान-एसएलआर) से इतर निवेश

133. अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में में यह उल्लेख किया गया था कि बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के एसएलआर से इतर निवेश संविभाग से उत्पन्न होनेवाले जोखिम को रोकने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा और अधिक सावधानी विशेष रूप से प्राइवेट प्लेसमेंट के माध्यम से बरती जानी चाहिए । एसएलआर से इतर निवेश संविभाग के प्रबंधन पर विवेकसम्मत दिशा-निर्देशों का प्रारूप बैंकों को उनके अभिमतों/विचारों के लिए दिया गया था । प्रतिसाद (फीडबैक) के आधार पर इन दिशा-निर्देशों को अंतिम रूप दिया जा रहा है और इन्हें यथासमय जारी किया जाएगा ।

(ञ) निवेश उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि (आइएफआर)

134. रिज़र्व बैंक ने अप्रत्याशित घटनाक्रम के कारण भविष्य में ब्याज-दर परिवेश में किसी संभावित व्यतिक्रम से बचाव के लिए पर्याप्त आरक्षित निधियों का निर्माण करने के उद्देश्य से बैंकों को जनवरी 2002 में सूचित किया कि वे 5 वर्ष की अवधि में निवेश संविभाग के कम-से-कम 5.0 प्रतिशत का आइएफआर बनाएं । फिर भी, बैंकों को इस बात की स्वतंत्रता दी गई है कि वे अपने बोड़ के अनुमोदन से अपने संविभाग के आकार और संरचना के आधार पर संविभाग के अधिकतम 10.0 प्रतिशत तक आइएफआर बना लें । उपर्युक्त प्रस्तावों पर बैंकों से प्राप्त प्रतिसाद (फीडबैक) के आधार पर यह निर्णय किया गया है कि आइएफआर की गणना दो श्रेणियों अर्थात् ‘‘व्यापार के लिए धारित’’ और ‘‘विक्रय के लिए उपलब्ध’’ में निवेशों के संदर्भ में की जानी चाहिए । इस प्रकार, ‘‘परिपक्वता तक धारित’’ श्रेणी के अंतर्गत निवेश को शामिल करने की आवश्यकता नहीं होगी, जो आइएफआर की गणना के प्रयोजन हेतु व्यापार करने के लिए नहीं है ।

प्रौद्योगिकी उन्नयन

135. रिज़र्व बैंक देश में भुगतान और निपटान प्रणाली का उन्नयन करने में प्रमुख भूमिका अदा कर रहा है । वर्तमान भुगतान प्रणालियों के समेकन, भुगतान के नए तकनीकी तौर पर उन्नत प्रकार विकसित करने एवं विभिन्न भुगतान और निपटान प्रणालियों के लिए एक कुशल और एकीकृत प्रणाली, जो वास्तविक परिचालन के परिवेश में कार्य करेगी, के रूप में संबद्ध करने के अंतिम लक्ष्य की ओर अग्रसर होने में अब तक की गई प्रगति काफी अधिक है ।

136. अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में ‘‘भुगतान प्रणाली विजॅन दस्तावेज’’ तैयार करने के संबंध में उल्लेख किया गया था । इस पर टिप्पणियों/प्रतिसाद (फीडबैक) की जांच के बाद विजॅन दस्तावेज का अंतिम पाठ दिसंबर 2001 में प्रकाशित किया गया था । इसमें भुगतान प्रणाली की परियोजनाओं के संबंध में महत्वपूर्ण गतिविधियों की रूपरेखा दी गई है । इससे बैंकों को उन नए उत्पादों के प्रति प्रभावकारी रूप में भागीदारी के लिए पूर्णत: तैयार होने में सुविधा होगी, जिनका लक्ष्य बेहतर भुगतान और निपटान सेवाएं प्रदान करना है ।

