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वर्ष 2002-03 के लिए मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा पर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर,डॉ.विमल जालान का वक्तव्य

वर्ष 2002-03 के लिए मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि
समीक्षा पर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर,
डॉ.विमल जालान का वक्तव्य

मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा पर वक्तव्य के तीन भाग हैं :
I. वर्ष 2002-03 में समष्टि-आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की मध्यावधि समीक्षा;
II. वर्ष 2002-03 की दूसरी छमाही के लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य; और
III. वित्तीय क्षेत्र में सुधार एवं मौद्रिक नीति संबंधी उपाय ।

I.वर्ष 2002-03 में समष्टि-आर्थिक और मौद्रिक
गतिविधियाें की मध्यावधि समीक्षा

घरेलू गतिविधियां

2. अप्रैल 29, 2002 को जारी किए गए मौद्रिक और ऋण नीति संबंधी वार्षिक वक्तव्य में वर्ष 2002-03 के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में 6.0 से 6.5 प्रतिशत तक की वृद्धि का अनुमान लगाया गया था जो मानसून की सामान्य वर्षा की पूर्वधारणा पर आधारित था । केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) द्वारा 2002-03 की प्रथम तिमाही (अप्रैल-जून)में वृद्धि के लिए जारी किया गया नवीनतम अनुमान 6.0 प्रतिशत है (जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में यह वृद्धि दर 3.5 प्रतिशत थी)। चालू वर्ष की प्रथम तिमाही का केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन का अनुमान 6.0 से 6.5 प्रतिशत की अनुमानित वृद्धि दर के अनुरूप है । तथापि, देश के कुछ भागों में कम वर्षा को देखते हुए यह संभव है कि संपूर्ण वर्ष के लिए सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर इससे कम होगी ।

3. दक्षिण-पश्चिम मानसून में हुई वर्षा को देखते हुए, इस वर्ष खाद्यान्नों का उत्पादन पिछले वर्ष की तुलना में लगभग 5.0 प्रतिशत कम होने की संभावना है । तथापि, गैर-खाद्यान्नों के उत्पादन में सकारात्मक वृद्धि होने की संभावना है । संतुलित दृष्टि से देखा जाए तो जहां वर्ष 2002-03 के लिए कृषि संबंधी सकल घरेलू उत्पाद में लगभग 1.5 प्रतिशत की गिरावट के वर्तमान संकेत मिलते है, वहीं दूसरी ओर चालू वर्ष की प्रथम छमाही के दौरान औद्योगिक उत्पादन में सुधार के संकेत भी मिलते हैं । बिजली, कोयला, इस्पात, सीमेंट, अपरिष्कृत पेट्रोलियम और परिष्कृत उत्पाद -इन छ: आधारभूत संरचना से संबंधित उद्योगों के मिश्रित सूचकांक में अप्रैल-सितंबर 2002 के दौरान 6.0 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई जो पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में दर्ज 1.5 प्रतिशत की तुलना में काफी अधिक है । इस अवधि के दौरान आधारभूत संरचना से जुड़े सभी उद्योगों ने पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई वृद्धि की तुलना में उच्चतर वृद्धि दर्ज की । आधारभूत वस्तुओं, पूंजीगत वस्तुओं और उपभोग की वस्तुओं के उत्पादन में भी सुधार के संकेत मिले हैं ।

4. निर्यात संबंधी निष्पादन भी प्रभावी रहा है । प्राप्त अद्यतन सूचना के अनुसार अप्रैल-अगस्त, 2002 के दौरान किया गया निर्यात अमेरिकी डालर मुद्रा में 13.4 प्रतिशत बढ़ा जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में इसमें 0.6 प्रतिशत की गिरावट आई थी ।

5. समग्रत:, इन गतिविधियों के संदर्भ में यह प्रतीत होता है कि वर्ष 2002-03 के लिए सकल घरेलू उत्पाद 5.0 से 5.5 प्रतिशत के दरम्यान रहने की संभावना है जबकि इसकी तुलना में पिछला पूर्वानुमान 6.0 से 6.5 प्रतिशत का था ।

6. अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के ऋण में अक्तूबर 4, 2002 तक 14.1 प्रतिशत (83,400 करोड़ रुपए) की तीव्र वृद्धि परिलक्षित हुई जो मुख्यत: वर्ष के दौरान बैंकिंग क्षेत्र में हुए समामेलन का परिणाम था।* समामेलन के प्रभाव को छोड़कर अनुसूचित वाणिज्य बैंकों द्वारा दिये गये ऋण में अक्तूबर 4, 2002 तक 6.6 प्रतिशत (38,800 करोड़ रुपए) की बढ़ोतरी हुई जबकि इसके मुकाबले पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 6.8 प्रतिशत (34,700 करोड़ रुपए) की बढ़ोतरी हुई थी । खाद्य ऋण में 800 करोड़ रपए की गिरावट आई जबकि पिछले वर्ष इसमें 10,200 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी हुई थी । इस गिरावट का कारण खाद्यान्नों की कम खरीद तथा उच्चतर निकासी थी । दूसरी ओर, इसी अवधि में समामेलन के प्रभाव को छोड़कर खाद्येतर बैंक ऋण में 7.4 प्रतिशत (39,600 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई जो पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि की 5.2 प्रतिशत (24,500 करोड़ रुपए) की वृद्धि की तुलना में सुधार था । यह औद्योगिक वृद्धि का अच्छा द्योतक है । ऋण में वृद्धि के अतिरिक्त, विभिन्न व्यावसायिक संभावना सर्वेक्षण चालू वर्ष के लिए औद्योगिक परिदृश्य में सकारात्मक संकेत देते हैं । फिर भी, औद्योगिक परिदृश्य में दृष्टिकोण अपनाते समय अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के बीच परस्पर सम्बद्धता को ध्यान मे रखते हुए दक्षिण-पश्चिम मानसून की कम वर्षा का प्रभाव भी ध्यान में रखना होगा ।

7. अप्रैल-अगस्त, 2002 के लिए बैंकों से प्राप्त उद्योगवार ऋण के प्रवाह पर प्राप्त फीड बैक से पता चलता है कि इन उद्योगों को प्राप्त ऋण में भिन्न-भिन्न स्तर पर उल्लेखनीय वृद्धि हुई है : कोयला, लोहा और इस्पात, सूती और अन्य वस्त्र, चाय, तम्बाकू और तम्बाकू के उत्पाद, कागज और कागज के उत्पाद, उर्वरक, दवाइयां और औषधियां, सीमेंट, निर्माण, रत्न और आभूषण, पेट्रोलियम, कंप्यूटर सॉफ्टवेयर, स्वचालित वाहन, पावर और शेष उद्योग । दूसरी ओर, उत्खनन, अन्य धातु और धात्विक उत्पाद, इंजीनियरिंग की सभी वस्तुएं, बिजली, चीनी, वनस्पति और वनस्पति तेल, खाद्य प्रसंस्करण, पेट्रो रसायन, रबड़ और रबड़ के उत्पाद, चमड़ा और चमड़े के उत्पाद तथा दूरसंचार को दिए गए ऋण में कमी देखी गई ।

8. सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों और निजी निगमित क्षेत्र के बांडों/डिबेंचरों और शेयरों में तथा वाणिज्यिक पत्र (सीपी) इत्यादि में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के सितंबर 20, 2002 तक निवेशों में 7.6 प्रतिशत (6,200 करोड़ रुपए) की उच्चतर वृद्धि हुई; जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि में 4.5 प्रतिशत (3,500 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई थी । इस प्रकार के सभी निवेशों को मिलाकर अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से वाणिज्यिक क्षेत्र को कुल संसाधनों की उपलब्धता में 7.4 प्रतिशत (45,800 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई जिसमें समामेलन का प्रभाव शामिल नहीं है जबकि पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान 5.1 प्रतिशत (27,900 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई थी। वर्ष-दर-वर्ष आधार पर समामेलन के प्रभाव को छोड़कर संसाधनों की उपलब्धता में 15.2 प्रतिशत की उच्चतर वृद्धि परिलक्षित हुई जबकि इसके मुकाबले पिछले वर्ष 12.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी ।

9. वित्तीय संस्थाओं और म्युचुअल फंडों द्वारा जारी किए गए लिखतों में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों द्वारा निवेश में इस वर्ष (सितंबर 20, 2002 तक) 2,000 करोड़ रुपए की बढ़ोतरी हुई जबकि इसके विपरीत पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 300 करोड़ रुपए की गिरावट आई थी । पूंजीगत निर्गमों, विश्व जमा रसीदों (जीडीआर) और वित्तीय संस्थाओं से लिए गए उधारों सहित वाणिज्यिक क्षेत्र को वित्तीय वर्ष के दौरान अब तक (अक्तूबर 4, 2002 तक) 1,01,400 करोड़ रुपए के कुल संसाधन उपलब्ध कराए गए, जबकि इसकी तुलना में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 66,400 करोड़ रुपए के संसाधन उपलब्ध कराए गए थे ।

10. चालू वित्तीय वर्ष में अक्तूबर 4, 2002 तक मुद्रा आपूतिर् (एम3) में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई 8.4 प्रतिशत (1,10,100 करोड़ रुपए) की वृद्धि की तुलना में 10.3 प्रतिशत (1,54,500 करोड़ रुपए) और समामेलन के परिणामों को छोड़कर 7.5 प्रतिशत (1,11,900 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई । वार्षिक आधार पर एम3 में समामेलन के परिणामों को छोड़कर, 13.2 प्रतिशत की वृद्धि अनुमानित सीमा के अनुरूप थी और यह एक वर्ष पहले पाई गई 14.8 प्रतिशत की वृद्धि, (इंडिया मिलेनियम जमाराशियों (आइएमडी) के प्रभाव को छोड़कर ) से कम रही । अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशियां 12.6 प्रतिशत (1,38,800 करोड़ रुपए) ड8.7 प्रतिशत (96,200 करोड़ रुपए) समामेलन के प्रभाव को छोड़कर बढ़ी जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में इनमें 9.4 प्रतिशत (90,600 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई थी । वार्षिक आधार पर, समामेलन के परिणामों को छोड़कर, कुल जमाराशियों में हुई 13.9 प्रतिशत की वृद्धि एक वर्ष पहले के 16.0 प्रतिशत (आइएमडी के प्रभाव को छोड़कर ) की वृद्धि से कम थी । इस प्रकार जमाराशियों में हुई वृद्धि वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में वर्ष के प्रारंभ में किए गए अनुमानों के अनुरूप रही है ।

11. इस वर्ष के दौरान मौद्रिक गतिविधि की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह रही कि भारतीय रिज़र्व बैंक की विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में हुई वृद्धि एवं सरकार के उधार कार्यक्रम के प्रति प्राथमिक समर्थन से उत्पन्न होनेवाले चलनिधि के दबाव के बावजूद प्रारक्षित मुद्रा में कमी आई है । प्रारक्षित मुद्रा में चालू वित्तीय वर्ष में अक्तूबर 18, 2002 तक, पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में हुई 2.3 प्रतिशत (7,100 करोड़ रुपए) की वृद्धि की तुलना में 0.7 प्रतिशत (-2,400 करोड़ रुपए) की गिरावट आई । एक ओर जहां संचलन में मुद्रा पिछले वर्ष की 6.3 प्रतिशत वृद्धि (13,700 करोड़ रुपए) की तुलना में 5.9 प्रतिशत (14,700 करोड़ रुपए) बढ़ गई, वहीं दूसरी ओर भारतीय रिज़र्व बैंक के पास रखी गई बैंकरों की जमाराशियों में आई 7.4 प्रतिशत (-6,100 करोड़ रुपए) की गिरावट की तुलना में 20.8 प्रतिशत (-17,500 करोड़ रुपए) की कमी आई जो आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) में कटौती के प्रभाव को प्रतिबिंबित करती है । स्रोतों की ओर, केंद्र सरकार को भारतीय रिज़र्व बैंक के निवल ऋण ने 18.5 प्रतिशत (-26,200 करोड़ रुपए) की भारी गिरावट दर्शाई जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में इसमें 2.9 प्रतिशत (4,300 करोड़ रुपए) की वृद्धि हुई थी और इसमें खुले बाजार के परिचालनों (ओएमओ) का प्रचुर प्रभाव प्रतिबिंबित होता है । केंद्र सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों के प्राथमिक निर्गमों में भारतीय रिज़र्व बैंक के 23,200 करोड़ रुपए के अभिदान को 27,000 करोड़ रुपए की निवल ओएमओ बिक्री ने प्रभावहीन कर दिया । भारतीय रिज़र्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के दौरान हुई 9.9 प्रतिशत (19,500 करोड़ रुपए) की वृद्धि की तुलना में 17.4 प्रतिशत (46,100 करोड़ रुपए) की उल्लेखनीय वृद्धि हुई । चलनिधि की संतोषप्रद स्थितियों के कारण स्थाई सुविधाओं पर निर्भरता में कमी आने से बैंकों और वाणिज्यिक क्षेत्र को भारतीय रिज़र्व बैंक के ऋण में गिरावट परिलक्षित हुई । कुल मिलाकर 2002-03 के दौरान प्रारक्षित मुद्रा विस्तार के सामान्य रहने का अनुमान है ।

12. वार्षिक मुद्रास्फीति, थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) (आधार : 1993-94 =100) में उतार-चढ़ाव द्वारा मापे गए रूप में बिंदु-दर-बिंदु आधार पर अक्तूबर 12, 2002 को 2.8 प्रतिशत रही जबकि एक वर्ष पहले यह 3.0 प्रतिशत थी। औसत आधार पर पिछले वर्ष के 6.3 प्रतिशत की तुलना में यह 2.3 प्रतिशत पर कम ही रही । औद्योगिक कामगारों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) में उतार-चढ़ाव द्वारा मापे गए रूप में वार्षिक मुद्रास्फीति अगस्त, 2002 में बिंदु-दर-बिंदु आधार पर 3.9 प्रतिशत रही जबकि एक वर्ष पहले यह 5.2 प्रतिशत थी ।

13. हाल की अवधि में मुद्रास्फीति की अपेक्षाकृत निम्नतर दराें ने अर्थव्यवस्था में कम ब्याज-दरों की ओर अग्रसर होने के लिए अनुकूल वातावरण बनाने में सहायता पहुंचाई । मुद्रास्फीतिकारी दबावों के पुन: उभरने से रोकना मौद्रिक नीति सहित समष्टि आर्थिक नीति का महत्वपूर्ण लक्ष्य है और इसे अवश्य जारी रखा जाना चाहिए ।

14. चालू वर्ष में मुद्रास्फीति प्रमुख उप-समूहों में अधिक समान रूप से व्याप्त हुई है । ’ईंधन, पावर, बिजली और चिकनाई के पदार्थ’ के उप-समूह (भारांक:14.2 प्रतिशत) में वार्षिक मुद्रास्फीति इस वर्ष 4.0 प्रतिशत पर कम रही जबकि पिछले वर्ष यह 5.6 प्रतिशत थी । ऊर्जा से संबंधित इस उप-समूह में देखी गई मूल्य-वृद्धि के प्रभाव को छोड़कर, 2.5 प्रतिशत की वार्षिक मुद्रास्फीति दर पिछले वर्ष की 2.4 प्रतिशत की दर से थोड़ी-सी अधिक रही । जहां एक ओर प्राथमिक वस्तुओं के मूल्यों (भारांक:22.0 प्रतिशत) ने पिछले वर्ष के 4.0 प्रतिशत की तुलना में 2.2 प्रतिशत की न्यूनतर वृद्धि दर्ज की, वहीं दूसरी ओर विनिर्मित उत्पादों (भारांक:63.7 प्रतिशत) ने पिछले वर्ष की 1.8 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में 2.7 प्रतिशत की उच्चतर वृद्धि दर्ज की । प्राथमिक वस्तुओं में, मूल्यवृद्धि का प्रमुख कारण तिलहनों के मूल्यों में वृद्धि होना था । विनिर्मित उत्पादाें में खाद्य तेलों के मूल्यों में हुई वृद्धि अपेक्षाकृत अधिक रही ।

15. इस वर्ष के मानसून के मौसम में खास तौर से प्रथम दो महीनों में वर्षा की कमी के कारण अनेक कृषि पण्यों के मूल्यों पर दबाव पड़ा । जहां खाद्यान्न के विपुल भंडार और विदेशी मुद्रा की अच्छी स्थिति से आपूर्ति प्रबंधन में सहायता मिलेगी, वहीं तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमतों में वृद्धि के कारण ‘ईंधन, पॉवर, बिजली और चिकनाई के पदार्थ’ उप-समूह की कीमतों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ने की संभावना है । तुलनात्मक रूप से, घरेलू मुद्रास्फीति दृष्टिकोण अभी भी अनुवू ल दिखाई देता है एवं मुद्रास्फति की दर 4.0 प्रतिशत के आसपास रहने की संभावना है, जो 2002-03 के वार्षिक नीति वक्तव्य के अनुमान के अनुसार ही है ।

16. 2002-03 के केन्द्रीय बजट में केंद्र सरकार के निवल और सकल बाज़ार उधारों की राशि क्रमश: 95,859 करोड़ रुपए और 1,42,867 करोड़ रुपए रखी गई थी । केंद्र सरकार ने अक्तूबर 25, 2002 तक 74,065 करोड़ रुपए की राशि के निवल बाजार उधारों (बजट में निर्धारित राशि के 77.3 प्रतिशत) तथा 1,10,032 करोड़ रुपए की राशि के सकल बाजार उधारों (बजट में निर्धारित राशि के 77.0 प्रतिशत) का कार्य पूरा कर लिया था बाजार में वर्तमान चलनिधि संबंधी स्थितियों तथा निम्न मुद्रास्फीति के कारण, सरकार 2002-03 के दौरान काफी कम लागत पर उधारराशियां जुटाने में सफल रही है । इस वर्ष दिनांकित प्रतिभूतियों के माध्यम से सरकारी उधारों पर 7.52 प्रतिशत का भारांकित औसत अनुलाभ पिछले वर्ष के 9.44 प्रतिशत के मुकाबले उल्लेखनीय रूप से 192 आधार बिंदु कम था । ऋण प्रबंध रणनीति के एक भाग के रूप में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने नीलामी के मामलों को बाजार की स्थितियों के अनुरूप दिनांकित प्रतिभूतियों के प्राइवेट प्लेसमेंट द्वारा स्वीकृतियों के साथ संयुक्त करना जारी रखा । चालू वर्ष के दौरान (अक्तूबर 25, 2002 तक) भारतीय रिज़र्व बैंक में दिनांकित प्रतिभूतियों के प्राइवेट प्लेसमेंट की कुल राशि 23,200 करोड़ रुपए थी । किंतु प्राइवेट प्लेसमेंट का मौद्रिक प्रभाव 27,000 करोड़ रुपए की सरकारी प्रतिभूतियों की खुला बाजार गतिविधियों (ओएमओ) के अंतर्गत तत्काल बिक्री से निष्प्रभावी हो गया था (अक्तूबर 25, 2002 तक) ।

17. अगस्त 2002 तक, केंद्र सरकार के सकल राजकोषीय घाटे की 55,496 करोड़ रुपए की राशि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि की स्थिति के मुकाबले लगभग 1.0 प्रतिशत कम थी और वह चालू वर्ष के बजट अनुमान की लगभग 41 प्रतिशत थी । इसी प्रकार, 45,525 करोड़ रुपए का राजस्व घाटा पूरे वर्ष के बजट अनुमान का लगभग 48 प्रतिशत था । प्रत्याशित वास्तविक आर्थिक गतिविधि में गिरावट, विनिवेश से होने वाली आय में कमी और सूखा राहत कार्यों पर अधिक व्यय के कारण सरकारी बजट में निर्धारित उधार कार्यक्रम प्रभावित हो सकता है ।

18. इस वर्ष (अक्तूबर 4, 2002 तक) सरकारी प्रतिभूतियों में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के 66,700 करोड़ रुपए के निवेश पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 43,400 करोड़ रुपए के निवेशों की तुलना में काफी अधिक हैं । वाणिज्य बैंकों के पास, निर्धारित सांविधिक चलनिधि अनुपात (एसएलआर) से भी काफी अधिक, 1,66,200 करोड़ रुपए तक की सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियां हैं जो उनकी निवल मांग और मीयादी देयताओं की 12.3 प्रतिशत है ।

19. 2002-03 के दौरान अब तक, भारतीय वित्तीय बाजार सामान्यतया स्थिर रहे हैं, चलनिधि पर्याप्त रही है और निवेशों में संवर्धन की दृष्टि से ब्याज-दर का वातावरण भी अनुकूल रहा है । जैसा कि पूंजीगत वस्तु क्षेत्र और आधारभूत संरचना से जुड़े उद्योगों में सकारात्मक वृद्धि से परिलक्षित हुआ है, औद्योगिक उत्पादन में वृद्धि के संकेत मिल रहे हैं । ईक्विटी बाजारों का कारोबार बंबई शेयर बाजार के संवेदी सूचकांक में तेजी के सकारात्मक रुख के साथ शुरू हुआ किंतु बाद में, सीमा पर तनाव, मानसून की अनिश्चितता और अंतर्राष्ट्रीय शेयर बाजारों में मंदी की प्रवृत्तियों के कारण वह कमजोर हो गया । औसत आधार पर, अप्रैल-सितंबर 2002 के दौरान बंबई शेयर बाजार सूचकांक पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के दौरान के 3355 से 3.8 प्रतिशत गिर कर 3228 रह गया था । वास्तविक आर्थिक गतिविधि के प्रत्याशित स्तर के मुकाबले कम स्तर रहने के साथ-साथ रिज़र्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में लगातार वृद्धि के कारण अब तक, चालू वर्ष के अधिकांश भाग में अतिरिक्त चलनिधि की स्थिति निर्मित हो गई थी । इसलिए रिज़र्व बैंक को केवल खुला बाजार गतिविधियों के अंतर्गत प्रतिभूतियों की तत्काल बिक्री के माध्यम से ही नहीं, बल्कि अपनी दैनिक चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के माध्यम से भी चलनिधि को तत्परता के साथ नियंत्रित करना पड़ा था । वर्ष के दौरान (अक्तूबर 25, 2002 तक), चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत पुनर्खरीद लेनदेन गतिविधियों के माध्यम से औसतन दैनिक आधार पर जुटाई गई राशि लगभग 14,800 करोड़ रुपए थी ।

