वर्ष 2004-05 के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. वाइ. वेणुगोपाल रेड्डी का वार्षिक नीति वक्तव्य - आरबीआई - Reserve Bank of India
वर्ष 2004-05 के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. वाइ. वेणुगोपाल रेड्डी का वार्षिक नीति वक्तव्य
वर्ष 2004-05 के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. वाइ. वेणुगोपाल रेड्डी का वार्षिक नीति वक्तव्य
रिज़र्व बैंक के नीतिगत दस्तावेजों से समय-समय पर किये गये मौद्रिक तथा अन्य प्रासंगिक उपायों के लिए एक ढांचा मिलता है तथा ये समष्टि आर्थिक मूल्यांकनों को प्रभावित करने वाले औचित्य अथवा अंतर्निहित कारकों को दर्शाते हैं। ये दस्तावेज़ वित्तीय क्षेत्र के संरचनात्मक एवं विवेकपूर्ण पहलुओं से संबंधित तर्क, उद्देश्यों और कार्यों को भी तय करते हैं। इस वक्तव्य में पिछले वर्षों में निर्धारित स्वरूप को ही स्थूल रूप से अपनाया गया है। इसमें उन विभिन्न क्षेत्रों को निरूपित किया गया है और विशद रूप से दर्शाया गया है, जिन क्षेत्रों में रिज़र्व बैंक समय-समय पर उपाय करता रहा है और इसमें वर्ष 2004-05 के लिए अपनायी जाने वाली स्थूल नीतियों पर ध्यान केंद्रित किया गया है, जबकि उत्पन्न होने वाली परिस्थितियों की आवश्यकता के अनुसार तत्काल और कारगर विशिष्ट उपाय करने के लिए लचीलापन बनाये रखा गया है।
2. इस वक्तव्य के तीन भाग हैं : (घ्) वर्ष 2003-04 के दौरान समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा; (घ्घ्) 2004-05 के लिए मौद्रिक नीति का रुझान; और (घ्घ्घ्) वित्तीय क्षेत्र के सुधार तथा मौद्रिक नीति संबंधी उपाय। इसके अतिरिक्त साधारण चार्टों और सारणियों की सहायता से आवश्यक जानकारी और तकनीकी विश्लेषण प्रस्तुत करने के लिए पफ्थक दस्तावेज़ के रूप में, समष्टि आर्थिक तथा मौद्रिक गतिविधियों की विश्लेषणात्मक समीक्षा भी जारी की जा रही है, जैसा कि पहले होता रहा है।
घ्. वर्ष 2003-04 के दौरान समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा
घरेलू गतिविधियां
3. 29 अप्रैल 2003 को जारी किये गये मौद्रिक एवं ऋण नीति संबंधी वार्षिक वक्तव्य में 2003-04 के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि का अनुमान नीतिगत प्रयोजनों के लिए 6.0 प्रतिशत था। तब से हुई गतिविधियों की समीक्षा के आधार पर रिज़र्व बैंक ने सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि के संबंध में अपने अनुमान को समय-समय पर बढ़ाया है और जनवरी 2004 में उर्ध्वगामी प्रवफ््य्त के साथ 7.0 प्रतिशत के सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि अनुमानित की गयी थी। केंद्रीय सांख्यिकी संगठन द्वारा 2003-04 के लिए फरवरी 2004 में जारी किया गया सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि का अग्रिम अनुमान इससे उच्चतर अर्थात् 8.1 प्रतिशत बताया गया था।
4. पिछले वर्ष के 4.0 प्रतिशत के सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि की तुलना में वर्ष 2003-04 में 8.1 प्रतिशत की उच्चतर सकल घरेलू उत्पाद वफ्द्धि वफ्षि उत्पादन में उछाल दर्शाती है। सकल घरेलू उत्पाद में वफ्षि एवं सम्बद्ध कार्यकलापों के योगदान से पिछले वर्ष में 5.2 प्रतिशत की गिरावट की तुलना में वर्ष 2003-04 में 9.1 प्रतिशत की वफ्द्धि का अनुमान लगाया गया है। औद्योगिक क्षेत्र की 6.6 प्रतिशत की समग्र वफ्द्धि भी पिछले वर्ष की 6.2 प्रतिशत की वफ्द्धि से उच्चतर है, जो विनिर्माण और साथ ही ‘बिजली, गैस और जलपूर्ति’ में उच्चतर वफ्द्धि की द्योतक है। सेवा क्षेत्र में पिछले वर्ष की 7.2 प्रतिशत वफ्द्धि की तुलना में 8.2 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई है।
5. थोक मूल्य सूचकांक में घट-बढ़ द्वारा मापी गयी मुद्रास्पीति की वार्षिक दर, बिंदु दर बिंदु आधार पर, मार्च 2003 के अंत में 6.5 प्रतिशत थी, जो मार्च 2004 के अंत में घटकर 4.5 प्रतिशत हो गयी, हालांकि इसमें वर्ष के दौरान घट-बढ़ होती रही थी। वर्ष 2003-04 के दौरान मुद्रास्पीति में गिरावट प्राथमिक वस्तुओं और ईंधन समूह के मूल्यों में कम वफ्द्धि दर्शाती है। प्राथमिक वस्तुओं (भार:22.0 प्रतिशत) के मूल्यों में 1.7 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई, जो पिछले वर्ष की 6.1 प्रतिशत की वफ्द्धि की तुलना में कम है। इसी प्रकार, ‘इंधन, पॉवर, बिजली और चिकनाई के पदार्थ’ समूह (भार:14.2 प्रतिशत) में पिछले वर्ष 10.8 प्रतिशत की वफ्द्धि की तुलना में 2.7 प्रतिशत की कम वफ्द्धि हुई। दूसरी ओर, विनिर्मित उत्पादों (भार: 63.7 प्रतिशत) के मूल्यों में पिछले वर्ष की 5.1 प्रतिशत वफ्द्धि की तुलना में 6.3 प्रतिशत की उच्चतर वफ्द्धि हुई।
6. ‘इंधन, पॉवर, बिजली और चिकनाई के पदार्थ’ समूह (भार:14.2 प्रतिशत) को छोड़ दें तो वार्षिक मुद्रास्पीति पिछले वर्ष की 5.4 प्रतिशत की तुलना में 4.9 प्रतिशत रही। खाद्य वस्तुओं और ईंधन समूह (भार:29.6 प्रतिशत) को छोड़कर मुद्रास्पीति की दर 6.0 प्रतिशत रही, जो पिछले वर्ष 6.6 प्रतिशत थी।
7. वर्ष 2003-04 में मुद्रास्पीति की वार्षिक दर, जो थोक मूल्य सूचकांक में औसत वफ्द्धि के आधार पर मापी जाती है, पिछले वर्ष की 3.4 प्रतिशत की तुलना में 5.4 प्रतिशत थी। औद्योगिक श्रमिकों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में घट-बढ़ द्वारा मापी गयी मुद्रास्पीति की वार्षिक दर, बिंदु दर बिंदु आधार पर, पिछले वर्ष की 4.1 प्रतिशत की वफ्द्धि की तुलना में वर्ष 2003-04 में कम अर्थात् 3.5 प्रतिशत थी। औसत आधार पर, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में परिलक्षित मुद्रास्पीति भी पिछले वर्ष की 4.0 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2003-04 में थोड़ी कम अर्थात् 3.9 प्रतिशत थी।
8. उपलब्ध अद्यतन आंकड़ों के अनुसार, थोक मूल्य सूचकांक पर आधारित वार्षिक मुद्रास्पीति, बिंदु दर बिंदु आधार पर एक वर्ष पहले की 6.9 प्रतिशत की तुलना में 1 मई 2004 को कम अर्थात् 4.2 प्रतिशत थी। पिर भी, वार्षिक औसत आधार पर, थोक मूल्य सूचकांक से संबद्ध मुद्रास्पीति 3.9 प्रतिशत की तुलना में 5.2 प्रतिशत पर उच्चतर थी।
9. वर्ष 2003-04 में मुद्रा आपूर्ति (एम3) में विलयन के लिए समायोजन के बाद, वफ्द्धि 16.4 प्रतिशत (2,81,147 करोड़ रुपए) थी, जबकि पिछले वर्ष वह 12.8 प्रतिशत (1,91,177 करोड़ रुपए) थी। अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशियों में वफ्द्धि, विलयन के लिए समायोजन के बाद, 17.3 प्रतिशत (2,21,078 करोड़ रुपए) थी, जो पिछले वर्ष की 13.4 प्रतिशत (1,47,822 करोड़ रुपए) की तुलना में अधिक थी। जनता के पास मुद्रा में वफ्द्धि भी पिछले वर्ष की 12.7 प्रतिशत (30,587 करोड़ रुपए) की तुलना में अधिक अर्थात् 16.7 प्रतिशत (45,376 करोड़ रुपए) थी। जहां तक एम3 में परिवर्तन के स्रोतों का संबंध है, वाणिज्य क्षेत्र को बैंक ऋण में वफ्द्धि 2003-04 में 13.3 प्रतिशत (1,18,986 करोड़ रुपए) थी, जो 2002-03 में, विलयन को घटाकर, 11.5 प्रतिशत (87,897 करोड़ रुपए) से उच्चतर थी। बैंकिंग क्षेत्र की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में 30.9 प्रतिशत (1,21,589 करोड़ रुपए) की वफ्द्धि हुई, जो रिज़र्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में 35.2 प्रतिशत (1,26,169 करोड़ रुपए) की वफ्द्धि के कारण थी। किंतु सरकार को निवल बैंक ऋण में 10.0 प्रतिशत (67,538 करोड़ रुपए) की वफ्द्धि पिछले वर्ष की 14.4 प्रतिशत (84,865 करोड़ रुपए) वफ्द्धि से कम थी। इसका कारण भारी मात्रा में विदेशी मुद्रा आने के प्रभाव को समाप्त करने के लिए रिज़र्व बैंक द्वारा किये गये भारी खुले बाजार परिचालनों से सरकार को रिज़र्व बैंक के निवल ऋण में भारी गिरावट 75,772 करोड़ रुपए (जो 2002-03 में 31,499 करोड़ रुपए थी) था ।
10. उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार एम3 में साल-दर-साल वफ्द्धि अप्रैल 2004 के अंत में 16.1 प्रतिशत थी, जब कि एक वर्ष पहले यह 11.8 प्र्य्तशत ही थी। अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशियों में 12.2 प्रतिशत की तुलना में 17.1 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई। जनता के पास मुद्रा में 11.4 प्रतिशत की तुलना में 15.9 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई।
11. वर्ष 2003-04 के दौरान आरक्षित मुद्रा में 18.3 प्रतिशत (67,368 करोड़ रुपए) की वफ्द्धि हुई, जो पिछले वर्ष की 9.2 प्रतिशत (31,091 करोड़ रुपए) की तुलना में अधिक थी। जहां तक आरक्षित मुद्रा के घटकों का संबंध है, संचलन में मुद्रा में 15.8 प्रतिशत (44,550 करोड़ रुपए) की वफ्द्धि हुई, जब कि पिछले वर्ष इसमें 12.6 प्रतिशत (31,499 करोड़ रुपए) की ही वफ्द्धि हुई थी। आरक्षित मुद्रा में साल-दर-साल 13.2 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई थी और रिज़र्व बैंक के पास बैंकरों की जमाराशियों में 2003-04 के अंतिम शुक्रवार (26 मार्च 2004) को 3.3 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई, जो स्थूल रूप से इन चर (प्रभावित करने वाली) वस्तुओं की प्रवफ्त्ति को दर्शाती है। जहां तक आरक्षित मुद्रा के स्रोतों का संबंध है, रिज़र्व बैंक की विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों (पुनर्मूल्यन के ्य्लए समायो्य्जत) में पिछले वर्ष की 82,089 करोड़ रुपए के ऊपर 1,41,428 करोड़ रुपए की और वफ्द्धि हुई। किंतु, विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों के विस्तारक प्रभाव को कापी हद तक भारी खुले बाजार परिचालनों ने कम कर दिया। हर परिचालनों में चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत लगातार रिपो परिचालन भी शामिल हैं। परिणामस्वरूप, केंद्र सरकार को रिज़र्व बैंक के शुद्ध ऋण में पिछले वर्ष की 20.1 प्रतिशत (28,399 करोड़ रुपए) के ्य्गरावट के ऊपर 67.3 प्रतिशत (76,065 करोड़ रुपए) की और गिरावट आयी। बैंकों और वाणिज्य क्षेत्र को रिज़र्व बैंक के ऋण में भी बेहतर बाजार चलनिधि के कारण 2,728 करोड़ रुपये की गिरावट आयी जबकि इसकी तुलना में पिछले वर्ष 6,468 करोड़ रुपये की गिरावट आयी थी। मुद्रा की तुलना में निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों का अनुपात मार्च 2003 के अंत के 126.8 प्रतिशत से बढ़कर मार्च 2004 के अंत में 148.1 प्रतिशत हो गया, जो आरक्षित राशियों के भारी संचय का द्योतक है।
12. अद्यतन आंकड़ों के अनुसार आरक्षित मुद्रा में साल-दर-साल वफ्द्धि 7 मई 2004 को 13.3 प्रतिशत थी जो एक वर्ष पहले 8.9 प्रतिशत थी।
13. अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के ऋणों में 2003-04 के दौरान 14.6 प्रतिशत (1,06,167 करोड़ रुपये) की वफ्द्धि हुई, जबकि पिछले वर्ष में, विलयनों को घटाकर 16.1 प्रतिशत (94,949 करोड़ रुपये) की वफ्द्धि हुई थी। किंतु खाद्य ऋण में पिछले वर्ष की 4,499 करोड़ रुपये की गिरावट की तुलना में 13,518 करोड़ रुपये की गिरावट आयी, जिसका कारण खाद्यान्न का अधिक उठान था। खाद्यान्न का सुरक्षित भंडार मार्च 2003 के अंत में 32.8 मिलियन टन था जो घटकर 20.7 मिलियन टन (1 अप्रैल 2004 तक) हो गया।
14. अद्यतन आंकड़ों के अनुसार बैंक ऋण में साल-दर-साल वफ्द्धि एक वर्ष पहले की 13.8 प्रतिशत की तुलना में अप्रैल 2004 के अंत में 18.2 प्रतिशत थी।
15. खाद्येतर ऋण में 2003-04 के दौरान 17.6 प्रतिशत (1,19,685 करोड़ रुपये) की वफ्द्धि हुई जबकि पिछले वर्ष में विलयनों को घटाकर, 18.6 प्रतिशत (99,448 करोड़ रुपये) की वफ्द्धि हुई थी। वर्ष का प्रारंभ ऋण लेने में धीमी गति से हुआ जो पहले 5 महीनों में बना रहा। बाद के महीनों में ऋण में कापी वफ्द्धि हुई। खाद्येतर ऋण में आवास और फुटकर क्षेत्रों की प्रधानता रही, वहीं औद्योगिक ऋण में वफ्द्धि सितंबर 2003 से शुरू हुई। ऋण वफ्द्धि की एक खास बात यह थी कि प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को बैंक ऋण कापी दिया गया, जिसमें 52,279 करोड़ रुपये अथवा लगभग 25 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई। आवास और मूलभूत संरचना दोनों में प्रत्येक के लिए बैंक ऋण में लगभग 42 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई।
16. उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार खाद्येतर बैंक ऋण में साल-दर-साल वफ्द्धि अप्रैल 2004 के अंत में 20.5 प्रतिशत थी, जबकि एक वर्ष पहले यह 16.4 प्रतिशत थी।
17. अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से वाणिज्यिक क्षेत्र को निधियों का कुल प्रवाह, सरकारी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों और निजी क्षेत्र की कंपनियों के बांडों/डिबेंचरों/शेयरों, वाणिज्यिक पत्र, आदि में बैंकों के निवेश सहित हुई वफ्द्धि पिछले वर्ष में, विलियनों को घटाकर, हुई 17.9 प्रतिशत (1,10,501 करोड़ रुपये) की वफ्द्धि की तुलना में 15.1 प्रतिशत (1,17,008 करोड़ रुपये) थी। वाणिज्यिक क्षेत्र को पूंजी निर्गम अमरीकी डिपॉज़िटरी रसीदों/ग्लोबल डिपॉज़िटरी रसीदों और वित्तीय संस्थाओं से उधार राशियों सहित वाणिज्यिक क्षेत्र को संसाधनों का कुल प्रवाह पिछले वर्ष के 1,33,631 करोड़ रुपये की तुलना में उच्चतर अर्थात् 1,73,789 करोड़ रुपये था।
18. औद्योगिक ऋण की वफ्द्धि में अप्रैल-अगस्त 2003 के दौरान गिरावट आयी, लेकिन उसके बाद स्पष्ट सुधार हुआ। औद्योगिक ऋण में सितंबर-मार्च में लगभग 32 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई थी जो पिछले वर्ष की तदनुरूप अवधि से अधिक है। 2003-04 के दौरान मूलभूत संरचना के उद्योगों अर्थात् सड़कों और बंदरगाहों, पावर और दूरसंचार को ऋण प्रवाह में कापी वफ्द्धि हुई। बिजली, औषधियों और पार्मेस्टिकल्स, खाद्य, प्रसंस्करण और कंप्यूटर साप्टवेयर जैसे उद्योगों को ऋण प्रवाह में भी स्पष्ट वफ्द्धि हुई। सूती वस्त्र, जूट टेक्सटाईल, रत्न और आभूषण, कागज़ और कागज़ के उत्पादों, चाय और निर्माण जैसे महत्वपूर्ण परंपरागत उद्योगों को भी उच्चतर ऋण प्रवाह रहा। दूसरी ओर पेट्रोलियम, सीमेंट और लोहा और इस्पात जैसे उद्योगों के लिए बैंक ऋण में कापी गिरावट आयी।
19. केंद्र सरकार ने बजट में मूल रूप से रखी गयी 1,07,194 करोड़ रुपये (सकल 1,66,230) की निवल उधार राशि की तुलना में अंतरिम बजट में बाज़ार से शुद्ध उधार राशियों में कम अर्थात् 82,982 करोड़ रुपये (सकल 1,44,491 करोड़ रुपये) का संशोधित प्रावधान किया। वर्ष 2003-04 के दौरान केंद्र सरकार द्वारा ली गयी वास्तविक निवल उधार राशियां 88,816 करोड़ रुपये (सकल 1,47,636 करोड़ रुपये) थीं। राज्य सरकारों की निवल उधार राशियां 46,376 (सकल 50,521 करोड़ रुपये) थीं। वर्ष 2003-04 के दौरान केंद्र और राज्यों की बाज़ार से संयुक्त रूप से ली गयीं निवल उधार राशियां 1,35,192 करोड़ रुपये (सकल 1,98,157 करोड़ रुपये) थीं।
20. दिनांकित प्रतिभूतियों की प्राथमिक निर्गम के माध्यम से केंद्र सरकार की उधार राशियों की भारांकित औसत लागत में वर्ष 2002-03 के दौरान 163 आधार अंक र्(ँीेवे झ्दवहूे) की कमी आयी और वह 7.34 प्रतिशत से घटकर 2003-04 में 5.71 प्रतिशत रह गयी। जारी की गयी दिनांकित प्रतिभूतियों की भारांकित औसत अवधिपूर्णता पिछले वर्ष की 13.83 वर्ष की तुलना में 2003-04 में अधिक अर्थात् 14.94 वर्ष थी।
21. वर्ष 2003-04 में राज्य सरकारों के बाज़ार से शुद्ध उधार 46,376 करोड़ रुपये थे, जो पिछले वर्ष (30,933 करोड़ रुपये) से कापी अधिक थे, जिनका कारण मुख्यत: राज्यों के उच्च लागत वाले ऋण को केंद्र को चुकाकर केंद्र सरकार और राज्य सरकारों के बीच परस्पर सहमति से ऋण के 26, 623 करोड़ रुपये का स्वैप था।
22. सरकार के लगातार बने रहने वाले बड़े उधार कार्यक्रम कारगर मौद्रिक और ऋण प्रबंधन के लिए मायने रखते हैं। बैंकिंग प्रणाली के पास उनकी शुद्ध मांग और मीयादी देयताओं के 41.5 प्रतिशत तक की सरकारी प्रतिभूतियां पहले से हैं, जबकि न्यूनतम सांविधिक अपेक्षा 25 प्रतिशत ही है। मात्रा की दृष्टि से सांविधिक चलनिधि अनुपात से ऊपर इस प्रकार की धारिताएं 2,69,777 करोड़ रुपये थीं, जो सरकार की वार्षिक सकल उधार राशियों से बहुत अधिक हैं। बैंकों के पास सरकारी प्रतिभूतियों की इस प्रकार की भारी धारिता से ब्याज दर जोखिम कापी रहता है, क्योंकि सरकारी प्रंतिभूतियों पर प्रतिलाभ पहले से ऐतिहासिक रूप से निम्न स्तर पर है। अत: मध्यावधि दृष्टिकोण से राजकोषीय समेकन पर तत्परता से ध्यान देना और उसे हल करना आवश्यक हो जाता है। वर्ष 2003-04 के लिए केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा 1,53,637 करोड़ रुपये के बजट अनुमान की तुलना में संशोधित करके 1,32,103 करोड़ रुपये रखा गया। घाटे के सभी महत्वपूर्ण संकेतक उनके तदनुरूप बजट स्तर से नीचे रखे गये। इसका उद्देश्य राजस्व खाते में वर्ष 2007-08 में एक संतुलन प्राप्त करना है, जैसा कि राजकोषीय उत्तरदायित्व और बजट प्रबंधन अधिनियम, 2003 में अभिकल्पित है।
23. वर्ष 2003-04 मे राजकोषीय घाटे में कमी राजस्व में उछाल, राजस्व व्यय में कमी, पूंजीगत व्यय में कुछ कटौती और विनिवेश से प्राप्त अधिक राशियों के कारण थी। वर्ष 2003-04 के लिए संशोधित अनुमानों और 2004-05 के लिए अनुमानों के परिणाम के बावजूद पूंजीगत व्यय को बढ़ाने की अत्यधिक आवश्यकता है।
24. बाज़ार में औसत मांग मुद्रा दर मार्च 2003 के 5.86 प्रतिशत से 149 आधार अंक कम होकर मार्च 2004 में 4.37 प्रतिशत रह गयी तथा मई 2004 के मध्य तक और घटकर 4.28 प्रतिशत रह गयी। इसी प्रकार 91 दिवसीय और 364 दिवसीय खज़ाना बिलों पर कट-ऑप प्रति लाभ भी मार्च 2003 के 5.89 प्रतिशत से 151 और 144 आधार अंक घटकर मार्च 2004 में क्रमश: 4.38 और 4.45 प्रतिशत रह गया। एक वर्ष की शेष अवधिपूर्णता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रति लाभ उक्त अवधि में 5.50 प्रतिशत से 96 आधार अंक घटकर 4.54 प्रतिशत रह गया। 91 दिवसीय और 364 दिवसीय खज़ाना बिलों पर प्रति लाभ 12 मई, 2004 को क्रमश: 4.42 प्रतिशत और 4.45 प्रतिशत था।
25. वाणिज्य पत्रों (61-90 दिवसीय) पर भारांकित औसत भुनाई दर मार्च 2003 में 6.53 प्रतिशत थी जो 134 आधार अंक घटकर मार्च 2004 में 5.19 प्रतिशत रह गयी। यह दर अप्रैल 2004 के मध्य तक और भी घटकर 5.08 रह गयी। वर्ष के दौरान मुद्रा बाज़ार में एक रोचक गतिविधि यह थी कि बाज़ार ्य्रपो की मात्रा अप्रैल 2003 में लगभग 2000 करोड़ रुपये के दैनिक औसत पर थी, जो मार्च 2004 में बढ़कर लगभग 4,100 करोड़ रुपये हो गयी। ्य्रपो की मात्रा अप्रैल 2004 में और भी बढ़कर लगभग 5,200 करोड़ रुपये हो गयी और बाज़ार में ्य्रपो दर 3.7 प्रतिशत थी जो रात भर की मांग मुद्रा दर की तुलना में कम थी। इसी प्रकार संर्पाश्विक उधार और ऋण बाध्यता (सी बी एल ओ) बाज़ार की औसत दैनिक मात्रा भी मार्च 2003 में 40 करोड़ रुपये से कम से बढ़कर अप्रैल 2004 में लगभग 2500 करोड़ रुपये हो गयी (सी बी एल ओ भारतीय समाशोधन निगम लिमिटेड द्वारा प्रस्तुत एक मुद्रा बाज़ार लिखत है)।
26. 5 वर्ष और 10 वर्ष की शेष अवधिपूर्णता वाली प्रतिभूतियों पर प्रति लाभ क्रमश: 114 और 106 आधार अंक घट गया और मार्च 2003 के 5.92 और 6.21 प्रतिशत से घटकर मार्च 2004 तक क्रमश: 4.78 और 5.15 प्रतिशत रह गया। इसी प्रकार, 20 वर्ष की शेष अवधिपूर्णता वाली प्रतिभूतियों पर प्रति लाभ मार्च 2003 के 6.69 प्रतिशत से 84 आधार अंक घटकर मार्च 2004 में 5.85 प्रतिशत रह गया। 5 वर्ष, 10 वर्ष और 20 वर्ष की प्रतिभूतियों पर प्रति लाभ मई 2004 के मध्य तक थोड़ा बढ़कर क्रमश: 4.87 प्रतिशत, 5.20 प्रतिशत और 5.80 प्रतिशत हो गये।
27. कम अवधि पर प्रति लाभ में कमी अधिक होने से सरकारी प्रतिभूतियों पर अवधि संबंधी अंतर (स्प्रेड) थोड़ा बढ़ गया। 20 वर्ष तथा 1 वर्ष की शेष अवधि वाली सरकारी प्रतिभूतियों के बीच यह अंतर मार्च 2003 के 119 आधार अंक से बढ़कर मार्च 2003 में 131 आधार अंक हो गया। किंतु 10 वर्ष और 1 वर्ष की शेष अवधि वाली प्रतिभूतियों के बीच अंतर (स्प्रेड) मार्च 2003 के 71 आधार अंक से कम होकर मार्च 2004 में 61 आधार अंक रह गया। मई 2004 के मध्य में 20 वर्ष और 1 वर्ष के प्रति लाभों के बीच अंतर 132 आधार अंक था, जबकि 10 वर्ष और 1 वर्ष के लिए यह अंतर 72 आधार अंक था।
28. सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में प्रति लाभ की प्रवफ्त्ति के अनुरूप कारपोरेट पेपर पर प्रति लाभ भी घट गया। एएए श्रेणी वाले कारपोरेट बांड पर प्रति लाभ मार्च 2003 के 6.79 प्रतिशत से घटकर मार्च 2004 में 5.60 प्रतिशत रह गया। प्रति लाभों के साथ-साथ ऋण अंतर भी वर्ष भर में थोड़ा कम हो गया। उदाहरण के लिए, एएए श्रेणी वाले कारपोरेट बांडों और 5 वर्ष की शेष अवधि वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रतिलाभ के बीच अंतर (स्प्रेड) मार्च 2003 के 87 आधार अंक से घटकर मार्च 2004 में 82 आधार अंक रह गया, लेकिन मई 2004 के मध्य तक यह बढ़कर 91 आधार अंक हो गया था।