(क) सूचना के प्रसार के लिए
बैंकों की शाखाओं का नेटवर्विंग

137. बैंकों द्वारा निधियों के बेहतर प्रबंधन के लिए तथा एनडीएस, केंद्रीयकृत निधि प्रबंध प्रणाली (सीएफएमएस) एवं सुरक्षित संदेश अंतरण के लिए संरचित वित्तीय संदेश समाधान (एसएफएमएस) जैसी परियोजनाओं के कार्यान्वयन से भुगतान और निपटान प्रणालियों में सुधारों की प्रक्रिया को गति मिली है । इसके परिणामस्वरूप, इंडियन फाइनैंशियल नेटवर्क (इंफिनेट) के माध्यम का उपयोग करते हुए बैंकों के बीच निधियों के अंतरण तथा निधियों से संबंधित संदेशों के अंतरण इलैक्ट्रॉनिक तौर पर होंगे । इस प्रकार के इलैक्टॉनिक संदेश अंतरणों का पूरा लाभ उठाने के लिए यह आवश्यक है कि बैंेक एक समयबद्ध आधार पर वाणिज्यिक दृष्टि से महत्वपूर्ण केंद्रों में स्थित शाखाओं के कंप्यूटरीकरण और नेटवर्विंग पर पर्याप्त ध्यान दें । नगर के अंदर (इंट्रा-सिटी) और बैंक के अंदर (इंट्रा-बैंक) नेटवर्विंग से ‘‘लास्ट माइल’’ समस्या को दूर करने में सुविधा होगी जिससे आगे देश-भर में त्वरित और कुशल निधि अंतरण सुगमतापूर्वक हो सकेंगे ।

(ख) इलेक्टॉनिक निधि अंतरण सुविधाओं का विस्तार

138. इस बात की पहचान करते हुए कि त्वरित, सुरक्षित और कुशल निधि अंतरणों की कुंजी निधि अंतरणों के इलेक्ट्रानिक साधनों के उपयोग में निहित है, रिज़र्व बैंक ने इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण (ईएफटी) के अंतर्गत मौजूदा सुविधाओं में सुधार किया है । इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण अब बैंकों के बीच 13 भिन्न-भिन्न केंद्रों में निधि अंतरण की सुविधा उपलब्ध कराता है । दिन में एक निपटान तथा प्रति लेनदेन 2.0 करोड़ रुपए की वर्धित सीमा के कारण इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण कंपनी निधि अंतरण के लिए भी आकर्षक हो जाएगा । चार महानगरों में निपटान प्रतिदिन तीन बार होता है । यह सुविधा अब अन्य केंद्रों में भी दी जाएगी ताकि अंतरण टी+0 आधार पर हो सके । इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण योजना में पर्याप्त सुरक्षा संबंधी विशेषताएं भी जोड़ी जा रही हैं तथा भारतीय रिज़र्व बैंक की इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण योजना को कुछ बैंकों में पहले से प्रचलित विभिन्न योजनाओं के साथ भी समन्वित किया जा रहा है । जब सभी बैंक बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण का प्रयोग करने लगेंगे तब पारंपरिक निधि अंतरण माध्यमों पर निर्भरता कम हो जाएगी । इससे निधि की आवाजाही में अधिक दक्षता आएगी, बैंकों के ग्राहकों की निधि प्रबंध क्षमता बढ़ेगी तथा अधिक समय लेनेवाले निधि अंतरण से जुड़े जोखिमों में कटौती होगी ।

(ग) तात्कालिक सकल निपटान प्रणाली - अवस्थिति

139. पहले के नीतिगत वक्तव्यों में भारतीय रिज़र्व बैंक ने तात्कालिक सकल निपटान प्रणाली (आरटीजीएस) स्थापित करने के अपने इरादे की घोषणा की थी । यह प्रणाली निधि की तात्कालिक आवाजाही सुनिश्चित करेगी । आरटीजीएस प्रणाली का आरंभिक कार्य पूरा कर लिया गया है तथा प्रणाली की रूपरेखा और विकास के लिए एक उपयुक्त विक्रेता चुन लिया गया है । डिजाइन विनिर्देशन का कार्य चल रहा है । इन विनिर्देशनों में भारतीय बैंकिंग की अपेक्षाओं के अनुरूप अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम पद्धतियों को ध्यान में रखा जाएगा । प्रणाली लगभग एक वर्ष में परीक्षण के लिए तैयार हो जाएगी ।