20. आसान चलनिधि स्थितियों के प्रभाव से ब्याज दरों में गिरावट की प्रवृत्ति जारी रही । ओवरनाइट औसत मांग मुद्रा दर अप्रैल 2002 के 6.58 प्रतिशत के स्तर से गिर कर जुलाई 2002 तक 5.75 प्रतिशत हो गई और अभी तक उसी स्तर के आस-पास बनी रही । पुनर्खरीद गतिविधि दर भी 6.0 प्रतिशत से घट कर जून 27, 2002 को 5.75 प्रतिशत हो गई । 91-दिवसीय खजाना बिल दर मध्य मई तक 7.0 प्रतिशत तक की ऊँचाई छूने के बाद सितंबर 4, 2002 की नीलामी में 5.68 प्रतिशत हो गई थी जो कि पुनर्खरीद दर से भी कम थी । इसी प्रकार, 364-दिवसीय खजाना बिल दर भी उसी अवधि के दौरान कम होकर 6.99 प्रतिशत से 5.86 प्रतिशत हो गई है । 61 से 90 दिन की परिपक्वता वाले वाणिज्यिक पत्र पर भारित औसत बटृा दर में 293 आधार बिंदु तक की भारी कमी हुई जो मार्च 2002 अंत के 9.46 प्रतिशत से घट कर मध्य अक्तूबर 2002 तक 6.53 प्रतिशत रह गई थी ।

21. सरकारी प्रतिभूति बाजार में भी नरमी का रुख जारी रहा । 1 वर्ष की अवशिष्ट परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर अनुलाभ मार्च 2002 के अंत के 6.10 प्रतिशत के स्तर से घटकर अक्तूबर 25, 2002 तक 5.92 प्रतिशत हो गया । 10 वर्ष की अवशिष्ट परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर अनुलाभ में भी इसी प्रकार की गिरावट परिलक्षित हुई जो 7.36 प्रतिशत से घट कर 7.07 प्रतिशत हो गया था । अप्रैल 2002 के नीतिगत वक्तव्य में 2001-02 के दौरान एएए श्रेणी वाले कंपनी बांडों तथा सरकारी प्रतिभूतियों के बीच बढ़ते हुए अंतर का उल्लेख किया गया था, जिससे ‘गुणवत्ता अभिमुखता’ परिलक्षित होती है । हालांकि, यह अंतर पिछले छह महीनों के दौरान औद्योगिक दृष्टिकोण में सुधार के परिणामस्वरूप काफी कम रह गया है ।

22. सरकारी क्षेत्र के बैंक एक वर्ष के दौरान अपनी जमा दरों को मार्च 2002 के 7.25 - 8.75 प्रतिशत के दायरे से घटाकर अक्तूबर 2002 तक 6.50 - 8.25 प्रतिशत के दायरे में ले आए हैं । एक वर्षीय जमा प्रमाणपत्रों की विशिष्ट ब्याज दर भी मार्च 2002 के 10.0 प्रतिशत से घट कर सितंबर 2002 में 7.0 प्रतिशत हो गई है । निधियों की कम लागत के अनुरूप कुछ बैंकों ने अपनी मूल उधार दरें 25-100 आधार बिंदुओं तक घटा दी हैं । सरकारी क्षेत्र के बैंकों की मूल उधार दर का दायरा 10.0 और 12.5 प्रतिशत के बीच है । चूंकि बैंक अपनी मूल उधार दरों से भी कम दर पर ऋण दे रहे हैं और उन्होंने मूल उधार दर पर अपनी अधिकतम सीमा भी घटा दी है, अत: बैंकों की प्रभावी उधार दरों में भी कुछ नियमन दिखाई दिया है । बैंकिंग प्रणाली की मूल उधार दर से कम दर पर ऋण (निर्यातों, जिसका अधिकांश मूल उधार दर से कम दर पर होता है, को छोड़कर) उनके कुल उधारों के एक तिहाई से भी अधिक हैं । चूंकि विदेशी बैंकों की मूल उधार दरें अधिक हैं, अत: उनके मूल उधार दर से कम दर पर ऋण उनके कुल ऋणाें के लगभग 60 प्रतिशत हैं । जून 2002 के साथ समाप्त तिमाही में सरकारी क्षेत्र के बैंकों की ऋण दर सामान्यतया मूल उधार दरों के (-) 3.0 प्रतिशत से लेकर 4.75 प्रतिशत के दायरे में रही जबकि ऐसा अंतर (ऋण की किसी एक ओर की अधिकतम दरों पर स्वीकृत ऋण के 5 प्रतिशत को छोड़कर) (-) 3.0 प्रतिशत से लेकर 4.0 प्रतिशत तक के दायरे में था ।

23. हाल के वर्षों में, ब्याज दर ढांचे में निरंतर गिरावट की प्रवृत्ति रही है जो स्फीतिकारक अपेक्षाओं के नियमन और अच्छी चलनिधि स्थिति की द्योतक है । नीति दरों में परिवर्तन से ब्याज दरों में समग्र रूप से कमी परिलक्षित होती है क्योंकि बैंक दर जुलाई 2000 के 8.0 प्रतिशत से चरणबद्ध रूप में घट कर अक्तूबर 2001 तक 6.5 प्रतिशत रह गई है जो मई 1973 से न्यूनतम दर है । इसी प्रकार, पुनर्खरीद परिचालन दर मार्च 1999 के 8.0 प्रतिशत से घटकर जून 2002 में 5.75 प्रतिशत हो गई । साथ ही , भारांकित औसत मांग मुद्रा दर अगस्त 2000 के 13.06 प्रतिशत से कम होकर अक्तूबर 2002 तक 5.74 प्रतिशत हो गई है ।

24. इसी प्रकार, 91-दिवसीय और 364-दिवसीय खजाना बिलों पर अधिकतम अनुलाभ अगस्त 2000 के 10.47 प्रतिशत और 10.91 प्रतिशत से घट कर अक्तूबर 2002 तक क्रमश: 5.72 और 5.80 प्रतिशत हो गया है । जब कि 3-मासीय वाणिज्यिक-पत्रों पर भारित औसत भुनाई दर अगस्त 2000 के 12.1 प्रतिशत से घट कर मध्य-अक्तूबर 2002 में 6.53 प्रतिशत हो गई थी, 3-मासीय जमा प्रमाणपत्रों पर विशिष्ट ब्याज दर अगस्त 2000 की 10.25 प्रतिशत से गिर कर सितंबर 2002 में 6.2 प्रतिशत हो गई थी ।

25. 1-वर्षीय और 10-वर्षीय अवशिष्ट परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर अनुलाभ अगस्त 2000 के 10.82 प्रतिशत और 11.47 प्रतिशत से कम होकर अक्तूबर 25, 2002 तक क्रमश: 5.92 प्रतिशत और 7.07 प्रतिशत हो गया था । 5-वर्षीय अवशिष्ट परिपक्वता वाले एएए श्रेणी के कंपनी बांडों पर अनुलाभ सितंबर 2000 के 12.15 प्रतिशत से घट कर अक्तूबर 2002 तक 7.0 प्रतिशत रह गया है । एक वर्ष के दोरान सरकारी क्षेत्र के बैंकों की मीयादी जमाराशियों पर ब्याज दरें सितंबर 2000 की 8.0 - 10.5 प्रतिशत से गिर कर अक्तूबर 2002 तक 6.5 - 8.25 प्रतिशत हो गई है । इसी प्रकार, सरकारी क्षेत्र के बैंकों की मूल उधार दरें 11.75 -13.0 प्रतिशत से घट कर 10.0 - 12.5 प्रतिशत हो गई हैं ।

26. कुल मिलाकर, हाल की अवधि में रिज़र्व बैंक की घोषित नीति के अनुरूप विभिन्न प्रकार के पत्रों पर ब्याज दरों में काफी कमी हुई है । बैंकों की औसत ऋण दरें भी कुछ सीमा तक कम हुई हैं । अल्पावधि मुद्रा बाजार और खजाना-बिल दरों से लेकर दीर्घावधि प्रतिभूतियों तक की सभी परिपक्वताओं पर समान रूप से ब्याज दरों में कमी हुई है । एक अनुकूल स्फीतिकारक वातावरण के साथ यह एक स्वागतयोग्य परिवर्तन है जो औद्योगिक सुधार और अर्थव्यवस्था में निरंतर वृद्धि के लिए शुभ-संकेत है ।

बाह्य गतिविधियां

27. अप्रैल 2002 में वार्षिक नीतिगत वक्तव्य के समय, 11 सितंबर की घटनाओं के बाद, विश्व अर्थव्यवस्था में सुधार के अवसर अच्छे हो गए थे । तथापि, सुधार की प्रक्रिया पहले के अनुमानों की तुलना में अब कुछ सीमा तक धीमी दिखाई दे रही है । अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भी कुछ उल्लेखनीय मुद्दे उभरते हुए देखे हैं जो निवेश परिवेश पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं । इनमें चालू अनिश्चित आर्थिक परिवेश में वित्तीय संस्थाओं का जोखिम के प्रति उदासीनता का व्यवहार; संयुक्त राज्य अमरीका में निवेश में भारी कमी; और दक्षिण अमरीका से अन्य उभरते हुए बाजारों को संक्रामित करने के कुछ संकेत शामिल हैं । तथापि, सापेक्ष कार्यनिष्पादन की दृष्टि से, यह अनुमान लगाया जाता है कि विश्वव्यापी प्रवृत्ति की तुलना में भारत और चीन का कार्यनिष्पादन बेहतर होगा ।

28. चालू वित्तीय वर्ष (अप्रैल - अक्तूबर 2002) के दौरान भारतीय विदेशी मुद्रा बाजार सामान्यतया सुव्यवस्थित रहा जहां भारतीय रुपए में अमरीकी डालर के मुकाबले मजबूती की प्रवृत्ति दिखाई दी । ऐसा आपूर्ति की अच्छी स्थिति और कम मांग के कारण हुआ । इसके परिणामस्वरूप आरक्षित निधियों में भारी वृद्धि हुई । विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि मार्च 2002 के अंत के 54.1 बिलियन अमरीकी डालर से 9.9 बिलियन अमरीकी डालर बढ़कर अक्तूबर 25, 2002 तक 64.0 बिलियन अमरीकी डालर हो गई ।

29. हाल के वर्षों में, वार्षिक मौद्रिक नीतिगत वक्तव्यों और मध्यावधि समीक्षाओं में बाह्य और घरेलू अनिश्चितताओं के दौरान बाह्य क्षेत्र के प्रबंधन में हमारे अनुभव से उभरे प्रमुख बिन्दुओं को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है । हाल के अनुभव ने एक बार फिर से, विकासशील देशों के लिए बाजार की गतिविधियों पर लगातार पैनी नजर रखने और अप्रत्याशित झटकों और बाजार की अनिश्चितताओं के प्रभाव का सामना कर सकने के लिए पर्याप्त रूप से सुरक्षा उपाय करने की आवश्यकता को उजागर किया है । इस संदर्भ में, भारत की विद्यमान विनिमय दर नीति समय की कसौटी पर खरी उतरी है । इसने कोई निश्चित दर संबंधी लक्ष्य रखे बिना विदेशी मुद्रा के उतार-चढ़ाव के प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित किया है जबकि अंतर्निहित मांग और आपूर्ति स्थितियों को सुव्यवस्थित रूप से विदेशी मुद्रा विनिमय दर के उतार-चढ़ाव को निर्धारित करने की अनुमति दी गई । देश के बाहर और भीतर की अनेकों अप्रत्याशित प्रतिकूल गतिविधियों के बावजूद भारत की बाह्य स्थिति संतोषजनक बनी रही । भारतीय रिज़र्व बैंक देशी और विदेशी वित्तीय बाजारों की गतिविधियों पर बराबर निगरानी रखते हुए सतर्कता, सावधानी और लचीलेपन का दृष्टिकोण अपनाता रहेगा । यह बाजार के परिचालनों को विशेष रूप से विदेशी मुद्रा बाजार के परिचालनों को सावधानीपूर्वक समन्वित करेगा । इसके लिए उचित मौद्रिक, विनियामक और समय-समय पर आवश्यक समझे जानेवाले अन्य उपाय किए जाएंगे । यह बहुत प्रसन्नता की बात है कि, उभरते बाजाराें में अर्थक्षम विनिमय दर संबंधी नीतियों पर हाल में किए गए अंतर्राष्ट्रीय अनुसंधान में भी भारत द्वारा अपनाई जानेवाली विनिमय दर संबंधी नीति को काफी सराहा गया है ।

30. भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि अक्तूबर 26, 2001 को 45.2 बिलियन अमरीकी डालर थी जो 25 अक्तूबर, 2002 को बढ़कर 64.0 बिलियन अमरीकी डालर हो गई । इस प्रकार 18.8 बिलियन अमरीकी डालर की वृद्धि हुई । पिछले कुछ वर्षों में, विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि के पर्याप्त स्तर को बनाने के लिए भारत निरंतर प्रयास करता रहा है जिसकी झलक मौजूदा गतिविधियों में मिलती है । जैसा कि पिछले नीतिगत वक्तव्यों में बताया गया था, हाल के वर्षों में भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि के प्रबंधन के समग्र दृष्टिकोण में भुगतान संतुलन का बदलता स्वरूप दृष्टिगोचर होता है और विभिन्न प्रकार के प्रवाहों तथा अन्य अपेक्षाओं के साथ जुड़े "चलनिधि जोखिम" को प्रतिबिंबित करने का प्रयास किया गया है । इस प्रकार आरक्षित मुद्रा के प्रबंधन की नीति विवेकसम्मत रूप में अनेक ज्ञात कारकों और अन्य आकस्मिकताओं के आधार पर तैयार की जाती है । अन्य बातों के साथ-साथ इन कारकों में ये बातें भी शामिल हैं : चालू खाता घाटे (करंट अकाउंट डेफिसिट) का आकार; अल्पकालीन देयताओं (दीर्घावधि ऋणों पर वर्तमान चुकौती देयताओं सहित) का आकार; संविभाग निवेश और अन्य प्रकार के पूंजी प्रवाहों में संभावित घट-बढ़; बाह्य झटकों की वजह से भुगतान संतुलन पर पड़नेवाले अप्रत्याशित दबाव; और अनिवासी भारतीयों की प्रत्यावर्तनीय विदेशी मुद्रा जमाराशियों में उतार-चढ़ाव । इन कारणों को देखते हुए, वर्तमान में भारत की विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि की स्थिति अच्छी है और यह विकास की दर, अर्थव्यवस्था में बाह्य क्षेत्र के अंश और जोखिम-समायोजित पूंजी प्रवाहों के अनुकूल है ।

31. अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) के स्पेशल डेटा डिसिमिनेशन स्टैंडडर्स (एसडीडीएस) पर हस्ताक्षरकर्ता होने के नाते भारतीय रिज़र्व बैंक विदेशी मुद्रा बाजार की और अंतर्राष्ट्रीय रूप से मान्य मानकों के अनुसार विदेशी मुद्रा बाजार में भारतीय रिज़र्व बैंक के परिचालनों की संबद्ध जानकारी उपलब्ध करा रहा है । डेटा टेम्प्लेट में विभिन्न वर्गों (उदाहरणत:, प्रतिभूतियां, केंद्रीय बैंकों और वाणिज्य बैंकों आदि के पास जमाराशियां, आदि) में विभाजित करते हुए अंतर्राष्ट्रीय आरक्षित मुद्रा और विदेशी मुद्रा नकदी निधि की सूचना उन देशों के संबंध में उपलब्ध है, जिन्होंने एसडीडीएस पर हस्ताक्षर किए हैं । ये आंकड़े मासिक अंतरालों पर प्रसारित किए जाते हैं और ये एक महीने पहले के होते हैं तथा भारतीय रिजर्व बैंक की वेबसाइट पर उपलब्ध हैं । रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर अद्यतन आंकड़े अगस्त 31, 2002 तक की अवधि के हैं ।

32. हाल की अवधि में आरक्षित निधियों में हुई पर्याप्त वृद्धि ने आरक्षित निधियों की धारिता की लागत और फायदों के संबंध में स्वागतयोग्य बहस शुरू की है । किसी भी आरक्षित निधि की धारिता के लागत-लाभ विश्लेषण में आरक्षित निधि रखने के उद्देश्यों को ध्यान में रखना आवश्यक है जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ ये भी शामिल हैं : (क) मौद्रिक और विनिमय दर संबंधी नीतियों में विश्वास बनाए रखना; (ख) विदेशी मुद्रा बाजारों में हस्तक्षेप करने की क्षमता को बढ़ाना; (ग) बाहरी जोखिम की संभावनाओं को कम करना ताकि संकट के समय में पड़नेवाले आघातों को सहन किया जा सके; (घ) बाजारों को यह विश्वास दिलाना कि बाहर की देयताएं हमेशा पूरी की जा सकती हैं; और (ङ) बाह्य परिसंपत्तियों द्वारा घरेलू मुद्रा के समर्थन वे प्रदर्शन से बाजार के सहभागियों को तसल्ली दिलाना । अनिश्चितता अथवा प्रतिकूल प्रत्याशाओं, चाहे ये वास्तविक हों या काल्पनिक, की अवधियों के दौरान विनिमय दर के तीव्र उतार-चढ़ाव अर्थव्यवस्था के लिए अत्यधिक असंतुलित और यह महंगे हो सकते हैं । आरक्षित निधियों के धारण की यह आर्थिक लागत निवल वित्तीय लागत, यदि कोई हो, से काफी अधिक होने की संभावना है । इस संदर्भ में, यह ध्यान में रखना महत्वपूर्ण होगा कि भारत में पिछले कुछ वर्षों में आरक्षित निधि में जुड़ी तकरीबन सारी राशि में वृद्धि बाह्य ऋण के समग्र स्तर में वृद्धि किए बिना ही हुई है । आरक्षित निधि में वृद्धि ज्यादातर अधिक विप्रेषण, निर्यात आय का शीघ्र प्रत्यावर्तन और ऋणेतर प्रवाहों को प्रतिबिंबित करते हैं । विदेशी मुद्रा अंकित एनआरआइ प्रवाहों (जहां ब्याज दरें लाइबोर से संबद्ध हैं ) को ध्यान में रखने के बाद भी, भारत में अतिरिक्त आरक्षित निधि निर्माण की वित्तीय लागत हाल की अवधि में काफी कम रही है और अतिरिक्त आरक्षित निधियों पर प्रतिलाभ इन लागतों से अधिक होने की संभावना है ।

33. यह भी उल्लेख करना आवश्यक होगा कि हाल की अवधि में आरक्षित निधि में अधिकांश वृद्धि घरेलू विदेशी मुद्रा बाजार में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा की गई निवल खरीदारियों के कारण से है जिसके बराबर की राशि की देशी मुद्रा सरकारी क्षेत्र के यूनिटों, कंपनियों और व्यक्तियों सहित संबंधित घरेलू संस्थाओं को जारी की गई । भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जारी इस प्रकार की प्रतिरूप घरेलू मुद्रा (अर्थात् निवेश के लिए, जमाराशियों के लिए अथवा नकदी परिसंपत्तियों के रूप में आदि) के प्रयोग के निर्णय की जिम्मेदारी उपर्युक्त संस्थाओं आदि की होगी न कि भारतीय रिज़र्व बैंक की या सरकार की । यहां यह कहना अनावश्यक ही होगा कि जहां तक प्राप्तकर्ता संस्थाओं द्वारा इस प्रतिरूपी स्थानीय मुद्रा का अर्थव्यवस्था में आगे और निवेश करने का सवाल है, औद्योगिक मांग और विकास पर इसका प्रभाव अनुकूल ही होगा ।

34. 1997 के एशियाई संकट के पश्चात् भारत को मार्गदर्शन देनेवाले मुख्य सिद्धांत इस प्रकार हैं :

  • बिना कोई नियत लक्ष्य रखे अथवा पूर्व घोषित लक्ष्य अथवा बैंड के, विनिमय दरों पर ध्यानपूर्वक निगरानी और प्रबंधन । विनिमय दर में लचीलापन और जब कभी आवश्यक हो तब हस्तक्षेप करने की क्षमता;
  • विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि के उच्च स्तर को बनाने की नीति जिसमें न केवल प्रत्याशित चालू खाता घाटे को ध्यान में रखा गया है बल्कि अप्रत्याशित पूंजी आवागमन से होनेवाले ‘चलनिधि जोखिम’ को भी ध्यान में रखा गया है;
  • पूंजीगत खाते के प्रबंधन के लिए विवेकसम्मत नीति ।

35. जनवरी 2002 में घोषित मध्यावधि निर्यात नीति (एमटीईएस) को ध्यान में रखते हुए और सीमापार पूंजी के आवागमन को आगे और उदार बनाने के लिए, विशेषकर जावक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश, आवक प्रत्यक्ष और संविभाग निवेश, अनिवासी जमाराशियां और बाह्य वाणिज्यिक उधार के क्षेत्रों में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने मौजूदा वित्तीय वर्ष में अन्य बातों के साथ-साथ चालू और पूंजीगत खाते संबंधी महत्वपूर्ण उपायों की घोषणा की जो इस प्रकार हैं :

  • यात्रा, शिक्षा, चिकित्सा संबंधी व्यय और अन्य चालू खाता लेनदेनों सहित अधिकांश प्रयोजनों हेतु निवासियों के लिए विदेशी मुद्रा जारी करने में काफी उदारता बरतना और इसके लिए कम-से-कम दस्तावेज भरने अपेक्षित होंगे ।
  • अनिवासी भारतीयों/भारतीय मूल के व्यक्तियों को अन्य सुविधाओं के साथ विरासत/पैतृक संपत्ति के रूप में अर्जित परिसंपत्तियों को भारत में प्रत्यावर्तित करने की सुविधा भी दी गई है । अनिवासी भारतीयों की किराए, लाभांश, पेंशन और ब्याज जैसी पूरी चालू आय के प्रत्यावर्तन की अनुमति भी है भले ही उनके भारत में अनिवासी साधारण (एनआरओ) खाते न हों ।
  • हैसियत धारक निर्यातक विदेशी मुद्रा की अपनी पात्र प्राप्तियों का 100 प्रतिशत अपने विदेशी मुद्रा अर्जक विदेशी मुद्रा खाते (ईईएफसी) में जमा कर सकते हैं ।
  • कंपनियों को रिज़र्व बैंक की अनुमति प्राप्त किए बिना मार्च 2003 के अंत तक 100 मिलियन अमरीकी डालर तक की बाह्य वाणिज्यिक उधारियों (ईसीबी) को समय से पहले वापस करने की अनुमति दी गई है । ईईएफसी खाते की जमाराशि में से बाह्य वाणिज्यिक उधार राशियों को समय पूर्व अदायगी के लिए अथवा 100 मिलियन अमरीकी डालर से अधिक की राशि की नई इक्विटी के हेतु विदेशी मुद्रा प्राप्त करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक की पूर्व अनुमति प्राप्त करना आवश्यक नहीं है ।
  • विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) में स्थित यूनिटों द्वारा भारत से बाहर की बीमा कंपनियों से ली गई सामान्य बीमा पालिसियों के लिए प्रीमियम के प्रेषण की अनुमति है।
  • बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आइआरडीए) में पंजीकृत बीमा कंपनियों को विदेशी मुद्रा में अंकित सामान्य बीमा पालिसियां जारी करने की अनुमति है ।