29. सरकारी क्षेत्र के बैंकों की एक वर्ष तक की परिपक्वता वाली जमाराशियों के लिए मीयादी जमा दरें मार्च 2003 में 4.00-6.00 प्रतिशत के दायरे में थीं, जो अप्रैल 2004 तक घटकर 3.75-5.25 प्रतिशत के बीच रह गयीं। इसी तरह, इस अवधि के दौरान एक वर्ष से अधिक की मीयादी जमाराशियों पर ब्याज दरें 5.25-7.00 प्रतिशत के दायरे से घटकर 5.00-5.75 प्रतिशत के बीच रह गयीं। 2003-04 में, सरकारी क्षेत्र के बैंकों द्वारा 15-29 दिन की अवधि और 3 वर्ष से अधिक की विशिष्ट जमा दरों के बीच का अंतर 175 आधार अंक पर अपरिवर्तित रहा। समग्र रूप से, पिछले तीन वर्ष में जमा दरों की मीयादी संरचना में भारी मंदी (प्लैट्निंग) रही है।
30. जमा दरों में गिरावट और निधियों की लागत में हो रही कमी के बावजूद, सरकारी क्षेत्र के बैंकों की मूल उधार दरों (पीएलआर) का दायरा अपरिवर्तित रहा है। पी एल आर में ्य्गरावट की कमी की प्रवफ्त्ति बनी रहने की दृष्टि से बेंचमार्क पी एल आर (बी पी एल आर) योजना अप्रैल 2003 के वार्षिक नीति वक्तव्य में निर्धारित की गयी थी जो ऋणों के निर्धारण में शामिल जटिलता को कम करने तथा बैंकों की ऋण दरों में पारदर्शिता की आवश्यकता पर ध्यान देने के लिए थी। बैंकों द्वारा नयी प्रणाली के सुचारू कार्यान्वयन के लिए, जैसा कि नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में घोषणा की गयी थी, भारतीय बैंक संघ ने अपने सदस्य बैंकों को एक परिपत्र जारी किया जिसमें बेंचमार्क पी एल आर की गणना के लिए बैंकों द्वारा अपनाये जानेवाले व्यापक मानदंड दिये गये हैं। इस बीच प्राय: सभी वाणिज्य बैंकों ने पहले की अवधि से संबद्ध पी एल आर के स्थान पर अपनी बेंचमार्क पी एल आर घोषित कर दी है। सरकारी क्षेत्र के बैंकों की बेंचमार्क पी एल आर का दायरा पहले के 10.0-12.25 प्रतिशत के पी एल आर दायरे की तुलना में घटकर 10.25-11.5 प्रतिशत रह गया है। सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने बी पी एल आर घोषित करते समय अपनी दरें 25 से 100 आधार अंक कम कर दी हैं। विदेशी और निजी क्षेत्र के बैंकों की मूल ऋण दरों की तुलना और भी स्पष्टता दर्शाती है, जो मार्च 2003 में 6.75-17.5 प्रतिशत के विस्तफ्त दायरे से घटकर मार्च 2004 में 10.5-14.85 प्रतिशत हो गयी है।
31. मार्च 2004 के अंत में सरकारी क्षेत्र के बैंकों की माध्यमिक (प्र्य्त्य्न्य्ध) की ऋण दर मांग और मीयादी ऋणों (जिस पर अधिकतम कारोबार की संविदा की जाती है) के लिए क्रमश: 11.0-12.75 प्रतिशत और 11.0-13.25 प्रतिशत के दायरे में थी, जो मार्च 2003 के 11.5-14.0 प्रतिशत और 12.0-14.0 प्रतिशत के तदनुरूप स्तरों की तुलना में कुछ नरमी दर्शाती है।
32. वर्ष 2003-04 में ब्याज दर में घट-बढ़ इस विचार की पुष्टि करती है कि बैंक निवेश घट-बढ़ आरक्षित निधियां बनायें जो उनके हित में होगा। इन निधियों का निर्माण बेहतर जोखिम प्रबंधन के लिए सहज और क्रमिक ढंग से किया जाये। यह स्मरणीय है कि जनवरी 2002 में रिज़र्व बैंक ने प्रस्ताव किया था कि बैंक अपने निवेश पोर्टपोलियो के न्यूनतम 5 प्रतिशत तक की निवेश घट-बढ़, आरक्षित निधि ‘व्यापार के लिए धारित’ और ‘बिक्री के लिए उपलब्ध’ श्रेणियों के अंतर्गत निर्मित करें। यह निर्माण 5 वर्ष की अवधि में निवेशों की बिक्री से प्रस्तुत लाभ को अंतरित करके किया जाना है। उनसे यह भी कहा गया कि वे अपनी कारोबारी योजनाओं में ऐसी आकस्मिकताओं के लिए पर्याप्त प्रावधान रखें जिनके बारे में पहले से कोई अंदाज नहीं होता और अपने परिचालन पर मौद्रिक और बाहरी परिवेश के परिवर्तनों से उत्पन्न प्रभाव का वह ध्यान रखें। वे अपने निजी जोखिम अनुमान के परिप्रेक्ष्य में अपने पोर्टपोलियो के 10 प्रतिशत तक की उच्चतर निवेश घट-बढ़ आरक्षित निधि बना सकते हैं, जो उनके पोर्टपोलियो की मात्रा और उसके गठन पर निर्भर करेगी। इसके लिए उन्हें अपने निदेशक मंडल की सहमति आवश्यक है।
33. विकासशील भारतीय बैंकिंग क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है और वहां स्पंदनशील, समर्थ और सुचारू रूप से कार्य करनेवाली प्रणाली के रूप में विकसित हुआ है। सहभागियों के बीच अधिक जवाबदेही और बाज़ार में अनुशासन लाने के लिए विनियामक और पर्यवेक्षी मानदंडों को सुदृढ़ करने, भारतीय स्थितियों के लिए उपयुक्त अंतरराष्ट्रीय बेंचमार्क अपनाने, प्रबंधन की प्रथाओं और कंपनी अनुशासन में सुधार तथा तकनीकी संरचना के उन्नयन के रिज़र्व बैंक के लगातार प्रयासों से बैंकिंग प्रणाली एक सुदृढ़, कुशल और लचीली प्रणाली के रूप में विकसित हुई है जो वैश्विक प्रतिस्पर्धा का मुकाबला कर सकती है। बैंकों के आस्ति देयता प्रबंधन और जोखिम प्रबंधन प्रणालियों के कार्यान्वयन में कापी प्रगति हुई है जिससे बैंक कारगर आंतरिक नियंत्रण प्रणाली, खज़ाना प्रबंधन में सुधार और उच्चतर लाभप्रदता प्राप्त कर सके। रिज़र्व बैंक के प्रयासों को वित्तीय क्षेत्र का प्रतिसाद उत्साहवर्धक रहा है और इसके परिणामस्वरूप सुधरे हुए विवेकपूर्ण बैंक मानदंड विकसित हुए हैं, जैसे कि बढ़ी हुई पूंजी पर्याप्तता और शुद्ध अनर्जक परिसंपत्तियों के अनुपात में कमी और अधिक स्थिरता मिली है। इसे अंतर्राष्ट्रीय रेटिंग एजेंसियों ने भी माना है और उन्होंने अपनी रेटिंग को बढ़ाया है। कानूनी ढांचे में ंजहां कतिपय परिवर्तन अभी भी किये जाने हैं, वहीं अब तक की गतिविधियों से भारतीय वित्तीय प्रणाली वैश्विक मानदंडों के अधिक निकट पहुंच गयी है।
34. अर्थव्यवस्था में अत्यधिक खुलेपन के माहौल में मौद्रिक प्रबंधन की गत्यात्मकता 2003-04 में स्पष्ट थी। कुछ महत्वपूर्ण पहलू निम्न प्रकार हैं : पहला, जब घरेलू पूंजी दर घरेलू मुद्रास्पीति के अनुकूल रही है, तब भी प्राप्त होने वाले आर्थिक लाभों की संभावना से भारी मात्रा में पूंजी आयी है। दूसरा, पूंजीगत और चालू खाते के लेनदेनों को कापी उदार बनाने से और अधिक पूंजी आयी है। तीसरे, देश में मुद्रास्फीति ने अंतरराष्ट्रीय मूल्य प्रवफ्त्तियों के ‘पास थ्रू’ प्रभावों को काफी हद तक दर्शाया।
35. रिज़र्व बैंक यह बात सुनिश्चित करना जारी रखेगा कि बैंकिंग प्रणाली में उचित चलनिधि बनी रहे, ताकि मूल्य स्थिरता के लक्ष्य के अनुरूप ऋण की सभी वास्तविक जरूरतें पूरी की जाएं। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए रिज़र्व बैंक, जब भी स्थिति के अनुसार जरूरी होगा, चलनिधि समायोजन सुविधा (एल ए एफ) सहित खुले बाज़ार के कार्यकलापों (ओ एम ओ) और अपने पास उपलब्ध अन्य नीतिगत साधनों का लचीले रूप से इस्तेमाल करके चलनिधि के सक्रिय प्रबंधन की अपनी नीति जारी रखेगा। इस परिप्रेक्ष्य में, बाज़ार स्थिरीकरण योजना (एम एस एस) को परिचालित किये जाने से चलनिधि और मौद्रिक प्रबंधन के लिए एक अतिरिक्त साधन मिल गया है।
बाह्य गतिविधियां
36. वैश्विक आर्थिक समुत्थान पिछले नवंबर में की गयी अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से व्यापक और मजबूत हुआ है। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइ एम एफ) ने अप्रैल 2004 में विश्व अर्थव्यवस्था संबंधी अपनी अद्यतन जानकारी में विश्व उत्पादन में 2004 में 4.6 प्रतिशत की वफ्द्धि दर से बढ़ोतरी होने का अनुमान लगाया है, जो कि पहले अनुमा्य्नत 4.1 प्रतिशत से अ्य्धक है। 2005 में ्य्वश्व उत्पादन में वफ््य्द्ध 4.4 प्र्य्तशत पर सुदृढ़ बने रहने की आशा है। विश्व व्यापार की मात्रा में वफ्द्धि 2003 के 4.5 प्रतिशत से बढ़कर 2004 में 6.8 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया है। अमरीका में वफ्द्धि की गति को बनाये रखे जाने की आशा है। हालांकि यूरो क्षेत्र में सुधार धीमा है, फिर भी वफ्द्धि में सुधार प्रतीत हो रहा है। ब्रिटेन में वफ्द्धि धीरे-धीरे अपनी जगह बना रही है और जापान में वफ्द्धि की संभावनाएं विदेशी और देशी मांग फिर से उभरने से बेहतर हुई हैं। हाल के वर्षों में, उभरते हुए बाज़ार विश्व वफ्द्धि के प्रमुख संचालक रहे हैं।
37. यद्यपि, वैश्विक उत्पादन और व्यापार में वफ्द्धि की संभावनाएं स्पष्ट रूप से बढ़ी हैं, फिर भी कई अनिश्चितताएं अभी भी बनी हुई हैं। वैश्विक तेल मूल्यों में मज़बूती, प्रमुख मुद्राओं में अत्यधिक उतार-चढ़ाव तथा आर्थिक गतिविधियों में तेजी के फलस्वरूप उभरे चक्रीय तत्व मुद्रास्फीति बढ़ने के जोखिमों को और बढ़ा देते हैं। जहां कुछ केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ाना शुरू कर दिया है, वहीं दरों में इस प्रकार की गतिशीलता का वित्तीय बाज़ारों पर प्रभाव पड़ेगा। तथापि, इस प्रकार के परिवर्तनों की भविष्यवाणी करना न केवल मुश्किल है, बल्कि उभरते हुए बाज़ारों को पूंजी प्रवाह पर महत्वपूर्ण असर सहित उसमें अनिश्चितताएं भी निहित हैं। ब्याज दर अनिश्चितताओं के संभावित वैश्विक प्रभाव के अलावा प्रमुख मुद्राओं में अत्यधिक उतार-चढ़ाव तथा पूंजी प्रवाह तथा वित्तीय क्षेत्र पर उसका प्रभाव उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिए प्रमुख चिंता का विषय बना हुआ है। इन बातों पर संतुलित विचार करने पर कहा जा सकता है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में अपेक्षित बढ़ोतरी भारतीय अर्थव्यवस्था की समग्र वफ्द्धि में योगदान दे सकती है और इस संबंध में कम ब्याज दरों और मुद्रागत असंतुलनों के स्थान पर अधिक समय तक चलने वाली व्यवस्था की ओर वैश्विक संक्रमण के प्रभाव के सावधानीपूर्वक प्रबंधन में समष्टि नीतियों की प्रभावोत्पादकता प्रासंगिक हो जाती है। विश्व की प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं द्वारा इस संक्रमण का प्रबंधन करने के ढंग से जो अनिश्चितताएं हैं, उन्हें ध्यान में रखते हुए संतुष्ट होकर बैठे रहने की कोई गुंजाइश नहीं है। इसलिए वित्तीय बाजारों में भारतीय सहभागियों, कंपनियों और वित्तीय मझौलियों को सूचित किया जाता है कि वे चौकस और जोखिम कम करने के उचित उपायों के साथ पूरी तरह तैयार रहें। प्रसंगवश, जिस सीमा तक अंतरराष्ट्रीय ब्याज दरें देशी ब्याज दरों पर प्रभाव डालती हैं उस सीमा तक यह भी संगत है कि ब्याज दरों के संबंधित मीयादी ढांचे को ध्यान में रखा जाए।
38. 2003-04 के दौरान, भारत पुनरुत्थान बांड (आर आइ बी) के मोचन के कारण अक्तूबर 2003 में 5.2 बिलियन अमरीकी डालर के भुगतान के बावजूद भारतीय विदेशी मुद्रा बाज़ार में व्यवस्थित स्थितियां दिखायी दीं। रुपये की जो विनिमय दर मार्च 2003 में प्रति अमरीकी डालर रु.47.00 थी, वह मार्च 2004 तक 9.5 प्रतिशत बढ़कर प्रति अमरीकी डालर रु.43.39 हो गयी, परंतु उक्त अवधि में यूरो के मुकाबले उसमें 3.1 प्रतिशत की, पौंड स्टर्लिंग के मुकाबले 5.9 प्रतिशत की और जापानी येन के मुकाबले 4.4 प्रतिशत की कमी आयी।
39. भारत की विदेशी मुद्रा आर्य्क्षत निधियां मार्च 2003 के अंत में स्थित 75.4 बिलियन अमरीकी डालर से 37.6 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़कर मार्च 2004 के अंत में 113.0 बिलियन अमरीकी डालर हो गयीं। इसी अवधि में विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियां 71.9 बिलियन अमरीकी डालर से 35.5 बिलियन अमरीकी डालर बढ़कर 107.4 बिलियन अमरीकी डालर हो गयीं। इस वर्ष के दौरान, रिज़र्व बैंक ने भारत पुनरुत्थान बांड के मोचन के लिए भारतीय स्टेट बैंक को 5.2 बिलियन अमरीकी डालर की विदेशी मुद्रा उपलब्ध करायी। इसके अतिरिक्त, रिज़र्व बैंक ने बहुपक्षीय और द्विपक्षीय दोनों स्रोतों से सरकार को कुछ उच्च लागत वाले विदेशी मुद्रा ऋणों की चुकौती के लिए 6.8 बिलियन अमरीकी डालर भी उपलब्ध कराये। इन लेनदेनों में, चूंकि रिज़र्व बैंक को निजी तौर पर शेयर आबंटन के आधार पर सरकारी प्रतिभूतियों की उतनी ही राशि जारी की गयी थी, अत: कोई मौद्रिक प्रभाव नहीं हुआ और सरकार की कुल ऋण स्थिति भी अपरिवर्तित बनी रही।
40. भारत की आरक्षित विदेशी मुद्रा निधियों में 5.6 बिलियन अमरीकी डालर की और वफ्द्धि हुई और वे मार्च 2004 के अंत के 113.0 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़कर 7 मई 2004 को 118.6 बिलियन अमरीकी डालर हो गयीं।
41. हाल के वर्षों में नीति संबंधी वार्षिक वक्तव्यों तथा मध्यावधि समीक्षाओं में, बाह्य और घरेलू अनिश्चितताओं की अवधियों के दौरान बाह्य क्षेत्र के प्रबंधन में हमने अनुभव से जो मुख्य सबक सीखे हैं, उन पर अधिक ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया गया है। मोटे तौर पर जिन सिद्धांतों के अनुसार विनिमय दर का प्रबंधन किया गया है, वे हैं :-
- निश्चित लक्ष्य या पूर्व-घोषित लक्ष्य या बैंड के बिना विनिमय दरों की सावधानीपूर्वक निगरानी और प्रबंधन। जब कभी जरूरत हो तब हस्तक्षेप की क्षमता सहित विनिमय दर में लचीलापन।
- आरक्षित विदेशी मुद्रा निधियों का उच्च स्तर निर्मित करने की नीति, जिसमें न केवल चालू खाते के प्रत्याशित घाटों को ध्यान में रखा गया है, बल्कि पूंजी के अप्रत्याशित आवागमन से उत्पन्न होने वाले ‘चलनिधि जोखिम’ को भी ध्यान में रखा गया है।
- पूंजी खाते के प्रबंधन के लिए विवेकसम्मत नीति।
42. जैसा कि हाल के नीति संबंधी वक्तव्यों में उल्लेख किया गया है, भारत की आरक्षित विदेशी मुद्रा निधियों के प्रबंधन के समग्र दृष्टिकोण ने भुगतान संतुलन के बदलते हुए संयोजन तथा विभिन्न प्रकार के प्रवाहों के साथ जुड़े ‘चलनिधि जोखिमों’ तथा अन्य अपेक्षाओं को दर्शाया है। इस प्रकार आरक्षित निधि के प्रबंधन की नीति कई पहचाने जा सकने वाले तत्वों तथा अन्य आकस्मिक जरूरतों पर विवेकसम्मत रूप से निर्मित की गयी। इन तत्वों को ध्यान में रखने पर भारत की आरक्षित विदेशी मुद्रा निधियां सुविधाजनक स्थिति में और विकास दर, अर्थव्यवस्था में बाह्य क्षेत्र के हिस्से तथा जोखिम समायोजित पूंजी प्रवाहों के अनुरूप बनी रही।
43. 2003-04 के दौरान अमरीकी डालर की दृष्टि से भारत के निर्यात में पिछले वर्ष के 20.3 प्रतिशत के मुकाबले 17.1 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई। आयातों में पिछले वर्ष के 17.0 प्रतिशत के मुकाबले 25.3 प्रतिशत की उच्च वफ्द्धि परिलक्षित हुई। जहां तेल के आयात में वफ्द्धि पिछले वर्ष के 26.1 प्रतिशत के मुकाबले कम अर्थात् 14.3 प्रतिशत थी, वहीं तेल से इतर आयातों में पिछले वर्ष के 13.7 प्रतिशत के मुकाबले 29.4 प्रतिशत की अधिक वफ्द्धि परिलक्षित हुई। अधिक आयातों और कम निर्यातों के परिणामस्वरूप व्यापार घाटा बढ़कर 13.7 बिलियन अमरीकी डालर हो गया, जबकि पिछले वर्ष वह 7.4 बिलियन अमरीकी डालर था।
44. यदि और अलग-अलग स्तर पर देखें तो सोने और चांदी को छोड़कर, तेल से इतर आयातों में 2003-04 (अप्रैल-दिसंबर) के दौरान 26.2 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई, जबकि पिछले वर्ष की उसी अवधि में 19.0 प्रतिशत की कम वफ्द्धि हुई थी। पूंजीगत वस्तुओं के आयात में 34.5 प्रतिशत की वफ्द्धि दिखायी दी, जबकि पिछले वर्ष की उसी अवधि में 33.9 प्रतिशत की वफ्द्धि हुई थी, जो निवेश मांग में सुधार को दर्शाता है। निर्यातों में वफ्द्धि अधिकतर निर्मित वस्तुओं, विशेष रूप से इंजीनियरिंग वस्तुओं, रसायनों और उनसे संबंधित उत्पादों, रत्न और आभूषण तथा पेट्रोलियम उत्पादों के कारण हुई।
45. भुगतान संतुलन के चालू खाते, जो लगातार पिछले दो वर्षों से अधिशेष में बना रहा था, में अप्रैल-दिसंबर 2003 के दौरान 3.2 बिलियन अमरीकी डालर का अधिशेष परिलक्षित हुआ। 15.0 बिलियन अमरीकी डालर का व्यापार घाटा (भुगतानों के आधार पर), 14.4 बिलियन अमरीकी डालर के निजी अंतरणों द्वारा कमोबेश रूप से समायोजित हो गया। इसके अतिरिक्त, निवल पूंजी अंतर्वाहों (इनफ्लो) में 17.8 बिलियन अमरीकी डालर की महत्वपूर्ण वफ्द्धि हुई। इन प्रवाहों में मुख्य रूप से विदेशी निवेश (10.1 बिलियन अमरीकी डालर), अनिवासी भारतीयों की जमाराशियां (3.5 बिलियन अमरीकी डालर) तथा अन्य पूंजी (3.4 बिलियन अमरीकी डालर) शामिल हैं। इसके परिणामस्वरूप प्रारक्षित विदेशी मुद्रा निधियों, मूल्यन में परिवर्तनों सहित, में हुई निवल वफ्द्धि अप्रैल-दिसंबर 2003 के दौरान 26.4 बिलियन अमरीकी डालर थी। यदि वर्तमान संकेतों को देखें तो 2003-04 के दौरान लगातार तीसरे वर्ष भारत चालू खाते में अधिशेष दर्ज करेगा।
46. 2003-04 के दौरान बाह्य क्षेत्र की अत्यंत विशिष्ट बात भारी पूंजी प्रवाहों से संबंधित है, जिसके देशी मौद्रिक नीति के संचालन और विनिमय दर प्रबंधन के लिए अपरिहार्य प्रभाव हैं। तथापि देशी मौद्रिक नीति पर ऐसे प्रभावों की मात्रा प्राधिकारियों द्वारा अपनायी जाने वाली विनिमय दर व्यवस्था के स्वरूप पर कापी कुछ निर्भर करती है। निश्चित विनिमय दर व्यवस्था में चालू और पूंजी खाते के अधिशेषों या निवल अधिशेषों के पलस्वरूप आने वाले अतिरिक्त विदेशी मुद्रा अंतर्वाह को वांछित विनिमय दर समतुल्यता बनाये रखने के लिए विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधियों में ले जाने की जरूरत के लिए विवश करेगी। पूर्णत: अस्थिर विनिमय दर व्यवस्था में विनिमय दर अपने आप ही विदेशी मुद्रा बाजार में मांग और आपूर्ति की स्थितियों के अनुसार समायोजित हो जायेगी, और ऐसे अंतर्वाह को प्रारक्षित विदेशी मुद्रा निधियों में ले जाने की जरूरत नहीं होगी। इस परिदृश्य में, भारी विदेशी मुद्रा अंतर्वाह की उपस्थिति में, यह संभव है कि विनिमय दर में कापी वफ्द्धि हो, हालांकि यह दृढ़ वफ्द्धि भुगतान संतुलन में स्वत: ही संतुलन नहीं बनायेगी। जहां व्यवहार में केंद्रीय बैंक सभी देशों में विदेशी मुद्रा बाजारों में हस्तक्षेप करते हैं, वहीं उभरते हुए बाजारों में कुछ ऐसी विशेषताएं हैं जहां बड़े अंतर्वाहों के परिप्रेक्ष्य में हस्तक्षेप करने का अधिक गहन दृष्टिकोण जरूरी होगा। उभरते हुए बाज़ारों में पूंजी प्रवाह अक्सर अपेक्षावफ्त अधिक उतार-चढ़ाव वाले होते हैं। इस प्रकार के उतार-चढ़ाव बाजार के एजेंटों पर तथा समग्र रूप से अर्थव्यवस्था के लिए भारी जोखिम पैदा कर देते हैं। जहां विनिमय दर अनिवार्य रूप से बाजार द्वारा निर्धारित होती है, परंतु प्राधिकारी उतार-चढ़ाव को रोकने के उद्देश्य से हस्तक्षेप करते हैं तथा ऐसे जोखिमों को कम करते हैं, वहां कुछ मुश्किल विकल्प चुनने पड़ते हैं। सबसे पहले तो इस बात को तय करना होता है कि विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप किया जाये या नहीं; और दूसरी बात यह कि यदि हस्तक्षेप करने का विकल्प चुना जाता है तो प्राधिकारियों को इस प्रकार के हस्तक्षेप की उचित सीमा का निर्णय करना होता है।
47. यद्यपि चुने जाने वाले विकल्प कई बातों पर निर्भर करते हैं, पिर भी मौद्रिक प्राधिकारियों के सामने प्रमुख मुद्दा यह निश्चित करने का होता है कि पूंजी अंतर्वाह स्थायी और जारी बने रहने वाले स्वरूप के हैं या यह अंतर्वाह अस्थायी और प्रत्यावर्तित होने की शर्त पर हैं। तथापि व्यवहार में इस प्रकार का निश्चय करना कठिन होता है। चूंकि बाह्य पूंजी प्रवाह के बारे में आसानी से भविष्यवाणी नहीं की जा सकती और सुदृढ़ मूलभूत तत्वों के होते हुए भी वे प्रत्यावर्तित भी हो सकते हैं, इसलिए मौद्रिक प्राधिकारियों को प्रतिदिन की विनिमय दर के आधार पर विकल्प चुनने पड़ते हैं और मौद्रिक प्रबंध करना पड़ता है। जब मौद्रिक प्राधिकारी विदेशी मुद्रा की खरीद के माध्यम से विदेशी मुद्रा बाजार में हस्तक्षेप करता है तो वह देशी मुद्रा की उतनी ही बिक्री के माध्यम से प्रणाली में चलनिधि लगाता है। इसके विपरीत, जब वह विदेशी मुद्रा बेचता है तब प्रणाली से देशी चलनिधि अवशोषित कर ली जाती है। विदेशी मुद्रा बाजार में इस प्रकार के कार्यकलापों से आधार मुद्रा और मुद्रा आपूर्ति का अप्रत्याशित विस्तार या संकुचन होता है, जो जरूरी नहीं है कि प्रचलित मौद्रिक नीति के बल के अनुरूप हो। मौद्रिक नीति के उपयुक्त प्रबंधन के लिए जरूरी होगा कि मौद्रिक प्राधिकारी इस प्रकार के विदेशी मुद्रा बाज़ार में हस्तक्षेप के प्रभाव को, आंशिक रूप से या पूर्ण रूप से, समायोजित करने पर विचार करें, ताकि मौद्रिक नीति के उद्देश्य को बनाये रखा जा सके। विदेशी मुद्रा के अंतर्वाह के प्रभाव को समायोजित करने की अधिकांश तकनीव ों को बाजार पर आधारित या बाजार पर आधारित न होने के रूप में वर्गीवफ्त किया जा सकता है। बाजार पर आधारित दृष्टिकोण में केंद्रीय बैंक और बाजार के बीच वित्तीय लेनदेन शामिल होते हैं, जिनसे यथास्थिति चलनिधि वापस ली जाती है या लगायी जाती है। बाजार पर आधारित न होने वाले दृष्टिकोण में बाजार की गतिविधि पर परिमाणात्मक अवरोधों, नियमों या प्रतिबंधों का प्रयोग शामिल होता है, जिसमें चलनिधि लगाने की संभावना को देशी वित्तीय प्रणाली से बाहर रखने का प्रयास किया जाता है। विदेशी प्रवाह के किसी एक भाग या पूरे प्रभाव को निष्क्रिय करने के बाजार पर आधारित दृष्टिकोण को निष्फ्लन (स्टर्लाइजेशन) कहा जाता है।
48. निष्पलन प्रक्रिया में संकल्पनात्मक रूप से पफ्थक परन्तु परिचालनात्मक रूप से परस्पर व्याप्त करने वाले कदम निम्नप्रकार हैं : (क) अधिक पूंजी अंतर्वाह की स्थिति में ्य्वदेशी मुद्रा के स्थान पर देशी मुद्रा लगाकर हस्तक्षेप करने का मौद्रिक प्राधिकारी का निर्णय, तथा (ख) बांड और अन्य पात्र लिखतों के साथ विदेशी मुद्रा बाज़ार में हस्तक्षेप के पलस्वरूप जारी देशी मुद्रा के स्थान पर बांड या मुद्रा बाजार में और अधिक हस्तक्षेप करने का निर्णय। जहां खुले बाज़ार के कार्यकलाप में, जिनमें प्रतिभूतियों की बिक्री शामिल है, सामान्य तौर पर प्रयुक्त निष्प्फलन का लिखत शामिल होता है, वहीं देशी मुद्रा आपूर्ति पर पूंजी अंतर्वाह के प्रभाव को समायोजित करने के लिए अन्य कई लिखत उपलब्ध हैं, जो नीचे स्पष्ट किये गये हैं। तथापि ऐसे कई अवसर होते हैं जब केंद्रीय बैंक के सामान्य चलनिधि प्रबंधन कार्यकलापों में भेद करना मुश्किल होता है।
