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वर्ष 2001-2002 के लिए मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा के संबंध में भारतीय रिजॅर्व बैंक के गवर्नर डा. विमल जालान का वक्तव्य

वर्ष 2001-2002 के लिए मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा के संबंध में भारतीय रिजॅर्व बैंक के गवर्नर डा. विमल जालान का वक्तव्य

मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा के इस वक्तव्य के तीन भाग हैं :- I. 2001-2002 के दौरान समष्टि-आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की मध्यावधि समीक्षा; II. 2001-2002 की दूसरी छमाही के लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य, तथा III. वित्तीय क्षेत्र के सुधार और मौद्रिक नीति उपाय

I. वर्ष 2001-2002 के दौरान समष्टि-आर्थिक और मौद्रिक
गतिविधियों की मध्यावधि समीक्षा

घरेलू गतिविधियां

2. मौद्रिक और ऋण नीति के संबंध में 19 अप्रैल, 2001 को जारी किए गए वार्षिक वक्तव्य में यह अनुमान लगाया गया था कि वर्ष 2001-2002 में सकल घरेलू उत्पाद 6.0 से 6.5 प्रतिशत के बीच रहेगा । यह अनुमान इस धारणा पर आधारित था कि मानसून ठीक-ठाक रहेगा, निर्यात अच्छे होंगे और वर्ष की दूसरी छमाही की शुरुआत में औद्योगिक क्षेत्र का पुनरुत्थान होगा । भारत के मौसम विभाग से प्राप्त अद्यतन सूचना के अनुसार इस वर्ष दक्षिण-पश्चिम मानसून पिछले दो वर्षों की अपेक्षा बेहतर रहा है और 35 में से 30 उप-संभागों में सामान्य अथवा अधिक वर्षा हुई है । कृषि मंत्रालय के वर्तमान अनुमानों के अनुसार खरीफ की फसल में इस वर्ष 2.5 मिलियन टन की वृद्धि होगी और यह 105.6 मिलियन टन पर पहुंच जाएगी । यह मानते हुए कि उत्तर-पूर्व मानसून सामान्य रहेगा, यह आशा की जाती है कि वर्ष 2001-2002 में कृषि में पिछले वर्ष की अपेक्षा उल्लेखनीय वृद्धि होगी ।

3. हालांकि कृषि उत्पादन की दशा उत्साहवर्धक है, पर चालू वर्ष की पहली छमाही में औद्योगिक क्षेत्र के पुनरुत्थान और निर्यात-वृद्धि की स्थिति अनुकूल नहीं है । केंद्रीय सांख्यिकी संगठन ने हाल ही में जो अद्यतन अनुमान जारी किए हैं, उनके अनुसार औद्योगिक उत्पादन की वृद्धि दर अप्रैल-अगस्त 2001 के दौरान 2.2 प्रतिशत ही रही जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान यह 5.6 प्रतिशत थी । वृद्धि में यह गिरावट सभी क्षेत्रों में पाई गई । विनिर्माण क्षेत्र में काफी कम 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष यह 6.1 प्रतिशत रही थी । जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि की तुलना में अप्रैल-अगस्त 2001 के दौरान मूलभूत वस्तुओं, अर्धनिर्मित वस्तुओं और उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं की वृद्धि दर में कमी आई है, पूंजीगत वस्तुओं के क्षेत्र में ऋणात्मक वृद्धि दर (4.3 प्रतिशत के मुकाबले -8.0 प्रतिशत) जारी रही जो इस बात का द्योतक है कि निवेश मांग मंद रही । मूलभूत सुविधा वाले उद्योगों, जो औद्योगिक गतिविधि के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं, में भी मंदी बनी रही । बिजली, कोयला, इस्पात, सीमेंट, कच्चा पेट्रोलियम और परिशोधक उत्पादों के छह आधारभूत उद्योगों के सम्मिलित सूचकांक में अप्रैल-अगस्त 2001 के दौरान काफी कम 1.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि में यह 6.9 प्रतिशत थी । हालांकि सीमेंट, बिजली और पेट्रोलियम परिशोधक उत्पादों में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई वृद्धि दर की अपेक्षा कम वृद्धि दर रही, पर कोयले और कच्चे पेट्रोलियम की वृद्धि दर ऋणात्मक रही । निर्यात वृद्धि भी ऋणात्मक रही है । उपलब्ध अद्यतन जानकारी के अनुसार, अप्रैल-अगस्त 2001 के दौरान निर्यातों में (अमरीकी डालर में) 2.3 प्रतिशत की गिरावट आई जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान इसमें 21.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी ।

4. इसे विचार में लेते हुए कि चालू वर्ष में जहां एक ओर कृषि की वृद्धि दर सकारात्मक रहेगी और दूसरी ओर औद्योगिक और निर्यात क्षेत्रों में प्रतिकूलता रहेगी, वर्ष 2001-2002 के लिए अब 6.0 से 6.5 प्रतिशत की वृद्धि दर आशावादी प्रतीत होती है ।

5. वैश्विक अनिश्चितता तथा निर्यात एवं घरेलू वृद्धि में वैश्विक गिरावट के प्रभाव को देखते हुए, इस वर्ष के लिए समग्र रूप से संशोधित वृद्धि दर का अनुमान लगाना कठिन है । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के नवीनतम अनुमानों के अनुसार, जिन्हें पुन: नीचे की ओर संशोधित किया जा सकता है, चालू वर्ष में वैश्विक वृद्धि दर 2.6 प्रतिशत के आस-पास रहने की आशा है तथा लगभग सभी विकासशील और औद्योगिक देशों की वृद्धि दर पिछले कुछ माह पहले अनुमानित वृद्धि दर से काफी कम रहने की आशंका है । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों और घरेलू अनुसंधान एवं निगरानी एजेंसियों द्वारा भारतीय अर्थव्यवस्था वें लिए हाल में प्रस्तुत वृद्धि अनुमानों में भी 4.5 से 6.0 प्रतिशत तक की वृद्धि के अनुमान लगाए गए हैं । विभिन्न तत्वों में संतुलन बनाते हुए और यह मानते हुए कि विश्व की आर्थिक स्थिति में आगे कोई गंभीर व्यवधान नहीं आएगा, इस अवस्था में चालू वर्ष में मौद्रिक और ऋण प्रबंधन के प्रयोजन के लिए 5.0 से 6.0 प्रतिशत की वृद्धि दर का अनुमान लगाना उपयुक्त होगा । भारत विश्व के उन बहुत कम देशों में से होगा जो चालू वर्ष में इस प्रकार की वृद्धि दर दर्शाएंगे ।

6. अप्रैल - 5 अक्तूबर, 2001 की अवधि के दौरान ऋण प्रवाह औद्योगिक वृद्धि की अपेक्षाकृत निराशाजनक स्थिति दर्शाता है । बैंकिंग प्रणाली से वाणिज्यिक क्षेत्र को दिए जानेवाले बैंक ऋण और अन्य प्रवाहों में काफी मंदी रही जिसका कारण औद्योगिक वृद्धि में गिरावट और निवेश की कम मांग होना था । अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के ऋण में 5 अक्तूबर, 2001 तक 6.1 प्रतिशत (31,104 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष की तद्नुरूपी अवधि में इसमें 9.7 प्रतिशत (42,211 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई थी । खाद्यान्न ऋण में पिछले वर्ष ेकी 7,193 करोड़ रुपए की वृद्धि के मुकाबले इस वर्ष 10,211 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई जिससे यह पता चलता है कि इस वर्ष बड़े पैमाने पर खाद्यान्न की खरीद की गई है। खाद्येतर बैंक ऋण में हुई 4.4 प्रतिशत (20,894 करोड़ रुपए) की वृद्धि पिछले वर्ष की तद्नुरूपी अवधि में हुई 8.5 प्रतिशत (35,018 करोड़ रुपए) की वृद्धि से कम है । तथापि, इस वर्ष सितंबर माह के अंत में और अक्तूबर के शुरू में खाद्येतर ऋण में कुछ वृद्धि दिखाई देती है ।

7. सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों और निजी कंपनियों के बांडों/डिबेंचरों/शेयरों, वाणिज्यिक पत्रों (सीपी) आदि में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के निवेश में 21 सितंबर, 2001 तक 4.3 प्रतिशत (3,333 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष की तद्नुरूपी अवधि में 4.6 प्रतिशत (2,873 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई थी । अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से वाणिज्यिक क्षेत्र को इन निवेशों सहित कुल संसाधन प्रवाह में वृद्धि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई 8.0 प्रतिशत (37,891 करोड़ रुपए) की वृद्धि के मुकाबले 4.4 प्रतिशत (24,227 करोड़ रुपए) ही थी । संसाधन प्रवाह में वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि एक वर्ष पूर्व के 20.2 प्रतिशत के मुकाबले 12.0 प्रतिशत थी ।

8. वित्तीय संस्थाओं द्वारा जारी लिखतों और म्युचुअल फंडों में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के निवेश से पिछले वर्ष में 255 करोड़ रुपए की कमी के मुकाबले 300 करोड़ रुपए की कमी आई । पूंजीगत निर्गमों, जीडीआर और वित्तीय संस्थाओं से उधारियों को शामिल करते हुए वित्तीय वर्ष में वाणिज्यिक क्षेत्र को कुल संसाधन प्रवाह पिछले वर्ष के 83,178 करोड़ रुपए के मुकाबले 64,734 करोड़ रुपए का था । निजी कंपनियों और सरकारी क्षेत्र के यूनिटों दोनों ही के द्वारा किए गए अधिकांश ऋण निर्गम प्राइवेट प्लेसमेंट आधार पर किए गए जो विनियमन की दृष्टि से चिंताजनक है (इस समीक्षा के भाग III में इस मुद्दे का समाधान किया गया है)।

9. बैंकों से ऋण प्रवाह पर प्राप्त फीडबैक यह दर्शाता है कि अप्रैल - अगस्त 2001 वें दौरान भिन्न-भिन्न प्रकार के स्तरों पर, कृषि, गृह-निर्माण, उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं, निजी ऋणों, पर्यटन, अन्य वस्त्रोद्योग, फार्मास्युटिकल्स, आटोमोबाइल्स, निर्माण और मूलभूत आवश्यक तत्वों के लिए वाणिज्य बैंकों द्वारा दिए गए ऋण में वृद्धि हुई है । दूसरी ओर, पेट्रोलियम, कोयला, सूती वस्त्रोद्योग, जूट वस्त्रोद्योग, तम्बाकू, वनस्पती तेल, सभी इंजीनियरी और थोक व्यापार के लिए ऋण में कमी देखी गई ।

10. मौजूदा वित्तीय वर्ष में 5 अक्तूबर, 2001 तक मुद्रा आपूर्ति (एम3) में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई 8.3 प्रतिशत (93,762 करोड़ रुपए) की वृद्धि के मुकाबले 8.2 प्रतिशत (1,08,102 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई । वार्षिक आधार पर एम3 में 16.6 प्रतिशत की वृद्धि एक साल पहले की 15.3 प्रतिशत वृद्धि से अधिक थी । अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशियों में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि की 8.9 प्रतिशत वृद्धि (72,687 करोड़ रुपए) के मुकाबले 9.1 प्रतिशत (87,895 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई । वार्षिक आधार पर सकल जमाराशियों में 18.6 प्रतिशत की वृद्धि एक साल पहले की 15.4 प्रतिशत की वृद्धि से अधिक थी । वित्तीय बाजॉर के अन्य खंडों में प्रतिकूल गतिविधियों को देखते हुए ऐसा लगता है कि बैंक जमा के प्रति आकर्षण बढ़ा है । यदि जमाराशि में तेज वृद्धि जारी रहती है तो यह बैंकिंग प्रणाली में संसाधनों के नियोजन, विशेषकर ऋण और निवेश मांग में मंदी के संदर्भ में चुनौती दे सकता है ।

11. आरक्षित मुद्रा में चालू वित्तीय वर्ष में 12 अक्तूबर, 2001 तक पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई 1.6 प्रतिशत (4,427 करोड़ रुपए) की वृद्धि की तुलना में 1.8 प्रतिशत (5,516 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई । संसाधनों में, केंद्र सरकार को भारतीय रिजॅर्व बैंक के निवल ऋण में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई 14.9 प्रतिशत (20,859 करोड़ रुपए) की वृद्धि की तुलना में 4.5 प्रतिशत (6,552 करोड़ रुपए) की मामूली वृद्धि हुई, जबकि भारतीय रिजॅर्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में आई 2.1 प्रतिशत (- 3,469 करोड़ रुपए) की तेज गिरावट के विपरीत 9.9 प्रतिशत (19,531 करोड़ रुपए) की भारी वृद्धि हुई । केंद्र सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों के प्राथमिक निर्गमों में, भारतीय रिजॅर्व बैंक का अभिदान (21,679 करोड़ रुपए) निवल खुली बाजॉर बिक्री (22,275 करोड़ रुपए) के समायोजन से अधिक था । सुविधाजनक चलनिधि परिस्थितियों के कारण स्थाई सुविधाओं पर निर्भरता में भी कमी आई । घटकों में, मुद्रा संचलन में 6.2 प्रतिशत (12,138 करोड़ रुपए) की तुलना में 5.7 प्रतिशत (12,461 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई जबकि भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास बैंकरों की जमाराशियों में 9.8 प्रतिशत (- 7,871 करोड़ रुपए) की तुलना में 8.3 प्रतिशत (- 6,766 करोड़ रुपए) की गिरावट आई, जो आरक्षित नकदी निधि अनुपात में कमी के प्रभाव को दर्शाता है । कुल मिलाकर, 2001-2002 के दौरान आरक्षित मुद्रा के विस्तार के सामान्य बने रहने की संभावना है ।

12. 6 अक्तूबर 2001 को अंक-दर-अंक आधार पर थोक मूल्य सूचकांक में घट-बढ़ द्वारा मापी गई वार्षिक मुद्रास्फीति एक वर्ष पूर्व के 7.4 प्रतिशत की तुलना में 3.2 प्रतिशत थी । अगस्त 2001 में औद्योगिक कामगारों के लिए अंक-दर-अंक आधार पर उपभोक्ता मूल्य सूचकांक द्वारा मापी गई वार्षिक मुद्रास्फीति, एक वर्ष पूर्व की 4.0 प्रतिशत की तुलना में 5.2 प्रतिशत थी ।

13. इस वर्ष मुद्रास्फीति में ‘ईंधन, पावर, बिजली और चिकनाई के पदार्थ के उप-समूह’ (भार 14.2) का योगदान (पिछले वर्ष के 31.4 प्रतिशत की तुलना में) 5.7 प्रतिशत पर सामान्य रहा । वार्षिक मुद्रास्फीति दर, जिसमें इस ऊर्जा संबंधी उप समूह की मूल्य वृद्धियों का प्रभाव शामिल नहीं है, 2.6 प्रतिशत थी । जबकि प्राथमिक वस्तुओं (भार 22.0) के मूल्यों में 4.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई, विनिर्मित उत्पादों (भार 63.7) में 1.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्जॅ की गई । प्राथमिक वस्तुओं में, मूल्य वृद्धि फलों और सब्जियों, तिलहन और दालों- जैसी कुछ वस्तुओं पर ही केंद्रित रही । विनिर्मित उत्पादों में, खाद्य तेलों और सीमेंट के मूल्यों में वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक थी । कृषि में वृद्धि की संभावना सकारात्मक होने और खाद्यान्न स्टॉक बहुत अधिक रहने के कारण वर्ष के लिए मुद्रास्फीति का परिदृश्य सुखद लगता है ।

14. वर्ष 2001-2002 के संघीय बजट में केंद्र सरकार के निवल और सकल बाजॉर उधार क्रमश: 77,353 करोड़ रुपए और 1,18,852 करोड़ रुपए निर्धारित हैं । 20 अक्तूबर, 2001 तक केंद्र सरकार का निवल बाजॉर उधार 66,647 करोड़ रुपए और सकल उधार 96,251 करोड़ रुपए था । वर्ष 2001-02 के दौरान सरकार के बाजॉर उधार कार्यक्रम का संचालन परिपक्वता पद्धति को विस्तारित करके निम्न लागत पर किया गया । इस वर्ष उधारों की भारित औसत परिपक्वता 13.9 वर्ष थी जबकि पिछले वर्ष यह 10.6 वर्ष थी । दिनांकित प्रतिभूतियों के माध्यम से सरकारी उधारों पर भारित औसत प्रतिलाभ पिछले वर्ष के 10.95 प्रतिशत की तुलना में इस वर्ष लगभग 100 आधार अंक कम पर 9.96 प्रतिशत था । अपने ऋण प्रबंधन में, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने बाजॉर परिस्थितियों से सामंजस्य रखते हुए दिनांकित प्रतिभूतियों के निजी नियोजन द्वारा स्वीकृति के साथ नीलामी निर्गमों को मिलाना जारी रखा । चालू वर्ष में अब तक भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास दिनांकित प्रतिभूतियों का कुल प्राइवेट प्लेसमेंट 21,679 करोड़ रुपए था । प्राइवेट प्लेसमेंट के मौद्रिक प्रभाव को तटस्थ रखने के लिए, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने सरकारी प्रतिभूतियों की एकमुश्त खुले बाजार के कार्यकलाप के तहत 27,359 करोड़ रुपए (20 अक्तूबर 2001 तक) की बिक्री की ।