36. मौजूदा वर्ष में अब तक निर्यात निष्पादन उत्साहजनक रहा है । मौजूदा वित्तीय वर्ष के पहले पांच महीने के दौरान भारत का निर्यात 19.8 बिलियन अमरीकी डालर का रहा जो पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के निर्यात से 13.4 प्रतिशत अधिक था । इसी अवधि के दौरान, आयातों में केवल 1.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 3.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी । इसके परिणामस्वरूप, पिछले वर्ष की इसी अवधि का 4.6 बिलियन अमरीकी डालर का व्यापार घाटा कम होकर 2.7 बिलियन अमरीकी डालर तक आ गया । पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में तेल आयातों में अमरीकी डालर में 5.4 प्रतिशत की आई कमी के मुकाबले तेल आयातों में 5.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई । तेल से इतर आयातों में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 8.3 प्रतिशत वृद्धि के मुकाबले 0.3 प्रतिशत की वृद्धि
हुई । अप्रैल-अगस्त 2002 के दौरान जबकि तेल से इतर खाते में अधिशेष 1.1 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़कर 3.2 बिलियन अमरीकी डालर हो गया, तेल खाते में घाटा 5.8 बिलियन अमरीकी डालर से थोड़ा-सा बढ़कर 5.9 बिलियन अमरीकी डालर हो गया । चालू खाता घाटा जो पिछले दस वर्ष में औसतन सकल देशी उत्पाद का 1.0 प्रतिशत रहा, 2001-02 में यह थोड़ा-सा अधिशेष हो गया । वर्तमान स्थिति को देखते हुए यह संभावना है कि वर्ष 2002-03 के लिए चालू खाता घाटा सकल देशी उत्पाद के 1.0 प्रतिशत से कम होगा और इसकी वजह से भुगतान संतुलन पर कोई महत्वपूर्ण दबाव पड़ने की संभावना नहीं है ।

37. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी विवरण में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि अमरीकी डालर के साथ-साथ यूराे का भी हस्तक्षेपी मुद्रा के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है । भारतीय रिज़र्व बैंक ने जनवरी 1, 2002 से अपनी वेबसाइट पर अमरीकी डालर की संदर्भ दर के साथ-साथ यूरो की संदर्भ दर देना भी शुरू कर दिया है । यूरो जोन भारत का दूसरा सबसे बड़ा व्यापारी सहभागी है । अत: यह वांछनीय होगा कि हम यूरो क्षेत्र में किए गए अपने व्यापार के इनवॉयस यूरो में भी बनाएँ ।

38. निर्यात की वृद्धि को और बढ़ाने के लिए सतत प्रयास, भुगतान संतुलन की दीर्घकालीन सक्षमता तथा आय की तीव्र वृद्धि एवं रोजगार के अवसर बढ़ाने के लिए अति आवश्यक हो गया है । हाल का अनुभव यह बताता है कि साफटवेयर, व्यापार तथा वाणिज्यिक सेवाओं में अंतर्राष्ट्रीय तुलनात्मक लाभ, व्यापारिक माल के निर्यात से चरणबद्ध तरीके से सकारात्मक परिर्वतन के संकेत हैं और इन सेवाओं के निर्यात का सहयोग बाह्य मांग में कमी के चरणों में भी रहा । मध्यावधि निर्यात नीति ने एक ऐसा मार्ग बना दिया है जो कि दसवीं पंचवर्षीय योजना अवधि की अंतिम स्थिति तक के लिए है । इसका लक्ष्य है कि विश्व व्यापार में भारत का हिस्सा 0.67 प्रतिशत के वर्तमान स्तर से बढ़कर 2006-07 तक 1.0 प्रतिशत हो जाए । इसके लिए यह आवश्यक है कि निर्यात के वर्तमान स्तर को दुगुना कर दिया जाए ।

39. निर्यात ऋण सुपुर्दगी प्रणाली में सुधार लाने के लिए बैंकों को प्रोत्साहित करने हेतु रिज़र्व बैंक संगठित प्रयास करता रहा है । इस संदर्भ में अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति वक्तव्य में प्रयुक्त राष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान परिषद (एनसीएईआर) के सहयोग से निर्यातकों की संतुष्टि के बारे में एक सर्वेक्षण का उल्लेख किया गया था । यद्यपि सर्वेक्षण के परिणामों से इस बात का पता चला कि निर्यातकों की संतुष्टि का स्तर काफी बढ़ा था, फिर भी निर्यातकों को ऋण सुपुर्दगी में और सुधार लाने के लिए कुछ सुझाव दिए गए थे । रिपोर्ट सभी बैंकों के पास भेजी गई थी तथा उसे आरबीआइ वेबसाइट पर भी डाला गया । एनसीएईआर के सुझाव के अनुसार ऋण सुपुर्दगी प्रणाली में सुधार लाने की आवश्यकता के बारे में बैंकों को सुग्राहित करना है । इसके परिणामस्वरूप, बैंकों, भारतीय रिज्ॉर्व बैंक तथा भारतीय निर्यात ऋण गारंटी निगम लि. के अधिकारियों की एक छोटी समिति ने बड़े पैमाने पर निर्यात करनेवाले 5 केंद्रों का दौरा किया तथा बैंकरों से चर्चा की । बैंकरों द्वारा प्रस्तुत "कार्रवाई रिपोर्ट" (एक्शन टेकन रिपोर्ट) के आधार पर यह पाया गया है कि एनसीएईआर के अधिकांश सुझावों का बैंकों ने अनुपालन किया है । शाखा स्तर पर, विशेषत:, लघु और मध्यम श्रेणी के निर्यातकों के क्षेत्रों में, निर्यात ऋण सुपुर्दगी प्रणाली को ग्राहक के मनोनुकूल बनाने के लिए बैंकों के अपने प्रयास जारी रखने चाहिए ।

40. अनिवासियों के लिए विप्रेषण, निवेश तथा बैंक खाता रखने आदि जैसी वित्तीय लेनदेनों के लिए कार्यविधियाँ कुछ ही समय पहले काफी सरल कर दी गई हैं। आवक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआइ) को नियंत्रित करनेवाली नीति का ढांचा स्वचालित मार्ग के अंतर्गत काफी सरल कर दिया गया था । शीशा और औषधीय विनिर्माण, होटल और पर्यटन क्षेत्र में तथा सभी महानगरों में व्यापक तेज रफ्तार परिवहन प्रणालियों के लिए आटोमेटिक रूट के अंतर्गत एफडीआइ को 100 प्रतिशत तक अनुमति दी गई थी । स्वचालित मार्ग के अंतर्गत निजी क्षेत्र के बैंकों में सभी स्रोतों से 49 प्रतिशत तक एफडीआइ को अनुमति प्रदान की गई थी । पूंजीगत लेखा के प्रगामी सरलीकरण की नीति जारी रखते हुए, अनिवासी भारतीय जमा योजनाएं भी युक्तिसंगत की गईं और अब ये डअनिवासी सामान्य (एनआरओ) लेखों को छोड़कर पूर्णत: परिवर्तनीय हो गई हैं ।

41. आटोमेटिक रूट के अंतर्गत भारत के बाहर भारतीय प्रत्यक्ष निवेश की वर्तमान सीमा को बर्ढाकर 100 मिलियन अमरीकी डॉलर तक किया गया था । अमरीकी निक्षेपागार रसीदों (एडीआर)/ विश्व जमा रसीदों (जीडीआर) की द्विमार्गी समरूपता चालू हो गई है । 50 मिलियन अमरीकी डॉलर तक के विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बांडों को आटोमेटिक रूट के अंतर्गत लाया गया । कंपनियों के बाह्य वाणिज्यिक उधारों की सुविधा प्रदान करने के लिए, रिज़र्व बैंक ने, अलग-अलग मामले में गुण-दोषों के आधार पर, कंपनियों को उनके ईईएफसी खातों में निर्यात के प्रतिफलों के उच्चतर भागों को भी जमा करने की अनुमति प्रदान की ताकि वे निम्नतर ब्याज दरों का लाभ प्राप्त कर सकें और अपने ईसीबीज़ का पूर्व भुगतान कर सकें। फिर भी, यह देखा गया कि कभी-कभी कंपनियां कंपनी विषयक विदेशी मुद्रा वायदों के पर्याप्त अंश को बाज़ार के बारे में अपने प्रत्यक्ष ज्ञान के आधार पर असुरक्षित रहने देती हैं और स्थिति में परिवर्तन होने पर इसके कारण कंपनियों की समग्र वित्तीय स्थिति पर गहरा दुष्प्रभाव पड़ सकता है । इस संदर्भ में, अक्तूबर 2001 की मध्यावधि समीक्षा में बैंकों के लिए इस बात की आवश्यकता पर जोर दिया गया था कि वे असुरक्षित निवेशों के संबंध में ऐसी कंपनियों के बड़े निवेशों की निगरानी करें ।

II. 2002-03 की दूसरी छमाही के
लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य

 

42. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में इस बात का उल्लेख किया गया था कि सामान्य स्थिति में और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में किन्हीं विपरीत और अप्रत्याशित गतिविधियों को छोड़कर, 2002-03 के लिए मौद्रिक नीति का समग्र उद्देश्य निम्नानुसार होगा :

  • मूल्य स्तर के उतार-चढ़ाव पर निगरानी जारी रखते हुए अर्थव्यवस्था में निवेश की मांग को सहारा देने और ऋण में वृद्धि लाने के लिए उपयुक्त चलनिधि का प्रावधान ।
  • उपर्युक्त के अनुरूप में, कम ब्याज दरों को प्राथमिकता देते हुए ब्याज दरों के संबंध में वर्तमान रुख जारी रखना ।
  • मध्यावधि में ब्याज दर ढांचे में और अधिक लचीलापन लाना ।

43. 2002-03 की पहली छमाही में मौद्रिक प्रबंधन अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में घोषित मौद्रिक नीति के उद्देश्य के काफी अनुरूप था । जैसा कि नीतिगत वक्तव्य में उल्लेख किया गया है, ब्याज दरों को कम करने की दिशा में पहल करते हुए वर्ष की पूरी पहली छमाही के दौरान भारतीय रिजॅर्व बैंक एक स्थिर ब्याज दर प्रणाली बनाए रखने में सफल रहा है । द्वितीयक बाज़ार में सरकारी प्रतिभूतियों पर आय वित्तीय वर्ष की शुरुआत की आय से काफी कम रही । सरकार के बाज़ार उधार कार्यक्रम का लगभग दो-तिहाई हिस्सा, सामान्य ब्याज दर ढांचे पर कोई प्रंतिकूल प्रभाव डाले बगैर, और अधिक परिपक्वता के साथ, अपेक्षाकृत कम लागत पर पूरा किया जा सका है ।

44. औद्योगिक गतिविधि में पुनरुज्जीवन के कुछ प्रत्यक्ष संकेतों और निर्यात क्षेत्र में वृद्धि के अनुरूप, खाद्येतर ऋण में पर्याप्त बढ़ोतरी रही है जिसके वर्ष के शेष भाग में भी जारी रहने की उम्मीद है । मूलभूत उद्योगों में विकास से यह उम्मीद है कि कुछ विलंब से औद्योगिक गतिविधि को बढ़ावा मिलेगा और इसलिए,औद्योगिक उत्पादन का सूचकांक इस वर्ष की शुरुआत में जितनी उम्मीद थी, उससे और अच्छी होगी । फिर भी, मानसून के विलंब के आने एवं उसके बाद कृषि उत्पादन पर पड़नेवाले उसके प्रभाव से टिकाऊ और गैर-टिकाऊ दोनों प्रकार की वस्तुओं की ग्रामीण मांग में थोड़ी-सी कमी आ सकती है । इसके बावजूद, चूंकि निर्यात वर्धमान हैं, अत: उद्योग के प्रति दृष्टिकोण पिछले वर्ष की तुलना में बेहतर परिलक्षित होता है ।

45. बाज़ार की अल्पकालिक समाप्ति पर औसत मांग मुद्रा दर अप्रैल के प्रारंभ के 6.82 प्रतिशत से तेजी से घटकर अक्तूबर 2002 में 5.74 प्रतिशत तक आई । इस अवधि में एलएएफ रिपो दर भी 6.0 प्रतिशत से 5.75 प्रतिशत तक नीचे लाई गई । सीआरआर जून 1, 2002 से 50 आधार अंक कम करके 5.0 प्रतिशत तक घटाई गई जिससे बैंकिंग प्रणाली के उधार देने योग्य संसाधनों में 6,000 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई । अन्य मुद्रा बाज़ार लिखतों की ब्याज दरें भी कम हो गईं । उदाहरण के लिए 91-दिवसीय खजाना बिल पर प्राथमिक प्रतिफल अप्रैल और अक्तूबर 2002 के बीच 6.13 प्रतिशत से 41 आधार अंक घटकर 5.72 प्रतिशत रह गया । इसी अवधि में, 364-दिवसीय खजाना बिल पर प्राथमिक प्रतिफल और 1 वर्ष की अवशिष्ट परिपक्वता अवधि वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रतिफल में क्रमश: 42 और 30 आधार अंकों की कमी आई । दीर्घकालिक समाप्ति पर 10 से 20 वर्ष की परिपक्वता के दायरे में सरकारी पेपर पर द्वितीयक बाज़ार प्रतिफलों में अप्रैल के 7.37-7.91 प्रतिशत से कमी आई और वे अक्तूबर 2002 तक 7.07-7.63 प्रतिशत हो गए ।

46. हाल की अवधि में अर्थव्यवस्था में विद्यमान अपेक्षाकृत कम ब्याज दरें मध्यावधि/ दीर्घावधि में बनी रह सकती हैं यदि मुद्रास्फीति की दर लगातार कम रहे । मौद्रिक, राजकोषीय और आपूर्ति प्रबंध की नीतियों का एक महत्वपूर्ण लक्ष्य अवश्य यह सुनिश्चित करना होना चाहिए कि अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीतिकारी दबाव पुन: न उभरें ।

47. हाल के वर्षों में रिज़र्व बैंक ने सरकारी प्रतिभूति बाज़ार को उसके प्राथमिक और द्वितीयक दोनों खंडों में गहन और व्यापक बनाने की दिशा में उल्लेखनीय कदम उठाए हैं । इनमें बांड निर्गमों में परिपक्वता अवधि के ढांचे को बढ़ाना, गैर-प्रतियोगी तौर पर बोली लगाने के माध्यम से सरकारी प्रंतिभूतियों का खुदरा लेनदेन तथा प्रयोगात्मक आधार पर एक समान मूल्य वाली नीलामियां प्रारंभ करना शामिल हैं । अधिकतम परिपक्वता अवधि को 1998-99 के 20 वर्ष से धीरे-धीरे बढ़ाकर 2002-03 में 30 वर्ष कर दिया गया । इसी समय, भारित औसत परिपक्वता अवधि 1995-96 के 5.7 वर्ष से काफी बढ़कर 2001-02 में 14.26 वर्ष हो गई । दूसरी ओर, इसी अवधि में निर्गम की औसत लागत 13.75 प्रतिशत से घटकर 9.44 प्रतिशत हो गई । इसके अलावा, अस्थायी दर वाले बांड जैसे लिखतों के माध्यम से और सरकारी प्रतिभूतियों में पुट/मांग वाले विकल्पों की अनुमति देकर कुछ नवोन्मेष उत्पाद भी प्रारंभ किए गए । अब तक प्राप्त अनुभव के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक बाजार की स्थितियों के आधार पर इस प्रकार के नवोन्मेष उत्पाद अधिक बारंबारता से जारी करने पर विचार करेगा ।

48. इस तथ्य को पहचानते हुए कि बैंकों के पास रखी गई जमाराशियों का एक बड़ा भाग नियत ब्याज दरों पर दीर्घकालिक जमा के रूप में है, अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में बैंकों से अनुरोध किया गया था कि वे जमाकर्ताओं को नियत दर का विकल्प उपलब्ध कराना जारी रखते समय नई जमाराशियों के लिए एक लचीली ब्याज दर प्रणाली शुरू करें । बैंकों से उपलब्ध सूचना से यह सुझाव मिलता है कि बैंक इस दिशा में प्रयास कर रहे हैं । उक्त नीतिगत वक्तव्य में बैंकों से यह भी अनुरोध किया गया था कि वे जमाकर्ताओं को अपनी मौजूदा दीर्घकालिक नियत दर वाली पुरानी जमाराशियों को परिवर्तनीय दर वाली जमाराशियों के रूप में बदलने के लिए प्रोत्साहित करें । यह अनुमान है कि आगे चलकर ऐसे प्रयासों से ब्याज दर संरचना में विद्यमान अधोमुखी अपरिवर्तनीयता को बैंक कुछ सीमा तक कम कर सकेंगे ।

49. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में जमाकर्ताओं और उधारकर्ताओं के संबंध में लागू वास्तविक ब्याज दरों के संबंध में उपभोक्ता सुरक्षा और पारदर्शिता पर बल दिया गया था । इसमें बैंकों से यह अनुरोध किया गया था कि वे मूल उधार दर (पीएलआर) पर अधिकतम अंतर की समीक्षा करें और जहां भी ब्याज दरें अनुचित रूप से अधिक हैं वहां उन्हें कम करें ताकि उधारकर्ताओं को ऋण उचित ब्याज दरों पर उपलब्ध हो सके । तदनुसार, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों से परामर्श करके उधारकर्ताओं के विषय में प्रभारित की जानेवाली अधिकतम और न्यूनतम ब्याज दरों पर एक सूचना प्रणाली निर्धारित की । उपलब्ध जानकारी के अनुसार, बैंकों द्वारा प्रभारित की जानेवाली अधिकतम और न्यूनतम ब्याज दरों में कुछ कमी आई है । जैसे ही डाटा प्रणाली स्थिर हो जाती है, यह जानकारी भारतीय रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर डाल दी जाएगी ।

50. घरेलू जमा दरों में अधिकाधिक लचीलेपन को प्रोत्साहन, मूल उधार दर पर अंतर में कमी तथा प्रभारित ब्याज दर के दायरे में पारदर्शिता से संबंधित उपायों से बैंकों के बीच स्वस्थ प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा देने के अलावा इनसे जमाकर्ताओं के लिए उपलब्ध बैंकिंग सुविधाओं में सुधार होने की आशा है और ये उपाय इन्हें बदलते समग्र वित्तीय और मुद्रास्फीति के परिवेश के प्रति अधिक संवेदनशील बनाते हैं । रिज़र्व बैंक इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए आगे भी प्रयास करता रहेगा और इस बारे में सुझावों का स्वागत करेगा ।

51. चालू वित्तीय वर्ष में अब तक, विनिमय दर पर बिना किसी ज्यादा दबाव के विदेशी मुद्रा बाजार में महत्वपूर्ण स्थायित्व दिखाई पड़ा। विदेशी मुद्रा बाजार के बारे में रिज़र्व बैंक आगे भी निगरानी, सतर्कता तथा लचीलेपन के इस दृष्टिकोण को अपनाए रखेगा। जहां तक संभव होगा, रिज़र्व बैंक अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर, अर्थव्यवस्था में बाह्य क्षेत्र का हिस्सा तथा जोखिम समायोजित पूंजी प्रवाह के अनुरूप प्रारक्षित निधि की मात्रा को सुनिश्चित करने का प्रयत्न करेगा ।

52. मूल्य स्थायित्व के अनुरूप, भारतीय रिज़र्व बैंक ऋण की सभी वैध आवश्यकताओं की पूर्ति को सुनिश्चित करना जारी रखेगा । इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए, भारतीय रिज़र्व बैंक चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) सहित खुला बाजार परिचालन (ओएमओ) के माध्यम से चलनिधि का सक्रिय मांग प्रबंधन, और आवश्यकतानुसार अपने विवेक पर नीतिगत लिखतों के प्रयोग की अपनी नीति को जारी रखेगा ।

53. वर्ष 2002-03 के दौरान औद्योगिक वृद्धि और निर्यात सकारात्मक बना रहा । वैश्विक मुद्रास्फीति के औसत स्तर वाले इस परिदृश्य में घरेलू अर्थव्यवस्था में मुद्रास्फीति की स्थिति अनुकूल बनी रही । अत: भारतीय रिज़र्व बैंक चालू वर्ष की बकाया छमाही के लिए 2002-03 के अप्रैल में घोषित नीतिगत वक्तव्य की मौद्रिक नीति के समग्र रुख को जारी रखने का प्रस्ताव करता है ।

III. वित्तीय क्षेत्र सुधार और मौद्रिक नीति उपाय

54. हाल के वर्षों में, भारतीय रिजॅर्व बैंक के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्यों और मध्यावधि समीक्षाओं का मुख्य उद्देश्य वित्तीय क्षेत्र में सुधार प्रकि्रया की प्रगति की समीक्षा और मूल्यांकन करना और भविष्य के लिए कुछ दिशा-निर्देश प्रदान करना रहा है । हाल के वर्षों में, वित्तीय व्यवस्था को मजबूती प्रदान करने के लिए संरचनागत उपायों पर जोर देते हुए व्यष्टि-विनियमन से समष्टि-प्रबंधन पर और वित्तीय बाजारों के विभिन्न खंडों की कार्यप्रणाली को सुधारने पर ध्यान केन्द्रित किया गया । इन वक्तव्यों में घोषित नीतिगत उपाय सामान्यत: मौद्रिक नीति की परिचालनात्मक दक्षता में वृद्धि, रिजॅर्व बैंक के विनियामक और पर्यवेक्षणात्मक कि्रयाकलापों में सुधार और वित्तीय क्षेत्र के तकनीकी तथा संस्थागत संरचना के विकास सहित विवेकपूर्ण और पर्यवेक्षण मानदंडों को मजबूती प्रदान करने और ऋण प्रदान करने की प्रणाली में सुधार करने पर केंद्रित हैं ।

55. रिजॅर्व बैंक विशेषज्ञों और बाजार-भागीदारों के साथ गहन विचार-विमर्श के पश्चात् सामान्यत: नए नीतिगत उपायों को अपनाने का कार्य करता है जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि प्रस्तावित उपाय सुगम और प्रभावी कि्रयान्वयन में सक्षम तथा सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के अनुरूप हैं ।

56. इस पृष्ठभूमि में, इस खंड के अभी तक कि्रयान्वित किए गए उपायों की प्रगति की समीक्षा करने का प्रयास किया गया है । इससे न केवल अभी तक प्रारंभ किए गए उपायों के परिमार्जन का कार्य शुरू होगा, अपितु आगे आनेवाली चुनौतियों से निबटने के लिए आवश्यकता पड़ने पर नए उपायों को शुरू करने में आसानी होगी ।

मौद्रिक उपाय

(क) बैंक दर

  • आज ( अक्तूबर 29, 2002) कारोबार की समाप्ति से 6.50 प्रतिशत की बैंक दर को 0.25 प्रतिशत अंक कम करने का प्रस्ताव है । इस स्तर पर, 1973 के बाद की यह न्यूनतम बैंक दर है ।

