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भारतीय रिज़र्व बैंक मौद्रिक नीति वक्तव्य 2010-11

भारतीय रिज़र्व बैंक
मौद्रिक नीति वक्तव्य 2010-11

डॉ.डी.सुब्बाराव
गवर्नर

वर्ष 2010-11 के लिए मौद्रिक नीति तुलनात्मक रूप से जटिल आर्थिक परिस्थिति की पृष्ठभूमि में तैयार की गयी है। हालांकि पिछली तिमाही पहले की तुलना में, परिस्थिति यां कहीं अधिक आशाजनक हैं, फिर भी वैश्विक सुधार की गति और स्वरूप के बारे में संशय की स्थिति अभी बनी हुई है। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में निजी व्यय अभी भी कम है और मुद्रास्फीति सामान्यत: कम है जिससे यह संभावना बनती है कि इन अर्थव्यवस्थाओं में राजकोषीय तथा मौद्रिक प्रोत्साहन कुछ और अवधि के लिए जारी रहेंगे। उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाएं सुधार वक्र पर आगे हैं, लेकिन उनमें से कुछ को स्फीतिकारक दबावों का सामना करना पड़ रहा है।

2. भारत का वृद्धि-मुद्रास्फीति संतुलन समग्र वैश्विक परिदृश्य के विपरीत है। वृद्धि में आई शिथिलता से यहां की अर्थव्यवस्था तेजी से उबर रही है लेकिन स्फीतिकारक दबाव, जो आपूर्ति संबंधी कारणों से आए, अब एक और व्यापक स्फीतिकारक प्रक्रिया का रूप ले रहे हैं। जैसे-जैसे आंतरिक जोखिमों का संतुलन विकास की मंद गति से हट कर मुद्रास्फीति की ओर आएगा, हमारी नीति के रुझान को इस संक्रमण को पहचानना होगा और उसके अनुसार कार्रवाई करनी हागी। विश्वव्यापी संकट का सामना करने में वैश्विक स्तर पर नीति समन्वयन बहुत महत्त्वपूर्ण था लेकिन वापसी की प्रक्रिया प्रत्येक देश में समष्टि आर्थिक परिस्थिति पर निर्भर करेगी। संकट से उपजी मंदी की स्थिति से भारत का तेजी से उबर पाना हमारी अर्थव्यवस्था और हमारे वित्तीय क्षेत्र की आंतरिक शक्ति का द्योतक है। फिर भी, इसके कारण समष्टि आर्थिक स्थिरता और वित्तीय क्षेत्र के विकास की चुनौतियों से हमारा ध्यान नहीं हटना चाहिए।

3. यह वक्तव्य दो भागों में है। भाग ‘क’ मौद्रिक नीति के संबंध में है और इसके चार खंड हैं : खंड I में वैश्विक तथा आंतरिक समष्टि आर्थिक गतिविधियों का विहगावलोकन किया गया है; खंड II में विकास, मुद्रास्फीति तथा मौद्रिक घटकों के लिए संभावना तथा अनुमान व्यक्त किए गए हैं; खंड III में मौद्रिक नीति के रुझान को स्पष्ट किया गया है; और खंड IV में मौद्रिक उपाय बताए गए हैं। भाग ‘ख’ में विकासात्मक तथा विनियामक नीतियां दी गयी हैं और इसके छह खंड ह:ं वित्तीय स्थिरता (खंड I), ब्याज दर नीति (खंड II), वित्तीय बाज़ार (खंड III), ऋण वितरण तथा वित्तीय समावेशन (खंड IV), वाणिज्य बैंकों के लिए विनियामक तथा पर्यवेक्षी उपाय (खंड V) तथा संस्थागत गतिविधियां (खंड VI)।

4. इस वक्तव्य का भाग ‘क’ रिज़र्व बैंक द्वारा कल जारी ‘समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधिया’ं में दी गयी विस्तृत समीक्षा के साथ पढ़ा और समझा जाना चाहिए।

भाग क. मौद्रिक नीति
I. अर्थव्यवस्था की स्थिति

वैश्विक अर्थव्यवस्था

5. लगातार नीतिगत सहयोग तथा वित्तीय बाज़ार की परिस्थितियों में सुधार के चलते वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार हो रहा है। इस सुधार प्रक्रिया में उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाएं आगे हैं, विशेषकर एशिया में, क्योंकि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में वृद्धि कमज़ोर है। वैश्विक अर्थव्यवस्था के सामने अभी भी कई चुनौतियां बनी हुई हैं जैसे कि बेरोज़गारी के उच्च स्तर जो कि अमेरिका तथा यूरो क्षेत्र में लगभग 10 प्रतिशत हैं। विनिर्माण में फिर से हलचल के संकेतों तथा खुदरा विक्रय में प्रारंभिक सुधार के बावजूद, यूरोप में कुछ देशों में अत्यधिक राजकोषीय दबावों के बादल छा गए हैं।

6. प्रमुख उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में बुनियादी मुद्रास्फीति के अनुमोनों में कमी हो रही है क्योंकि आउटपुट अंतर अभी भी बना हुआ है और बेरोज़गारी उच्च स्तर पर है। मुद्रास्फीति की आशंका भी बनी हुई है। दूसरी ओर, उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं, विशेषकर एशिया में, बुनियादी मुद्रास्फीति के अनुमोनों में बढ़ोतरी हो रही है। इसके कारण कुछ उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं में केंद्रीय बैंकों ने अपनी उदार/निभावी मौद्रिक नीतियों को समाप्त करना प्रारंभ कर दिया है।

घरेलू अर्थव्यवस्था

7. रिज़र्व बैंक ने 2009-10 के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद के 7.5 प्रतिशत पर रहने का अनुमान लगाया था। फरवरी 2010 के प्रारंभ में केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन द्वारा जारी अग्रिम अनुमानों के अनुसार 2009-10 में वास्तविक घरेलू सकल उत्पाद 7.2 प्रतिशत रहेगा।  2009-10 के लिए अंतिम वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि 7.2 तथा 7.5 प्रतिशत के बीच होगी।

8. औद्योगिक गतिविधि में वृद्धि जारी है। औद्योगिक उत्पादन के सूचकांक में दिसंबर 2009 में 17.6 प्रतिशत, जनवरी 2010 में 16.7 प्रतिशत तथा फरवरी 2010 में 15.1 की वृद्धि दर्ज की गयी। अप्रैल 2009 - फरवरी 2010 में 17 में से 14 औद्योगिक समूहों में अधिक वृद्धि दर्ज किए जाने के कारण सुधार कुछ और अधिक व्यापक हो गया है। पूंजीगत वस्तु क्षेत्र में तीव्र वृद्धि, सितंबर 2009 से दो अंकों में, निवेश गतिविधि के फिर से बढ़ने की ओर संकेत करती है। ग्यारह महीनों तक लगातार कमी के बाद, आयातों में नवंबर 2009 में 2.6 प्रतिशत, दिसंबर 2009 में 32.4 प्रतिशत, जनवरी 2010 में 35.5 प्रतिशत तथा फरवरी 2010 में 66.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई। नवंबर 2009 के बाद से गैर-तेल आयातों में वृद्धि की आंतरिक मांग में सुधार को दिखलाती है। लगातार बारह महीनों तक कमी के बाद, अक्तूबर 2009 से निर्यातों में वृद्धि हुई है जो कि बाह्य मांग में वृद्धि को दिखलाती है। सेवा क्षेत्र गतिविधि के विभिन्न अग्रणी संकेतक भी दिखाते हैं कि आर्थिक गतिविधि में वृद्धि हुई है। कुल मिलाकर, 2009-10 की दूसरी तिमाही से प्रारंभ हुआ आर्थिक सुधार अब लगातार वृद्धि दिखा रहा है।

9. 1972 के बाद से सबसे खराब दक्षिण-पश्चिमी मानसून के बावजूद 2009-10 में हुई तीव्र वृद्धि भारतीय अर्थव्यवस्था की आंतरिक शक्ति ही दिखाती है। यदि मांग पक्ष को देखें, तो 2009-10 में वृद्धि के घटक निम्नानुसार थे निजी खपत (36 प्रतिशत), सरकारी खपत (14 प्रतिशत), मीयादी निवेश (26 प्रतिशत) तथा निवल निर्यात (20 प्रतिशत)। वैश्विक वित्तीय संकट के कारण प्रारंभ किए गए मौद्रिक तथा राजकोषीय प्रोत्साहनों ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, एक तो माहौल के प्रतिकूल प्रभाव को कम करने में और दूसरे यह सुनिश्चित करने में कि अर्थव्यवस्था में शीघ्र सुधार हो।

10. फिर भी, मुद्रास्फीति को लेकर चिंता बनी हुई है। थोक मूल्य सूचकांक में वर्ष-दर-वर्ष परिवर्तन द्वारा मापी गयी समग्र मुद्रास्फीति (हेडलाइन इनफ्लेशन), सितंबर 2009 में 0.5 प्रतिशत से बढ़कर मार्च 2010 में 9.9 प्रतिशत हो गयी और यह तीसरी तिमाही समीक्षा में मार्च 2010 के लिए रिज़र्व बैंक के आधार अनुमान (बेसलाइन प्रोजेक्शन) 8.5 प्रतिशत से कहीं अधिक थी। वर्ष-दर-वर्ष थोक मूल्य सूचकांक खाद्येतर विनिर्मित वस्तु (भार 52.2 प्रतिशत) मुद्रास्फीति, जो नवंबर 2009 में (-) 0.4 प्रतिशत थी, सकारात्मक रूप से मामूली-सी बढ़कर दिसंबर 2009 में 0.7 प्रतिशत हो गयी और जनवरी 2010 में काफी अधिक बढ़कर 3.3 प्रतिशत और मार्च 2010 में 4.7 प्रतिशत हो गयी। वर्ष-दर-वर्ष ईंधन मूल्य मुद्रास्फीति भी नवंबर 2009 में (-) 0.7 प्रतिशत से बढ़कर दिसंबर 2009 में 5.9 प्रतिशत, जनवरी 2010 में 8.1 प्रतिशत और फिर मार्च 2010 में 12.7 प्रतिशत हो गयी। कुछ मौसमी कमी के बावजूद, खाद्य मूल्य स्फीति उच्च स्तर पर बनी रही।

11. स्पष्टतया, थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति केवल आपूर्ति संबंधी कारणों से ही नहीं हो रही है। समग्र थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति में खाद्येतर मदों का अंशदान, जो नवंबर 2009 में (-) 0.4 प्रतिशत पर नकारात्मक था, तेज़ी से बढ़कर मार्च 2010 तक 53.3 प्रतिशत हो गया। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति जनवरी/फरवरी 2010 में 14.9 - 16.9 प्रतिशत के बीच रही। इस प्रकार, जनवरी 2010 में तीसरी तिमाही समीक्षा के बाद से मुद्रास्फीति बढ़ गयी है। जो मुद्रास्फीति पहले केवल खाद्य मूल्यों तक सीमित थी, वह अब और वृहत्तर हो गयी है।

12. वर्ष 2009-10 में मौद्रिक तथा ऋण घटकों में वृद्धि मोटे तौर पर जनवरी 2010 में तीसरी तिमाही समीक्षा में अनुमानित वृद्धि के अनुरूप ही रही। वर्ष की दूसरी छमाही में खाद्येतर बैंक ऋण में लगातार वृद्धि हुई। परिणामस्वरूप, वर्ष-दर-वर्ष खाद्येतर ऋण वृद्धि अक्तूबर 2009 में 10.3 प्रतिशत के अंतर-वर्ष निम्न स्तर से बढ़कर मार्च 2010 तक 16.9 प्रतिशत हो गयी। अन्य स्रोतों से वित्तीय संसाधनों के अधिक आगम केध कारण भी बैंक ऋण में वृद्धि हुई। रिज़र्व बैंक के आकलन दिखलाते हैं कि बैंकों, आंतरिक गैर-बैंक तथा बाह्य स्रोतों से वाणिज्य क्षेत्र को 2009-10 में कुल 9,71,000 करोड़ रुपये के वित्तीय संसाधन प्राप्त हुए जो कि पिछले वर्ष के 8,34,000 करोड़ रुपये की तुलना में अधिक हैं।

13. अनुसूचित वाणिज्य बैंकों ने फरवरी तथा अप्रैल 2010 में अब तक अपनी जमाराशि दरों में 25-50 आधार अंकों की वृद्धि की है, जो जमाराशि दरों में कमी की प्रवृत्ति में बदलाव दिखलाती है। उधार पक्ष को देखें, तो मार्च तथा जून 2009 के बीच 25-100 आधार अंकों की कमी के परिणामस्वरूप, जुलाई 2009 के बाद से अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की बेंचमार्क प्राइम लेंडिंग दरों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है। फिर भी, कुछ चुनिंदा बैंकों के आंकड़े दर्शाते हैं कि अग्रिमों पर भारित औसत प्रतिफल में, जो प्रभावी उधार दरों के लिए एक तरह का स्थानापन्न या वैकल्पिक अनुमान है, मार्च 2009 में 10.8 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2010 तक 10.1 प्रतिशत हो जाने की संभावना है। ऋण मूल्य निर्धारण के लिए 1 जुलाई 2010 से बीपीएलआर प्रणाली का स्थान ले रही बेस दर प्रणाली से, ऋणों के बेहतर मूल्य निर्धारण, उधार दरों में बेहतर पारदर्शिता और मौद्रिक नीति को लागू करने के आकलन को बेहतर बनाने में सहायता होगी।

14. समूचे वर्ष में वित्तीय बाज़ारों ने सामान्य रूप से कार्य किया। पूरे वर्ष में जो चलनिधि अधिशेष थी, वह वर्ष के अंत में कम हो गयी जो मौद्रिक नीति के रुझान के अनुरूप है। रिज़र्व बैंक ने वर्तमान वित्तीय वर्ष में 12 फरवरी, 2010 तक अर्थात् प्रारक्षित नकदी निधि अनुपात में वृद्धि के पहले चरण से पूर्व चलनिधि समायोजना सुविधा (एलएएफ) के अधीन दैनिक औसत आधार पर 1,00,000 करोड़ रुपये की चलनिधि वापस ली। 27 फरवरी-31 मार्च 2010 के दौरान, दैनिक औसत अधिशेष चलनिधि कम होकर लगभग 38,200 करोड़ रुपये रह गयी जो प्रारक्षित नकदी निधि चलनिधि अनुपात में वृद्धि, वर्ष के अंत में जाने वाली अग्रिम कर राशि और निजी क्षेत्र से ऋण की उच्चतर मांग दिखलाती है। फिर भी, चूंकि समग्र चलनिधि अधिशेष में रही, इसलिए, एक दिवसीय ब्याज दरें सामान्यतया एलएएफ दर कॉरीडोर के निम्नतर स्तर के आसपास ही रहीं।

15. सरकार द्वारा विशाल बाज़ार उधार के कारण 2009-10 के दौरान सरकारी प्रतिभूतियों के प्रतिफल पर दबाव बना रहा। फिर भी, रिज़र्व बैंक द्वारा सक्रिय चलनिधि प्रबंधन के कारण इस पर नियंत्रण रखा गया। निजी क्षेत्र द्वारा ऋण की निम्नतर मांग के कारण भी इसमें सहायता मिली। वर्ष के दौरान शेयर बाज़ार सामान्यतया मजबूत बने रहे हालांकि वैश्विक प्रवृत्ति के अनुरूप इसमें कई बार सुधार हुआ। सार्वजनिक निर्गमों द्वारा जुटाये गये संसाधनों में तीव्र वृद्धि हुई। आवासीय मूल्यों में 2009-10 के दौरान फिर से वृद्धि देखने में आयी। रिज़र्व बैंक के सर्वेक्षण के अनुसार, ये मूल्य मुंबई में संकट से पहले की चोटी की स्थिति से भी अधिक हो गये।

16. वर्ष 2009-10 के दौरान केंद्र सरकार ने बाज़ार उधार कार्यक्रम के माध्यम से 3,98,411 करोड़ रुपये (निवल) की राशि जुटायी जबकि राज्य सरकारों ने 1,14,883 करोड़ रुपये (निवल) की राशि जुटायी। इस विशाल उधार कार्यक्रम का संचालन व्यवस्थित रूप से किया गया जिसमें उधार कैलेंडर की प्रंट लोडिंग, बाज़ार स्थिरीकरण योजना के अधीन प्रतिभूतियों को जारी करना तथा खुला बाज़ार परिचालन क्रय जैसे सक्रिय चलनिधि प्रबंधन उपाय करना शामिल था।

17. वर्ष 2010-11 के लिए केंद्रीय बजट में निम्नतर राजकोषीय घाटे (2009-10 में 6.7 प्रतिशत की तुलना में 2010-11 में सकल घरेलू अनुपात के 5.5 प्रतिशत) तथा राजस्व घाटे (2009-10 में 5.3 प्रतिशत की तुलना में 2010-11 में सकल घरेलू अनुपात के 4.0 प्रतिशत) का प्रावधान करके राजकोषीय समेकन की प्रक्रिया प्रारंभ कर दी है। परिणामस्वरूप, पिछले वर्ष की बजट की गयी राशि की तुलना में 2010-11 में केंद्र सरकार की निवल बाज़ार उधार आवश्यकता 3,45,010 करोड़ रुपये रहेगी।