15. अगस्त 2001 तक केंद्र सरकार का 56,079 करोड़ रुपए का सकल राजकोषीय घाटा पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि की तुलना में लगभग 54 प्रतिशत अधिक था और चालू वर्ष के बजट अनुमान का लगभग आधा था । इसी प्रकार, राजस्व घाटा (43,640 करोड़ रुपए) समग्र रूप में, वर्ष के बजट अनुमान के 55 प्रतिशत से अधिक था । सकल घरेलू उत्पाद के अनुपात के रूप में, सकल राजकोषीय घाटा अब तक, पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 1.7 प्रतिशत की तुलना में अधिक अर्थात् 2.3 प्रतिशत था ।

16. वर्ष की पहली छमाही के अधिकांश भाग के दौरान रिजॅर्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में निरंतर र्वृद्धि ने मंद वास्तविक आर्थिक कार्यकलाप के साथ मिलकर चलनिधि आधिक्य की स्थिति पैदा कर दी । इसलिए रिजॅर्व बैंक को चलनिधि का कारगर नियंत्रण न केवल प्रतिभूतियों के खुले-बाजॉर कार्यकलाप बिक्री के माध्यम से करना पड़ा, बल्कि दैनिक चलनिधि समायोजन सुविधा का भी सहारा लेना पड़ा । चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत रिपो लेनदेन के माध्यम से औसत दैनिक खपत राशि लगभग 3,600 करोड़ रुपए की रही ।

17. इस वर्ष (5 अक्तूबर, 2001 तक) सरकारी प्रतिभूतियों में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों का निवेश 43,664 करोड़ रुपए के स्तर पर काफी अधिक रहा, जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान यह 25,636 करोड़ रुपए था । वाणिज्य बैंकों के पास पहले ही निर्धारित सांविधिक चलनिधि अनुपात से अधिक 1,29,450 करोड़ रुपए तक की सरकारी प्रतिभूतियां हो गई थीं, जो निवल मांग और मीयादी देयताओं का 36.3 प्रतिशत था ।

18. समग्र ब्याज दर संरचना में, जो पिछले दो सालों में काफी कम हो गई थी, नरमी की प्रवृति दिखाई देती रही । सरकारी क्षेत्र के बैंकों की मूल ब्याज दरें जो सितंबर 2000 में 11.75 प्रतिशत और 13.00 प्रतिशत के दायरे में थीं, मार्च 2001 में कम होकर 10.0-13.0 प्रतिशत हो गईं और अक्तूबर 2001 के मध्य तक आते-आते 10.0-12.5 प्रतिशत पर आ गईं । बैंकों को यह अनुमति है कि वे निर्यातकों और अपने प्रमुख ग्राहकों को मूल ब्याज दरों से कम दरों पर उधार दे सकते हैं, इसलिए ऐसी कंपनियों को दिए जाने वाले बैंक उधार की लागत और कम हो गई । सरकारी क्षेत्र के बैंकों की दीर्घावधि घरेलू जमाराशि दरें मार्च 2001 के 10.5 प्रतिशत से घटकर अक्तूबर 2001 के मध्य तक 9.5 प्रतिशत हो गईं, किंतु अल्पावधि के लिए 25 आधार अंक की मामूली वृद्धि हुई थी ।

19. जैसा कि अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में कहा गया था, राजकोषीय वर्ष की पहली छमाही के दौरान रिजॅर्व बैंक अपने रिपो लेनदेन के माध्यम से उपयुक्त चलनिधि उपलब्ध कराता रहा । कुछ दिनों को छोड़कर पूरी अवधि के दौरान रातभर के लिए मांग मुद्रा दर लगभग 7.0 प्रतिशत बनी रही और रिजॅर्व बैंक के दैनिक रिपो के प्रतिसाद में समग्र सुलभ चलनिधि के हालात दिखाई देते रहे । 10-वर्षीय सरकारी प्रतिभूतियों से संबंधित प्रतिलाभ में 100 आधार अंक की गिरावट के साथ (पिछले 2 सालों में हुई लगभग 170 आधार अंक की गिरावट के ऊपर) ब्याज दर माहौल काफी कुछ नरम रहा । 61 से 90 दिन के मीयाद वाले वाणिज्यिक पत्र संबंधी भारित औसत भुनाई दर सिंतबर 2000 के अंत के 11.74 प्रतिशत से गिरकर मार्च 2001 के अंत में 9.71 प्रतिशत और सितंबर 2001 के अंत तक 8.58 प्रतिशत हो गई । पिछले वर्ष के दौरान ऐसे पत्र से संबंधित भुनाई दर में यह 3.16 प्रतिशत अंक की गिरावट का द्योतक है ।

बाह्य गतिविधियां

20. वर्ष 2001 के पहले आठ महीने के दौरान पहले ही काफी मंदी की शिकार विश्व अर्थव्यवस्था को अमरीका में हुई 11 सितंबर की घटना के दुष्परिणाम से सबसे बुरा झटका लगा । वित्तीय बाजॉर के सभी क्षेत्रों पर, खासकर ईक्विटी बाजॉर पर, इसका दुष्प्रभाव पड़ा । पिछले चार सप्ताह में विश्व के वित्तीय बाजॉर में जहां स्थिरता आई है, विश्व अर्थव्यवस्था में विकास और सुधार के परिदृश्य अत्यंत ही अस्थिर बने हुए हैं । प्रमुख औद्योगिक देशों के साथ-साथ उभरती अर्थव्यवस्थाओं में भी वृद्धि का परिदृश्य अनुमानित वृद्धि दर कम हो जाने के कारण बुरी तरह प्रभावित हुआ है । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रकाशित अद्यतन वल्ड़ इकॉनामिक आउटलुक के अनुसार एशिया के उभरते बाजॉरों में विपरीत प्रवृति पूर्वानुमानित अवधि की अपेक्षा लंबी अवधि तक जारी रहेगी । वर्ष 2001 के दौरान अति उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में सिर्फ 1.3 प्रतिशत की वृद्धि की उम्मीद है जबकि गत वर्ष यह वृद्धि 3.8 प्रतिशत थी । लेकिन, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के अनुसार, इस विपरीत प्रवृति का असर भारत और चीन पर कम पड़ेगा । भारत पर इस वैश्विक विपरीत प्रवृति का अपेक्षाकृत कम असर पड़ने का कारण यह है कि सकल घरेलू उत्पाद के अंतर्गत व्यापार में उसका अंश कम है, तथा उसका सूचना तकनीकी क्षेत्र सेवा-उन्मुख और कम लागत वाला है । चूंकि ये वृद्धि-अनुमान 11 सितंबर के पहले लगाए गए थे, अत: यह संभावना है कि वास्तविक वैश्विक वृद्धि इस अनुमान से भी कम हो । अब ऐसा माना जा रहा है कि विश्व अर्थव्यवस्था की मंदी के दौर में पड़ने की संभावना कई सप्ताह पहले की अपेक्षा और अधिक बढ़ गई है ।

21. इस वैश्विक आर्थिक मंदी और वित्तीय बाजारों में अस्थिरता का प्रभाव भारत पर भी पड़ा । वर्ष 2001 के मार्च के अंत और अगस्त के अंत के दौरान ईक्विटी बाजारों में जहां लगभग 360 अंक की गिरावट आई थी,उसमें और गिरावट आई और बीएसई सूचकांक, मुंबई स्टाक एक्सचेंज का सूचकांक 21 सितंबर 2001 को आठ वर्ष के निम्नतम पर पहुंच गया । इस सूचकांक में अब 417 अंकों की बढ़त हुई है और यह 19 अक्तूबर, 2001 तक 3017 पर पहुंच गया है । सितंबर 2001 में विदेशी संस्थागत निवेशकों का लगभग 179 मिलियन अमरीकी डालर का निवल पूंजीगत बहिर्वाह हुआ । 11 से 20 सितंबर, 2001 तक की 10 दिन की अवधि के दौरान अमरीकी डालर की तुलना में रुपए में हुए 1.3 प्रतिशत मूल्यहा्रस के साथ विदेशी मुद्रा बाजार भी अस्थिर बने । इसके परिणामस्वरूप हुई अनिश्चितताओं से बांड बाजॉर, विशेषकर सरकारी प्रतिभूति बाजॉर पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा ।

22. 11 सितंबर के बाद के प्रतिकूल बाहरी घटनाक्रमों और भारत के वित्तीय बाजॉर पर उसके प्रभाव के कारण, बाजॉर को उचित चलनिधि प्रदान करने और उसमें समग्रत: सुखद स्थिति कायम रखने हेतु त्वरित प्रतिकि्रयास्वरूप कार्य करना आवश्यक हो गया । घरेलू वित्तीय बाजॉरों को स्थिर बनाने के उद्देश्य से भारतीय रिजॅर्व बैंक ने 15 से 25 सितंबर, 2001 तक की अवधि के दौरान निम्नलिखित उपायों की घोषणा की :

  • विदेशी मुद्रा बाजार में उभरते कुछ दबावों के बावजूद, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने 15 सितंबर, 2001 को यह घोषणा की कि उसे ब्याज दरों को पर्याप्त चलनिधि-सहित स्थिर बनाए रखने के बारे में अपने मौद्रिक नीति संबंधी उद्देश्य में अब कोई परिवर्तन लाने का इरादा नहीं है । भारतीय रिजॅर्व बैंक ने बाजॉरों को यह भी आश्वासन दिया कि मौजूदा अनिश्चितताओं को देखते हुए असामान्य आपूर्ति - मांग के अंतर की पूर्ति के लिए यदि वह विदेशी मुद्रा की प्रत्यक्ष रूप से अथवा अप्रत्यक्ष रूप से बिक्री करना आवश्यक समझता है तो ऐसा करने के लिए वह तैयार होगा ।
  • सरकारी प्रतिभूति बाजॉर में असाधारण स्थितियों को देखते हुए, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने नीलामी आधार पर चुनिंदा सरकारी प्रतिभूतियां खरीदने के लिए एक क्रय खिड़की खोली ।
  • 20 सितंबर, 2001 को भारतीय कंपनियों को भारत सरकार से परामर्श करके यथा लागू क्षेत्रीय (सेक्टोरल) कैप/सांविधिक उच्चतम सीमा तक एफआइआइ निवेश सीमा को बढ़ाने की अनुमति दी गई ।
  • 22 सितंबर, 2001 से शेयर दलालों को सकि्रय रूप से लेनदेन किए जाने वाले उन शेयरों में, जो राष्ट्रीय शेयर बाजॉर (एनएसई), निफटी और बीएसई के सूचकांक का हिस्सा है, 60 दिन की प्रारंभिक अवधि (अर्थात् 22 नवंबर, 2001 तक) के लिए मार्जिन लेनदेन हेतु वित्त प्रदान करने के लिए बैंकों को अनुमति दी गई । यह पूंजी बाजॉर में उनके निवेश की वर्तमान समग्र सीमा के भीतर होगा ।
  • 24 सितंबर, 2001 को, भारत सरकार से परामर्श करके, छह चयनित उत्पादों के बड़े मूल्य के ऐसे निर्यातों के लिए एक विशेष वित्तीय पैकेज की घोषणा की गई जो अंतर्राष्ट्रीय रूप से प्रतिस्पर्धी हैं और जो उच्च मूल्य वाले हैं।
  • 26 सितंबर, 2001 से पोतलदानपूर्व और पोतलदानोत्तर रुपया निर्यात ऋण पर अनुसूचित वाणिज्य बैंकों द्वारा वसूल की जानेवाली ब्याज दरों में छह महीने की अवधि के लिए (31 मार्च, 2002 तक) 1.0 प्रतिशत अंक तक घटाया गया ।

23. वित्तीय बाजॉरों में, विशेषकर मुद्रा, विदेशी मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजॉरों में संभावित आतंकित प्रतिकि्रयाओं को संयत करने तथा अस्थिरता को कम करने के लिए उपर्युक्त उपायों से वांछित प्रभाव हुआ । यद्यपि अब तक वित्तीय बाजार सामान्यत: स्थिर बने हुए हैं, चलनिधि पर्याप्त है और ब्याज-दर माहौल अनुकूल है, फिर भी औद्योगिक उत्पादन में कोई स्पष्ट वृद्धि परिलक्षित नहीं हुई है । यह चिंता का एक गंभीर विषय बना हुआ है । आशा की जानी चाहिए कि कुछ समय बाद जब वैश्विक बाजॉरों में पुन: गति आएगी, उसका भारत में भी निवेश की स्थिति पर अनुकूल प्रभाव पड़ेगा ।

24. पिछले दो वर्षों के वार्षिक मौद्रिक नीतिगत वक्तव्यों एवं मध्यावधि समीक्षाओं ने बाह्य और घरेलू अनिश्चितताओं की अवधियों में बाह्य क्षेत्र के प्रबंधन में हमारे अनुभव से उभरी प्रमुख शिक्षाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया है । हाल के अनुभव ने एक और बार इस बात को उजागर किया है कि निरंतर सतर्क रहना आवश्यक है और अप्रत्याशित झटकों और बाजॉर अनिश्चितताओं के प्रभाव को आत्मसात करने के लिए पर्याप्त रूप से सुरक्षा उपाय करना महत्वपूर्ण है । इस संदर्भ में, अंतर्निहित मांग और आपूर्ति स्थितियों द्वारा एक समयावधि में सुव्यवस्थित रूप में विदेशी मुद्रा दर के उतार-चढ़ाव को निर्धारित करते हुए किसी निश्चित दर संबंधी लक्ष्य के बिना अस्थिरता के प्रबंधन पर बल देने वाली भारत की विदेशी मुद्रा दर नीति समय की कसौटी पर खरी उतरी है । विभिन्न अप्रत्याशित बाहरी और घरेलू गतिविधियों के बावजूद, भारत की बाह्य स्थिति संतोषजनक रही । भारतीय रिजॅर्व बैंक विदेशी मुद्रा बाजॉर के संबंध में पहले जैसी सतर्कता, सावधानी और लचीलेपन का दृष्टिकोण अपनाता रहेगा । बैंक, पहले जैसा ही, देशी और विदेशी वित्तीय बाजॉरों की गतिविधियों की बारीक निगरानी और उचित मौद्रिक, विनियामक तथा समय-समय पर यथापेक्षित उपायों से अपने बाजार परिचालनों को सावधानी के साथ समन्वित करता रहेगा ।

25. भारत की आरक्षित विदेशी मुद्रा 20 अक्तूबर, 2000 को 34.9 बिलियन अमरीकी डालर थी जो 19 अक्तूबर, 2001 तक 10 बिलियन अमरीकी डालर की तीव्र वृद्धि के कारण बढ़कर 45.1 बिलियन अमरीकी डालर हो गई । पिछले कुछ वर्षों में आरक्षित विदेशी मुद्रा के पर्याप्त स्तर के निर्माण के लिए भारत निरंतर प्रयास करता रहा है जिसकी झलक मौजूदा गतिविधियों में मिलती है । जैसाकि पिछले नीतिगत वक्तव्य में बतलाया गया था, हाल के वर्षों में भारत की आरक्षित विदेशी मुद्रा के प्रबंध के समग्र दृष्टिकोण में भुगतान शेष का बदलता संयोजन दृष्टिगोचर होता है और इसमें विभिन्न प्रकार के प्रवाहों तथा अन्य अपेक्षाओं के साथ जुड़े ‘चलनिधि जोखिम’ को भी प्रतिबिंबित करने का प्रयास किया गया है । इस प्रकार आरक्षित मुद्रा के प्रबंध की नीति के विवेकसम्मत निर्माण में अनेक ज्ञात कारकों एवं अन्य आकस्मिकताओं का योगदान रहता है । अन्य बातों के साथ-साथ इन कारकों में ये शामिल हैं : चालू खाता घाटे (करंट अकाउंट डेफिसिट) का आकार; अल्पकालीन देयताओं (दीर्घावधि ऋणों पर वर्तमान चुकौती देयताओं सहित) का आकार; संविभाग निवेश और और अन्य प्रकार के पूंजी प्रवाहों में संभावित घट-बढ़; विदेशी स्टॉकों की वजह से उत्पन्न भुगतान शेष पर अप्रत्याशित दबाव (यथा, 1997-98 में ईस्ट एशियन संकट का प्रभाव अथवा 1999-2000 में तेल के मूल्यों में वृद्धि अथवा संयुक्त राज्य अमेरिका की वर्तमान घटनाएं); और अनिवासी भारतीयों (एनआरआइ) की प्रत्यावर्तनीय विदेशी मुद्रा जमाराशियों में घट-बढ़ । इन कारकों को देखते हुए, वर्तमान में भारत की आरक्षित विदेशी मुद्रा की स्थिति अनुकूल है । तथापि, इतने से संतोष कर लेना काफी नहीं होगा । हमें यह सुनिश्चित करते रहना होगा कि आरक्षित निधि स्तरों में अल्पकालिक उतार-चढ़ाव को छोड़कर आगे आरक्षित निधि की मात्रा अर्थव्यवस्था में बाह्य क्षेत्र के शेयर और जोखिम समायोजित पूंजी प्रवाहों की वृद्धि की दर के अनुरूप हो । इससे हमें हाल के वर्षों में और साथ ही पिछले वर्षों में देखी गई प्रतिकूल या अप्रत्याशित गतिविधियों के प्रति अधिक सुरक्षा प्राप्त होगी ।