49. बड़े पूंजी अंतर्वाह का प्रबंध करने के लिए प्रयोग की जा सकने वाली अन्य महत्वपूर्ण नीतिगत प्रतिक्रियाओं में निम्नलिखित शामिल हैं :
(क) व्यापार उदारीकरण : बढ़ते हुए आयातों का ऐसा प्रभाव हो सकता है जिससे उच्च व्यापार और चालू खाते का घाटा होता है तथा यह अर्थव्यवस्था को पूंजी अंतर्वाह को अवशोषित करने में समर्थ बनायेगा। व्यापार उदारीकरण का आम तौर पर प्रत्यावर्तन नहीं होता तथा इसलिए वह अस्थायी या प्रत्यावर्तनीय पूंजी अंतर्वाहों के साथ निपटने के लिए उपयुक्त नहीं हो सकता। इसके साथ ही तेजी से होने वाले व्यापार उदारीकरण से अतिरिक्त पूंजी अंतर्वाह भी पैदा हो सकते हैं जो भविष्य में जब ऐसे पूंजी अंतर्वाह धीमे हों या प्रत्यावर्तित हों तब चालू खाते के घाटे को वस्तुत: असहनीय बना दें। इस प्रकार व्यापार उदारीकरण के संबंध में निर्णय अर्थव्यवस्था की समग्र स्थिति पर आधारित होना चाहिए, न कि केवल विदेशी मुद्रा प्रवाहों से संबंधित मुद्दों पर, हालांकि अंतर्वाह अधिक उदार व्यापार व्यवस्था को लेनदेन का समय निर्धारित करने की दृष्टि से कुछ सुविधा प्रदान कर सकते हैं।
(ख) निवेश संवर्धन : विकास संवर्धन प्रयोजनों के लिए पूंजी प्रवाहों के अवशोषण पर अर्थव्यवस्था में अधिक निवेश प्रदान करने के लिए बनाये गये उपायों के माध्यम से विचार किया जा सकता है। इस प्रकार के उपायों के कार्यान्वयन में यह वांछनीय होगा कि चालू खाते के अधिशेष को कम किया जाये या चालू खाते के घाटे के अपेक्षावफ्त कम स्तर को व्यापक बनाया जाये, जिससे पूंजी प्रवाहों का उत्पादक रूप से अवशोषण हो सके। इस प्रकार के उपाय कुछ समय में क्रमिक रूप से प्रभावी हो जायेंगे।
(ग) पूंजी खाते का उदारीकरण : पूंजी खाते के अंतर्गत बहिर्वाह (आउटफ्लो) के उदारीकरण पर अतिरिक्त विदेशी मुद्रा अंतर्वाहों का लाभ उठाते हुए, विशेष रूप से ऐसी कार्रवाई के लिए, समय के संबंध में विचार किया जा सकता है। यदि वह मेजबान देश से संबंधित अनुकूल भावना को पुन: लागू करे तो बहिर्वाहों के उदारीकरण पर बढ़ते हुए अंतर्वाहों का और प्रभाव हो सकता है।
(घ) बाह्य ऋण का प्रबंधन : विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधियों में वफ्द्धि को बाह्य ऋण के पूर्व- भुगतान के लिए प्रयोग कर कम किया जा सकता है। इस प्रकार का पूर्व-भुगतान आकर्षक है, बशर्ते देशी और बाह्य ऋण के बीच लागत का अंतर दंड और अन्य प्रभारों जैसे पूर्व भुगतान से संबंधित लागत को ध्यान में रखने के बाद पर्याप्त हों। अतिरिक्त बाह्य ऋण के लिए कंपनियों और मध्यस्थों की वफ्द्धि को सामान्य बनाने के लिए भी कदम उठाये जा सकते हैं। इस प्रकार के उपाय आम तौर पर बाज़ार से भिन्न स्वरूप के होंगे जिनमें पूंजी नियंत्रण व्यवस्था को पुन: लागू करना शामिल होगा।
(ङ) ऋणेतर प्रवाहों का प्रबंधन : ऋणेतर प्रवाहों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एप डी आइ) और संविभाग (पोर्टपोलिओ) निवेश शामिल हैं। विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के निर्णय मध्यावधि परिप्रेक्ष्य में लिये जाते हैं और पूंजी प्रवाहों के क्रम में उन्हें उच्च प्राथमिकता दी जाती है; इस प्रकार विदेशी प्रत्यक्ष निवेश प्रवाहों को प्रतिबंधित करने का कारण नहीं है। संविभाग निवेश प्रवाहों के मामले में, एक बार जब ऐसे प्रवाहों को अनुमति दे दी जाती है तब ऐसे कुछ ही परिमाणात्मक या मूल्य लिखत उपलब्ध होते हैं, जो बाज़ार व ी संवेदना को गंभीर रूप से कम आंके बिना उनमें बाधा डालते हैं।
(च) अंतर्वाह राशियों पर कराधान : विदेशी मुद्रा अंतर्वाह को सीमित करने के मूल्य पर आधारित उपायों में ‘टॉबिन’ स्वरूप के कर लगाना शामिल हो सकता है। इस प्रकार का कर व्यावहारिक रूप में शायद ही कभी लगाया गया है, क्योंकि विदेशी मुद्रा अंतर्वाहों को हतोत्साहित करने के लिए प्रयोग किये जाने वाले साधन में से यह एक ऐसा भोथरा साधन है जिसका प्रयोग नहीं किया जा सकता। यह प्रवाहों और लेनदेनों के विभिन्न प्रकारों, चाहे स्थायी हों या अस्थायी, ऋण हो या ऋणेतर, दीर्घावधि हो या अल्पावधि अथवा निर्यात से प्राप्त राशियों या आयात संबंधी भुगतानों के बीच भेद नहीं करता। इसके साथ ही, कारगर होने के लिए ‘टोबिन’ स्वरूप के करों को पूरे देश में लागू करना होता है; अन्यथा उनव ी प्रवंचना के मौके हो सकते हैं। इसके अलावा ‘टोबिन’ स्वरूप के कर का सीमित उपयोग होता है, वहीं विदेशी मुद्रा अंतर्वाह अधिकतर अंतर्निहित लेनदेनों से संबंधित होते हैं, जैसा कि भारत के मामले में है।
(छ) विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधियों का उपयोग : जैसे ही विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधियां बढ़ती हैं वैसे ही अक्सर यह सुझाव दिया जाता है कि इन आरक्षित निधियों का निवासियों को विदेशी मुद्राओं में और आगे उधार देने के माध्यम से ‘उत्पादक’ देशी गतिविधियों के लिए उपयोग किया जा सकता है। यदि आरक्षित निधियों का इस प्रकार देशी रूप में उपयोग किया जाता है, तो पिर वे विदेशी मुद्रा आरक्षित निधियों के रूप में उपलब्ध नहीं होतीं। इसके अलावा, यदि इस प्रकार की आरक्षित निधियों का उपयोग रुपया व्यय के लिए देशी ऋण प्रावधान के जरिये किया जाता है, तो इस प्रकार प्रयोग किये गये विदेशी मुद्रा संसाधन आरक्षित विदेशी मुद्रा निधियों में बदल जायेंगे। इस प्रकार की कार्रवाई पहले तो विदेशी मुद्रा संसाधनों को और आगे उधार न देने के समकक्ष होगी। यदि आर्य्क्षत निधियां विदेशी कार्यकलापों के लिए और आगे उधार के रूप में दी जाती हैं तो इससे आरक्षित निधियां भारग्रस्त होंगी तथा एक बार पिर उन्हें आर्य्क्षत निधि के रूप में नहीं माना जायेगा। यदि विदेशी आरक्षित निधियों का इस प्रकार इस्तेमाल किया जाता है, तो सुरक्षा और चलनिधि की बातों से, जो आरक्षित विदेशी निधियों के लिए अनिवार्य है, उस स्थिति में समझौता करना पड़ेगा।
50. रुपये की विनिमय दर के हाल के उतार-चढ़ावों ने अर्थव्यवस्था की बाहरी प्रतिस्पर्धा की ओर ध्यान आकर्षित किया है और इसलिए वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (रियर) का संदर्भ उपयुक्त है। संक्षेप में कहा जाये तो रिज़र्व बैंक के प्रतिदिन के कार्यकलापों के लिए वास्तविक प्रभावी विनिमय दर की प्रासंगिकता नहीं है, परंतु जब मध्यावधि से दीर्घावधि के रूप में उस पर विचार किया जाता है तो उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। जैसा कि अक्तूबर 1998 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, "वास्तविक प्रभावी विनिमय दर का अनुमान लगाना पद्धति संबंधी कई मुद्दे उठा देता है, जैसे विविध मुद्रा समूह का चयन, आधार अवधि का चयन, व्यापार-आधारित भार का चयन तथा मूल्य सूचकांक का चयन।" जहां वास्तविक प्रभावी विनिमय दर अल्प अवधि में विनिमय दर के उतार-चढ़ावों के लिए पर्याप्त मार्गदर्शक नहीं हो सकती, जैसा कि मेरे पूर्ववर्ती डॉ. विमल जालान ने स्पष्ट किया था, "वहीं अर्थव्यवस्था की दीर्घावधि प्रतिस्पर्धा को बहुविध मुद्रा समूह के संदर्भ में तथा यथोचित रूप से लंबी अवधि में प्रमुख व्यापारिक साझेदारों के संदर्भ में मापने की जरूरत है।"
51. रिज़र्व बैंक के वार्षिक नीतिगत वक्तव्यों और मध्यावधि समीक्षाओं में कंपनियों द्वारा प्रतिरक्षा रहित विदेशी मुद्रा उधारों के संबंध में चिंता व्यक्त की जाती रही है जिनका उनकी समग्र वित्तीय स्थिति पर प्रभाव पड़ सकता है, जिससे वित्तीय प्रणाली में गंभीर अनिश्चितताओं के रहते अस्थिरता पैदा हो सकती है। इस परिप्रेक्ष्य में अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में बैंकों द्वारा कंपनियों के प्रतिरक्षा रहित बड़े विदेशी मुद्रा ऋण आदि जोखिमों (एक्सपोज़र) की निगरानी करने के महत्व पर बल दिया गया था। ऐसे निर्देशों के बावजूद यह देखा गया कि बैंकों द्वारा ऐसे ऋण आदि जोखिमों से सुरक्षा को सुनिश्चित नहीं किया गया। नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में बैंकों को सूचित किया गया था कि वे ऐसी नीति अपनायें, जिसमें उनके ग्राहकों के विदेशी एक्सपोज़रों के फ्लस्वरूप उत्पन्न होने वाले जोखिमों को स्पष्ट रूप से पहचाना जा सके और उनका ध्यान रखा जा सके। तदनुसार बैंकों को सूचित किया गया था कि 10 मिलियन अमरीकी डालर से ऊपर के सभी विदेशी मुद्रा ऋण या उनके निदेशक मंडलों द्वारा निर्धारित सुस्पष्ट नीति के आधार पर ऐसी न्यूनतर सीमाएं जो ऐसे एक्सपोजरों के बैंक के संविभाग की तुलना में उचित समझी जायें, उनके द्वारा प्रदान किये जा सकते हैं; इनमें निर्यात वित्त और विदेशी मुद्रा व्यय को पूरा करने के लिए दिये गये ऋण शामिल नहीं हैं। अत: बैंकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि उनके विदेशी ऋण आदि जोखिमों, जो संभवत: बैंकों की परिसंपत्तियों की गुणवत्ता को भी प्रभावित कर सकते हैं, के कारण कंपनी तुलनपत्रों को महत्वपूर्ण परंतु परिहार्य प्रतिरक्षा प्रदान की जाती है।
समग्र मूल्यांकन
52. संक्षेप में, 2003-04 के दौरान मुख्य गतिविधियों के गुणात्मक मूल्यांकन और समग्र नीति के महत्व के मद्देनज़र, वर्ष 2004-05 में निम्नलिखित कुछ क्षेत्रों पर नजर रखने की आवश्यकता है :
(क) यह समझने की आवश्यकता है कि वर्ष 2003-04 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वफ्द्धि में चक्रीय और ढांचागत, दो ही तत्व थे। वैश्विक पुनरुत्थान से संबंधित चक्रीय तत्व वफ्षि उाल के साथ-साथ जारी रहेंगे। ऐसे कई ढांचागत कारक हैं जिन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूती और लचीलापन प्रदान किया है। इनमें नीतिगत माहौल का सकारात्मक प्रभाव और प्रतिस्पर्धा तथा व्यापारिक भरोसा बढ़ाने के लिए आधारभूत ढांचे में किया गया निवेश शामिल है। वैश्विक पहुंच में जहां सेवा क्षेत्र अग्रणी बना रहा है वहीं विनिर्माण क्षेत्र ने भी विश्व स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है। अत:, अगर हम मानसून सामान्य मानते हुए चलें तो अनिश्चितताओं के बावजूद, विशेषत: वैश्विक अर्थव्यवस्था में, और जब तक एकदम अनपेक्षित आघात न पहुंचे तो ऐसा मानने के पर्याप्त कारण हैं कि 2004-05 में सकल घरेलू उत्पाद में वफ्द्धि के संदर्भ में भारत का वैश्विक स्तर पर उच्च निष्पादकों में बना रहना जारी रहेगा।
(ख) कीमतों के बारे में, तेल की कीमतों और बड़ी मात्रा में घरेलू चलनिधि, जो कि वैश्विक चलनिधि को अंशत: प्रतिबिंबित करती है, के कारण उलझाव की समस्या बनी हुई है। तथापि, भारत की आघातों को सहने की सिद्ध क्षमता, अच्े मानसून की संभावना के साथ-साथ खाद्यान्न भंडार की पर्याप्त मात्रा और पर्याप्त ्य्वदेशी मुद्रा भण्डार के चलते 2004-05 के दौरान कीमतों के कारण स्थायित्व पर असर पड़ने की संभावना नहीं है; मगर कल्याणकारी विचार और मुद्रास्फीति के प्रत्याशित प्रभाव के कारण, इस बात पर सख्तॅ ्य्नगरानी रखने की आवश्यकता है ्य्क वै्य्श्वक एवं अन्य ग्य्त्य्व्य्धयों का भारत पर क्या प्रभाव पड़ता है।
(ग) वर्ष 2003-04 में उत्तरार्ध में ऋण लेने में कुछ तेज़ी आयी थी जो संतोष का विषय है, और यह इस बात का संकेत है ्य्क यह तेज़ी जारी रहेगी। तथापि, वफ्षि और लघु तथा मध्यम उद्योगों को ्य्दए जा रहे बैंक ऋण के प्रवाह में आ रहे अवरोधों को दूर करने के ्य्लए पर्याप्त प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण है कि आधारभूत गतिविधियां, चाहे वे सार्वजनिक क्षेत्र की हों या निजी क्षेत्र की, में होने वाले निवेश में अत्यधिक निवेश किया जाए जिससे उत्पादन क्षेत्र के लिए ऋण उठाव के अवसरों में वफ्द्धि होगी। उपभोक्ता ऋण और आवास ऋण ने अब तक अर्थव्यवस्था में सकारात्मक योगदान दिया है। अत: भविष्य में भी इसकी गुणवत्ता और गति पर ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है।
(घ) प्रतिस्पर्धा, विनियामक उपाय, नीतिगत माहौल और बैंकों के प्रेरित होने के संयुक्त प्रभाव के चलते वित्तीय क्षेत्र ने काफी मज़बूती, दक्षता और स्थायित्व अर्जित किया है। सरकारी क्षेत्र के बैंकों की हल न हुई समस्याओं को दूर करके और बैंकों के लिए विवेकपूर्ण मानदंडों को कड़ा करने के मद्देनजर यह निष्पादन श्रेयस्कर है। विकास वित्त संस्थानों की पुनर्संरचना की जा रही है और ग्रामीण बैंकिंग क्षेत्र की अपेक्षित पुनर्संरचना से गुणवत्ता में वफ्द्धि, उद्देश्य पूर्ण बनाने और भारत में बैंकिंग की पहुंच की प्रक्रिया में सहायता मिलेगी।
(ङ) वर्ष 2003-04 के दौरान, पूरे विश्व के वित्तीय बाजारों में तेजी का रख रहा, जिसमें विकसित देशों और नई अर्थव्यवस्थाओं के ईक्विटी मूल्यांकन में वफ्द्धि हुई। अंतरराष्ट्रीय चलनिधि में वफ्द्धि के साथ ही, नए बाजार ऋणों के प्रसार में पर्याप्त कमी आई है। 2004-05 में जो मुख्य मुद्दा उभर कर सामने आया है उसका संबंध अमरीकी में बनी हुई समष्टिगत आर्थिक निरंतर असमानता और भौगो्य्लक-राजनैतिक अनिश्चितताओं के साथ-साथ शेष विश्व पर पड़ने वाले इसके प्रभावों से है। ऐसी चिंताओं में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी तरह से मौद्रिक नीति कठोर करने, जो कि आगामी कुछ महीनों में हो सकती है, से परिसंपत्तियों की कीमत और पण्य की कीमतों, विशेषत: तेल पर पड़ने वाला प्रभाव शामिल है। समग्र रूप से भारतीय वित्त बाजार ने सावधानीपूर्वक असंशोधित और क्रमिक तरीके से किए वित्तीय क्षेत्र सुधारों की अवधि में सापेक्ष स्थायित्व दर्शाया है। वर्तमान आकलन के आधार पर, भले ही कुछ अनिश्चितताएं हों, इस पर विश्वास किया जा सकता है कि भारतीय वित्त बाजार नई अर्थव्यवस्थाओं के बाजारों के सापेक्ष ऐसे स्थायित्व को दर्शाना जारी रखेगा। जहां रिज़र्व बैंक लोक हित में ऐसे नीतिगत परिवेश को जारी रखेगा जिससे अधिक और अस्थिरीकरण उत्पन्न करनेवाले उतार-चढ़ाव से बचा जा सके वहीं बाजार भागीदारों से यह अपेक्षित है कि वे किसी भी अप्रत्याशित घटना से पैदा होनेवाले पोर्टफोलियो जोखिम का ध्यान रखें और इसके लिए पर्याप्त प्रावधान रखें।
(च) पिछले कुछ वर्षों में बाहरी क्षेत्र में मजबूती आई है। जहां व्यापार घाटे में बढ़ोत्तरी हुई है वहीं अनिवासी भारतीयों से विप्रेषण प्राप्त होने के चलते चालू खाते में आधिक्य है। पूंजीगत माल में प्रभावी वफ्द्धि होने से यह आशा बलवती होती है कि निवेश गतिविधियों में तेजी आएगी। बांड और मुद्रा बाजार की वैश्विक अनिश्चितताओं के कारण पूंजी प्रवाह में उतार-चढ़ाव को सहन करने के लिए प्रारक्षित निधि का स्तर पर्याप्त है। बाहरी क्षेत्र के प्रति अपनाया गया दृष्टिकोण ्य्न्य्श्चत रूप से लोक नी्य्तयों के कार्यान्वयन में सहायक होता है।
घ्घ्. वर्ष 2004-05 के लिए मौद्रिक नीति का रुझान
53. वर्ष 2003-04 में मौद्रिक नीति का समग्र रुझान अप्रैल 2004 के नीति वक्तव्य में दिया गया था और जिसे नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में दुहराया गया था, वह निम्नानुसार जारी रहेगा :
- अर्थव्यवस्था की ऋण-वफ्द्धि और निवेश की मांग के समर्थन की जरूरत को पूरा करने के लिए पर्याप्त नकदी का प्रावधान करना, साथ ही कीमत-स्तर में उतार-चढ़ाव पर निरंतर नज़र रखना।
- उपर्युक्त के अनुरूप, समष्टि-आर्थिक स्थिरता के ढांचे के भीतर कम और लचीली ब्याज दर के वातावरण के लिए वरीयता के वर्तमान रुझान को जारी रखना।
54. वर्ष 2003-04 के दौरान मौद्रिक प्रबंध स्थूल रूप से वर्ष के लिए निर्धारित नीति के रुझानों के अनुसार किया जाता रहा। पहला, समष्टि-आर्थिक परिणामों के अनुसार, सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि दर काफी हद तक वफ्षि उत्पादन में तेज़ी आने के फलस्वरूप अनुमान से बेहतर हुईं। दूसरे, यद्यपि मुद्रास्फीति नीति की अपेक्षा के अनुसार ही रही है, वर्ष के भीतर बहुत अधिक घट-बढ़ रही जिसका वित्तीय बाज़ार पर प्रभाव रहा। तीसरे, यद्यपि ब्याज दर में और कमी आई, किंतु वर्ष के उत्तरार्ध में इसमें कुछ वफ्द्धि हुई। चौथे, यद्यपि वर्ष के प्रारंभ में खाद्येतर ऋण-वफ्द्धि कम रही, परंतु बाद में इसमें तेज़ी आई। पांचवें, जमा वफ्द्धि तथा मुद्रा आपूर्ति वफ्द्धि वर्ष के प्रारंभ में लगाये गये अनुमानों की अपेक्षा अधिक रही। ठे, मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाज़ार, काफी हद तक स्थिर रहा है। सातवें, अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में अमरीकी डालर में तीव्र गिरावट के बावजूद विनिमय-दर ठीक बनी रही। आठवें, विदेशी मुद्रा भण्डार में अपेक्षावफ्त भारी वफ्द्धि हुई जो पूंजी की निरंतर आवक और देश की साख (रेटिंग) के उन्नयन को प्रतिबिंबित करती है। नौवां, घरेलू कारोबार का रुझान लगातार तेज़ रहा। अनुकूल परिणामों के होते हुए भी मौद्रिक प्रबंध को स्थिर नकदी की परिस्थितियों को बनाए रखने एवं स्फीतिकारी अपेक्षाओं के नियंत्रण में कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा, जिसे सफलतापूर्वक अंजाम दिया गया।
55. वर्ष 2003-04 के दौरान की गतिविधियों का समग्र मूल्यांकन और वर्ष 2004-05 के लिए अनुमान, गुणवत्ता के आधार पर आशावादी बने रहने का आधार उपलब्ध कराता है। पहला, सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि के अनुसार, भारत विश्व स्तर पर उच्च निष्पादनकर्ताओं की श्रेणी में बना रहेगा। दूसरे, कीमत की स्थिति, समष्टिगत स्थिरता के लिए चिंताजनक रहने की संभावना नहीं है, यद्यपि बहुत ही सख्ॅत निगरानी की ज़रूरत है। तीसरे, निरंतर वफ्द्धि के लिए, विशेष रूप से वफ्षि, ोटे और मझोले उद्यमों और बुनियादी सुविधाओं के लिए ऋण उपलब्ध कराना अत्यावश्यक है। चौथे, वित्तीय क्षेत्र में वफ्द्धिशील मज़बूती, दक्षता और स्थिरता परिलक्षित हुई है। अंतत: बाह्य क्षेत्र की वर्तमान स्थिति और दृष्टिकोण, सरकारी नीतियों को चलाने में सुगमता प्रदान करती है।
56. मौद्रिक नीति का रुझान कई कारकों पर निर्भर होगा और उनमें, (क) भूमि-भवन क्षेत्र में, विशेष रूप से सकल घरेलू उत्पाद में भावी वफ्द्धि, (ख) स्फीतिकारी अपेक्षाएं और (ग) वैश्विक गतिविधियां शामिल हैं।
57. भारतीय मौसम विज्ञान ने अपने दक्षिण-पश्चिम मानसून के पूर्वानुमान में इस वर्ष के लिए लंबे समय तक औसतन 100 प्रतिशत की दर से वर्षा का अनुमान लगाया है। सामान्य मानसून के साथ, वफ्षि में वफ्द्धि की प्रवफ्त्ति लगभग 3 प्रतिशत की दर से अनुमानित की जा सकती है और यह भी माना जा सकता है कि उद्योग और सेवा-क्षेत्र अपनी वर्तमान वफ्द्धि-दर बनाए रखेंगे, वर्ष 2004-05 के दौरान वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वफ्द्धि सामान्य रूप से 6.5 प्रतिशत हो सकती है। यदि 2003-04 की तीसरी तिमाही के दौरान वफ्द्धि में देखी गई तेजी बनी रहती है तो 2004-05 के दौरान वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वफ्द्धि और अधिक अर्थात् 7 प्रतिशत के लगभग हो सकती है। फिलहाल, औद्योगिक क्षेत्र में क्रमिक वफ्द्धि, सामान्य मानसून और अच्े निर्यात की कल्पना करते हुए मौद्रिक नीति निर्माण के उद्देश्य से 2004-05 के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वफ्द्धि 6.5 और 7.0 प्रतिशत के बीच रखी जा सकती है। यदि ऐसी वफ्द्धि-दर प्राप्त हो जाती है तो यह अर्थव्यवस्था की वफ्द्धि-दर में संरचनागत तीव्रता की परिचायक होगी।
58. घरेलू स्फीति में अंतर्राष्ट्रीय कीमत की प्रवफ्त्ति के प्रभाव को मद्देनज़र रखते हुए वर्ष 2004-05 के दौरान स्फीति दर पर तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों और पण्य-कीमतों का काफी हद तक प्रभाव रहने की संभावना है। इसके अलावा, समग्र मांग पर निरंतर अत्यधिक नकदी के बने रहने के धीमे प्रभाव की उपेक्षा नहीं की जा सकती क्योंकि इसका संभाव्य स्फीतिकारी प्रभाव हो सकता है। वर्तमान प्रवफ्त्ति को देखते हुए, यह मानकर कि आपूर्ति स्थिति में कोई विशेष कमी नहीं आएगी और नकदी का उपयुक्त ढंग से प्रबंध किया जाएगा, वर्ष 2004-05 में स्फीति दर बिंदु-दर-बिंदु आधार पर लगभग 5.0 प्रतिशत रखी जा सकती है।
59. जहां तक वैश्विक गतिविधियों का संबंध है, अर्थव्यवस्थाओं में सुधार में अब अधिक निरंतरता प्रतीत हो रही है और उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में यह स्थिति और अधिक लोचदार है। यह समझना आवश्यक है ्य्क बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में जहां ब्याज दरें कठोर होने की आशा है वहीं मुद्रा असंतुलन में समायोजन होना जारी रहेगा। ऐसा प्रतीत होता है कि तेल की कीमतें वर्तमान उच्च स्तर पर बनी रहेंगी, हालांकि वे किसी भी दिशा में जा सकती हैं। विश्व राजनैतिक अनिश्चितताओं ने अंतर्राष्ट्रीय तेल अर्थव्यवस्था को प्रभावित किया है और जिसके कम होने के कोई संकेत नहीं हैं। अत:, जहां आर्थिक सुधार के महत्वपूर्ण सकारात्मक संकेत मिलते हैं, वहीं काफी अनिश्चितताएं और जोखिम भी हैं जिनकी गणना, मौद्रिक नीति के रूझान का निर्धारण करते समय की जानी चाहिए। विशेष रूप से, नीति में इस संभावना का ध्यान रखा जाए कि व्यापार घाटे की सार्थक स्थिति जारी रहेगी जिसमें निर्यात और आयात दोनों बढ़ेंगे, और चालू खाते पर इसके प्रभाव की क्षतिपूर्ति, पूर्व की भांति, अनिवासी भारतीयों के धनप्रेषणों से की जाएगी। नीति इस प्रयोजन से भी बने जिससे अधिक पूंजी प्रवाह निरंतर बना रहे।