18. ऐतिहासिक रूप से, राजकोषीय घाटों का वित्तपोषण बाज़ार उधार तथा अन्य स्रोतों के मिश्रण से किया गया है। फिर भी, 2009-10 तथा 2010-11 में, कुल मिलाकर राजकोषीय घाटे का वित्तपोषण करने के लिए बाज़ार उधार पर निर्भरता सापेक्ष रूप में बढ़ गयी। 2009-10 में विशाल उधार कार्यक्रम चलाने में बाज़ार स्थिरीकरण योजना प्रतिभूतियों (एमएसएस सिक्यूरडटिज़)के वापस लिए जाने और खुला बाज़ार परिचालन (ओएमओ) के जरिए खरीदारी से सहायता मिली, जिसके परिणामस्वरूप नयी प्रतिभूतियों का निर्गम बजट किये गये कुल बाज़ार उधार का 63.0 प्रतिशत रहा। फिर भी, 2010-11 में, लगभग पूरा उधार नयी प्रतिभूतियां जारी करके सम्पन्न किया जायेगा। इसलिए, बजट किये गये निवल उधार के तुलनात्मक रूप से कम होने के बावजूद, पिछले वर्ष के 2,51,000 करोड़ रुपये की तुलना में 2010-11 में प्रतिभूतियों का नया निर्गम 3,42,300 करोड़ रुपये होगा। 2009-10 में विशाल सरकारी उधार लेने में निजी क्षेत्र द्वारा कम मांग तथा चलनिधि में सहजता की स्थिति से सहायता मिली। फिर भी, अनुमान है कि निजी ऋण मांग में और वृद्धि होगी। इस बीच, स्फीतिकारक दबावों के कारण रिज़र्व बैंक के लिए प्रणाली से अधिशेष चलनिधि को वापस लेना आवश्यक हो गया है। अतएव, 2010-11 में सरकार के उधारियों का प्रबंधन करना पिछले वर्ष की तुलना में कहीं अधिक चुनौतीपूर्ण होगा।

19. चालू खाता घाटा वर्ष 2008 के अप्रैल-दिसंबर के 28 बिलियन अमेरिकी डालर की तुलना में 2009 के तत्संबंधी अवधि में 30 बिलियन अमेरिकी डालर था। उसी अवधि में निवल पूंजी अंतर्वाह भी पिछले वर्ष के 7 बिलियन अमेरिकी डालर की तुलना में 42 बिलियन अमेरिकी डालर के अधिक स्तर पर थे। परिणामस्वरूप, भुगतान संतुलन आधार पर (अर्थात् मूल्यांकन प्रभाव को छोड़कर), पिछले वर्ष की उसी अवधि में 20 बिलियन अमेरिकी डालर की कमी की तुलना में विदेशी मुद्रा प्रारक्षित राशि में 11 बिलियन अमेरिकी डालर की वृद्धि हुई। प्रारक्षित विदेशी मुद्रा का भंडार 31 मार्च 2010 को 279 बिलियन अमेरिकी डालर था।, 2009-10 में फरवरी तक छ: मुद्रा-व्यापार-आधारित वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (आरईईआर) (1993-94=100) में 15.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष की उसी अवधि में 10.4 प्रतिशत की कमी आई थी।

II. परिदृश्य और आकलन

वैश्विक परिदृश्य

वृद्धि

20. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने जनवरी 2010 के अपने "वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक अपडेट" में यह अनुमान लगाया है कि वैश्विक वृद्धि 2009 के (-) 0.8 प्रतिशत से सुधर कर 2010 में 3.9 प्रतिशत रहेगी और 2011 में यह 4.3 प्रतिशत हो जाएगी। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) के सम्मिलित प्रधान संकेतकों (सीएलआइ) में फरवरी 2010 के लिए विकसित अर्थव्यवस्थाओं के आर्थिक क्रियाकलापों में सुधार के संकेत निरंतर मिलते रहे हैं। वैश्विक परिदृश्य को बेहतर बनाने में तीन प्रमुख घटकों का योगदान रहा-व्यापक मौद्रिक और राजकोषीय सहायता, विश्वास में बढ़ोतरी और उभरती हुई बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं (ईएमई) में सुदृढ़ सुधार।

21. वार्षिक आधार पर 2009 की चौथी तिमाही के दौरान अमेरिका के सकल घरेलू उत्पाद में 5.6 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई। फिर भी, 9.7 प्रतिशत की उच्च बेरोजगारी के कारण घरेलू व्यय पर दबाव की स्थिति बनी रही। यद्यपि, कारोबार में स्थायी निवेश में बदलाव आ रहा है और "हाउसिंग स्टार्ट" में गति आ रही है, फिर भी, वाणिज्यिक जमीन जायदाद (कमर्शियल रियल इस्टेट) में निवेश कम हो रहा है। तिमाही-दर-तिमाही आधार पर देखें तो यूरो इलाकों में 2009 की चौथी तिमाही में 0.1 प्रतिशत वृद्धि हुई। वर्ष 2010 के दौरान इसमें नरमी रह सकती है क्योंकि विभिन्न क्षेत्रों में तुलनपत्रों के समायोजन की प्रक्रिया चल रही है, निवेश में शिथिलता है, क्षमता का कम उपयोग है और उपभोग में कमी है। यद्यपि निर्यात में सुधार हो रहा है और व्यावसायिक स्थायी निवेश की गिरावट में कमी आ रही है, तथापि यूरो-इलाकों की बहुत-सी सरकारों के समक्ष राजकोषीय असंतुलन की असहनीय स्थिति है, जिससे मध्यम-और-दीर्घ-अवधि ब्याज दरों पर प्रभाव पड़ सकते हैं। जापान में निर्यात से संभावनाएं बेहतर बनती दिख रही थी पर लोक निवेश और बेरोजगारी में बढ़ोतरी ने उसकी भरपाई कर दी।

22. उभरती हुई बाज़ार अर्थव्यवस्था वाले (ईएमई) देशों में से, चीन की वृद्धि लगातार तेज बनी रही। इसका मुख्य कारण वहां की घरेलू मांग रही। वर्ष 2009 की दूसरी छमाही में मलेशिया और थाइलैंड ने सुधार करते हुए धनात्मक वृद्धि रही। इंडोनेशिया में 2009 में वर्ष भर धनात्मक वृद्धि रही।

मुद्रास्फीति

23. वैश्विक स्तर पर नवंबर 2009 और जनवरी 2010 के बीच समग्र मुद्रास्फीति (हेडलाइन इनफ्लेशन) दरों में बढ़ोतरी रही, लेकिन खाद्य, धातु और कच्चे तेल की कीमतों में नरमी के कारण फरवरी 2010 में इनमें गिरावट रही और मार्च 2010 के दौरान कुछ प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में फिर से मामूली बढ़ोतरी हुई। संसाधनों में महत्त्वपूर्ण रूप से हुई कमी के कारण अमेरिका में बुनियादी मुद्रास्फीति में गिरावट जारी रही। विकसित देशों में मुद्रास्फीति प्रत्याशाएं स्थिर बनी रहीं। यद्यपि, बहुत से ईएमई देशों में मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी शुरू हुई, तथापि इनमें भारत महत्त्वपूर्ण रूप से अलग रहा क्योंकि यहां की मुद्रास्फीति दरें अन्य ईएमई देशों की तुलना में काफी अधिक रहीं।

घरेलू परिदृश्य

वृद्धि

24. भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूती से सुधार की ओर बढ़ रही है। अक्तूबर 2009 से ही निर्यात बढ़ रहे हैं, और इस प्रवृत्ति के बरकरार रहने की प्रत्याशा है। औद्योगिक क्षेत्र का सुधार निरंतर बढ़ते हुए व्यापक आधार लेता जा रहा है और आशा है कि बढ़ती हुई देशी और विदेशी मांग को देखते हुए इसमें और भी मज़बूती रहेगी।

25. सर्वेक्षणों से सामान्यतया समेकित सुधार की आशा को बल मिल रहा है। रिज़र्व बैंक के तिमाही औद्योगिक परिदृश्य सर्वेक्षण के अनुसार यद्यपि व्यवसाय प्रत्याशा सूचकांक (बीईआइ) में 2009-10 की चौथी तिमाही में 120.6 के बाद सत्रीय नरमी के कारण 2010-11 की पहली तिमाही में 119.8 पर आ गया पर, यह स्तर एक वर्ष पहले के 96.4 के स्तर की तुलना में काफी अधिक है। औद्योगिक क्षेत्र का सुधरा हुआ कार्यनिष्पादन निगमित क्षेत्र में सुधरी हुई लाभप्रदता में भी दिखाई दे रहा है। सेवा क्षेत्र के कार्यकलापों में तीव्रता रही, खासकर 2009-10 की दूसरी छमाही के दौरान। विभिन्न क्षेत्रों के प्रमुख संसूचकों, जैसे पर्यटकों के आगमन, वाणिज्यिक वाहनों के उत्पादन और प्रमुख पत्तनों पर यातायात, में महत्त्वपूर्ण सुधार रहा। बैंक ऋण और वाणिज्यिक क्षेत्र द्वारा गैर-बैंक स्रोतों से जुटाए गए वित्तीय संसाधनों में सुस्थिर बढ़ोतरी से भी यही लगता है कि सुधार की गति बढ़ रही है।

26. सामान्य मानसून और बढ़ती हुई स्वदेशी तथा विदेशी मांग के आधार पर औद्योगिक तथा सेवा क्षेत्रों में अच्छे कार्यनिष्पादन की बरकरारी की प्रत्याशा के आधार पर, सभी पक्षों पर विचार करते हुए नीतिगत प्रयोजनों के लिए 2010-11 के लिए वास्तविक जीडीपी वृद्धि का आधारभूत अनुमान 8.0 प्रतिशत रखा गया है, जिसमें ऊर्ध्वगति रहेगी (चार्ट-1)।

1

मुद्रास्फीति

27. समग्र थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति 2009-10 की पहली छमाही में नरमी के बाद वर्ष की दूसरी छमाही में बढ़ने लगी। यह अक्तूबर 2009 के 1.5 प्रतिशत से बढ़कर मार्च 2010 में 9.9 प्रतिशत हो गयी। खराब दक्षिणी-पश्चिमी मानसूनी वर्षा के कारण खाद्य-कीमतों पर दबाव पड़ा। इसने वर्ष 2009 के प्रारंभ में वैश्विक स्तर पर पण्यों की कीमतों के न्यून स्तरों में वृद्धि और मांग के प्रारंभिक दबावों के साथ मिलकर समग्र मुद्रास्फीति दर की गति को बढ़ाया - यह बढ़ोतरी थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक दोनों ही में हुई।

28. मार्च 2010 के लिए थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति दर के संबंध में रिज़र्व बैंक का आधार अनुमान 8.5 प्रतिशत था। तथापि पूर्ति और मांग दोनों ही ओर बाद में हुई गतिविधियों ने मुद्रास्फीति को बढ़ावा दिया। कच्चे पेट्रोलियम और पेट्रोलियम उत्पादों पर उत्पाद शुल्क को बढ़ाने और मूल-सीमाशुल्क को पुन: लागू कर देने के कारण और लौह अयस्क और कोयले की कीमतों में बढ़ोतरी से थोक मूल्य सूचकांक पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा। इसके अलावा, मांग की ओर से पड़ने वाले दबाव पुन: सामने आये जैसा कि खाद्येतर निर्मित उत्पादों की मुद्रास्फीति में तीव्र बढ़ोतरी से प्रकट है, जो कि दिसंबर 2009 और मार्च 2010 के बीच 0.7 प्रतिशत से बढ़कर 4.7 प्रतिशत हो गयी।

29. हाल ही के महीनों के दौरान मुद्रास्फीति के चालकों में महत्त्वपूर्ण परिवर्तन हुए। पहला यह कि, यद्यपि खाद्य कीमतों में मौसमी आधार पर नरमी के कुछ संकेत रहे, तथापि समग्र खाद्य मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर ही बनी रही। यह संभव है कि कुछ कृषि पण्यों जैसे दालों, खाद्य तेलों और दूध की संरचनागत कमी से खाद्य कीमतों में नरमी की गति कम हो जाए। दूसरे, विश्वव्यापी स्तर पर पण्य कीमतों में मज़बूती से मुद्रास्फीति का जोखिम बढ़ सकता है। तीसरे, रिज़र्व बैंक के औद्योगिक परिदृश्य सर्वेक्षण से प्रकट है कि निगमित संस्थाएं बहुत से क्षेत्रों में कीमत निर्धारण की ताकत फिर से हासिल कर रही हैं। सुधार में और अधिक गति आई तो मांग के दबाव में वृद्धि संभावित है। चौथे, परिवारों के लिए रिज़र्व बैंक की तिमाही मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं के सर्वेक्षण से प्रकट है कि पारिवारिक वस्तुओं की मुद्रास्फीति प्रत्याशा उच्च स्तर पर बनी हुई है।

30. आगे देखें तो मुद्रास्फीति के परिदृश्य पर तीन प्रमुख अनिश्चितताओं का साया है। पहला 2010-11 में मानसून की प्रत्याशा अभी स्पष्ट नहीं है। दूसरे कच्चे तेल की कीमतों में लगातार उतार-चढ़ाव हो रहे हैं। तीसरे, मांग की ओर से पड़ने वाले दबावों के संकेत मिल रहे हैं। कुल मिलाकर, देशी मांग-आपूर्ति के संतुलन और पण्यों की कीमतों की वैश्विक प्रवृत्ति को देखते हुए मार्च 2011 के लिए थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति के न्यूनतम अनुमान को 5.5 प्रतिशत पर रखा गया है (चार्ट 2)।

2

31. कीमतों को स्थिर करना और मुद्रास्फीति की प्रत्याशाओं पर काबू रखना रिज़र्व बैंक का प्रयास रहेगा। इन उद्देश्यों को दृष्टि में रखते हुए रिज़र्व बैंक उभरती हुई समष्टि आर्थिक परिस्थितियों के संदर्भ में समग्र मुद्रास्फीति और इसके पृथक-पृथक घटकों के भी कई आकलनों पर ध्यान देते हुए मुद्रास्फ़ीतीय दबावों का आकलन करेगा।

32. वर्तमान मुद्रास्फीति दृश्य के बावजूद यह स्वीकार करना महत्त्वपूर्ण है कि विगत दशक के दौरान थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक दोनों ही प्रकार से आकलित औसत मुद्रास्फीति दर लगभग 5 प्रतिशत स्तर तक कम हुई जबकि ऐतिहासिक प्रवृत्ति लगभग 7.5 प्रतिशत तक रही थी। इस पृष्ठभूमि में मौद्रिक नीति का संचालन इस प्रकार रहेगा कि मुद्रास्फीति की दर को 4.0-4.5 प्रतिशत के दायरे में निर्धारित और नियंत्रित किया जाए। यह 3.0 प्रतिशत की मुद्रास्फीति दर के मध्यावधि उद्देश्य के अनुरूप होगा, जो कि भारत को वैश्विक अर्थव्यवस्था में एकीकृत करने के अनुरूप रहेगा।

मौद्रिक समुच्च्य

33. वर्ष 2009-10 के दौरान मुद्रा आपूर्ति (एम3) वृद्धि ,जो वित्तीय वर्ष के प्रारंभ के 20.0 प्रतिशत से भी अधिक के दर से घटकर फरवरी 2010 में 16.4 प्रतिशत पर आ गयी और इसके बाद मार्च 2010 तक बढ़कर 16.8 प्रतिशत हो गयी, रिज़र्व बैंक द्वारा किये गये 16.5 प्रतिशत के सांकेतिक अनुमान से थोड़ा अधिक है। यह 16.9 प्रतिशत की खाद्येतर ऋण वृद्धि से भी प्रकट होता है जो कि 16.0 प्रतिशत के सांकेतिक अनुमान से अधिक है।

34. निजी क्षेत्र की बढ़ती ऋण मांग व सरकारी उधारियों के लिए संसाधनों की आवश्यकता में संतुलन की जरूरत को देखते हुए मौद्रिक अनुमान, सकल घरेलू उत्पाद में वृद्धि और मुद्रास्फीति संभावनाओं के अनुरूप रखे गये हैं। नीतिगत प्रयोजनों से 2010-11 के लिए एम3 वृद्धि को 17.0 प्रतिशत पर रखा गया है। इसी के अनुरूप अनुसूचित वाणिज्य बैंकों (एससीबी) की सकल जमाराशियों में 18.0 प्रतिशत की बढ़ोतरी का अनुमान है। अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के खाद्येतर ऋणों में 20.0 प्रतिशत की बढ़ोतरी अनुमानित है। हमेशा की तरह ये संख्याएं सांकेतिक अनुमान ही हैं न कि लक्ष्य के रूप में।

जोखिम घटक

35. यद्यपि वर्ष 2010-11 के लिए वृद्धि और मुद्रास्फीति के सांकेतिक अनुमान आश्वस्त करने वाले प्रतीत हो सकते हैं, तथापि वृद्धि में गिरावट और मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी के निम्नलिखित जोखिमों को ध्यान में रखना होगा:

पहला, वैश्विक सुधार की गति और आकार के बारे में अनिश्चितता बनी हुई है। निजी मांग में गिरावट की प्रतिपूर्ति करने में बहुत से देशों में राजकोषीय प्रोत्साहन उपायों ने प्रमुख भूमिका निभाई। उच्च बेरोजगारी दरों, कमजोर आय वृद्धि और ऋण की नाजुक स्थिति के कारण प्रमुख विकसित अर्थव्यवस्थाओं में निजी मांग कमजोर रहेगी। यह भी जोखिम है कि सरकारी व्यय का प्रभाव कम होते ही सुधार की प्रक्रिया थमने लगेगी। इसलिए सुधार को कायम रखने की प्रत्याशा पूरी तरह से निजी उपभोग और निवेश पर टिकी हुई है। यद्यपि भारत में सुधार मुख्यतया घरेलू मांग से संचालित होगा, तथापि व्यापार, वित्त और भावना के महत्त्वपूर्ण संपर्क बताते हैं कि मंद और अनिश्चित वैश्विक परिवेश भारतीय अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

दूसरे, यदि वैश्विक सुधार में गति आ गयी तो विगत एक वर्ष के दौरान पण्यों और ऊर्जा की बढ़ती कीमतों में और भी बढ़ोतरी हो सकती है। इसलिए वैश्विक पण्य कीमतों में बढ़ोतरी मुद्रास्फीतिकारी दबावों को बढ़ा सकती है।

तीसरे, स्वदेशी मांग और मुद्रास्फीति प्रबंधन दोनों की दृष्टि से 2010 का दक्षिणी-पश्चिमी मानसून महत्त्वपूर्ण घटक है। वर्ष 2010 के मध्य के आसपास देशी मुद्रास्फीति के नरम पड़ने का आकलन सामान्य मानसून और खाद्य कीमतों में नरमी से सहयोजित है। वर्षा के स्थानिक और सामयिक वितरण में कोई भी प्रतिकूल रुख खाद्य- मुद्रास्फीति को बढ़ावा देगा। वर्तमान संदर्भ में प्रतिकूल मानसून से राजकोषीय बोझ बढ़ सकता है और ग्रामीण उपभोक्ता तथा निवेश की मांग कमजोर पड़ सकती है।

चौथे, यह संभव नहीं कि विकसित अर्थव्यवस्थाओं में होने वाले बड़े मौद्रिक विस्तार निकट भविष्य में नहीं होंगे। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में उदार मौद्रिक नीतियों के साथ-साथ भारत सहित ईएमई देशों में वृद्धि की बेहतर प्रत्याशा से यही अपेक्षा है कि ईएमई देशों में पूंजी का बड़ा प्रवाह आएगा। यद्यपि भारतीय अर्थव्यवस्था की अवशोषक क्षमता बढ़ती जा रही है, तथापि अत्यधिक प्रवाह से विनिमय दर और मौद्रिक प्रबध्ांन के लिए भी चुनौती खड़ी हो जाएगी। विगत एक वर्ष की अवधि में वास्तविक अर्थों में रुपये में तेज मूल्यवृद्धि हुई है। उच्चतर पूंजी प्रवाह के साथ-साथ मुद्रास्फीति की वर्तमान दर इसी प्रवृत्ति को मजबूत ही बनाएंगी। निर्यातक जिनकी प्रत्याशाएं अब रुख बदलने को हैं और उत्पादन जो देशी बाज़ारों में आयात से स्पर्धा करते हैं, दोनों ही की चिंता विदेशी क्षेत्र की गतिशीलता के बारे में लगातार बढ़ती जा रही है।

36. हमारी विदेशी मुद्रा विनिमय दर नीति किसी निर्धारित या पूर्व-घोषित लक्ष्य अथवा बैण्ड से निर्देशित नहीं होती है। हमारी नीति यही रही है कि अत्यधिक परिवर्तनशीलता और समष्टि आर्थिक स्थिति में उथल-पुथल को नियंत्रित करने के लिए बाज़ार में हस्तक्षेप किया जाए। हाल ही के अनुभव ने बड़े और बहुधा परिवर्तनशील पूंजी प्रवाह के मुद्दे को रेखांकित किया है, जो कि आर्थिक मूल सिद्धांतों और चालू खाता शेषराशियों में अंतराल के समकक्ष विनिमय दर गतिशीलता को प्रभावित करता है। इसलिए, तीव्र और परिवर्तनशील विनिमय दर गतिविधियों के निर्माण समूहन और वास्तविक अर्थव्यवस्था पर इसके संभावित घातक प्रभाव के प्रति सतर्क रहने की जरूरत है।

37. राजकोषीय समेकन की प्रक्रिया की अवधारणा एक महत्त्वपूर्ण सकारात्मक गतिविधि रही है। इससे निजी क्षेत्र की ऋण मांग के जमावड़े से बचने में मदद मिलेगी और बेहतर मौद्रिक प्रावधान में सुविधा होगी। तथापि, सरकार द्वारा उधार लेने के कार्यक्रम का समग्र आकार अभी भी बहुत बड़ा है और यह ब्याज दरों पर दबाव बना सकता है। आगे देखें तो राजकोषीय समेकन को एकल-लाभ की ओर से हटकर टैक्स और व्यय दोनों ही ओर संरचनागत सुधार की ओर ध्यान देना होगा, और राजकोषीय समेकन की गुणवत्ता पर लगातार ध्यान केंद्रित करना होगा।

III. नीति का रुझान

38. वैश्विक आर्थिक संकट के चलते रिज़र्व बैंक ने सितंबर 2008 के मध्य से एक सर्वहितकारी मौद्रिक नीति अपनायी है। इस नीति ने बाज़ार के सहभागियों में विश्वास पैदा किया, अर्थव्यवस्था पर वैश्विक वित्तीय संकट के दुष्प्रभावें को कम किया और इससे अन्य अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में हमारी अर्थव्यवस्था में पहले ही सुधार होने लगा। किंतु बढ़ती खाद्य-मुद्रास्फीति और उससे मुद्रास्फीति की प्रत्याशाओं के समक्ष उत्पन्न जोखिम को ध्यान में रखते हुए रिज़र्व बैंक ने कुछ क्षेत्र-विशेष को दी गयी चलनिधि सुविधाओं को बंद करते हुए और अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के सांविधिक चलनिधि अनुपात को अक्तूबर 2009 की दूसरी तिमाही समीक्षा में संकट-पूर्व वाले स्तर पर बहाल करके विस्तारकारी मौद्रिक नीति से वापसी के पहले चरण की शुरुआत की ।

39. इस प्रक्रिया का दूसरा चरण तब प्रारंभ हुआ जब रिज़र्व बैंक ने जनवरी 2010 की तीसरी तिमाही की समीक्षा में प्रारक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) में 75 आधार अंकों की बढ़ोतरी की घोषणा की। चूंकि मुद्रास्फीति खाद्येतर विनिर्मित पदार्थों के मूल्यों द्वारा लगातार बढ़ती रही और वह रिज़र्व बैंक द्वारा मार्च 2010 (जैसा कि तीसरी तिमाही समीक्षा में किया गया था) के लिए किए गए 8.5 प्रतिशत के आधारभूत पूर्वानुमानों को भी पार कर गयी तो रिज़र्व बैंक ने तेजी से कदम उठाकर 19 मार्च 2010 को चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत नीतिगत रेपो दर और रिवर्स रेपो दर में, दोनों में 25 आधार अंकों की मध्य-चक्र बढ़ोतरी की।

40. अक्तूबर 2009 से भारत में मौद्रिक नीतिगत उपाय भारतीय समष्टि अर्थव्यवस्था की परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए किए गए। तदनुसार 2010-11 की हमारी नीति के पीछे निम्नलिखित तीन प्रमुख विचार काम कर रहे थे:

पहला, सुदृढ़ सुधार। मानसून वर्षा के चूक जाने के बावजूद 2009-10 में विकास में तेजी से आए सुधार से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था संकट को झेलने में सक्षम है। पूर्वानुमान है कि 2009-10 की अपेक्षा 2010-11 में वृद्धि उच्चतर और व्यापकतर होगी। अपनी तीसरी तिमाही समीक्षा में रिज़र्व बैंक ने यह बताया है कि हमारे प्रमुख मौद्रिक नीतिगत साधन ऐसी स्थिति में हैं कि तेजी से सुधार दिखाने वाली अर्थव्यवस्था की तुलना में संकट काल में खरा उतरते हैं। उभरते हुए परिदृश्य में, निचली नीतिगत दरों की वजह से मुद्रास्फीति के रुख में जटिलता पैदा हो सकती है और मुद्रास्फीति-संबंधी प्रत्याशाएं, विशेष रूप से हाल में खाद्येतर विनिर्मित वस्तुओं के मूल्यों में हुई बढ़ोतरी पर रोक लगा सकती हैं। हालांकि रेपो दर और रिवर्स रेपो दर में प्रत्येक रूप से 25 अंकों की बढ़ोतरी हुई है, फिर भी हमारी नीतिगत दर अभी भी नकारात्मक है। चूंकि अब अच्छी तरह सुधार हुआ है तो हमें अपने नीतिगत साधनों को सामान्य स्थिति में निर्दिष्ट कराके नपे-तुले तरीके से आगे बढ़ना होगा।

दूसरा, हाल की अवधि में मुद्रास्फीति का दबाव काफी बढ़ रहा है। विशेष रूप से, मुद्रास्फीति पहले आपूर्ति पक्ष के कारकों की वजह से बढ़ रही थी, अब उसका फैलाव काफी बढ़ता जा रहा है। यह कंपनियों द्वारा किए जाने वाले मूल्य-निर्धारण में बहाली से कुछ हद तक जाहिर हुआ है। चूंकि अगले वर्ष विकास में काफी तेजी आएगी, अत: क्षमता संबंधी बाधाएं सामने आएंगी, फलस्वरूप मूल्यों में काफी उछाल आ सकता है। मुद्रास्फीति की प्रत्याशाएं भी उच्च स्तर पर बनी रहेंगी। अत: हमें यह देखना होगा कि मांग-पक्ष की मुद्रास्फीति की स्थिति पैदा न हो।

तीसरा, 2010-11 में पिछले वर्ष की तुलना में सरकारी उधार कम रहने के बावजूद पिछले वर्ष की अपेक्षा नए सिरे से किए जाने वाले प्रतिभूतियों के निर्गमन में 36.3 प्रतिशत की वृद्धि होगी। यह रिज़र्व बैंक के लिए दुविधापूर्ण स्थिति है। एक ओर मौद्रिक नीतिगत अवधारणा इस बात की मांग करती है कि अतिरिक्त चलनिधि को निकाला जाए, तो दूसरी ओर ऋण प्रबंधन अवधारणा के अनुसार समर्थनकारी चलनिधिक परिस्थिति तैयार करने की ज़रूरत है। ऐसी स्थिति में रिज़र्व बैंक को संतुलनकारी कार्य करना पड़ता है, साथ ही साथ, उसे सरकार के उधार लेने के कार्यक्रम को अवरुद्ध किए बिना अतिरिक्त चलनिधि को अवशोषित करना पड़ेगा।

41. इस पृष्ठभूमि में रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति का रुझान निम्नलिखित उद्देशयों के अनुसार से है :

  • मुद्रास्फीति की प्रत्याशाओं पर काबू पाना, साथ ही, मुद्रास्फीति-जन्य दबाव को बढ़ने से रोकने के लिए समुचित, त्वरित और प्रभावी रूप से कदम उठाने के लिए तैयार रहना।

  • चलनिधि का इस प्रकार सक्रिय रूप से प्रबंधन करना जिससे निजी और सरकारी दोनों क्षेत्रों की ऋण-संबंधी मांगों में वृद्धि की निर्बाध रूप से पूर्ति की जा सके।

  • मूल्य, उत्पादन और वित्तीय स्थिरता के अनुरूप ब्याज दर व्यवस्था बनाए रखना।

IV. मौद्रिक उपाय

42. वर्तमान मूल्यांकन के आधार पर और धारा III में विनिर्दिष्ट नीतिगत रुझान के अनुरूप रिज़र्व बैंक निम्नलिखित नीतिगत उपाय घोषित करता है :

बैंक दर

43. बैंक दर में कोई बदलाव न करते हुए उसे 6.0 प्रतिशत पर बनाए रखा गया है।

रेपो दर

44. यह निर्णय लिया गया है क:

  • चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के अंतर्गत रेपो दर में तत्काल प्रभाव से 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर उसे 5.0 प्रतिशत से 5.25 प्रतिशत कर दिया जाए।

रिवर्स रेपो दर

45. यह निर्णय लिया गया है कि :

  • एलएएफ के तहत रिवर्स रेपो दर को तत्काल प्रभाव से 3.5 प्रतिशत से 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी करके उसे 3.75 प्रतिशत कर दिया जाए।

प्रारक्षित नकदी निधि अनुपात

46. यह निर्णय लिया गया है कि :

  • 24 अप्रैल, 2010 से प्रारंभ होने वाले पखवाड़े से अनुसूचित बैंकों की निवल मांग और मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) से संबंधित प्रारक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) में 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी कर उसे 5.75 प्रतिशत से 6.0 प्रतिशत कर दिया जाए।

47. सीआरआर में बढ़ोतरी होने से सिस्टम से लगभग 12,500 करोड़ रुपये की अतिरिक्त नकदी अवशोषित की जाएगी।

48. रिज़र्व बैंक द्वारा समष्टि अर्थव्यवस्था की परिस्थितियों, विशेष रूप से मूल्य की स्थिति पर कड़ी निगरानी रखना जारी रहेगा और वह आवश्यकता के अनुसार कार्रवाई करेगा।

प्रत्याशित परिणाम

49. इन कार्रवाइयों के परिणाम इस प्रकार से होंगे :

(i) मुद्रास्फीति को नियंत्रित रखा जाएगा और मुद्रास्फीति की प्रत्याशाओं पर काबू पाया जाएगा।

(ii) सुधार-प्रक्रिया बनाये रखी जाएगी।

(iii) सरकार की उधार-संबंधी अपेक्षाओं और निजी क्षेत्र की ऋण-मांगों को पूरा किया जाएगा।

(iv) अर्थव्यवस्था की स्थिति के अनुरूप नीतिगत साधनों को चुस्त-दुरुस्त किया जाएगा।

मौद्रिक नीति 2010-11 की पहली तिमाही समीक्षा

50. 2010-11 की मौद्रिक नीति की पहली तिमाही समीक्षा 27 जुलाई, 2010 को घोषित की जाएगी।

भाग -ख : विकासात्मक व विनियामक नीतियां

51. वैश्विक वित्तीय संकट ने वित्तीय स्थिरता के व्यापक परिप्रेक्ष्य में वित्तीय क्षेत्र की नीतियों और वास्तविक अर्थव्यवस्था के हितों की सुरक्षा के महत्त्व को उजागर किया है। सबसे महत्त्वपूर्ण सीख यह है कि कोई भी ऐसा संकेतक या घटना नहीं है, जो कि निरंतर निगरानी, प्रक्रियाओं की नियमित समीक्षा, सक्रिय निगाह या अग्रिम तौर पर कार्रवाई करने के ठीक-ठीक संकेत देती हो। अत: वित्तीय क्षेत्र को सुदृढ स्थिति में रखने के लिए विनियामक व्यवस्था का आवधिक मूल्यांकन और प्रभावी पर्यवेक्षण महत्त्वपूर्ण तत्व हैं।

52. पिछले कई वर्षों से रिज़र्व बैंक ने वित्तीय मध्यस्थता को सुधारने और वित्तीय स्थिरता को बनाए रखने की दृष्टि से वित्तीय क्षेत्र की उन्नति की दिशा में बड़े पैमाने पर कार्य किया है। वैश्विक वित्तीय संकट से प्राप्त समुचित सबक पर ध्यान केंद्रित करने में और वित्तीय असंतुलनों के प्रति सजग रहने वाली विनियामक व्यवस्था उपलब्ध कराने में यह प्रक्रिया और भी सघन हो गयी है। रिज़र्व बैंक का विनियमन वित्तीय स्थिरता को बनाए रखते हुए बैंकिंग क्षेत्र की दक्षता की बेहतरी के प्रति ध्यान देता रहेगा। साथ ही साथ, वह वित्तीय क्षेत्र के विकास को अपेक्षाकृत और समावेशन प्रक्रिया के लिए वित्तीय समावेशन संबंधी गतिविधियों पर जोर देता रहेगा।

53. पूर्ववर्ती नीतिगत घोषणाओं पर की गयी कार्रवाई की रूप-रेखा और नवीन नीतिगत उपायों की सूची नीचे दर्शायी गयी है :

I. वित्तीय स्थिरता

वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट

54. अप्रैल 2009 के वार्षिक नीति वक्तव्य में की गयी घोषणा के अनुसार रिज़र्व बैंक ने आवधिक रूप से तनाव परीक्षण कराने और वित्तीय स्थिरता रिपोर्टें तैयार करने के लिए अगस्त 2009 में वित्तीय स्थिरता इकाई की स्थापना की।