26 वैश्विक मंदी के कारण, चालू वर्ष के दौरान निर्यात की स्थिति अच्छी नहीं रही । चालू वित्तीय वर्ष के पहले पांच महीनों के दौरान भारत का निर्यात 17.1 बिलियन अमरीकी डालर का हुआ जो पिछले वर्ष की इसी अवधि में किए गए निर्यात से 2.3 प्रतिशत कम रहा । आयात में 2.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष में 13.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी । चालू वित्तीय वर्ष के पहले पांच महीनों में व्यापार घाटा 4.6 बिलियन अमरीकी डालर का हुआ जो पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान हुए 3.7 बिलियन अमरीकी डालर से अधिक है । अंतर्राष्ट्रीय तेल के मूल्यों में वृद्धि के कारण पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में तेल के आयातों में 78.7 प्रतिशत की भारी वृद्धि की तुलना में इस वर्ष 6.1 प्रतिशत (अमरीकी डालर में) की गिरावट आई । अप्रैल-अगस्त 2001 के दौरान तेल से इतर आयातों में 6.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान उसमें 3.2 प्रतिशत की गिरावट आई थी ।गैर-तेल खाते का अधिशेष 2.9 बिलियन अमरीकी डालर से घट कर 1.1 बिलियन अमरीकी डालर हो गया, जबकि अप्रैल-अगस्त 2001 के दौरान तेल खाते का घाटा अप्रैल-अगस्त 2000 के दौरान 6.5 बिलियन अमरीकी डालर से घटकर 5.7 बिलियन अमरीकी डालर रह गया । वर्ष की शेष अवधि के दौरान अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर तेल के मूल्यों को लेकर कुछ अनिश्चितता की स्थिति है । वित्तीय वर्ष की शेष अवधि के लिए यदि तेल का औसत मूल्य प्रति बैरल 25.0 अमरीकी डालर मान लिया जाए, तो वर्ष 2001-02 के लिए तेल आयात बिल लगभग 17.5-18.0 बिलियन अमरीकी डालर का होगा जबकि पिछले वर्ष में वास्तविक आयात 15.6 बिलियन अमरीकी डालर का हुआ था । तथापि, मौजूदा हालात में, यह उम्मीद है कि वर्ष 2001-02 के लिए चालू खाते में सकल घरेलू उत्पाद के 2.0 प्रतिशत से भी कम का घाटा होगा और इस मामले में भुगतान शेष पर कोई अधिक दबाव पड़ने की उम्मीद नहीं है ।

27. अर्थव्यवस्था में भुगतान शेष की दीर्घकालिक व्यवहार्यता और आय तथा रोजगार के निर्माण के लिए, निर्यातों में वृद्धि के लिए व्यापक प्रयास करना अनिवार्य होगा । जैसाकि पहले बताया गया है, वैश्विक अनिश्चितता के इस दौर में निर्यातकों को समर्थन देने के प्रयास के रूप में रिजॅर्व बैंक ने रुपया निर्यात ऋण की उच्चतम ब्याज दरों में छह महीने की अवधि के लिए 1.0 प्रतिशत अंक की एक समान की कमी करने की सलाह दी है । इस बात पर बल दिया जाए कि जहां तक निर्यातकर्ताओं के लिए ब्याज लागत का प्रश्न है, वायदा प्रीमियम खाते को हिसाब में लेते हुए छह महीने के रुपया निर्यात ऋण पर प्रभावी ब्याज लागत केवल 3.0-4.0 प्रतिशत है (5.0 प्रतिशत के वायदा प्रीमियम को मानते हुए) जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतियोगी प्रतिशत है । इसी प्रकार, निर्यातकर्ता अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगी दरों पर अपनी पसंदीदा मुद्रा में विदेशी मुद्रा ऋण लेने के लिए स्वतंत्र हैं । निर्यातकर्ता भारत में स्थित बैंकों से लाइबोर से अधिकतम 1.0 प्रतिशत अंक पर विदेशी मुद्रा ऋण ले सकते हैं ।

28. पिछले तीन वर्षों में निर्यातकर्ताओं के लिए उचित लागत पर ऋण का समय पर संवितरण और प्रकि्रया संबंधी कठिनाइयों को दूर करना सुनिश्चित करने हेतु कई उपाय किए गए हैं । पिछले वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में यह घोषणा की गई थी कि निर्यातकर्ताओं के समाधान का सर्वेक्षण एक स्वतंत्र एजेंसी करेगी । तदनुसार, यह सर्वेक्षण कार्य नेशनल काउंसिल ऑफ अप्लाइड इकोनॉमिक रिसर्च (एनसीएईआर), नई दिल्ली को सौंपा गया है । एनसीएईआर ने 31 अगस्त, 2001 को सर्वेक्षण कार्य शुरू किया और देश के विविध केंद्रों पर बैंक के अधिकारियों और निर्यातकर्ताओं/निर्यात संगठनों के साथ विचार-विमर्श करना शुरू किया है ।

29. हाल ही की अवधि में, अनिवासियों के लिए वित्तीय लेन-देन जैसे-विप्रेषण, निवेश और बैंक खाते बनाए रखना, आदि के लिए कि्रयाविधि को पर्याप्त रूप से सरल बनाया गया है । कतिपय परिस्थितियों और बहुत छोटी नकारात्मक सूची को छोड़कर अधिकांश कार्यकलापों के लिए स्वचालित मार्ग (ऑटोमैटिक रूट) के तहत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति दी गई है । भारतीय कंपनियों को क्षेत्रीय अधिकतम सीमा/सांविधिक उच्चतम सीमा तक, जैसा भी लागू हो, विदेशी संस्थागत निवेशकों के निवेश में वृद्धि करने की अनुमति दी गई है । अमरीकी निक्षेपागार रसीद/वैश्विक निक्षेपागार रसीद (एडीआर/जीडीआर) बाजॉर में चल निधि में सुधार लाने और भारत के शेयरधारकों को विदेश में एडीआर/जीडीआर बाजॉर में अपनी शेयरधारिता बेचने के लिए अनेक उपाय किए गए हैं । जो भारतीय कंपनियां विदेशी कंपनियों के अभिग्रहण की अथवा विदेश में संयुक्त उद्यमों/पूर्णत: स्वाधिकृत सहायक कंपनियों में सीधे निवेश करने की इच्छुक हों वे अब कतिपय शर्तों के अधीन विदेशी मुद्रा के अतिरिक्त थोक आबंटन किए जाने से स्वचालित मार्ग के माध्यम से वार्षिक आधार पर 50 मिलियन अमरीकी डालर तक का निवेश कर सकती हैं ।

30. पिछले कुछ वर्षों में कंपनियों को बाजार में अपनी विदेशी मुद्रा की प्रतिरक्षा करने के लिए पर्याप्त लचीलापन प्रदान किया गया है । कंपनी के पास अपनी विदेशी मुद्रा जोखिम से प्रतिरक्षा के लिए जो साधन हैं उनमें वायदा रक्षा, मुद्रा विकल्प, विदेशी मुद्रा-रुपया विनिमय (अदला-बदली) ऋण निवेश प्रतिरक्षा आदि शामिल हैं । बैंकों को इस संबंध में, अपने शीर्ष प्रबंध से आवश्यक नीतिगत अनुमोदन प्राप्त कर लेने के बाद, अपने परिसंपत्ति-देयता संविभाग की प्रतिरक्षा करने के लिए भी अनुमति दी गई है ।

31. तथापि, यह देखा गया है कि कभी-कभी कंपनियों द्वारा बाजॉर की अपनी धारणा के आधार पर कंपनी की विदेशी मुद्रा की वचनबद्धता का उल्लेखनीय अंश अरक्षित रखा जाता है और इससे कंपनियों की समग्र वित्तीय स्थिति पर गंभीर अनिश्चितता आ सकती है । अत:, जिन बैंकों ने इस प्रकार की कंपनियों में बड़ी राशि का निवेश किया है उनके लिए यह वांछनीय है कि वे ऐसे अरक्षित विदेशी निवेश की निगरानी करने के लिए एक प्रणाली तैयार करें । उदाहरणार्थ, ऐसी कंपनियां जिनका कुल निवेश अत्यधिक है (अर्थात् 25 मिलियन अमरीकी डालर से अधिक अथवा उतना), उनके विदेशी मुद्रा निवेश के अरक्षित अंश की आवधिक समीक्षा उपयुक्त सूचना प्रणाली के माध्यम से शुरू करने पर बैंक विचार कर सकते हैं ।

32. कार्यविधि को सरल बनाने, प्रलेखीकरण की अपेक्षाओं को कम करने और भारत में अनिवासी भारतीयों और अन्यों तथा विदेश में भारतीय कंपनियों/संस्थाओं द्वारा उत्पादक निवेश के लिए अवसरों को और उदार बनाने के लिए रिजॅर्व बैंक अपने प्रयास जारी रखेगा । इन क्षेत्रों में विशेषज्ञों, कंपनियों और बाजार के सहभागियों से मिले अन्य सुझावों का स्वागत है, तथा इन सुझावों को पत्ज्हीi@ींi.दीु.iह ई-मेल पर भेजा जा सकता है ।

II. 2001-02 की दूसरी छमाही के लिए
मौद्रिक नीति का उद्देश्य

33. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में यह बताया गया था कि घरेलू अथवा बाह्य क्षेत्रों में किसी विपरीत और अप्रत्याशित घटनाओं के उभार को छोड़कर, सामान्य परिस्थितियों में 2001-2002 के लिए मौद्रिक नीति का समग्र उद्देश्य निम्नलिखित होगा :-

  • ऋण में वृद्धि की पूर्ति वे लिए पर्याप्त चलनिधि का प्रावधान और मूल्य-स्तर में उतार-चढ़ाव पर सतर्कता को जारी रखते हुए निवेश की मांग के पुनरुत्थान के लिए सहायता प्रदान करना ।
  • मध्यावधि में ब्याज दर संरचना को अधिकाधिक लचीलापन प्रदान करने के समग्र ढांचे के भीतर, परिस्थिति की आवश्यकता के अनुसार नरम रुख अपनाते हुए वर्तमान स्थिर ब्याज दर परिवेश को जारी रखना ।

34. वर्ष की पहली छमाही के दौरान, जैसाकि पिछले खंड में बताया गया है, प्राथमिक तौर पर जब भी आवश्यकता हुई तब खुले बाजार परिचालनों (ओएमओ) के साथ संयुक्त रूप में चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के अंतर्गत पुनर्खरीद (रिपो) और प्रति-पुनर्खरीद (रिवर्स रिपो) के लचीले परिचालन के माध्यम से मौद्रिक नीति के संचालन में बाजार में पर्याप्त चलनिधि बनाए रखना संभाव्य हुआ । सरकार द्वारा बाजार उधार के उच्च स्तर के होते हुए भी, ब्याज दरों को और नरम रखते हुए, एक स्थिर ब्याज-दर परिवेश बनाए रखना भी संभव हुआ ।

35. बाजार की अल्पावधिक समाप्ति पर, औसत मांग मुद्रा अप्रैल के प्रारंभ के 8.6 प्रतिशत से त्वरित घटकर अक्तूबर 2001 के मध्य में 7.0 प्रतिशत रह गई । इस अवधि में एलएएफ रिपो दर भी 7.0 प्रतिशत से घटकर 6.5 प्रतिशत हुई । आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) 19 मई, 2001 से 50 आधार अंक कम करके 7.5 प्रतिशत कर दिया गया जिससे बैंकिंग प्रणाली के उधार देने योग्य संसाधनों में 4,500 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई । इन परिचालनों की प्रतिकि्रया स्वरूप, अन्य मुद्रा बाजार साधनों में ब्याज दरों ने भी एक हा्रसमान प्रवृत्ति दर्शाई । उदाहरण के लिए, 91-दिवसीय ख़जाना बिलों पर प्राथमिक प्राप्ति में अप्रैल और मध्य-अक्तूबर, 2001 के बीच 150 आधार अंकों की कमी आई और वह 8.5 प्रतिशत से घटकर 7.0 प्रतिशत हो गई । इसी अवधि में, 364-दिवसीय ख़जॉना बिलों पर प्राथमिक आय में 168 आधार अंकों की कमी आई और वह 8.85 प्रतिशत से घटकर 7.17 प्रतिशत रही । वाणिज्यिक पत्र संबंधी बट्टागत दरों ने भी ऐसी ही प्रवृत्ति दर्शाई । बाजार की दीर्घावधिक समाप्ति पर 10-20 वर्ष के दायरे के सरकारी पत्र पर द्वितीयक बाजार की प्राप्तियां अप्रैल के 10.08-10.70 प्रतिशत से नरम होकर मध्य-अक्तूबर 2001 तक 9.12-9.92 प्रतिशत रह गई हैं ।

  1. 1990 के दशक के मध्य से मुद्रास्फीति दर में गिरावट का सामयिक आपूर्ति और बाहरी आघातों के बावजूद मुद्रास्फीति संबंधी अनुमानों पर सकारात्मक प्रभाव रहा है । इसके कारण, राजकोषीय घाटे के उच्च स्तर और अन्य संरचनागत सख्ती के होने के बावजूद, निरंतर आधार पर सांकेतिक ब्याज दरों को कम करना संभव हो पाया है । वर्तमान में जहां एक ओर मुद्रास्फीति के जोखिम अपेक्षाकृत कम हैं, वहीं दूसरी ओर प्रणाली में पहले से ही उपलब्ध पर्याप्त चलनिधि के संदर्भ में, भारतीय रिजॅर्व बैंक अपने पास उपलब्ध विभिन्न साधनों के विवेकपूर्ण उपयोग के साथ चलनिधि का सावधानीपूर्वक प्रबंधन जारी रखेगा ।

37. कई अनिश्चितताओं के बावजूद अर्थव्यवस्था में प्रतिबिंबित मूलभूत तत्व जैसे कि मामूली मुद्रास्फीति, स्थिर तथा निम्न ब्याज दरें, विदेशी मुद्रा की उच्च आरक्षित निधियां, खाद्यान्नों के विपुल स्टॉक और सूचना प्रौद्योगिकी से संबंधित उद्योगों का प्रतिस्पर्धी लाभ, अभी भी मजबूत हैं । इस वर्ष के दौरान कृषिगत वृद्धि की संभावनाएं सकारात्मक बनी हुई हैं । वैश्विक और घरेलू मुद्रास्फीतिगत दृष्टिकोण निरंतर सकारात्मक है । अत:, यह प्रस्ताव है कि चालू वर्ष की शेष छमाही के लिए, अप्रैल के वक्तव्य में घोषित मौद्रिक नीति का समग्र उद्देश्य जारी रखा जाए तथा यह सुनिश्चित किया जाए कि ऋण के लिए सभी न्यायोचित आवश्यकताओं की पूर्ति मूल्य-स्थिरता के अनुरूप की जाए । जब तक कि परिस्थितियों में अप्रत्याशित रूप से कोई परिवर्तन न हो, भारतीय रिजॅर्व बैंक वर्तमान ब्याज दर परिवेश को बनाए रखने के लिए भी प्रयास करेगा ।

38. जहां तक भारतीय रिजॅर्व बैंक का संबंध है, बैंक दर प्रधान संकेत देनेवाले साधन के रूप में बनी रहेगी और यह ब्याज दरों के सामान्य स्तर को संभव सीमा तक निदेशात्मक मार्गदर्शन प्रदान करेगी । एलएएफ दरें बैंक दर के इर्द-गिर्द एक लचीली सीमा में बनी रहेंगी । दैनंदिन चलनिधि प्रबंध और अल्पकालिक ब्याज दरों के संचालन के लिए वे अपेक्षाकृत अधिक सकि्रय परिचालनगत साधनों के रूप में होंगी ।

39. एक ओर जहां मौद्रिक नीति के वर्तमान उद्देश्य को जारी रखने के लिए सभी प्रयास किए जाएंगे, वहीं दूसरी ओर यह सुनिश्चित करने के लिए कि बैंक और बाजार के सहभागी वर्तमान मौद्रिक और ब्याज दर परिवेश के प्रति अधिक संतोषजनक दृष्टिकोण न अपनाएं, दो चेतावनियाँ आवश्यक है । पहली, बैंक, प्राथमिक व्यापारी और अन्य बाजॉर सहभागियों को यह बहुत ही स्पष्ट रूप में ध्यान रखना चाहिए कि ब्याज दर वातावरण में अल्पावधि में बड़े नाटकीय तरीके से परिवर्तन हो सकता है । पिछले कई वर्षों से ब्याज दरों में आई पर्याप्त गिरावट से मध्यावधि और दीर्घावधि प्रतिभूतियों के धारकों को वसूल की गई और वसूली न की गई ब्याज दरों से भारी लाभ हुआ । यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है कि ये लाभ बेकार न जाएं और न ही अचलनिधि बाजार कार्यकलापों के लिए इनका उपयोग किया जाए । जब बाजार की स्थितियां अनुकूल रहती है उसी समय पर्याप्त आरक्षित निधियों का निर्माण भी होता है ताकि अनपेक्षित उतार-चढ़ाव के कारण भविष्य में ब्याज दर वातावरण की किसी भी संभावित विपरीत स्थिति का सामना किया जा सके । पिछले राजकोषीय वर्ष अर्थात् 2000-01 की अंतिम तिमाही में बैंकों, प्राथमिक व्यापारियों और अन्य बाजार परिचालकों द्वारा अनुभव की जा रही कठिनाइयों के संदर्भ में भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा बढ़ाई गई ब्याज दरें (अंतर्राष्ट्रीय ब्याज दरों में तेज और बार-बार हो रही वृद्धियों के परिणामस्वरूप विदेशी मुद्रा बाजॉर की परिवर्तनशील स्थिति को नियंत्रित करने के लिए) इस संबंध में मूल्यवान सबक के रूप में है ।

40. दूसरी, यह समझे जाने की आवश्यकता है कि हमारी वित्तीय प्रणाली के कतिपय विन्यासगत विशेषताओं के कारण, बैंकों और अन्य वित्तीय मध्यवर्ती संस्थाओं द्वारा उधार दरों को और लचीला बनाए जाने की स्थिति सीमित है । भारत में ब्याज दर विन्यास में निम्नगामी लोच में कमी के कुछ कारण निम्नलिखित हैं :