भारतीय रिज़र्व बैंक का स्वामित्व संबंधी कार्य

140. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में यह कहा गया था कि भारतीय रिज़र्व बैंक को उन संस्थाओं का स्वामित्व नहीं रखना चाहिए, जिन्हें वह विनियमित करता है । इस प्रयोजन से भारतीय मितीकाटा और वित्त गृह (डीएफएचआई) तथा भारतीय प्रतिभूति व्यापार निगम (एसटीसीआई) के मामले में विनिवेश की प्रक्रिया पहले ही पूरी कर ली गई

है ।

141. वित्त मंत्री ने 2002-03 के अपने बजट भाषण में यह घोषणा की कि निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम को बैंक जमा बीमा निगम में परिवर्तित किया जाएगा ताकि वह जमाकर्ताओं के जोखिम और आपद्ग्रस्त बैंकों के मामले में प्रभावी कार्रवाई कर सके । इस प्रयोजन के लिए समुचित वैधानिक परिवर्तन प्रस्तावित किए जाएंगे । भारतीय स्टेट बैंक, नाबाड़ और राष्ट्रीय आवास बैंक में भारतीय रिज़र्व बैंक के स्वामित्व का अंतरण करने के लिए एक आंतरिक कार्य दल का गठन किया गया, जो कार्यविधि अर्थात् मूल्य निर्धारण, भुगतान, समायोजन आदि तथा शेयरधारिता के अंतरण के बाद आवश्यक वैधानिक उपायों की सिफारिश करेगा । कार्यदल ने नवंबर 2001 में अपनी रिपोर्ट दे दी है, जिसे सरकार के पास टिप्पणी के लिए भेज दिया गया है ।

गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां

142. रिज़र्व बैंक को 36,414 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से पंजीकरण प्रमाणपत्र के लिए आवेदन पत्र प्राप्त हुए हैं । इनमें से मार्च 2002 के अंत तक 14,079 आवेदन अनुमोदित किए गए हैं और 19,058 अस्वीकृत किए गए हैं । 14,079 कंपनियों में से केवल 780 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को जनता से जमाराशियां स्वीकार करने/रखने की अनुमति दी गई है । 3,277 कंपनियों के आवेदन पत्र अभी भी विभिन्न कानून/प्रक्रिया संबंधी कारणों से लम्बित हैं । इनमें से 2,916 आवेदन पत्रों पर वित्तीय कंपनी विनियमन विधेयक, 2002 के कानून बन जाने पर विचार किया जाएगा ।

143. कुछ गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां अनिश्चित अवधि के लिए अथवा ब्याज दर और शोधन के संबंध में बिना किसी शर्त के मांग ऋण मंजूर कर रही थीं । ऐसे ऋणों के मामले में आय निर्धारण, परिसंपत्ति वर्गीकरण और प्रावधानीकरण के विवेकपूर्ण मानदंडों के साथ अनुपालन सुनिश्चित करने में कठिनाई होती थी । इन कठिनाइयों को हल करने के लिए तथा यह सुनिश्चित करने के लिए, कि ऐसे सभी ऋणों का उपयुक्त वर्गीकरण हो और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के वित्तीय विवरणों में अनर्जक परिसंपत्तियों की स्थिति का सही-सही प्रतिबिम्ब हो, यह निर्णय लिया गया कि मांग ऋण स्वीकृत करने वाली/करने की इच्छुक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को अपने बोड़ के अनुमोदन से इस संबंध में एक नीति निर्धारित करनी चाहिए । इस नीति में ऐसे पहलू शामिल रहने चाहिए, यथा - अंतिम तिथि जिसके भीतर ऋण की चुकौती की मांग की जाएगी, ब्याज दर तथा ब्याज भुगतान के लिए आवधिक अंतराल का प्रावधान, ऋण निष्पादन की समीक्षा करने के लिए अधिक-से-अधिक 6 महीने तक की अंतिम तिथि, ऋण के नवीकरण के मानदंड, आदि । अनर्जक परिसंपत्ति वर्गीकरण और प्रावधानीकरण अपेक्षा संबंधी अनुदेश भी जारी किए गए हैं ।

144. गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के विनियामक/पर्यवेक्षीय ढांचे को और मजबूत करने के लिए निम्नलिखित उपाय प्रस्तावित हैं ।

(क) गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी क्षेत्र के लिए स्वविनियामक संगठन का गठन