55. पहली वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) 25 मार्च, 2010 को जारी की गयी। यह रिपोर्ट वित्तीय स्थिरता पर ध्यान देते हुए प्रणालीबद्ध करने और उसे नीतिगत ढांचे का एक अभिन्न अंग बनाने की दिशा में एक प्रयास है। पहली एफएसआर में वित्तीय क्षेत्र, विशेष रूप से बैंकों की सुदृढ़ता का मूल्यांकन किया गया है तथा उसमें वित्तीय स्थिरता की दृष्टि से बढ़ती मुद्रास्फीति, उच्च सरकारी उधार और पूंजी अंतर्वाह में बढ़ोतरी सहित कई आशंकाएं जतायी गयी हैं। एफएसआर में यह पाया गया है कि बैंक उच्चतर स्थायी पूंजी और वित्तीय बल के सहारे पूंजी के मामले में ठीक-ठाक रहे। इसके अलावा, ऋण और बाज़ार जोखिम संबंधी तनाव परीक्षण से यह पुष्टि हुई कि वे उच्च तनाव को झेलने में सक्षम हैं। साथ ही, एफएसआर ने प्रणालीगत रूप से महत्त्व रखने वाली जमाराशियां न लेने वाली गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी-एनडी-एसआई) के संबंध में सुदृढ़ पर्यवेक्षी व्यवस्था तैयार करने और प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण वित्तीय समूहों की निगरानी और निरीक्षण को सुदृढ़ बनाने पर जोर दिया है। यह पाया गया है कि वित्तीय स्थिरता के सम्मुख समग्र जोखिम सीमित है। किंतु हाल की वित्तीय उथल-पुथल ने स्पष्ट रूप से यह निरूपित कर दिया है कि वित्तीय स्थिरता को कोई मामूली बात नहीं समझनी चाहिए और वित्तीय स्थिरता को बनाए रखने, विशेष रूप से सामान्य समय में अस्थिरता के अंतर्निहित संकेतों का पता लगाने और उन्हें कम करने के लिए सतत जागरुकता अपेक्षित होती है। भविष्य में वित्तीय स्थिरता रिपोर्टों को छमाही अंतराल पर प्रकाशित किया जाएगा।

II. ब्याज दर नीति

मूल दर : परिचय

56. अप्रैल 2009 के वार्षिक नीति वक्तव्य में विनिर्दिष्ट किए अनुसार रिज़र्व बैंक ने मौजूदा बेंचमार्क मूल उधार दर (बीपीएलआर) प्रणाली की समीक्षा करने और ऋण संबंधी कीमत-निर्धारण को अपेक्षाकृत और पारदर्शी करने के लिए आवश्यक बदलाव का सुझाव देने के लिए बेंचमार्क मूल उधार दर संबंधी कार्य-दल (अध्यक्ष : श्री दीपक मोहन्ती) का गठन किया था। उक्त कार्य-दल ने अक्तूबर 2009 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की और उसे जनसाधारण के अभिमत जानने के लिए रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर डाला गया। उक्त दल की सिफारिशों के अनुसार और विभिन्न हितधारकों से प्राप्त सुझावों के अनुसार मूल दर संबंधी दिशा-निर्देश का मसौदा फ़रवरी 2010 में रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर डाला गया।

57. प्राप्त अभिमतों/सुझावों के परिप्रेक्ष्य में यह निर्णय लिया गया कि 1 जुलाई, 2010 से बैंकों के लिए मूल दर प्रणाली लागू कर दी जाए। 9 अप्रैल 2010 को मूल दर प्रणाली संबंधी दिशा-निर्देश जारी किए गए। यह अपेक्षा की जाती है कि मूल दर प्रणाली से ऋणों का बेहतर मूल्य-निर्धारण सुसाध्य होगा, उधार दरों में पारदर्शिता बढ़ेगी और मौद्रिक नीति की प्रभावशीलता के मूल्यांकन में बेहतरी होगी।

III वित्तीय बाज़ार

वित्तीय बाज़ार उत्पाद

ब्याज दर फ्यूचर्स

58. 10 वर्षीय आनुमानिक कूपनवाली भारत सरकार प्रतिभूतियों पर ब्याज दर फ्यूचर्स संविदा करार 31 अगस्त 2009 को शुरू किये गये थे। बाज़ार से प्राप्त प्रतिपुष्टि और मुद्रा, विदेशी मुद्रा तथा सरकारी प्रतिभूति बाज़ार की तकनीकी सलाहकार समिति (टीएसी) के संबंध में की गयी सिफ़ारिशों के आधार पर यह प्रस्तावित है क:

  • पंच वर्षीय एवं दो वर्षीय आनुमानिक कूपनवाली प्रतिभूतियों और 91 दिवसीय खजाना बिलों पर ब्याज दर फ्यूचर्स शुरू किये जाएं इस उत्पाद के डिजाइन और शेयर बाज़ारों में इन उत्पादों को लाने संबंधी परिचालनगत पद्धतियों को रिज़र्व बैंक - सेबी स्थायी तकनीकी समिति अंतिम रूप देगी।

एक वर्ष से कम परिपक्वतावाले अपरिवर्तनीय

डिबेंचरों (एनसीडी) का विनियमन

59. जैसा कि अक्तूबर 2009 में हुई दूसरी तिमाही की समीक्षा में कहा गया था, एक वर्ष से कम परिपक्वतावाले अपरिवर्तनीय डिबेंचरों (एनएसडी) के विनियमन के संबंध में दिशानिर्देशों का प्रारूप 3 नवंबर 2009 को रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर अभिमतों/प्रतिपुष्टि के लिए डाला गया था। प्राप्त अभिमतों/प्रतिपुष्टि की जांच की गयी और इन पर मुद्रा, विदेशी मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाज़ारों पर गठित तकनीकी समिति ‘टीएसी’ द्वारा भी चर्चा की गयी। तदनुसार, प्रस्ताव है कि :

  • एक वर्ष से कम की परिपक्वतावाले एनएसडी के निर्गमन के संबंध में अंतिम दिशानिर्देश जून 2010 के अंत तक जारी किए जाएं।

ऋण चूक स्वैप (सीडीएस) लागू करना

60. जैसा कि अक्तूबर 2009 की दूसरी तिमाही की समीक्षा में कहा गया था, रिज़र्व बैंक ने निवासी संस्थाओं के लिए कारपोरेट बांडों के काउंटर पर प्लेन वैनिला, एकल नाम सीडीएस (ओटीसी) यथोचित सुरक्षा उपायों के अधीन को लागू करने के संबंध में परिचालनगत ढ़ांचे को अंतिम रूप देने के लिए एक आंतरिक कार्यकारी दल गठित किया। उक्त दल बाज़ार सहभागियों/विशेषज्ञों के साथ किये जानेवाले परामर्शों तथा अंतर्राष्ट्रीय अनुभवों के अध्ययन के आधार पर भारतीय बाज़ारों के ढांचे को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया में है। तदनुसार प्रस्ताव है क:

  • उक्त आंतरिक कार्यदल की ड्राफ्ट रिपोर्ट को जुलाई 2010 के अंत तक रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर डाल दिया जाए।

फारेक्स डेरिवेटिव के संबंध में दिशानिर्देश

61. जैसा कि अक्तूबर 2009 की दूसरी तिमाही की समीक्षा में कहा गया था, ओटीसी विदेशी मुद्रा डेरिवेटिवों संबंधी ड्राफ्ट दिशानिर्देश जनता के अभिमत के लिए रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर 12 नवंबर 2009 को डाले गए थे। पणधारियों तथा औद्योगिक संघों से प्राप्त प्रतिपुष्टि पर मुद्रा, विदेशी मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाज़ारों पर गठित स्थायी तकनीकी समिति (टीएसी) की बैठकों में चर्चा की गयी। चर्चाओं के आधार पर प्रस्ताव है क:

  • अंतिम दिशानिर्देश जून 2010 के अंत तक जारी कर दिए जाएं।

जारी किए गए विनिमय केंद्रों के जरिए करेन्सी ऑप्शन संविदाएं लागू करना

62. वर्तमान में, भारत के निवासियों को मान्यता प्राप्त दो शेयर-बाज़ारों पर चार करेन्सी शेयर में फ्यूचर संविदाओं का लेनदेन करने की अनुमति है। करेंसी जोखिम की हेजिंग करने के लिए साधनों की सूची (मेन्यू) का विस्तार करने की दृष्टि से यह निर्णय लिया गया है क:

  • मान्यताप्राप्त शेयर बाज़ारों को निवासियों के लिए हाजिर अमरीकी डालर/रुपया विनिमय दर पर प्लेन वैनिला करेंसी ऑप्शन शुरू करने की अनुमति दी जाए।

63. जोखिम प्रबंधन और परिचालनगत दिशानिर्देशों को रिज़र्व बैंक-सेबी स्थायी तकनीकी समिति अंतिम रूप देगी।

पंजीकृत ब्याज और मूल प्रतिभूतियों का अलग व्यापार (स्ट्रिप्स): स्थिति

64. जैसा कि वर्ष 2009-10 के वार्षिक नीति वक्तव्य में कहा गया था, सरकारी प्रतिभूतियों की स्ट्रिपिंग/पुनर्संरचना पर बाज़ार सहभागियों के परामर्श से तैयार किए गए ड्राफ्ट दिशानिर्देशों को अभिमत और पुष्टि के लिए 14 मई 2009 को रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर डाला गया था। ड्राफ्ट दिशानिर्देशों पर प्राप्त फीडबैक को ध्यान में रखते हुए सरकारी प्रतिभूतियों की स्ट्रिपिंग/पुनर्संरचना पर अंतिम दिशानिर्देश 25 मई 2010 को जारी किए गए थे। पहली अप्रैल 2010 से अमल में आए उक्त दिशानिर्देशों से बाज़ार सहभागियों के लिए कुछेक शर्तों के अधीन तयशुदा लेनदेन प्रणाली (एनडीएस) के जरिए पात्र भारत सरकार दिनांकित प्रतिभूतियों को स्ट्रिप/पुनर्संरचना करना संभव हो जाएगा।

कारपोरेट बांड बाज़ार

65. हाल की अवधि में, रिज़र्व बैंक ने कॉरपोरेट बॉन्ड बाज़ार को विकसित करने के लिए नीचे बताये गये कई उपाय किए हैं

(i) कारपोरेट बांडों में अनुषंगी बाज़ार लेनदेनों के साथ-साथ सकल भुगतान (आरटीजीएस) प्रणाली पर सुपुर्दगी बनाम भुगतान-1 (डीवीपी-1) आधार पर निपटान को सुविधा प्रदान करने की दृष्टि से भारतीय राष्ट्रीय प्रतिभूति समाशोधन निगम लि., (एनएससीसीएल) और भारतीय समाशोधन निगम लि. (आईसीसीएल) को रिज़र्व बैंक को अस्थायी पूलिंग खाते रखने की अनुमति दी गयी है। साथ ही रिज़र्व बैंक द्वारा विनियमित समस्त संस्थाओं को 1 दिसंबर 2009 से उपर्युक्त व्यवस्था का प्रयोग करते हुए कारपोरेट बांडों के समत ओटीसी लेनदेनों को अधिदेशात्मक रूप से पूरा करने तथा उनका निपटान करने के लिए दिशानिर्देश जारी किए गए हैं।

(ii) कारपोरेट बांडों में एक सक्रिय रेपो बाज़ार विकसित करने में सुविधा प्रदान करने की दृष्टि से 8 जनवरी 2010 को कारपोरेट ऋण प्रतिभूतियों में रेपो लेनदेन के विषय में दिशानिर्देश जारी किए गये थे। उक्त दिशानिर्देश 1 मार्च 2010 से लागू हो गये और इनसे ‘एए’ से या उच्च श्रेणी की सूचीबद्ध कारपोरेट ऋण प्रतिभूतियों में रेपो लेनदेन करना संभव हो जाएगा। निर्धारित आय मुद्रा बाज़ार और व्युत्पन्न (डेरिवेटिव्ह) संघ (एफआइएमएमडीए) कारपोरेट बांडों में रेपो के परिचालन के लिए (एफआइएमएमडीए) रिपोर्टिंग मंच और वैश्विक मास्टर रेपो करार विकसित करने का कार्य कर रहा है।

आधारभूत संरचना कार्य में लगी कंपनियों के गैर-एसएलआर बांड -मूल्यन

66. वर्तमान में, गैर-एसएलआर बांडों में बैंकों के निवेशों को या तो व्यापार के लिए धारित (एचएफटी) या बिक्री के लिए उपलब्ध (एएफएस) के अधीन वर्गीकृत किया जाता है और इन पर ‘मार्क टू मार्केट’ की अपेक्षाओं की शर्त लागू होती है। इस बात को देखते हुए कि आधारभूत संरचना गतिविधियों का कार्य करनेवाली कंपनियों द्वारा जारी दीर्घावधिक बांडों को आम तौर पर बैंक एक लंबी अवधि के लिए रखे रहते हैं और इनके सौदे नहीं किए जाते हैं और साथ ही बैंकों को ऐसे बांडों में निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने की दृष्टि से यह प्रस्ताव है क:

  • बैंकों को आधारभूत संरचना गतिविधियों में लगी और न्यूनतम सात वर्षों की अवशिष्ट परिपक्वता रखनेवाली कंपनियों द्वारा जारी गैर-एसएलआर बांडों में किए जानेवाले उनके निवेशों को परिपक्वता के लिए धारित (एचटीएम) श्रेणी के अधीन वर्गीकृत करने की अनुमति दी जाए।

गैर-सूचीबद्ध गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों में निवेश

67. वर्तमान अनुदेशों के अनुसार, गैर सूचीबद्ध गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों में बैंकों के निवेश पिछले वर्ष के 31 मार्च को गैर एसएलआर प्रतिभूतियों में उनके कुल निवेशों के 10 प्रतिशत से अधिक नहीं होने चाहिए। चूंकि प्रतिभूति के निर्गम तथा सूचीकरण के बीच समयांतर होता है, अत:, बैंकों के लिए ऐसी गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों के प्राथमिक निर्गमों में सहभागी होना संभव नहीं हो सकता जोकि सूचीबद्ध होने के लिए प्रस्तावित हैं परंतु अभिदान के समय सूचीबद्ध नहीं हैं। उपर्युक्त के परिप्रेक्ष्य में यह प्रस्ताव है क:

  • बैंकों द्वारा गैर एसएलआर प्रतिभूतियों (प्राथमिक और अनुषंगी दोनों ही बाज़ारों में) में किए जानेवाले निवेशों, जहां शेयर बाज़ारों में सूचीबद्ध होने के लिए प्रतिभूति प्रस्तावित हैं, को निवेश करते समय सूचीबद्ध प्रतिभूति में निवेश के रूप में माना जाए।

68. अलबत्ता, ऐसी प्रतिभूति को निर्दिष्ट अवधि में यदि सूचीबद्ध नहीं किया जाता हो तो उसे गैर-सूचीबद्ध गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों के लिए निर्दिष्ट 10 प्रतिशत की सीमा के लिए हिसाब में लिया जाएगा। यदि गैर-सूचीबद्ध, गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों में शामिल ऐसे निवेशों के कारण, उक्त 10 प्रतिशत की सीमा का उल्लंघन होता है तो, उस बैंक को उक्त सीमा तक उनके न पहुंचने के समय तक गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों में आगे और निवेश (गतिविधियों के वित्तपोषण के लिए जारी दर्जा न प्राप्त बांडों सहित प्राथमिक और अनुषंगी दोनों ही बाज़ारों में किए जानेवाले) करने की अनुमति नहीं होगी।

वित्तीय बाज़ार बुनियादी व्यवस्था

जमा प्रमाणपत्रों (सीडी) और वाणिज्यिक पत्रों (सीपी) के लिए रिपोर्टिंग प्लेटफ़ॉर्म

69. हालांकि सीडी और सीपी का बाज़ार काफ़ी व्यापक है, फिर भी, अनुषंगी बाज़ार के लेनदेनों में इस समय बहुत ही कम पारदर्शिता है। सीडी और सीपी के अनुषंगी बाज़ार लेनदेनों में पारदर्शिता को बढ़ावा देने की दृष्टि से यह प्रस्ताव है क:

  • सीडी और सीपी के समस्त अनुषंगी बाज़ार लेनदेनों के लिए एक रिपोर्टिंग मंच आरंभ किया जाए।

70. निर्धारित आय मुद्रा बाज़ार व्युत्पन्न (डेरिवेटिव्ज) संघ (एफआइएमएमडीए) से अनुरोध किया गया है कि वह कारपोरेट बांडों के लिए उसके विद्यमान मंच के समान एक मंच विकसित करें। इस तरह से, एक बार रिपोर्टिंग प्रणाली स्थिर हो जाने पर ओटीसी कारपोरेट बांडों जैसी एक निपटान व्यवस्था स्थापित की जा सकेगी।