57. यह उल्लेखनीय है कि पिछले साढ़ेॅ चार वर्षों में बैंक दर को 11.0 प्रतिशत से 6.25 प्रतिशत तक अर्थात् 475 आधार बिंदुओं तक घटाया गया है । स्वतंत्रता के बाद बैंक दर में यह तीव्रतम कमी है । बैंक दर की इस तीव्र कमी से मांग मुद्रा दरों तथा खजाना बिल की दरों के साथ-साथ सभी परिपक्वताओं वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर लाभ में भी गिरावट आई है । 10 वर्ष की परिपक्वता वाली, संदर्भित सरकारी प्रतिभूतियों पर यह लाभ अब 7.07 प्रतिशत है जो 7.0 प्रतिशत से थोड़ा-सा अधिक है । सामान्य तौर पर तथा ‘वास्तविक’ रूप में (मुद्रास्फीति की वर्तमान दर के संबंध में) यह देखना उचित है कि बैंक दर, मांग मुद्रा दरें तथा सरकारी प्रतिभूतियों पर लाभ अब पूर्णत: यथोचित हैं ।

58. तथापि, हाल की अवधि में महत्वपूर्ण कमी के बावजूद बैंकों की औसत ऋण दरें लगातार बैंक दर तथा सरकारी प्रतिभूतियों पर लाभ से सामान्य तथा ’वास्तविक’ रूप में काफी अधिक रही हैं । यह विभिन्न संरचनात्मक कारणों से है, जिन पर पूर्व नीतिगत वक्तव्यों में बल दिया गया है (उदाहरणार्थ: बैंकों के पास पुरानी एवं मीयादी ब्याज दरों पर दीर्घावधि जमा का उच्चतर अनुपात, सापेक्षत:उच्चतर लेन-देन लागत तथा मीयादी जमा पर परिवर्तनीय ब्याज दरों के बदले जमाकर्ताओं की मीयादी ब्याज दरों के प्रति जारी अधिमानता) । संरचनात्मक स्वरूप तथा बैंक दर एवं बैंकों की ऋण दरों में वर्तमान अधिक अंतर की दृष्टि से बैंक दर में आगे किए जानेवाले परिवर्तनों के प्रति बैंकों की उधार दरों की संवेदनशीलता अब सापेक्षत: कमजोर हो गई है ।

59. इन परिस्थितियों में, जबकि बैंक दर तथा मांग मुद्रा एवं अन्य मुद्रा बाजार दरों का वर्तमान स्तर अत्यधिक सहज है तथा इन दरों एवं बैंकों की औसत ऋण दरों में अत्यधिक अंतर आ गया है, निकट भविष्य में बैंक दर में और कमी किए जाने से कोई उपयोगी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है । जब तक कि परिस्थितियां बदलती नही हैं, बैंक दर के संबंध में नीति की प्रवृति यही है कि बैंक दर को कम-से-कम इस वित्तीय वर्ष की समाप्ति तक वर्तमान स्तर पर ही जारी रखा जाएगा ।

 

(ख) रिपो दर

  • भारतीय रिजॅर्व बैंक की चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के अंतर्गत अक्तूबर 30, 2002 को उपलब्ध कराई जानेवाली रिपो दर को भी 0.25 प्रतिशत अंक कम किया जा रहा है । इसके बाद रिपोजॅ के लिए नीलामी की पद्धति पहले की तरह जारी रहेगी ।

60. यह स्मरण दिलाया जाता है कि जबकि रिपो नीलामियां बिना किसी पूर्व घोषित दर के संचालित की जाती हैं तथा बोलियां एकसमान मूल्य पद्धति के आधार पर स्वीकार की जाती हैं, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने ओवरनाइट के आधार पर नियत दर रिपोज्ॉ में परिवर्तन करने के विकल्प को कायम रखा है । इन विकल्पों में परिवर्तन करने के इस लचीलेपन का उपयोग भारतीय रिजर्व बैंक जारी रखेगा ताकि दैनिक चलनिधि प्रबंधन में एलएएफ प्रणाली का सक्षम उपयोग किया जा सके ।

(ग) आरक्षित नकदी निधि अनुपात - कटौती एवं युक्तिकरण

61. रिजॅर्व बैंक आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) को 3.0 प्रतिशत के सांविधिक न्यूनतम स्तर तक लाने के अपने मध्यावधि लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है । विवेकपूर्ण मानदंडों को लागू करने तथा चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) को परिचालित करने के क्षेत्रों में हुई प्रगति को ध्यान में रखते हुए, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने सीआरआर को अगस्त 1998 के 11.0 प्रतिशत से कम करके जून 2002 में, कतिपय छूटों को वापस लेते हुए, 5.0 प्रतिशत कर दिया है । साथ ही, विलंबित (एक पखवाड़े से) रखरखाव प्रणाली लागू करके सीआरआर बनाए रखने के तौर-तरीकाें में युक्तिकरण किया गया है । इसके अलावा भारतीय रिजॅर्व बैंक, बैंकों द्वारा बनाए रखे गए पात्र सीआरआर शेषों के लिए बैंक दर पर लाभ प्रदान करता है । सांविधिक न्यूनतम स्तर तक सीआरआर को लाने के अतिरिक्त उपाय के रूप में यह प्रस्ताव किया जाता है कि :

  • नवंबर 16, 2002 से प्रारंभ होनेवाले पखवाड़े से सीआरआर को 5.0 प्रतिशत से कम करके 4.75 प्रतिशत करना (इस कटौती के साथ पिछले दो वर्षों में सीआरआर में 3.75 प्रतिशत अंकों की कटौती हुई है। )

62. इस समय, बैंकों से यह अपेक्षा है कि वे अपेक्षित प्रारक्षित निधियों का न्यूनतम 50 प्रतिशत रिपोर्टिंग पखवाड़े के पहले सप्ताह में तथा न्यूनतम 65 प्रतिशत दूसरे सप्ताह में बनाए रखें । दैनिक रखरखाव पर बैंकों को दिए गए इस लचीलेपन के बावजूद, अधिकांश बैकों का वास्तविक दैनिक सीआरआर निर्धारित स्तर की तुलना में काफी ऊपर है । कम सीआरआर की ओर चलते समय, यह आवश्यक है कि अंतर-बैंक बाजार में बैंक प्रारक्षित निधियों की मांग को नियमित किया जाए तथा सीआरआर बनाए रखने में अस्थिरता को न्यूनतम किया जाए । इस दिशा में:

  • नवंबर 16, 2002 से प्रारंभ होनेवाले पखवाड़े से बैंकों को किसी पखवाड़े के दौरान अपेक्षित सीआरआर का 80 प्रतिशत दैनिक आधार पर बनाए रखना होगा । 80 प्रतिशत का यह न्यूनतम स्तर रिपोर्टिंग पखवाड़े के सभी दिनों के लिए लागू होगा ।

(घ) सीआरआर के अधीन भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास रखे गए नकदी शेषों पर ब्याज

63. वर्तमान में, सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों को सीआरआर की अपेक्षा के अधीन भारतीय रिजॅर्व बैंक के पास रखे गए पात्र नकदी शेषों पर ब्याज, बैंकों द्वारा प्रस्तुत तिमाही ब्याज दावा विवरण के आधार पर, भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा उसकी विस्तृत छानबीन किए बिना, बैंक दर पर दिया जाता है । ऐसे ब्याज का भुगतान सभी बैंकों को तिमाही की समाप्ति से एक महीने के अंदर किया जाता है । विनियम समीक्षा प्राधिकरण की सिफारिशों के आधार पर यह निर्णय लिया गया है कि :

  • अप्रैल 2003 से पात्र सीआरआर शेषों पर ब्याज का भुगतान मासिक आधार पर किया जाए । इसे सुविधाजनक बनाने के लिए बैंकों से अपेक्षा की जाती है कि वे फार्म ‘ए’ के आंकड़ों को भारतीय रिजॅर्व बैंक तक सीधे प्रेषित करने के लिए मदद करनेवाला साफटवेयर पैकेज अपनाएं तथा संबंधित उचित प्रौद्योगिकी स्थापित करें ।

(ङ) क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों का सांविधिक चलनिधि अनुपात

64. क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) से अपेक्षा की गई थी कि वे अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) के 25 प्रतिशत पर, नकदी में या स्वर्ण या भार-रहित सरकारी तथा अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में सांविधिक चलनिधि अनुपात बनाए रखें । इस संबंध में, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा अपने प्रायोजक बैंकों के पास मांग या मीयादी जमा के रूप में बनाए रखे गए शेषों को ‘नकदी’ के रूप में माना जाता था जिसके फलस्वरूप उनके द्वारा सांविधिक चलनिधि अनुपात के अनुरक्षण के लिए उसकी गणना की जाती थी । विवेकपूर्ण उपाय के रूप में यह वांछनीय माना गया था कि सभी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक अपने संपूर्ण सांविधिक चलनिधि अनुपात का संविभाग सरकारी तथा अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में रखें । तदनुसार, अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में, यह निर्णय लिया गया कि सभी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को मार्च 31, 2003 तक अपने प्रायोजक बैंक के पास रखी गई अपनी वर्तमान जमाओं को सरकारी प्रतिभूतियों में परिवर्तित करके अपनी संपूर्ण सांविधिक चलनिधि अनुपात से संबंधित धारित राशि को सरकारी तथा अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में बनाए रखना है । जबकि कई क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने पहले ही सरकारी प्रतिभूतियों में सांविधिक चलनिधि अनुपात के अनुरक्षण का न्यूनतम स्तर प्राप्त किया है, कुछ क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा उनके प्रायोजक बैंकों ने सांविधिक चलनिधि अनुपात के प्रयोजन के लिए संगणित जमाओं के समयपूर्व आहरण के संबंध में कुछ कठिनाइयां व्यक्त की हैं । तदनुसार, यह निर्णय लिया गया है कि :

  • प्रायोजक बैंकों के पास एसएलआर की धारित राशि के रूप में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों द्वारा रखे गए मार्च 31, 2003 के बाद परिपक्व होनेवाली जमाओं को परिपक्वता की तारीख तक रखने की अनुमति दी जाए । इन जमाओं को, परिपक्वता पर, सरकारी प्रतिभूतियों में ऐसी स्थिति में परिवर्तित किया जाए जहां संबंधित क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों ने उस समय तक सरकारी प्रतिभूतियों में 25 प्रतिशत का न्यूनतम सांविधिक चलनिधि अनुपात प्राप्त नहीं किया हो ।
  • यद्यपि अप्रैल 30, 2002 से पूर्व प्रायोजक बैंकों से संविदा की गई जमाएं परिपक्वता तक सांविधिक चलनिधि अनुपात के प्रयोजन के लिए संगणित की जाएँगी, फिर भी क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को सूचित किया जाता है कि वे अपने प्रायोजक बैंकों के पास रखी गई ऐसी जमाओं की परिपक्वता प्राप्तियों तथा वर्धमान सार्वजनिक जमाराशियों से, सरकारी प्रतिभूतियों में 25 प्रतिशत सांविधिक चलनिधि अनुपात का अनुरक्षण करने का लक्ष्य शीघ्रताशीघ्र प्राप्त करें ।

ब्याज दर नीति

(क) ब्याज दरों में लचीलापन

65. हाल ही के मौद्रिक नीति संबंधी वक्तव्यों में ब्याज दरों के ढांचे में विशेष रूप से वाणिज्य बैंकों की उधार दरों में जड़ता उत्पन्न करने वाले घटकों की ओर ध्यान आकर्षित किया गया है जिनमें, अन्य मदों के साथ-साथ क) वाणिज्य बैंकों द्वारा संविदागत स्थिर दर की जमाराशियां; ख) निधियों की उच्च औसत लागत तथा ब्याज से इतर परिचालन व्यय; ग) बड़ी संख्या में अनर्जक परिसंपत्तियां; घ) छोटी बचत राशि और भविष्य निधि पर ब्याज दरों का विनियमन; और ङ) सरकार के निरंतर और बड़ी संख्या में बाजार उधार कार्यक्रम भी सम्मिलित हैं ।

66. वाणिज्य बैंकों की अनर्जक परिसंपत्तियों, परिचालनगत व्यय तथा निधियों की लागत में कुछ सुधार हुआ है । सरकारी क्षेत्र के बैंकों की सकल अनर्जक आस्तियां सकल अग्रिमों की प्रतिशतता के रूप में मार्च 2001 के 12.4 प्रतिशत कम होकर मार्च 2002 में 11.1 प्रतिशत हो गईं । इसी अवधि के दौरान अग्रिमों की प्रतिशतता के रूप में निवल अनर्जक परिसंपत्तियां 6.7 प्रतिशत से कम होकर 5.8 प्रतिशत हो गईं । सरकारी क्षेत्र के बैंकों का ब्याज से इतर अन्य परिचालन संबंधी व्यय परिसंपत्तियों के प्रतिशत के रूप में 2000-01 के 2.72 प्रतिशत से घटकर 2001-02 में 2.29 प्रतिशत हो गया। सरकारी क्षेत्र के बैंकों की निधियों की समग्र लागत भी 2000-01 के 6.8 प्रतिशत से कम होकर 2001-02 में 6.7 प्रतिशत हो गई । यह एक उत्साहवर्धक परिवर्तन है क्योंकि इससे इन मापदंडों में और सुधार लाने तथा वाणिज्य बैंकों की लेन-देन की लागत और उधार दरों में कमी लाने की गुंजाइश हो गई है ।

67. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति वक्तव्य में इन मुद्दों की समीक्षा की गई और कुछ सुझाव दिए गए; जिनमें अन्य सुझावों के साथ-साथ: क) सभी नई जमाराशियों पर छमाही अंतराल पर ब्याज दर लगाकर लचीली ब्याज दर प्रणाली (स्थिर दर विकल्प के साथ) लागू करना; और ख) बैंकों को इस योग्य बनाना कि वे पहले से निश्चित अवधि के लिए वर्तमान दीर्घावधि जमाराशियों पर संविदागत दरों पर ब्याज अदा कर सकें तथा अवधि समाप्त होने से पहले जमाराशियों का आहरण करने पर यदि उनका नवीकरण परिवर्ती दर पर किया जाता है तो दंड में छूट प्रदान कर सकें ।

68. लचीलेपन में और सुधार लाने के उद्देश्य से बैंकों को यह स्वतंत्रता दी गई है कि वे परिवर्ती दर की जमाराशियों की अवधि पुन: निर्धारित कर सकें । अद्यतन उपलब्ध सूचना के अनुसार कुछ बैंकों ने जमाराशियों पर परिवर्ती ब्याज दरें पहले ही लागू कर दी हैं । हालांकि परिवर्ती दर वाली जमाराशियों के संबंध में जमाकर्ताओं की प्रतिक्रिया अब तक बहुत अच्छी नहीं रही; बैंकों को जमाकर्ताओं के बीच लचीली जमा योजनाओं को लोकप्रिय बनाने के प्रयास करने हेतु प्रोत्साहित किया गया क्योंकि ये योजनाएं दीर्घावधि में बैंकों के साथ-साथ जमाकर्ताओं के भी हित में होंगी ।

(ख) मूल ब्याज दर और अंतर

69. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति वक्तव्य से स्पष्ट होता है कि कुछ बैंकों की मूल उधार दरों में पर्याप्त अंतर है । अत: बैंकों से कहा गया कि वे मूल उधार दरों में अधिकतम अंतर की समीक्षा करें और जहां कहीं भी वे बहुत ज्यादा हैं, उन्हें कम करें । कुछ बैंकों ने अपने अधिकतम अंतर को थोड़ा-सा कम किया है । भारतीय रिज़र्व बैंक मूल उधार दर के अधिकतम अंतर के साथ-साथ उन उधार दरों की निगरानी कर रहा है जिन पर नई सूचना प्रणाली के अंतर्गत अधिकतम व्यापार किया गया है । अद्यतन प्राप्त सूचना के अनुसार बैंकों/बैंक समूहों में मूल उधार दर और अंतराल में बहुत विषमता है । आदर्श रूप से, प्रतिस्पर्धा वाले बाजार में विभिन्न बैंकों/ बैंक समूहों के बीच मूल उधार दर से ऋण बाजार की स्थितियों की झलक मिलनी चाहिए । इसके अतिरिक्त, मूल उधार दर का अंतर उचित होना चाहिए । कम मुद्रास्फीति के वर्तमान परिवेश में, बहुत अधिक अंतर से बैंकों के समग्र ऋण संविभाग प्रतिवूल रूप में प्रभावित हो सकता है । साथ ही, बहुत अधिक अंतर से गैर-पारदर्शिता के अवसर उत्पन्न होते हैं । ऋणों का कीमत-निर्धारण सुनिश्चित करने के लिए बैंकों को प्रोत्साहित किया जाता है कि वे अपनी मूल ब्याज दरों और अंतर की समीक्षा करें तथा अपने बोड़ के अनुमोदन पर मूल उधार दर की उचित सीमा में अंतर रखें ।

(ग) सहकारी बैंकों/क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों/स्थानीय
क्षेत्र बैंकों द्वारा जमाराशियों पर ब्याज दरें

70. बचत खातों की जमाराशियों को छोड़कर सभी जमाराशियों से संबंधित ब्याज दरों पर से विनियमन हटा लिया गया है, फिलहाल बचत खातों के लिए रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित दर 4.0 प्रतिशत है । लेकिन क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों/स्थानीय क्षेत्र बैंकों को यह विवेकाधिकार दिया गया है कि वे अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के लिए निर्धारित ब्याज दर से आधा प्रतिशत वार्षिक अतिरिक्त ब्याज दर दे सकते हैं । इसी प्रकार शहरी सहकारी बैंकों को अपने पास रखी बचत जमाराशियों पर अधिक से अधिक एक प्रतिशत अतिरिक्त ब्याज अदा करने की अनुमति दी गई है ।

71. अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को उनके पास रखे गए चालू खातों पर ब्याज अदा करने की अनुमति नहीं है । लेकिन प्रायोजक बैंकों को अपने प्रायोजित क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के चालू खाते में रखी जमाराशियों पर परस्पर सहमत दर पर ब्याज अदा करने का विवेकाधिकार दिया गया है । उसी प्रकार, सहकारी बैंकों (शहरी/मध्यवर्ती/राज्य) को चालू खातों पर अपने विवेकानुसार अधिक से अधिक आधा प्रतिशत वार्षिक ब्याज दर देने की अनुमति है ।

72. उक्त विवेकाधिकार संबंधी प्रावधानों से सामान्यत: संबंधित संस्थाओं की जमाराशियों की लागत बढ़ जाती है । उपर्युक्त विसंगतियों को दूर करने के लिए सुझाव है कि निम्नलिखित उपायों को यथाशीघ्र कार्यान्वित किया जाए :

  • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों/स्थानीय क्षेत्र बैंकों को बचत बैंक खातों पर वाणिज्य बैंकों से अधिक कोई अतिरिक्त ब्याज नहीं अदा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ।
  • सहकारी बैंकों को चालू खातों पर ब्याज नहीं देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ।
  • प्रायोजक बैंकों को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की उनके पास चालू खाते में रखी जमाराशियों पर ब्याज नहीं देने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ।

(घ) रुपया निर्यात ऋण पर ब्याज दरें

73. अप्रैल 2001 में रुपए में निर्यात ऋण संबंधी ब्याज दरों को युक्तिसंगत बनाया गया और मूल उधार दर से जुड़े लदान-पूर्व तथा लदानोत्तर ऋणों के लिए अधिकतम सीमाएं निर्धारित की गईं । असाधारण अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं को देखते हुए सितंबर 26, 2001 से, अस्थायी तौर पर, 180 दिन तक के लदान-पूर्व ऋण और 90 दिन तक के लदानोत्तर ऋण के लिए निर्यात ऋण संबंधी उच्चतम दरों को मूल उधार दरों से 2.5 प्रतिशत अंक कम कर दिया गया तथा 180 दिन से अधिक और 270 दिन तक वाले पोतलदान-पूर्व ऋण एवं 90 दिन से अधिक और 180 दिन तक के लदानोत्तर ऋण से संबंधित निर्यात ऋण दरों को मूल उधार दर से 0.5 प्रतिशत अंक अधिक कर दिया गया । निर्यातकों को अंतर्राष्ट्रीय तौर पर प्रतियोगी दरों के अनुरूप कम ब्याज दरों पर ऋण उपलब्ध कराने के लिए इस नीतिगत उपाय की वैध अवधि को शुरू में सितंबर 30, 2002 तक और बाद में अप्रैल 30, 2003 तक बढ़ा दिया गया ।

74. दो समय-खंडों से संबंधित रुपयों में निर्यात ऋण की उच्चतम दरों के बीच का अंतर 3 प्रतिशत अंकों पर है जो अत्यधिक है । अनेक मामलों में रुपयों में निर्यात ऋण पर बैंकों द्वारा प्रभारित की गई वास्तविक ब्याज दरें वास्तव में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित उच्चतम सीमाओं से कम हैं । इसके अलावा, 180 दिन से अधिक और 270 दिन तक के पोतलदानपूर्व ऋण तथा 90 दिन से अधिक और 180 दिन तक के पोतलदानोत्तर ऋण के लिए मूल उधार दर (पीएलआर) से ऊपर 50 आधार अंकों की उच्चतम सीमा का महत्व बैंकों को ऋण के लिए पात्र अपने उधारकर्ताओं को पीएलआर से कम दरों पर उधार देने के लिए दी गई स्वतंत्रता को देखते हुए नहीं रह गया है । उत्कृष्ट उधारकर्ता होने के कारण निर्यातक सामान्यत: पीएलआर से कम दरों पर निर्यात ऋण प्राप्त कर सकते हैं ।

75. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में यह निर्दिष्ट किया गया था कि वर्तमान परिस्थितियों में निर्यात ऋण पर घरेलू ब्याज दरों को पीएलआर के साथ संबद्ध करना अनावश्यक हो गया है क्योंकि रुपयों में निर्यात ऋण पर प्रभावी ब्याज दरें पीएलआर से बहुत कम हैं । इसलिए, रुपयों में निर्यात ऋण पर उच्चतम ब्याज दरों को अविनियमित करने तथा उसके द्वारा अच्छे पिछले रिकाड़ वाले निर्यातकों को निम्नतर ब्याज दरों पर इस प्रकार का ऋण प्रदान करने के लिए बैंकों के बीच अधिकाधिक स्पर्धा को प्रोत्साहित करने हेतु एक प्रस्ताव चर्चित रहा । इस दिशा में, तथा बैंकों के बीच प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने के उद्देश्य से और साथ ही निर्यात क्षेत्र को ऋण की उपलब्धता में वृद्धि करने के लिए रुपयों में निर्यात ऋण पर ब्याज दरों को दो चरणों में उदारीकृत करने का प्रस्ताव है । तदनुसार, यह प्रस्ताव किया जाता है कि :

