वर्ष 2001-2002 के लिए मौद्रिक एवं ऋण नीति पर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. विमल जालान का वक्तव्य - आरबीआई - Reserve Bank of India
वर्ष 2001-2002 के लिए मौद्रिक एवं ऋण नीति पर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. विमल जालान का वक्तव्य
वर्ष 2001-2002 के लिए मौद्रिक एवं ऋण नीति पर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. विमल जालान का वक्तव्य
इस वक्तव्य के तीन भाग हैं : (I) वर्ष 2000-01 के दौरान समष्टि-आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा, (II) वर्ष 2001-02 के लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य, तथा (III) वित्तीय क्षेत्र के सुधार और मौद्रिक नीति उपाय ।
2. इस वर्ष की नीति ऐसे समय प्रस्तुत की जा रही है जब वित्तीय प्रणाली के कुछ खंडों में गंभीर कमियां उजागर हुई हैं । यह महत्वपूर्ण है कि जो कमजोरियां पायी गयी हैं उन्हें दूर करने के लिए अत्यावश्यक तौर पर जरूरी सुधारात्मक कार्रवाई की जाए ताकि भारत का वित्तीय क्षेत्र लगातार सुदृढ़ और सुरक्षित रहे । इस प्रणाली को और मजबूत बनाने के लिए कुछ विवेकपूर्ण उपायों के संबंध में भाग III में विचार किया गया है ।
3. पिछले वर्ष की तरह, समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की एक तकनीकी और विश्लेषणात्मक समीक्षा एक अलग दस्तावेज के रूप में जारी की जा रही है । इस दस्तावेज में सरल तालिकाओं और सारणियों की सहायता से आवश्यक समष्टि आर्थिक और अन्य जानकारी कुछ अधिक विस्तृत रूप में दी गई है ।
घरेलू गतिविधियां
4. केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन ( सीएसओ) के नवीनतम अनुमानों के अनुसार वर्ष 2000-01 में सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि पिछले दो वर्षों के 6.4 प्रतिशत और 6.6 प्रतिशत की तुलना में लगभग 6.0 प्रतिशत होने की संभावना है । कृषि क्षेत्र में वृद्धि पिछले वर्ष के 0.7 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2000-01 के दौरान 0.9 प्रतिशत रही । खनन और उत्खनन के क्षेत्र में वृद्धि एक वर्ष पहले के 1.7 प्रतिशत की तुलना में उल्लेखनीय रूप से 4.5 प्रतिशत होने का अनुमान किया गया था । वर्ष 2000-01 के दौरान औद्योगिक क्षेत्र में समग्र वृद्धि का निष्पादन पिछले वर्ष की स्थिति से अपेक्षाकृत कम रहने का अनुमान है । सेवा क्षेत्र, विशेष रूप से सूचना प्रौद्योगिकी और उससे संबंधित सेवाओं के निरंतर अच्छे निष्पादन को संबद्ध करते हुए, कृषि की न्यून वृद्धि के बावजूद यह अनुमान है कि अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 6.0 प्रतिशत अथवा उसके बहुत निकट होने का अनुमान है ।
5. गुजरात के भूकंप ने काफी नुकसान पहुंचाया है । जहां एक ओर उत्पादन की तत्काल क्षति बहुत ज्यादा होने की संभावना नहीं है, वहीं दूसरी ओर बुनियादी संरचना को बहाल करने की लागत के संबंध में यह अनुमान है कि इससे इस राज्य पर राजकोषीय भार अधिक पड़ेगा जो राजस्व की हानि तथा राहत और पुनर्वास के वित्तपोषण को प्रतिबिंबित करता है । राज्य के प्रधान कृषि पण्यों, जैसे -तिलहन, कपास और तंबाकू का उत्पादन बाधित हो सकता है । जहां बड़े औद्योगिक संस्थापनों को कोई भारी क्षति नहीं पहुंची है, वहीं बुनियादी सुविधाओं में बाधाओं के कारण औद्योगिक परिवेश प्रभावित हो सकता है । इन नकारात्मक कारणों के बावजूद, समग्र रूप से, सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि पर भूकंप का प्रभाव मामूली रहने का अनुमान है । इस स्थिति का सामना करने में राज्य सरकार को सक्षम बनाने हेतु रिज़र्व बैंक ने कई उपाय किये हैं जिनकी समीक्षा इस वक्तव्य के भाग III में दी गई है ।