  • बैंक, विशेष रूप से सरकारी क्षेत्र के बैंक, घरेलू वित्तीय बचत राशियों के (भविष्य निधि, लघु बचत योजनाओं और जीवन बीमा निगम के अतिरिक्त) प्रमुख संग्रहकर्ता हैं । बैंकों के सावधि जमा धारक सामान्यत: निश्चित आय समूहों से संबंधित हैं और वे मुद्रास्फीति की दीर्घावधि दर से अधिक, युक्तिसंगत सामान्य ब्याज दर की अपेक्षा करते हैं । हाल ही में जमा दरों और लघु बचतों की प्राप्तियों में कमी के कारण, जमाकर्ताओं में व्यापक चिंता व्याप्त हुई है जो वित्तीय बचतों के लिए अन्य जोखिम-रहित व्यवस्था के की कमी के कारण हैं। इससे बैंकों के जमा संग्रहण और मध्यावधि वित्तीय बचतों की बढ़ोतरी पर असर डाले बिना उनकी उधार दरों को और कम करने को प्रभावित करने की उनकी क्षमता अवरुद्ध होती है ।
  • बैंकों को यह स्वतंत्रता दी गई कि वे दीर्घावधि जमाराशियों पर ‘परिवर्ती’ ब्याज दर प्रस्तावित कर सकें । फिर भी, कई कारणों से, जमाकर्ताओं की प्राथमिकता और बैंकों की पारंपरिक पद्धति के कारण बैंक मीयादी जमाराशियों पर निश्चित ब्याज दर देने के पक्ष में रहे । इसके कारण अल्प काल के लिए ब्याज दरों में कमी लाने के बैंकों के लचीलेपन की स्थिति में खासी कमी आई, क्योंकि जमाराशियों के वर्तमान स्टॉक की दरों को कम नहीं किया जा सकता था ।
  • सरकारी क्षेत्र के बैंकों के लिए, निधियों की औसत लागत 7.0 प्रतिशत से अधिक है और अन्य निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए औसत लागत इससे भी अधिक है । ब्याजेतर परिचालनगत व्यय सामान्यत: कुल परिसंपत्तियों के 2.5 से 3.0 प्रतिशत है, इनसे निधियों के अपेक्षित अंतर-लागत पर दबाव की स्थिति बनती है । अनर्जक परिसंपत्तियों के अपेक्षाकृत अधिक होने से उधार दरें और बढ़ती हैं ।
  • सरकार की बाजार उधार अपेक्षाओं के निरंतर और अधिक मात्रा में होने के कारण ब्याज दर विन्यास में ऊर्ध्वमुखी प्रवृत्ति पाई गई ।
  • जमाराशियों की लागत, अंतर और अवधि में उक्त कठोरता को देखते हुए, भारतीय रिजॅर्व बैंक की बैंक दर और बैंकों के वास्तविक उधार दरों की घट-बढ़ से संबंधित स्थिति भारत में उतनी मजबूत नहीं रही जितनी वह अन्य औद्योगिक देशों में रही है । वाणिज्यिक ऋण के लिए बैंकों की प्रमुख उधार दर पूरी तरह बैंकों के अपने अधिकार में है और उसे रिजॅर्व बैंक निर्धारित नहीं करता है। इसीलिए ब्याज दरों के संबंध में निर्णय स्वयं बैंकों द्वारा विभिन्न तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में लिए गए जिसमें उनकी अपनी निधि लागत, उनकी लेनदेन लागत, गैर-बैंकिंग क्षेत्र में प्रभावी ब्याज दरें, आदि शामिल हैं ।

41. यह आवश्यक है कि हमारे ब्याज दर विन्यास के लचीलेपन पर पड़ने वाली उक्त ढांचागत कठिनाइयों के प्रभाव को कम करने के लिए निरंतर प्रयासों को जारी रखा जाए । हाल ही में, सरकार ने भविष्य निधि और राष्ट्रीय बचत योजनाओं-जैसी संविदागत बचतों पर विद्यमान ब्याज दरों को कम करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं । सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति (अध्यक्ष : डा. वाई. वी. रेड्डी) ने भी संविदागत बचतों के लिए एक अधिक स्थाई और लचीले ब्याज दर स्वरूप की सिफारिश की है । बैंकों के लिए यह बहुत अधिक वांछनीय है कि वे दीर्घावधि जमाराशियों के संदर्भ में यथाशीघ्र विविध ब्याज दर विन्यास बनाने की दिशा में कदम बढ़ाएं । चूंकि ब्याज दरें दोनो ही दिशाओं में जा सकती हैं, जो कि कारोबार चक्र और मुद्रास्फीति स्थिति पर आधारित होती हैं, अत: दीर्घावधि जमाराशियों पर विविध ब्याज दर से यह आवश्यक नहीं है कि एक निश्चित अवधि में जमाकर्ता द्वारा अर्जित औसत ब्याज दर कम हो जाए (विशेष रूप से निश्चित दर ढांचा की तुलना में, जो कि पुरानी जमाराशियों के अधिक अनुकूल है जबकि नई जमाराशियों की ब्याज दर घट रही हो और उसके ठीक विपरीत, जबकि दरें उलटी दिशा में बढ़ती हैं) । इसके अतिरिक्त, बैंकों को अपनी उत्पादकता में सुधार लाने और उधार की मात्रा में वृद्धि करने के लिए अपनी परिचालनगत लागत को कम करने की दिशा में सर्वोत्तम प्रयास करना है ।

III. वित्तीय क्षेत्र के सुधार और मौद्रिक नीति उपाय

42. वित्तीय प्रणाली को मजबूत बनाने और वित्तीय बाजारों के विभिन्न खंडों के कार्य में सुधार लाने के लिए हाल ही के वर्षों में रिजॅर्व बैंक ने विभिन्न संरचनात्मक उपायों की घोषणा की है । वार्षिक नीतिगत वक्तव्यों और मध्यावधि समीक्षाओं में इन क्षेत्रों में हुई प्रगति को आंका गया है और इस संबंध में हुए अनुभव तथा बैंकों, अन्य वित्तीय संस्थाओं तथा विशेषज्ञों के साथ उचित विचार-विमर्श करने के बाद यथावश्यक रूप में उपयुक्त अतिरिक्त उपायों का प्रस्ताव भी रखा गया है । चूंकि पिछले कुछ महीनों में वित्तीय बाजारों पर विभिन्न प्रकार की अनिश्चितताओं और कुछ अस्तव्यस्तताओं का प्रभाव पड़ा है, इसलिए कुछ विशिष्ट उपायों पर कार्रवाई करने से पहले वित्तीय क्षेत्र के सुधारों के दीर्घकालीन लक्ष्यों पर हाल की गतिविधियों के प्रभाव की समीक्षा करना लाभदायक होगा ।

वित्तीय बाजार की हाल की गतिविधियां

43. मार्च 2001 से ईक्विटी बाजार की गतिविधियों और कुछ बैंकों द्वारा भारतीय रिजॅर्व बैंक के मार्गदर्शी सिद्धांतों और सामान्य विवेकसम्मत अपेक्षाओं के विपरीत शेयर दलाली में लगी कतिपय संस्थाओं को काफी अधिक मात्रा में सहायता उपलब्ध कराने की वजह से भारतीय वित्तीय क्षेत्र की संभाव्य असुरक्षित स्थिति के बारे में चिंता व्यक्त की गई है । सौभाग्यवश, जहां तक बैंकिंग क्षेत्र का संबंध है, केवल निजी क्षेत्र के कुछ छोटे बैंक और एक बड़ा शहरी सहकारी बैंक ही बड़े पैमाने पर अनैतिक और अनधिकृत रूप से ऋण देने की प्रथा अपना रहे थे । अत:, अस्थायी और सीमित चलनिधि सहायता उपायों से इस बीमारी को ईक्विटी बाजार से समग्र बैंकिंग क्षेत्र अथवा वित्तीय क्षेत्र के अन्य महत्वपूर्ण खंडों, विशेषकर मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजार में फैलने से रोकना संभव था । फिर भी, ईक्विटी बाजार में हाल के और उसके बाद के अनुभवों ने, विनियामक और पर्यवेक्षी प्रणाली के साथ ही बैंकों में कंपनी नियंत्रण के स्तर के लिए नई चुनौतियां पैदा की हैं ।

44. सर्वप्रथम, यह आवश्यक है कि बाजार के एक खंड से दूसरे खंड अथवा एक चूककर्ता संस्था से परस्पर संबद्ध अनेक वित्तीय प्रतिष्ठानों में इस तरह के संक्रमण की संभावना को कम करने के लिए सभी विवेकपूर्ण मानदंडों को लागू किया जाए और उन्हें और सुदृढ़ बनाया जाए । वित्तीय संस्था में (फिर उसका स्वामित्व सहकारी हो, सरकारी हो अथवा निजी हो) उभरने वाली कमजोर की परिस्थिति में ‘विनियामक संयम’ के अवसर को कम किया जाना है । पिछले कुछ वर्षों में रिजॅर्व बैंक ने लेखा और जोखिम नियंत्रण के लिए अनर्जक परिसंपत्तियों, प्रकटीकरण और पारदर्शिता के संदर्भ में पूंजी पर्याप्तता, आय की पहचान और प्रावधानीकरण के लिए कई विवेकपूर्ण मानदंड शुरू किए हैं । सरकार कतिपय अतिरिक्त विधायी और अन्य उपायों पर भी विचार कर रही है । यह बहुत महत्व की बात है कि सभी जमाराशि स्वीकार करने वाली मध्यवर्ती वित्तीय संस्थाओं को- इस बात पर विचार किए बगैर कि वे सरकारी क्षेत्र की हैं या निजी क्षेत्र की, वे वाणिज्यिक बैंक की हैं अथवा सहकारी बैंक की, वे गैर-बैंकिंग हैं अथवा वित्तीय संस्थाएं - विवेकपूर्ण मानदंडों का पूरी तरह पालन करना चाहिए ।

45. विवेकपूर्ण और जोखिम प्रबंधन मागदर्शी सिद्धांतों को लागू करने और जहां संभव हो संबंधित कानून के तहत चूककर्ता प्रतिष्ठानों पर त्वरित कार्रवाई करने के लिए निगरानी प्रणाली को मजबूत बनाने की आवश्यकता को रिजॅर्व बैंक पहचानता हैै । विशेषकर कमजोर बैंकों और सहकारी संस्थाओं के संबंध में परोक्ष निगरानी और निरीक्षण के उपाय शुरू भी किए जा चुके हैं । भारतीय रिजॅर्व बैंक निगरानी और पर्यवेक्षी तंत्रों को बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं से परामर्श करके, आवश्यकतानुसार और मजबूत बनाना चाहता है ।

46. जैसा कि अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में निर्दिष्ट किया गया था, परम्परानुसार शहरी सहकारी बैंकों के लिए निर्धारित विवेकपूर्ण मानदंड और विनियमन प्रणाली वाणिज्य बैंकों के लिए निर्धारित मानदंडों और विनियमन प्रणाली की तुलना में अपेक्षाकृत नरम रहे हैं । अंशत: ऐसा ऐतिहासिक कारणों से है और अंशत: सामान्यत: उनके छोटे आकार और सहकारी ढांचे के लिए अधिमानत: व्यवहार के कारण है । फिलहाल, शहरी सहकारी बैंकों के विनियामक और संवर्धनात्मक पहलुओं से तीन प्राधिकरण जुड़े हैं - केंद्र सरकार (बहु-राज्य उपस्थिति वाले बैंकों के मामले में), राज्य सरकारें और रिजॅर्व बैंक । कभी-कभी इसके कारण कार्यक्षेत्र में अतिव्यापन की स्थिति आ जाती है और प्रशासनिक/विवेकपूर्ण उपायों को तेजी से और कठोरता से लागू करने में कठिनाइयां पैदा हो जाती हैं । हाल के अनुभव भी बताते हैं कि देश में कुछ ही सहकारी बैंकों की गैर-जिम्मेदाराना और अनैतिक हरकत का संक्रामक असर उस क्षेत्र विशेष या राज्य विशेष के बाहर भी हो सकता है और छोटे सहकारी बैंकों समेत जमाकर्ताओं के हित को काफी नुकसान पहुंचाने का कारण बन सकता है तथा प्रणालीगत विश्वास को आघात पहुंचा सकता है । इसलिए यह जरूरी है कि विधायी और सांस्थानिक सुधारों के होने तक इन बैंकों से संबंधित विवेकपूर्ण मार्गदर्शी सिद्धांतों को जनता की जमाराशियों की सुरक्षा हेतु सुदृढ़ बनाया जाए ।

47. अप्रैल 2001 के नीतिगत वक्तव्य में इसलिए निर्धारित सांविधिक चलनिधि अनुपात के अंतर्गत रखी गई प्रतिभूतियों की सुरक्षा और रखरखाव, शेयरों की जमानत पर ऋण उपलब्ध कराना और मांग मुद्रा बाजॉर में प्रवेश की सीमा के संबंध में खासकर कुछ नए विवेकपूर्ण उपाय प्रस्तावित किए गए थे । शहरी सहकारी बैंकों पर किसी भी तात्कालिक वित्तीय प्रभाव को न्यूनतम करने के लिए नए विवेकपूर्ण उपाय भावी तारीख से लागू करने और अपने सदस्यों के हित में उन्हें कार्यान्वित करने के लिए शहरी सहकारी बैंकों को पर्याप्त समय देने की सावधानियां बरती गई थीं । कुछ राज्य स्तर के शीर्ष सहकारी बैंकों ने इस आधार पर इन उपायों के विरुद्ध अभ्यावेदन किया है कि इनसे उनके वित्तीय कारोबार पर बुरा प्रभाव पड़ेगा और उनकी कामकाजॅी स्वतंत्रता कम हो जाएगी ।

48. रिजॅर्व बैंक शहरी सहकारी बैंकों और उनके प्रतिनिधियों के साथ जारी रचनात्मक बातचीत का स्वागत करता है । रिजॅर्व बैंक विशिष्ट उपायों में और अधिक सुधार/आशोधन के लिए तैयार होगा बशर्ते सहकारी क्षेत्र में धारित जनता की जमाराशियों की सुरक्षा के लिए पर्याप्त, व्यवहार्य और पारदर्शी तंत्र उपलब्ध कराए जाएं । यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि एक अर्थक्षम सहकारी वित्तीय प्रणाली इस प्रकार की होनी चाहिए कि जिसमें ‘उधार लेने वालों’ तथा ‘जमाकर्ता’ जनता, दोनों के ही हित सुरक्षित रह सकें । विगत अनुभव, हालांकि यह कुछ गुमराह सहकारी बैंकों तक ही सीमित है, ने यह पूरी तरह स्पष्ट कर दिया है कि अंतर-बैंक सहकारी जमाराशियों ने तथा पर्याप्त सुरक्षित चलनिधि परिसंपत्तियों के अभाव ने जमाकर्ताओं के हितों पर भारी आघात किया है । इसके परिणामस्वरूप, समग्र सहकारी बैंकिंग क्षेत्र में जनता का विश्वास भी डगमगा गया है । स्वयं सहकारी क्षेत्र के विकास के हित में, इस बात के अलावा और कोई चारा नहीं है कि जनता की जमाराशियों की उचित सुरक्षा के लिए एक व्यवहार्य और पारदर्शी प्रणाली विकसित की जाए ।

49. जैसाकि पहले उल्लेख किया जा चुका है, शहरी सहकारी बैंकों के विनियमन, पर्यवेक्षण और/अथवा प्रशासन में फिलहाल तीन प्राधिकरण (केंद्र सरकार, राज्य सरकारें तथा भारतीय रिजॅर्व बैंक) संलग्न हैं । कुल 2084 शहरी सहकारी बैंकों में से 51 अनुसूचित और शेष गैर-अनुसूचित हैं । उनकी अधिक संख्या, छितराव तथा स्थानीयता के कारण पर्यवेक्षण और निरीक्षण में विशेष समस्या उत्पन्न होती है । यद्यपि, शहरी सहकारी बैंकों की लेखा-परीक्षा राज्य सरकारों द्वारा की जाना अपेक्षित है, काफी बड़ी संख्या में शहरी सहकारी बैंकों की लेखा-परीक्षा पूरी होने में भारी विलंब होता रहा है । भारतीय रिजॅर्व बैंक अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों की लेखा परीक्षा सामान्यत: दो वर्षों में एक बार और गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों की लेखा-परीक्षा दो अथवा तीन वर्षोंे में एक बार करता है । कमजोर बैंकों के रूप में पहचान किए गए शहरी सहकारी बैंकों की लेखा परीक्षा प्रत्येक वर्ष की जाती है । श्री के. माधव राव की अध्यक्षता में मई 1999 में भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा गठित उच्च अधिकार प्राप्त समिति-सहित कई समितियों ने सहकारी बैंकों पर दोहरे नियंत्रण को हटाने तथा उनकी कार्यप्रणाली में सुधार लाने के लिए व्यापक अनुशंसाएं की हैं । इनमें से अधिकांश अनुशंसाएं भारतीय रिजॅर्व बैंक ने स्वीकार कर ली हैं, लेकिन जिन अनुशंसाओं पर राज्य स्तर पर कानूनी कार्रवाई अपेक्षित है, उन्हें अभी कार्यान्वित किया जाना शेष है ।