145. रिज़र्व बैंक ने गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी क्षेत्र की कार्य प्रणाली में सुधार की प्रक्रिया में विवेकपूर्ण मानदंडों के अनुसार तेजी लाने के लिए अनेक कदम उठाए हैं । इस क्षेत्र के और विकास के लिए, खासकर छोटी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लाभ के लिए एक स्वविनियामक संगठन के गठन पर जोर दिया गया है । इस प्रयोजन से, जैसा कि अक्तूबर 2001 की मध्यावधिक समीक्षा में उल्लेख किया गया था, भारतीय रिज़र्व बैंक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के अनौपचारिक परामर्शी समूह और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के विभिन्न संघों से निरंतर चर्चा करता आ रहा है । अनौपचारिक परामर्शी समूह की 11 मार्च 2002 को हुई बैठक में इस मामले पर चर्चा की गई तथा गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी के संघों के प्रतिनिधियों ने यह सूचित किया है कि स्वविनियामक संगठन शीघ्र गठित किया जाएगा ।

(ख) गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों द्वारा विवरणियों का प्रेषण

146. गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे भारतीय रिज़र्व बैंक को आवधिक नियंत्रण विवरणी भेजें । परंतु इस क्षेत्र में शिथिलता देखी जा रही है । अत:, अनुशासन लागू करने के लिए यह निर्णय लिया गया है कि विवरणी नहीं भेजने पर गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के विरुद्ध कार्रवाई की जाएगी । तदनुसार, पहली चूक की स्थिति में :

  • विवरणी भेजने में चूक होने पर जनता से 50 करोड़ रुपए और उससे अधिक की जमाराशियां रखनेवाली गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के पंजीकरण प्रमाण पत्र को अस्वीकृत करने/रद्द करने पर विचार करने के अलावा, भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 के प्रावधानों के अनुसार भारतीय रिज़र्व बैंक दंड आरोपित करेगा तथा मुकदमे की कार्रवाई आरंभ करेगा ।

147. गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के आकार के संबंध में उपर्युक्त व्यवस्था (अर्थात् 50 करोड़ रुपए और उससे अधिक) को उत्तरोत्तर रूप से कम किया जाएगा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि यथासंभव सभी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां समय पर आवधिक विवरणियां प्रस्तुत करती हैं ।

रिज़र्व बैंक के साथ चालू खाता सुविधा का युक्तीकरण

148. जैसा कि अक्तूबर 2001 की मध्यावधिक समीक्षा में उल्लेख किया गया था, मांग/नोटिस मुद्रा बाजार से गैर-बैंकों को क्रमिक रूप से हटाने, अदायगी प्रणाली संबंधी मूलभूत सुविधा का उन्नयन करने, यथा, सीसीआइएल और एनडीएस आरंभ करने तथा केवल बैंकों और प्राथमिक व्यापारियों के माध्यम से खुला बाजार परिचालन/चलनिधि समायोजन सुविधा का परिचालन करने के परिप्रेक्ष्य में एक आंतरिक समूह स्थापित किया गया जो रिज़र्व बैंक द्वारा दी जा रही चालू खाता सुविधा की वर्तमान नीति को युक्तिसंगत बनायेगा । इससे गैर-बैंकाें को भारतीय रिज़र्व बैंक के चालू खाता तक पहुंच की आवश्यकता नहीं रहेगी । इस संदर्भ में, भारतीय रिज़र्व बैंक के वरिष्ठ कार्यपालकों का एक समूह गठित किया गया जो रिपोर्ट की सिफारिशों की जांच करेगा, संशोधन सुझाएगा तथा आवश्यक अनुवर्ती कार्रवाई करेगा । यह सुनिश्चित करने के लिए कि रिज़र्व बैंक की चालू खाता सुविधा अपने केंद्रीय उद्देश्यों को पूरा करे, यह निर्णय लिया गया है कि चालू खाता सुविधा केवल अनुसूचित वाणिज्य बैंकों, अनुसूचित सरकारी बैंकों और प्राथमिक व्यापारियों को ही दी जाएगी । उपर्युक्त के अलावा, अन्य संस्थाओं को दी जानेवाली चालू खाता सुविधा धीरे-धीरे समाप्त कर दी जाएगी । अखिल भारतीय वित्तीय संस्थाओं से संबंधित चालू खाता सुविधा को समाप्त करने का कार्यक्रम भी साथ-साथ बनाया जाएगा । बाद में एनएसडीएल, सीडीएसएल - जैसे निक्षेपागार और एसएचसीआईएल - जैसे अभिरक्षकों की चालू खाता सुविधा को समाप्त किया जाएगा और इसके बाद वे बैंकों के माध्यम से कारबार कर सकेंगे ।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानक और संहिताएं