- सकल घरेलू उत्पाद एवं मुद्रास्फी्य्त के अनुरूप वर्ष 2004-05 के ्य्लए मुद्रा आपूर््य्त (एम3) की अनुमा्य्नत वफ््य्द्ध 14.0 प्र्य्तशत रखी गई है। एम3 में वफ््य्द्ध के इस क्रम के अनुसार, अनुसू्य्चत वा्य्ण्य्ज्यक बैंकों की सकल जमारा्य्श 2,18,000 करोड़ रुपए ्य्नर्धा्य्रत की गई है जो ्य्पले वर्ष के इसके स्तर से 14.5 प्र्य्तशत अ्य्धक है। खाद्येतर बैंक ऋण, ्य्जसका समायोजन सार्वज्य्नक क्षेत्र की इकाइयों तथा ्य्नजी कंपनी क्षेत्र के वा्य्णज्य पत्रों, शेयरों/्य्डबेंचरों/बाण्डों में ्य्नवेश करके ्य्कया जाता है, 16.0-16.5 प्र्य्तशत तक बढ़ने का अनुमान है। ऋण ्य्वस्तार की इस मात्रा से आशा की जाती है ्य्क यह अर्थव्यवस्था के सभी उत्पादक क्षेत्रों की ऋण आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से पूरा करेगी।
61. वर्ष 2004-05 के ्य्लए अंत्य्रम संघीय बजट ने सकल राजकोषीय घाटे को जीडीपी का 4.4 प्र्य्तशत रखा है और केंद्र सरकार का बाज़ार उधार कार्यक्रम 90,502 करोड़ रुपए (्य्नवल) और 1,50,956 करोड़ रुपए (सकल) रखा गया है। राज्य सरकारों के सामान्य बाज़ार उधार कार्यक्रम को ध्यान में रखते हुए, भारतीय ्य्रज़र्व बैंक को यह आशा है ्य्क समग्र चल्य्न्य्ध पर ्य्कसी गंभीर दबाव के ्य्बना ऋण प्रबंधन ्य्कया जा सकेगा और ब्याज दरें वर्ष 2004-05 के मौ्य्द्रक अनुमानों के अनुसार बनी रहेंगी।
62. इस ्य्स्थ्य्त में ग्लोबल कारक भारत के ्य्लए दो ्य्दशाओं का संकेत देते हैं। अंतरराष्ट्रीय ब्याज दरों में वफ््य्द्ध की व्यापक प्रत्याशा को देखते हुए यह बात हो सकती है ्य्क नी्य्तगत ब्याज दरों को बढ़ाना पड़े। तथा्य्प, इस प्रकार की वफ््य्द्ध से ्य्नवेश मांग पर प्र्य्तकूल प्रभाव पड़ेगा, क्यों्य्क ्य्नवेश मांग में लंबे समय तक मंदी की ्य्स्थ्य्त के बाद बढ़ोत्तरी के संकेत ्य्मले हैं। इस मूल्यांकन पर ्य्क बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की ब्याज दरें तुरंत नहीं बढ़ेंगी अथवा अ्य्धक नहीं बढ़ेंगी एवं स्फी्य्तकारी दबाव के जो्य्खम का असर नहीं पड़ेगा, दी गई पूंजी प्रवाह की ्य्स्थ्य्त के संदर्भ में घरेलू स्तर पर ्य्नवेश ग्य्त्य्व्य्ध को तेज़ करने के ्य्लए ब्याज दरों को कम करने पर ्य्वचार ्य्कया जा सकता है। घरेलू कारकों का मूल्यांकन, जो भारत के ्य्लए स्वीकार्य रूप से संगत हैं, ्य्स्थरता की ओर संकेत करते हैं ्य्कंतु ्य्वश्व की अग्रणी अर्थव्यवस्थाओं में मौ्य्द्रक नी्य्त को सहज बनाने के बजाय कठोर बनाने की अ्य्धक क्षमता है।
63. मौ्य्द्रक नी्य्त, ्य्वत्तीय बाज़ार के ्य्व्य्भन्न घटकों को जोड़ने, ऋण-सुपुर्दगी प्रणाली में सुधार, सहायताकारी ऋण-संस्वफ््य्त का पोषण और ्य्वत्तीय सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार को बढ़ावा देती रहेगी। 2003-04 के दौरान मुद्रास्फी्य्त दर में हुए उतार-चढ़ाव के मद्देनज़र हुई स्फी्य्तकारी प्रत्याशाओं से प्राप्त लाभों को समे्य्कत ्य्कए जाने की भी आवश्यकता है। यह समझना ज़रूरी है ्य्क लंबे समय तक ्य्कए गए ्य्नरंतर प्रयास ने मूल्य ्य्स्थरता में ्य्वश्वास कायम करने में सहायता की है, हालां्य्क य्य्द मूल्यों में स्पष्ट ्य्वपरीत रुख आ जाए तो तुलनात्मक रूप से कम समय में ही स्फी्य्तकारी प्रत्याशाएं प्र्य्तकूल सा्य्बत हो सकती हैं। जहां अर्थव्यवस्था में संसाधन उपलब्ध हैं और आपूर््य्त आघातों को सहन करने की क्षमता है, वहीं प्रचुर मात्रा में चल्य्न्य्ध के बने रहने से संभा्य्वत प्य्रणामों पर सावधानीपूर्वक ्य्नगरानी रखने की भी आवश्यकता है। अत:, स्फी्य्तकारी ्य्स्थ्य्तयों पर कड़ी नज़र रखना जरूरी है और इस संबंध में ्य्कसी भी ्य्स्थ्य्त पर संतुष्ट नहीं रहा जा सकता है।
64. संक्षेप में, वर्तमान मूल्यांकन के अनुसार, अर्थव्यवस्था के ्य्व्य्भन्न क्षेत्रों में हुई ्य्कसी प्र्य्तकूल और अप्रत्या्य्शत घटना को ोड़कर और यह मानते हुए ्य्क ्य्वचाराधीन स्फी्य्तकारी ्य्स्थ्य्त प्र्य्तकूल ्य्सद्ध नहीं होगी, वर्ष 2004-05 के ्य्लए मौ्य्द्रक नी्य्त का समग्र रुझान ्य्नम्नानुसार होगा :
- मूल्य स्तर के उतार-चढ़ाव पर कड़ी नज़र रखते हुए ऋण में वफ््य्द्ध को पूरा करने के ्य्लए पर्याप्त चल्य्न्य्ध का प्रावधान और अर्थव्यवस्था में ्य्नवेश एवं ्य्नर्यात मांग को समर्थन देना।
- उक्त के अनुरूप, यथा्य्स्थ्य्त को कायम रखते हुए, ऐसे ब्याज दर वातावरण का अनुसरण करना जो ्य्वकास की ग्य्त, सम्य्ष्टगत अर्थव्यवस्था एवं मूल्य-्य्स्थरता को बनाये रखने में सहायक हो।
घ्घ्घ्. ्य्वत्तीय क्षेत्र के सुधार तथा मौ्य्द्रक नी्य्त संबंधी उपाय
65. ्य्वत्तीय क्षेत्र अब पहले की अपेक्षा अ्य्धक प्र्य्तस्पर्धी वातावरण में काम करता है तथा अंतरराष्ट्रीय ्य्वत्तीय प्रवाहों के अपेक्षावफ्त बड़ी मात्रा में रा्य्शयों की मध्यस्थता करता है। साथ ही, घरेलू ्य्वत्तीय बाजार भी ्य्व्य्भन्न खंडों के बीच बढ़ते हुए एकीकरण के साथ ्य्वक्य्सत हुए हैं। इसके अलावा, हाल ही के वर्षों में सीमा पार व्यापार और ्य्नवेश में भारी वफ््य्द्ध हुई है। इसके प्य्रणामस्वरूप, मौ्य्द्रक नी्य्त बनाना ज्य्टल हो गया है और ्य्वशेष रूप से उसे ्य्वत्तीय असंतुलनों के संभा्य्वत ्य्नर्माण के प्र्य्त सतर्क रहना है और इस प्रकार के झटकों को रोकने के ्य्लए रास्ते और साधनों की तलाश की आवश्यकता है। इस संदर्भ में, भारतीय ्य्रज़र्व बैंक के वार््य्षक नी्य्तगत वक्तव्यों और मध्याव्य्ध समीक्षाओं में ऐसे संरचनागत और ्य्व्य्नयामक उपायों पर बल देना जारी है जो ्य्वत्तीय लोच को समर्थन दे तथा कारगर भू्य्मका ्य्नभाने में संस्थाओं की क्षमता को बल प्रदान करें। इन उपायों वे मुख्य उद्देश्य मौ्य्द्रक नी्य्त की प्य्रचालनगत दक्षता बढ़ाना, भारतीय ्य्रज़र्व बैंक की ्य्व्य्नयामक भू्य्मका को पुन: प्य्रभा्य्षत करना, ्य्ववेकशील और पर्यवेक्षी मानदंडों को सुदृढ़ बनाना तथा संस्थागत आधारभूत संरचना का ्य्वकास करना रहा है।
66. नवंबर 2003 की मध्याव्य्ध समीक्षा में ऋण संस्वफ््य्त, ऋण सुपुर्दगी तथा ऋण मूल्य ्य्नर्धारण के साथ-साथ जमाकर्ताओं के ्य्हतों से संबं्य्धत कई उपायों की घोषणा की गयी थी। उक्त नी्य्त में अन्य बातों के साथ-साथ यह कहा गया था ्य्क (व) इस संबंध में यह अ्य्नवार्य है ्य्क ्य्वत्तीय मध्यस्थों, कंप्य्नयों तथा घरानों के बीच प्रेरक ऋण संस्वफ््य्त ्य्वक्य्सत की जाए; (वव) ऋण दरों के ्य्गरने में समग्र अनम्यता तथा कुछ भागों में सेवा की गुणवत्ता की अपर्याप्तता के साथ-साथ जमा दरों में कमी होने का तथ्य सभी ्य्वत्तीय मध्यस्थों द्वारा आत्म-्य्नरीक्षण और तुरंत कार्रवाई की मांग करता है; तथा (ववव) जब्य्क ्य्वशेषकर वा्य्णज्य बैंकों द्वारा ्य्वश्वसनीय कार्रवाई की जानी अ्य्नवार्य होगी, वहीं सभी संबं्य्धतों को यथासमय नवोन्मेषी उपायों पर ्य्वचार करना होगा, ता्य्क ऋण मूल्य ्य्नर्धारण में उपयुक्त पारदर््य्शता द्वारा ऋण सुपुर्दगी में पर्याप्त प्रग्य्त सु्य्न्य्श्चत की जा सके।
67. जैसे-जैसे ्य्वत्तीय क्षेत्र में प्य्रपक्वता आयेगी और यह अ्य्धक ज्य्टल होता जायेगा वैसे-वैसे अ्य्व्य्नयमन की प्र्य्क्रया अवश्य जारी रहनी चा्य्हए। ले्य्कन, यह इस तरीके से हो ्य्क सभी प्रकार की ्य्वत्तीय संस्थाएं मजबूत बनें तथा समग्र प्रणाली की ्य्वत्तीय ्य्स्थरता सुर्य्क्षत रहे। ्य्व्य्नयमन हटाने की प्र्य्क्रया आगे बढ़ने के साथ-साथ ्य्व्य्नयामक प्य्रपाटी का केंद्र आवश्यक रूप से कारगर ्य्नगरानी तथा ्य्व्य्नयमों के कार्यान्वयन के आश्वासन की ओर अंत्य्रत होगा। इन ्य्व्य्नयामक उद्देश्यों को प्राप्त करने की दृ्य्ष्ट से ्य्वत्तीय संस्थाओं के भीतर कंपनी अ्य्भशासनों को सुदृढ़ बनाना होगा तथा आंत्य्रक प्रणाली को ्य्वक्य्सत करने की आवश्यकता होगी, ता्य्क ्य्व्य्नयामक प्रथाओं में इस अंतरण को सु्य्न्य्श्चत ्य्कया जा सके। इसके साथ ही, जैसे-जैसे ्य्वत्तीय संस्थाओं का ्य्वस्तार होगा और वे अ्य्धक ज्य्टल बनती जायेंगी, यह सु्य्न्य्श्चत करना भी जरूरी होगा ्य्क ग्राहकों, ्य्वशेष रूप से सामान्य जनता को दी जानेवाली सेवा की गुणवत्ता पर पूरा ध्यान ्य्दया जाये और उसमें सुधार हो।
68. जब्य्क उपर्युक्त उद्देश्यों के अनुसरण में उपायों की रूपरेखा बनाने और उनके कारगर कार्यान्वयन पर मुख्य ध्यान देना जारी रहेगा, वहीं ्य्वत्तीय प्रणाली में कुछ क्षेत्र ऐसे हैं ्य्जन पर वर्ष 2004-05 के दौरान ्य्वशेष ध्यान देना आवश्यक होगा। पहला, बैंकों के ्य्वशेष स्वरूप को ध्यान में रखते हुए सरकारी और ्य्नजी दोनों क्षेत्रों के बैंकों के स्वा्य्मत्व और अ्य्भशासन के संबंध में व्यापक और पारदर्शी तरीके से नी्य्त ्य्नर्धा्य्रत करना आवश्यक है। इससे बाह्य ्य्व्य्नयमन से ्य्नयंत्रण की आंत्य्रक प्रणा्य्लयों तथा जो्य्खम ्य्नर्धारण की ओर होने वाले सतत अंतरण में भी मदद ्य्मलेगी। दूसरे, प्रणालीगत दृ्य्ष्ट से ्य्वत्तीय मध्यस्थों की ग्य्त्य्व्य्धयों तथा ्य्हतों के टकराव के क्षेत्रों के बीच अंतर संबद्धता पर ्य्वचार करना होगा। तीसरे, काले धन को सपेद बनाने के ्य्लए साधन के रूप में इस्तेमाल करने की संभावनाओं को कम करते हुए तथा आतंकवा्य्दयों को ्य्वत्त उपलब्ध कराने और अन्य गैर-कानूनी ग्य्त्य्व्य्धयों से बचाने तथा लेखा-परीक्षा में ्य्पछड़ने से बचाने के ्य्लए ्य्वत्तीय प्रणाली के एकीकरण की रक्षा करने की दृ्य्ष्ट से प्य्रसंप्य्त्त तथा देयताओं दोनों में ‘अपने ग्राहक को जा्य्नए’ प्रणाली को कारगर रूप से अपनाए जाने पर अ्य्धक बल ्य्दये जाने की आवश्यकता है। साथ ही, यह भी अ्य्नवार्य है ्य्क बैंक अपने ग्राहकों से अन्य्धवफ्त ब्यौरे न मांगें तथा ग्राहक की ्य्ल्य्खत सहम्य्त के ्य्बना उससे संबं्य्धत जानकारी को अन्य लोगों तक न पहुंचाएं। चौथे, जब्य्क बफ्हद वा्य्ण्य्ज्यक बैं्य्कंग प्रणाली की ्य्स्थरता और दक्षता को ्य्वश्व भर में मान्यता प्रदान की जाती है, वहीं कुछ ऐसे खंड हैं ्य्जनकी पुनर्संरचना आवश्यक है। शहरी सहकारी बैंकों के संबंध में हाल ही के अनुभवों ने कड़े ्य्ववेकशील मानदंड लागू करने की ओर प्रवफ्त्त ्य्कया ले्य्कन इस क्षेत्र में बहु ्य्नयंत्रण के प्रश्न का समाधान ्य्कये जाने की आवश्यकता है और पुनर्संरचना शुरू की जानी है। इसी प्रकार, सहकारी बैं्य्कंग ढांचे, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों, गैर-बैं्य्कंग ्य्वत्तीय कंपनी से संबं्य्धत मुद्दों तथा ्य्वकास ्य्वत्त संस्थाओं से संबं्य्धत मुद्दों पर भी ्य्वचार ्य्कया जाना है। ्य्वशेष रूप से, ्य्व्य्नयामक तथा पर्यवेक्षी व्यवस्था को खुदरा जमाकर्ताओं के ्य्हतों और भुगतान प्रणाली के समन्वयन की दृ्य्ष्ट से सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुसार होना चा्य्हए। इस प्रकार, समग्र रूप में बैं्य्कंग क्षेत्र में और प्रग्य्त के ्य्लए कार्यनी्य्तयों में कुछ खंडों की पुनर्संरचना, बफ्हतर वा्य्णज्य बैं्य्कंग प्रणाली में समेकन, अ्य्भशासन में वफ््य्द्ध तथा आंत्य्रक ्य्नयंत्रण प्रणा्य्लयों में सुधार शा्य्मल होगा। इसके अलावा, इसमें सबसे बढ़कर कें्य्द्रत ्य्नगरानी और कारगर पर्यवेक्षण के साथ अ्य्धक अ्य्व्य्नयमन शा्य्मल होगा। पांचवें, ऊपर उ्य्ल्ल्य्खत कार्यनी्य्तयों के संदर्भ में, ्य्व्य्धक प्रणाली की भू्य्मका महत्वपूर्ण हो जाती है अत: ्य्वत्तीय क्षेत्र का उपयुक्त रूपांतरण करने के ्य्लए एक समर्थकारी ्य्व्य्धक ढांचा उपलब्ध कराने हेतु सामू्य्हक प्रयास ्य्कये जाने की आवश्यकता है।
69. उपायों का समय पर और कारगर कार्यान्वयन सु्य्न्य्श्चत करने के उद्देश्य से ्य्रज़र्व बैंक नी्य्तगत उपाय लागू करने से पहले परामर्शी दृ्य्ष्टकोण अपनाता रहा है। ्य्रज़र्व बैंक ने, परामर्शों के वर्तमान चैनलों के अलावा, ्य्व्य्भन्न मुद्दों पर ्य्वचार-्य्वमर्श के उपयुक्त तंत्र स्था्य्पत ्य्कये हैं ता्य्क ्य्वत्तीय सक्षमता और ्य्स्थरता के लाभ आम आदमी तक पहुंच सकें तथा भारत की ्य्वत्तीय प्रणाली की सेवाओं को अंतरराष्ट्रीय सर्वोत्तम मानकों के संदर्भ में पारदर्शी रूप से बेंचमार्क बनाया जा सके। इस खंड में कुछ नी्य्तगत उपायों के कार्यान्वयन की समीक्षा की गयी है और अब तक हुई प्रग्य्त के प्य्रप्रेक्ष्य में उपायों का प्रस्ताव ्य्कया गया है तथा इसके अलावा संस्थागत सुधारों के ्य्लए उपाय बताये गये हैं।
मौ्य्द्रक उपाय
(क) बैंक दर
70. अप्रैल 2003 के वार््य्षक नी्य्तगत वक्तव्य में बैंक दर को 6.25 प्र्य्तशत से घटाकर 29 अप्रैल 2003 को कारोबार समाप्त होने के समय से 6.0 प्र्य्तशत कर ्य्दया गया था। सम्य्ष्ट-आर््य्थक ग्य्त्य्व्य्धयों की समीक्षा करने पर यह वांछनीय समझा गया है ्य्क इस समय बैंक दर को ्य्स्थर (6.0 प्र्य्तशत पर) छोड़ ्य्दया जाये।
(ख) ्य्रपो दर
71. नवंबर 2003 की मध्याव्य्ध समीक्षा में की गयी घोषणा के अनुसरण में चल्य्न्य्ध समायोजन सु्य्वधा (एल ए एप) की इस प्रयोजन के ्य्लए ग्य्ठत आंत्य्रक दल की ्य्सपा्य्रशों तथा बाज़ार के सहभा्य्गयों और ्य्वशेषज्ञों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए समीक्षा की गयी। उक्त संशो्य्धत योजना 29 मार्च 2004 से अमल में आयी। संशो्य्धत योजना के अनुसार 7-्य्दवसीय ्य्न्य्श्चत दर की ्य्रपो नीला्य्मयां दै्य्नक आधार पर की जाती हैं। यह उल्लेख ्य्कया गया था ्य्क ्य्रपो दर ्य्रज़र्व बैंक द्वारा समय-समय पर ्य्नर्धा्य्रत की जायेगी।
72. सम्य्ष्ट आर््य्थक ग्य्त्य्व्य्धयों की समीक्षा करने पर यह वांछनीय समझा गया है ्य्क 7-्य्दवसीय ्य्रपो दर को इस समय 4.5 प्र्य्तशत पर रखा जाये। तथा्य्प, यह उल्लेख ्य्कया जाता है ्य्क संशो्य्धत योजना के अंतर्गत ्य्रज़र्व बैंक बाजार की ्य्स्थ्य्तयों और अन्य संबं्य्धत तत्वों के आधार पर ्य्न्य्श्चत दरों या घटती-बढ़ती दरों पर रात भर की ्य्रपो या लंबी अव्य्ध की ्य्रपो नीला्य्मयां करने का अपना ्य्ववेका्य्धकार जारी रखेगा। ्य्रज़र्व बैंक को यह भी ्य्ववेका्य्धकार होगा ्य्क वह जब भी उपयुक्त हो, तब ्य्रपो दर और ्य्रवर्स ्य्रपो दर के बीच के अंतर को प्य्रवर््य्तत करें।
(ग) चल्य्न्य्ध समायोजन सु्य्वधा - संशो्य्धत योजना
73. 3 नवंबर 2003 की मध्याव्य्ध समीक्षा में की गयी घोषणा के अनुसरण में ‘चल्य्न्य्ध समायोजन सु्य्वधा के संबंध में आंत्य्रक समूह की ्य्रपोर्ट’ व्यापक जानकारी और अ्य्भमतों के ्य्लए 2 ्य्दसंबर 2003 को सार्वज्य्नक रूप से प्रस्तुत की गयी। उसके बाद उस ्य्रपोर्ट पर बाज़ार के सहभा्य्गयों और ्य्वशेषज्ञों के साथ व्यापक चर्चा की गयी। आंत्य्रक दल की ्य्सपा्य्रशों तथा बाज़ार के सहभा्य्गयों तथा ्य्वशेषज्ञों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए 29 मार्च 2004 से संशो्य्धत चल्य्न्य्ध समायोजन सु्य्वधा योजना ्य्नम्न्य्ल्य्खत के माध्यम से प्य्रचा्य्लत की गयी : (व) दै्य्नक आधार पर संचा्य्लत 7-्य्दवसीय ्य्न्य्श्चत दर ्य्रपो तथा (वव) दै्य्नक आधार पर संचा्य्लत रात भर की ्य्न्य्श्चत दर ्य्रवर्स ्य्रपो, जो सप्ताह के ्य्दनों में संचा्य्लत ्य्कये जाते हैं। साथ ही बाजार के सहभा्य्गयों को अपने वर्तमान कार्यकलापों के आधार पर अपनी पूर्व वचनबद्धताओं को पूरा करने में समर्थ बनाने के उद्देश्य से, पा्य्क्षक अंतरालों पर संचा्य्लत, 14-्य्दवसीय ्य्रपो वर्तमान ्य्वशेषताओं के साथ कुछ समय के ्य्लए जारी रहेंगे। ‘‘्य्रपो’’ और ‘‘्य्रवर्स ्य्रपो’’ शब्दों का अंतर्राष्ट्रीय प्रयोग अपनाया जायेगा, परंतु ऐसा बाजार के सहभा्य्गयों को प्रणालीगत प्य्रवर्तनों के ्य्लए पर्याप्त समय देने के बाद भ्य्वष्य में ्य्कया जाएगा।
74. ्य्वद्यमान ्य्स्थ्य्त पर ्य्वचार करते हुए 7-्य्दवसीय ्य्रपो की दर को ्य्रज़र्व बैंक ने वार््य्षक 4.5 प्र्य्तशत पर बनाये रखा। ्य्रवर्स ्य्रपो दर को ्य्रपो दर से संबद्ध करना जारी रखा गया है, हालां्य्क वह 150 आधार अंकों के न्यून अंतर (स्प्रेड) पर है। तदनुसार ्य्रवर्स ्य्रपो दर को 29 मार्च 2004 से घटाकर वार््य्षक 6.00 प्र्य्तशत कर ्य्दया गया। इसके साथ-साथ ्य्रज़र्व बैंक से चल्य्न्य्ध सु्य्वधा के प्रावधान के वर्तमान ढांचे को औ्य्चत्यपूर्ण बनाने के उद्देश्य से बैंकों को ्य्दये जाने वाले ्य्नर्यात ऋण पुनर््य्वत्त की समग्र रा्य्श तथा प्राथ्य्मक व्यापा्य्रयों को चल्य्न्य्ध समर्थन ्य्रवर्स ्य्रपो दर की एकल दर पर उपलब्ध कराया गया।
75. उक्त आंत्य्रक दल ने ्य्रज़र्व बैंक की ्य्रपो सु्य्वधा को अ्य्धक लचीलापन प्रदान करने तथा मांग मुद्रा दरों के उतार-चढ़ाव को आधार प्रदान करने के ्य्लए स्थायी जमा सु्य्वधा (एस डी एप) शुरू करने का प्रस्ताव ्य्कया था। ्य्कंतु ्य्वस्तफ्त जांच करने पर यह माना गया ्य्क भारतीय ्य्रज़र्व बैंक अ्य्ध्य्नयम, 1934 ्य्रज़र्व बैंक को बेजमानती (क्लीन बे्य्सस) आधार पर उधार लेने और उस पर ब्याज अदा करने की अनुम्य्त नहीं देता। ्य्रज़र्व बैंक उक्त प्रस्ताव से सहमत है परन्तु इसके ्य्लए भारतीय ्य्रज़र्व बैंक अ्य्ध्य्नयम, 1934 के संबं्य्धत उपबंधों में संशोधन का इंतजार करना होगा।
76. आर्य्क्षत नकदी ्य्न्य्ध अनुपात के अंतर्गत पात्र नकदी शेष पर प्य्रलाभ वर्तमान में बैंक दर पर है। इसके संबंध में आंत्य्रक कार्यदल ने ्य्सपा्य्रश की है ्य्क इस तरह का प्य्रलाभ न्यायो्य्चत नहीं है। कार्यदल का तर्क है ्य्क आर्य्क्षत नकदी ्य्न्य्ध अनुपात सर्वा्य्धक प्रभावकारी बनाने के ्य्लए कोई भी प्य्रलाभ उ्य्चत नहीं है। परंतु वर्तमान ्य्स्थ्य्त पर ्य्वचार करते हुए कार्यदल ने प्रस्ता्य्वत ्य्कया है ्य्क इस प्रकार के प्य्रलाभ को बैंक दर से संबद्ध न रखा जाये और ्य्रपो दर से नीचे की दर पर रखा जाये।
ब्याज दर नी्य्त
मूल उधार दर और अंतर (स्प्रेड)
77. नवंबर 2003 की मध्याव्य्ध समीक्षा की घोषणा के उपरांत भारतीय बैंक संघ ने अपने सदस्य बैंकों को बेंचमार्क मूल उधार दर (बी पी एल आर) की घोषणा करने के ्य्लए सू्य्चत ्य्कया था, ्य्जसमें (व) ्य्न्य्धयों की वास्त्य्वक लागत, (वव) प्य्रचालन व्यय और (ववव) प्य्रचालनगत आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए अपने ्य्नदेशक मण्डलों के अनुमोदन से प्रावधानीकरण/पूंजी प्रभार और लाभ की मार््य्जन की जरूरतों के ्य्लए न्यूनतम मार््य्जन रखना शा्य्मल है। तथा्य्प, बैंकों को यह छूट है ्य्क वे अपने ऋण-उत्पादों की कीमतें बी पी एल आर से कम अथवा अ्य्धक रखें तथा पारदर्शी तरीके से बाजार बेंचमार्क का इस्तेमाल करते हुए प्लो्य्टंग दर वाले प्रोडक्ट ऑपर करें। लगभग सभी वा्य्णज्य बैंकों ने बी पी एल आर की नई प्रणाली अपनायी है और उनकी दरें पूर्ववर्ती मूल उधार दरों की तुलना में 25-200 आधार अंक के बीच रहकर ्य्नम्न बनी हुई हैं।
78. जहां बैंकों में ऊंची-साख वाले उधारकर्ताओं को उधार देने की जबरदस्त होड़ है, वहीं अन्य उधारकर्ताओं को, ्य्जनके संबंध बैंकों के साथ बहुत पुराने हैं और ्य्जनके क्रे्य्डट ्य्रकॉड़ अच्छे हैं, नीची दरों का पायदा नहीं ्य्मल पाता है। यह वांछनीय है ्य्क बैंक, ऋण जो्य्खम मूल्यांकन को ध्यान में रखकर ऋण के मूल्य का ्य्नर्धारण करें, ता्य्क ऋण-सुपुर्दगी और ऋण-संस्वफ््य्त बेहतर हो सके। अत:, उधारकर्ताओं के जो्य्खम-प्रोपाइल तैयार करना, जो्य्खम प्रबंधन और पूंजी के इष्टतम उपयोग की दृ्य्ष्ट से तो जरूरी है ही, साथ ही ऐसा करना बासेल घ्घ् के अंतर्गत पूंजी आबंटन के ्य्लए भी वां्य्छत है। अत:, बैंक अपने डाटाबेस तथा अन्य आंत्य्रक एवं बाहरी कारकों का इस्तेमाल करते हुए, व्यापक एवं कठोर जो्य्खम मूल्यांकन हेतु उपाय करें, ता्य्क ऋण का मूल्य-्य्नर्धारण और भी उपयुक्त रूप से जो्य्खम से संबद्ध हो सके।
ऋण सुपुर्दगी व्यवस्था
79. भारतीय ्य्रज़र्व बैंक का यह प्रयास रहा है ्य्क बैंकों के ्य्लए प्रेरक माहौल तैयार ्य्कया जाए, ता्य्क वे अर्थव्यवस्था के ्य्व्य्भन्न क्षेत्रों को ्य्बना ्य्कसी प्र्य्क्रयागत अड़चनों के, वा्य्जब दर पर पर्याप्त एवं समय पर ्य्वत्त प्रदान कर सकें। इस ्य्दशा में की गई अनेक तरह की पहल के क्रम में कुछ ्य्वशेष उपाय इस प्रकार प्रस्ता्य्वत हैं :
(क) प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र को ऋण
80. जैसा कि नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा बैंकिंग प्रणाली से वफ्षि और संबंधित कार्यकलापों के लिए ऋण के प्रवाह पर सलाहकार समिति (अध्यक्ष : प्रोपेसर वी.एस. व्यास) गठित की गई थी। समिति ने निम्नलिखित क्षेत्रों के संबंध में अपनी अंतरिम रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है (व) अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों द्वारा वफ्षि को अनिवार्य उधार ; (वव) ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग की पहुंच में विस्तार ; (ववव) वफ्षि के उधारकर्ताओं को ऋण की लागत में कमी ; (वख्) वफ्षि वित्त में अनर्जक परिसंपत्तियों के मानदण्ड ; (ख्) लाभ से वंचित वर्गों के लोगों को ऋण देने में रुकावटें। विस्तफ्त सिपारिशें और विविध प्रतिक्रियाओं को सार्वजनिक किया जा रहा है। इस बीच, रिज़र्व बैंक ने अंतरिम रिपोर्ट में की गई कुछ सिपारिशों को स्वीकार कर लिया है जिन्हें निम्न प्रकार कार्यान्वित किया गया है :