  1. विद्यमान तिहरी तथा बहुस्तरीय संस्थागत प्रणाली (केंद्र, राज्य तथा भारतीय रिजॅर्व बैंक) के कारण उठने वाली पर्यवेक्षी समस्याओं के समाधान के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक ने समस्त सहकारी बैंकिंग क्षेत्र हेतु एक नया शीर्षस्थ पर्यवेक्षी निकाय बनाने का सुझाव दिया है । रिजॅर्व बैंक ने प्रस्ताव किया है कि यह शीर्षस्थ निकाय ऐसे एक पृथक् उच्च स्तरीय पर्यवेक्षी बोड़ के अधीन हो जिसमें केंद्र सरकार, राज्य सरकारों, भारतीय रिजॅर्व बैंक के प्रतिनिधि तथा विशेषज्ञ हों और इसे शहरी सहकारी बैंकों के निरीक्षण और पर्यवेक्षण तथा उनके द्वारा विवेकशील, पूंजी पर्याप्तता और जोखिम प्रबंधन संबंधी मानदंडों का अनुपालन सुनिश्चित कराने का उत्तरदायित्व सौंपा जा सकता है । रिजॅर्व बैंक ने भी शीर्षस्थ पर्यवेक्षी निकाय स्थापित करने के लिए केंद्र सरकार को अपने विस्तृत प्रस्ताव भेजे हैं ।

51. हाल की घटनाओं से भी यह बात सामने आई है कि वाणिज्य बैंकिंग तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं के कार्यचालन पर उचित निगरानी रखना तथा उनका पर्यवेक्षण बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के लिए आवश्यक है । हाल के वर्षों में, चालू वित्तीय क्षेत्रों के सुधारों के एक भाग के रूप में उनके बोर्डों को पारदर्शिता, प्रकटीकरण, जोखिम और परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन के लिए प्रभावी आंतरिक दिशा-निर्देश और कार्यविधि निर्धारित करने के लिए अधिक स्वायत्तता और शक्तियां प्रदान की गई हैं । फिर भी, कुछ मामलों में यह पाया गया है किया तो बोर्डों द्वारा निर्धारित नीति का मुक्त रूप से उल्लंघन किया गया या बोड़ स्वयं जोखिम को कम करने और पर्याप्त सुरक्षा के बिना कतिपय संस्थाओं को निश्चित सीमा से अधिक ऋण प्रदान करने से रोकने के लिए उपयुक्त आंतरिक दिशा-निर्देश जारी करने में असफल रहे । यदि एक अविनियमित और उदार वित्तीय प्रणाली के ढांचे के भीतर भविष्य में उन समस्याओं से बचना है जो हाल में पैदा हुई हैं, तो बोर्डों की भूमिका निर्णायक है । रिजॅर्व बैंक का प्रस्ताव है कि वाणिज्य बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के एक चयनित समूह के निदेशकों का परामर्शी समूह गठित किया जाए जो सरकार/रिजॅर्व बैंक के विचारार्थ ऐसे कदमों के बारे में सुझाव देगा जिन्हें बोर्डों की आंतरिक पर्यवेक्षी भूमिका को मजॅबूत करने के लिए उठाया जाना आवश्यक है ।

52. इस भाग में आगे, हाल के वर्षों में घोषित विभिन्न मौद्रिक और अन्य उपायों के संबंध में प्रगति की समीक्षा करने तथा तत्काल तथा दीर्घकालिक महत्ववाले कुछ अन्य उपायों का प्रस्ताव करने का प्रयास किया गया है ।

मौद्रिक उपाय

(क) बैंक दर

53. समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा के आधार पर बैंक दर को आज (22 अक्तूबर, 2001) कारोबार की समाप्ति से 0.50 प्रतिशत अंक कम कर 7.00 प्रतिशत से 6.50 प्रतिशत किया जा रहा है । इस स्तर पर यह मई 1973 से सबसे कम बैंक दर है ।

(ख) आरक्षित नकदी निधि अनुपात - कटौती और औचित्यीकरण

54. वर्तमान में, सभी अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को (क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर) भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) का 7.5 प्रतिशत आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) रखना होता है । जबकि बैंकों के लिए सांविधिक न्यूनतम अपेक्षा तक 3.0 प्रतिशत सीआरआर रखना अनिवार्य है, वर्ष 1981 से 4.5 प्रतिशत से 12.0 प्रतिशत के बीच समय-समय पर अतिरिक्त सीआरआर लगाया गया ताकि अर्थव्यवस्था में अत्यधिक मुद्रा आपूर्ति के कारण चलनिधि के अतिरिक्त प्रवाह को कम किया जा सके । इसी के साथ विगत वर्षों में, सीआरआर अपेक्षा के लिए देयताओं के कुछ विशिष्ट श्रेणियों के लिए बैंकों को दी गई विभिन्न छूटों के परिणामस्वरूप अलग-अलग बैंकों के संबंध में निर्धारित स्तर से अलग स्तर का प्रभावी सीआरआर रहा है । अलग-अलग बैंकों के लिए प्रभावी सीआरआर अलग-अलग रहता है जो उनकी देयताओं की संरचना पर निर्भर करता है । समग्र बैंकिंग प्रणाली के लिए इस समय प्रभावी सीआरआर की दर 6.3 प्रतिशत है । विशेष आवश्यकताओं के मद्देनजर गत अवधि में दी गई छूटों और किए गए अनेक प्रकार के उपायों से चलनिधि प्रबंधन के साधन के रूप में सीआरआर की जटिलता बढ़ी है । सीआरआर उपायों के औचित्यीकरण और सीआरआर को सामान्यत: सांविधिक स्तर पर बनाए रखने के दीर्घकालीन लक्ष्य की ओर बढ़ने की दृष्टि से बैंकिंग प्रणाली के लिए सीआरआर की व्याप्ति (कवरेज) और स्तर के लिए नीचे कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तनों का प्रस्ताव रखा जा रहा है :

  • सीआरआर में 200 आधार अंकों की कटौती कर इसे एनडीटीएल के 7.50 प्रतिशत से 5.50 प्रतिशत करने का प्रस्ताव है । 3 नवंबर, 2001 से आरम्भ पखवाड़े से सीआरआर कम कर एनडीटीएल का 5.75 प्रतिशत किया जाएगा और 29 दिसंबर, 2001 से आरम्भ पखवाड़े से इसे आगे और कम कर एनडीटीएल का 5.50 प्रतिशत किया जाएगा ।
  • इसके साथ ही, 3 नवंबर, 2001 से शुरू होने वाले पखवाड़े से निवल मांग और मीयादी देयताओं की गणना (आरक्षित नकदी निधि अनुपात को बनाए रखने की आवश्यकता के लिए) के लिए अंतर बैंक देयताओं को छोड़कर देयताओं पर की सभी छूटों को वापस ले लिया जाएगा ।

55. यह अपेक्षा की जाती है कि इन परिवर्तनों से अल्पकालीन आय की प्रवृत्ति को बढ़ाने, मुद्रा बाजार के विकास, बैंकों और गैर-बैंकों के बीच विनियामक अंतरपणन को कम करने, बैंकों के पास उधार योग्य संसाधनों की उपलब्धता को बढ़ाने और मौद्रिक नीति के संचालन में अप्रत्यक्ष साधनों की क्षमता में सुधार लाने में सुविधा होगी । निवल मांग और मीयादी देयताओं के वर्तमान स्तर पर उपर्युक्त दोनों उपायों के सम्मिलित प्रभाव के परिणामस्वरूप बैंकिंग प्रणाली के उधारयोग्य संसाधनों में लगभग 8,000 करोड़ रुपए की वृद्धि (3 नवंबर, 2001 से लगभग 6,000 करोड़ रुपए) होगी ।

56. तथापि, इस बात पर जोर दिया जाए कि मध्यावधि उद्देश्य से सामंजस्य रखते हुए और आर्थिक गतिविधि के अपेक्षाकृत निम्न स्तर और औचित्यपूर्ण मुद्रास्फीति की वर्तमान परिस्थितियों में भारतीय रिजॅर्व बैंक चलनिधि प्रबंधन के लिए अन्य साधनों के अतिरिक्त (जैसे चलनिधि समायोजन सुविधा) दोनों दिशाओं में आरक्षित नकदी अनुपात साधन का प्रयोग करना जारी रखेगा ।

(ग) भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास रखे गए नकदी शेष राशियों पर ब्याज

57. सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर) को 21 अप्रैल, 2001 से आरक्षित नकदी निधि अनुपात के तहत भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास रखी गई पात्र नकदी शेष राशियों पर पहले के 4.0 प्रतिशत वार्षिक ब्याज की तुलना में 6.0 प्रतिशत वार्षिक दर ब्याज का भुगतान किया जाता है । अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में, यह घोषणा की गई थी कि अनुवर्ती चरण में ब्याज का भुगतान बैंक दर पर किया जाएगा । तदनुसार, 3 नवंबर, 2001 से शुरू होने वाले पखवाड़े से पात्र नकदी शेष राशियों पर ब्याज का भुगतान बैंक दर (अर्थात् 6.5 प्रतिशत) पर किया जाएगा ।

चलनिधि समायोजन सुविधा - प्रगति

58. 5 जून 2000 से शुरू चलनिधि समायोजन सुविधा, दिन प्रतिदिन की चलनिधि को प्रभावित करने के लिए एक प्रभावी और लचीले उपाय के रूप में उभर कर आई है । चलनिधि समायोजन सुविधा की परिचालन कि्रयाविधियों में परिवर्तन करते हुए, मांग मुद्रा बाजॉर को केवल अंतर बैंक बाजॉर में सहज संक्रमण की नीति तैयार कर और संबंधित प्रणाली में उपलब्ध चलनिधि सहायता के औचित्य के लिए कार्यक्रम को निर्धारित करते हुए, अप्रैल 2001 में वार्षिक नीति वक्तव्य में उपायों के एक पैकेज की घोषणा की गई । मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजॉरों में पूरक उपायों का एक सेट भी शुरू किया गया ।

59. समग्रत:, उपायों के इस पैकेज का सकारात्मक प्रभाव पड़ा । चलनिधि समायोजन सुविधा ने भारतीय रिजॅर्व बैंक को चलनिधि परिचालित करने और कुछ सीमा तक अल्पावधि मुद्रा बाजॅार में ब्याज दरों को संकेत देने के लिए आवश्यक लचीलापन दिया । चलनिधि समायोजन सुविधा संबंधी कार्यकलाप, जिसमें नीतिगत खुले बाजॉर के कार्यकलापों (ओएमओ) का समावेश है, में अल्प समय के लिए रिजॅर्व बैंक की मुद्रा नीति की मूल परिचालन कि्रयाविधियों को भी लिया गया है । चलनिधि समायोजन सुविधा की प्रभावशीलता और भी बढ़ेगी क्योंकि संबंधित प्रणाली गैर-बैंक सहभागियों के लिए एक शुद्ध अंतर बैंक मांग/सूचना मुद्रा बाजॉर की ओर अग्रसर है और इस बाज़ार में एक गहन और चलनिधि पुनर्खरीद/प्रति खरीद (लिक्विड रिपो/रिवर्स रिपो) बाजॉर भी शामिल है । मई 2001 से, गैर-बैंकों को यह अनुमति दी गई कि वे 2000-01 के दौरान अपने औसत दैनिक उधार का 85 प्रतिशत उधार दे सकते हैं । इससे बाजॉर में कोई तनाव नहीं आया और पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के दौरान विद्यमान 10,900 करोड़ रुपए की तुलना में मई-सितंबर 2001 के दौरान मांग मुद्रा बाजॉर में औसत दैनिक सकल उधार 19,600 करोड़ रुपए तक का हो गया । मांग मुद्रा दरों के उतार-चढ़ाव में भी उल्लेखनीय गिरावट आई । यह उत्साहजनक है कि हाल की अवधि में गैर-बैंक सहभागियों के पुनर्खरीद कार्यकलापों की मात्रा में वृद्धि होती रही है ।

60. चलनिधि समायोजन सुविधा की प्रभावशीलता में सुधार लाने के परिप्रेक्ष्य में, इस बात पर जोर दिया गया है कि ‘ओवरनाइट रिपो’ के अतिरिक्त, भारतीय रिजॅर्व बैंक को विवेकाधिकार भी होगा कि वह जब भी आवश्यक समझे 14 दिन की अवधि तक की दीर्घावधि पुनर्खरीद प्रारंभ करे ।

वाणिज्यिक पत्र - अमूर्तीकृत धारिता (डिमैटिरियलाइज्ड होल्डिंग)

61. भारतीय रिजॅर्व बैंक ने वाणिज्यिक पत्र जारी करने की शर्तों में ढील देते हुए और कि्रयाविधियों को कारगर बनाते हुए 10 अक्तूबर, 2000 को नए मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए । अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में सूचित किए गए अनुसार, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, प्राथमिक व्यापारियों और सेटेलाइट डीलरों को यह अनुमति दी गई है कि वे 30 जून, 2001 से वाणिज्यिक पत्र में नए निवेश अमूर्त रूप में ही धारित कर सकते हैं । इस संबंध में, ‘फिक्सड इनकम मनी मार्केट एंड डेरिवेटिव्जॅ एसोसिएशन ऑफ इंडिया’ (फिम्मडा) ने ‘रिपोर्ट ऑफ फिम्मडा वर्विंग ग्रुप आन प्राइमरी मार्केट रिलेटिंग टु मार्केट कन्वेंशन्स एंड गाइडलाइंस फॉर कमर्शियल पेपर’ परिचालित किया । निक्षेपागारों और भारतीय रिजॅर्व बैंक के साथ कानूनी और अन्य संबंधित मामलों पर व्यापक चर्चा के बाद और कंपनियों, फिम्मडा के सदस्यों और बाजॉर के अन्य सहभागियों से प्राप्त सुझावों पर विचार करने के बाद, फिम्मडा ने 29 जून, 2001 को अमूर्त रूप (डिमैटिरियलाइज्ड फॉर्म) में वाणिज्यिक पत्र के संदर्भ में परिचालनगत मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए । इसके अतिरिक्त, मूर्त रूप की प्रतिभूतियों को अमूर्त रूप में बदलने की सुविधा के लिए, फिम्मडा ने बाजॉर के सहभागियों, निक्षेपागारों और भारतीय रिजॅर्व बैंक के परामर्श से, संबंधित मार्गदर्शी सिद्धांत तैयार किए और 3 अक्तूबर, 2001 को उन्हें सार्वजनिक किया । उक्त मार्गदर्शी सिद्धांत बहुत अच्छी तरह काम कर रहे हैं और इस समय उनमें कोई परिवर्तन प्रस्तावित नहीं है ।

सरकारी प्रतिभूति बाजॉर का विकास

62. वर्ष 2001-02 के लिए घोषित किए गए केंद्रीय बजट के अनुसरण में, सरकारी प्रतिभूति बाजॉर के विकास के लिए वार्षिक नीति वक्तव्य में कतिपय उपायों की घोषणा की गई । इन उपायों के संदर्भ में हुई प्रगति की समीक्षा नीचे दी गई है :

  • वार्षिक नीति वक्तव्य में घोषित किए गए अनुसार, 14 दिवसीय और 182 दिवसीय खजॉना बिलों को 14 मई 2001 से प्रारंभ होने वाले सप्ताह से समाप्त कर दिया गया । 91 दिवसीय खजॉना बिलों की अधिसूचित राशि में इसी के साथ-साथ वृद्धि करके 250 करोड़ रुपए कर दिया गया । यह भी सुनिश्चित किया गया कि 91 दिवसीय और 364 दिवसीय खजॉना बिलों की परिपक्वता अवधि एक ही हो ताकि द्वितीयक बाजॉर में विभिन्न परिपक्वता अवधि के खजॉना बिलों के पर्याप्त विनिमय-साध्य स्टॉक की उपलब्धता हो । खजॉना बिलों की आकर्षणीयता में वृद्धि होने का तथ्य इससे प्रमाणित होता है कि रिजॅर्व बैंक पर खजॉना बिलों की नीलामी में कोई जिम्मेदारी नहीं पड़ी और बोली व्याप्ति अनुपात में भी, विशेष रूप से 364 दिवसीय खजॉना बिलों के संबंध, में सुधार हुआ ।

  1. नीलामी में इलेक्ट्रॉनिक बोली और सरकारी प्रतिभूतियों में द्वितीयक बाजॉर के लेन-देन को सुसाध्य बनाने तथा तत्काल आधार पर व्यापार संबंधी सूचना प्रसारित करने की दृष्टि से परक्राम्य लेन-देन प्रणाली (एनडीएस) शुरू की जा रही है । एनडीएस से संबंधित प्रौद्योगिकी के मूलभूत आवश्यक तत्व को स्थानीय क्षेत्र नेटवर्क (लैन) और व्यापक क्षेत्र नेटवर्क (वैन) वातावरण में बाजॉर के सभी सहभागियों को शामिल करते हुए परखा गया है । नवंबर 2001 में पैरलल रन होने की आशा है ।
  2. क्लिअरिंग कार्पोरशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (सीसीआइएल) का पंजीकरण कंपनी अधिनियम, 1956 के अधीन 30 अप्रैल, 2001 को किया गया जिसका मुख्य प्रवर्तक भारतीय स्टेट बैंक है । प्रारंभ में सीसीआइएल सरकारी प्रतिभूतियों में सभी लेनदेनों और भारतीय रिजॅर्व बैंक के एनडीएस पर सूचित पुनर्खरीद (रिपो) और साथ ही रुपया/अमरीकी डालर विदेशी मुद्रा हाजिर तथा वायदा सौदों का समाशोधन करेगा । वार्ता से तय लेन-देन प्रणाली (एनडीएस) से जुड़ी सीसीआइएल का परिचालन कार्य प्रायोगिक तौर पर नवंबर 2001 में शुरू करने की अपेक्षा है ।
  3. दिनांकित प्रतिभूतियों की नीलामियों के लिए समान मूल्य नीलामी प्रारूप को लागू करने के लिए सरकार द्वारा जारी अधिसूचना में आवश्यक संशोधन करने का प्रस्ताव किया जा रहा है । सरकार के अनुमोदन पर नया नीलामी प्रारूप प्रायोगिक आधार पर लागू किया जाएगा ।
  4. गैर-प्रतियोगी आधार पर सरकारी प्रतिभूतियों के लिए प्राथमिक बाजॉर में भविष्य निधियों, न्यास, आदि शामिल करने वाले मध्य खंड-सहित फुटकर सहभागिता की योजना को, बाजॉर के सहभागियों और मुद्रा तथा सरकारी प्रतिभूति बाजॉर संबंधी तकनीकी परामर्शदात्री समिति के परामर्श से, अंतिम रूप दिया गया है । योजना के ब्योरों को शीघ्र ही अंतिम रूप दिया जाएगा ।
  5. रिजॅर्व बैंक ने सेपरेट ट्रेडिंग ऑफ रजिस्टड़ इंटरेस्ट एण्ड प्रिंसिपल ऑफ सिक्यूरिटीज़ (स्ट्रीप्स) विकसित करने की रूपरेखा बनाते हुए एक परामर्श पर्चा (पेपर) तैयार किया है । इसे बाजॉर के सहभागियों से टिप्पणियां और सुझाव आमंत्रित करते हुए आरबीआइ वेबसाइट पर प्रस्तुत किया गया है ।