149. अक्तूबर 2001 की मध्यावधिक समीक्षा में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानक और संहिता संबंधी परामर्शी समूहों द्वारा की गई प्रगति का उल्लेख किया गया है । स्थायी समिति द्वारा गठित सभी परामर्शी समूहों ने अपनी रिपोर्टें स्थायी समिति के अध्यक्ष को दे दी हैं । यह भी बताया गया है कि स्थायी समिति स्वयं रिपोर्ट तैयार करेगी जिसमें अनुवर्ती कार्रवाई के तरीके/अपेक्षित सुधार तथा इन अनुवर्ती कार्रवाइयों में लगी विनियामक एजेंसियों का उल्लेख होगा । स्थायी समिति, सभी परामर्शदात्री दलों के विचारों एवं अभिमतों को संश्लेषित कर रही है और उसकी अंतिम रिपोर्ट व्यापक प्रसार एवं उपयुक्त अनुवर्ती कार्रवाई के लिए शीघ्र ही सार्वजनिक की जाएगी ।

अल्पावधि चलनिधि मूल्यांकन मॉडल

150. सुदृढ़ आधार पर मौद्रिक नीति परिचालनों को दिशा-निर्देशित करने के महत्व को ध्यान में रखते हुए अप्रैल 1999 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में एक ऐसा अल्पकालिक परिचालन मॉडल विकसित करने की आवश्यकता का उल्लेख किया गया था जो वित्तीय प्रणाली के विभिन्न घटकों के बीच व्यवहारगत संबंधों को विचार में लेता हो । प्रमुख शैक्षणिक विशेषज्ञों के एक दल के मार्गदर्शन में एक परिचालन मॉडल का विकास कर लिया गया है जिसका परीक्षण किया जा रहा है । इस प्रारूप मॉडल को भारतीय रिज़र्व बैंक के वेबसाइट पर भी डाला जाएगा ताकि उस पर व्यापक जन चर्चा हो सके । इस मॉडल का परिचालन होने पर मौद्रिक नीति की कूटनीति में सहायता की दृष्टि से एक तकनीकी समिति के गठन की संभावना हो सकती है । यह महसूस किया जाता है कि भविष्य में एक तकनीकी मौद्रिक नीति समिति एक ‘बैक-ऑफिस’ की तरह कार्य करेगी जो कुछ अन्य सेंट्रल बैंकों की तरह विभिन्न वैकल्पिक नीति संबंधी रणनीति तैयार करेगी ।

मध्यावधि समीक्षा

151. चालू वर्ष की पहली छमाही में ऋण और मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा अक्तूबर 2002 में की जाएगी । यह मध्यावधि समीक्षा मौद्रिक गतिविधियों तथा ऐसे परिवर्तनों तक सीमित रहेगी जो वर्ष की दूसरी छमाही के लिए मौद्रिक नीति और अनुमानों के लिए आवश्यक होंगे ।

मुंबई

29 अप्रैल, 2002

संलग्नक

भारतीय रिज़र्व बैंक कार्यकारी दल - प्रगति रिपोर्ट
बैंक धोखाधड़ियों के संबंध में गठित विशेषज्ञ समिति

बैंक धोखाधड़ी के संबंध में गठित विशेषज्ञ समिति (अध्यक्ष : डॉ.एन.एल. मित्र) ने अपनी रिपोर्ट भारतीय रिज़र्व बैंक को सितंबर 2001 को सौंपी । पर्यवेक्षण बोड़ के निदेशों के अनुसार रिपोर्ट की जांच की गई तथा भारतीय रिज़र्व बैंक की टिप्पणियों के साथ रिपोर्ट को केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा गठित बैंकिंग क्षेत्र में धोखाधड़ियों के संबंध में गठित उच्च स्तरीय समूह को उसकी जांच और टिप्पणियों के लिए भेज दिया गया ।