  • पहले चरण में, 180 दिन से अधिक और 270 दिन तक के लदानपूर्व ऋण एवं 90 दिन से अधिक और 180 दिन तक के लदानोत्तर ऋण पर पीएलआर से 0.5 प्रतिशत अंक अधिक की उच्चतम सीमा को मई 1, 2003 से अविनियमित किया जाएगा । बैंकों को अपने निदेशक बोर्डों के अनुमोदन के अधीन पीएलआर अथवा पीएलआर से कम दरें प्रभारित करने के लिए स्वतंत्रता होगी ।
  • दूसरे चरण में, बाद में घोषित की जानेवाली किसी तारीख से यह विचार किया जाएगा कि क्या निर्यातों के हित में अधिकाधिक प्रतिस्पर्धा को प्रोत्साहित करने के लिए 180 दिनों तक के पोतलदानपूर्व ऋण और 90 दिनों तक के पोतलदानोत्तर ऋण पर उच्चतम दरें समाप्त कर दी जानी चाहिए ।

(ड.) निर्यात ऋण की चुकौती में लचीलापन

76. वर्तमान में, माल के पोतलदान के बाद खरीदे गए/भुनाए गए निर्यात बिलों से, किसी निर्यातक को स्वीकृत पोतलदानपूर्व ऋण समाप्त हो जाता है । निर्यातकों/निर्यात संगठनों से प्राप्त अभिवेदनों के आधार पर यह निर्णय लिया गया है कि :

  • निर्यातक और बैंकर के बीच आपसी समझौते के अधीन अब से लदानपूर्व ऋण की चुकौती/पूर्व चुकौती की अनुमति दी जाएगी । इस प्रयोजन के लिए निर्यातक के विदेशी मुद्रा अर्जक विदेशी मुद्रा (ईईएफसी) खाते में रखी हुई शेष राशियों का भी इस्तेमाल किया जा सकता है ।

निर्यातकों को सूचित किया जाता है कि वे इस सुविधा का उपयोग करते समय निर्यात से होनेवाली आय को निर्धारित अवधि के भीतर प्रत्यावर्तित करने संबंधी चालू विनियमावली का दृढ़ता से पालन करें । विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत अलग से जारी किए जा रहे हैं । यह सुविधा अगली सूचना तक उपलब्ध रहेगी ।

(च) विदेशी मुद्रा अनिवासी खाता (बी) की जमाराशियों पर ब्याज दर

77. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में, विदेशी मुद्रा अनिवासी खाता (बी) की जमाराशियों पर उच्चतम दरों में लंदन अंतर-बैंक प्रस्ताव दर (लाइबोर)/स्वैप दरों की तुलना में संबंधित परिपक्वताओं के लिए 25 अंक तक अधोगामी संशोधन किया गया । बहुत कम लंदन अंतर-बैंक प्रस्ताव दर/स्वैप दरों के कारण येन जमाराशियों की कीमत निर्धारण में हो रही परेशानियों के बारे में बैंकों से प्राप्त प्रतिवेदनों के मद्देनजर येन जमाराशियों की उच्चतम दर को शिथिल किया गया । अगली सूचना तक बैंक उन विदेशी मुद्रा अनिवासी खाता (बी) की जमा दरों को निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र हैं जिनका मूल्य अंकन येन में है और जो लाइबोर/स्वैप दरों की तदनुरूपी परिपक्वताओं के बराबर या कम हैं । अन्य मुद्राओं में मूल्यवर्गीकृत विदेशी मुद्रा अनिवासी खाता (बी) की जमाराशियों पर ब्याज की उच्चतम दर में कोई परिवर्तन नहीं होगा तथा यह लाइबोर/स्वैप दर की तदनुरूपी परिपक्वता से 25 आधार अंक कम के स्तर पर बनी रहेगी ।

अल्पकालिक चलनिधि निर्धारण प्रतिरूप

78. जैसाकि अप्रैल, 2002 की वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में दर्शाया गया है, प्रख्यात अकादमिक विशेषज्ञों के मार्गदर्शन में तैयार, वर्तमान में एक अल्पकालिक चलनिधि पूर्वानुमान प्रतिरूप (मॉडल) आंतरिक मूल्यांकन और सूचनार्थ प्रयोग किया जा रहा है । इस मॉडल का सामान्य फार्म व्यापक तौर पर सार्वजनिक विचार-विमर्श के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर उपलब्ध करा दिया गया है । चूंकि इस तरह के तकनीकी कार्य में निरंतर परिमार्जन अपेक्षित होते हैं, अत: भारतीय रिज़र्व बैंक इस मॉडल पर राय/सुझावों का स्वागत करता है ।

मुद्रा बाज़ार

79. मुद्रा बाज़ार के विभिन्न खंडों के संतुलित विकास के साथ-साथ इसके एकीकृत स्वरूप तथा उसकी पारदर्शिता को बनाए रखने के लिए कई संरचनागत उपाय शुरू किए गए हैं । इन उपायों को लागू करते समय, अन्य बाजार खंडों और भुगतान व्यवस्था की आधारभूत संरचना के विकास में हुई प्रगति को ध्यान में रखना वांछनीय है ।

80. मीयादी धन और रिपो बाजार के विकास को सुगम बनाने और वित्तीय व्यवस्था की विश्वसनीयता को बनाए रखने के उद्देश्य से, अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में बैंकों के उधार देने और लेने, दोनों पर विवेकपूर्ण सीमा निर्धारित करने का प्रस्ताव किया गया है । चुनिंदा बैंकों के साथ विचार-विमर्श करने के पश्चात भारतीय रिज़र्व बैंक ने जून 27, 2002 को एक परिपत्र जारी कर इन सीमाओं को निर्धारित किया । अक्तूबर 5, 2002 को शुरू हुए पखवाड़े से ये शर्तें दो चरणों में प्रभावी हुईं । ऐसा प्रस्ताव है कि मुद्रा बाजार की गतिविधियों की समीक्षा के लिए नवंबर 2002 के उत्तरार्द्ध में चुनिंदा बैंकों के प्रतिनिधियों की बैठक बुलाई जाए । रिपोर्टिंग पखवाड़े के औसत आधार पर, गैर-बैंक 2000-01 की उनकी औसत उधारी के 85 प्रतिशत तक अगली सूचना मिलने तक, उधार देना जारी रख सकते हैं ।

81. यह भी निर्धारित किया गया कि राज्य सहकारी बैंकों (एससीबी) और जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों की मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में दैनिक उधार राशियाँ पिछले वित्तीय वर्ष के मार्च की समाप्ति पर उनकी सकल जमाराशियों के 2.0 प्रतिशत से अधिक न हों । तद्नुसार, मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में उनके लेन-देन की दैनिक आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निगरानी की जाती है ।

82. मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में प्राथमिक व्यापारियों (पीडी) की सीमाएं निर्धारित करने हेतु मानदंडों की सिफारिश करने और अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य के अनुरूप, इस बाजार से उन्हें बाहर करने के उपाय सुझाने के लिए एक कार्य दल का गठन किया गया । इस कार्य दल के रिपोर्ट प्रस्तुत करने के पश्चात् भारतीय रिज़र्व बैंक ने जुलाई 31, 2002 को आवश्यक अनुदेश जारी कर दिए । तद्नुसार, अक्तूबर 5, 2002 से प्राथमिक व्यापारियों को उनके निवल स्वामित्व निधि (एनओएफ) का 25 प्रतिशत मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में उधार देने की अनुमति दे दी गई । तथापि, प्राथमिक व्यापारियों द्वारा मांग/नोटिस मुद्रा बाजार से उधार लेने की विवेकपूर्ण सीमा दो चरणों में प्रभावी होगी जिनमें रिपो बाजार की कुछ सशर्त गतिविधियां जैसे कि : एकसमान लेखा और रिपो के लिए प्रलेखीकरण प्रक्रिया को अंतिम रूप देना, रिपो को जारी रखने (रोलओवर) को अनुमति देना, संपार्श्वीय उधार देने ओर लेने की बाध्यताओं (सीबीएलओ) को लागू करना, बिक्री के लिए उपलब्ध श्रेणी में से रिपो की अनुमति प्रदान करना इत्यादि शामिल हैं ।

83. प्राथमिक व्यापारियों से प्राप्त प्रतिवेदनों के उत्तर में, और नए विवेकपूर्ण मानदंडों के तहत मुद्रा बाजार के सुगम अंतरण और क्रियाविधि को सुचारु बनाने के उद्देश्य से, प्राथमिक व्यापारियों को औसत पाक्षिक आधार पर उनके एनओएफ के 25 प्रतिशत की सीमा तक मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में उधार देने की अनुमति दी गई ।

(क) स्थायी सुविधाओं का युक्तिकरण

84. चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) का दैनिक आधार पर प्रणालीबद्ध चलनिधि के समायोजन के लिए प्रमुख साधन के रूप में आविर्भाव होने से, निर्यात ऋण पुनर्वित्त (ईसीआर) सुविधा और संपार्श्विकीय उधार देने की सुविधा (सीएलएफ) युक्त बैंकों की स्थायी सुविधाओं के प्रयोग में हाल ही में महत्वपूर्ण कमी आई है । अक्तूबर 5, 2002 से सीएलएफ को पूरी तरह हटा देने के पश्चात् केवल ईसीआर स्थायी सुविधा ही बची है ।

85. वर्तमान में, ईसीआर सुविधा की कुल सीमा को दो भागों में विभाजित किया गया है --सामान्य सुविधा (कुल सीमा का दो-तिहाई हिस्सा) और बैक-स्टाप सुविधा (बाकी एक-तिहाई हिस्सा) । सामान्य सुविधा बैंक दर पर उपलब्ध है । बैक-स्टाप सुविधा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा समय-समय पर घोषित परिवर्तनीय दर पर उपलब्ध है (वर्तमान में 8.75 प्रतिशत), जो कि एलएएफ परिचालन या एनएसई-माइबोर से संबद्ध है ।

86. अर्थव्यवस्था में वर्तमान चलनिधि की स्थिति के मद्देनजर समीक्षाधीन वर्ष के दौरान अब तक ईसीआर सुविधा का उपयोग बहुत कम हुआ । बाजार को सहारा देने के लिए एलएएफ बहुत ही प्रभावी उपाय के रूप में उभरा है। अत:, कम सीआरआर वाले माहौल में क्षेत्र-विशेष की मानक सुविधाओं को समाप्त करने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के दृष्टिकोण से, यह प्रस्ताव किया जाता है कि :

  • सामान्य और बैक-स्टाप सुविधाओं का नए सिरे से अंश निर्धारण कर दिया जाए । नवंबर 16, 2002 को शुरू होने वाले पखवाड़े से इनके वर्तमान दो-तिहाई और एक-तिहाई (67:33) के अनुपात को बदलकर आधा-आधा (50:50) कर दिया जाए ।

(ख) जमाराशि प्रमाणपत्र

87. निवेशकों का आधार बढ़ाने के उद्देश्य से, जून 2002 में बैंकों और वित्तीय संस्थाओं (एफआइ) द्वारा एकल निवेशक को जारी किए जाने वाले जमाराशि प्रमाणपत्रों की न्यूनतम मात्रा को घटाकर 1 लाख रुपए और 1 लाख रुपए के गुणकों तक कर दिया गया । अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य की घोषणा के अनुरूप, जून 20, 2002 को नियत आय मुद्रा बाजार एवं व्युत्पन्नी संघ (फिम्डा) जमाराशि प्रमाणपत्रों को जारी करने की मानक प्रणाली, प्रलेखीकरण और परिचालन संबंधी दिशानिर्देश जारी किए । बेहतर पारदर्शिता लागू करने और द्वितीयक बाजार लेन-देनों को बढ़ावा देने के उद्देश्य से, वर्तमान बकाया जमाराशि प्रमाणपत्रों को अक्तूबर 2002 तक डीमैट रूप में परिवर्तित करना अपेक्षित है । विद्यमान विनियमों के अनुसार, जमाराशि प्रमाणपत्रों को अंकित मूल्य से बट्टे पर जारी करना अपेक्षित है और जारीकर्ता बैंक बट्टा दर निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र हैं । जमाराशि प्रमाणपत्र के मूल्य-निर्धारण में ज्यादा लचीलापन प्रदान करने और निवेशक तथा जारीकर्ता दोनों को अतिरिक्त विकल्प प्रदान करने के उद्देश्य से, यह प्रस्ताव है कि:

  • बैंक और वित्तीय संस्थाएँ अस्थिर दर आधार पर जमाराशि प्रमाणपत्र जारी कर सकते हैं, बशर्ते अस्थिर दर की गणना की विधि वस्तुनिष्ठ, पारदर्शी और बाजार-आधारित हो ।

(ग) ओटीसी रुपए व्युत्पन्नियाँ

88. विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम (फेमा), 2000 बैंकों को स्वैप, आप्शंस, कैप्स, कॉलर्स और फारवड़ रेट करारों जैसे जोखिम प्रबंध उपायों की अनुमति देता है ताकि शेयर बाजार बाह्य क्रय-विक्रय (ओटीसी) बाजार में लगी विदेशी मुद्रा देयताओं में शामिल ब्याज दर जोखिमो से बचाव किया जा सके । सेबी ने सूचकांक और अलग-अलग स्टाक एक्सचेंजों में आप्शन के प्रयोग की अनुमति दी है । ओटीसी रुपए व्युत्पन्नियों के मामले में, जुलाई 1999 से भारतीय रिज़र्व बैंक ने अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर), प्राथमिक व्यापारियों और अखिल भारतीय वित्तीय संस्थाओं को फारवड़ रेट करार/ब्याज दर स्वैप (एफआरए/आइआरएस) को अपने तुलन-पत्रक प्रबंधन और बाजार निर्माण के लिए ’प्लेन वैनिला’ उत्पादों के रूप में अपनाने की अनुमति प्रदान की । तब से, एफआरए/आइआरएस बाजार की मात्रा में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई । इसमें सितंबर 2002 तक 5,700 संविदाओं में 1,32,000 करोड़ रुपए की अनुमानित मूल राशि लगी हुई थी । रुपया व्युत्पन्नी बाजार में बैंकों और अन्य वित्तीय मध्यस्थों के साथ-साथ कंपनियों के ब्याज दर जोखिमों के प्रबंधन के दायरे को विस्तार देने के उद्देश्य से, यह प्रस्ताव है कि :

  • अन्य बातों के साथ-साथ, विदेशी मुद्रा खंड में उपलब्ध व्युत्पन्नियों (डेरिवेटिव्स) को रुपए व्युत्पत्नों के प्रकारों में विस्तारित करने के संभावित उपायों पर ध्यान देने के लिए बाजार से उपयुक्त प्रतिनिधियों के साथ कार्य-दल गठित किया जाए ।

सरकारी प्रतिभूति बाजार

89. सरकारी प्रतिभूति बाजार में अधिक पारदर्शिता एवं स्थायित्व लाने के प्रयास में भारतीय रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2002-03 के दौरान अब तक कई उपाय किए हैं । अन्य बातों के साथ-साथ, इन उपायों में भारत सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों के लिए छमाही कैलेंडर की घोषणा, अमूर्तीकृत रूप में थोक एवं खुदरा निवेशकों द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों को अनिवार्य तौर पर धारण करना, भारतीय रिज़र्व बैंक वेबसाइट पर लगभग तत्काल एनडीएस संबंधी आंकड़े प्रसारित करना शामिल हैं । भारतीय रिज़र्व बैंक, सरकारी प्रतिभूतियों की फुटकर खरीद के प्रोत्साहन द्वारा पर सरकारी प्रतिभूति बाजार के निवेशक आधार में वृद्धि लाने हेतु लगातार प्रयास करता रहा है । पुन: सरकारी प्रतिभूतियों के निर्गमकर्ता एवं निवेशकों, दोनों को स्ट्रिप्स लागू किए जाने, अस्थिर दर के बांडों तथा मांगे/रखे जाने (पुट) के विकल्प वाले बांडों के माध्यम से अधिक लचीलापन देने के प्रयास किए गए हैं । इस दिशा में प्रगति की समीक्षा नीचे की गई है ।

(क) दिनांकित प्रतिभूतियों के निर्गम के लिए कैलेंडर

90. संस्थागत तथा खुदरा निवेशकों को बेहतर तरीके से अपने निवेशों की योजना तैयार करने तथा सरकारी प्रतिभूति बाजार में और पारदर्शिता एवं स्थायित्व लाने के लिए वर्तमान राजकोषीय वर्ष 2002-03 के दौरान भारत सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों के लिए कैलेंडर जारी किए जाने की प्रणाली को लागू किया गया है । प्रथम छमाही (अप्रैल-सितंबर) के लिए कैलेंडर की घोषणा मार्च 27, 2002 को की गई थी । सामान्यत: नीलामी के समय, जुटाई गई राशि तथा अनुसूचित निर्गमों से प्रतिभूतियों की अवधि से संबंधित छोटे-छोटे परिवर्तनों के साथ इस कैलेंडर का पालन किया जाता था । इसी क्रम में भारतीय रिज़र्व बैंक ने, सरकार से विचार-विमर्श के साथ, वर्ष 2002-03 की दूसरी छमाही (अक्तूबर-मार्च) के लिए कैलेंडर की घोषणा दिनांक सितंबर 18, 2002 को कर दी है । भविष्य में, प्रत्येक छमाही में कैलेंडर की घोषणा की जाएगी । वर्ष की दूसरी छमाही के लिए कैलेंडर, सरकार के बजटीकृत (अर्थात् बजट आकलनों के अनुसार) उधार कार्यक्रम पर आधारित होगा जो सामान्यत: जनवरी में पूरा कर लिया जाता है, जैसा कि पिछले अनुभवों के आधार पर निर्धारित किया गया है।

(ख) अमूर्तीकृत रूप में सरकारी प्रतिभूतियां धारण करना

91. कुछ सहकारी बैंकों द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों में उनके लेन-देन के संबंध में पाई गई अनियमितताओं की दृष्टि से भारतीय रिज़र्व बैंक ने वाणिज्यिक बैंकों, सहकारी बैंकों, प्राथमिक व्यापारियों, वित्तीय संस्थाओं, स्थानीय क्षेत्र के बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों तथा गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को अमूर्तीकृत स्वरूप में सरकारी प्रतिभूतियों को धारण करने के अनुदेश दिए हैं तथा भौतिक रूप में लेन-देन की संभावना को कम किए जाने के उपाय सुझाए हैं ।

92. इसके अतिरिक्त, भारतीय रिज़र्व बैंक, अन्य निवेशकों यथा- भविष्य निधियां, न्यास, व्यक्तियों आदि के द्वारा अभिरक्षकों के पास श्रेष्ठ प्रतिभूति खाते में अमूर्र्तीकृत रूप में सरकारी प्रतिभूतियां धारित किए जाने को भी प्रोत्साहित करता रहा है । ऐसे निवेशक, अपने प्राधिकृत अभिरक्षकों से आवधिक रूप में खाते का एक विवरण प्राप्त किए जाने के हकदार हैं । अभिरक्षकों को अपने ग्राहकों को प्रामाणिक सूचना दिए जाने तथा भारतीय रिज़र्व बैंक में समेकित निवेश खाते के साथ उनकी बहियों के नियमित समाधान पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिए । अभिरक्षकों से यह भी अपेक्षा की जाती है कि वे अभिरक्षक खातों में लेन-देन को कड़ी लेखा-परीक्षा व्यवस्था के अधीन कर दें ।

(ग) प्राथमिक व्यापारी

93. गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के एक वर्ग के रूप में प्राथमिक व्यापारी क्रमश: महत्वपूर्ण हो गए हैं क्योंकि (क) उनकी संख्या अब अधिक हो गई है, (ख) वे अधिकांशत: अल्पावधि निधियों तथा तुलनात्मक रूप से उच्चतर ब्याज दर जोखिमवाली सुविधाप्राप्त कंपनियां हैं, (ग) सरकारी प्रतिभूति बाजार में उनका हिस्सा काफी अधिक है तथा (घ) मुद्रा-बाजार में उनकी सहभागिता बैंकों के समान तथा अत्यंत महत्वपूर्ण है । तदनुसार, प्राथमिक व्यापारियों के पर्यवेक्षण को बल प्रदान करने के लिए उन्हें बीएफएस के पर्यवेक्षण के अंतर्गत लाया गया है । इसके अतिरिक्त, प्राथमिक व्यापारियों से अब यह अपेक्षित है कि वे कतिपय न्यूनतम घोषणा के साथ अपने लेखा-परीक्षित वार्षिक परिणामों को प्रमुख वित्तीय दैनिक समाचारपत्रों तथा अपने वेब-साइट पर प्रकाशित करें ।

(घ) शेयर बाजारों में लेनदेन

94. सहभागियों की संख्या को बढ़ाने तथा सरकारी प्रतिभूतियों को देश-भर में सुगम बनाए जाने के लिए यह प्रस्तावित किया गया है कि शेयर बाजारों पर सरकारी प्रतिभूतियों में गोपनीय स्क्रीन आधारित आदेश द्वारा संचालित व्यापार को लागू किया जाए । इस प्रकार की योजना सेबी के साथ संयुक्त रूप में तैयार की जा रही है, जो व्यापार तथा निपटान से संबंधित स्वीकार्य उत्कृष्ट प्रथाओं का पालन करेगी । बाजार सहभागियों/आम जनता का अभिमत प्राप्त करने के लिए इस योजना को भारतीय रिज़र्व बैंक तथा सेबी की वेब-साइटों पर प्रसारित किया जाएगा ।

(ङ) गैर-प्रतिस्पर्द्धी नीलामी के माध्यम से
सरकारी प्रतिभूतियों का फुटकर क्रय-विक्रय

95. व्यक्तियों, हिंदू अविभक्त परिवारों, भविष्य निधियों, शहरी सहकारी बैंकों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों, न्यासों आदि जैसे मध्यस्तरीय निवेशकों को सरकारी प्रतिभूतियों के प्राथमिक बाजार में सहभागिता को प्रोत्साहन देने के लिए गैर-प्रतिस्पर्द्धी नीलामी की योजना जनवरी 2002 में परिचालित की गई थी । एक ओर जहां वर्तमान वर्ष की प्रथम छमाही में केंद्रीय सरकार की प्रतिभूतियों की अधिकांश नीलामी में इस योजना के लिए प्रावधान किया गया था, वहीं वर्तमान वर्ष की दूसरी छमाही के लिए घोषित कैलेंडर के अनुसार, यह योजना नीलामियों का अनिवार्य अंश बन गई है । अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति वक्तव्य में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों तथा प्राथमिक व्यापारियों से, फुटकर निवेशकों के लिए चलनिधि में सुधार हेतु ऐसे निवेशाें के लिए बैंकों द्वारा स्व-वित्तपोषण के लिए योजनाओं के साथ-साथ सरकारी प्रतिभूतियों के लिए बिक्री एवं खरीद सुविधाओं को लागू करने का आग्रह किया है । तदुपरांत, कुछ प्राथमिक व्यापारियों ने बैंक शाखाओं/डाकघरों के नेटवर्क का उपयोग करते हुए फुटकर बिक्री के लिए इस योजना को लागू किया है । आशा की जाती है कि बैंक/प्राथमिक व्यापारी, सरकारी प्रतिभूतियों की फुटकर खरीद/बिक्री को बढ़ाने के लिए इस योजना को लागू करने में स्वयं को सक्रिय रूप से शामिल करेंगे । शेयर बाजारों में सरकारी प्रतिभूतियों के व्यापार को लागू किए जाने पर यह और भी महत्वपूर्ण हो जाएगा ।