सेटेलाइट व्यापारी प्रणाली की समीक्षा

63. सेटेलाइट व्यापारी प्रणाली 1996 में सरकारी प्रतिभूति बाजॉर के फुटकर खंड का संवर्धन करने के विशिष्ट उद्देश्य से प्राथमिक व्यापारियों को एक दूसरे टियर के रूप में सहायता पहुंचाने के लिए शुरू की गई थी । सेटेलाइट व्यापारियों के साथ हमारा अनुभव यह दर्शाता है कि व्यवहार में सरकारी प्रतिभूतियों के संबंध में सेटेलाइट व्यापारियों की भूमिका बहुत ही सीमित रही है । यहां तक कि पूरक सेवा के रूप में सेटेलाइट व्यापारी प्रणाली फुटकर निवेशकों के लिए अत्यधिक लेन-देन लागत वाली समझी गई है । इनमें से तो कई दलाली कार्य में लगी सीमित पूंजी क्षमतावाली फर्म होने तथा गैर-सरकारी प्रतिभूति व्यवसाय में व्यापक मौजूदगी होने के कारण भी पर्यवेक्षीय चिंताएं भी उत्पन्न हो गई हैं ।

64. उपर्युक्त अनुभव को ध्यान में रखते हुए रिजॅर्व बैंक ने सेटेलाइट व्यापारियों, प्राथमिक व्यापारियों और तकनीकी परामर्शदात्री समिति के सकि्रय परामर्श से सेटेलाइट व्यापार प्रणाली की समीक्षा करने का निश्चय किया है । इस समीक्षा में विशेष रूप से प्राथमिक व्यापारियों की भूमिका विस्तृत करने, शेयर बाजॉरों में स्क्रीन-आधारित व्यापार में फुटकर सरकारी प्रतिभूतियों की वैकल्पिक व्यवस्था तैयार करने और सेटेलाइट व्यापारियों के कार्यकलाप की निगरानी में पर्यवेक्षीय चिंता के संदर्भ में फुटकर बाजार के विकास में सेटेलाइट व्यापारियों के लिए तैयार की गई भूमिका पर विचार किया जाएगा । इस समीक्षा में सेटेलाइट व्यापारियों और प्राथमिक व्यापारियों के बीच सेटेलाइट व्यापारी प्रणाली को सरकारी प्रतिभूतियों के लिए फुटकर स्तर पर एक प्रभावी संवितरण चैनल के रूप में सुधार करते हुए बेहतर संयोजन स्थापित करने के अवसर की जांच की जाएगी ।

विवेकपूर्ण उपाय

(क) ऋण सूचना ब्यूरो

65. बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के बीच उधारकर्ताओं के संबंध में ऋण संबंधी सूचना संगृहीत करने, संसाधिक करने और आपस में आदान-प्रदान करने के लिए ऋण सूचना ब्यूरो की स्थापना करने के बारे में अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में उल्लेख किया गया था । कानूनी तंत्र को मजबूत बनाने की दृष्टि से, अन्य बातों के साथ-साथ, ब्यूरो की जिम्मेदारियों, सदस्य ऋण संस्थाओं के अधिकारों और कर्तव्यों तथा गोपनीयता के अधिकारों की सुरक्षा को सम्मिलित करते हुए विधान का एक मसौदा सरकार को भेज दिया गया है । इस प्रकार के संशोधन होने तक, ऋण सूचना ब्यूरो को सकि्रय बनाने की ओर पहले कदम के रूप में यह निर्णय लिया गया है कि मौजूदा कानूनी ढांचे के भीतर ही कुछ संबंधित सूचना के संग्रहण और प्रसार की प्रकि्रया प्रारंभ की जाए ।

66. ऋण सूचना ब्यूरो द्वारा ऋण संबंधी आंकड़ों/सूचना के संग्रहण और प्रसार की प्रकि्रया को परिचालित करने के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक एक समूह बनाएगा जिसमें ऋण सूचना केंद्र, भारतीय बैंक संघ, चुनिंदा बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के प्रतिनिधि होंगे । यह समूह ऋण सूचना ब्यूरो द्वारा वाद दाखिल खातों की सूची और चूककर्ताओं, जिनमें जानबूझकर ऋण न चुकानेवाले चूककर्ता भी शामिल हैं, की सूची के संबंध में सूचना का संग्रहण और उसका प्रसार करने की भूमिका अदा करने की संभावना की जांच करेगा । यह कार्य वर्तमान में भारतीय रिजॅर्व बैंक कर रहा है । यह समूह सूचना के संग्रहण और प्रसार के अन्य पहलुओं, जैसे-सीमा, आवधिकता और व्याप्ति जिसमें भविष्य में सदस्यों को ऐसी ऑन-लाइन सूचना की आपूर्ति की संभावना भी शामिल है, का भी परीक्षण करेगा । आदर्श रूप में यह भी संभव होना चाहिए कि जहां तक कानूनी तौर पर अनुमति योग्य हो वहां तक चूककर्ता कंपनियों के निदेशकों से संबंधित ब्योरे सहित, सदस्यों से प्राप्त होनेवाले विशिष्ट अनुरोधों पर आवश्यक और उचित समझी जानेवाली कोई भी अतिरिक्त सूचना उपलब्ध कराने के लिए भविष्य में एक ‘प्रश्न पद्धति’ (क्वरी मोड) बनाई जाए । उक्त समूह इन सभी विषयों का अध्ययन करेगा और एक महीने की अवधि में रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा । इसके बाद, कार्य अंतरण अलग से अधिसूचित किया जाएगा ।

(ख) बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा सांविधिक चलनिधि

अनुपात से इतर (नान- एसएलआर) निवेश

67. यह देखा गया है कि बैंकों द्वारा किए जानेवाले निवेशों में से नान-एसएलआर प्रतिभूतियों में बैंकों के निवेशों का एक महत्वपूर्ण अंश प्राइवेट प्लेसमेंट के जरिए है । इस बाजार में अपारदर्शी प्रथाएं चिंता की बात हो सकती हैं । तदनुसार, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने विशेष रूप से दर निर्धारित न किए गए लिखतों के लिए निजी तौर पर स्थापित निवेशों के संबंध में दर्शाई जानेवाली उचित तत्परता, प्राप्त किए जानेवाले प्रकटीकरण और किए जानेवाले ऋण जोखिम विश्लेषण के संबंध में जून 2001 में दिशा-निर्देश जारी किए । बैंकों को सूचित किया गया है कि वे गैर-उधारकर्ताओं के निर्गमों के लिए दर-निर्धारण की एक आंतरिक प्रणाली अपनाएं, चाहे उन निर्गमों की दरें निर्धारित हों अथवा नहीं तथा संकेंद्रण और अतरलता के विपरीत प्रभाव का निवारण करने के लिए विवेकपूर्ण सीमाएं अपनाएं । बैंकों को यह भी सूचित किया गया है कि वे जोखिमों का अभिग्रहण और विश्लेषण करने हेतु उचित जोखिम प्रबंधन प्रणालियां बनाएं । हाल के घटनाक्रम के आलोक में नान-एसएलआर निवेशों की और समीक्षा से यह विदित होता है कि निजी तौर पर रखे गए ऋण निर्गमों के माध्यम से निधियां जुटाने की सुगमता के कारण प्रस्ताव-प्रलेख में बताए गए उद्देश्य से भिन्न जोखिमपूर्ण प्रयोजनों के लिए ऐसी निधियों का उपयोग संभव है ।

68. बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के नान-एसएलआर निवेश संविभाग, विशेष रूप से प्राइवेट प्लेसमेंट रूट के जरिए होने वाले निवेश से उत्पन्न होनेवाले जोखिमों का निराकरण करने के लिए बैंकों द्वारा पालन किए जाने हेतु आगे और विवेकपूर्ण दिशा-निर्देश जारी करने का प्रस्ताव है । इन मार्गदर्शी सिद्धांतों में अन्य बातों के साथ-साथ : (i) निर्गमकर्ताओं के संबंध में दर-निर्धारण (रेटिंग) में परिवर्तनों का आवधिक तौर पर पता लगाते हुए आंतरिक दर-निर्धारण प्रणालियों को मजबूत करने की आवश्यकता, (ii) दर-निर्धारित न किए गए, शेयर बाजॉर की सूची से इतर और प्राइवेट प्लेसमेंट किए गए लिखतों के लिए अलग उप-सीमाओं के साथ विवेकपूर्ण सीमाएं निर्धारित करना, (iii) बोड़ द्वारा कुल निवेशों/विनिवेशों, विनियामक अनुपालन, निर्गमकर्ताओं और अलाभकारी निवेशों के संबंध में दर-निर्धारण में परिवर्तन, एवं (iv) निर्गमकर्ता संघटन और अलाभकारी निवेशों के संबंध में ‘लेखा-टिप्पणियों’ में प्रकटीकरण सम्मिलित हैं । परिचालन संबंधी विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांतों का प्रारूप अलग से जारी किया जा रहा है, जिसे बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के साथ आगे और परामर्श करने के बाद अंतिम रूप दिया जाएगा ।

69. प्रभावी जोखिम प्रबंध के लिए, यह आवश्यक है कि कंपनियों द्वारा बाजार से लिए गए क़र्ज, वाणिज्यिक पत्रों आदि-सहित, की राशियों के संबंध में सूचना इकट्ठा करने और उसे शेयर करने के लिए उचित व्यवस्था प्रारंभ की जाए । यह प्रस्ताव है कि एक कार्य दल का गठन किया जाए जो ऋण के ‘प्राइवेट प्लेसमेंट’ के बारे में बैंकों/वित्तीय संस्थाओं द्वारा सूचना इकट्ठा करने और उसे शेयर करने के लिए एक रूपरेखा तैयार करे जिसका संयोजक सीआइबी हो और इसमें, अन्य के साथ-साथ, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और भारतीय रिजॅर्व बैंक के प्रतिनिधि हों । प्रस्तावित कार्य दल, अन्य बातों के साथ-साथ, कर्जॅ की वर्तमान स्थिति और इस संबंध में उचित दिशा-निर्देश तैयार करने में इसकी उपयोगिता का विश्लेषण करेगा । यह दल अपनी रिपोर्ट एक महीने में देगा ।

70. निजी तौर पर दिए गए ऋणों के द्वितीयक बाजॉर कारबारों के बारे में सूचना को प्रसारित करने की आवश्यकता है और इसके लिए, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को पहले ही सूचित कर दिया गया है कि 31 अक्तूबर, 2001 से वे नए निवेश कर सकते हैं तथा बांड और डिबेंचर, निजी तौर परर् या अन्यथा रखे गए, ले सकते हैं जो केवल अमूर्त रूप में होंगे । बकाया निवेशों को भी जून 2002 तक अमूर्त रूप में परिवर्तित कर दिया जाएगा । ऐसे बांडों में लेनदेन की रिपोर्ट एनएसडीएल/सीडीएसएल करेगा जिसके पास टाइट्ल के अंतरण की रिपोर्ट की जाती है । बांडों के नामकरण, कारोबार की राशि और जिस मूल्य पर कारोबार किया गया इन्हें मिलाकर कारोबार में पारदर्शिता लाने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को चाहिए कि वे एक सूचना तंत्र का निर्माण करें तथा एनएसडीएल/ सीडीएसएल इस प्रकार की सूचना बाजॉर को उपलब्ध कराए ।

71. उपर्युक्त व्यवस्था कंपनियों, बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और राज्य तथा केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित संस्थाओं द्वारा जारी सभी बांडों पर प्रत्यक्षत: या विशेष प्रयोजनमूलक उपाय (एसपीवी) के रूप में एक समान लागू होगी । आश्वासन पत्र (लेटर ऑफ कंफर्ट) इत्यादि के माध्यम से व्यक्त या अव्यक्त रूप से गारंटीकृत बांडों के संबंध में सिर्फ इस प्रकार की गारंटी का अर्थ ऋण की स्वीकृति नहीं होगी और बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं को चाहिए कि वे इस प्रकार जारी किए गए बांडों के माध्यम से वित्तपोषित परियोजनाओं की आंतरिक अर्थक्षमता और बैंक द्वारा स्वीकार्यता पर सम्यक निगरानी रखें । इससे बैंकों और वित्तीय संस्थाओं की ऋण पात्रता को सुनिश्चित करने के अलावा, उनके द्वारा उपलब्ध कराए गए संसाधनों के कारगर इस्तेमाल को सुनिश्चित करने में मदद मिलेगी । कुल मिलाकर, प्रत्यक्षत: या एसपीवी के माध्यम से सरकारी बजटों के प्रत्यक्ष या परोक्ष वित्तपोषण के किसी प्रस्ताव से बचना चाहिए और ऐसे प्रस्ताव विशिष्ट निगरानी योग्य परियोजनाओं, खासकर, संरचना-सहित पूंजी की अत्यधिक मात्रा एवं उच्च लागत वाले क्षेत्रों के लिए होने चाहिए । वित्तपोषण और प्रतिलाभों के घटकों को अच्छी तरह परिभाषित और मूल्यांकित किया जाना जरूरी है ।

(ग) पादर्शिता और लेखा मानक

72. विगत वर्षों में, बैंकों को यह सूचित किया गया था कि वे तुलन-पत्र में ‘लेखा टिप्पणी’ के अंतर्गत ऋणों और अग्रिमों के परिपक्वता ढांचे का विवरण, निवेशों, जमाराशियों और उधारों, अनर्जक परिसंपत्तियों में घट-बढ़, संवेदनशील क्षेत्रों, इत्यादि में लेनदेन को दर्शाएं । उनकी वित्तीय स्थितियों की पारदर्शिता और विश्वसनीयता को सुनिश्चित करने की भावी कार्रवाई के रूप में, यह निर्णय लिया गया है कि बैंक मार्च 2002 को समाप्त वर्ष से अपने तुलन-पत्र में ‘लेखा टिप्पणी’ के अंतर्गत निम्नलिखित अतिरिक्त सूचनाएं दें :(i) अनर्जक परिसंपत्तियों के लिए किए गए प्रावधानों की कार्रवाई और (ii) निवेशों पर मूल्यहा्रास के लिए किए गए प्रावधानों की कार्रवाई ।

73. भारतीय सनदी लेखाकार संस्थान (आइसीएआइ) द्वारा जारी लेखा मानक एक ऐसे मानक की स्थापना करता है जिसका अनुपालन कंपनीगत संस्थाओं को करना होता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वे संस्था की वास्तविक और सही स्थितियां प्रस्तुत कर सकें । आइसीएआइ अंतर्राष्ट्रीय लेखा मानकों के अनुरूप इन मानकों की आवधिक रूप से समीक्षा करता है । बैंकों ने यह सूचित किया है कि आइसीएआइ द्वारा अंतिम रूप से बनाए गए मानकों को अपनाने में उन्हें कुछ कठिनाइयां हैं । अत: यह निर्णय लिया गया है कि एक कार्यदल का गठन किया जाए जिसमें आइसीएआइ, बैंकों और भारतीय रिजॅर्व बैंक के प्रतिनिधि शामिल हों जो लेखा मानकों के अनुपालन और अनुपालन के कार्यान्वयन की पहचान करे तथा इन कमियों को दूर करने/कम करने की कार्रवाई की सिफारिश करे।

पर्यवेक्षण और निगरानी

74. रिजॅर्व बैंक ने 1999 से इस विचार से तिमाही आधार पर चलनिधि और ब्याज दर जोखिम की निगरानी करने के लिए परोक्ष विवरणी मंगवाना शुरू किया था कि पखवाड़े की रिपोर्टिंग प्रणाली शुरू की जाए । तिमाही प्रणाली को अब स्थिरता प्रदान की गई है । अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में की गई कतिपय घोषणाओं के संबंध में हासिल की गई और प्रगति की समीक्षा नीचे प्रस्तुत है :