(व) भंडारण सुविधाओं के लिए ऋण
81. पिलहाल, उत्पादन के क्षेत्र में भंडारण की सुविधाओं, (वेयरहाउस, मार्केट याड़, गोदाम, खत्ती (साइलो) और कोल्ड स्टोरेज) शीतागार के निर्माण और उन्हें चलाने तथा ग्रामीण क्षेत्रों तथा लघु उद्योग इकाइयों के रूप में अपंजीवफ्त कोल्ड स्टोरेज इकाइयों को जिन्हें किराए पर दिए जाने के लिए उपयोग में लाया जाता है, दिए गए ऋण वफ्षि को परोक्ष रूप से वित्तपोषण माने जाते हैं। शीतागार (कोल्ड स्टोरेज) सुविधाओं के निर्माण के लिए ऋण के प्रवाह में वफ्द्धि हेतु यह प्रस्तावित है कि :
- वफ्षि उपज/उत्पादनों के लिए निर्मित शीतागार इकाइयों सहित भंडारण इकाइयों को प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र के अंतर्गत परोक्ष वफ्षि वित्त माना जाएगा चाहे वे कहीं भी स्थित क्यों न हों।
(वव) प्रतिभूतिवफ्त परिसंपत्तियों में बैंकों द्वारा निवेश
82. वफ्षि ऋणों के प्रतिभूतीकरण पर अधिक बल के परिणामस्वरूप यह प्रस्तावित किया जाता है कि :
- प्रतिभूतिवफ्त परिसंपत्तियों में बैंकों का निवेश जो प्रत्यक्ष (परोक्ष) रूप से वफ्षि के लिए प्रत्यक्ष (परोक्ष) उधार है, प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र के अंतर्गत वफ्षि ऋण माना जाएगा, बशर्ते प्रतिभूतिवफ्त ऋण मूलत: बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिया जाता हो।
(ववव) वफ्षि ऋण - मार्जिन/जमानत की अपेक्षा से छूट
83. पिलहाल, 10,000 रुपये से अधिक के वफ्षि ऋण के मामलों में बैंक, मार्जिन और जमानत लेने के लिए स्वतंत्र हैं। वफ्षि को ऋण के प्रवाह के महत्व को ध्यान में रखते हुए, विशेष रूप से छोटे उधारकर्ताओं के लिए जिनके पास संपार्श्विक प्रतिभूति के रूप में रखने के लिए आवश्यक परिसंपत्ति नहीं है, उनके लिए प्रस्तावित है कि :
- बैंक वफ्षि ऋणों के मामले में 50,000 रुपये तक और वफ्षि व्यवसाय और वफ्षि क्लिनिकों के मामले में 5 लाख रुपये तक के ऋण के बारे में मार्जिन/जमानत की अपेक्षा से छूट दे सकते हैं।
(वख्) वफ्षि वित्त के लिए अनर्जक परिसंपत्ति (एनपीए) मानदंड
84. मौजूदा मानदंडों के अनुसार, वफ्षि प्रयोजनों के लिए मंजूर अग्रिमों को एनपीए तब माना जाता है, जब ब्याज और/अथवा मूल धन की किस्त देय होने के बाद दो कटाई मौसमों तक परंतु अधिकतम दो अर्ध वर्ष तक अदत्त रहती है। तथापि, लंबी अवधि की पसलों के मामले में अधिकतम दो अर्ध वर्ष की अवधि का विद्यमान निर्धारण अपर्याप्त होगा। चुकौती की तारीखों का पसल की कटाई से मेल रखने के विचार से प्रस्तावित है कि :
- अल्पावधि पसल के लिए दिये गये ऋण को अनर्जक परिसंपत्ति तब माना जाएगा जब उसके ब्याज तथा मूलधन अथवा उस पर ब्याज की किस्त नियत तारीख के बाद दो पसल कटाई मौसमों तक अदत्त रहती है।
- दीर्घावधि पसल के लिए दिये गये ऋण को अनर्जक परिसंपत्ति तब माना जाएगा जब उसके मूलधन अथवा ब्याज की किस्त नियत तारीख के बाद एक पसल कटाई मौसम तक अदत्त रहती है।
- पसल ऋणों के लिए सभी उपर्युक्त शर्तें, यथावश्यक संशोधनों के साथ, मीयादी वफ्षि ऋणों पर भी लागू होंगी।
(ख) व्यष्टि वित्तपोषण
85. जैसा कि नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, चारों अनौपचारिक समूहों की सिपारिशों के आधार पर, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को सूचित किया है कि वे स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के लिए अपनी शाखाओं द्वारा सुविधाजनक ढंग से वित्तपोषण करने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन दें। बैंकों को यह भी सूचित किया गया था कि स्वयं सहायता समूहों के कार्य करने की पद्धति में कोई हस्तक्षेप न किया जाए और उन्हें नियंत्रित करने की जरूरत नहीं है।
86. व्यास समिति ने गरीबी उन्मूलन में तथा लाभ से वंचित क्षेत्रों में बैंकों की पहुंच और स्वयं सहायता समूह दृष्टिकोण अपनाने के लिए व्यष्टि वित्तपोषण की भूमिका की भी जांच की। जमाकर्ताओं के हितों की रक्षा की आवश्यकता के विचार से और समिति की अंतरिम रिपोर्ट में की गई सिपारिशों के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक ने निम्नलिखित प्रस्तावों को कार्यान्वयन के लिए स्वीकार किया है। तदनुसार :
- व्यष्टि वित्तपोषण संस्थाओं (एमएपआइ) को जनता से जमाराशि स्वीकार करने की अनुमति तब तक नहीं दी जाएगी जब तक वे रिज़र्व बैंक के विद्यमान विनियामक ढांचे का अनुपालन नहीं करतीं।
(ग) किसान क्रेडिट काड़ योजना
87. सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने वर्ष 2003-04 के दौरान निर्धारित 3 मिलियन के लक्ष्य के बदले 3.07 मिलियन किसान क्रेडिट काड़ जारी किए हैं। अब तक सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने इस योजना के अंतर्गत 13.2 मिलियन काड़ जारी किए हैं।
88. जैसा कि नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया है, किसान क्रेडिट काड़ योजना के प्रभाव के मूल्यांकन के लिए सर्वेक्षण का कार्य नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड इकॉनामिक रिसर्च (एन सी ए ई आर), नई दिल्ली को सौंपा गया था। उनसे जल्दी ही रिपोर्ट मिलने की संभावना है। भारतीय रिज़र्व बैंक किसान क्रेडिट काड़ योजना को और अधिक सुविधाजनक बनाने और बैंक ऋण को और अधिक सुगम तथा उसको बढ़ाने के दृष्टिकोण से रिपोर्ट पर अनुवर्ती कार्रवाई करने का इच्छुक है।
(घ) लघु और मध्यम उपक्रमों के लिए नीतिगत ढांचा
89. नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा के दौरान की गयी घोषणा के अनुसरण में, लघु उद्योग क्षेत्र को ऋण प्रवाह पर कार्य दल (अध्यक्ष : डॉ. ए. एस. गांगुली) गठित किया गया था, जिसने अब रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है। इस समूह द्वारा की गई सिपारिशों की सूची और उन पर प्राप्त प्रतिक्रियाओं को सार्वजनिक किया जा रहा है। इस बीच प्रस्तावित है कि :
- लघु और मध्यम उपक्रमों को ऋणों की उपयुक्त कीमत निर्धारित करने के लिए बैंकों को सक्षम बनाने हेतु, उचित ऋण अभिलेख प्रणाली विकसित करना उपयोगी होगा। इस प्रयोजन के लिए क्रेडिट इन्फार्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया लि. (सीआइबीआइएल), भारतीय रिज़र्व बैंक, सिडबी और आइ बी ए के साथ सलाह करके तंत्र विकसित करेगा। इसके अतिरिक्त, कंपनी ऋण पुन: संरचना (सीडीआर) की तर्ज पर मध्यम उपक्रमों के लिए ऋण पुन: संरचना का तंत्र भी विकसित करने का प्रस्ताव है। इस संबंध में उपयुक्त परिचालनगत दिशा-निर्देशों का सुझाव देने के लिए रिज़र्व बैंक विशेष दल गठित करेगा।
(ङ) मूलभूत सुविधाओं के लिए उधार का क्षेत्र विस्तार
90. मूलभूत सुविधा क्षेत्र के अत्यधिक महत्व का उल्लेख अप्रैल 2003 की वार्षिक नीति के वक्तव्य में किया गया था। उसकी समीक्षा करके यह प्रस्तावित है कि :
- मूलभूत सुविधाओं को ऋण की परिभाषा के क्षेत्र को विस्तफ्त करके उसमें निम्नलिखित परियोजनाओं/क्षेत्रों को शामिल किया जाये: (व) वफ्षि अभिसंस्करण और वफ्षि को निविष्टियों की आपूर्ति करनेवाली परियोजनाओं से संबंधित निर्माण; (वव) अभिसंस्वफ्त वफ्षि उत्पादों, पल, सब्ज़ी और पूलों जैसे शीघ्र खराब होने वाले माल के परिरक्षण और भंडारण और उनकी गुणवत्ता के परीक्षण की सुविधा के लिए निर्माण; और (ववव) शैक्षणिक संस्थाओं तथा अस्पतालों का निर्माण।
(च) राज्य सरकारों द्वारा ऋण वफ्द्धि पर कार्यदल
91. राज्य स्तर पर मूलभूत सुविधाओं के वित्तपोषण के महत्व को ध्यान में रखते हुए राज्य वित्त सचिवों के साथ परामर्श से राज्य सरकारों द्वारा मूलभूत सुविधाओं के वित्तपोषण के लिए ऋण की वफ्द्धि पर कार्यदल गठित किया गया है, जिसमें भारत सरकार, राज्य सरकारों, चुने हुए बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और भारतीय रिज़र्व बैंक से सदस्य शामिल किये गये हैं।
(छ) निर्यातकों के लिए स्वर्ण काड़ योजना
92. सरकार (वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय) ने भारतीय रिज़र्व बैंक के परामर्श से वर्ष 2003-04 की निर्यात-आयात नीति में उल्लेख किया था कि अच्छा ट्रैक रिकाड़ और अच्छी साख वाले निर्यातकों को निर्यात ऋण आसान और अच्छी शर्तों पर उपलब्ध कराने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक स्वर्ण काड़ योजना बनाएगा। तदनुसार, चुने हुए बैंकों और निर्यातकों के साथ परामर्श से स्वर्ण काड़ योजना बनाई गई है। इस योजना की प्रमुख बातें हैं - (व) लघु और मध्यम क्षेत्र के निर्यातक, जिनका अच्छा ट्रैक रिकाड़ है, प्रत्येक बैंक द्वारा निर्धारित मानदंडों के अनुसार उनसे स्वर्ण काड़ जारी कराने के लिए पात्र होंगे; (वव) स्वर्ण काड़ धारकों को दिये जाने वाले लाभों के बारे में बैंक स्पष्ट रूप से बताएंगे; (ववव) काड़धारकों के अनुरोध को बैंक निर्धारित समय सीमा के भीतर शीघ्रता से निपटाएंगे; (वख्) "सिद्धांतत: 3 वर्ष की अवधि के लिए सीमाएं निर्धारित की जाएंगी तथा ऋण की अत्यावश्यकता की पूर्ति के लिए 20 प्रतिशत की अ्य्त्य्रक्त सीमा का प्रावधान होगा; (ख्) काड़धारकों को विदेशी मुद्रा में पैकिंग ऋण मंजूर करने के मामले में वरीयता दी जाएगी; और (ख्व) काड़धारक की उधार पात्रता तथा उसके ट्रैक रिकाड़ के आधार पर निर्यात ऋण गारंटी निगम की गारंटी योजनाओं व संपार्श्विक जमानत से छूट देने पर विचार करेंगे।
(ज) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की स्थिति और उनकी पुन: संरचना
93. मार्च 2003 के अंत की स्थिति के अनुसार, 196 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक थे, जिनकी 516 जिलों में 14,000 से अधिक शाखाएं थीं, लगभग 48,900 करोड़ रुपये की जमाराशियां थीं, लगभग 20,700 करोड़ रुपये के अग्रिम थे और लगभग 28,400 करोड़ रुपये के निवेश थे। क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की कुल अनर्जक परिसंपत्तियां (एनपीए) 3,200 करोड़ रुपये थीं जो उनके कुल ऋण की 14.4 प्रतिशत थीं।
94. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की संरचना को औचित्यपूर्ण बनाने की दृष्टि से और उन्हें अधिक अर्थक्षम बनाने हेतु पुन: संरचना के विविध विकल्प सरकार और पणधारकों, नामत: राज्य सरकारों तथा प्रायोजक बैंकों के विचाराधीन है। व्यास समिति क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की पुन: संरचना के विविध पहलुओं पर भी विचार कर रही है और उस बारे में सरकार को उपयुक्त सिपारिशें करने के लिए विविध विकल्पों का पता लगाएगी।
(झ) सहकारी बैंकों की स्थिति और पुन: संरचना
95. मार्च 2004 के अंत की स्थिति के अनुसार, 30 राज्य सहकारी बैंकों (एस सी बी) और 366 जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों (डी सी सी बी) में से 13 राज्य सहकारी बैंकों, 73 जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों को रिज़र्व बैंक ने लाइसेंस दिया था। इन बैंकों में से अधिकतर बैंक 1 मार्च 1966 से पहले स्थापित हुए थे जब बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949 को सहकारी बैंकों पर लागू किया गया था। नाबाड़ द्वारा उपलब्ध कराई गई जानकारी के अनुसार राज्य सहकारी बैंकों और जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों के पास मार्च 2003 में क्रमश: लगभग 39,000 करोड़ रुपये और 73,000 करोड़ रुपये की जमाराशियां थीं। मार्च 2004 के अंत में 366 जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों में से 143 तथा 30 राज्य सहकारी बैंकों में से 7 बैंकों ने चुकता पूंजी और प्रारक्षित निधियों संबंधी 1 लाख रुपये की न्यूनतम अपेक्षा का अनुपालन नहीं किया था।
96. जबकि भारतीय रिज़र्व बैंक ने संबंधित राज्य सरकारों से सुधारात्मक उपाय शुरू करने के लिए कहा है, वहीं सरकार कमज़ोर सहकारी बैंकों की पुन: संरचना की योजना पर विचार कर रही है। सहकारी ऋण संरचना के पुनरुत्थान की एक योजना की घोषणा की गयी है, जिसमें 15,000 करोड़ रुपये का व्यय होना अनुमानित है। इस व्यय में केंद्र और राज्य सरकारें उपयुक्त अनुपात में हिस्सा बंटाएंगी। सरकार ने प्रस्ताव किया है कि यह योजना संशोधित विनियामक ढॉंचा तैयार होते ही, प्रारंभ कर दी जाएगी।
मुद्रा बाजार
97. वित्तीय प्रणाली में अल्पकालिक अधिशेषों और कमी को समान स्तर पर लाने के लिए समतुलक तंत्र उपलब्ध कराने में मुद्रा बाजार के महत्व को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित कुछ और उपायों का प्रस्ताव किया जाता है :
(क) विशुद्ध अंतर-बैंक मांग/सूचना मुद्रा बाजार की ओर बढ़ना
98. वर्तमान में, गैर-बैंक संस्थाएं किसी एक रिपोर्टिंग पखवाड़े में, वर्ष 2000-01 के दौरान मांग/सूचना बाजॉर में अपने औसत दैनिक उधार के औसतन 60 प्रतिशत तक उधार दे सकती हैं। बाजार की हाल की गतिविधियों तथा एक विशुद्ध अंतर-बैंक मांग/सूचना मुद्रा बाजार की ओर बढ़ने को ध्यान में रखते हुए यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
- 26 जून 2004 से शुरू होने वाले पखवाड़े से गैर-बैंक सहभागियों को किसी रिपोर्टिंग पखवाड़े में औसतन, 2000-01 के दौरान मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में उनके द्वारा दिये गये औसत दैनिक ऋण के 45 प्रतिशत तक उधार देने की अनुमति होगी।
99. फिर भी, जैसा कि पूर्व नीतिगत वक्तव्यों में इंगित किया गया था, यदि किसी गैर-बैंक संस्था विशेष को अपने आकार के कारण अतिरिक्त चलनिधि के निवेश के लिए उचित वैकल्पिक साधन विकसित करने में वास्तविक कठिनाई हो तो भारतीय रिज़र्व बैंक प्रत्येक मामले में अलग-अलग आधार पर विशिष्ट अवधि के लिए मांग/सूचना मुद्रा बाजार में उच्चतर राशि उधार देने हेतु अस्थायी अनुमति देने पर विचार कर सकता है।
(ख) संर्पाश्विक उधार लेने और देने से संबंधित दायित्व (सीबीएलओ)
100. अप्रैल 2003 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में किये गये उल्लेख के अनुसार संर्पाश्विक उधार लेने और देने से संबंधित दायित्व (सीबीएलओ) को जनवरी 2003 में क्लियरिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया (सी सी आइ एल) के जरिये मुद्रा बाजार लिखत के रूप में परिचालित किया गया था। संर्पाश्विक उधार लेने और देने से संबंधित दायित्व मार्च 2003 के लगभग 40 करोड़ रुपये से बढ़कर अप्रैल 2004 में लगभग 2500 करोड़ रुपये हो गये। सी सी आइ एल के संर्पाश्विक उधार लेने और देने से संबंधित दा्य्यत्व खंड में अप्रैल 2004 में कुल सदस्य संख्या 55 थी। इस खंड में और गतिविधियों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
- बाजार के सहभागियों और सी सी आइ एल के बीच प्रतिभूतियों का स्वचालित मूल्य रहित अंतरण सुलभ किया जाये।
सरकारी प्रतिभूति बाजार
101. भारतीय रिज़र्व बैंक ने बाजार के सहभागियों के परामर्श से सरकारी प्रतिभूति बाजार को और व्यापक तथा गहन बनाने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाये हैं। इनमें ‘रिपो’ तथा ‘रिवर्स रिपो’ लेनदेनों के लिए एकसमान लेखाकरण मानदंड जारी करना, श्रेष्ठ प्रतिभूति खाताधारकों को रिपो सुविधा उपलब्ध कराना, शेयर बाजारों में सरकारी प्रतिभूतियों के लिए अनाम स्क्रीन-आधारित आदेश-चालित ट्रेडिंग प्रणाली की सुविधा प्रदान करना, राष्ट्रीय शेयर बाजार (एन एस ई) में विनिमय - व्यापारित ब्याज दर व्युत्पन्न शुरू करना, विद्यमान खरीद संविदा पर बिक्री की अनुमति देकर प्रतिभूतियों के विक्रय से संबंधित विनियम में ूट देना, रिपोज के रोलओवर तथा निपटान के डी वी पी घ्घ्घ् तरीके में परिवर्तन की सुविधा देना शामिल हैं। इस दिशा में निम्नलिखित और उपायों का प्रस्ताव किया जाता है :
(क) तयशुदा लेनदेन प्रणाली की समीक्षा
102. फरवरी 2002 में शुरू की गई तयशुदा लेनदेन प्रणाली (एनडीएस) ने केंद्रीय प्रतिपक्ष के रूप में सी सी आइ एल के जरिये सरकारी प्रतिभूति बाजार में लेनदेनों के इलेक्ट्रॉनिक और सीधे समाशोधन तथा निपटान में सहायता पहुंचाई है। इस प्रणाली से लेनदेन संबंधी दक्षता और बाजार में हुए सौदों के बारे में जानकारी प्रदान करते हुए पारदर्शिता भी आयी है। साथ ही, इससे सरकारी प्रतिभूति बाजार में चलनिधि तथा गहनता भी आयी है, जो अधिक बेहतर मूल्यों तथा बाजार के पण्यावर्त से स्वत: प्रतिबिंबित होती है। समय के साथ-साथ प्राप्त अनुभवों के आधार पर तथा गतिविधियों को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक कार्यदल (अध्यक्ष: डा. आर. एच. पाटील) का गठन किया है, जिसे तयशुदा लेनदेन प्रणाली की परिचालनात्मक दक्षता के संदर्भ में उसके कार्यनिष्पादन की समीक्षा करने तथा हाड़वेयर और सॉफटवेयर प्रणालियों में सुधार और वफ्द्धि के लिए सुझाव देने का काम सौंपा गया है, जिसमें अनाम स्क्रीन-आधारित आदेश मिलान प्रणाली लागू करना शामिल है। आशा की जाती है कि यह कार्यदल अपनी रिपोर्ट शीघ्र प्रस्तुत कर देगा।
(ख) सी सी आइ एल द्वारा ओ टी सी ब्याज दर
व्युत्पन्नों का समाशोधन
103. ओवर दि काउंटर (ओ टी सी) व्युत्पन्नों के लिए एक केंद्रीय प्रतिपक्ष आधारित समाशोधन व्यवस्था से प्रतिपक्षी जोखिम में कमी आएगी और ‘नेटिंग’ के लाभ मिलेंगे। तदनुसार, ओ टी सी व्युत्पन्न (डेरिवेटिव्स) बाजार को सुदृढ़ बनाने और निहित जोखिम को कम करने की दृष्टि से सी सी आइ एल के माध्यम से समाशोधन व्यवस्था करने पर विचार किया जा रहा है।
(ग) सांविधिक चलनिधि अनुपात से इतर प्रतिभूतियों
में व्यापार - निपटान और सूचना
104. सांविधिक चलनिधि अनुपात से इतर प्रतिभूतियों में बैंकों के निवेश संबंधी विवेकशील मार्गदर्शी सिद्धांतों में यह अपेक्षित है कि बैंक सूचीबद्ध और गैर सूचीबद्ध तयशुदा लेनदेन प्रणाली (एन डी एस) पर सांविधिक चलनिधि अनुपात से इतर प्रतिभूतियों में सभी ‘हाजिर’ लेनदेनों की सूचना दें तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा अधिसूचित की जाने वाली तारीख से सी.सी.आइ.एल. के जरिए निपटान करें। सी.सी.आइ.एल. बिना गारंटी के आधार पर निपटान के लिए तथा एन डी एस के सदस्यों द्वारा सूचीबद्ध और गैर-सूचीबद्ध सांविधिक चलनिधि अनुपात से इतर ऋण लिखतों में व्यापार से संबंधित सूचना के प्रसार के लिए व्यवस्था करने में लगा है।
(घ) कैपिटल इंडेक्स्ड बांड
105. प्रारंभ में, दिसंबर 1997 में 5 वर्षीय कैपिटल इंडेक्स्ड बांड (सी आइ बी) लागू किये गये थे। अब सरकार के परामर्श से यह प्रस्ताव किया जाता है कि अंतरराष्ट्रीय रूप से प्रचलित ऐसे ही लिखतों की संरचनागत विशेषताओं को अपनाते हुए संशोधित सी आइ बी पुन: लागू किये जाएं। जबकि सी आइ बी बाजार निर्धारित वास्तविक कूपन दर पर जारी किये जाएंगे, जो बांडों के प्रभावी बने रहने के दौरान निश्चित बनी रहेंगी, वहीं ये निवेशकों को मुद्रा स्पी्य्त से संबद्ध प्रतिलाभ देंगे। सी आइ बी पर एक चर्चा पेपर उसकी विशेषताओं का ब्योरा देते हुए जनता के सामने लाया जा रहा है।
(ङ) बाजार स्थिरीकरण योजना
106. भारत सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक ने 25 मार्च 2004 को एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए, जिसमें बाजार स्थिरीकरण योजना का औचित्य और परिचालनगत तौर-तरीकों के ब्यौरे दिये गये थे। बाजार स्थिरीकरण योजना का आशय निष्पलन के जरिये अधिक टिकाऊ स्वरूप के चलनिधि अवशोषण को दिन-प्रतिदिन के सामान्य चलनिधि परिचालनों से अनिवार्यत: भिन्न दर्शाना है। यह प्रस्ताव किया गया था कि बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत नीलामी के जरिए खजाना बिल/दिनांकित सरकारी प्रतिभूतियां जारी की जायें, जिनमें विद्यमान बिलों/ प्रतिभूतियों के समान ही विशेषताएं होंगी। भारतीय रिज़र्व बैंक ऐसे निर्गमों के लिए राशि, अवधि और समय अधिसूचित करेगा। बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत वर्ष 2004-05 में बिलों/प्रतिभूतियों का प्रारंभिक निर्गम 60,000 करोड़ रुपये रखा गया है, लेकिन परस्पर परामर्श के जरिए इसमें परिवर्तन किया जा सकेगा। बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत जारी किये गये बिलों/प्रतिभूतियों के बराबर की नकद राशि सरकार द्वारा एक अलग नकद खाते में रखी जाएगी, जिसका रखरखाव और परिचालन भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा किया जायेगा तथा ऐसी राशियों का उपयोग बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत जारी किये गये खजाना बिलों और/अथवा दिनांकित प्रतिभूतियों के मोचन और/अथवा वापसी खरीद के लिए ही किया जायेगा। सरकार के राजस्व/वित्तीय शेषों पर इसका प्रभाव बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत ब्याज के भुगतान और बट्टा तक सीमित होगा जिसमें प्रीमियम और उपचित ब्याज शामिल नहीं होगा। ब्याज, प्रीमियम और बट्टे के लिए प्राप्त राशियों और भुगतानों को केंद्र सरकार के बजट में अलग से दर्शाया जायेगा। वित्तीय बाजारों में पारदर्शिता और स्थिरता लाने की दृष्टि से शुरुआती तौर पर अप्रैल-जून 2004 तिमाही के लिए बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत 35,500 करोड़ रुपये के खजाना बिलों/दिनांकित प्रतिभूतियों के निर्गम के लिए निर्देशक समय-सूची बनायी गयी है जिसे 25 मार्च 2004 को जारी किया गया। बाजार स्थिरीकरण योजना के अंतर्गत 14 मई 2004 तक 27,000 करोड़ रुपये के अंकित मूल्य वाले खजाना बिल और दिनांकित प्रतिभूतियां जारी किये गये, जिनमें से दिनांकित प्रतिभूतियां 15,000 करोड़ रुपये की थीं।