(च) सीएसजीएल खाता धारकों को रिपो की सुविधा

96. इस समय मुंबई में भारतीय रिज़र्व बैंक में एसजीएल खाता रखनेवाली संस्थाओं को ही सरकारी प्रतिभूतियों में रिपो लेन-देन करने की अनुमति दी गई है । इस अपेक्षा में रिपो के उन संभाव्य उपयोगकर्ताओं की एक बड़ी संख्या शामिल नहीं है जिनके बैंकों आदि में ‘श्रेष्ठ प्रतिभूति’ खाते हैं, जो बदले में, उनकी ओर से भारतीय रिज़र्व बैंक में सीएसजीएल खाते रखते हैं । तथापि, मांग/सूचना मुद्रा बाजार को एक शुद्ध अंतर-बैंक बाजार बनाने की दृष्टि से गैर-बैंक सहभागियों को धीरे-धीरे बाहर निकाला जा रहा है और उसके बदले में उन्हें रिपो बाजार में भाग लेने की अनुमति दी जा रही है । इस प्रक्रिया को सुगम बनाने के लिए, खासकर उनके पास एसजीएल सुविधा नहीं रहने के संबंध में सीएसजीएल/गिल्ट खाता धारकों को रिपो पात्रता प्रदान करने का मामला कुछ समय से भारतीय रिज़र्व बैंक के विचाराधीन है । मुद्रा तथा सरकारी प्रतिभूति बाजार संबंधी तकनीकी परामर्शदात्री समिति (टीएसी) के परामर्श के आधार पर यह प्रस्तावित है कि गैर-एसजीएल खाताधारकों के एक चयनित संवर्ग को सुपुर्दगी बनाम भुगतान (डीवीपी) तथा पारदर्शिता को सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा के साथ रिपो पात्रता प्रदान की जाए । परिचालनात्मक दिशा-निर्देश अलग से जारी किए जा रह ेहैं ।

(छ) बैंकों के बीच रिपो/रिवर्स रिपो लेन-देन के
एकसमान लेखांकन के लिए दिशा-निर्देश

97. अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में, सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के अनुरूप बैंकों के निवेशों के श्रेणीकरण तथा मूल्यांकन पर संशोधित दिशा-निर्देश जारी किए गए । चूंकि रिपो/रिवर्स रिपो लेन-देन के लिए बैंक एकसमान लेखांकन प्रणाली का पालन नहीं कर रहे हैं, इसलिए टीएसी के एक उप-समूह द्वारा सुझाई गई पद्धति पर "रिपो लेन-देन के लिए एकसमान लेखांकन मानदंड" के संबंध में दिशा-निर्देशों का प्रारूप बैंकों तथा फिम्डा को उनके अभिमत के लिए भेजा गया था। प्रतिसूचना (फीडबैक) के आधार पर दिशा-निर्देशों के प्रारूप को अंतिम रूप दिया जाएगा ।

(ज) रिपो बाजार का विकास

98. उचित सुरक्षा के साथ भारत में धीरे-धीरे रिपो बाजार को विकसित किया गया है । 1994 से, रिपो बाजार का उत्पादों एवं सहभागियों की दृष्टि से विस्तार किया गया है । प्रारंभिक अवस्थाओं में, रिपो को केवल केंद्र सरकार की प्रतिभूतियों में अनुमति दी गई थी । भारतीय रिज़र्व बैंक में केवल एसजीएल तथा चालू खाता रखनेवाले बैंकों को ही सहभागिता की अनुमति दी गई थी । बाद में, सभी एसजीएल खाताधारकों को अनुमति दी गई तथा राज्य सरकार की प्रतिभूतियों को भी रिपो के लिए पात्रता प्रदान की गई थी । दैनिक नीलामी के आधार पर रिपो द्वारा चलनिधि समायोजन सुविधा का परिचालन मुद्रा बाजार में संर्पाश्विक ऋण एवं उधार को आधार प्रदान करता है । इस व्यवस्था ने सरकारी प्रतिभूति बाजार को चलनिधि उपलब्ध कराने में सहायता प्रदान की है ।

99. पुनर्खरीद परिचालन (रिपो) बाजार को गहन बनाने और उसमें अधिक तरलता लाने हेतु रिज़र्व बैंक, बाजार के सहभागियों से परामर्श करके आगे और उपायों का पता लगाना जारी रखेगा । इस दिशा में भारतीय रिज़र्व बैंक का यह प्रस्ताव है कि पहले चरण में, जब तक सभी लेनदेनों की सूचना अनिवार्य रूप से दी जाती है और उनका निपटान ‘सुपुर्दगी बनाम भुगतान’ प्रणाली के माध्यम से किया जाता है तब तक श्रेष्ठ प्रतिभूति/सीएसजीएल खातों वाली सभी विनियमित संस्थाओं को पुनर्खरीद परिचालनों (रिपोज़) की सुविधा प्रदान की जाए । इसवे अलावा, भारतीय रिज़र्व बैंक का प्रस्ताव है कि उन्हीं प्रतिभूतियों को उन्हीं प्रतिपक्षियों के बीच रिपो संविदाओं के नवीकरण (रोल ओवर) की अनुमति दी जाए । अनुमान है कि इन उपायों से रिपो बाजार को और विकसित किया जा सकेगा ।

100. पारदर्शिता और सुरक्षापूर्ण निपटान कार्यविधियों को सुनिश्चित करते समय बाद में विशेषज्ञों और सहभागियों के साथ परामर्श करके आगे और उपायों पर विचार किया जा सकता है, जैसे (क) रिपो के अंतर्गत खरीदी गई प्रतिभूतियों की बिक्री के लिए अनुमति देना, (ख) कंपनियों-सहित सभी संस्थाओं को रिपो बाजार उपलब्ध कराना तथा (ग) कंपनी बांडों-सहित सभी ऋण लिखतों को पात्रता प्रदान करना ।

(झ) संर्पाश्विकीकृत उधार लेने और
देने का दायित्व (सीबीएलओ)

101. रिज़र्व बैंक बाजार सहभागियों द्वारा संपार्श्विकीकृत उधार देने/लेने संबंधी कार्यों का संवर्धन करता रहा है जिससे मांग/सूचना मुद्रा बाजार पर उनकी निर्भरता कम की जा सके । अनुमान है कि ऐसे संर्पाश्विकीकृत उत्पादों के प्रयोग से उधारदाताओं का ऋण जोखिम न्यूनतम होगा और एक अल्पावधि रुपया आय-वक्र (यील्ड कर्व) विकसित करने में इससे मदद मिलेगी । इस दिशा में, संर्पाश्विकीकृत उधार लेने और देने के दायित्व (सीबीएलओ), जो सीसीआइएल द्वारा अपने सदस्यों के लिए विकसित किया गया उत्पाद है, के बारे में टीएसी सहित विभिन्न मंचों पर विचार-विमर्श किया गया । टीएसी द्वारा किए गए प्रस्ताव के अनुसार एक अंतर-विभागीय दल ने सीबीएलओ लागू करने से पूर्व रखे जानेवाले विनियामक और विवेकसम्मत पहलू तैयार किए हैं। तदनुसार:

  • सीबीएलओ को एक दिन से एक वर्ष तक की मूल परिपक्वता से युक्त मुद्रा बाजार लिखत के रूप में माना जाएगा। उसके द्वितीयक बाजार लेनदेनों के लिए न्यूनतम मूल्य वर्ग तथा निश्चित अवरुद्धता अवधि नहीं होगी । अन्य मुद्रा बाजार लिखतों पर लागू विनियामक प्रावधान सीबीएलओ पर भी लागू होंगे । चूंकि सीबीएलओ सरकारी प्रतिभूतियों द्वारा संपूर्णत: संर्पाश्विकीकृत है, इसलिए बाजार जोखिम के प्रति सरकारी प्रतिभूतियों पर लागू जोखिम भार उस पर भी लागू होगा । इस संबंध में विस्तृत परिचालनात्मक अनुदेश भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा अलग से जारी किए जाएंगे ।

(ञ) परक्रामित लेनदेन प्रणाली (निगोशिएटेड डीलिंग सिस्टम)

102. जैसा कि अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में उल्लेख किया गया है, एनडीएस/ सीसीआईएल का संपूर्ण परिचालन सुनिश्चित करने के लिए जिन संस्थाओं के एसजीएल खाते भारतीय रिजॅर्व बैंक में थे, उनको सूचित कर दिया गया था कि वे मई 2002 के अंत तक एनडीएस के सदस्य बनें । फिर भी, उपर्युक्त समय-सारणी का पालन करने में होनेवाली कठिनाइयों के संबंध में कुछ बाजार-सहभागियों से प्राप्त अभ्यावेदनों को देखते हुए यह निर्णय लिया गया कि ऐसे प्रत्येक बाजार सहभागियों को उस दिन तक एसजीएल अंतरण फार्मों को प्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुत करने की अनुमति दी जाए जब तक उनमें प्रत्येक सहभागी के लिए उपर्युक्त प्रकार से अंतरण फार्म प्रस्तुत करने की अंतिम तारीख विशिष्ट रूप से तय न हो जाए । अक्तूबर 23, 2002 की स्थिति के अनुसार, 141 एसजीएल खातेदार एनडीएस के सदस्य हैं । इसके अलावा, भारतीय रिजॅर्व बैंक, मुंबई के लोक ऋण कार्यालय में निपटाए जानेवाले एसजीएल लेनदेनों के आंकड़े, दैनिक आधार पर आरबीआइ वेबसाइट में प्रकाशित किए जाते हैं । एनडीएस के परिचालन के साथ, एनडीएस पर सूचित किए जानेवाले सरकारी प्रतिभूतियों के मूल्य तथा व्यापार सूचना और संबंधित आंकड़े साथ-साथ आरबीआइ वेबसाइट (ैैै.हे.ींi.दीु.iह) में उपलब्ध हो जाते हैं ।

मांग/पुट आप्शन तथा अस्थायी दरवाले बांड

103. जुलाई 17, 2002 को पहली बार, भारतीय रिजॅर्व बैंक ने निर्गम की तारीख से पांच वर्ष पर या उसके बाद प्रयोज्य पुट तथा मांग विकल्पों से युक्त एक बांड (6.72 प्रतिशत सरकारी स्टाक 2007/12) जारी किया । सरकारी प्रतिभूतियों में किए गए अधिक निवेशों से उत्पन्न वर्धमान अवधि के जोखिम के प्रबंध में निवेशकों को सुविधा प्रदान करने की दृष्टि से 364-दिवसीय खजाना बिलों के पिछली छह नीलामियों की अधिकतम आय पर आधारित परिवर्ती आधार दर के ऊपर 34 आधार अंकों के दायरे में जुलाई 1, 2002 को 3000 करोड़ रुपए के लिए एक अन्य अस्थायी दरवाला बांड (एफआरबी) जारी किया गया । 2002-03 की प्रथम छमाही के लिए कूपन दर 6.84 प्रतिशत रही । यह नोट किया जाए कि नवंबर तथा दिसंबर 2001 के दो एफआरबी निर्गम क्रमश: 5 तथा 1 आधार अंक के ऋणात्मक दायरे में थे ।

104. अभी तक प्राप्त अनुभवों के आधार पर, बाजार सहभागियों से प्राप्त प्रतिसूचना पर आधारित कुछ आशोधनों सहित, अधिकाधिक एफआरबी जारी करने पर भारतीय रिजॅर्व बैंक विचार करेगा । एफआरबी के नए निर्गमों में, मौजूदा अर्द्धवार्षिक री-सेट के बजाय जो बकाए एफआरबी के मामलों में है, आधार अंकों की वार्षिक री-सेटिंग का प्रावधान होगा । नए निर्गमों के लिए आधार दर का निर्धारण पूर्ववर्ती 6 नीलामियों के स्थान पर 3 नीलामियों में 364-दिवसीय खजाना बिलों के औसत अधिकतम आय के आधार पर किया जाएगा । यह आशा की जाती है कि इन नई विशेषताओं के कारण द्वितीयक बाजार में बांडों का मूल्य सुधरेगा और उनकी चलनिधि बढ़ेगी ।

105. यद्यपि अस्थायी दरवाले बांड बैंकों को अपने परिसंपत्ति देयता प्रबंधन में तथा अस्थायी दर-वाले उत्पाद प्रस्तुत करने में मदद करने के अलावा उनके ब्याज दर संबंधी जोखिमों की प्रतिरक्षा करने में सहायता देते हैं, फिर भी, उन पर बैंकों का पर्याप्त ध्यान नहीं गया है । बैंकों से अनुरोध किया जाता है कि वे अस्थायी दर बांडों का लाभ उठाएं तथा इस लिखत के लिए एक बाजार विकसित करें ।

ऋण वितरण प्रणाली

106. भारतीय रिजॅर्व बैंक का यह प्रयास रहा कि कि्रयाविधियों को सरल बनाते हुए, विकेन्द्रीकृत स्तर पर निर्णय लेने के लिए प्रोत्साहन देते हुए तथा प्रतिस्पर्धा को बढ़ाते हुए ऋण वितरण व्यवस्था में सुधार लाएं । इस दिशा में अगले कदम के रूप में निम्नलिखित उपायों का प्रस्ताव किया जाता है ।

(क) प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र उधार

(i) कृषि

107. प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र में विशेषकर कृषि क्षेत्र में ऋण वितरण को बढ़ाने के लिए निम्नलिखित उपाय का प्रस्ताव किया जाता है :

  • ग्रामीण/अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में स्थित, रिसाव सिंचाई/छिड़काव सिंचाई प्रणालियों/कृषि मशीनों के व्यापारियों को प्रदत्त उधारों की सीमा कृषि के लिये प्राथमिकता प्राप्त उधार के तहत 10 लाख रुपए से बढ़ाकर 20 लाख रुपए कर दी जाती है ।

(ii) लघु कारबार तथा कमजोर वर्ग

108. लघु कारबार तथा कमजोर वर्गों को ऋण की उपलब्धता और बढ़ाने के लिए, यह प्रस्ताव किया जाता है कि :

  • लघु कारबार से संबंधित 10 लाख रुपए की वर्तमान समग्र सीमा को, कार्यशील पूंजी के लिए कोई उच्चतम सीमा निर्धारित किए बिना, बढ़ाकर 20 लाख रुपए कर दिया जाए । इसके अलावा, बैंक, विभिन्न गतिविधियों की अपेक्षाओं के अनुरूप कार्यशील पूंजी के लिए अलग-अलग सीमा निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र होंगे ।
  • कारीगरों, ग्रामीण और कुटीर उद्योगों की ऋण सीमा को वर्तमान के 25,000 रुपए से बढ़ाकर 50,000 रुपए कर दिया जाए । ये सीमाएं प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के अंतर्गत कमजोर वर्गों के लिए विनिर्दिष्ट 25 प्रतिशत के अग्रिमों या निवल बैंक ऋणों के 10 प्रतिशत की समग्र सीमा के अधीन होंगी ।

(iii) ग्रामीण और अन्य क्षेत्रों के क्षतिग्रस्त मकानों की मरम्मत

109. आवास क्षेत्र के लिए ऋण की उपलब्धता बढ़ाने के उद्देश्य से यह प्रस्ताव किया जाता है कि :

  • क्षतिग्रस्त मकानों की मरम्मत के लिए 50,000 रुपए की वर्तमान आवास ऋण सीमा ग्रामीण और अर्ध शहरी क्षेत्रों के लिए बढ़ाकर 1लाख रुपए तथा शहरी क्षेत्रों के लिए 2 लाख रुपए कर दी जाए ।

(ख) किसान व्रेडिट काड़

110. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में किसान व्रेडिट काड़ (केसीसी) योजना का हिताधिकारियों पर पड़नेवाले प्रभाव के मूल्यांकन के लिए एक सर्वेक्षण करने का प्रस्ताव किया गया था । तदनुसार, एक बाहरी एजेंसी की सहायता से सर्वेक्षण करने के लिए प्राथमिक कार्य कर लिया गया है ।

(ग) व्यष्टि-वित्त

111. अप्रैल 1999 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य और अक्तूबर 1999 की मध्यावधि समीक्षा में स्वनियोजित व्यक्तियों के लिए विशेषकर ग्रामीण एवं अर्द्ध शहरी क्षेत्रों की महिलाओं के लिए, ऋण वितरण के महत्वपूर्ण साधन के रूप में व्यष्टि-ऋण संस्थाओं तथा स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के महत्व पर जोर दिया गया है । भारतीय रिजॅर्व बैंक का उद्देश्य था कि इन संस्थाओं की विकेन्द्रीकृत, स्वैच्छिक एवं गैर-नौकरशाही विशेषताओं को बनाए रखते हुए, व्यष्टि-वित्त संस्थाओं के लिए बैंक ऋणों के प्रवाह में गति लाई जाए ।

112. तदनुसार, भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा कई कदम उठाए गए । व्यष्टि-ऋणों को मुख्य धारा में लाने के लिए और व्यष्टि-ऋण के आपूर्तिकर्ताओं की पहुंच को विस्तारित करने के लिए बैंकों को व्यापक दिशा-निर्देश जारी किए गए । बैंकों को यह अनुमति दी गई कि उनके द्वारा दिए गए व्यष्टि-वित्त को वे प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र के लिए उधार के रूप में वर्गीकृत कर सकें । बैंकों को यह अनुमति भी दी गई कि उनके द्वारा एसएचजी-बैंक सहलग्नता (लिंकेज) कार्यक्रम के अधीन दिए गए ऋणों को कमजोर वर्गों को दिए गए अग्रिमों के रूप में मान लें । इन कदमों के परिणामस्वरूप पूरे देश में व्यष्टि-वित्त पहुंचाने में तथा व्यष्टि-वित्त मध्यवर्तियों को बैंक-ऋण तक पर्याप्त पहुंच प्रदान करने की दिशा में काफी प्रगति हुई । स्वयं सहायता समूह (एसएचजी) - बैंक सहलग्नता कार्यक्रम ने यह प्रमाणित किया है कि गरीब जनता के साथ बैंकों को जोड़ना व्यवहार्य है । ऋण वितरण प्रक्रिया में प्रतिनिधान को शामिल करते हुए तथा 95 प्रतिशत से अधिक ऋण की वसूली सुनिश्चित करने वाला कम लागत वाला यह कार्यक्रम बैंकों के लिए भी हितकारी सिद्ध हुआ है ।

113. चालू वर्ष 2002-03 के दौरान, भारतीय रिजॅर्व बैंक इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में की गई प्रगति की समीक्षा करने के लिए तथा देश में अधिक सक्रिय व्यष्टि-वित्त वितरण वातावरण को स्थापित करने के लिए चर्चात्मक सत्रों की श्रृंखला आयोजित करने पर विचार कर रहा है । इन सत्रों में व्यष्टि-वित्त के पूरक एवं प्रतिस्पर्धी मॉडलों को प्रोत्साहित किया जाएगा ।प्रचलित व्यष्टि-वित्त प्रवाह को अधिक तेज बनाने के लिए भारतीय रिजॅर्व बैंक किसी भी नीतिगत या समन्वयन संबंधी अंतर को समझने और सुलझाने का प्रयास करेगा । इस संदर्भ में, भारतीय रिजॅर्व बैंक व्यष्टि-वित्त से संबंधित सभी नीतिगत मुद्दों पर विशेषज्ञों के विस्तृत समूह तथा व्यष्टि-वित्त व्यवसायियों से विचार-विमर्श कर रहा है ।

(घ) गैर-जमानती गारंटियों तथा अग्रिमों की सीमा
से समूह गारंटी पर स्वयं सहायक दलों
को प्रदत्त अग्रिमों की छूट

114. वर्तमान में, बैंकों को अपने गैर-जमानती अग्रिम वायदों को इस ढंग से सीमित रखना चाहिए कि वे बैंकों की बकाया गैर-जमानती गारंटी के 20 प्रतिशत और कुल बकाया गैर-जमानती अग्रिमों सहित उनके कुल बकाया अग्रिमों के 15 प्रतिशत से अधिक न हों । सामान्यत: बैंक स्वयं सहायक दलों को किसी जमानत पर जोर दिये बिना गारंटी पर अग्रिम देते हैं। एसएचजी को दिए गए बैंकों के अग्रिमों के संबंध में उच्च वसूली दर को ध्यान में रखते हुए और यह देखते हुए यह कार्यक्रम गरीबों का सहायक है, यह निर्णय लिया गया है कि :

  • समूह गारंटी पर एसएचजी को बैंकों द्वारा दिए गए गैर-जमानती अग्रिमों को, अगली सूचना तक गैर-जमानतीं गारंटियों और अग्रिमों पर विवेकपूर्ण मानदंडों की संगणना के लिए शामिल नहीं किया जाएगा । एक वर्ष पश्चात् एसएचजी को दिए गए अग्रिमों के वसूली निष्पादन और कुल गैर-जमानती अग्रिमों में हुई वृद्धि को ध्यान में रखते हुए इस मामले की समीक्षा की जाएगी ।

शहरी सहकारी बैंक

(क) शीर्षस्थ पर्यवेक्षण निकाय के लिए प्रस्ताव

115. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में एक प्रस्ताव की घोषणा की गई थी कि केन्द्र सरकार से परामर्श करते हुए अनुसूचित और गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी

बैंकों के सभी निरीक्षण /पर्यवेक्षी कार्यों के लिए एक नया शीर्षस्थ पर्यवेक्षी निकाय गठित किया जाए ।तद्नुसार, भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा इस संबंध में प्रस्तुत एक ड्राफट बिल सरकार के पास विचाराधीन है ।

116. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में भारतीय रिजॅर्व बैंक ने पुन: वर्तमान दोहरे/तिहरे विनियामक/पर्यवेक्षी नियंत्रण (जिसमें केंद्र, राज्यों और भारतीय रिजॅर्व बैंक शामिल हैंें) की वर्तमान प्रणाली की ओर ध्यान आकर्षित किया था और यह सूचित किया था कि सहकारी बैंकों के कुशल कार्य-संचालन के लिए उनके जमाकर्ताओं के हित को देखते हुए यह सहायक नहीं होगा । पहले भी अनेक समितियों ने इस क्षेत्र के बहु-स्तरीय पर्यवेक्षण तथा विनियमन को समाप्त करने की सिफारिश की है ।