  • बैंकिंग पर्यवेक्षण संबंधी बासले समिति ने न्यू कैपिटल अकॉड़ पर परामर्शी दस्तावेज का द्वितीय सेट विमोचित किया । भारतीय रिजॅर्व बैंक ने बासले समिति को अपने अभिमत प्रेषित किए हैं, जिन्हें मई 2001 में भारतीय रिजॅर्व बैंक की वेबसाइट पर भी उपलब्ध कराया गया है ।
  • वर्तमान पर्यवेक्षी ढांचे को विस्तृत करने के निमित्त किए जा रहे निरंतर प्रयासों के अंश के रूप में पूर्वनिर्धारित प्रवर्तन मुद्दों के आधार पर त्वरित सुधारात्मक कार्य की एक योजना बनाई जा रही है । उक्त योजना के संबंध में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से प्राप्त अभिमतों/सुझावों की जांच करने के बाद भारतीय रिजॅर्व बैंक ने उसके कार्यान्वयन से पहले सरकार की राय मांगी है ।
  • जोखिम आधारित पर्यवेक्षी प्रकि्रया में सुगम परिवर्तन हेतु बैंकों को शामिल करने के उद्देश्य से रिजॅर्व बैंक ने विशेषज्ञों/जनता के अभिमत/सुझाव मांगते हुए एक परिचर्चा पत्र जारी किया है । इस परिचर्चा पत्र में एक व्यापक जोखिम प्रबंधन प्रणाली स्थापित करने, जोखिम आधारित लेखा-परीक्षा प्रणाली अपनाने, प्रबंध सूचना तथा सूचना प्रौद्योगिकी प्रणाली का उन्नयन करने, समर्पित अनुपालन इकाइयों की स्थापना करने और एचआरडी व प्रशिक्षण संबंधी समस्याओं को सुलझाने के लिए आवश्यक पहल और कार्रवाई को रेखांकित किया गया है । इस जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण दृष्टिकोण को प्रारंभिक रूप से यथासमय लागू करने की योजना है ।

अनर्जक परिसंपत्तियों का निपटान

75. जुलाई 1995 में भारतीय रिजॅर्व बैंक ने अनर्जक परिसंपत्तियों के संबंध में समझौता करने अथवा बातचीत के जरिए उनके निपटान करने के लिए अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए थे । मई 1999 में, लघु उद्योग क्षेत्र की अनर्जक परिसंपत्तियों के निपटान हेतु रिजॅर्व बैंक ने सरकारी क्षेत्र के बैंकों में निपटान परामर्शदात्री समितियों के गठन के लिए दिशा-निर्देश जारी किए । तथापि, बैंकों ने यह अभ्यावेदन किया था कि निपटान परामर्शदात्री समितियों को गठित किए जाने के बावजूद अनर्जक परिसंपत्तियों की वसूली में अधिक प्रगति नहीं की जा सकी । तदनुसार, जुलाई 2000 में, सरकार से परामर्श करके सरकारी क्षेत्र के बैंकों से संबंधित देय राशियों, जिनमें लघु उद्योग क्षेत्र-सहित, लेकिन जानबूझकर की गई किसी चूक, धोखाधड़ी अथवा अनुचित कार्य के मामलों को छोड़कर सभी क्षेत्रों में 5 करोड़ रुपए तक के खाते शामिल हैं, की वसूली करते हुए लम्बे समय की अनर्जक परिसंपत्तियों के स्टॉक को कम करने के कार्य में एक बार तेजी लाने के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक ने सरलीकृत, गैर-विवेकाधीन और गैर-भेदमूलक दिशा-निर्देश परिचालित किए थे । इन दिशा-निर्देशों में योजना की व्याप्ति, राशि तथा निर्दिष्ट तारीख-सहित निपटान सूत्र और निपटाई गई देय राशियों के भुगतान का तरीका विनिर्दिष्ट है ।

76. इन दिशा-निर्देशों द्वारा निर्धारित निपटान योजना जून 2001 तक प्रचालन में थी और इस तारीख तक प्राप्त सभी आवेदनों के संबंध में कार्रवाई 30 सितंबर, 2001 तक की जानी थी । उक्त योजना के अंतर्गत, 30 जुलाई 2001 की स्थिति के अनुसार सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने 5.23 लाख खातों से संबंधित 2,192 करोड़ रुपए की राशि की वसूली की है ।

77. उक्त योजना को और बढ़ाने के लिए कुछ अभ्यावेदन प्राप्त हुए हैं । इस बात को देखते हुए कि इन दिशा-निर्देशों का उद्देश्य निर्दिष्ट समयावधि के भीतर ‘एक-बार निपटान’ का अवसर प्रदान करना था और पहले ही पर्याप्त समय दिया गया है, इस योजना को बढ़ाने का प्रस्ताव नहीं है । तथापि, 1995 के दिशा-निर्देशों में निपटान के लिए निर्धारित व्यापक ढांचा प्रचलन में जारी रहेगा और बैंक अपने बोड़ के अनुमोदन से समझौते तथा बातचीत के जरिए निपटानों को शामिल करते हुए वसूली और बट्टे खाते डालने के लिए, विशेषकर अनर्जक परिसंपत्तियों की श्रेणी के अंतर्गत आने वाले पुराने और सुलझाए न गए मामलों के लिए, अपनी नीति बनाने और उसके कार्यान्वयन के लिए स्वतंत्र होंगे । इस संबंध में, एक बार निपटान योजना के संबंध में प्राप्त अनुभव को भी ध्यान में रखा जाए । तथापि, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि बैंकों के बोर्डों द्वारा बनाई गई कोई भी योजना सरल, भेदभाव-रहित और पारदर्शी हो ताकि सभी पात्र मामलों का निपटान समान रूप से किया जाए ।

शहरी सहकारी बैंक

78. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में इस प्रस्ताव की घोषणा की गई थी कि केंद्र सरकार के परामर्श से अनुसूचित और गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों से संबंधित संपूर्ण निरीक्षण/पर्यवेक्षण कार्य के अधिग्रहण के लिए नया सर्वोच्च पर्यवेक्षी निकाय स्थापित किया जाएगा । अनुवर्ती कार्रवाई के तौर पर, संबंधित विभिन्न मुद्दों पर विचार-विमर्श कर रिजॅर्व बैंक ने केंद्र सरकार को एक अलग पर्यवेक्षी प्राधिकरण की स्थापना से संबंधित प्रारूप विधेयक प्रस्तुत किया है ।

79. शहरी सहकारी बैंकों के लिए परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन संबंधी मार्गदर्शी सिद्धांत के निर्धारण के लिए रिजॅर्व बैंक द्वारा गठित कार्य-दल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है । रिजॅर्व बैंक ने उक्त रिपोर्ट चयनित शहरी सहकारी बैंकों को अपने अभिमत देने के लिए भेजा है । प्राप्त प्रतिसूचना के आधार पर अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों को मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए जाएंगे । पर्यवेक्षी तंत्र को और मजबूत बनाने के लिए रिजॅर्व बैंक ने अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के लिए अप्रत्यक्ष निगरानी प्रणाली भी लागू की है ।

80. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में शहरी सहकारी बैंकों को यह सूचित किया गया था कि व्यक्तियों या किसी अन्य संस्था को शेयरों की जमानत पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से ऋण देने के किसी भी नए प्रस्ताव को स्वीकार न किया जाए और ऐसे ऋण को, जो व्यक्तियों को अनुमतियोग्य राशि तक पहले ही दिए जा चुके हैं, संविदा में निर्दिष्ट तारीख तक ही जारी रखें । शहरी सहकारी बैंकों और उनके संघों से प्राप्त प्रतिवेदनों के प्रतिसाद में अब यह प्रस्ताव है कि शहरी सहकारी बैंक निम्नलिखित मानदंडों के अधीन व्यक्तियों को शेयरों की जमानत पर ऋण स्वीकृत कर सकते हैं :

    1. शेयरों/डिबेंचरों की जमानत पर व्यक्तियों को ऋण उनकी आकस्मिकता पूर्ति और वैयक्तिक आवश्यकता एवं शेयरों/डिबेंचरों के राइट्स अथवा नए निर्गमों में अभिदान अथवा द्वितीयक बाजॉर से खरीद के लिए स्वीकृत किए जा सकते हैं । शेंयरों/डिबेंचरों के प्राथमिक/संर्पाश्विक जमानत पर ऐसे ऋण की सीमा, अगर जमानत प्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत है, 5 लाख रुपए तक होगी और अगर जमानत डिमेट रूप में है तो उक्त सीमा 10 लाख रुपए तक होगी । ऐसे सभी ऋणों की कुल राशि बैंक की स्वामित्ववाली निधियों के 20 प्रतिशत की समग्र अधिकतम सीमा के अंतर्गत होनी चाहिए और ऐसे ऋणों के सभी मामलों में 40.0 प्रतिशत का मार्जिन रखा जाना चाहिए ।
    2. यह अनिवार्य है कि शेयर को जमानत के तौर पर स्वीकार करने के पहले शहरी सहकारी बैंकों को जोखिम प्रबंध प्रणाली को सुव्यवस्थित कर लेना चाहिए । शहरी सहकारी बैंकों की अपने निदेशक मंडल की लेखा-परीक्षा समिति होनी चाहिए और सभी अनुमोदित ऋण आवेदन कम-से-कम दो महीने में एक बार उक्त लेखा-परीक्षा समिति के समक्ष रखे जाने चाहिए । स्वीकृत ऋणों के ब्योरे बोड़ के समक्ष अगली बैठक में रखे जाने चाहिए । प्रबंध तंत्र और लेखा-परीक्षा समिति को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि शेयरों की जमानत पर सिर्फ ऐसे व्यक्तियों को ऋण दिए जाएं जो शेयरों की दलाली के कारोबार से या शेयरों की दलाली करनेवाली संस्था से किसी भी तरह नहीं जुड़े हैं ।
    3. ऐसे शहरी सहकारी बैंक, जिनका व्यक्तियों के पास ऋण बकाया है, उपर्युक्त शर्तों के अधीन, संविदा में निर्दिष्ट तारीख के बाद अनुमति योग्य राशि, मामले के गुण-दोष के आधार पर, नवीकृत कर सकते हैं ।
    4. पहले की तरह, शहरी सहकारी बैंक यह सुनिश्चित करें कि किसी भी परिस्थिति में प्राथमिक अथवा द्वितीयक बाजॉर में उनका कोई प्रत्यक्ष निवेश नहीं है ।

81. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य के अनुसार, शहरी सहकारी बैंकों से अपेक्षित था कि 31 मार्च, 2002 तक वे अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं के प्रतिशत के रूप में सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों के रूप में अपनी सांविधिक चलनिधि अनुपात धारिता का कतिपय उच्च अंश प्राप्त करें । शहरी सहकारी बैंकों और उनके संघों ने यह प्रतिवेदन दिया है कि वर्तमान बाजॉर परिस्थितियों में अनेक छोटे शहरी सहकारी बैंक सांविधिक चलनिधि अनुपात धारिता का निर्धारित स्तर प्राप्त करने में निर्धारित समय-सीमा के अनुपालन में वास्तविक कठिनाइयों का सामना कर रहे हैं । इन प्रतिवेदनों के प्रतिसाद में यह प्रस्ताव है कि सांविधिक चलनिधि अनुपात के निर्धारित स्तर को प्राप्त करने से संबंधित समय-सीमा को इस प्रकार संशोधित किया जाए :

शहरी सहकारी बैंकों का सांविधिक चलनिधि अनुपात निवेश :
संशोधित निर्धारित समय सीमा

शहरी सहकारी बैंकों की श्रेणी

निवल मांग और मीयादी देयताओं के प्रतिशत के रूप में सरकार और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में न्यूनतम सांविधिक चलनिधि अनुपात धारिता

 

वर्तमान

31 मार्च 2002 के लिए पहले प्रस्तावित

31 मार्च 2002 के लिए अब प्रस्तावित

30 सितंबर 2002 के लिए अब प्रस्तावित

 

गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक

 
  • 25 करोड़ रुपए और उससे अधिक की निवल मांग और मीयादी देयताओं वाले शहरी सहकारी बैंक
  • 10.0%

    15.0%

    12.5%

    15.0%

  • 25 करोड़ रुपए से कम की निवल मांग और मीयादी देयताओं वाले शहरी सहकारी बैंक
  • कुछ नहीं

    10.0%

    7.5%

    10.0%

    अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक

    15.0%

    20.0%

    17.5%

    20.0%*

    यह संभव है कि किसी भी श्रेणी में कई शहरी सहकारी बैंकों ने मार्च 2002 के अंत अथवा सितंबर 2002 के अंत तक के लिए निर्धारित लक्ष्य को 20 अक्तूबर 2001 तक प्राप्त कर लिया हो अथवा उसके निकट पहुंच गए हों । निर्धारित समय सीमा में संशोधन के उपर्युक्त प्रस्ताव के बावजूद, ऐसे शहरी सहकारी सहकारी बैंकों को यह सूचित किया गया है कि वे अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं के अनुपात के रूप में सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में सांविधिक चलनिधि अनुपात की धारिता के अपने वर्तमान स्तरों को कम न करें ।

    82. भारतीय रिजॅर्व बैंक ने शहरी सहकारी बैंकों द्वारा अनुपालन किए जानेवाले पूंजी पर्याप्तता के मानदंड संबंधी मार्गदर्शी सिद्धांत पहले ही जारी कर दिए हैं । यह स्पष्ट किया जाता है कि विद्यमान मार्गदर्शी सिद्धांतों के तहत, यह अपेक्षित है कि अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक मार्च 2004 तक और गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक मार्च 2005 तक धीरे-धीरे पूंजी पर्याप्तता मानदंड प्राप्त करें । निर्धारित पूंजी पर्याप्तता आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए यह समय-सारणी शहरी सहकारी बैंकों को पर्याप्त समय मुहैया कराती है तथा शहरी सहकारी बैंकों से आग्रह है कि वे अपने जमाकर्ताओं के हित के लिए धीरे-धीरे अपने स्वयं की पूंजी निर्मित करें ।

    ऋण सुपुर्दगी प्रणाली

    (क) बैंक ऋण सुपुर्दगी की ‘ऋण प्रणाली’

    83. भारतीय रिजॅर्व बैंक ने अप्रैल 1995 में बैंक ऋण की सुपुर्दगी के लिए एक ‘ऋण प्रणालीट लागू की है जिसके अंतर्गत यह निर्धारित किया गया है कि कार्यशील पूंजी वित्त की संरचना में ऋण और नकद ऋण दोनों घटक शामिल हों । उधारकर्ताओं की भारी संख्या और साथ ही प्रचुर कार्यशील पूंजीगत वित्त को सुरक्षा प्रदान करने के लिए चरणबद्ध रूप से ‘ऋण प्रणाली’ शुरू की गई है । वर्तमान में, बैंकिंग प्रणाली से 10 करोड़ रुपए और उससे अधिक की कार्यशील पूंजी सीमा लेनेवाले उधारकर्ताओं के संबंध में यह ‘ऋण प्रणाली’ लागू है; ऐसे उधारकर्ताओं की कार्यशील पूंजीगत सीमा का ऋण घटक कम-से-कम 80 प्रतिशत के उच्च स्तर पर निर्धारित किया गया है ।

    84. ‘ऋण प्रणाली’ की शुरुआत बैंकिंग प्रणाली में ऐसे नकद जोखिमों को न्यूनतम करने और चलनिधि प्रबंधन के लिए की गई थी जो कार्यशील पूंजी के नकद ऋण घटक में तीव्र घट-बढ़ के कारण उत्पन्न होते हैं । कंपनियों और बैंकों दोनों को उपलब्ध अल्पावधि निवेश अवसरों के वर्तमान माहौल में, अब आगे से बैंक चाहें तो, 10 करोड़ रुपए और उससे अधिक की कार्यशील पूंजीगत सीमाओं के लिए 20 प्रतिशत से अधिक नकदी ऋण घटक बढ़ाकर कार्यशील पूंजी की संरचना बदल सकते हैं । बैंकों से यह अपेक्षा है कि वे अपने नकदी और चलनिधि प्रबंधन पर ऐसे निर्णयों के प्रभाव को ध्यान में रखते हुए कार्यशील पूंजीगत वित्त के दोनों घटकों का उचित रूप में मूल्य-निर्धारण करेंगे ।

    (ख) खाद्य ऋण के लिए संघीय सहायता व्यवस्था

    85. खाद्य ऋण की संघीय सहायता व्यवस्था की समीक्षा करने के लिए रिजॅर्व बैंक ने एक समिति गठित की है जिसमें बैंकों, भारतीय रिजॅर्व बैंक, भारत सरकार और भारतीय खाद्य निगम के प्रतिनिधि शामिल हैं । सितंबर 2001 में समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । संबंधित एजेंसियों और सरकार से परामर्श करके समिति की रिपोर्ट पर विचार किया जा रहा है ।

    (ग) किसान व्रेडिट काड़

    86. यह देखा गया है कि पात्र किसानों के लिए किसान व्रेडिट काड़ की शुरुआत सफल साबित हुई है । अगले तीन वर्षों के अंदर सभी पात्र किसानों को शामिल करने हेतु योजना में तेजी लाने के लिए रिजॅर्व बैंक ने सभी बैंकों को सूचित किया है कि वे 2001-02 के अपने लक्ष्यों को प्राप्त करें । वर्ष 2000-01 के दौरान, सरकारी क्षेत्र के बैंकों ने 23.90 लाख किसान व्रेडिट काड़ जारी किए थे, जो उनके लक्ष्य के नजदीक था तथा 2001-02 की प्रथम तिमाही में उन्होंने 3.85 लाख किसान व्रेडिट काड़ जारी किए हैं ।