विदेशी मुद्रा बाजार
107. बेहतर ग्राहक सेवा उपलब्ध कराने तथा बाह्य क्षेत्र में उदारीकरण की प्रक्रिया जारी रखने के लिए प्रणालियों और क्रियाविधियों को और सरल बनाने की दृष्टि से कई कदम उठाये गये। कुछ क्षेत्र विशेष के संबंध में स्थिति और प्रगति तथा उठाये गये कदमों की जानकारी नीचे दी जा रही है :
(क) अनिवासी भारतीयों/भारतीय मूल के लोगों को
रुपयों में आवास ऋण
108. वर्तमान में, अनिवासी भारतीय/भारतीय मूल के व्यक्ति प्राधिवफ्त व्यापारियों अथवा राष्ट्रीय आवास बैंक द्वारा अनुमोदित आवास वित्त संस्थाओं से रुपये में आवास ऋण ले सकते हैं। ऋणकर्ता द्वारा ऋण की चुकौती सामान्य बैंकिंग माध्यम के जरिए आवक विप्रेषण द्वारा अथवा एन आर ई/एप सी एन आर (बी)/एन आर एन आर/एन आर एस आर खातों में नामे डालते हुए अथवा संपत्ति से प्राप्त किराया-आय में से की जा सकती है। इसे और उदार बनाने की दृष्टि से यह प्रस्ताव किया जाता है कि -
- ऋणकर्ताओं के भारत में रहनेवाले रिश्तेदारों को यह अनुमति दी जाये कि वे ऐसे ऋणों की किस्तों, उन पर ब्याज तथा यदि कोई अन्य प्रभार हों तो उन प्रभारों की चुकौती सीधे ही संबंधित प्राधिवफ्त व्यापारियों/आवास वित्त संस्थाओं को कर सकते हैं।
(ख) बाह्य वाणिज्यिक उधार - रियायतें
109. बाह्य वाणिज्यिक उधारों के लिए सीमाएं बढ़ाने हेतु सरकार की घोषणाओं के क्रम के रूप में तथा बाह्य वाणिज्यिक उधारों से संबंधित अस्थायी उपायों की जगह अधिक पारदर्शी और सरल नीतियां तथा क्रियाविधियां लाने की दृष्टि से भारतीय रिज़र्व बैंक ने बाह्य वाणिज्यिक उधार संबंधी दिशा-निर्देशों की समीक्षा का काम हाथ में लिया था। संशोधित नीति का मुख्य उद्देश्य मूलभूत सुविधाओं सहित स्थावर संपदा क्षेत्र में निवेश को बढ़ाना है। बाह्य वाणिज्यिक उधार की सीमा स्वत: अनुमोदित मार्ग के अंतर्गत 500 मिलियन अमरीकी डालर तक बढ़ायी गयी है, जिनकी न्यूनतम औसत परिपक्वता अवधि 5 वर्ष होगी। बाह्य वाणिज्यिक उधारों के लिए अंतिम उपयोग में विदेश में संयुक्त उपक्रमों/पूर्णत: स्वामित्ववाली सहायक कंपनियों में सीधे निवेश को शामिल किया गया है, ताकि कंपनियां विश्व भर में निवेश कर सवें। साथ ही, भारत सरकार द्वारा यथाअनुमोदित टेक्सटाइल अथवा इस्पात पुनर्संरचना पैकेजों में भाग लेने वाले बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को यह अनुमति दी गई थी कि वे स्वत: अनुमोदित मार्ग के अंतर्गत, उक्त पैकेज में अपने निवेश की सीमा तक तथा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा विवेकशील मानदंडों पर किये गये निर्धारण के अनुसार बाह्य वाणिज्यिक उधार ले सकते हैं।
(ग) निवासी व्यक्तियों के लिए प्रेषण योजना - उदारीकरण
110. अब निवासी भारतीयों को प्रत्येक कैलेंडर वर्ष में किसी भी चालू अथवा पूंजी खाते के लिए अथवा इन दोनों में सम्मिलित रूप से 25,000 अमरीकी डालर तक मुक्त रूप से प्रेषण करने की अनुमति है। इस सुविधा के अंतर्गत निवासी व्यक्ति चल संपत्ति अथवा शेयर अथवा कोई अन्य परिसंपत्ति भारत से बाहर प्राप्त करने और उसे अपने पास बनाये रखने के लिए स्वतंत्र होंगे। वे भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुमोदन के बिना भारत के बाहर किसी बैंक में ऐसा विदेशी मुद्रा खाता खोलने, बनाये रखने और धारित करने के लिए भी स्वतंत्र होंगे, जिसका उपयोग प्रेषण के लिए किया जायेगा। इस योजना के अंतर्गत सुविधाएं उन सुविधाओं के अलावा हैं जो निजी यात्रा, व्यापार संबंधी यात्रा, उपहार स्वरूप प्रेषण, दान, अध्ययन, चिकित्सा इत्यादि के लिए विदेशी मुद्रा प्रबंध अधिनियम के अंतर्गत पहले से ही उपलब्ध हैं।
(घ) विदेश में निवेश
111. भारतीय कंपनियों की विदेश में कूटनीतिक उपस्थिति को बढ़ाने की दृष्टि से भारतीय कंपनियों तथा साझेदारी पर्मों को उनकी निवल मालियत के शत-प्रतिशत तक विदेश में निवेश की अनुमति दी गयी है। साथ ही, निवासी कंपनियों तथा पंजीवफ्त साझेदारी पर्मों को विदेश में वफ्षि कार्य शुरू करने की अनुमति भी दी गयी है, जिसमें उनके विदेश स्थित कार्यालयों (स्वत: अनुमोदित मार्ग के अंतर्गत विदेश में निवेश के लिए उपलब्ध समग्र सीमा के भीतर संयुक्त उपक्रमों/पूर्णत: स्वामित्ववाली सहायक कंपनियों के माध्यम को छोड़कर) के जरिए अथवा सीधे ही इन गतिविधियों के अंग के रूप में भूमि की खरीद करना शामिल है।
(ङ) बैंकों की बाह्य देयताओं पर आंतरिक दल
112. अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की बाह्य देयताओं की स्थिति की व्यापक समीक्षा करने तथा तत्संबंधी विभिन्न नीतिगत मुद्दों की जांच करने की दृष्टि से भारतीय रिज़र्व बैंक ने अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की बाह्य देयताओं पर एक आंतरिक दल का गठन किया था, जिसने अपनी रिपोर्ट अप्रैल 2004 में प्रस्तुत की। इस दल की सिपारिशों के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक ने निम्नलिखित उपाय कार्यान्वित किये हैं :
- एक से तीन वर्ष वाली एन आर ई मीयादी जमाराशियों पर ब्याज दरों को तदनुरूपी परिपक्वता वाले अमरीकी डालर के लिए 17 अप्रैल 2004 से लीबोर/स्वैप दरों तक घटाया गया है।
- एन आर ई बचत जमारा्य्शयों पर ब्याज दर की अधिकतम सीमा 6 माह के लिए अमरीकी डालर लीबोर/स्वैप दर पर निर्धारित की गयी थी तथा इन खातों पर प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से किसी ग्रहणाधिकार की अनुमति नहीं दी जायेगी।
- प्राधिवफ्त व्यापारियों अथवा अधिवफ्त बैंकों को छोड़कर अन्य संस्थाओं को 24 अप्रैल 2004 से अनिवासी भारतीयों से कोई भी ऐसी नयी जमाराशियां स्वीकार करने से प्रतिबंधित किया गया, जो या तो नये आने वाले प्रेषण के जरिए अथवा उनके एन आर ई/एप सी एन आर (बी) खातों में नामे डालते हुए प्राप्त की गयी हैं।
इस आंतरिक दल की रिपोर्ट जनता के समक्ष रखी जा रही है।
विवेकशील उपाय
113. विनियमन और पर्यवेक्षण के क्षेत्र में भारतीय रिज़र्व बैंक सर्वोत्तम अंतरराष्ट्रीय परिपाटियों को अपनाने की प्रक्रिया जारी रखने के लिए प्रतिबद्ध है। इनमें देश के संस्थागत ढांचे और क्षमता में भिन्नता के कारण पर्याप्त लोच लायी गयी है, ताकि बैंकों और वित्तीय संस्थाओं पर पर्ड़ने वाला भार कम हो सके। कुछ चयनित बैंकों के साथ समन्वय से शुरू किये गये मात्रात्मक प्रभाव अध्ययनों के आधार पर ‘न्यू कैपिटल अकॉड़’ पर तीसरे परामर्शी दस्तावेज के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक के अभिमतों में भी बैंकिंग प्रणाली के विभिन्न स्तरों पर तैयारी को देखते हुए अधिक लचीलापन लाने की आवश्यकता प्रतिपादित की गयी है। देश-विशेष संबंधी जोखिम प्रबंधन, समेकित लेखाकरण और पर्यवेक्षण, कंपनी अभिशासन, विवेकशील पर्यवेक्षी रिपोर्टिंग प्रणाली तथा शहरी सहकारी बैंकों के लिए समवर्ती लेखा-परीक्षा संबंधी दिशा-निर्देश तथा उधारदाताओं के लिए उचित परिपाटी संहिता जारी करना कुछ ऐसे उपाय हैं जिनका लक्ष्य वैश्विक मानदंडों को प्राप्त करना है। निवेश में घट-बढ़ हेतु आरक्षित निधियां निर्मित करने, बैंकों के सांविधिक चलनिधि अनुपात से इतर निवेश संविभागों के लिए दिशा-निर्देश जारी करने, ‘अपने ग्राहक को पहचानो’ क्रियाविधियों के अनुपालन के लिए समयबद्ध कार्य-योजना बनाने, प्रतिभूतिकरण/पुनर्निर्माण कंपनियों को प्रस्तावित विक्रय पर अनर्जक परिसंपत्तियों के लिए प्रावधान करने तथा ऋण व्युत्पन्नों पर दिशा-निर्देशों के प्रारूप का लक्ष्य बैंकिंग क्षेत्र के विभिन्न जोखिमों को कम करना रहा है।
114. तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई योजना लागू करने तथा जोखिम पर आधारित पर्यवेक्षण को अपनाने की ओर बढ़ने से पर्यवेक्षी प्रक्रिया तो सुदृढ़ होगी ही और अति संवेदनशील क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित होगा, साथ ही जोखिम प्रबंधन, प्रबंध सूचना तथा बैंकों की पर्यवेक्षी रिपोर्टिंग प्रणालियों की विश्वनीयता और सुदृढ़ता भी बढ़ेगी। जबकि अपतटीय बैंकिंग इकाइयां खोलने की अनुमति दी गयी, वहीं बीमा एजेंसी कारोबार में बैंकों के प्रवेश के लिए मानदंडों को उदार बनाया गया तथा निजी बैंकों में शेयरों के आबंटन तथा अंतरण के लिए विद्यमान क्रियाविधियों को बेहतर बनाया गया। जरूरतमंद क्षेत्रों को ऋण सुपुर्दगी में सुधार लाने के लिए महत्वपूर्ण समितियों का गठन किया गया है। साथ ही, एक स्थायी तकनीकी सलाहकार समिति का गठन भी किया गया है, जिसे वित्तीय विनियमन से संबंधित क्षेत्र का काम सौंपा गया है। एक अन्य दल सुव्यवस्थित महत्वपूर्ण वित्तीय मध्यस्थों के लिए निगरानी प्रणाली तैयार करने हेतु गठित किया गया। लोक सेवाओं पर क्रियाविधियों तथा कार्यनिष्पादन लेखा-परीक्षा संबंधी स्थायी समिति तथा बैंकों में ग्राहक सेवाओं पर क्रियाविधियों और कार्यनिष्पादन लेखा-परीक्षा संबंधी तदर्थ समितियों के गठन का लक्ष्य ग्राहक सेवा में सुधार लाने के लिए तंत्र उपलब्ध कराना तथा क्रियाविधियों में पारदर्शिता लाना और उन्हें सरल बनाना है। इस दिशा में कुछ और निम्नलिखित उपायों का प्रस्ताव किया जाता है।
(क) आधारभूत सुविधाओं के वित्तपोषण के लिए दीर्घावधि बांड
115. अप्रैल 2003 के नीतिगत वक्तव्य में बैंकों के लिए उपयुक्त नीतिगत दिशा-निर्देश जारी करने का प्रस्ताव किया गया था, ताकि वे बाजार से ऐसे दीर्घावधि साधन जुटा सकें, जो गौण ऋण के स्वरूप के न हों। इस संदर्भ में आधारभूत क्षेत्र को उधार देने में वफ्द्धि लाने की दृष्टि से यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
- बैंकों को आधारभूत क्षेत्रों को 5 वर्ष से अधिक की शेष परिपक्वता अवधि के उनके निवेश की सीमा तक 5 वर्ष की न्यूनतम परिपक्वता अवधि वाले दीर्घावधि बांड जारी करने की अनुमति दी जाये।
(ख) गैर-जमानती निवेशों पर सीमाओं की समाप्ति
116. वर्तमान में, बैंकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी प्रतिबद्धताओं को गैर-जमानती निवेशों के जरिए इस प्रकार सीमित करें कि बैंक की बकाया गैर-जमानती गारंटियों का 20 प्रतिशत तथा उसके गैर-जमानती बकाया अग्रिमों की कुल राशि उसवे कुल बकाया अग्रिमों के 15 प्रतिशत से अधिक न हो। बैंकों को उनकी ऋण नीतियों में और लोच प्रदान करने की दृष्टि से यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
- गैर-जमानती निवेशों पर विद्यमान सीमा को हटा लिया जाए, ताकि बैंकों के निदेशक बोड़ गैर-जमानती निवेशों के बारे में अपनी स्वयं की नीति निर्धारित कर सकें।
- बैंकों से यह अपेक्षित होगा कि वे 10 प्रतिशत का अतिरिक्त प्रावधान करें अर्थात् गैर-जमानती निवेशों पर अपेक्षित हानि को पूरा करने के लिए अवमानक संवर्ग में कुल बकाया अग्रिमों के 20 प्रतिशत का कुल प्रावधान करें।
- संदिग्ध और हानि संवर्ग में गैर-जमानती निवेशों के लिए शत-प्रतिशत का प्रावधान करने की वर्तमान पद्धति जारी रहेगी।
(ग) विवेकशील ऋण निवेश सीमाएं
117. वर्तमान में बैंकों को किसी एक ऋणकर्ता अथवा ऋणकर्ताओं के समूह के लिए पूंजीगत निधियों (अर्थात् स्तर घ् और स्तर घ्घ् पूंजी) के क्रमश: 15 और 40 प्रतिशत तक ऋण निवेश की अनुमति है। साथ ही, आधारभूत क्षेत्र में निवेश के लिए पूंजीगत निधियों का क्रमश: 5 और 10 प्रतिशत अतिरिक्त निवेश किया जा सकता है। पिर भी, विवेकशील ऋण निवेश सीमाओं का अनुपालन करने में कठिनाई अनुभव करने वाले बैंक प्रत्येक मामले के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक के पास अनुमोदन के लिए जा सकते हैं। बाह्य वाणिज्यिक उधारों तक ऋणकर्ताओं की उदारीवफ्त पहुंच तथा पूंजी/ऋण बाजार के जरिए संसाधन जुटाने की उनकी क्षमता के परिप्रेक्ष्य में यह निर्णय लिया गया है कि प्रत्येक मामले में अनुमोदन देने की प्रथा को बंद कर दिया जाये। तदनुसार, यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
- बैंक अपवादात्मक परिस्थितियों में अपने निदेशक मंडलों के अनुमोदन से ऋणकर्ता को पूंजीगत निधियों के और 5 प्रतिशत अधिकतम तक ऋण देने पर विचार कर सकते हैं, बशर्ते ऋणकर्ता इस बात पर बैंकों से सहमत हों कि वे अपनी वार्षिक रिपोर्टों में इसका उपयुक्त रूप से उल्लेख करेंगे। आधारभूत सुविधाओं में निवेश के लिए किसी एक ऋणकर्ता और ऋणकर्ताओं के समूह के लिए पूंजीगत निधियों के क्रमश: 5 और 10 प्रतिशत की अतिरिक्त छूट जारी रहेगी।
- भारत सरकार द्वारा पूरी तरह से गारंटीवफ्त बैंक-निवेशों पर ऋण निवेश मानदंड लागू नहीं होंगे।
- बैंक निर्धारित सीमाओं से परे अधिक निवेशों को 31 मार्च 2005 तक पूंजीगत निधियां बढ़ाकर या निवेश कम करके चरणबद्ध रूप से समाप्त करेंगे।
(घ) लोक वित्त संस्थाओं को ऋण के लिए जोखिम भार
118. वर्तमान में, निर्दिष्ट लोक वित्त संस्थाओं को बैंकों/वित्तीय संस्थाओं द्वारा दिये गये ऋण पर पूंजी पर्याप्तता प्रयोजनों के लिए 20 प्रतिशत का जोखिम भार निर्धारित है। लोक वित्त संस्थाओं की वित्तीय स्थितियां अलग-अलग होती हैं। अत: पूंजी पर्याप्तता प्रयोजनों के लिए लोक वित्त संस्थाओं को विशेषाधिकार के आधार पर व्यवहार में प्राथमिकता देना औचित्यपूर्ण नहीं लगता। तदनुसार, यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
- 1 अप्रैल 2005 से सभी लोक वित्त संस्थाओं के निवेशों पर शत-प्रतिशत का जोखिम भार लगेगा।
(ङ) बाजार जोखिम के लिए पूंजी प्रभार
119. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में बैंकों को यह सलाह दी गयी थी कि वे बाजार जोखिम के लिए पूंजी प्रभार हेतु बासले मानदंडों को अपनाये। इस दिशा में और कदम बढ़ाते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक ने चुने हुए बैंकों को बाजार जोखिम के लिए पूंजी प्रभार की गणना पर दिशा-निर्देशों का प्रारूप जारी किया, ताकि उनके अभिमत प्राप्त किये जा सकें। इस संदर्भ में बासले के मानदंडों को आसानी से अपनाना सुनिश्चित करने की दृष्टि से बाजार जोखिम के लिए पूंजी प्रभारों के कार्यान्वयन को निम्नानुसार 2 वर्ष की अवधि में चरणबद्ध करने का प्रस्ताव है :
- बैंकों से यह अपेक्षा की जायेगी कि वे 31 मार्च 2005 तक अपने व्यापारिक बही निवेशों (व्युत्पन्नों सहित) के संबंध में बाजार जोखिम के लिए पूंजीगत प्रभार लगायें।
- बैंकों से यह अपेक्षा की जायेगी कि वे 31 मार्च 2004 तक बिक्री के लिए उपलब्ध संवर्ग के अंतर्गत शामिल प्रतिभूतियों के संबंध में बाजार जोखिम के लिए पूंजी प्रभार लगायें।
(च) नया पूंजी समझौता (बासले-घ्घ्) के कार्यान्वयन के लिए तैयारी
120. बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासल समिति जून 2004 के अंत तक नया पूंजी समझौता (बासले-घ्घ्) जारी करेगी, जिसका कार्यान्वयन 2006 के अंत तक होने की आशा की जाती है। चूंकि एक सुस्थापित जोखिम प्रबंध प्रणाली बासले-घ्घ् के अंतर्गत उन्नत दृष्टिकोण के कार्यान्वयन की पूर्व आवश्यकता है, अत: यह प्रस्ताव किया जाता है कि :
- बैंक बासले-घ्घ् समझौते के अंतर्गत उपलब्ध विकल्पों का गहरायी से परीक्षण करें तथा बासले-घ्घ् को अपनाने के लिए दिसंबर 2004 तक अपनी योजना बनायें तथा तिमाही अंतरालों पर तत्संबंधी प्रगति की समीक्षा करें। भारतीय रिज़र्व बैंक इस दिशा में बैंकों द्वारा की गयी प्रगति पर ्य्वशेष निगरानी रखेगा।
(छ) देश-विशेष को ऋण देने में निहित जोखिम का प्रबंधन
121. अप्रैल 2003 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में यह बताया गया था कि परवरी, 2003 में जारी किये गये देश-विशेष को ऋण देने में निहित जोखिम प्रबंधन संबंधी दिशा-निर्देशों के कार्यान्वयन में बैंकों के अनुभव को ध्यान में रखते हुए एक वर्ष के बाद इसकी समीक्षा की जाएगी। 31 मार्च 2003 से ये दिशा-निर्देश केवल उन देशों के लिए लागू हैं जहां किसी बैंक का अपनी परिसंपत्तियों का 2.0 प्रतिशत अथवा उससे अधिक निवेश है। रिज़र्व बैंक ने अब इस स्थिति की समीक्षा की है और प्रस्ताव किया जाता है कि :
- यदि किसी देश में बैंक के एक्सपोज़र उसकी परिसंपत्तियों के 1.0 प्रतिशत अथवा उससे अधिक हैं तो उस देश के संबंध में बैंक पर ये दिशा-निर्देश 31 मार्च 2005 से लागू होंगे।
(ज) अनर्जक परिसंपत्तियों के लिए प्रावधानीकरण की आवश्यकता
122. वर्तमान में, बैंकों के लिए यह अपेक्षित है कि वे अनर्जक परिसंपत्तियों पर अनर्जक परिसंपत्ति बने रहने की अवधि को ध्यान में रखते हुए श्रेणीबद्धमान आधारित प्रावधानीकरण करें। किंतु, ‘तीन वर्ष से अधिक की संदिग्ध परिसंपत्तियों’ के संबंध में, उनकी हानि-परिसंपत्ति के रूप में पहचान होने तक जमानती भाग पर 50 प्रतिशत प्रावधानीकरण की आवश्यकता में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है। वित्तीय परिसंपत्तियों का प्रतिभूतिकरण और पुनर्निर्माण तथा प्रतिभूति ब्याज का प्रवर्तन अधिनियम, 2002 के लागू होने तथा दीर्घावधि में किसी परिसंपत्ति की वसूली के कम होते हुए अवसरों/सीमा को देखते हुए यह आवश्यक हो गया है कि बैंक अनर्जक परिसंपत्तियों की वसूली में तेजी लाएं। तदनुसार, यह प्रस्ताव है कि :
- ‘तीन वर्ष से अधिक से संदिग्ध’ के अंतर्गत शामिल परिसंपत्तियों के संबंध में, अनर्जक परिसंपत्तियों की अवधि के अनुसार श्रेणीबद्ध उच्चतर प्रावधानीकरण आवश्यकता 31 मार्च 2005 से लागू की जाए।
(झ) इरादतन चूककर्ता - प्रक्रिया संबंधी स्पष्टीकरण
123. वर्तमान में बैंकों/वित्तीय संस्थाओं के लिए यह अपेक्षित है कि वे इरादतन चूककर्ताओं के रूप में उधारकर्ता खातों के वर्गीकरण के लिए कार्यपालक निदेशक की अध्यक्षता में उच्चतर अधिकारियों की एक समिति गठित करें तथा जिन उधारकर्ताओं को ‘इरादतन चूककर्ता’ के रूप में उनका वर्गीकरण किये जाने के प्रति शिकायत हो तो उसकी सुनवाई के लिए अध्यक्ष एवं प्रबंध निदेशक की अध्यक्षता में एक समिति के रूप में एक शिकायत निवारण तंत्र का निर्माण करें। ऐसे अभिवेदन प्राप्त हुए हैं कि इस बात को ध्यान में रखते हुए कि प्रतिष्ठा को जो क्षति होती है उसे पुन: आसानी से प्राप्त नहीं किया जा सकता, घटना के बाद शिकायत का निवारण किया जाना उचित नहीं है। यह सुझाव दिया गया था कि इस प्रकार की घोषणा करने से पूर्व चूककर्ता को अपनी बात कहने का अवसर दिया जाना चाहिए। अत: यह स्पष्ट किया जाता है कि :
- उधारकर्ता खातों का वर्गीकरण और निवारण तंत्र दो अलग-अलग प्रक्रियाएं हैं, जिनमें (व) स्पष्ट कारणों के साथ इरादतन चूक की पहचान करना; और (वव) उधारकर्ता को, इरादतन चूककर्ता के रूप में वर्गीवफ्त करने से पूर्व अभिवेदन करने का अवसर प्रदान करना शामिल हैं।
(ञ) ऋण सूचना का प्रचार-प्रसार - क्रेडिट इंफार्मेशन
ब्यूरो ऑफ इंडिया की भूमिका
124. वित्तीय प्रणाली के प्रति चूक संबंधी आंकड़ों को शामिल करते हुए ऋण सूचना के समेकन और प्रचार-प्रसार का कार्य भारतीय रिज़र्व बैंक से क्रेडिट इंफार्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया लि. (सिबिल) ने जून 2002 से ले लिया है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने सभी बैंकों/वित्तीय संस्थाओं को अनुदेश जारी किये हैं कि वे ऋण सूचना के प्रचार-प्रसार के लिए अपने सभी उधारकर्ताओं से सहमति प्राप्त कर लें ताकि क्रेडिट इंफार्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया लि. ऋण सूचना का समेकन एवं प्रचार-प्रसार कर सके। किंतु, अनेक बैंकों ने व्यापक दृष्टि से इन अनुदेशों के अनुपालन के लिए प्रभावी उपाय नहीं किये हैं जो चिंता का विषय है। रिज़र्व बैंक एक सक्षम ऋण सूचना प्रणाली विकसित करने को सर्वोच्च प्राथमिकता देता है और इस संबंध में हुई प्रगति पर ्य्वशेष निगरानी रखेगा। एक सुदृढ़ वित्तीय प्रणाली विकसित करने की दृष्टि से यह प्रस्तावित है कि :
- बैंकों/वित्तीय संस्थाओं के बोड़ सभी उधारकर्ताओं के संबंध में क्रेडिट इंफार्मेशन ब्यूरो ऑफ इंडिया लि. को ऋण सूचना प्रेषित करने के लिए ्य्कये गये उपायों की समीक्षा करें और उसके अनुपालन के बारे में भारतीय रिज़र्व बैंक को रिपोर्ट प्रेषित करें।
- ऋण सूचना ब्यूरो, क्रेडिट रेटिंग एजें्य्सयों की तरह, वित्तीय प्रणाली के परिचालन के लिए महत्वपूर्ण हैं और उनका अनेक तरह से विनियामक के साथ प्राधिवफ्त रूप से संबंध होता है। इस प्रकार, यह वांछित है कि पर्याप्त रूप से विविधीवफ्त स्वामित्व की ओर बढ़ने का उद्देश्य होना चाहिए जिसमें कोई भी एक संस्था प्रथम चरण में अपनी चुकता पूंजी के 10 प्रतिशत से अधिक की और बाद में 5 प्रतिशत से अधिक की स्वामी न हो।
(ट) ऋण वसूली न्यायाधिकरणों की प्रगति
125. बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को देय ऋणों के शीघ्र न्याय-निर्णय और उनकी वसूली के लिए न्यायाधिकरणों की स्थापना के लिए 1993 में बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को देय ऋणों की वसूली संबंधी अधिनियम लागू किया गया था। दिसंबर 2003 के अंत की स्थिति के अनुसार ऋण वसूली न्यायाधिकरणों में बैंकों द्वारा दायर किये गये 61,301 मामलों (88,876 करोड़ रुपए) में से उनके द्वारा 25,510 मामलों (23, 273 करोड़ रुपए) का न्याय-निर्णयन कर दिया गया है। न्याय-निर्णीत मामलों के माध्यम से अब तक 6874 करोड़ रुपए की राशि वसूल की गई है। ऋण वसूली न्यायाधिकरणों के कार्य-चालन के संबंध में आंतरिक समीक्षा के आधार पर तथा इस संबंध में आगे और सुधार पर विचार करने की दृष्टि से भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक कार्यदल गठित करने लिए सरकार से अनुरोध किया है।
(ठ) अपने ग्राहक को जानिए (केवाइसी)
और ग्राहक-संबंध गोपनीयता
126. हाल के वर्षों में, काले धन को वैध बनाने से रोकने को अत्यधिक महत्व दिया गया है। बैंकों द्वारा अपने ग्राहकों को जानिए ( केवाइसी) के सिद्धांत को अपनाया जाना काले धन को वैध बनाने और आतंकवाद के वित्तपोषण पर रोक लगाने की दिशा में आगे की ओर उठाया गया एक कदम है। अगस्त 2002 में, बैंकों को यह सूचित किया गया था कि वे उपयुक्त दस्तावेजों के जरिए पहचान स्थापित करने के लिए एक उचित केवाइसी क्रियाविधि पूर्ण करें तथा यह सुनिश्चित करें कि इस प्रकार की क्रियाविधि के कारण सामान्य जनता बैंकों की सेवा से वंचित न हो जाए। इसके अलावा, दिसंबर 2002 में, बैंकों को यह सूचित किया गया था कि वे केवाइसी मानदंडों के अनुपालन के लिए अगस्त 2002 से पूर्व खोले गये खातों की समीक्षा करें और सभी खातों के संबंध में चरणबद्ध रूप से दिसंबर 2004 तक इस कार्य को पूरा करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं। इस संदर्भ में, यह सूचित किया जाता है कि :
- बैंक नये खाते खोलने के लिए अपने बोड़ द्वारा अपनायी गयी केवाइसी नीति का कड़ाई से पालन करें; वे इसका कार्यान्वयन वर्तमान खातों में ऐसे मामलों में ही सीमित रखें जहां जमा/नामे लेन देनों का जोड़ 10 लाख रुपये से अधिक है अथवा जहां बैंकों को किसी असामान्य लेन देन का संदेह हो।
- बैंक न्यासों, मध्यवर्ती संस्थाओं से संबंधित सभी खातों अथवा जहां खाते किसी अधिदेश अथवा मुख्तारनामें के माध्यम से परिचालित होते हों, में केवाइसी का संचालन करें। केवाइसी क्रियाविधि को स्थानीय स्थितियों के अनुकूल तत्परता से लागू किया जाना चाहिए और यह कार्य दिसंबर 2004 तक पूरा हो जाना चाहिए।
127. बैंकों को यह सूचित किया गया है कि उनके द्वारा केवाइसी प्रयोजनों के लिए गोपनीय आधार पर संकलित की गई जानकारी का किसी अन्य प्रयोजन, जैसे उत्पादों के प्रति विक्रय (क्रॉस सेलिंग) के लिए उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। जहां कहीं बैंक ग्राहकों के बारे में ऐसी कोई सूचना एकत्र करना चाहते हैं जो केवाइसी से संबंधित नहीं है अथवा केवाइसी अपेक्षाओं से भिन्न किसी प्रयोजन के लिए है तो यह खाता खोलने संबंधी पॉर्म के भाग के रूप में नहीं होनी चाहिए। ऐसी सूचना, ग्राहक को उसके उद्देश्य के बारे में बताने के बाद और इस प्रकार की सूचना के विशिष्ट उपयोग के लिए ग्राहक से उसकी सहमति प्राप्त करने के बाद ही अलग से, पूर्ण रूप से स्वैच्छिक आधार पर एकत्र की जानी चाहिए।
(ड) एस एल आर से इतर प्रतिभूतियों में बैंकों के निवेश
128. बैंकों के एसएलआर से इतर निवेश संविभाग, विशेष रूप से प्राइवेट प्लेसमेंट मार्ग (रूट) के माध्यम से किये गये निवेश से उत्पन्न जोखिमों से बचने के लिए, कंपनी ऋण के प्राइवेट प्लेसमेंट के विनियमन संबंधी मुद्दे पर भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोड़ (सेबी) के साथ चर्चा की गई थी। सितंबर 2003 में कंपनी ऋण प्रतिभूतियों के लिए द्वितीयक बाजार के संबंध में सेबी के मार्गदर्शी सिद्धांत जारी करने के परिणामस्वरूप भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा एसएलआर से इतर प्रतिभूतियों में बैंकों द्वारा निवेश के संबंध में विवेकपूर्ण मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किये गये थे, जिनमें अन्य बातों के साथ-साथ गैर सूचीबद्ध गैर एस एल आर प्रतिभूतियों में बैंकों के निवेश संबंधी विवेकपूर्ण सीमाएं शामिल की गई थीं। ऐसे बैंकों को, जिनके गैर एस एल आर प्रतिभूतियों में निवेश उपर्युक्त मार्गदर्शी सिद्धांतों में निर्धारित विवेकपूर्ण सीमाओं से अधिक हैं, अनुपालन के लिए दिसंबर 2004 के अंत तक का संक्रमण-समय (ट्रांजीशन-पीरियड) दिया गया था। पहली जनवरी 2005 से केवल उन्हीं बैंकों को ऐसी प्रतिभूतियों में विवेकपूर्ण सीमाओं तक नये निवेश करने की अनुमति दी जाएगी जिनके गैर सूचीबद्ध गैर एस एल आर प्रतिभूतियों में निवेश विवेकपूर्ण सीमाओं के भीतर हैं।
(ढ) सरकारी क्षेत्र के बैंकों में सतर्कता प्रक्रिया का यौक्तिकीकरण
129. सरकारी क्षेत्र के बैंकों में सतर्कता प्रबंध की वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ऐसे किसी लेनदेन की जांच करता है जिसमें स्केल घ्घ्घ् और उससे ऊपर की श्रेणी के अधिकारी पर अनुचित अथवा भ्रष्ट प्रयोजन के लिए कार्य करने का संदेह अथवा आरोप हो।
130. इस व्यवस्था के अंतर्गत भारी संख्या में मामलों के निपटान को देखते हुए तथा बैंकिंग उद्योग के बदलते हुए परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए सीवीसी ने भारतीय बैंक संघ द्वारा दिया गया अभ्यावेदन स्वीकार कर लिया है और निर्णय किया है कि केवल ऐसे मामलों को ही परामर्श के लिए आयोग के पास भेजा जाए जिनमें स्केल ङ और ऊपर के स्तर का अधिकारी शामिल हो। जिन मामलों में स्केल घ्ङ और उससे कम के अधिकारी की मिलीभगत हो उन्हें बैंक स्वयं देखे ताकि संदर्भित मामलों का शीघ्र निपटान किया जा सके। इस संशोधित व्यवस्था से सरकारी क्षेत्र के बैंकों के कर्मचारियों को सामान्य वाणिज्यिक निर्णय के अनुरूप अपनी ड्यूटी निभाने के लिए एक सहायक वातावरण मिलने की आशा है।
(ण) वित्तीय समेकन (कांग्लोमिरेट्स) के संबंध में कार्य दल
131. नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में सर्वांग रूप से महत्वपूर्ण वित्तीय संस्थाओं के लिए एक निगरानी प्रणाली स्थापित करने का प्रस्ताव किया गया था। तदनुसार, भारतीय रिज़र्व बैंक, सेबी और आइआरडीए से एक-एक सदस्य लेकर एक अंतर एजेंसी कार्य दल का गठन किया गया था। उस दल का नाम अब वित्तीय समेकन संबंधी कार्य दल रखा गया है। उक्त समूह ने वित्तीय समेकनों की पहचान करने के लिए मानदंड, आंतर-समूह लेनदेनों और ऐसे समेकनों के बीच निवेशों का पता लगाने के लिए निगरानी प्रणाली तथा समेकनों के संबंध में सूचना के अंतर-विनियामक विनिमय के लिए व्यवस्था हेतु सुझाव दिये हैं। उक्त समूह ने अब अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है जिसे इंटरनेट पर रखा जा रहा है।
(त) त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए)
132. जैसा कि अप्रैल 2003 के वार्षिक नीति वक्तव्य में बताया गया था, त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई योजना को शुरू में एक वर्ष की अवधि के लिए लागू किया गया था जिसकी दिसंबर 2003 में समीक्षा की जानी थी। उक्त योजना की वित्तीय पर्यवेक्षण बोड़ (बीएफएस) ने समीक्षा की थी और यह निर्णय लिया गया है कि त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई संरचना को जारी रखा जाए।
(थ) जोखिम आधारित पर्यवेक्षण
133. अप्रैल 2003 के वार्षिक नीति वक्तव्य में यह बताया गया था कि भारतीय रिज़र्व बैंक 2003-04 के दौरान प्रायोगिक आधार पर जोखिम आधारित पर्यवेक्षण (आर बी एस) लागू करेगा। 8 बैंकों का प्रायोगिक जोखिम आधारित पर्यवेक्षण अब तक पूरा हो चुका है और यह निर्णय किया गया है कि जोखिम आधारित पर्यवेक्षण को कुछ आशोधनों के साथ वर्ष 2004-05 के दौरान 15 और बैंकों पर लागू किया जाए।
(द) समेकित पर्यवेक्षण
134. अप्रैल 2003 के वार्षिक नीति वक्तव्य में बताये गये अनुसार, समेकित लेखांकन और पर्यवेक्षण के संबंध में अंतिम रूप से तैयार किये गये मार्गदर्शी सिद्धांत इस सूचना के साथ बैंकों को जारी किये गये थे कि वे 31 मार्च 2003 को समाप्त वर्ष से इनका कड़ाई से पालन सुनिश्चित करें। इसके अलावा, बैंकों को सूचित किया गया है कि वे समेकित विवेकपूर्ण रिपोर्टें (सी पी आर) तैयार करें तथा प्रस्तुत करें ताकि जोखिमों का पर्यवेक्षी निर्धारण और समूह आधार पर कतिपय विवेकपूर्ण विनियमों का कड़ाई से अनुपालन किया जा सके। भारतीय रिज़र्व बैंक इन रिपोर्टों की माही आधार पर समीक्षा कर रहा है।
(ध) समष्टि विवेकपूर्ण संकेतक
135. भारत में वित्तीय प्रणाली की स्थिरता पर निगरानी रखने के लिए श्रेष्ठ अंतरराष्ट्रीय प्रथाओं को अपनाने में रिज़र्व बैंक के प्रोत्साहनों के भाग के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक मार्च 2000 और उसके बाद से समष्टि विवेकपूर्ण संकेतकों (एम पी आइ) का समेकन कर रहा है। जैसा कि अप्रैल 2003 के वार्षिक नीति वक्तव्य में बताया गया था, मार्च 2002 में भारत में बैंकिंग की प्रवफ्त्ति और प्रगति की रिपोर्ट में समष्टि विवेकपूर्ण संकेतकों की मुख्य-मुख्य बातों की समीक्षा को प्रकाशित किया गया था। अब यह निर्णय किया गया है कि इन समीक्षाओं को वार्षिक आधार पर प्रकाशित किया जाए।
शहरी सहकारी बैंक
136. भारतीय रिज़र्व बैंक का यह प्रयास रहा है कि वह जमाकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करने तथा साथ ही लघु उद्योगों (एस एस आइ), लघु और मध्यम उद्यमों (एस एम ई) तथा लघु उधारकर्ताओं के लिए वित्तपोषण अंतरालों को भरने के लिए शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र को मज़बूत आधार पर विकसित करे। इस दिशा में, अग्रलिखित उपाय प्रस्तावित हैं :
(क) शहरी सहकारी बैंकों की स्थिति और लाइसेंस दिया जाना
137. वर्ष 1993 में, लाइसेंस देने की नीति के उदारीकरण से पूर्व, 1,311 शहरी सहकारी बैंक थे और जिनकी जमाराशियां एवं अग्रिम क्रमश: 11,108 करोड़ रुपये और 8,713 करोड़ रुपये थी। दिसंबर 2003 के अंत तक बढ़कर 2,104 शहरी सहकारी बैंक हो गये और उनकी जमाराशियां एवं अग्रिम राशियां बढ़कर क्रमश: 1,03,478 करोड़ रुपये और 61,930 करोड़ रुपये हो गई। शहरी सहकारी बैंकों की अनर्जक परिसंपत्तियां मार्च - अंत 1998 की स्थिति के अनुसार के उनके कुल अग्रिमों की 11.8 प्रतिशत से बढ़कर मार्च - अंत 2003 तक 21.0 प्रतिशत हो गयी। दिसंबर 2003 - अंत की स्थिति के अनुसार, 2,104 शहरी सहकारी बैंंकों में से 176 बैंक समापन प्रक्रिया के अंतर्गत थे एवं 636 बैंक कमज़ोर/रुग्ण हो गये थे।
138. मई 1993 में लाइसेंस देने के मानदंडों के उदारीकरण के बाद, जून 2001 तक 823 लाइसेंस जारी किये गये थे और यह देखा गया था कि इन नये लाइसेंस प्राप्त शहरी सहकारी बैंकों में से 31 प्रतिशत बैंक कुछ ही समय में वित्तीय दृष्टि से अस्वस्थ हो गये थे। तदनुसार, रिज़र्व बैंक ने लाइसेंसों के आवेदन पत्रों की जांच करने के लिए जून 2001 में बाहर के विशेषज्ञों को लेकर एक अनुवीक्षण समिति (स्क्रीनिंग कमेटी) का गठन किया था। उक्त समिति ने यह सिफारिश की है कि सभी नये प्रस्तावित शहरी सहकारी बैंकों के लिए यह अनिवार्य बना दिया जाए कि वे पहले सहकारी ऋण समिति के रूप में गठित हों और बाद में धीरे-धीरे उनके प्रदर््य्शत तथा प्रमाणनीय ट्रैक रिकार्डों के आधार पर शहरी सहकारी बैंक के रूप में अ्य्स्तत्व पायें।
139. उपर्युक्त अनुभव को ध्यान में रखते हुए और शहरी सहकारी बैंक क्षेत्र को मज़बूत, स्वस्थ एवं स्थायी बनाने की दफ्ष्टि से यह प्रस्तावित है कि :
- शहरी सहकारी बैंकों के संबंध में एक व्यापक नीति, इस क्षेत्र के लिए एक उचित विधिक और विनियामक ढांचे को शामिल करते हुए, लागू करने के बाद ही नये लाइसेंस जारी करने पर विचार किया जाए तथा शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र के वित्तीय स्वास्थ्य में सुधार लाने की एक नीति शीघ्र ्य्नर्धा्य्रत की जाये।
(ख) शहरी सहकारी बैंकों की पुनर्संरचना योजना
140. पिछले कुछ समय में, कई शहरी सहकारी बैंकों ने समस्याओं का सामना किया, जिनके कारण उन्हें अपना परिचालन बंद करना पड़ा। सरकार द्वारा दी गई प्रतिबद्धता के चलते कुछ शहरी सहकारी बैंकों के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक ने कुछ शर्तों के तहत पुनर्संरचना योजना का अनुमोदन किया। योजना के कार्यान्वयन की प्रगति की समीक्षा करने पर यह खुलासा हुआ कि योजना के कुछ नियम और शर्तों, जैसे निधि लगाने और अनर्जक परिसंपत्तियों की वसूली, का अनुपालन नहीं किया गया। इस अनुभव के मद्देनजर, यह प्रस्ताव है कि :
- पुनर्संरचना की केवल उन योजनाओं पर विचार किया जाए जिनमें जोखिम उठानेवालों, जैसे शेयरधारक/सहकारी संस्थाओं/सरकार जिस हद तक निर्धारित पूंजी पर्याप्तता मानदंड किया जाता है, निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम से बीमा दावों के निपटान के माध्यम से चलनिधि लगाए बिना ही, ऐसी योजनाएं जो निर्धारित समय-सीमा के भीतर अनर्जक परिसंपत्तियों के स्तर को सहन करने योग्य सीमा तक कम करने के लिए मार्ग प्रशस्त करती हों।
विकास वित्त संस्थानों पर कार्य दल
141. जैसा कि नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, मीयादी-ऋणदाता संस्थानों और पुनर्वित्त संस्थाओं से संबंधित एवं उन्हें संसाधन उपलब्ध कराने में सुधार लाने के लिए विनियामक पर्यवेक्षणात्मक मुद्दों पर एक कार्य समूह (अध्यक्ष : श्री एन. सदाशिवन) का गठन किया गया। इस दल ने मोटे तौर पर गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के विनियामक ढांचे के तहत एक अलग श्रेणी के रूप में विकास वित्तपोषण संस्थाओं के लिए अल्पावधि संसाधनों की पहुंच समेत विभिन्न विनियामक और पर्यवेक्षणात्मक पहलुओं की जांच की। दल ने अवशिष्ट गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों सहित गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से संबंधित विभिन्न विनियामक और पर्यवेक्षणात्मक पहलुओं की जांच की। दल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है और इसे प्य्ब्लक डोमेन पर डाला जा रहा है।
शीर्ष पुनर्वित्त संस्थाओं की विनियामक और
पर्यवेक्षणात्मक गतिविधियों की समीक्षा
142. वित्तीय क्षेत्र के वर्तमान विनियामक और पर्यवेक्षणात्मक ढांचे के तहत भारतीय वित्तीय क्षेत्र के निश्चित खंडों के संबंध में, लागू कानूनों के अधीन, नाबाड़, राष्ट्रीय आवास बैंक और भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक जैसे अखिल भारतीय शीर्ष पुनर्वित्त संस्थानों पर विनियामक और पर्यवेक्षणात्मक जिम्मेदारी है। अंतत: इन पुनर्वित्त संस्थानों का विनियमन और पर्यवेक्षण भारतीय रिज़र्व बैंक करता है। भारतीय रिज़र्व बैंक की पर्यवेक्षणात्मक प्रक्रिया विवेकपूर्ण विचारों से निर्देशित होती है और इसमें मुख्यत: संस्थानों की वित्तीय स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। यह महत्वपूर्ण है कि इनके वित्तीय निष्पादन को विनियमन और पर्यवेक्षण की इनकी सांविधिक जिम्मेदारी से अलग रखा जाए। विनियामक और पर्यवेक्षणात्मक ढांचे की प्रत्येक गतिविधि के विशिष्ट लक्षण को बनाए रखते हुए सामंजस्य सुनिश्चित करने के उद्देश्य से यह वांछनीय समझा गया कि इन पुनर्वित्त संस्थाओं द्वारा अपनाए गए विनियामक ढांचे और पर्यवेक्षणात्मक प्रणाली तथा प्रक्रिया का अध्ययन किया जाए। तदनुसार, यह प्रस्तावित है कि :
- पुनर्वित्त संस्थाओं द्वारा अपनाई गई विनियामक और पर्यवेक्षणात्मक प्रणाली की क्षमता के मूल्यांकन, यदि कोई कमी हो तो उसकी पहचान करने और इस ढांचे को मजबूती प्रदान करने के लिए सिपारिश देने हेतु भारतीय रिज़र्व बैंक, शीर्ष पुनर्वित्त संस्थाओं और बाहरी विशेषज्ञों के प्रतिनिधियों को मिलाकर एक तकनीकी दल का गठन किया जाए। दल चार महीने में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करे।
तकनीक उन्नयन
143. रिज़र्व बैंक ने वित्तीय स्थायित्व को बढ़ाने के लिए सुरक्षित, निरापद तथा दक्ष भुगतान और निपटान प्रणाली विकसित करने के संगठित प्रयास किए हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक ने विनियामक और निरीक्षण कार्य करने के अलावा देश में भुगतान और निपटान प्रणाली की समग्र दक्षता में सुधार करने की प्रक्रिया में उत्साहजनक और संस्थागत गतिविधियों को भी अपने हाथ में लिया है। इन गतिविधियों में चुंबकीय स्याही चिह्न पहचान (माइकर) चेक संसाधन प्रणाली, भारतीय वित्तीय नेटवर्क (इनपीनेट), इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (ई एप टी) प्रणाली, राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (एनईएपटी) प्रणाली, इलेक्ट्रॉनिक (नामे और जमा) समाशोधन प्रणाली (ईसीएस), तयशुदा लेनदेन प्रणाली (एनडीएस), प्रतिभूति निपटान प्रणाली (एसएसएस), केंद्रीवफ्त निधि प्रबंध प्रणाली (सीएपएमएस) और तत्काल सकल भुगतान (आरटीजीएस) प्रणाली का विकास और कार्यान्वयन शामिल है। एक ओर जहां देश में 39 केंद्रों में माइकर चेक संसाधन प्रणाली स्थापित की जा चुकी है, वहीं दूसरी ओर चेक छंटाई के लिए एक उपयुक्त सॉप्टवेयर विकसित करने का कार्य चल रहा है और 2004 के अंत में नई दिल्ली में पायलट प्रोजेक्ट लागू की जाएगी। संरचनागत वित्तीय संदेश समाधान (एस एप एम एस) का प्रयोग करते हुए वर्तमान इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (ईएपटी) प्रणाली आगे बढ़ाई जाएगी और तदनुसार राष्ट्रीय इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (एनईएपटी) सुविधा का परीक्षण कार्यक्रम के अनुसार जुलाई 2004 तक किया जाएगा। भारतीय रिज़र्व बैंक के चालू खाताधारकों को साथ-साथ अभिसंस्करण (एसटीपी) सुविधा उपलब्ध कराने के लिए, निधि के इलेक्ट्रॉनिक संचलन के लिए उपलब्ध केंद्रीवफ्त निधि प्रबंध प्रणाली (सीएपएमएस) को कार्यान्वित किया जा रहा है। बैंकिंग प्रौद्योगिकी विकास और अनुसंधान संस्थान (आइडीआरबीटी) एक राष्ट्रीय वित्तीय स्विच स्थापित करने जा रहा है, ताकि बैंकों द्वारा निधियों के इलेक्ट्रॉनिक अंतरण के लिए स्थापित अन्य स्विचों से शीर्ष स्तर की कनेक्टिविटी स्थापित हो सके और यह ई-कामर्स भुगतान गेटवे के रूप में कार्य कर सके। कुछ विशिष्ट क्षेत्रों से संबंधित स्थिति और विकास तथा आगे के उपायों के ब्योरे निम्नवत हैं :
(व ) इलेक्ट्रॉनिक समाशोधन सेवा और इलेक्ट्रॉनिक
निधि अंतरण - सेवा प्रभार समाप्त करना
144. इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (ईएपटी) को प्रोत्साहन देने और इलेक्ट्रॉनिक समाशोधन सेवा (ईसीएस) को बढ़ावा देने के उद्देश्य से, यह प्रस्तावित है कि :
- 31 मार्च 2006 तक इलेक्ट्रॉनिक समाशोधन सेवा (ईसीएस) और इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (ईएपटी) दोनों के लिए ही बैंकों पर से सेवा प्रभार समाप्त कर दिए जाएं।
(ख) भुगतान और निपटान प्रणाली के लिए बोड़
145. जैसा कि अप्रैल 2003 के वार्षिक नीति विवरण में उल्लेख किया गया था, उसी क्रम में भुगतान प्रणाली बिल में इस पर विचार किया गया कि भारतीय रिज़र्व बैंक में विशेष प्रणाली हो, ताकि देश में शीर्ष स्तर पर प्रभावी विनियमन और विभिन्न भुगतान प्रणालियों के निरीक्षण का कार्य किया जा सके। तदनुसार, वित्तीय निरीक्षण बोड़ की तर्ज पर भुगतान और निपटान प्रणाली बोड़ (बीपीएसएस) स्थापित करने का निश्चय किया गया। यह केंद्रीय बोड़ की समिति के रूप में कार्य करेगा जिसकी अध्यक्षता गवर्नर करेंगे। भुगतान और निपटान प्रणाली बोड़ का कार्य कागजी और इलेक्ट्रॉनिक दोनों ही भुगतान और निपटान प्रणालियों, इसमें घरेलू और विदेशी प्रणालियां शामिल हैं, के विनियमन और पर्यवेक्षण के लिए नीतियां बनाना होगा।
(ग) तत्काल सकल भुगतान प्रणाली
146. जैसा कि नवंबर 2003 की छमाही समीक्षा में उल्लेख किया गया था, उसी के अनुसार विस्तफ्त परीक्षण के पश्चात तत्काल सकल भुगतान प्रणाली के स्टैंडअलोन संस्करण को जांच के लिए रखा गया। इस अवधि के दौरान बाहरी विशेषज्ञों के एक समूह ने प्रणाली की नीतियों, कार्य-विधियों, लेखा-विधि और तकनीकी पहलुओं की समीक्षा की। तत्काल सकल भुगतान प्रणाली का वास्तविक परिचालन 4 चुनिंदा बैंकों की सहभागिता के साथ 26 मार्च 2004 को शुरू हुआ और अब तक इस प्रणाली में 25 बैंक शामिल हो चुके हैं। अंतर-बैंक उद्देश्यों के लिए निधियों के निपटान और ग्राहकों से संबंधित निधियों के लेन-देन अब इसी प्रणाली के माध्यम से हो रहे हैं। इसके अलावा, यह प्रणाली अपने सदस्यों को संपार्श्विक रिपो आधारित आंतर-दिवस चलनिधि सहायता भी उपलब्ध कराती है। ऐसी आशा है कि जून 2004 तक अधिकांश वाणिज्य बैंक तत्काल सकल भुगतान प्रणाली अपना लेंगे।
(घ) केंद्रीय आंकड़ा-आधारित प्रबंधन प्रणाली (सी डी बी एम एस)
147. जैसा कि नवंबर 2003 की छमाही समीक्षा में प्रस्तावित था, एक विशेषज्ञ समूह (अध्यक्ष :प्रोपेसर ए. वैद्यनाथन) का गठन किया जा चुका है। इस समूह का कार्य केंद्रीय आंकड़ा आधारित प्रबंध प्रणाली के प्रकाशनयोग्य खंड को अनुसंधानकर्ताओं, विश्लेषकों और अन्य उपयोगकर्ताओं की सुविधा के लिए पब्लिक डोमेन पर डालने की प्रक्रिया पर दिशा-निर्देश देना है। ऐसा करते समय उन्हें उपयोगकर्ता के लिए डाटा प्रसार नीति की भारतीय रिज़र्व बैंक की समग्र रूपरेखा का भी ध्यान रखना होगा। समूह की रिपोर्ट शीघ्र ही प्राप्त होने की आशा है।
(ङ) पूंजी बाजार के लिए इलैक्ट्रानिक निधि