बैंकों के बोर्डों की आंतरिक पर्यवेक्षी भूमिका को
सुदृढ़ बनाने के लिए परामर्शदात्री समूह

डॉ. ए.एस.गांगुली, निदेशक, केंद्रीय बोड़, भारतीय रिज़र्व बैंक की अध्यक्षता में बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के निदेशकों के परामर्शदात्री समूह का गठन, सरकार/ भारतीय रिज़र्व बैंक के विचारार्थ ऐसे उपाय सुझाने के लिए किया गया जिनका उपयोग प्रचलित वित्तीय सुधारों, जो बैंक के बोर्डों को और अधिक स्वायत्तता और अधिकार प्रदान करता है, को देखते हुए वित्तीय संस्थाओं के बोर्डों की आंतरिक पर्यवेक्षी भूमिका को सुदृढ़ बनाने में किया जा सकता है । समूह ने अपनी रिपोर्ट हाल ही में सौंपी है जो जांच के अधीन है ।

पारदर्शिता और लेखा स्तर

श्री एन.डी.गुप्ता, अध्यक्ष, आइसीएआइ की अध्यक्षता में भारतीय रिज़र्व बैंक और वाणिज्यिक बैंकों के प्रतिनिधियों के साथ एक कार्यकारी दल का गठन, आइसीएआइ द्वारा जारी लेखा स्तर के अनुपालन की पहचान और उनके अनुपालन में हुई कमियों के लिए उपयुक्त व्यवस्था करने और ऐसी कमियों को दूर/कम करने की कार्रवाई की सिफारिश के लिए किया गया । कार्यकारी समूह, अन्य बातों के साथ-साथ, लेखा स्तर को अपनाने में बैंक द्वारा झेली जा रही समस्याओं का विश्लेषण करेगा तथा इस संबंध में उपयुक्त मार्गदर्शी सिद्धांत विकसित करेगा । रिपोर्ट की प्रतीक्षा है ।

चूककर्ताओं की सूची - व्याप्ति को बढ़ाना

श्री एस.आर.अय्यर, अध्यक्ष, क्रेडिट इंफर्मेशन ब्यूरो (इंडिया) लि. की अध्यक्षता में एक कार्य-दल का गठन किया गया था जिसमें भारतीय रिज़र्व बैंक, वाणिज्य बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं के प्रतिनिधि शामिल हैं । इस कार्य-दल को इरादतन चूककर्ताओं सहित चूककर्ताओं की सूची तथा दावा दायर किए गए खातों की सूची पर सूचना एकत्र करने और प्रसारित करने की भूमिका क्रेडिट इंफर्मेशन ब्यूरो (इंडिया) लिमिटेड को सौंपने की संभावना की जांच करने का काम सौंपा गया है । वर्तमान में यह कार्य भारतीय रिज़र्व बैंक कर रहा है । इस समूह ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है जो परीक्षणाधीन है ।

ऋण सूचना ब्यूरो

श्री एस.आर.अय्यर, अध्यक्ष क्रेडिट इंफर्मेशन ब्यूरो (इंडिया) लि. की अध्यक्षता में एक कार्यदल गठित किया गया था जिसमें बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और भारतीय रिज़र्व बैंक के प्रतिनिधि शामिल थे । इस कार्यदल को ऋण के प्राइवेट प्लेसमेंट पर सूचना एकत्र करने और परस्पर शेयर करने हेतु एक ढांचा विकसित करने का काम सौंपा गया था । इस कार्यदल द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट की जांच की जा रही है ।

RbiTtsCommonUtility

प्ले हो रहा है
सुनें

संबंधित एसेट

आरबीआई-इंस्टॉल-आरबीआई-सामग्री-वैश्विक

RbiSocialMediaUtility

आरबीआई मोबाइल एप्लीकेशन इंस्टॉल करें और लेटेस्ट न्यूज़ का तुरंत एक्सेस पाएं!

Scan Your QR code to Install our app

RbiWasItHelpfulUtility

क्या यह पेज उपयोगी था?