स्थानीय हितों को देखते हुए यह भी स्पष्ट है कि केंद्र/राज्य सरकार के स्तरों पर पर्यवेक्षण और नियमन संबंधी दायित्वों को फिलहाल समाप्त करने और वह पूर्णतया रिजॅर्व बैंक को सौंपने के पक्ष में कोई मतैक्य नहीं है । फलत: अनेक सहकारी संस्थाओं के बोड़ और प्रबंधतंत्र सही सहकारी भावना की अपेक्षा राजनीतिक हितों का ज्यादा ध्यान रखते हैं और अपने कारबार में सामान्य बैंकिंग अनुशासन का हमेशा अनुपालन नहीं करते हैं । इसे देखते हुए रिजॅर्व बैंक ने सामान्य जमाकर्ताओं के हित में एक अलग पर्यवेक्षण प्राधिकरण की स्थापना का प्रस्ताव पेश किया, जिसमें केंद्र, राज्य और अन्य संबद्ध तत्वों के प्रतिनिधि हों ।

117. हाल ही में इस मुद्दे की जांच माननीय वित्त राज्य मंत्री की अध्यक्षता में गठित समिति द्वारा की गई । रिजॅर्व बैंक इस संबंध में सरकार के अंतिम निर्णयों को कार्यान्वित करने में जहां हर संभव प्रयास करेगा, वहीं यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि अगर दोहरे नियंत्रण को समाप्त करने के लिए तत्काल कोई उपाय नहीं किए जाते हैं तो पर्यवेक्षण प्रणाली को कारगर बनाना कठिन हो जाएगा ।

(ख) शहरी सहकारी बैंकों के लिए पर्यवेक्षी श्रेणी निर्धारण

118. जैसा कि अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में कहा गया था, शहरी सहकारी बैंकों के लिए पर्यवेक्षण संबंधी व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने के लिए शहरी सहकारी बैंकों के श्रेणी निर्धारण (रेटिंग) की प्रणाली के लिए गठित कार्यदल की सिफारिशों पर, रिजॅर्व बैंक ने कैमल- आधारित पर्यवेक्षी श्रेणी निर्धारण प्रणाली को अंतिम रूप दे दिया है । मार्च 2003 से अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के लिए प्रायोगिक तौर पर इसे लागू किया जाएगा ।

पर्यवेक्षण और निगरानी

119. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में की गई कतिपय घोषणाओं के संबंध में हुई प्रगति की समीक्षा नीचे दी जा रही है ।

(क) जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण

120. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में यह बताया गया था कि रिजॅर्व बैंक 2003 तक बैंकों का जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण शुरू कर देगा और तदनुसार, इस प्रयोजन के लिए गठित परियोजना कार्यान्वयन दल ने प्रबंधन पद्धति में कतिपय परिवर्तन संबंधी पहल किए हैं । प्रगति की समीक्षा से यह सामने आया कि बैंकों ने जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण के लिए अपेक्षित कार्रवाई के कार्यान्वयन संबंधी उपाय शुरू कर दिए हैं । विभिन्न कारबार और नियंत्रण संबंधी जोखिमों से संबंधित जो जोखिम प्रोफाइल टेंप्लेट तैयार किया गया है, सुझाव और सूचनात्मक अंतराल का पता लगाने की दृष्टि से उसे सभी बैंकों को भेजा गया ताकि जोखिम प्रोफाइल के संकलन में अगर कोई कमी रह गई हो तो उसे दूर किया जा सके । बैंकों से प्राप्त प्रतिसाद को ध्यान में रखते हुए जोखिम प्रोफाइल टेंप्लेट को अंतिम रूप दिया जाएगा । वाणिज्य बैंकों और रिजॅर्व बैंक के अधिकारियों को जोखिम प्रबंधन और जोखिम आधारित पर्यवेक्षण पर केंद्रित विशेष प्रशिक्षण दिया गया है । पर्यवेक्षकों के उपयोग के लिए पर्यवेक्षण मैनुअल के संकलन का काम जारी है और 2003 में जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण को
अमल में लाना तय है ।

(ख) तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई

121. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में यह बताया गया था कि तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई की योजना जो कि कतिपय ट्रिगर स्थलों पर आधारित पर्यवेक्षणकारी औजार के रूप में विकसित की गई थी, को सरकार ने कुछ सुझावों के साथ मंजूरी दे दी है । चयनित कमजोर बैंकों पर तत्काल सुधार कार्रवाई के फ्रेमवर्क के प्रभाव के अध्ययन के लिए एक आंतरिक दल का गठन किया गया है ।

(ग) व्यापक विवेकसम्मत सूचक

122. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में यह बताया गया था कि व्यापक विवेकसम्मत सूचकों का प्रयोग करते हुए आंतरिक परिचालन के लिए पायलट समीक्षाएं तैयार की गईं । बाद में, मार्च 2002 में समाप्त छमाहीं वाली समीक्षा में व्यापक विवेकसम्मत सूचकों के दायरे का विस्तार किया गया । व्यापक विवेकसम्मत सूचकों की प्रमुख विशेषताओं को रिजॅर्व बैंक बुलेटिन में प्रकाशित करने का प्रस्ताव है ।

(घ) समेकित लेखांकन और पर्यवेक्षण

123. जैसा कि अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में बताया गया था, जून 2002 में समेकित लेखांकन और पर्यवेक्षण संबंधी मार्गदर्शी सिद्धांतों का प्रारूप बैंकों को उनके अभिमत के लिए भेजा गया । बैंकों से प्राप्त प्रतिसाद को ध्यान में रखते हुए मार्गदर्शी सिद्धांतों को अंतिम रूप दिया जा रहा है । जब तक कि विभिन्न अधिनियमों में वैधानिक संशोधन पूरा होना बाकी है, तब तक भारतीय परिवेश में समेकित लेखांकन और परिमाणात्मक पद्धति के सहज कार्यान्वयन के लिए शक्ति प्रदान करनेवाले प्रावधानों की व्यवस्था हेतु सेबी और आइआरडीए जैसी अन्य विनियामक संस्थाओं से मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग के माध्यम से सूचना के आदान-प्रदान के लिए कार्यकारी व्यवस्था की संभावना की तलाश की जा रही है ।

विवेकसम्मत उपाय

124. विवेकसम्मत विनियमन और पर्यवेक्षण शुरू से वित्तीय क्षेत्र सुधार प्रक्रिया का एक नाजुक अंग रहा है और इसके मानदंडों को कई वर्षों से सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के अनुरूप क्रमश: कठोर बनाया जा रहा है । अस्थिर वैश्विक अर्थव्यवस्था और अनेक चुनौतियों के बावजूद स्थिर वित्तीय प्रणाली के विकास की दिशा में उल्लेखनीय प्रगति हुई है । आवश्यक अन्य उपायों के साथ अब तक घोषित विवेकसम्मत उपायों के कार्यान्वयन में हुई प्रगति नीचे दी जा रही है ।

(क) राज्य सहकारी बैंकों/जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों
द्वारा ऋण क्षति की पहचान के लिए 90-दिवसीय मानदण्ड को अपनाने से संबंधित समय सारणी

125. सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं की ओर बढ़ने और अधिकाधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करने की दृष्टि से वाणिज्य बैंकों को यह सूचित किया गया कि मार्च 31, 2004 को समाप्त होनेवाले वर्ष से ऋण क्षति की पहचान के लिए 90-दिवसीय मानदण्ड अपनाएं । 90-दिवसीय मानदण्ड शहरी सहकारी बैंकों और क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों पर भी मार्च 31, 2004 से लागू किया गया है । बैंकिंग प्रणाली के सभी अंगाें के प्रति एकसमान और सुसंगत दृष्टिकोण अपनाने की दृष्टि से निम्नानुसार निर्णय किया गया है :

  • राज्य सहकारी बैंकों और जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों पर भी मार्च 31, 2006 को समाप्त होने वाले वर्ष से ऋण क्षति की पहचान के लिए 90-दिवसीय मानदंड लागू करना । सहज परिवर्तन की सुविधा के लिए बैंकों को अप्रैल 1, 2004 से मासिक अंतरालों पर ब्याज लगाने की ओर अग्रसर होने के बारे में सूचित किया गया है । इस संबंध में विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत अलग से जारी किए जाएंगे ।

(ख) ऋण को अवमानक के रूप में मानने के लिए 90
दिन का मानदंड अपनाना - मासिक अंतरालों पर ब्याज
लगाना

126. अप्रैल 2001 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में बताए गए अनुसार मार्च 31, 2004 को समाप्त होनेवाले वर्ष से ऋण को अवमानक के रूप में मानने के लिए 90-दिवसीय मानदंड अपनाने को सहज बनाने की दृष्टि से बैंकों को यह सूचित किया गया कि वे अप्रैल 1, 2002 से अग्रिमों पर मासिक अंतरालों पर ब्याज लगाने की प्रणाली अपनाएं । बैंकों से प्राप्त सुझावों और कारबार तथा पद्धति संबंधी मुद्दों पर उनके साथ हुए विचार-विमर्श के आधार पर जुलाई 2002 में समेकित अनुदेश जारी किए गए । तदनुसार, बैंकों को अन्य बातों के साथ-साथ इस प्रकार सूचित किया गया :

  • अप्रैल 1, 2002 से अथवा जुलाई 1, 2002 अथवा अप्रैल 1, 2003 से मासिक अंतरालों पर ब्याज लगाने का बैंकों को विकल्प है ।
  • जैसा कि जुलाई 2002 के परिपत्र में जोर दिया गया है, जुलाई 1, 2002 से शुरू होनेवाली तिमाही से बैंकों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि केवल मासिक अंतरालों पर ब्याज/चक्रवृद्धि ब्याज लगाने की प्रणाली लागू करने के कारण ही, लागू दर में कहीं वृद्धि न हो जाए ।
  • मासिक अंतरालों पर ब्याज लगाने की नीति कृषि अग्रिमों पर लागू नहीं होगी और बैंक फसल के मौसमों से जुड़े ब्याज/चक्रवृद्धि ब्याज लगाने की विद्यमान प्रथा जारी रखेंगे ।
  • अल्पावधि फसलों के अग्रिमों और डेयरी, मत्स्यपालन, सुअरपालन, मुर्गीपालन, मध्युमक्खीपालन, इत्यादि जैसी कृषि से संबद्ध गतिविधियों के मामले में बैंकों को ऋण/किस्त के अतिदेय हो जाने की स्थिति में ब्याज/चक्रवृद्धि ब्याज लगाते समय उधारकर्ताओं के पास उपलब्ध नकदी और फसल कटाई/विपणन के मौसमों के आधार पर निर्धारित नियत तारीखों को ध्यान में रखना चाहिए ।

(ग) नया पूंजी समझौता

127. रिज़र्व बैंक नया पूंजी समझौता संबंधी प्रस्तावों पर अंतर्राष्ट्रीय सहमति प्राप्त करने का निरंतर प्रयास कर रहा है ताकि अगले वर्ष इसके अंतिम रूप में, विकासशील देशों सहित विभिन्न देशों के संस्थागत ढांचे और क्षमता के अंतरों को भी ध्यान में रखते हुए राष्ट्रीय विनियमन को काफी लोच प्रदान किया जा सके । अनेक अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर जहां इस विषय पर विचार-विमर्श जारी है, रिज़र्व बैंक और अनेक अन्य पर्यवेक्षण एजेंसियों का प्रस्ताव है कि नॉन-कांप्लेक्स बैंकों के लिए राष्ट्रीय प्राधिकरणों को जोखिम-भारित पूंजी-अपेक्षाओं की गणना के लिए सरल पद्धति के प्रयोग का विवेकाधिकार होना चाहिए । इस ओर ध्यान देना उत्साहवर्द्धक है कि अपने आगे के विचार-विमर्श में बासले समिति इन चिंताओं पर ध्यान दे रही है और यह आशा है कि अंतर्राष्ट्रीय पूंजी बाजारों में प्रतियोगिता करने हेतु अंतर्राष्ट्रीय बैंकों पर मूलत: ध्यान केंद्रित कर नए समझौते पर सहमति उभरेगी और ऐसे बैंकों के, जिनके कारबार न तो बहुत जटिल हैं और न ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सक्रिय हैं, पूंजी विनियमन के लिए विभिन्न किंतु फिर भी पूर्णत: वैध विकल्प उपलब्ध होंगे ।

128. भारत बासले समिति द्वारा नए समझौते के प्रभाव के आकलन के लिए चलाए जा रहे परिमाणात्मक प्रभाव अध्ययन (क्यूआइएस 3) में भी भाग ले रहा है । अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में जैसा कि उल्लेख किया गया था, रिज़र्व बैंक ने सात बैंकों (तीन सरकारी क्षेत्र के बैंक, दो नए निजी क्षेत्र के बैंक और दो पुराने निजी क्षेत्र के बैंक) का एक दल बनाया है जिसने उक्त अध्ययन में भाग लेना शुरू कर दिया है ।

(घ) बीमा व्यवसाय में बैंकों का प्रवेश - रेफरल व्यवस्था

129. स्मरण रहे कि इन्शूरेंस रेगुलेटरी एंड डेवलमेंट अथॉरिटी एक्ट (आइआरडीए अधिनियम), 1999 पास हो जाने के बाद अप्रैल 2000 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में बैंकों के बीमा व्यवसाय में प्रवेश संबंधी मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए गए थे । आइआरडीए अधिनियम में बाद में हुए संशोधनों के अनुसार बैंक अब आइआरडीए और रिज़र्व बैंक की पूर्वानुमति से अपनी शाखाओं के नेटवर्क के माध्यम से रेफरल व्यवसाय भी कर सकते हैं । रेफरल व्यवस्था के अंतर्गत बैंक अपनी चयनित शाखाओं के परिसर में बीमा कंपनियों को अपने बीमा उत्पाद बैंकों के ग्राहकों को पर्याप्त घोषणा और पारदर्शिता के साथ बेचने के लिए मूलभूत संरचना उपलब्ध कराते हैं और इसके लिए संग्रहीत प्रीमियमों के आधार पर रेफरल फीस लेते हैं । तदनुसार, कुछ बैंकों को अपने ग्राहकों के हितों की रक्षा की कतिपय शर्तों के अधीन बीमा कंपनियों के साथ रेफरल व्यवस्था की अनुमति प्रदान की गई है ।

(ङ) बाजार विश्वसनीयता पर तकनीकी समूह

130. अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानकों और कूटों संबंधी स्थाई समिति ने एक आंतरिक तकनीकी समूह का गठन किया है जिसने बाजार विश्वसनीयता संबंधी अंतर्राष्ट्रीय मानकों की तुलना में भारत की स्थिति का मूल्यांकन किया है । इस समूह की रिपोर्ट के ज्यादा-से-ज्यादा प्रचार के लिए उसे भारतीय रिज़र्व बैंक वेबसाइट पर डाल दिया गया है ।

(च) अपने ग्राहक को जानिए’ मानकों और
नकद लेन-देन संबंधी दिशा-निर्देश

131. अप्रैल, 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में दर्शाए गए अनुसार ‘अपने ग्राहक को जानिए’(केवाइसी) मानकों तथा नकद लेन-देन संबंधी दिशा-निर्देश बैंकों के परामर्श से, इस संबंध में विद्यमान अनुदेशों के साथ जारी किए गए थे । इन दिशा-निर्देशों में घरेलू ओर विदेशी मुद्रा लेखे/लेन-देन दोनों ही आ जाते हैं । बैंकों को सूचित किया गया है कि वे ‘अपने ग्राहक को जानिए’ संबंधी एक सक्षम नीति लागू करें, काले धन को वैध बनाने को रोकने के उपाय करें, जिनमें खाते खोलते समय ग्राहक की पहचान के लिए कोई प्रणाली तथा कार्यविधि सम्मिलित हो तथा आंतरिक नियंत्रण और लेखा-परीक्षा तंत्र लागू करें और साथ ही जोखिम प्रबंधन व निगरानी कार्यविधि निर्धारित करें । विस्तृत दिशा-निर्देश भारतीय रिजॅर्व बैंक वेबसाइट पर उपलब्ध हैं ।

(छ) विशेष आर्थिक क्षेत्रों में बैंकों की विदेशी इकाइयां

132. वर्ष 2002-07 की निर्यात-आयात नीति में विशेष आर्थिक क्षेत्रों में बैंकों की विदेशी इकाइयां स्थापित करने की घोषणा की गई है । तदनुसार भारतीय रिज़र्व बैंक ने विशेष आर्थिक क्षेत्रों में बैंकों की विदेशी इकाइयों की एक योजना भारत में कार्यरत बैंकों की शाखाओं के रूप में तैयार की है और इसके लिए सरकार का अनुमोदन प्राप्त किया है । बैंकों को इस संबध में शीघ्र ही विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किए जाएंगे ।

(ज) बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं के सांविधिक
चलनिधि अनुपात से इतर (नॉन-एसएलआर) निवेशों
के संबंध में विवेकपूर्ण दिशा-निर्देश

133. अप्रैल, 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में दर्शाए गए अनुसार सांविधिक चलनिधि अनुपात से इतर निवेश संविभाग के प्रबंधन संबंधी विवेकपूर्ण दिशा-निर्देशों का प्रारूप बैंकों के पास उनके अभिमत जानने के लिए भिजवा दिया गया था । बाद में कार्य दल, (अध्यक्ष : श्री एस.आर.अय्यर, अध्यक्ष, सीआइबीआइएल) जो ऋण को निजी हैसियत में रखने संबंधी सूचनाएं एकत्र करने और उनके आदान-प्रदान हेतु ढांचा निर्मित करने के लिए बना है, ने संस्तुति की है कि निवेशक बैंकों/वित्तीय संस्थाओं को तभी निवेश करना चाहिए जब किसी रेटिंग एजेंसी द्वारा निर्गमों का रेटिंग किया गया हो। कार्यकारी दल की संस्तुतियों को तथा बैंकों से मिली प्रतिक्रियाओं को भी ध्यान में रखने के पश्चात आशोधित दिशा-निर्देशों के प्रारूप को भारिबैं-सेबी तकनीकी समिति को भेजा गया था ताकि समिति प्राइवेट प्लेसमेंट के प्रकटन और विनियमन के संबंध में विचार कर सके ।

(झ) देश विशेष के संदर्भ में जोखिम प्रबंधन

134. बैंकिंग पर्यवेक्षण के मुख्य सिद्धांतों के अनुपालन की दिशा में और आगे बढ़ने के नज़रिए से अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में दर्शाया गया था कि देश विशेष के संदर्भ में प्रबंधन और प्रावधानीकरण के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा दिशा-निर्देशों का प्रारूप जारी किया जाएगा । तदनुसार, देश विशेष के संदर्भ में जोखिम प्रबंधन पर दिशा-निर्देशों का प्रारूप और उसके साथ ‘चर्चा के लिए नोट’ बैंकों को भेजे गए थे तथा भारतीय रिजॅर्व बैंक वेबसाइट पर भी इसे डाला गया था ताकि उस पर अभिमत/विचार प्राप्त हो सकें । प्राप्त प्रतिसूचना के आधार पर अंतिम दिशा-निर्देश जारी किए जाएंगे ।

(ञ) निवेश घट-बढ़ आरक्षित निधि

135. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में निर्दिष्ट किए गए अनुसार भविष्य में ब्याज दर परिवेश की स्थिति विपरीत हो जाने की किसी संभावना को दूर करने के लिए पर्याप्त आरक्षित निधियां निर्मित करने के नजरिए से बैंकों को सूचित किया गया था कि वे निवेश घट-बढ़ आरक्षित निधि (आइएफआर) को निवेशों के संदर्भ में दो श्रेणियाें यथा - ‘व्यापार के लिए धारित’ (एचएफटी) तथा ‘बिक्री के लिए उपलब्ध’ (एएफएस) में निर्मित करें । मार्च 2002 के अंत में एचएफटी और एएफएस के तहत निवेश का 0.91 प्रतिशत आईएफआर निर्मित हुई । बैंकों की आइएफआर धारिताओं के वितरण दर्शाते हैं कि बैंकों के 47 प्रतिशत ने लगभग 1 प्रतिशत तक आरक्षित निधियां निर्मित की हैं जबकि बैंकों के 16 प्रतिशत अभी भी आइएफआर के लिए कोई प्रावधान नहीं कर सके हैं । विद्यमान दिशा-निर्देशों के अनुसार बैंकों से अपेक्षित है कि वे पांच वर्षों के भीतर न्यूनतम 5 प्रतिशत आइएफआर निर्मित करें ।

निक्षेप बीमा

136. अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में दर्शाए गए अनुसार निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम (डीआइसीजीसी) ने भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ परामर्श करके भारत में निक्षेप बीमा क्षेत्र में सुधारों पर सलाहकार दल की संस्तुतियों की जांच की और प्रस्तावित नए विधेयक के प्रारूप की रूप-रेखा सरकार के विचारार्थ भेजी । बजट 2002-03 में यह घोषणा की गई थी कि डीआइसीजीसी को बदलकर बैंक निक्षेप बीमा निगम (बीडीआइसी) कर दिया जाएगा । भारत के लिए एक उचित प्रणाली विकसित करने के लिए सरकार, भारतीय रिज़र्व बैंक और डीआइसीजीसी के अधिकारियों के एक संयुक्त दल ने अमेरिका में फेडरल डिपॉजिट इन्श्यूरेंस कारपोरेशन (एफडीआइसी) मॉडल और अन्य नियामक तथा पर्यवेक्षी एजेंसियों का अध्ययन किया । इसके अलावा, विधायी परिवर्तन, यदि कोई हाें, दल की रिपोर्ट अंतिम रूप से तैयार होने के पश्चात सरकार के विचारार्थ भेज दिए जाएंगे ।

विवेकपूर्ण और पर्यवेक्षी मानकों इत्यादि संबंधी कार्य दल

137. वित्तीय क्षेत्र के सुधार प्रारंभ करने में परामर्श की प्रक्रिया के एक भाग के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों, बाजार सहभागियों और संबंधित क्षेत्रों के विशेषज्ञों से लिए गए सदस्यों के साथ, विभिन्न नीतिगत विषयों पर कई कार्यकारी दल गठित किए । बैंकिंग क्षेत्र के विशेष संदर्भ में, वित्तीय क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर विद्यमान सर्वोत्तम प्रणालियां और प्रथाएं कार्यान्वित करने के लिए रूपरेखा सुझाने हेतु भी कार्यकारी दलों का गठन किया गया । इन कार्यकारी दलों की रिपोर्टों का परीक्षण आंतरिक रूप से किया गया और व्यापक प्रसार और टिप्पणियों के लिए जहां आवश्यक था वहां इन्हें भारतीय रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर भी डाला गया । नए कार्यकारी दलों के गठन और कुछ कार्यकारी दलों के संबंध में की गई प्रगति इस समीक्षा के संलग्नक-I में दर्शाई गई है ।