अंतरण संबंधी कार्यदल
148. इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण (इ एप टी) के दायरे को बढ़ाने के दृष्टिकोण से और पूंजी बाजार से संबंधित लेनदेनों के लिए निधियों की तीव्र आवाजाही को सुगम बनाने का समाधान उपलब्ध कराने के लिए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने सेबी, स्टाक एक्सचेंज, राष्ट्रीय प्रतिभूति निक्षेपागार लिमिटेड (एन एस डी एल) और बीमा विनियामक विकास प्राधिकरण (आइआरडीए) के प्रतिनिधियों को मिलाकर मुद्रा बाजार के लिए इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण पर एक कार्यदल का गठन किया। समूह वर्तमान इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण सुविधा का मूल्यांकन करेगा और पूंजी बाजार के लिए टी+1 निपटान सुसाध्य बनाने के लिए इसके कवरेज को बढ़ाने के लिए सिपारिशें देगा।
मुद्रा प्रबंध प्रणाली की गतिविधियां
149. रिज़र्व बैंक यह सुनिश्चित करने के लिए स्वच्छ नोट नीति के कार्यान्वयन की निगरानी करना जारी रखेगा कि संचलन में केवल अच्छी क्वालिटी के नोट ही आएं। नवंबर 2003 की छमाही समीक्षा के बाद से, सिक्कों की मांग में कमी आने की विशिष्ट घटना हुई है जिसके परिणामस्वरूप सिक्कों का उल्टा प्रवाह शुरू हो गया। रिज़र्व बैंक अपने निर्गम कार्यालयों में आम जनता से न केवल अधिशेष सिक्के स्वीकार कर रहा है बल्कि उसने बैंकों को सूचित भी किया है कि वे सिक्कों को या तो गिनकर या तौलकर स्वीकार करें। भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने नकदी विभाग में समस्त लेनदेनों के लिए एकल खिड़की सेवा शुरू की है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने इसके अपने काउंटरों पर दिए गए जाली नोटों के लिए रसीद जारी करना शुरू किया है, वहीं उसने बैंकों को भी इसका कार्यान्वयन करने की सलाह दी है।
सरकारी कारोबार का संचालन
ऑन-लाइन कर लेखा प्रणाली
150. जैसा कि नवंबर 2003 की छमाही समीक्षा में उल्लेख किया गया भारतीय रिज़र्व बैंक ने ऑन-लाइन कर लेखा प्रणाली (ओएलटीएस) के परिचालन के लिए उच्चाधिकार प्राप्त समिति (एचपीसी) का गठन किया है। ऑन-लाइन कर लेखा प्रणाली के तहत, बैंकों द्वारा संग्रहीत किया गया प्रत्यक्ष कर सरकारी खाते में ऑन-लाइन क्रेडिट किया जाएगा। बैंक ऐसा भारतीय रिज़र्व बैंक के केंद्रीय लेखा अनुभाग (सीएएस) और आय कर विभाग के कर सूचना नेटवर्क (टीआइएन) को कर भुगतान डाटा का विप्रेषण कर करेंगे। जून 2003 से ऑन-लाइन कर लेखा प्रणाली का प्रायोगिक अध्ययन 14 बड़े शहरों में सपलतापूर्वक आयोजित किया गया और इस अध्ययन का विस्तार सभी प्राधिवफ्त बैंक शाखाओं को कवर करने के लिए किया गया है। उच्चाधिकार प्राप्त समिति की सिपारिशों के आधार पर केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोड़ (सीबीडीटी) ने कर जमा करने में प्रयोग होने वाले चालान पार्म को सरल बनाया है और कर संग्रहण तथा रिपोर्टिंग की प्रणाली तथा कार्यविधि को संशोधित किया है। ऑन-लाइन कर लेखा प्रणाली (ओएलटीएस) जून 2004 तक परिचालन में आने की संभावना है। इसके अलावा, केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोड़ वेतन पाने वाले करदाताओं को 25,000 रुपए तक के कर की धन वापसी के लिए भारतीय रिज़र्व की इलेक्ट्रानिक समाशोधन योजना सुविधा का लाभ उठाएगा। इसे शुरू में 12 शहरों में लागू किया जाएगा। इस सुविधा को अन्य शहरों में भी यथासमय लागू किया जायेगा।
लोक सेवाओं के संबंध में क्रियाविधि और
कार्यनिष्पादन लेखा परीक्षा संबंधी स्थायी समिति
151. जैसा कि नवंबर 2003 की छमाही समीक्षा में उल्लेख किया गया था उसी के अनुसार लोक सेवाओं के संबंध में क्रियाविधि और कार्यनिष्पादन लेखा-परीक्षा और भारतीय रिज़र्व बैंक में विनियमन समाशोधन और बैंकों द्वारा स्थापित ग्राहक सेवा की तदर्थ समितियों के साथ समन्वयन का कार्य देखने के लिए लोक सेवाओं के संबंध में क्रियाविधि और कार्यनिष्पादन लेखा परीक्षा संबंधी एक स्थायी समिति (अध्यक्ष : श्री एस. एस. तारापोर) गठित की गयी।
152. समिति ने इन चार तथ्यों को समाहित करते हुए अब तक चार रिपोर्टें प्रस्तुत की हैं : (व) विदेशी मुद्रा लेनदेन; (वव) सरकारी लेनदेन; (ववव) जमा खातों से संबंधित बैंकिंग परिचालन और अन्य सुविधाएं और (वख्) मुद्रा प्रबंधन (गैर-कारोबारी)। रिपोर्ट में मुख्य रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक की नीतियों और प्रक्रियाओं में परिवर्तन पर बल दिया गया है ताकि आम जनता को लेनदेन में आसानी हो। समिति ने इस पर भी जोर दिया कि भारतीय रिज़र्व बैंक आम जनता को अधिकार प्रदान करने और वैध लेनदेन करने में उसके अधिकारों की रक्षा करने में सहायक हो।
(क) विदेशी मुद्रा लेनदेन संबंधी रिपोर्ट
153. आम जनता से संबंधित विदेशी मुद्रा नियंत्रण के मामलों पर समिति की सिपारिशों की भारतीय रिज़र्व बैंक ने जांच की और कुछ सुझावों को अमली जामा पहनाया गया। इनमें शामिल हैं : (व) विभाग का नाम विदेशी मुद्रा नियंत्रण विभाग से बदलकर विदेशी मुद्रा विभाग रखना और इसे पुनर्गठित करना; (वव) निवासी भारतीयों के लिए 25,000 अमरीकी डालर तक व्यक्तिगत विप्रेषण की उदारीवफ्त योजना की अनुमति देना; (ववव) ई एस ओ पी योजना में रियायतों से संबंधित प्रतिबंधात्मक खंड को हटाना और (वख्) बैंकों को इसके लिए सूचित करना कि वे प्राधिवफ्त व्यापारी शाखाओं में इंटरपेस के प्रथम बिंदु पर प्रशिक्षित स्टाप उपलब्ध कराने के लिए उपाय शुरू करें।
(ख) व्यक्तियों से संबंधित सरकारी लेनदेन
154. व्यक्तियों से संबंधित सरकारी लेनदेन के संबंध में उक्त समिति की सिपारिशों के अनुसार भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारतीय रिज़र्व बैंक और एजेंसी बैंकों द्वारा दी जाने वाली सेवाओं में पाई गई कमियों को दूर करने के लिए कई उपाय किए हैं। वे उपाय इस प्रकार हैं : (व) ग्राहकों में उनके अधिकारों के प्रति जागरुकता बढ़ाना; (वव) बैंक के स्टाप को बेहतर ग्राहक सेवा की ओर उन्मुख करना; (ववव) यौक्तिकीकरण और सरलीकरण के लिए वर्तमान नीतियों एवं प्रक्रियाओं की समीक्षा; तथा (वख्) भारतीय रिज़र्व बैंक के कार्यालयों और एजेंसी बैंकों द्वारा राहत/बचत बाण्डों के प्य्रचालन तथा करों की वसूली जैसे क्षेत्रों में दी जानेवाली सेवाओं में वफ्द्धि करना। ग्राहक सेवा बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर देते हुए बैंकों को आवश्यक अनुदेश जारी किए गए हैं।
(ग) बैंकिंग परिचालन
155. जमा खातों और व्यक्तियों को दी जाने वाली जमा खाता तथा अन्य सुविधाओं के बारे में बैंकिंग परिचालन से संबंधित समिति की सिपारिशों के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक ने निम्नलिखित उपाय कार्यान्वित किए हैं : (व) चेक डालने के लिए बॉक्स की सुविधा तथा नियमित वसूली काउंटरों के माध्यम से चेकों की प्राप्ति-सूचना देने की सुविधा प्रारंभ करना; (वव) अनुरोध किए जाने पर काउंटर पर ही तुरंत चेक बुक देना; (ववव) विभिन्न लेनदेन की जानकारी दर्शाने वाला खाता-विवरण मासिक आधार पर जारी करना; (वख्) मौजूदा खाताधारकों को उनके बचत खातों में न्यूनतम राशि में हुए किसी परिवर्तन तथा न्यूनतम राशि बनाए न रखने के लिए लगाए जाने वाले प्रभार की सूचना कम से कम एक महीने पहले देना, तथा (ख्) निवासी व्यक्ति के साथ अनिवासी साधारण खाता (एनआरओ) संयुक्त रूप से खोलने के अनुरोध को स्वीकार करना। इस संबंध में बैंकों को आवश्यक अनुदेश जारी कर दिए गए हैं।
156. भारतीय रिज़र्व बैंक, जमाकर्ताओं को उनके अधिकार से वं्य्चत करने तथा बैंकों में परिचालन प्रक्रिया का संपूर्ण परीक्षण ्य्कये जाने के संबंध में समिति की टिप्पणियों से सहमत है, जो मफ्तक जमाकर्ताओं के दावों के निपटान में रुकावट डालती है। बैंकों को यह सूचित करने का प्रस्ताव है कि वे सामान्य जमाकर्ताओं और विशेषतया छोटे जमाकर्ताओं के अधिकारों का निर्धारण करते हुए पारदर्शी एवं व्यापक नीति बनाएं। इस नीति में जमा खातों के परिचालन के सभी पहलू, लगाए जाने वाले प्रभार एवं अन्य संबद्ध मामले शामिल होंगे जिससे शाखा स्तर पर जमाकर्ताओं के साथ व्यवहार सहज बन सके। मफ्तक जमाकर्ताओं के दावों के निपटान के लिए बैंकों द्वारा अपनाई जाने वाली एक समान प्रक्रिया भारतीय बैंक संघ के परामर्श से बनाई जाएगी जिससे इसमें आने वाली बाधाएं दूर हो सवेंगी।
(घ) मुद्रा प्रबंध
157. समिति ने मुद्रा प्रबंध: व्यक्तियों से संबंधित सेवाएं (गैर-कारोबारी), से संबंधित अपनी रिपोर्ट में सामान्य जन को दी जानेवाली सेवाओं के साथ-साथ भारतीय रिज़र्व बैंक की स्वच्छ नोट नीति के कार्यान्वयन में हुई प्रगति का उल्लेख करते हुए और अधिक गुणवत्ता वाली ग्राहक सेवा देने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक एवं अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की और भी सकारात्मक भूमिका की सिपारिश की है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने समिति की लगभग सभी सिपारिशों को स्वीकार कर लिया है और बैंकों को आवश्यक अनुदेश जारी कर दिए हैं।
(ङ) तदर्थ समितियां
158. प्रथम तीन रिपोर्टों में दी गई सिपारिशों का सारांश और प्रत्येक सिपारिश के बारे में भारतीय रिज़र्व बैंक की प्राथमिक प्रतिक्रियाओं को बैंकों को भेज दिया गया है ताकि इस प्रयोजन से गठित उनकी तदर्थ समितियों की प्रतिक्रियाएं प्राप्त हो सकें। समिति ने चुनिंदा बैंकों के प्रमुख अधिकारियों (नोडल ऑपिसर्स) के साथ बैठकें भी की हैं और उन्हें यह अवगत कराया है कि समिति का दृष्टिकोण क्या है और उनसे क्या अपेक्षाएं हैं। इन चार रिपोर्टों में समिति की प्रमुख सिपारिशों तथा उनके कार्यान्वयन के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा की गई कार्रवाई को सार्वजनिक किया जा रहा है।
159. इस प्रक्रिया को सार्थक बनाने के लिए बैंकों को सूचित किया गया है कि वे तदर्थ समितियों में गैर कार्यालयी अधिकारियों को शामिल करें। बैंकों द्वारा गठित तदर्थ समितियों की प्रगति और प्रक्रिया एवं परंपरा के पुनर्निर्माण हेतु उपयुक्त कार्रवाई किए जाने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए इन तदर्थ समितियों की कार्यावधि छह महीने और बढ़ा दी गई है। भारतीय रिज़र्व बैंक आम आदमी को दी जाने वाली सेवा को सबसे ज्यादा अहमियत देता है। अपेक्षा की जाती है कि बैंक के बोड़ ग्राहकों की पारदर्शी एवं कुशल सेवा किए जाने की अपेक्षाओं को पूरा करने की दिशा में अपनी क्रियाविधियों एवं प्रक्रियाओं को दुरुस्त करने के लिए इस अवसर का लाभ अवश्य उठाएंगे।
निक्षेप बीमा
160. नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा में यह उल्लेख किया गया था कि निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम (डीआइसीजीसी) अधिनियम, 1961 के स्थान पर बैंकिंग ्य्नक्षेप बीमा निगम (बीडीआइसी) विधेयक, 2003 की रूपरेखा का मसौदा सरकार को विचारार्थ प्रस्तुत किया गया था। विधेयक के प्रारूप में सरकार से प्राप्त सुझावों के आधार पर संशोधन किए जा रहे हैं। इस बीच, डीआइसीजीसी ने कतिपय परिचालनगत पहलुओं जैसे जमाराशियों पर प्रीमियम और दावों के सनदी लेखाकारों द्वारा निपटान हेतु जमा बीमा दावों के सत्यापन किए जाने की समीक्षा की है। निगम की ऋण गारंटी योजना समाप्त हो गई है क्योंकि ऋण संस्थाओं ने धीरे-धीरे इस योजना को छोड़ दिया है।
अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मानक और संहिता
161. अप्रैल 2003 के वार्षिक नीति वक्तव्य में यह उल्लेख किया गया था कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मानकों एवं संहिता से संबंधित स्थायी समिति की रिपोर्ट तथा परामर्शदात्री/तकनीकी समूह की रिपोर्टें व्यापक प्रचार के प्रयोजन से सार्वजनिक कर दी गई हैं। परामर्शदात्री/तकनीकी समूहों की सिपारिशों पर अनुवर्ती कार्रवाई भारतीय रिज़र्व बैंक, भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोड़ तथा बीमा विनियामक विकास प्राधिकरण द्वारा उनसे संबंधित क्षेत्रों में की जा रही है। इस दिशा में अब तक हुई प्रगति की समीक्षा उन क्षेत्रों का पता लगाने के लिए की गई है जिनमें आगे और कार्रवाई की जा सकती है। इस समीक्षा में, अंतरराष्ट्रीय वित्तीय मानकों एवं संहिताओं से संबं्य्धत ्य्व्य्भन्न क्षेत्रों में हुई हाल की प्रगति को शा्य्मल ्य्कया गया है। यह क्षेत्र है : भुगतान प्रणाली में केंद्रीय बैंक की मुद्रा, दूसरे देशों के केंद्रीय प्र्य्तरूप पक्ष के लिए जोखिम प्रबंधन मानक, विदेशी मुद्रा भण्डार का प्रबंधन, जोखिम लेना और जोखिम अंतरण, मनी लांडरिंग, समेकित आधार पर ‘अपने ग्राहकों को जानिए’ नीति से संबंधित दिशा-निर्देश और नया बासल पूंजी समझौता। अंतरराष्ट्रीय मानकों की तुलना में भारतीय स्थिति की तुलना करने की दृष्टि से समीक्षा की जा रही है। परामर्शदाताओं का एक पैनल इस समीक्षा पर विचार कर रहा है और यह आशा की जाती है कि दो महीने में यह समीक्षा सार्वजनिक कर दी जाएगी।
अनुबंध
162. उदारीकरण प्रक्रिया ने बाह्य वाणिज्यिक उधार, बाह्य विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, आवक प्रत्यक्ष एवं संविभाग निवेश, निवासियों, ्य्वद्यार््य्थयों के लिए सुविधाएं, जो ्य्वदेश में उच्च ्य्शक्षा प्राप्त करना चाहते हैं तथा कार्य्य्व्य्धयों को आसान बनाने के क्षेत्रों में और अधिक प्रगति की है। नवंबर 2003 की मध्यावधि समीक्षा के प्रस्तुत किए जाने के बाद चालू और पूंजी खातों के संबंध में घोषित उपायों की सूची अनुबंध घ् में दी गई है।
163. वित्तीय क्षेत्र में समेकन/विलयन के मामलों में हुए तीव्र परिवर्तन, बाजारों/ लिखतों/उत्पादों में हुए ्य्वकास एवं इनकी नवोन्मेषी सूचना तकनीक के कारण ्य्व्य्धक मूलभूत आवश्यक तत्वों में प्य्रवर्तन आवश्यक हो गया है। भारतीय रिज़र्व बैंक ने सरकार के सहयोग से इस दिशा में आवश्यक पहल की है और इसमें अब तक हुई प्रगति अनुबंध घ्घ् में दी गई है।
मध्यावधि समीक्षा
164. गत वर्षों की भांति, वार्षिक नीति वक्तव्य की समीक्षा अक्तूबर/नवंबर, 2004 में की जाएगी। मध्यावधि समीक्षा में समष्टि - आर्थिक एवं मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा के साथ-साथ ऐसे अन्य प्य्रवर्तन/उपाय होंगे जो वर्ष की दूसरी छमाही के लिए मौद्रिक नीति एवं अनुमानों के संबंध में आवश्यक हो सकते हैं।
मुंबई
18 मई, 2004
अनुबंध - घ्
नवीनतम विदेशी मुद्रा उदारीकरण उपाय :
चालू और पूंजी खाते
कंपनियां
1. भारत में कार्यरत विदेशी बैंक सामान्य रूप से अपने व्यवसाय से भारत में कार्य के दौरान अर्जित शुद्ध लाभ/अधिशेष (कर घटाकर) तिमाही आधार पर अपने प्रधान कार्यालयों को भारतीय रिज़र्व बैंक की पूर्व अनुमति के बिना ही भेजने के लिए अनुमत हैं।
2. एकमुश्त पीस, रॉयल्टी और बकाया बाह्य वाणिज्यिक उधार (ईसीबी) के बदले विदेशी मुद्रा में परिवर्तनीय ईक्विटी शेयर जारी करने के लिए अनुमत हैं।
3. विदेशी संस्थाओं को भारत में परियोजना कार्यालयों की स्थापना के लिए सामान्य अनुमति है। इन परियोजना कार्यालयों को आवश्यकतानुसार, यदि वांछनीय हो, तो भारतीय रिज़र्व बैंक के अनुमोदन से विदेशी मुद्रा खाते खोलने की अनुमति है।
4. आयातकों/ निर्यातकों को घोषणा के आधार पर, पिछले तीन वर्ष के दौरान निर्यात/ आयात से औसत आय अथवा पिछले वर्ष की आय, जो भी अधिक हो, के लिए वायदा संविदा बुक करने की अनुम्य्त है।
5. विदेशी कंपनियों को विशेष आर्थिक अंचलों (एस ई जॅेड) में विनिर्माण और सेवा कार्यकलापों को, कुछ शर्तों के अधीन, शाखा कार्यालय/ इकाइयों की स्थापना करने की सामान्य अनुमति है।
6. अप्रैल 1, 2004 से प्रभावी, 25,000 अमरीकी डॉलर अथवा उसकी समतुल्य राशि तक के माल निर्यात और सॉफ्टवेयर के लिए पार्म जी आर/ एस डी एप/ पी पी/ सॉफ्टेक्स के बारे में घोषणा प्रस्तुत करने से निर्यातकों को छूट दी गई है।
7. गैर-निगमित आयातकों को आयात बिल/ दस्तावेज़ सीधे ही प्राप्त करने की सीमा बढ़ाकर 1 लाख अमरीकी डॉलर अथवा उसके समतुल्य राशि कर दी गयी है।
8. निवासी कंपनियों और साझेदारी पर्मों को अपनी शुद्ध मालियत के 100 प्रतिशत तक संयुक्त उद्यमों/ संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनियों में बिना किसी अलग मौद्रिक सीमा के निवेश करने की अनुमति है, बशर्ते कि उसे पार्म ओ डी आर में सूचित किया जाए।
9. निवासी कंपनियों और पंजीवफ्त साझेदारी पर्मों को विदेशों में वफ्षि कार्यकलापों,अपने कार्यकलापों से संबंधित भूमि की सीधे ही या तो प्रत्यक्ष रूप से अथवा अपने विदेशी कार्यालयों (अर्थात् संयुक्त उद्यमों/संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनियों के माध्यम से खरीद को छोड़कर) के माध्यम से खरीद स्य्हत स्वचालित मार्ग के अंतर्गत उपलब्ध विदेश में निवेश की समग्र सीमा के भीतर ्य्नवेश करने की अनुमति है।
10.उपहार के रूप में माल के निर्यात की सीमा 1 लाख रुपये से बढ़ाकर 5 लाख रुपये प्रति वर्ष कर दी गई है।
11.भारतीय कंपनियों को भारत से बाहर स्थित अपनी शाखाओं के कर्मचारियों को उनके वैयक्तिक प्रयोजनों के लिए विदेशी मुद्रा में ऋण देने की सामान्य अनुमति दी गई है।
12.भारतीय कंपनियों को 500 मिलियन अमरीकी डॉलर का बाह्य वाणिज्यिक उधार (ईसीबी) 20 मिलियन अमरीकी डॉलर तक के ऋण के लिए 3 वर्ष की न्यूनतम औसत परिपक्वता वाले और 20 मिलियन अमरीकी डॉलर से अधिक ऋण के लिए 5 वर्ष की न्यूनतम औसत परिपक्वता वाले ऋण की अनुमति है।
बाह्य वाणिज्यिक उधार के अं्य्तम उपयोग में संयुक्त उद्यमों/ संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनियों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश शामिल है।
13.प्रति लेनदेन एक वर्ष से अधिक और तीन वर्ष तक की परिपक्वता वाले 20 मिलियन अमरीकी डॉलर का आयात ऋण केवल पूंजीगत वस्तुओं के आयात के लिए अनुमत है।
14.किसी विदेशी कंपनी के भारत में स्थित कार्यालय अथवा शाखा में प्रतिनियुक्त भारतीय नागरिकों के ्य्नवल वेतन को विदेश में रह रहे उनके नज़दीकी रिश्तेदारों के भरणपोषण के लिए प्रेषण अनुमत है।
निवेश
- विदेश स्थित संयुक्त उद्यमों/ संपूर्ण स्वामित्व वाली सहायक कंपनियों में निवेशों के विनिवेश के लिए भारतीय सूचीबद्ध कंपनियों को उन मामलों में भी अनुम्य्त है, जहां इस प्रकार के ्य्नवेश के कारण पिछले वर्ष के दौरान निर्यात वसूली के 10 प्रतिशत की सीमा तक पूंजी बट्टे खाते डाली गयी हो।
- भारत में, भारतीय साझेदारी अधिनियम, 1932 के अंतर्गत पंजीवफ्त और अच्छा ट्रैक रेकाड़ रखने वाली कंपनियों को स्वचालित मार्ग के अंतर्गत भारत से बाहर किसी भी जायज़ व्यावसायिक कार्यकलाप में लगी हुई संस्था में स्वचालित मार्ग के अंतर्गत उसकी ्य्नवल मालियत के 100 प्रतिशत तक प्रत्यक्ष निवेश करने की अनुमति है।
- विदेशों में प्रत्यक्ष निवेश रखने वाली निवासी संस्थाओं को ऐसे निवेशों से उत्पन्न विनिमय जोखिम की रक्षा के लिए अनुमति है।
- प्राधिवफ्त व्यापारियों को उन निवासियों के साथ जो अपने विदेशी प्रत्यक्ष निवेशों को सुरक्षित रखने के लिए वायदा संविदा / विकल्प संविदा करना चाहते हैं, के साथ संविदा करने की अनुमति है।
- बहु पार्श्व ्य्वकास बैंक, जैसे अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम (आइएपसी), एशियाई विकास बैंक (एडीबी), आदि जैसे बहुविध विकास बैंकों (मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंक्स), जिन्हें विशेष रूप से भारत में रुपया बॉण्ड जारी करने के लिए सरकार द्वारा अनुमति है, वे सरकारी दिनांकित प्रतिभूतियां खरीद सकते हैं।
- प्राधिवफ्त व्यापा्य्रयों को अपने बैंक के बोड़ द्वारा निर्धारित नीति के अनुसार अनिवासी भारतीयों को रुपया ऋण स्वीवफ्त करने की अनुम्य्त है।
निवासी व्यक्ति
- विदेश में अध्ययनरत भारतीय विद्यार्थियों को अनिवासी भारतीय (एनआरआइ) माना जाएगा। वे पेमा के अंतर्गत अनिवासियों के लिए उपलब्ध सभी सुविधाओं के लिए पात्र होंगे जबकि भारत में निवासी के रूप में विद्यार्थी द्वारा लिया गया शैक्षिक और अन्य ऋण जारी रखने की अनुमति होगी।
- बिना किसी दस्तावेजी औपचारिकताओं के विविध प्रयोजनों के लिए विदेशी मुद्रा के प्रेषण की सीमा 500 अमरीकी डॉलर से बढ़ाकर 5,000 अमरीकी डॉलर कर दी गई है।
- निवासी व्यक्तियों को प्रति कैलेंडर वर्ष में 25,000 अमरीकी डॉलर तक प्रेषित करने की अनुमति है।
- निवासी हिताधिकारियों को निवासी विदेशी मुद्रा (घरेलू) खाता खोलने और उसमें विदेशी मुद्रा में प्राप्त बीमा दावों/ परिपक्वता आय/ अभ्यर्पण आय को जमा करने की अनुमति है।
अनुबंध - घ्घ्
कानूनी सुधार : गतिविधियों की समीक्षा
संसद द्वारा पारित विधेयक
- औद्योगिक विकास बैंक (उपक्रम का अंतरण और निरसन) विधेयक,2003
- रुग्ण औद्योगिक कंपनी (निरसन प्रावधान) निरसन विधेयक, 2001
संसद के विचाराधीन विधेयक
- वित्तीय कंपनी विनियमन विधेयक, 2000
- बैंककारी विनियमन (संशोधन) विधेयक, 2003
- बैंकिंग विनियमन (संशोधन) और विविध प्रावधान बिल, 2003
सरकार के विचाराधीन विधायी प्रस्ताव
- भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934
- ऋण सूचना ब्यूरो विनियमन विधेयक का प्रारूप
- बैंक जमा बीमा निगम विधेयक
- सरकारी प्रतिभूतियों के विधेयक का प्रारूप