    सार्वभौमिक बैंकिंग

    87. स्मरण रहे कि सार्वभौमिक बैंकिंग संबंधी दृष्टिकोण की घोषणा अप्रैल 2000 के वार्षिक नीति वक्तव्य में की गई थी । सार्वभौमिक बैंक में परिवर्तन के लिए वित्तीय संस्थाओं द्वारा जिन कुछ परिचालनगत और विनियामक मुद्दों का समाधान किया जाना है, उनकी सूचना भारतीय रिजॅर्व बैंक ने 28 अप्रैल, 2001 के परिपत्र के जरिए दी है । सार्वभौमिक बैंक में परिवर्तन के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक को किसी भी वित्तीय संस्था से अब तक कोई औपचारिक प्रस्ताव प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि कुछ वित्तीय संस्थाओं ने इस दिशा में बढ़ने की अपनी मंशा जाहिर की है । इस दिशा में कुछ वित्तीय संस्थाओं की दिलचस्पी का भारतीय रिजॅर्व बैंक स्वागत करता है तथा यदि वे ऐसा चाहते हैं तो सार्वभौमिक बैंकों में निर्विघ्न परिवर्तन के लिए उचित और विस्तृत प्रस्ताव तैयार करने हेतु उन्हें प्रोत्साहित करता है । अप्रैल 2001 में सार्वभौमिक बैंकिंग के दृष्टिकोण पर वित्तीय संस्थाओं को भेजे गए भारतीय रिजर्व बैंक के परिपत्र में प्रस्तुत विचारों को ध्यान में रखते हुए रिजॅर्व बैंक आवेदनों पर तुरंत विचार करना चाहता है ।

    88. किसी विशिष्ट प्रस्ताव पर विचार करते समय, रिजॅर्व बैंक का अत्यधिक जोर विभिन्न श्रेणियों के ग्राहकों की विविध आवश्यकताओं को पूरा करने में संबंधित वित्तीय संस्था के नीतिगत उद्देश्यों को पूरा करने पर होगा और बैंविंग व्यवसाय में सभी सहभागियों पर लागू पारदर्शी और समान विनियामक ढांचे के माध्यम से वित्तीय प्रणाली में यथेष्ट प्रतिस्पर्धा सुनिश्चित करना होगा । तथापि, यह समझा जाना चाहिए कि यूनिवर्सल बैंकिंग के प्रति झुकाव से वित्तीय प्रणाली की स्थिरता और कार्यक्षमता को प्रोत्साहन मिलेगा किंतु निम्न पूंजीकरण, अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) के उच्च स्तर, परिसंपत्ति-देयता के बड़े असंतुलनों, चलनिधि आदि से अलग-अलग संस्थाओं के सामने आनेवाली परिचालनगत समस्याओं से निपटने के लिए यह व्यवहार्य अथवा कायम रहने योग्य समाधान उपलब्ध नहीं करा सकता है । प्रत्येक आवेदन पर लचीला दृष्टिकोण अपनाते हुए रिजॅर्व बैंक जनता की, विशेषकर छोटे जमाकर्ताओं की, जमाराशियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने की मुख्य आवश्यकता के बारे में और समग्र रूप में वित्तीय प्रणाली की तथा विशेष रूप से बैंकिंग प्रणाली की लगातार बनी रहनेवाली स्थिरता को बढ़ावा देने पर विशेष ध्यान देगा ।

    गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां

    89. रिजॅर्व बैंक को 36, 505 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से पंजीकरण प्रमाणपत्र के लिए आवेदन प्राप्त हुए थे जिनमें से अगस्त 2001 के अंत तक 13,815 आवेदन अनुमोदित किए गए और 18,355 आवेदन अस्वीकृत किए गए । केवल 776 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को जनता से जमाराशियां स्वीकार करने की अनुमति दी गई जिनमें से सिर्फ 27 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के पास जनता की 50 करोड़ रुपए से अधिक जमाराशियां थीं ।

    90. जिन कंपनियों के आवेदन पंजीकरण प्रमाणपत्र के लिए अस्वीकृत किए गए अथवा जिन कंपनियों के पंजीकरण प्रमाणपत्र रद्द कर दिए गए उन्हें नियत तारीखों को अपनी जमाराशियों की चुकौती करनी होगी और तीन वर्ष के बीच अपनी वित्तीय परिसंपत्तियों का निपटान करना होगा । उन्हें यह भी सूचित किया गया कि निर्धारित अवधियों पर अपने रिटर्न भारतीय रिजॅर्व बैंक को प्रस्तुत करें ।

    91. जून 2001 में जारी ‘परिसंपत्ति देयता प्रबंधन दिशानिर्देश’ (एएलएम गाइडलाइंस) 31 मार्च, 2002 तक पूरी तरह से लागू कर दिए जाएंगे । तथापि, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को यह सूचित कर दिया गया है कि वे 30 सितंबर, 2001 को समाप्त छमाही और अक्तूबर 2001 से शुरू होनेवाली छमाही के लिए एएलएम प्रकि्रया को प्रायोगिक आधार पर कार्यान्वित करें । यदि किसी गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्था को उपयुक्त प्रतिफल मिलने में कोई समस्या होती है तो इसे भारतीय रिजॅर्व बैंक की जानकारी में लाया जा सकता है ।

    92. जैसा कि पहले के नीतिगत वक्तव्यों में कहा गया है, भारतीय रिजॅर्व बैंक गैर-बैंकिंग वित्तीय क्षेत्र के विवेकसम्मत आधार पर आगे और विकास को काफी महत्व देता है । गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां स्थानीय आवश्यकताओं के अनुसार स्थानीय स्तर पर छोटे उधारकर्ताओं और विकेंद्रीकृत क्षेत्र, विशेषकर परिवहन तथा अन्य उपकरण, के लिए वित्त प्रदान करने के लिए ऋण देने की स्थिति में हैं । इसके लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक विशेषकर छोटी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लाभ के लिए, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के अनौपचारिक सलाहकार समूह और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की विभिन्न एसोसिएशनों के साथ स्व-विनियामक संगठन (एसआरओ), बनाने की आवश्यकता के बारे में विचार-विमर्श कर रहा है ।

    प्रौद्योगिकी उन्नयन

    93. भुगतान और निपटान प्रणाली में सुधार लाने की दृष्टि से रिजॅर्व बैंक ने कुछ महत्वपूर्ण उपायों की घोषणा अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में की थी । भुगतान और निपटान प्रणालियों में बैंकों की प्रभावी सहभागिता को सुविधाजनक बनाने और विभिन्न भुगतान प्रणाली परियोजनाओं का खाका उपलब्ध कराने की दृष्टि से ‘भुगतान प्रणाली विजन दस्तावेज’ का प्रारूप तैयार किया गया था । बैंकों से प्राप्त फीडबैक और राष्ट्रीय भुगतान परिषद-जैसे अग्रणी निकायों के सदस्यों से प्राप्त अभिमतों के आधार पर इस विजन दस्तावेज को अंतिम रूप दिया जा रहा है । अन्य उपायों में चेक के ट्रंकेशन के पूर्वगामी के रूप में चेकों की ‘इमेजिंग’ का प्रयोग भी शामिल है । यह कार्य परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 में संशोधन करने और इंटरनेट बैंकिंग सेवाओं के लागू करने के संबंध में कार्यकारी दल की सिफारिशों से सुकर होगा ।

    94. बैंकों की प्रौद्योगिकी-आधारित मूलभूत सुविधाओं में और सुधार लाने तथा भुगतान और निपटान प्रणाली में रिजॅर्व बैंक द्वारा दी गई सुविधाओं को बैंकों द्वारा प्रभावी रूप से अपनाने की दृष्टि से नीचे बताए गए और उपायों का प्रस्ताव रखा जा रहा है :

    • इंडियन फाइनेंशियल नेटवर्क (इंफाइनेट) सभी बैंकों द्वारा इस्तेमाल के लिए उपलब्ध हो गया है और इस नेटवर्क पर सामान्य प्रकार के इंटर-बैंक एप्लिकेशंस प्रयोग में लाए जा रहे हैं । इन संसाधनों का पूरा लाभ उठाने के लिए बैंकों को मानकीकरण सुरक्षा का उच्च स्तर बनाए रखने, संप्रेषण और नेटवर्विंग के लिए अपनी आधारभूत संरचना को और अधिक मजबूत बनाने के लिए आवश्यक कदम उठाने होंगे ।

    • यदि समान अंतर-बैंक अनुप्रयोगों का पूरा लाभ उठाया जाना है, तो बैंकों की विभिन्न शाखाओं में स्थित कंप्यूटरों को यथाशीघ्र परस्पर संबद्ध करना अनिवार्य है । शुरूआत के तौर पर, बैंकों का प्रयास यह होना चाहिए कि वे वाणिज्यिक रूप से महत्वपूर्ण केंद्रों की परस्पर संबद्धता का लक्ष्य प्राप्त करें । इससे तत्काल आधार पर नेटवर्क पर्यावरण में अंतर-शहर, अंतर-बैंक संदेश अंतरण के लिए इंफाइनेट से संबद्धता में सुविधा होगी ।
    • भारतीय रिजॅर्व बैंक ने इलेक्ट्रानिक तरीके से निधियों के त्वरित, सुरक्षित तथा सुनिश्चित आवागमन के लिए जो प्रणालियां उपलब्ध कराई हैं, उनमें से एक प्रणाली इलेक्ट्रॉनिक फंड्स ट्रांस्फर (ईएफटी) है । वर्तमान में, यह योजना प्रमुख वाणिज्यिक केंद्रों में स्थित लगभग 8500 बैंक शाखाओं में निधि-अंतरण के लिए उपलब्ध है । बैंकों के लिए यह अनिवार्य है कि वे इस योजना के उपयोगों को लोकप्रिय बनाएं जिसके परिणामस्वरूप ग्राहकों के लिए निधियों का त्वरित अंतरण हो सकेगा, बैंकों में मिलान की समस्याएं कम होंगी और प्रणालीगत दक्षता में सुधार आएगा ।

    रिजॅर्व बैंक द्वारा चालू खाता सुविधा
    को तर्कसंगत बनाना

    95. चूंकि प्राथमिक व्यापारियों के अलावा, विशाल शाखा-नेटवर्क वाले बैंक ही, जिनके माध्यम से भारतीय रिजॅर्व बैंक अपनी चलनिधि समायोजन सुविधा देता है, शेष गैर-बैंकिंग समुदाय को अंतत: भुगतान-सेवा और अनिवार्य माध्यम उपलब्ध कराने वाले होते हैं तथा तकनीकी दल की इस सिफारिश के संदर्भ में कि गैर-बैंकों को मांग/सूचना मुद्रा बाजार से चरणबद्ध रूप से हटाया जाए, इस बात की आवश्यकता महसूस की गई कि भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली चालू खाता सुविधा की वर्तमान नीति को तर्कसंगत बनाया जाए, उसकी समीक्षा की जाए । साथ ही, सीसीआइएल के शुरू होने तथा एनडीएस के प्रस्तावित कार्यान्वयन से कतिपय गैर-बैंक संस्थाओं को भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास चालू खाता रखने की आवश्यकता भी नहीं होगी । उपर्युक्त सभी पहलुओं को देखने के लिए एक आंतरिक दल का गठन किया गया था जिसने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है । इस रिपोर्ट को भारतीय रिजॅर्व बैंक की वेबसाइट पर डाल दिया गया है और उसकी प्रति सभी चालू खाताधारकों को भी उनके अभिमत के लिए भेज दी गई है । इन अनुशंसाओं की जांच भारतीय रिजॅर्व बैंक भी कर रहा है ।

    विधिक सुधार

    96. स्मरण रहे कि अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में बैंकिंग क्षेत्र में शुरू किए गए प्रमुख विधिक सुधार इंगित किए गए थे जिनमें प्रतिभूति संबंधी कानून, परक्राम्य लिखत अधिनियम, बैंकों में धोखाधड़ी, बैंकिंग का विनियामक ढांचा, आदि जैसे क्षेत्र शामिल थे । विधिक सुधारों के लिए उठाए गए विविध कदमों से संबंधित आगे की प्रगति निम्नानुसार है :

    • परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के उपबंधों में परिवर्तनों का सुझाव देने, इसे सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के अनुसार ढालने तथा परक्राम्य लिखत अधिनियम की परिधि के भीतर इलेक्ट्रॉनिक चेक, प्रतिभूतीकृत प्रमाणपत्र तथा अन्य का परीक्षण करने के लिए सरकार ने जो कार्यदल गठित किया था, उसने जून 2001 में सरकार को अपनी अनुशंसाएं प्रस्तुत कर दी हैं । इस दल ने, अन्य बातों के साथ-साथ, यह अनुशंसा भी की है कि चेकों और इलेक्ट्रॉनिक चेकों का ट्रंकेशन किया जाए और इसके लिए उपयुक्त कानूनी संशोधन किए जाएं ।
    • परिसंपत्ति प्रतिभूतीकरण संबंधी कार्यदल ने परिसंपत्ति प्रतिभूतीकरण पर एक विधेयक का प्रारूप तैयार किया है जो सरकार के विचाराधीन है ।
    • न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना प्रतिभूतियां अपने कब्जे में लेने और उन्हें बेचने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को अधिकार देने के लिए सरकार द्वारा गठित एक अन्य कार्य दल ने जो प्रारूप विधान तैयार किया है, उसे जनता की राय जानने के लिए अगस्त 2001 में भारतीय रिजॅर्व बैंक की वेबसाइट पर डाल दिया गया है । इसका प्रारूप विधेयक सरकार के विचाराधीन है ।
    • भारतीय रिजॅर्व बैंक अधिनियम, 1934, बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949, में संशोधन, लोक ऋण अधिनियम, 1944 के बदले सरकारी प्रतिभूति विधेयक संबंधी प्रस्ताव फिलहाल सरकार के विचाराधीन हैं ।
    • भारत में भुगतान से संबंधित विधिक प्रणाली में सुधार लाने की दृष्टि से राष्ट्रीय भुगतान परिषद के विधिक कार्य दल ने भारत में भुगतान प्रणालियों को विनियमित करने के लिए नया कानून बनाने हेतु कई अनुशंसाएं प्रस्तुत की हैं । भारत में भुगतान प्रणालियों पर कानून का प्रारूप तैयार करने के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक ने राष्ट्रीय भुगतान परिषद के साथ परामर्श करके एक अंतर्राष्ट्रीय परामर्शदाता तथा एक प्रतिष्ठित भारतीय प्रारूपकार को नियुक्त किया है ।
    • बैंक धोखाधड़ी संबंधी विशेषज्ञ समिति (अध्यक्ष- डा. एन. एल. मित्र) ने भारतीय रिजॅर्व बैंक को सितंबर 2001 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी जिसे भारतीय रिजॅर्व बैंक की वेबसाइट पर डाल दिया गया है । समिति ने बैंक धोखाधड़ियों के प्रतिरोधात्मक और समाधानात्मक पहलुओं की जांच की और सुझाव दिए हैं । इस समिति ने जो महत्वपूर्ण अनुशंसाएं की हैं उनमें वित्तीय धोखाधड़ी को आपराधिक कृत्य के रूप में शामिल करने की आवश्यकता तथा वित्तीय धोखाधड़ी पर एक नया अध्याय शामिल करके भारतीय दंड संहिता में संशोधन करना, आरोपित व्यक्ति पर साक्ष्य का भार अंतरित करने के लिए भारतीय साक्ष्य अधिनियम में संशोधन करना तथा वित्तीय धोखाधड़ी में शामिल संपत्तियों और जब्तशुदा गैर-कानूनी प्रतिलाभों का अंतरण करने के लिए दंड प्रकिा्रया की संहिता में विशेष उपबंध कराना; तथा बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा सर्वोत्तम संहिता कि्रयाविधियां विकसित करने-सहित प्रतिरोधक उपाय करना शामिल हैं । इस रिपोर्ट की भारतीय रिजॅर्व बैंक जांच कर रहा है ।
    • विद्यमान निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम अधिनियम को रद्द करके उसकी जगह नया अधिनियम लाने का प्रस्ताव विचाराधीन है ।
    • राष्ट्रीयकृत बैंकों में सरकार की शेयरधारिता को कम करने तथा कमजोर बैंकों की वित्तीय पुनर्व्यवस्था के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक अधिनियम के अध्याय III ख और अध्याय III ग के स्थान पर तथा बैंकिंग कंपनियां (उपक्रमों का अर्जन और अंतरण) अधिनियम, 1970 और 1980 में संशोधन करने के लिए वित्तीय कंपनी विनियम विधेयक लोकसभा में लाया गया है ।

    अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानक और संहिता

    97. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानक और संहिता संबंधी परामर्शदाता दलों द्वारा की गई महत्वपूर्ण प्रगति का उल्लेख किया गया था । अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानक और संहिता संबंधी स्थाई समिति द्वारा गठित सभी परामर्शदाता दलों ने स्थाई समिति के अध्यक्ष को अपनी रिपोर्टें प्रस्तुत कर दी हैं और इन्हें व्यापक सूचना के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक की वेबसाइट ैैै.ींi.दीु.iह पर डाल दिया गया है । इन रिपोर्टों की प्रतियां विशेषज्ञों, अर्थशास्त्रियों, पेशेवरों, विद्वानों, बैंकों और संस्थाओं को उनके अभिमत के लिए भेजी जा रही हैं । प्रत्येक दल के अध्यक्ष से यह अनुरोध किया गया है कि वे इन मूल विषयों पर सेमिनार आयोजित करने की संभावनाओं का पता लगाएं । स्थाई समिति अपनी स्वयं की रिपोर्ट भी तैयार करेगी जिसमें, अन्य बातों के साथ-साथ, अनुवर्ती कार्रवाइयों/सुधारों के लिए अपेक्षित तरीके तथा ऐसी अनुवर्ती कार्रवाइयों में शामिल विनियामक एजेंसियों का भी उल्लेख किया जाएगा ।

    मुंबई

    22 अक्तूबर, 2001


    * यह स्पष्ट किया जाता है कि जहां तक अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों का प्रश्न है, 1 अप्रैल, 2003 से वे 25 प्रतिशत सांविधिक चलनिधि अनुपात की संपूर्ण निर्धारित सीमा सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में ही रखें ।

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