ओटीसी व्युत्पन्नी लेनदेनों की रिपोर्टिंग

71. संकट-स्थिति के बाद के परिदृश्य में ओटीसी डेरिवेटिवों के लेनदेनों में पारदर्शिता एवं सूचना रिपोजिटरियों की जरूरत का मुद्दा काफ़ी महत्त्वपूर्ण हो गया है। भारत में, ब्याज दर व्युत्पन्नी में (ब्याज दर अदला-बदली/(आइआरएस)/वायदा दर करार (एफआरए), ओटीसी लेनदेनों की केंद्रीकृत रिपोर्टिंग भारतीय समाशोधन निगम लिमिटेड (सीसीआइएल) मंच पर अगस्त 2007 में प्रारंभ हुई। विनियमन, चौकसी और पारदर्शिता के प्रयोजनों के लिए समस्त ओटीसी डेरिवेटिवों से संबंधित लेनदेन डाटा एकत्रित रूप में पाने की दृष्टि से आइआरएस के संबंध में मौजूदा रिपोर्टिंग व्यवस्थाएं समस्त ओटीसी ब्याज दर और फोरेक्स डेरिवेटिवों पर लागू करना आवश्यक है। तदनुसार, प्रस्ताव है क:

  • समस्त ओटीसी ब्याज दर और फोरेक्स डेरिवेटिव लेनदेनों के लिए एक दक्ष, एकल बिंदु रिपोर्टिग तंत्र संबंधी पद्धतियों का आकलन करने के लिए रिज़र्व बैंक, सीसीआइएल और बाज़ार सहभागियों के सदस्यों का एक कार्यकारी दल गठित किया जाए।

रेपो लेखांकन में संशोधन: स्थिति

72. जैसा कि अप्रैल, 2009 के वार्षिक नीति वक्तव्य में कहा गया है, रेपो/रिवर्स रेपो लेनदेनों के लेखांकन के बारे में रिज़र्व बैंक ने 23 मार्च 2010 को संशोधित दिशानिर्देश जारी किए थे। उक्त संशोधित दिशानिर्देशों में, रेपो का आर्थिक आशय एक संपार्श्विक ऋण देने तथा उधार लेने संबंधी लिखत और न कि एकमुश्त विक्रय और खरीद के लिखत के रूप में लिया गया है। संशोधित लेखांकन दिशानिर्देश 1 अप्रैल 2010 से बाज़ार रेपो लेनदेनों पर लागू किए गए हैं। तथापि, ये लेखांकन मानदंड रिज़र्व बैंक के साथ चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के अधीन किए जानेवाले रेपो/रिवर्स रेपो लेनदेनों पर लागू नहीं हैं।

IV. ऋण सुपुर्दगी और वित्तीय समावेशन

एमएसई क्षेत्र के लिए ऋण प्रवाह

एमएसई के लिए ऋण गारंटी योजना

73. सूक्ष्म और लघु उद्यम (सीजीएफटीएमएसई) के लिए ऋण गारंटी निधि न्यास की ऋण गारंटी योजना पर गठित कार्यदल (अध्यक्ष: श्री वी.के. शर्मा) की सिफ़ारिशों के बाद प्रस्ताव है क:

  • बैंकों को अधिदेश दिया जाए कि वे सूक्ष्म और लघु उद्यम (एमएसई) क्षेत्र के समस्त यूनिटों को दिए जानेवाले 10 लाख रुपए तक के ऋणों के लिए संपार्श्विक जमानत का आग्रह न करें जबकि वर्तमान में उक्त सीमा 5 लाख रुपए है।

एमएसई पर उच्च स्तरीय कार्य-बल

74. भारत सरकार द्वारा सूक्ष्म, लघु और मझौले उद्यमों (एमएसएमई) द्वारा उठाए जानेवाले विभिन्न मुद्दों पर विचार करने और कृति के लिए एक एजेंडा तैयार करने के लिए एक उच्च स्तरीय कार्य-बल (अध्यक्ष: श्री टी.के.ए. नायर) गठित किया गया था। उक्त कार्य बल ने 30 जनवरी 2010 को भारत सरकार को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है। कार्य-बल ने एमएसएमई की कार्य-पद्धति के संबंध में कई उपायों की सिफारिश की है। उदाहरण के लिए-ऋण, विपणन, श्रम एक्जिट नीति, बुनियादी व्यवस्था/टेक्नोलॉजी/कौशल विकास और कराधान। उसने विशेषत: यह सिफ़ारिश की है कि : i) सभी अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को सूक्ष्म और लघु उद्यमों को ऋण में वृद्धिशील ऋण प्रवाह सुनिश्चित करने की दृष्टि से वर्ष-दर-वर्ष 20 प्रतिशत की वृद्धि हासिल करनी चाहिए। ii) सूक्ष्म उद्यमों को ऋण प्रदान करने के लिए सूक्ष्म और लघु उद्यमों को दिए जानेवाले कुल अग्रिमों के 60 प्रतिशत का उप-लक्ष्य प्राप्त करने में होनेवाली किसी भी कमी को ग्रामीण मूलभूत सुविधा विकास निधि (आरआइडीएफ) या 1 अप्रैल 2010 से रिज़र्व बैंक द्वारा निर्दिष्ट किसी अन्य वित्तीय संस्था में अंशदान की राशि के आबंटन के प्रयोजन के लिए हिसाब में लिया जाएगा: और iii) सभी अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को सूक्ष्म उद्यम खातों में 15 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हासिल करनी चाहिए।

75. बैंकों से आग्रह किया गया कि वे कार्य-बल द्वारा की गयी सिफ़ारिशों को ध्यान में रखें तथा एमएसई क्षेत्र, विशेष रूप से सूक्ष्म क्षेत्र को ऋण प्रवाह में वृद्धि करने के लिए प्रभावी कदम उठाएं। रिज़र्व बैंक इस संबंध में बैंकों के कार्य निष्पादन पर निगरानी रखेगा।

ग्रामीण सहकारी बैंक

ग्रामीण सहकारी ऋण विन्यास का पुनरुज्जीवन

76. ग्रामीण सहकारी ऋण संस्थाओं के पुनरुज्जीवन के संबंध में गठित कार्य-बल (अध्यक्ष: प्रो. ए. वैद्यनाथन) की सिफ़ारिशों के आधार पर तथा राज्य सरकारों के परामर्श से भारत सरकार ने अल्पावधि ग्रामीण सहकारी ऋण विन्यास के पुनरुज्जीवन के लिए एक पैकेज अनुमोदित किया था। जैसा कि पैकेज में परिकल्पना की गयी थी, अब तक 25 राज्यों ने भारत सरकार एवं राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) के साथ समझौता ज्ञापन (एमओयू) निष्पादित किया है। चौदह राज्यों ने अपने संबंधित सहकारी समिति अधिनियमों में आवश्यक संशोधन कर लिए हैं। नाबार्ड ने 31 दिसंबर 2009 को 11 राज्यों में प्राथमिक कृषि ऋण समितियों (पीएसीएस) के अधीन भारत सरकार के अंश के रुप में कुल करीब 7,000 करोड़ रुपए की राशि जारी की है।

आधारभूत सहकारी समितियों के जरिए वित्तीय समावेशन

77. आधारभूत स्तरीय ग्रामीण सहकारी समितियों को बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है, जो वित्तीय समावेशन के साधनों के रूप में अधिक प्रभावशाली भूमिका निभा सकते हैं। इसके अलावा, कुछ राज्यों में समानांतर आत्म-निर्भर सहकारी समिति अधिनियमों के अधीन बड़ी संख्या में पीएसीएस, भारी मात्रा में अदिवासी बहु-उद्देशीय सहकारी समितियां (एलएएमपीएस) और कृषक सेवा समितियां (एफएसएस), कई थ्रिफ्ट और क्रेडिट सहकारी समितियां गठित की गयी हैं। इन सहकारी समितियों के परिचालनों को निम्नलिखित के संदर्भ में समझना जरूरी है, उनके सदस्यता संविभाग, प्रबंधन विन्यास, उनके द्वारा दी जानेवाली सेवाओं के प्रकार, सदस्यों/गैर-सदस्यों का प्रतिशत, काश्तकारों को दिया जानेवाला क्रेडिट, मौखिक पट्टेदारी और कृषि श्रमिक ताकि सुचारू रूप से कार्य करनेवाली समितियों की ताक़त और वित्तीय समावेशन के प्रभावी साधन के रूप में उनकी सक्षमता का पता चल सके। अत: यह प्रस्ताव है क:

  • समानांतर आत्मनिर्भर सहकारी समिति अधिनियम के अधीन सुचारू रूप से कार्यरत पीएसीएस, एलएएमपीएस, एफएसएस और थ्रिफ्ट और ऋण सहकारी समितियों के कार्यों का अध्ययन करने के लिए रिज़र्व बैंक, नाबार्ड और कुछ राज्य सरकारों के प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए एक समिति गठित की जाए, ताकि उनकी कार्यपद्धति के बारे में जानकारी हासिल की जा सके और वित्तीय समावेशन में योगदान देने की उनकी सक्षमता का मूल्यांकन किया जा सके।

बैंकों के लिए वित्तीय समावेशन योजना

78. बैंकिंग की पैठ बढ़ाने और वित्तीय समावेशन को बढ़ावा देने को ध्यान में रखते हुए सरकारी और निजी क्षेत्र के घरेलू वाणिज्य बैंकों को कुछ विशिष्ट उपाय करने हेतु कहा गया था। पहला, बैंकों से यह अपेक्षा की गयी थी कि वे अपने निदेशक मंडल द्वारा अनुमोदित वित्तीय समावेशन योजना (एफआईपी) तैयार करें और उसे आगामी तीन वर्षों में लागू कर दिया जाना चाहिए और इसे मार्च 2010 तक भारतीय रिज़र्व बैंक को भी प्रस्तुत किया जाए। बैंकों को सूचित किया गया था कि वे व्यावसायिक रणनीति के अनुरूप वित्तीय समावेशन कार्य योजना तैयार करें और इसे अपनी कारपोरेट योजनाओं में अनिवार्य अंग के रूप में शामिल करें। भारतीय रिज़र्व बैंक ने जानबूझ कर एक समान मॉडल लागू नहीं किया था ताकि प्रत्येक बैंक अपने कारोबारी मॉडल के अनुरूप अपनी रणनीति बना सके और इससे तुलनात्मक रूप से लाभ उठा सके। दूसरा, बैंकों से अपेक्षा की गयी थी कि वे अपने फील्ड स्टाफ के कार्यनिष्पादन मूल्यांकन में वित्तीय समावेशन संबंधी मानदंड भी शामिल करें। तीसरा, बैंकों को 2000 से अधिक आबादी वाले प्रत्येक गाँव में बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध कराये जाने हेतु मार्च, 2010 तक भावी योजना तैयार किए जाने हेतु सूचित किया गया था। भारतीय रिज़र्व बैंक अलग-अलग बैंकों में वित्तीय समावेशन कार्ययोजना पर विचार-विमर्श करेगा और इसके कार्यान्वयन पर निगरानी रखेगा।

कारोबारी प्रतिनिध: मानदंडों में शिथिलता

79. कारोबारी प्रतिनिधि (बीसी) मॉडल संबंधी मौजूदा दिशा-निर्देशों के अंतर्गत कारोबारी प्रतिनिधि (बीसी) के लिए कुछ ही श्रेणियों के व्यक्तियों की सेवाएं लिए जा सकने की अनुमति है। बैंकों को अधिक छूट प्रदान किए जाने के लिए, यह प्रस्ताव है क:

  • बैंकों को किसी भी व्यक्ति, जिसमें सामान्य सेवा केंद्र (सीएससीज) चलाने वाले व्यक्ति भी शामिल हैं, को कारोबारी प्रतिनिधि के रूप में नियुक्त करने की अनुमति दी जाए। यह अनुमति उनके द्वारा किए जा रहे कार्यों की उपयुक्तता और बैंकों के सुविधाजनक स्तर के अधीन होगी।

80. बैंकों के लिए इस संबंध में परिचालन दिशानिर्देश अलग से जारी किए जाएंगे।

81. इसके अतिरिक्त, ‘लाभ के लिए’ कार्यरत कंपनियों (गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को छोड़कर) को बैंकों के कारोबारी प्रतिनिधि के रूप में नियुक्ति किए जाने हेतु सुझाव विभिन्न पक्षों से प्राप्त होता रहा है। इस सुझाव की जटिलता को देखते हुए यह प्रस्ताव है क:

  • इस विषय पर एक चर्चा पत्र तैयार किया जाए जिसे रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर भी रखा जाएगा। प्राप्त होनेवाली प्रतिक्रियाओं के आधार पर इस मामले में कोई निर्णायक राय कायम की जाएगी।

अग्रणी बैंक योजना पर उच्चस्तरीय समिति

82. अग्रणी बैंक योजना पर उच्चस्तरीय समिति (अध्यक्ष: श्रीमती उषा थोरात) की सिफारिशों के आधार पर, राज्यस्तरीय बैंकर्स समिति (एसएलबीसी) के संयोजन बैंकों को 27 नवंबर 2009 को सूचित किया गया था कि अग्रणी बैंक जिला परामर्शदाता समितियों (डीपीसी) की एक उपसमिति का गठन करें, जो मार्च 2010 के अंत तक 2000 से अधिक आबादी वाले प्रत्येक गांव में बैंकिंग आउटलेट के माध्यम से बैंकिंग सेवाएं उपलब्ध कराये जाने हेतु भावी योजना तैयार करेंगी। यह जरूरी नहीं है कि इस प्रकार की बैंंकिंग सेवाएं किसी इमारत से चल रही शाखा के माध्यम से उपलब्ध करायी जाएं बल्कि ये सेवाएं कारोबार प्रतिनिधियों सहित सूचना और संचार तकनीक (आईसीटी) आधारित मॉडल के विभिन्न स्वरूपों में से किसी एक के द्वारा उपलब्ध करायी जा सकती हैं। समिति की अन्य सिफारिशों के आधार पर अग्रणी बैंकों/अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को 2 मार्च 2010 को सूचित किया गया था कि (i) अग्रणी बैंक योजना के अंतर्गत विभिन्न मंचों को सुदृढ़ बनाया जाए (ii) राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति/जिला परामर्शदाता समिति तंत्र में वित्तीय समावेशन के मार्ग में बाधा डालने वाले और इसे प्रभावी बनाने वाले विशिष्ट मुद्दों पर चर्चा की जाए (iii) विशिष्ट मुद्दों पर गहराई से कार्य करने हेतु अलग-अलग उप समितियों का गठन किया जाए और (iv) जिला स्तरीय ऋण योजना/वार्षिक ऋण योजना बनायी जाए जो बैंकों की कारोबारी योजना से संबद्ध हो। इस उद्देश्य के लिए यह प्रस्ताव है क:

  • राज्य स्तरीय बैंकर्स समिति/जिला परामर्शदाता समिति के कार्यों हेतु उपयुक्त निगरानी तंत्र की स्थापना की जाए।

प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र अग्रिम प्रमाणपत्र:कार्यदल

83. अक्तूबर 2009 में की गयी दूसरी तिमाही समीक्षा में की गयी घोषणा के अनुसरण में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा नवंबर 2009 में वित्तीय क्षेत्र सुधार समिति (अध्यक्ष: डा. रघुराम जी. राजन) द्वारा प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र अग्रिम प्रमाणपत्रों (पीएसएलसी) के संबंध में की गयी सिफारिशों के गुण दोषों का मूल्यांकन करने और इसकी शुरुआत तथा खुले बाज़ार में इनके कारोबार किए जाने हेतु यथोचित सिफारिशें देने के लिए प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र अग्रिम प्रमाणपत्रों (पीएसएलसी) की शुरुआत पर कार्यदल (अध्यक्ष: श्री वी.के. शर्मा)गठित किया गया था। इस संदर्भ में, यह प्रस्ताव है क:

  • कार्यदल के विचारार्थ विषयों का विस्तार किया जाए और इनमें प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के अंतर्गत सूक्ष्म-वित्त संस्थाओं (एमएफआई) को उधार देने वाले बैंकों को शामिल किए जाने के गुण-दोषों की समीक्षा भी की जाए। कार्यदल से अपेक्षा है कि यह अपनी रिपोर्ट जून 2010 के अंत तक प्रस्तुत करे।

शहरी सहकारी बैंक

नये शहरी सहकारी बैंकें की स्थापना

84. प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण शहरी सहकारी बैंकों (यूसीबी) के वित्तीय स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए 2004 में नये शहरी बैंकों की स्थापना न किए जाने का निर्णय लिया गया था। शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र को वित्तीय रूप से और सुदृढ़ बनाये जाने के लिए सभी राज्य सरकारों के साथ समझौता ज्ञापन (एमओयू) पर हस्ताक्षर किए गये हैं। समेकन के पश्चात, शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र की वित्तीय स्थिति में पर्याप्त रूप से सुधार हुआ है और शहरी सहकारी बैंकों को कारोबार के नये क्षेत्रों में प्रवेश की अनुमति भी दी गयी है।
स्थानीय समाज के बीच बैंकिंग सेवाओं का दायरा बढ़ाये जाने के लिए यह प्रस्ताव है क:

  • बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 ढसहकारी समितियों पर यथा लागू (एएसीएस)ज् की धारा 22 के अंतर्गत नये शहरी सहकारी बैंकों को लाइसेंस दिए जाने के औचित्य का अध्ययन किए जाने हेतु सभी हिताधिकारियों को शामिल करते हुए एक समिति का गठन किया जाये।

शहरी सहकारी बैंक द्वारा शाखा से दूर एटीएम लगाने की योजना को उदार बनाना

85. शाखा लाइसेंसीकरण के विद्यमान दिशा-निर्देशों के अंतर्गत, उन शहरी सहकारी बैंको, जो सुव्यवस्थित हैं और विनियामक मापदंडों पर खरे उतरते हैं, को वार्षिक कारोबार योजना प्रस्तुत करनी होती है जिसके आधार पर उनके द्वारा दिए गए विकल्पों के अनुसार शाखाएं खोलने हेतु केंद्रों का आबंटन किया जाता है। वार्षिक कारोबार योजना में शहरी सहकारी बैंकों को उन केंद्रों को भी शामिल करना होता है जहां वे शाखा से दूर एटीएम लगाने के इच्छुक हैं। बैंकिंग संरचना को और मजबूत बनाये जाने हेतु यह निर्णय लिया गया है कि शहरी सहकारी बैंकों द्वारा शाखा से दूर एटीएम लगाये जाने संबंधी दृष्टिकोण को उदार बनाया जाए। तदनुसार, यह प्रस्ताव है क:

  • सुव्यवस्थित शहरी सहकारी बैंकों को वार्षिक कारोबार योजना के माध्यम से अनुमोदन लिए बगैर ही शाखा से दूर एटीएम लगाये जाने की अनुमति दी जाए।

86. इस संबंध में विस्तृत दिशा-निर्देश मई 2010 के मध्य तक जारी कर दिए जाएंगे।

ग्राहक सेवा

87. ‘ग्राहक के साथ बेहतर व्यवहार’ का मुद्दा अत्यंत महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है क्योंकि पुराने अनुभव दर्शाते हैं कि अकसर ग्राहकों के हितों को पूरी तरह संरक्षण प्रदान नहीं किया जाता है और ग्राहकों के साथ ढंग से व्यवहार नहीं किया जाता । बैंकिंग उद्योग में ग्राहक सेवा महत्त्वपूण होती जा रही है क्योंकि बैंक विशेषाधिकार संस्थान हैं और बैंकिंग एक विशिष्ट लोकोपयोगी सेवा है। भारतीय रिज़र्व बैंक और बैंकिंग लोकपाल के कार्यालयों को कई शिकायतें मिलती रही हैं कि कुछेक ऋणों एवं अग्रिमों पर ऊंची ब्याज दरें और शुल्क लगाये जाते हैं।

88. भारतीय रिज़र्व बैंक ग्राहकों के साथ बेहतर व्यवहार सुनिश्चित किए जाने हेतु वर्ष दर वर्ष कई उपाय किए जाते रहे हैं। इसके लिए विनियामक आदेशों (जैसे वसूली एजेंटों पर रोक लगाना, समेकित डिस्प्ले बोर्ड की शुरुआत, दृष्टि बाधित लोगों के लिए बैंकिंग सुविधाएं, शहरी बैंकों की वसूली पर सेवा शुल्कों को युक्तिसंगत बनाना और एटीएम के नि:शुल्क उपयोग) के साथ-साथ नैतिक प्रेरणा और वर्ग विशेष के प्रति कार्रवाई का सहारा लिया गया है। जुलाई 2006 में व्यक्तिगत ग्राहकों के लिए बैंक की प्रतिबद्धता का कोड लागू किया गया था जो बैंकों के साथ अपने अलग-अलग ग्राहकों के साथ व्यवहार करते समय अपनाये जाने वाले न्यूनतम मानक निर्धारित करता है।

89. अलबत्ता, बैंकों द्वारा अपने ग्राहकों को दी जाने वाली सेवाओं के चयन और उनसे संबंधित लागतें तय किए जाने हेतु दी गयी अपेक्षित स्वतंत्रता के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत ग्राहकों की शिकायतों के निपटान हेतु एक विश्वसनीय और प्रभावी कार्यप्रणाली की स्थापना के लिए सम्मिलित रूप से प्रयास किए जाने की आवश्यकता है। विशेष रूप से, बैंकों की आंतरिक संरचना को कार्य संचालन की दृष्टि से प्रभावशाली बनाना आवश्यक है और न केवल ग्राहकों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करने के लिए उनका स्तर ऊपर उठाया जाये बल्कि छोटे उधारकर्ताओंं, पेंशनभोगियों और किसानों जैसे वंचित समूहों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने में भी सक्षम हो। हालांकि, बैंकों में ग्राहक संबंधी शिकायत निवारण के लिए एक बहुस्तरीय व्यवस्था मौजूद है फिर भी ग्राहकों की शिकायतों पर विचार करने की दृष्टि से उसकी कार्यकुशलता अभी संतुष्टि के स्तर से काफी दूर है। इन सब बातों पर विचार करने के पश्चात यह प्रस्ताव है कि :

  • खुदरा एवं छोटे ग्राहकों, जिनमें पेंशनभोगी भी शामिल हैं, को दी जाने वाली बैंकेंग सेवाओं पर विचार करने के लिए समिति का गठन किया जाए। यह समिति बैंकों में विद्यमान शिकायत निवारण तंत्र, इसकी संरचना और दक्षता पर भी विचार करेगी और शिकायतों का शीघ्रता से निपटान किए जाने हेतु उपाय भी सुझायेगी। समिति इस संबंध में अन्तर्राष्ट्रीय अनुभवों का भी परीक्षण करेगी।

  • भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी ग्राहक सेवा संबंधी दिशानिर्देशों के कार्यान्वयन हेतु ऑनसाइट और ऑफसाइट निरीक्षणों के माध्यम से शिकायत निवारण तंत्र को और सुदृढ़ बनाया जाए।

  • बैंकों के लिए यह जरूरी हो कि वे हर छमाही में एक बार निदेशक मंडल की बैठक में केवल ग्राहक सेवा की समीक्षा और इस पर विचार विमर्श हेतु समय दें।

V. वाणिज्यिक बैंकों के लिए विनियामक और पर्यवेक्षी उपाय

बैंकिंग सेक्टर में आघात सहनीयता को सुदृढ़ किया जाना

90. बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासल समिति ने दिसंबर 2009 में दो परामर्शी दस्तावेज जन सामान्य की प्रतिक्रिया जानने हेतु जारी किए थे। ‘स्ट्रेंथनिंग द रेसिलियन्स ऑफ द बैंकिंग सेक्टर’ दस्तावेज में पूंजी आधार की गुणवत्ता, स्थायित्व और पारदर्शिता को बढ़ाने, जोखिम कवरेज बढ़ाने, लीवरेज अनुपात निर्धारित करने और प्रति-चक्रीयता को नियंत्रित करने के प्रस्तावों को शामिल किया गया है। ‘इंटरनेशनल प्रेमवर्क फॉर लिक्विडिटी रिस्क मेजरमेंट स्टैण्डर्डस् एण्ड मोनिटरिडग’ से संबद्ध दूसरे दस्तावेज में चलनिधि जोखिम पर्यवेक्षण के अन्तर्राष्ट्रीय सामंजस्य को बढ़ाने के साथ-साथ समूचे भूमंडल के अन्तर्राष्ट्रीय रूप से सक्रिय बैंकों की चलनिधि के दबाव के प्रति सहनशीलता बढ़ाने के अन्य उपायों पर ध्यान केंद्रित किया गया है। बासल समिति द्वारा वर्तमान में इन प्रस्तावों का मात्रात्मक प्रभाव अध्ययन किया जा रहा है। यह मात्रात्मक प्रभाव अध्ययन उपर्युक्त दोनों दस्तावेजों में प्रस्तावित अनुसंशोधित सुधारों के लिए आधार तैयार करेगा ताकि पूंजी और चलनिधि के समुचित स्तर और गुणवत्ता को हासिल किया जा सके। मानकों के पूरी तरह से अनुसंशोधित सेट 2010 के अंत तक तैयार हो जाने की आशा है। इसे 2012 के अंत तक लागू करने का लक्ष्य रहेगा। इस मात्रात्मक प्रभाव अध्ययन में 10 बड़े भारतीय बैंक हिस्सा ले रहे हैं।

मूल्यांकन समायोजन और चलनिधि रहित स्थितियों के निपटान से सम्बन्धित कार्यदल

91. अक्तूबर 2009 की दूसरी तिमाही समीक्षा में यह प्रस्ताव किया गया था कि जुलाई 2009 में बासल समिति द्वारा अंतिम रूप से तैयार किये गये बासल -II प्रेमवर्क में अभिवर्धन और संशोधन को लागू करने के लिए बैंकों को समुचित दिशानिर्देश जारी किये जाएं। तदनुसार, रिज़र्व बैंक ने फरवरी 2010 में बैंकों को दिशानिर्देश जारी किए। इन दिशानिर्देशों में बैंकों से अपेक्षित है कि वे बाज़ार मूल्य आधारित लेखांकन अपेक्षाओं और इन स्थितियों के लिए चलनिधि रहितता के लिए डेरिवेटिव सहित अपने समूचे पोर्टफोलियों में विभिन्न जोखिमों/लागतों के लिए विशिष्ट मूल्यांकन समायोजन करें। इन दिशानिदेंशों में बैंकों को यह भी अनुमति है कि वे मूल्यांकन समायोजन की राशि की संगणना करने के मान्यताप्राप्त मॉडलों/विधियों में से किसी का भी अनुसरण कर सकते हैं। इस प्रयोजन के लिए बैंकों द्वारा सुस्थिर प्रविधि का अपनाया जाना निश्चित करने के लिए प्रस्ताव है क:

  • रिज़र्व बैंक, भारतीय निर्धारित आय मुद्रा बाज़ार एवं व्युत्पन्न संघ (एफआईएमएमडीए), भारतीय बैंक संघ और कुछ बैंकों से सदस्य लेते हुए एक कार्यदल का गठन किया जाए जो इस संबंध में समुचित संरचना की सिफारिश करे।

भारतीय लेखांकन मानकों को अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग मामलों के समरूप बनाना

92. भारतीय लेखांकन मानकों को अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग मानकों के समरूप बनाना सुनिश्चित किए जाने के प्रयासों के एक भाग के रूप में कारपोरेट कार्य मंत्रालय द्वारा रिज़र्व बैंक के परामर्श से बैंकिंग कम्पनियों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों के लिए एक भावी योजना को अंतिम रूप दिया गया है। इस भावी योजना के अनुसार सभी अनुसूचित वाणिज्य बैंक 01 अप्रैल 2013 की स्थिति के अनुसार अपने प्रारंभिक तुलनपत्र को अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय रिपोर्टिंग मानकों के अनुरूप संपरिवर्तित भारतीय लेखांकन मानकों के अनुसार परिवर्तित करेंगे।

93. हालांकि, शहरी सहकारी बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के मामले में क्रमिक रूप से आगे बढ़ने के नजरिये को सही माना जाता है। 300 करोड़ रुपये से अधिक निवल मालियत वाले शहरी सहकारी बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों जो एनएसई-निफ्टी 50 और बीएसई-सेन्सेक्स 30 का हिस्सा होने के साथ साथ जिनकी निवल मालियत 1,000 करोड़ रुपये से अधिक है, को अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के लिए निर्धारित समय सीमा में ही निवेश उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) के साथ समरूप होने की योजना तैयार की गयी है। 200 करोड़ रुपये से अधिक और 300 करोड़ रुपये से कम निवल मालियत वाली और 500 करोड़ रुपये से अधिक निवल मालियत वाली अन्य सूचीबद्ध गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के साथ-साथ गैर-सूचीबद्ध गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को 1 अप्रैल 2014 की स्थिति के अनुसार अपने अथशेष तुलनपत्र को अंतरर्राष्ट्रीय लेखाकार मानकों के अनुरूप उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) के साथ अनुपालन के लिए परिवर्तित निधि योजना करना होगा। इन श्रेणियों में न आने वाले शहरी सहकारी बैंकों और गैर-सूचीबद्ध गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के लिए केवल ऐसे अधिसूचित अंतर्राष्ट्रीय लेखाकरण मानकों का अनुपालन करना होगा जो उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) के समरूप नहीं हैं।

94. समरूप करने की प्रक्रिया में लगने वाले काम की मात्रा देखते हुए बैंकों और अन्य संस्थाओं से यह आशा है कि वे उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) की जटिलताओं और चुनौतियों से निपटने के लिए साथ-साथ अपने कौशल, प्रबंधन सूचना प्रणाली (एमआइएस) और सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) को उन्नत करने के लिए उचित कदम उठाएंगे। उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) को लागू करने में अतिरिक्त चुनौतियां सामने आयेंगी क्योंकि उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) के कुछ पहलू विशेषकर, वित्तीय लिखतों के मानकों की समीक्षा चल रही है और इसे अंतिम रूप देने में और वक्त लगेगा। उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) को सहजता से अपनाने के लिए यह प्रस्ताव है क:

  • उतार-चढ़ाव आरक्षित निधि योजना (आइएफआरएस) को अपनाने की प्रक्रिया की जटिलताओं का अध्ययन किया जाए और उचित परिचालनगत दिशानिर्देश भी जारी किए जाएं।

  • बैंकों और अन्य संस्थाओं को इस योजना का पालन करने के लिए तैयार करने की दृष्टि से शिक्षण कार्यक्रमों के माध्यम से सूचना का प्रचार-प्रसार किया जाए।

आधारभूत ढांचे का वित्तपोषण

95. आधारभूत ढांचे के विकास के लिए वित्तपोषण की बढ़ती मांग को पूरा करने की दृष्टि से रिज़र्व बैंक ने इस क्षेत्र में पर्याप्त मात्रा में बैंक ऋण की उपलब्धता बढ़ाने के लिये कई कदम उठाए हैं। बैंकों द्वारा आधारभूत ढांचे के वित्तपोषण के लिए जोर देने के लिए कुछ और उपायों की ज़रूरत महसूस की जा रही है।

96. मौजूदा अनुदेशों के अनुसार परियोजना ऋण (आधारभूत परियोजनाओं सहित) के संदर्भ में बैंकों को संपार्श्विक के रूप में दिये गये अधिकार, लाइसेंस और प्राधिकार किसी अग्रिम को आरक्षित ऋण के रूप में गिने जाने के लिए ज़मानत के रूप में पात्र नहीं होते। चूंकि सड़क और राजमार्ग परियोजनाओं के मामले में पथकर वसूली अधिकार और वार्षिकी, ऋणदाताओं को कुछ आर्थिक लाभ प्रदान करते हैं, अत: यह प्रस्ताव है क:

  • जिन सड़क/हाइवे परियोजनाओं और पथकर वसूली अधिकार में परियोजना प्रायोजक को निर्धारित संख्या में यातायात का प्रवाह नहीं होने पर प्रतिपूर्ति का प्रावधान है, उनके संदर्भ में निर्माण-परिचालन-अंतरण (बीओटी) मॉडल के अधीन वार्षिकी को मूर्त प्रतिभूति के रूप में स्वीकार किया जाए बशर्ते वार्षिकी और पथकर वसूली अधिकार को प्राप्त करने में बैंक का अधिकार कानूनी तौर पर लागू करने योग्य और अपरिवर्तनीय हो।

97. जून 2004 तक, रिज़र्व बैंक ने बैंकों के गैर-जमानती ऋण देने की सीमा निर्धारित कर रखी थी। विनियम हटाने की दिशा में एक कदम के तौर पर बैंकों के बोर्ड को गैर-जमानती ऋण संबंधी अपनी नीति तैयार करने में सक्षम बनाने के लिए उपर्युक्त सीमा को खत्म कर दिया गया था। हालांकि बैंकों के गैर-जमानती-ऋणों के संबंध में सीमा को खत्म करने के परिणामस्वरूप गैर-जमानती अवमानक ऋणों (जमानती अवमानक ऋण के लिए प्रावधानीकरण आवश्यकता 10 प्रतिशत है) पर प्रावधानीकरण आवश्यकताओं को बढ़ाकर 20 प्रतिशत कर दिया गया था। ढांचागत ऋणों के संबंध में उपलब्ध निबंध खातों जैसे कुछ बचाव उपायों को ध्यान में रखते हुए यह प्रस्ताव है क:

  • अवमानक के तौर पर वर्गीकृत ढांचागत ऋण खातों पर 20 प्रतिशत वर्तमान प्रावधान के स्थान पर 15 प्रतिशत का प्रावधान होगा। घटाए गए प्रावधान की इस सुविधा का लाभ लेने के लिए बैंकों के पास नकद प्रवाह के निबंध के लिए उचित प्रणाली और ऐसे नकदी प्रवाहों पर स्वस्थ और कानूनी पहला हक होना चाहिए।