तकनीकी उन्नयन

138. वित्तीय क्षेत्र में तकनीकी उन्नयन के लिए इस कार्यक्रम का महत्वपूर्ण उद्देश्य विभिन्न भुगतान एवं निपटान प्रणालियों को एक सक्षम एवं समेकित प्रणाली से जोड़ा जाना है । विकास की रूपरेखा भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा तैयार किए गए ‘भुगतान प्रणाली अवलोकन अभिलेख’ में दी गई है तथा यह भारतीय रिज़र्व बैंक वेबसाइट पर भी उपलब्ध है । भुगतान एवं निपटान प्रणाली में सुधार प्रक्रिया निगोसिएटेड डीलिंग सिस्टम (एनडीएस), केंद्रीकृत निधि प्रबंध प्रणाली (सीएफएमएस), भारतीय समाशोधन निगम लि. (सीसीआईएल) द्वारा विदेशी मुद्रा समाशोधन तथा स्ट्रक्चड़ फाइनेंसियल मेसेजिंग सोल्यूशन (एसएफएमएस) के माध्यम से एक सुरक्षित संदेश अंतरण प्रणाली लागू किए जाने के साथ गति पकड़ रही है । इसके अतिरिक्त, इलेक्ट्रॉनिक निधि अंतरण (ईएफटी) सुविधाएं एक ही दिन में बहुविध निपटानों को प्रदान की गई हैं तथा आरटीजीएस प्रणाली के लिए तैयारी कार्य पूरा कर लिया गया है । तकनीकी विकास पर और विस्तृत ब्यौरे संलग्नक-II में दिए गए हैं ।

विधिक सुधार

139. हाल की अवधि में, सूचना एवं संचार तकनीक में प्रगति के साथ वित्तीय प्रणाली लगातार परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रही है । भारतीय रिज़र्व बैंक के लिए यह महत्वपूर्ण हो गया है कि वह परिचालनात्मक, नियंत्रक तथा पर्यवेक्षण ढांचे को समुचित रूप से अनुकूल बनाने में पर्याप्त लचीलापन दिखाए ताकि विकास के साथ-साथ चला जा सके । तदनुसार, भारतीय रिज़र्व बैंक ने वर्तमान अधिनियमों में विभिन्न संशोधनाें फरसरकार द्वारा विचार के लिए प्रस्ताव किया है जिससे दिन-प्रति-दिन के परिचालनों में और लचीलापन लाया जा सके । जहां कहीं आवश्यक है, वैध ढांचे में और किए जानेवाले परिवर्तनों का सुझाव देने के लिए कुछ कार्य दल भी गठित किए गए हैं और कुछ प्रस्तावित परिवर्तनों के संबंध में सरकार के विभिन्न स्तरों पर विचार जारी है । प्रस्तावित परिवर्तनों के ब्यौरे संलग्नक-III में दिए गए हैं ।

मुंबई
अक्तूबर 29, 2002


संलग्नक -I

कार्य दल : प्रगति रिपोर्ट

बैंक धोखाधड़ी पर विशेषज्ञ समिति

बैंक धोखाधड़ियों पर विशेषज्ञ समिति (अध्यक्ष: डॉ एन.एल. मित्रा) ने सिंतबर 2001 में अपनी रिपोर्ट भारतीय रिज़र्व बैंक को प्रस्तुत की है । समिति की सिफारिशों के दो भाग हैं : भाग I में दी गई सिफारिशों को बिना विधायी परिर्वतन के क्रियान्वित किया जा सकता है इसलिए ये सिफारिशें बैंकों को मई 2002 में क्रियान्वयन के लिए प्रेषित कर दी गई हैं । भाग II की सिफारिशों में विधायी परिर्वतन अपेक्षित हैं । यह रिपोर्ट भारतीय रिज़र्व बैंक के अभिमत के साथ केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) द्वारा गठित ‘बैकिंग क्षेत्र में धोखाधड़ियों पर उच्चस्तरीय दल’ को उनके अभिमत के लिए प्रेषित कर दी गई है ।

बैंकों के निदेशक बोर्डों की आंतरिक पर्यवेक्षण भूमिका
को सुदृढ़ बनाने के लिए सलाहकार दल

बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के निदेशकों के परामर्शदात्री दल (अध्यक्ष : डॉ.ए. एस. गांगुली, निदेशक, केंद्रीय बोड़, भारतीय रिज़र्व बैंक) ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है जिसमें बैंकों के बोर्डों की पर्यवेक्षीय भूमिका को सुदृढ़ बनाने के लिए महत्वपूर्ण सिफारिशें दी गई हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को सूचित किया है कि वे रिपोर्ट को अपने बोर्डों के समक्ष प्रस्तुत करें और जो सिफारिशें भारतीय रिज़र्व बैंक के विनियामक दायरे में आती हैं उन्हें अपनाकर उनका पालन करें। दल की जिन सिफारिशों के लिए विधायी संशोधन अपेक्षित था उन्हें सरकार के पास विचारार्थ भेज दिया गया है ।

मांग /सूचना मुद्रा बाज़ार के प्राथमिक व्यापारियों के लिए
सीमा निर्धारित करने हेतु मानदंडों की सिफारिश करने वाला कार्य दल

मांग/सूचना मुद्रा बाजार के प्राथमिक व्यापारियों के लिए सीमा निर्धारित करने हेतु मानदंडों की सिफारिश करने तथा मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार से उन्हें बाहर करने के लिए उपायों से संबंधित सुझाव देने के लिए एक कार्य दल (अध्यक्ष: श्री मुहम्मद ताहिर, कार्यपालक निदेशक, भारतीय रिज़र्व बैंक) का गठन किया गया । कार्य दल ने प्राथमिक व्यापारियों को सामान्य और बैक स्टॉप के बीच चलनिधि सुविधाओं के प्रभाजन की समीक्षा भी की । दल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है तथा इन सिफारिशों के आधार पर, भारतीय रिज़र्व बैंक ने एक परिपत्र जारी किया है जिसमें मांग/सूचना मुद्रा बाजार में प्राथमिक व्यापारियों के उधार देने और उधार लेने पर विवेकपूर्ण सीमा निर्धारित की है जो उनकी निवल स्वाधिकृत निधियों से संबद्ध है ।

पंजीकृत प्रतिभूतियों के ब्याज और मूलधन के पृथक लेन-देन
(स्ट्रिप्स) पर अनौपचारिक कार्यदल

जैसा कि अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में घोषित किया गया है, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों के प्रतिनिधियों और बाजार के अन्य सहभागियों के साथ स्ट्रिप्स पर परिचालनात्मक और विवेकपूर्ण दिशानिर्देशों के संबंध में सुझाव देने के लिए एक कार्य दल(अध्यक्ष:श्री एम.आर.रमेश,प्रबंध निदेशक, भारतीय समाशोधन निगम लि.) का गठन किया है । कार्य दल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है, जो व्यापक प्रसार हेतु भारतीय रिजॅर्व बैंक की वेबसाइट पर उपलब्ध है । दल की सिफारिशों की जांच भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा की जा रही है । प्रस्तावित सरकारी प्रतिभूति अधिनियम, जो स्ट्रिपिंग को सुगम बनाएगा, सरकार के विचाराधीन है ।

आवास ऋणों का प्रतिभूतीकरण

जैसा कि अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में प्रस्तावित है, बैंकों, आवास विकास वित्त निगम (एचडीएफसी) और भारतीय रिज़र्व बैंक के सदस्यों को सम्मिलित करके एक कार्य दल (अध्यक्ष: श्री आर.वी.वर्मा, कार्यपालक निदेशक, राष्ट्रीय आवास बैंक) का गठन किया गया है जो निवेशकों के आधार को व्यापक करने, परिसंपत्तियों की गुणवत्ता में सुधार लाने, आवासीय वित्त कम्पनियेां की बंधक रखी प्रतिभूतियों में व्यापार के लिए चलनिधि सृजित करने के तौर-तरीकों की तथा अन्य संबंधित मुद्दों की जांच करेगा । दल ने अभी अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की है ।

कंपनी ऋण पुन: संरचना

जैसा कि केंद्रीय बजट 2002-03 में घोषित किया गया है, कंपनी ऋण पुन: संरचना प्रणाली के परिचालन को और अधिक सक्षम बनाने के लिए विभिन्न उपायों के संबंध में सुझाव देने के लिए एक कार्य दल (अध्यक्ष : श्री वेपा कामेशम, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक) का गठन किया गया । कार्य दल ने अपनी रिपोर्ट जुलाई 31, 2002 को प्रस्तुत की, जिसकी जांच भारतीय रिज़र्व बैंक और सरकार द्वारा की जा रही है । आज तक, कंपनी ऋण पुन: संरचना कक्ष में 32 मामले प्राप्त हुए, जिनमें से 2,018 करोड़ रुपए के बैंकों/संस्थाओं के समग्र वित्त के 8 पुनर्गठन पैकेजों का अनुमोदन कार्यान्वयन हेतु कर दिया गया है । शेष 24 मामलों में से 7 मामले अस्वीकृत कर दिए गए हैं अथवा उन्हें वापस ले लिया गया है तथा शेष मामले प्रक्रिया के विभिन्न चरणों में हैं । अब तक, सभी घरेलू बैंकों (निजी क्षेत्र के 8 बैंकों को छोड़कर) ने करारों पर हस्ताक्षर कर दिए हैं । तथापि, विदेशी बैंकों ने अभी तक कानूनी करारों पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं क्योंकि वे कुछ स्पष्टीकरण मांग रहे हैं ।

नए कार्य दल

प्रावधानीकरण अपेक्षाएं -समीक्षा

भारत में कुछ बैकों ने अपने वित्तीय परिणाम भारतीय लेखांकन मानकों के साथ-साथ संयुक्त राष्ट्र के सामान्यतया स्वीकृत लेखांकन प्रणाली के अंतर्गत प्रकाशित किए हैं । प्रावधानीकरण अपेक्षाओं के संपूर्ण मुद्दे की समीक्षा हेतु तथा कुछ बैंकों द्वारा संयुक्त राष्ट्र के सामान्यतया स्वीकृत लेखांकन प्रणाली के साथ समनुरूपता की छानबीन के संदर्भ में एक कार्य दल का गठन किया गया है जो नई अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के अनुरूप परिवर्तनों तथा भारतीय वित्तीय प्रणाली के लिए उपयुक्त परिर्वतनों के संबंध में सुझाव प्रस्तुत करेगा ।

चेक ट्रंकेशन पर कार्य दल

अप्रैल 2001 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में चेक ट्रंकेशन के लिए कानूनी अपेक्षाओं का उल्लेख है । वसूली के लिए भेजे गए चेकों की वसूली में आने वाली कठिनाइयों में कागज- आधारित लिखतों का वास्तविक रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाना है । चेक ट्रंकेशन से चेकों और अन्य कागज-आधारित लिखतों की वसूली के लिए आवश्यक अवधि में पर्याप्त कमी आएगी और इसे प्रोसेसिंग के माध्यम से सुविधाजनक

बनाया जा सकेगा जिससे बैंक और ग्राहक, दोनों लाभान्वित होंगे । चूंकि चेक ट्रंकेशन के विभिन्न मॉडल विश्व में उपलब्ध हैं, अत: यह निर्णय लिया गया है कि एक कार्य दल का गठन किया जाए जो भारतीय परिवेश के लिए उपयुक्त मॉडल के संबंध में सुझाव देगा ।

संलग्नक-II

प्रौद्योगिकी उन्नयन : गतिविधियों की समीक्षा
राष्ट्रीय इलैक्ट्रॉनिक निधि अंतरण लागू करना

अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में बड़े पैमाने पर इलैक्ट्रॉनिक निधि अंतरण के प्रयोग पर जोर दिया गया है ताकि निधियों के आवागमन संबंधी कार्यक्षमता में वृद्धि हो और निधि अंतरण में जोखिम में कमी हो । यह सुनिश्चित करने के लिए कि निधि अंतरण के इलैक्ट्रॉनिक माध्यम के लाभ पूरे देश में सभी स्थानों पर उपलब्ध हों तथा इलैक्ट्रॉनिक निधि अंतरण से संबंधित संदेश सुरक्षित रूप से भेजे जा सकें, यह प्रस्तावित है कि भारतीय वित्तीय नेटवर्क (इनफिनेट) पर संरचित वित्तीय संदेश समाधान(एसएफएमएस ) के अंतर्गत उपलब्ध सुविधाओं का उपयोग करते हुए राष्ट्रीय इलैक्ट्रॉनिक निधि अंतरण आरंभ किया जाए । इसके परिणामस्वरूप इलैक्ट्रॉनिक निधि अंतरण की सुविधा बैंक की उस शाखा पर उपलब्ध होगी जहां (इनफिनेट) के साथ कनेक्टिविटी है तथा रिजर्व बैंक में एक ही स्थान पर लेखा बहियों में उन्हें समायोजित कर दिया जाएगा ।

शाखा स्वचलन और नेटवर्किंग

अप्रैल 2002 के वार्षिक नीति संबंधी वक्तव्य में समयबद्ध आधार पर शाखाओं के कंप्यूटरीकरण और नेटवर्किंग पर बैंकों द्वारा विशेष ध्यान दिए जाने की आवश्यकता पर जोर दिया गया है ताकि वे बेहतर भुगतान और समायोजन सेवाओं के लक्ष्य वाले नए उत्पादों में प्रभावी रूप से भाग लेने के लिए स्वयं को तैयार कर सकें । हालांकि, सरकारी क्षेत्र के बैंकों के बैंकिंग कारोबार का 80 प्रतिशत कंप्यूटरीकरण के माध्यम से होता है ; इनमें से अधिकतर प्रयास ‘स्टैंड एलोन’ आधार पर हैं । तथापि, समेकन और समन्वय में ग्राहकों को ‘किसी भी समय बैंकिंग’ और ‘कही भी बैंकिंग’ की सुविधाएं प्राप्त हैं । चूंकि ये शाखाओं के संपूर्ण शाखा स्वचलन और नेटवर्किंग पर आधारित हैं, अत: यह आवश्यक है कि मुख्य बैंकिंग सोल्यूशन अथवा केंद्रीकृत डाटा बेस एक्सेस/सामूहिक सोल्यूशंस को बैंकों की शाखाओं के आंतरिक कम्प्यूटरीकरण की गति और उनकी अंतर कनेक्टिविटी की गति को बढ़ाया जाए।

भुगतान प्रणाली सुपुर्दगी माध्यमों में हिस्सेदारी

बैंकिंग क्षेत्र के सुपर्दगी माध्यमों में हुई गतिवधियों से स्पष्ट होता है कि शाखा बैंकिंग, स्वचलित टेलर मशीनें (एटीएम), टेली बैकिंग, इंटरनेट बैंकिंग,मोबाइल बैंकिंग आदि जैसे बहुमुखी भुगतान सुपुर्दगी माध्यम अधिक संख्या में उभर कर आए हैं । हालांकि, प्रत्येक बैंक द्वारा इस प्रकार से किए गए पृथक प्रयासों से, स्वचलित टेलर मशीनों की सेवाएं उपलब्ध कराने के संबंध में, प्रतिस्पर्धा तथा उत्पाद विशिष्टीकरण सुनिश्चित होता है, लेकिन ये प्रयास अक्सर अव-स्तरीय और अधिक लागत वाली सेवाएं सिद्ध हुए हैं । यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रतिस्पर्धा तथा सेवाओं की विविधता में कमी न हो तथा यह भी कि ये सेवाएं कम लागत पर उपलब्ध कराई जाएं; उन बैंकों को जो अपनी स्वचलित टेलर मशीनों का इष्टतम उपयोग नहीं कर पा रहे हैं उन्हें सेवा प्रदान करने वाले अथवा अन्य बैंकों की स्वचलित टेलर मशीनों के सुदृढ़ नेटवर्क में सम्मिलित होकर उसमें हिस्सेदारी करने का प्रोत्साहन दिया जाता है ।

बैंकिंग और वित्त्तीय क्षेत्र में नेटवर्क पर सूचना सुरक्षा

बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र की निर्भरता अपने परिचालनों के लिए आंतरिक और बाहरी नेटवर्क पर बढ़ती जा रही है । नेटवर्क पर सूचना की सुरक्षा के लिए विभिन्न साधन यथा- फायरवाल, इंट्रूजन डिटेक्शन, एंटी वायरस ऑथेंटिकेशन, पब्लिक की इन्फ्रास्ट्रक्चर (पीकेआइ) इत्यादि उपलब्ध हैं । बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र के लिए बैकिंग तकनीक विकास और अनुसंधान संस्थान (आइडीआरबीटी) को प्रमाणीकरण प्राधिकरण के रूप में मान्यता प्राप्त है । वित्तीय क्षेत्र के लिए आइडीआरबीटी द्वारा स्थापित सुरक्षित नेटवर्क, इन्फिनेट सूचना की सुरक्षा बढ़ाने के लिए पीकेआइ का प्रयोग करता है । बैंकों को प्रोत्साहन दिया जाता है कि वे अपेक्षित पंजीकरण प्राधिकरण का सृजन करके पीकेआइ का प्रयोग करें ।

भारतीय समाशोधन निगम लि. द्वारा विदेशी मुद्रा समाशोधन

भारतीय समाशोधन निगम लि. (सीसीआइएल) गारंटीयुक्त निपटान आधार पर भारत में निवल विदेशी मुद्रा समाशोधन आरंभ करने वाला है । सभी सहभागियों को सूचित किया गया है कि वे निपटान गारंटी निधि में अंशदान दें ताकि भारतीय समाशोधन निगम लि. इस सुविधा के लिए संपार्श्विक देकर नवंबर के आरंभ में इसका परिचालन आरंभ कर सके ।


संलग्नक III

विधिक सुधार: गतिविधियों की समीक्षा

  • परक्राम्य लिखत (संशोधन) विधेयक, 2002 पर एक नया बिल (परक्राम्य लिखत विधेयक, 2001 को प्रतिस्थापित करते हुए) परक्राम्य लिखत (एनआइ) अधिनियम, 1881 के संबंध में गठित कार्य दल की सिफारिशों को ध्यान में रखते हुए वित्त संबंधी स्थायी समिति द्वारा सिफारिश किए गए परिवर्तनों को शामिल करने के बाद संसद में प्रस्तुत किया गया है । इस बिल में ‘इलेक्ट्रॉनिक चेक’ और ‘चेक ट्रंकेशन’ लागू करने के लिए प्रावधान है ।
  • वित्तीय परिसंपत्ति का प्रतिभूतीकरण और पुनर्निर्माण एवं प्रतिभूति ब्याज प्रवर्तन अध्यादेश, 2002 जो जून 21, 2002 को प्रवर्तित किया गया, को अगस्त 21, 2002 को पुन:प्रवर्तित किया गया । इस अध्यादेश में निम्नलिखित हेतु प्रावधान है : (क) बैंकों और वित्तीय संस्थाओं की वित्तीय परिसंपत्तियों के प्रतिभूतीकरण और पुनर्निर्माण के लिए कानूनी ढाँचा और तंत्र; (ख) न्यायालय के हस्तक्षेप के बिना रक्षित परिसंपत्तियों के अधिग्रहण एवं सीधे उसकी बिक्री करके बैकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रतिभूति ब्याज प्रवर्तित करना, (ग) रक्षित ऋणकर्ताओं के पक्ष में निर्मित प्रतिभूति ब्याज को पंजीकृत करने के लिए एक केंद्रीय पंजीकरण की व्यवस्था, तथा (घ) प्रतिभूतीकरण कंपनियों (एससी) और पुनर्निर्माण कंपनियों (आरसी) का पंजीकरण करने, विवेकपूर्ण मानंदडों के संबंध में नीति निर्धारित करने और निदेश देने एवं परिसंपत्ति के पुनर्निर्माण को शामिल करते हुए उपायों के लिए दिशा-निर्देश बनाने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक को शक्तियां देना । तदनुसार, जहां तक प्रतिभूति ब्याज के प्रवर्तन का संबंध है, सरकार द्वारा नियम अधिसूचित किए गए हैं । रिज़र्व बैंक ने पंजीकरण के लिए उपयुक्त मानदंड निर्धारित करने, विवेकपूर्ण मानदंड तय करने, समुचित और पारदर्शी लेखाविधि और प्रकटीकरण मानकों की सिफारिश करने एवं परिसंपत्ति के पुनर्निर्माण/ प्रतिभूतीकरण के संचालन के लिए उचित दिशा-निर्देश बनाने के लिए दो कार्य दल गठित किए हैं ।
  • भुगतान प्रणाली पर विधायी मसौदा तैयार करने के संबंध में विचार करने के लिए गठित समिति ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है।
  • औद्योगिक और वाणिज्यिक उपक्रमों को देय ऋणों की फैक्टरिंग संबंधी बिल सरकार को विचारार्थ प्रस्तुत किया जा चुका है।
  • प्राधिकृत पूंजी को बढ़ाने, शेयरधारकों के मतदान अधिकारों को बैंकिंग विनियमन अधिनियम के उपबंधों के अनुरूप करने, स्थानीय बोड़ के अधिकारों को युक्तियुक्त बनाने, अन्य बैंकों के कारबार के अभिग्रहण और कंपनी अधिनियम के समान ही शेयरों से संबंधित प्रक्रियात्मक मामलों की व्यवस्था को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम, 1955 में संशोधन करने का प्रस्ताव रखा गया है। इसी प्रकार इसकी प्राधिकृत पूंजी को बढ़ाने और इसके सहायक बैंकों में भारतीय स्टेट बैंक की शेयरधारिता (स्टेक) कम कर 51 प्रतिशत तक लाने के लिए भारतीय स्टेट बैंक (समनुषंगी बैंक) अधिनियम, 1959 में भी इसी प्रकार के संशोधनों का प्रस्ताव रखा है। इस संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने विचार सरकार को प्रस्तुत किए हैं।
  • माथुर समिति की रिपोर्ट की सिफारिशों के आधार पर भारतीय स्टेट बैंक, राष्ट्रीय बैंक तथा राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक में भारतीय रिज़र्व बैंक की शेयरधारिता के विनिवेश के लिए भारतीय स्टेट बैंक अधिनियम, राष्ट्रीय आवास बैंक अधिनियम तथा राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक अधिनियम में संशोधन का प्रस्ताव सरकार को भेजा जा चुका है।
  • काले धन को वैध बनाने की रोकथाम संबंधी बिल, 1999 को राज्य सभा ने कुछ संशोधनों के बाद पारित कर दिया है । अभी लोक सभा से मंजूरी मिलना बाकी है।


* इस भाग में मौद्रिक और बैंकिंग के समग्र आंकड़ों को सामान्यत: निकटतम 100 करोड़ रुपए में पूर्णांकित किया गया है ।

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