विदेशी बैंकों की उपस्थिति

98. फरवरी 2005 में, रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग क्षेत्र की दक्षता और स्थिरता को बढ़ाने के उद्देश्य से दो मार्गी और क्रमिक दृष्टिकोण अपनाते हुए ‘भारत में विदेशी बैंकों की उपस्थिति के लिए रोडमैप’ जारी किया था। पहला मार्ग, निजी और सार्वजनिक, दोनों क्षेत्रों में घरेलू बैंकिंग प्रणाली का समेकन था और दूसरा मार्ग संकलित तरीके से विदेशी बैंकों का क्रमिक वृद्धि था। रोडमैप को दो चरणों में बांटा गया था, मार्च 2005 - मार्च 2009 तक इसका पहला चरण था और पहले चरण से प्राप्त अनुभव की समीक्षा के बाद दूसरा चरण आरंभ हुआ। पहले चरण में, भारत में पहली बार अपनी उपस्थिति दर्ज करने में इच्छुक विदेशी बैंक एक विकल्प (वन-मोड) उपस्थिति की कसौटी को मानते हुए या शाखा की स्थापना या 100 प्रतिशत पूर्ण स्वामित्व वाली अनुषंगी, किसी एक के माध्यम से परिचालन कर सकते थे। भारत में पहले से ही परिचालन कर रहे विदेशी बैंकों को भी एक विकल्प (वन-मोड) उपस्थिति की कसौटी को मानते हुए अपनी वर्तमान शाखाओं को पूर्ण स्वामित्व वाली अनुषंगी में बदलने की अनुमति दी गयी। भारत में शाखा विस्तार के लिए पूर्ण स्वामित्ववाली अनुषंगी को विदेशी बैंकों के वर्तमान शाखाओं की तरह माना गया। हालांकि पहले चरण के किसी विदेशी बैंक ने अपने आपको पूर्णस्वामित्व वाली अनुषंगी या पूर्ण स्वामित्व वाली अनुषंगी के रूप में बदलने के लिए आवेदन नहीं दिया।

99. जब अप्रैल 2009 में भारत में विदेशी बैंकों की उपस्थिति के संबंध में समीक्षा किये जाने का समय आया, तब वैश्विक वित्तीय बाज़ार संकट में थे और पूरे विश्व में बैंकों की मजबूती पर अनिश्चितता का माहौल था। तदनुसार, अप्रैल 2009 के वार्षिक नीति वक्तव्य में भारत में विदेशी बैंकों की उपस्थिति से संबंधित वर्तमान नीति और क्रियाविधियों को जारी रखने और वैश्विक वित्तीय प्रणाली में स्थिरता और इसमें सुधार के संबंध में स्थिति स्पष्ट होने पर हितधारकों के साथ पर्याप्त सलाह के पश्चात इसके रोडमैप की समीक्षा की ओर संकेत दिया था।

100. अब जबकि वैश्विक वित्तीय बाज़ारों में सुधार हो रहा है, विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंच इस संकट से सीखे गए सबकों को शामिल करते हुए नीतिगत ढांचे तैयार करने में लगे हुए हैं। संकट के कुछ सबक ऐसे संगठनात्मक ढांचों से बचने की सलाह देते हैं जो (i) इतने बड़े हैं कि असफल नहीं हो सकते और (ii) इतने जटिल हैं कि असफल नहीं हो सकते। इसके अलावा, यह भी महसूस किया जा रहा है कि निकट भविष्य में अंतर्राष्ट्रीय रूप से सक्रिय बैंकों के लिए बहु-देशीय निपटान प्रणाली पर सहमति नहीं दिख रही है। अंतर्राष्ट्रीय उपस्थिति वाले बैंकों की अनुषंगी के रूप में उपस्थिति ही अधिक औचित्यपूर्ण प्रतीत होती है। निपटान प्रक्रिया को आसान बनाने के अलावा यह मेजबान के अधिकार क्षेत्र को अधिक विनियामक नियंत्रण और सहूलियत प्रदान करेगा। संकट से सबक सीखते हुए यह प्रस्ताव है क:

  • विदेशी बैंकों की उपस्थिति पूर्ण स्वामित्व वाले अनुषंगी (डब्ल्यू ओ एस) के रूप में हो या शाखा के माध्यम से, इस विषय पर एक चर्चा पत्र सितंबर 2010 तक तैयार किया जाए।

नए बैंकों का लाइसेंसीकरण

101. वित्त मंत्री ने 26 फरवरी 2010 के अपने बज़ट भाषण में घोषणा की कि रिज़र्व बैंक निजी क्षेत्र में इच्छुक पार्टियों को कुछ अतिरिक्त बैंकिंग लाइसेंस देने पर विचार कर रहा है। इस बारे में यदि गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां रिज़र्व बैंक के पात्रता मानदंडों को पूरा करती हों, तो उन पर भी विचार किया जा सकता है। उपर्युक्त घोषणा के क्रम में, यह प्रस्ताव है क:

  • अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं, भारतीय अनुभव और साथ ही वर्तमान स्वामित्व एवं अधिशासन (ओ एवं जी) दिशानिर्देशों के अनुरूप एक चर्चा पत्र तैयार किया जाए और इसे जुलाई 2010 तक रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर डाला जाए ताकि इस पर विस्तृत चर्चा और फीडबैक मिल सके।

102. इसके बाद, सभी हितधारकों के साथ इस चर्चा पत्र पर विस्तृत चर्चा की जाएगी और प्राप्त फीडबैक के आधार पर दिशानिर्देशों को अंतिम रूप दिया जाएगा। लाइसेंस प्रदान करने के प्रयोजन से इस संबंध में प्राप्त सभी आवेदन जांच करने के लिए और रिज़र्व बैंक को अपनी सिफारिशें देने के लिए किसी बाह्य विशेषज्ञ ग्रुप को भेजे जायेंगे।

भारत में बैंकिंग नियंत्रक (होल्डिंग) कंपनी (बीएचसी)/वित्तीय
नियंत्रक (होल्डिंग) कंपनी (एफएचसी) की शुरुआत

103. रिज़र्व बैंक ने नियंत्रक (होल्डिंग) कंपनियों पर बैंकिंग समूह में सार्वजनिक अभिमत प्राप्त करने के प्रयोजन से अगस्त 2007 में अपनी वेबसाइट पर एक चर्चा पत्र पर डाला था। इस चर्चा पत्र पर प्राप्त फीडबैक ने वित्तीय समूह में सुव्यवस्थित प्रगति सुनिश्चित करने और बैंकों को ग्रुप के भीतर की अनुषंगी/संबंद्ध कंपनियों के प्रतिष्ठा संबंधी और अन्य जोखिमों से बेहतर सुरक्षा प्रदान करने के प्रयोजन से भारत में बैंकिंग नियंत्रक (होल्डिंग) कंपनियों (बीएचसी)/ वित्तीय नियंत्रक (होल्डिंग) कंपनियों (एफएचसी) की शुरुआत की जरूरत को कम महत्त्व दिया। वित्तीय क्षेत्र आकलन समिति (सीएफएसए) ने मार्च 2009 में जारी अपनी रिपोर्ट में पाया कि वित्तीय नियंत्रक (होल्डिंग) कंपनियों के विनियमन और पर्यवेक्षण के संबंध में वर्तमान वैधानिक स्पष्टता के अभाव को देखते हुए वैसा होल्डिंग कम्पनी ढांचा भारत में प्रचलन में नहीं है जैसा कि अमेरिका में वित्तीय समूह के नियंत्रक कंपनियों के लिए मौजूद है। समिति ने पाया कि वित्तीय समूहों में नियंत्रक कंपनी संरचना की अनुपस्थिति निवेशकों, जमाकर्ताओं और मूल कंपनी के लिए जोखिमपूर्ण है और मूल कंपनी द्वारा उसके अपने प्रमुख कारोबार के निधीयन की क्षमता पर दबाव डालती है तथा अनुषंगी कारोबार की प्रगति पर रुकावट डाल सकती है। सामान्य रूप में वित्तीय प्रणाली और विशेष रूप से बैंकिंग प्रणाली के लिए बीएससी/एफएचसी मॉडल अपनाने से जुड़े मुद्दों और जटिलताओं को देखते हुए, यह प्रस्ताव है क:

  • सरकार, रिज़र्व बैंक, सेबी, बीमा विनियामक एवं विकास प्राधिकरण और भारतीय बैंक संघ से प्रतिनिधियों को लेते हुए एक कार्यदल गठित किया जाए जो अपेक्षित वैधानिक संशोधन / ढांचे के साथ नियंत्रक कंपनी के शुरुआत के लिए एक रोडमैप की सिफारिश करेगा।

मीयादी जमाराशियों में पुनर्निवेश के लिए मीयादी जमाराशियों,
दैनिक जमाराशियों और आवधिक जमाराशियों का परिवर्तन (कन्वर्जन)

104. वर्तमान दिशानिर्देशों के अनुसार, बैंक मीयादी जमाराशियों, दैनिक जमाराशियों या आवधिक जमाराशियों के परिवर्तन की अनुमति दें ताकि निवेशक को उपर्युक्त जमाराशियों में पड़ी रकम को तत्काल उसी बैंक के अन्य मीयादी जमाराशियों में पुनर्निवेश करने की सुविधा मिल सके। बैंकों से अपेक्षित है कि वे ऐसी मीयादी जमाराशियों पर दण्डस्वरूप ब्याज घटाये बिना ब्याज का भुगतान करें बशर्ते जमाराशि पुनर्निवेश के बाद मूल करार की शेष अवधि से अधिक लंबी अवधि के लिए बैंक के पास रखी रहती है। वर्तमान विनियामक मानदंडों की समीक्षा करने के बाद और बेहतर आस्ति-देयता प्रबंधन (एएलएम) के प्रयोजन से यह प्रस्ताव है क:

  • बैंक जमाराशि परिवर्तन करने के संबंध में अपनी स्वयं की नीति तैयार करें।

क्षति-पूर्ति प्रथाएं

105. अक्तूबर 2009 की दूसरी तिमाही समीक्षा में यह संकेत दिया गया था कि वैश्विक समुदाय, विशेषकर जी-20 राष्ट्रों द्वारा उठाए गए कदमों के अनुरूप रिज़र्व बैंक क्षति-पूर्ति की मजबूत नीति के संबंध में निजी क्षेत्र के बैंकों और विदेशी बैंकों को दिशानिर्देश जारी करेगा।  तद्नुसार, यह प्रस्ताव है कि :

  • वित्तीय स्थिरता बोर्ड (एफएसबी) के सिद्धांतों के आधार पर जून 2010 के अंत तक सुदृढ़ क्षति-पूर्ति प्रथाओं पर व्यापक दिशानिर्देश जारी किए जाएं।

106. इन दिशानिर्देशों में क्षति-पूर्ति का प्रभावी कार्यान्वयन, विवेकपूर्ण जोखिम के साथ क्षति-पूर्ति का सामंजस्य और पूर्णकालिक निदेशकों (डब्ल्यूटीडी)/मुख्य कार्यकारी अधिकारियों (सीईओ) और बैंकों के जोखिम लेनेवालों के प्रकटीकरण शामिल हैं।

बासल II के पिलर 2 को लागू करना

107. भारत के सभी वाणिज्यिक बैंक, जिसमें विदेशी बैंक शामिल हैं, 31 मार्च 2009 तक बासल II ढांचे के दायरे में आ गये। रिज़र्व बैंक ने बैंकों में बासल II के पिलर 2 के तहत पर्यवेक्षी समीक्षा और मूल्यांकन प्रक्रिया (एसआरईपी) पूरी करने के लिए एक ढांचा विकसित किया है। एसआरईपी के प्रमुख उद्देश्यों में से एक यह मूल्यांकन करना है कि बैंक द्वारा रखी गयी पूँजी इसके जोखिम प्रोफाइल और पर्यवेक्षी पूँजी अनुपात (एससीआर) निर्धारित करने की दृष्टि से पर्याप्त है या नहीं। प्रत्येक बैंक के लिए पर्यवेक्षी पूंजी अनुपात अलग-अलग निर्धारित की जाएगी। इस ढांचे के तहत, बैंकों का जोखिम प्रबंधन पर्याप्तता और आंतरिक नियंत्रण ढांचा गहराई से किए गए आकलन के अधीन होगा।  पर्यवेक्षी प्रक्रिया को मजबूत बनाने के लिए, यह प्रस्ताव है कि :

  • बैंकों के वार्षिक वित्तीय निरीक्षण (एएफआइ) के एक अनिवार्य भाग के रूप में 2010-11 निरीक्षण चक्र से बैंकों के लिए पर्यवेक्षी समीक्षा एवं मूल्यांकन प्रक्रिया ढांचा लागू किया जाए।

सीमा-पार पर्यवेक्षण

108. जैसा कि अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में संकेत दिया गया था, एक आंतरिक कार्यदल ने (अध्यक्ष : श्री एस.करुप्पस्वामी) सीमा-पार पर्यवेक्षण व्यवस्थाओं पर कानूनी स्थिति की जांच की और विदेशी पर्यवेक्षकों के साथ सहमति ज्ञापन निष्पादित किए जाने की व्यवहार्यता का पता लगाया था। इस दल की सिफारिशें प्रस्तुत करने के बाद, रिज़र्व बैंक ने सीमा-पार पर्यवेक्षी समन्वय पर अपनी वर्तमान प्रथाओं की व्यापक समीक्षा की। सीमा-पार प्रभावी पर्यवेक्षण और पर्यवेक्षी समन्वय सुनिश्चित करने के प्रयोजन से यह प्रस्ताव है कि :

  • बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासल समिति (बीसीबीएस) के सिद्धांतों के अनुरूप वर्तमान कानूनी प्रावधानों के तहत विदेशी पर्यवेक्षी प्राधिकारियों के साथ द्विपक्षीय समझौते ज्ञापन पर हस्ताक्षर किए जाएं।

सूचना प्रौद्योगिकी और संबंधित मुद्दे दिशानिर्देशों में विस्तार

109. सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) के जोखिम आकलन एवं प्रबंधन को बैंकों के जोखिम प्रबंध ढांचे में शामिल होना अपेक्षित है, जबकि आंतरिक लेखा-परीक्षा/सूचना प्रणाली लेखा-परीक्षा से स्वतंत्र रूप से यह अपेक्षा की जाती है कि सूचना प्रौद्योगिकी इस बात के लिए आश्वस्त करें कि सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित प्रक्रियाएं और नियंत्रण अपेक्षानुसार काम कर रहे हैं। हाल ही में बैंकों में साइबर धोखाधड़ियों की बढ़ती घटनाओं को देखते हुए इस बात की जरूरत है कि वाणिज्यिक बैंकों में नियंत्रण में सुधार और धोखाधड़ी जोखिम आकलन और प्रबंधक प्रक्रियाओं पर पहले से तैयार रहने की आवश्यकता की समीक्षा की जाए। इलेक्ट्रॉनिक तरीके से बढ़ते लेन-देनों के साथ ही, सूचना-प्रौद्योगिकी से संबंधित कानून और अन्य कानूनों जैसे सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम 2000, सूचना-प्रौद्योगिकी संशोधन अधिनियम 2008, और धन-शोधन निवारण अधिनियम, 2002 और साथ ही ऐसे लेन-देनों से होने वाले वैधानिक जोखिम को उपयुक्त तरीके से कम करने के लिए उठाए जाने वाले कदमों की वजह से बैंकों पर कानूनी प्रभाव की समीक्षा करना महत्त्वपूर्ण है। तदनुसार, यह प्रस्ताव है क:

  • सूचना सुरक्षा, इलैक्ट्रॉनिक बैंकिंग, टैक्नालॉजी जोखिम प्रबंधन और साइबर धोखाधड़ियों से निपटने पर एक कार्यदल गठित किया जाए।

ऋण सूचनाप्रदाता कंपनियां : पंजीकरण प्रमाणपत्र देना

110. रिज़र्व बैंक ने अप्रैल 2009 में ऋण सूचना प्रदाता कंपनियां गठित करने के लिए चार संस्थाओटं को सैद्धांतिक अनुमोदन दिया था। चार कंपनियों में से, इंडिया प्राइवेट लिमिटेड की एक्सपिरियन क्रेडिट इन्फॉरमेशन कंपनी और इक्विफैक्स क्रेडिट इन्फॉरमेशन सर्विसेस प्राइवेट लिमिटेड को ऋण सूचना कारोबार शुरू करने के लिए क्रमश:17 फरवरी 2010 और 26 मार्च 2010 को पंजीकरण प्रमाणपत्र दिये गये। शेष दो कंपनियों को पंजीकरण प्रमाणपत्र जारी किये जाने के लिए उनके आवेदन विचाराधीन हैं।

VI. संस्थागत गतिविधियां

गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां

मूल निवेश कंपनियां (कोर इन्वेस्टमेंट कंपनियां): विनियामक ढांचा

111. गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए विनियामक ढांचा हाल में विकसित किया गया है जिसमें अंतर्संबद्धता और प्रणालीगत जोख़िम पर विशेष बल दिया गया है। इसमें सार्वजनिक फ़ंड तक किसी की पहुँच को प्रणालीगत मुद्दे के रूप में देखा गया है और इस लिहाज से गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और जमाराशि नहीं लेने वाली गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों पर प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के नियमन और निगरानी की जरूरत है। तथापि, जिन कंपनियों की आस्तियां शेयर्स के रूप में हों, पर ट्रेडिंग के लिए नहीं बल्कि ग्रूप कंपनियों में बतौर हिस्सेदारी हों और जो कोई अन्य वित्तीय कार्य-कलाप भी नहीं करती हों ढमूल निवेश कंपनियां (सीआइसीज़)ज्, न्यायोचित यही है कि एनबीएफ़सीज़-एनडी-एसआइ को लागू होने वाले विनियामक प्रावधानों में उनके लिए अलग तरह की व्यवस्था हो। मूल निवेश कंपनियों के लिए नीतिगत रवैये को तर्कसंगत बनाने के नजरिये से और ऐसी कंपनियों से प्राप्त फ़ीडबैक के आधार पर प्रस्ताव है कि:

  • 100 करोड़ रुपए और इससे अधिक की आस्ति साइज वाली मूल निवेश कंपनियें को प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण मूल निवेश कंपनियों के रूप में देखा जाए। इन कंपनियों को रिज़र्व बैंक से पंजीकरण प्राप्त करना होगा।.

112. न्यूनतम पूँजी और लेवरेज संबंधी मानदंड पूरा करने वाली मूल निवेश कंपनियें को निवल स्वाधिकृत निधि (नेट ओन्ड फ़ंड) बनाये रखने और एनबीएफ़सीज़-एनडी-एसआइ पर लागू होने वाले निवेश मानदंडों से छूट मिलेगी। उन्हें अपने सांविधिक लेखा परीक्षकों से इस आशय का एक वार्षिक प्रमाणपत्र प्रस्तुत करना होगा कि निर्धारित मानदंड पूरे किए गए हैं। आम राय जानने के लिए दिशा-निर्देशों का प्रारूप 30 अप्रैल, 2010 तक रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर उपलब्ध करा दिया जाएगा।

एसएआरएफ़एईएसआइ एक्ट 2002 के तहत गठित
प्रतिभूति/पुनर्निर्माण कंपनियां: विनियमन में परिवर्तन

113. रिज़र्व बैंक ने सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियों/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियों के साथ राय मशविरा करके इन कंपनियों के जारी किए गए दिशा-निर्देशों व अनुदेशों की समीक्षा की है। तदनुसार, दिशा-निर्देशों में निम्नलिखित संशोधनों के प्रस्ताव हैं:

  • सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियां/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियां अपनी बहियों में या सीधे अपने सेट अप किए ट्रस्टों की बहियों में आस्तियां प्राप्त कर सकती हैं।

  • कुछ खास शर्तों के तहत निदेशक मंडल सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियों/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियों द्वारा प्राप्त आस्तियों की वसूली अवधि को पांच वर्ष से बढ़ाकर से आठ वर्ष कर सकते हैं। पांच या आठ वर्ष (जैसा मामला हो) की समाप्ति पर जिन आस्तियों/प्रतिभूति रसीदों (एसआर) को तुड़वाया/छुड़ाया (रिडीम किया) न गया हो उन्हें अब से हानि आस्तियां माना जाएगा।

  • सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियों/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियों के लिए यह आवश्यक होगा कि किसी विशेष योजना के तहत जारी प्रतिभूति रसीदों के प्रत्येक वर्ग के पाँच प्रतिशत के बराबर की राशि निवेश करें और निवेश को तब तक धारण करें जब तक उस वर्ग के तहत जारी की गयी सभी आस्तियां/सिक्यूरिटी रसीदें पूर्णत: छुड़ा नहीं ली जातीं।

  • सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियों/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियों के काम-काज में पारदर्शिता और बाज़ार अनुशासन लाने की दृष्टि से कुछ अतिरिक्त सूचनाएं उपलब्ध कराने के मानदंड लागू किए जा रहे हैं जैसे वर्ष के दौरान वसूल की गयी आस्तियां, वर्ष के अंत में वैसे आस्तियों का मूल्य जिन्हें तुड़वाया (रिसॉल्भ न किया) गया हो, उन सिक्यूरिटी रसीदों का मूल्य जिनका मोचन (रिडेम्पशन) होना है आदि।

114. विस्तृत दिशा-निर्देश 30 अप्रैल 2010 तक जारी कर दिए जाएंगे।

सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियों/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियों द्वारा उधारकर्ता के कारोबार
में बदलाव या उसके प्रबंधन को हाथ में लिए जाने संबंधी दिशानिर्देश

115. इस संबंध में आम राय जानने के लिए सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियों/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियों द्वारा उधारकर्ता के कारोबार में बदलाव या उसके प्रबंधन को हाथ में लिए जाने संबंधी दिशानिर्देशों का प्रारूप रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर उपलब्ध कराया गया है। दिशानिर्देशों में पात्रता संबंधी शर्तें और उन आधारों की जानकारी दी गयी है जिन पर सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियां/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियां अपनी शक्तियों का प्रयोग कर सकती हैं। दिशा-निर्देशों में एक स्वतंत्र सलाहकार समिति गठित करने की बात कही गयी है जो सिक्यूरिटाइज़ेशन कंपनियों/रीकन्स्ट्रक्शन कंपनियों द्वारा उधारकर्ता के कारोबार में बदलाव या उसके प्रबंधन को टेक-ओवर करने संबंधी प्रस्तावों का मूल्यांकन करेगी। प्राप्त सुझावों व बाहरी सलाहकार समिति के परामर्श के आधार पर, यह प्रस्ताव है कि:

  • अंतिम दिशा-निर्देश 30 अप्रैल 2010 तक जारी कर दिए जाएं।

भुगतान और निपटान प्रणाली

भुगतान प्रणाली विज़न दस्तावेज़ 2009-12

116. भुगतान प्रणालीमें हुई महत्त्वपूर्ण गतिविधियों को और भुगतान प्रणालियों के पर्यवेक्षण व नियमन में रिज़र्व बैंक के उत्तरदायित्व को देखते हुए 16 फरवरी, 2010 को 2009-12 की अवधि के लिएअ ‘विज़न दस्तावेज’ जारी किया गया। ‘विज़न दस्तावेज’ व़े दायरे को बढ़ाया गया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि देश में काम कर रही भुगतान और निपटानकी सभी प्रणालियां संरक्षित, सुरक्षित, सुदृढ़, सक्षम, सुगम और अधिकृत हों।

भुगतान व निपटान प्रणाली समिति की सदस्यता

117. अंतर्राष्ट्रीय निपटान बैंक के तत्वावधान में गठित भुगतान व निपटान प्रणाली समिति (सीपीएसएस) को और अधिक व्यापक करते हुए हाल ही में भारत और नौ अन्य देशों को सदस्य के रूप में शामिल कर लिया गया है। विश्व भर में भुगतान व निपटान प्रणाली के सुचारू रूप से कार्य करने संबंधी दिशा-निर्देश तैयार करने और इससे जुड़ी हुई बाज़ार संबंधी आधारभूत संरचना में सहयोग देने को लेकर गठित समिति के तीन कार्य दलों में भी रिज़र्व बैंक का प्रतिनिधित्व है।

चेक फ़ॉर्मों पर सुरक्षा विशेषताओं का मानकीकरण

118. चेक अभी भी खुदरा भुगतानों के प्रधान माध्यम बने हुए हैं। चेक संबंधी धोखाधड़ियों से बचने और बेंकिंग उद्योग द्वारा जारी/प्रयुक्त चेकों में एकरूपता लाने की दृष्टि से चेक फ़ॉर्मों पर सुरक्षा विशेषताओं के मानकीकरण की आवश्यकता को परखने का फैसला किया गया। तद्नुसार एक कार्य दल का गठन किया गया और इसकी सिफारिशें व उद्योग जगत की राय के आधार पर चेकों पर सुरक्षा विशेषताओं हेतु मानक विशिष्टताओं व चेक फ़ॉर्मों पर स्थल निर्धारण (फ़ील्ड प्लेसमेंट्स) के साथ चेक ट्रंकेशन सिस्टम (सीटीएस)-2010 मानक निर्धारित किया गया।

भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (नेशनल पेमेंट्स कारपोरेशन ऑफ़ इंडिया) की शुरुआत

119. खुदरा भुगतान प्रणालियों को चलाने और उनका प्रबंध करने के लिए दिसंबर 2008 में एक-छत्र संगठन के रूप में गठित भारतीय राष्ट्रीय भुगतान निगम (एनपीसीआइ) की भूमिका देश में आने वाले समय में खुदरा भुगतान के क्षेत्र में नवीनता भरे प्रयासों को देखने की है। 14 दिसंबर 2009 से एनपीसीआइ ने बैंकिंग प्रौद्योगिकी विकास व अनुसंधान संस्थान (आइडीआरबीटी) से नेशनल फ़ाइनैंशियल स्विच (एनएफ़एस) के कार्य अपने हाथ में ले लिए हैं। चेन्नै में प्रस्तावित सीटीएस परियोजना को प्रारंभ करने में भी एनपीसीआइ के अग्रणी भूमिका की आशा है।

हाइ वैल्यू क्लीयरिडग को क्रमश: हटाया जाना

120. रिज़र्व बैंक का प्रयास रहा है कि कागज-आधारित भुगतान से इलेक्ट्रॉनिक पेमेंट की ओर बढ़ा जाए और इसके लिए पर्याप्त तकनीकी आधारभूत संरचना तैयार की जाए। कागज-आधारित हाइ वैल्यू पेमेंट से अधिक सुरक्षित इलेक्ट्रॉनिक भुगतान की ओर बढ़ने के तहत हाइ वैल्यू क्लीयरिडग (एचवीसी)को 31 मार्च 2010 से इस प्रकार बंद कर देने का निर्णय लिया गया है कि प्रक्रिया चरणबद्ध हे और वह भी चीजों को बिना अस्त-व्यस्त किए। यह प्रक्रिया निर्धारित समय के अनुसार पूरी कर ली गयी है।

राष्ट्रीयइलेक्ट्रानिकनिधिअंतरणप्रणालीमें उन्नयन

121. राष्ट्रीय इलेक्ट्रानिक निधि अंतरण प्रणाली (एनईएफटी) की उपलब्धता, सुविधा, सक्षमता और गति क्षेत्र में और सुदृढ़ बनाने के लिए परिचालनात्मक प्रक्रियाओं और प्रक्रिया प्रवाह में 1 मार्च 2010 से कई महत्त्वपूर्ण चीजें जोड़ी गयीं। इनमें शामिल थी (i) साप्ताहिक कार्यदिवसों पर ऑपरेटिंग विंडो के समय को दो घंटे और शनिवार को एक घंटे बढ़ाया गया है; (ii) घंटा-वार निपटान प्रणाली अवधारणा की शुरुआत; (iii)क्रेडिट न किए गए लेनदेनों की वापसी के समय को कम किया गया; (iv)एसएमएस या ई-मेल द्वारा प्रेषणकर्ता को गंतव्य बैंक में हिताधिकारी खाते में निधियों के क्रेडिट किये जाने की स्थिति के अनुसार वास्तविक समय और तारीख़ की पक्की पुष्टि की व्यवस्था। इलेक्ट्रानिक भुगतान सिस्टम में प्रेषणकर्ता को पक्की पुष्टि किया जाना दुनिया भर में अपने तरह की शायद एक अनूठी व्यवस्था है।

122. मार्च 2010 के अंत की स्थिति के अनुसार, 95 बैंकों की 66,550 शाखाओं ने एनईएफटी में भाग लिया था और प्रोसेस किए गए लेनदेन की मात्रा बढ़कर मार्च 2010 तक 8.3 मिलियन लेनदेन की रिकॉर्ड मात्रा तक पहुंच गयी।

मध्यवर्तीसंस्थाओंऔरभुगतानएग्रिगेटरोंकेलिएदिशानिर्देश

123. वस्तुओं/सेवाओं की खरीद पर और अन्य उपयोगिताओं के भुगतान के लिए भी इलेक्ट्रानिक/ऑनलाइन भुगतान के तरीकों की लोकप्रियता देश में बढ़ती जा रही है। इलेक्ट्रानिक/ऑनलाइन भुगतान के तरीकों में वृद्धि से मध्यवर्ती संस्थाओं जैसे एग्रिगेटर्स और भुगतान गेटवे सर्विस प्रोवाइडर भी जुड़े होते हैं। इस प्रकार के लेन-देनों में सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए नवंबर 2009 में विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए गए।

भारतमेंमोबाइलबैंकिंग

124. बैंकिंग लेनदेनों को शुरू करने और पूरा करने के लिए मोबाइल फोन चैनलों का उपयोग दुनिया भर में बढ़ रहा है और महत्त्वपूर्ण होता जा रहा है। रिज़र्व बैंक ने इस माध्यम के महत्त्व को पहचाना है। तदनुसार, अक्तूबर 2008 में मोबाइल बैंकिंग के लिए विनियामक दिशानिर्देश अधिसूचित किए गए। बाद में दिसंबर 2009 में लेनदेन की सीमा में और ढील दी गयी। बैंकों को शुरू से अंत तक कूटलेखन (एंड -टू-एंड इनक्रिप्शन) के बिना भी 1,000 रुपए तक के छोटे मूल्य वाले लेनदेन की अनुमति दी गयी। वर्तमान में, इस माध्यम का उपयोग करते हुए हर महीन 12 करोड़ औसत मूल्य के औसतन 1.9 लाख लेनदेनों का निपटान किया जाता है।

125. मोबाइल आधारित अन्य उत्पादों के विकास को और अधिक प्रोत्साहन देने के लिए गैर-बैंकिंग संस्थाओं को भी अगस्त 2009 में मोबाइल आधारित, 5,000 रुपये तक के सेमी क्लोज़्ड, प्रीपेड भुगतान जारी करने की स्वीकृति दी गयी है। वस्तुओं/सेवाओंं और एम-कॉमर्स लेनदेनों के भुगतान के लिए गैर-बैंकिंग संस्थाएं ऐसे लिखतें जारी कर सकती हैं।

126. रिज़र्व बैंक का यह मानना है कि भारत में मोबाइल टेलीफोनों की पहुँच इतनी अधिक है कि यह देश में वित्तीय समावेशन के लक्ष्य पूरे करने का एक महत्त्वपूर्ण माध्यम बन सकता है। फिर भी, इसके लिए बैंकों को मोबाइल सर्विस प्रोवाइडरों के साथ मिलकर समर्पित प्रयास करने होंगे। दो महत्त्वपूर्ण हिस्सेदारों के बीच प्रतिस्पर्धा के बजाय सहयोग होना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। हाल ही में, भारत सरकार द्वारा गठित एक अंतर-मंत्रालय समूह ने एक मॉडल के माध्यम से मोबाइल सर्विस प्रदाताओं द्वारा पहले से ही उपलब्ध आधारभूत ढांचे को प्रयोग में लाते हुए वित्तीय समावेशन पर महत्त्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। रिज़र्व बैंक, समूह के इन सिफारिशों की जांच कर रहा है।

बैंकोंसेआंकड़ोंकास्वचालितप्रवाह

127. चूंकि नीतियां बनाने और निर्णय करने की प्रक्रियाएं ज्यादा से ज्यादा सूचना प्रधान होती जा रही हैं, आंकड़ों की गुणवत्ता और समय पर उनकी समय से उपलब्धता सुनिश्चित करना बेहद ज़रूरी हो गया है। बैंकिंग सिस्टम से रिज़र्व बैंक में आंकड़ों के प्रवाह की सटीकता और उनकी शुद्धता सुनिश्चित करने की दृष्टि से कोर बैंकिंग सॉल्यूशन (सीबीएस) या वाणिज्यिक बैंकों के अन्य आइटी सिस्टमों से रिज़र्व बैंक को आंकड़ों के स्वचालित प्रवाह (स्ट्रेट-थ्रू प्रॉसेस) पर दृष्टिकोण-पत्र (एप्रोच पेपर) तैयार करने के लिए बैंकों, रिज़र्व बैंक, आईडीआरबीटी और आईबीए से विशेषज्ञों का एक कोर ग्रुप बनाया गया है। आशा है कि अगस्त 2010 के अंत तक यह दृष्टिकोण पत्र बैंकों के भेजे जाने के लिए तैयार होगा।

आरटीजीएसकाउन्नयन

128. आरटीजीएस का मौजूदा सिस्टम लगभग छ: वर्षों से कार्य कर रहा है और अब प्रौद्योगिकी में उन्नति को देखते हुए वर्तमान सिस्टम की जगह पर नया सिस्टम लाने के प्रयास किए जाने चाहिएं। तदनुसार, रिज़र्व बैंक और मुख्य वाणिज्यिक बैंकों के प्रतिनिधियों को शामिल करते हुए एक कार्यदल का गठन किया गया है जो कारोबार और आइटी दोनों के परिप्रेक्ष्य में नए स्वरूप के आरटीजीएस सिस्टम के संबंध में मूल प्रस्ताव तैयार करेगा।

दूसरी तिमाही समीक्षा

129. विकास और विनियामक नीतियों की अगली समीक्षा 2 नवंबर, 2010 को मौद्रिक नीति की दूसरी तिमाही समीक्षा के अंतर्गत होगी। 

मुंबई
20 अप्रैल 2010

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