6. बिन्दु-दर-बिंदु आधार पर मुद्रास्फीति की वार्षिक दर थोक मूल्य सूचकांक (आधार 1993-94=100) में घट-बढ़ द्वारा मापे गए रूप में एक साल पहले के 6.8 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2000-01 में 4.9 प्रतिशत अंकित की गई । जबकि 3.7 प्रतिशत पर विनिर्मित उत्पादों (भार 63.7) के कारण मुद्रास्फीति मामूली थी, प्राथमिक वस्तुओं (भार 22.0) ने 0.3 प्रतिशत की सामान्य गिरावट दर्शायी । थोक मूल्य सूचकांक में वृद्धि मुख्य रूप से ‘ईंधन, पावर, बिजली और चिकनाई के पदार्थ’ के उप-समूह (भार 14.2) के मूल्यों में वृद्धि के कारण थी, जिसने एक वर्ष पहले की 26.9 प्रतिशत की वृद्धि से भी ऊपर 15.3 प्रतिशत की भारी वृद्धि दर्ज की । उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के अंतर्गत प्रतिबिंबित मुद्रास्फीति फरवरी 2001 के अंत तक 3.0 प्रतिशत (बिंदु-दर-बिंदु आधार पर) और 4.0 प्रतिशत (औसत आधार पर) पर काफी निम्नतर थी ।
7. वर्ष 2000-01 के दौरान, बिंदु-दर-बिंदु आधार पर मुद्रा आपूर्ति (एम3) में वार्षिक वृद्धि एक साल पहले के 14.6 प्रतिशत की तुलना में 16.2 प्रतिशत पर उच्चतर रही । समग्र मौद्रिक विस्तार में इंडिया मिलेनियम जमाराशियों (आइएमडी) की लगभग 26,000 करोड़ रुपए की बड़ी राशि प्राप्त हुई । आइएमडी प्राप्तियों के निवल रूप में एम3 में वार्षिक वृद्धि 13.9 प्रतिशत होगी । एम3 के घटकों में, अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशियों में 17.8 प्रतिशत की वृद्धि पिछले वर्ष के 13.9 प्रतिशत की तुलना में उच्चतर रही । जनता के पास मुद्रा में विस्तार पिछले वर्ष के 11.7 प्रतिशत (लगभग 19,800 करोड़ रुपए) की तुलना में 10.8 प्रतिशत (लगभग 20,400 करोड़ रुपए) पर निम्नतर रहा । इसका आंशिक कारण न्यूनतर कृषि कार्यकलाप और आंशिक कारण वाई2के की अनिश्चितताओं से पिछले वर्ष निर्मित बड़ा आधार था ।
8. वर्ष 2000-01 के दौरान आरक्षित मुद्रा में हुई 8.3 प्रतिशत (लगभग 23,200 करोड़ रुपए) की वृद्धि पिछले वर्ष की 8.1 प्रतिशत (लगभग 21,000 करोड़ रुपए) की वृद्धि से तुलनीय थी । जबकि केंद्र सरकार के घाटे का मौद्रीकरण लगभग 9,000 करोड़ रुपए का था, आरक्षित मुद्रा में विस्तार बड़े पैमाने पर निवल विदेशी मुद्रा आस्तियों (एनएफईए) में वृद्धि से हुआ । दूसरी ओर, बैंकों और वाणिज्य क्षेत्र पर दावों ने लगभग 5,800 करोड़ रुपए की गिरावट दर्शायी जो सरल चलनिधि स्थितियों को प्रतिबिंबित करती है ।
9. खाद्येतर ऋण की वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि, जो वर्ष की पहली तीन तिमाहियों (अप्रैल-दिसंबर 2000) के दौरान 19-22 प्रतिशत के दायरे में थी, पिछले वर्ष में हुई वृद्धि की तुलना में उल्लेखनीय रूप में अधिक थी । इस अवधि में ऋण के विस्तार ने अंशत: उर्वरक, चीनी, पेट्रोलियम और आटोमोबाइल के स्टॉकों में वृद्धि को प्रतिबिंबित किया । इसके अतिरिक्त, बुनियादी संरचना क्षेत्र और फुटकर खंड को ऋण की उपलब्धता अपेक्षाकृत अधिक थी । उपभोक्ता ऋण का भी इसी दिशा में उपभोक्ता टिकाऊ वस्तुओं के उत्पादन में तीव्र वृद्धि के साथ ही विस्तार हुआ था । फिर भी, ऋण वृद्धि की गति में दिसंबर 2000 से कमी आयी है जो मंद औद्योगिक कार्यकलापों के अनुरूप ही है । पूरे वर्ष के लिए खाद्येतर ऋण ने पिछले वर्ष की 16.5 प्रतिशत (58,200 करोड़ रुपए) की वृद्धि के मुकाबले 14.3 प्रतिशत (58,800 करोड़ रुपए) की निम्नतर वृद्धि दर्ज की है ।
10. वाणिज्य क्षेत्र को अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से निधियों का कुल प्रवाह, जिसमें सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों और निजी कंपनी क्षेत्र के बांडों/डिबेंचरों/शेयरों, वाणिज्य पत्र, आदि में बैंकों के निवेश शामिल हैं, पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 71,600 करोड़ रुपए (17.9 प्रतिशत) की तुलना में लगभग 71,500 करोड़ रुपए (15.1 प्रतिशत) पर होने का अनुमान है । पूंजी निर्गमों, सार्वभौमिक निक्षेपागार रसीदों (जीडीआर) और वित्तीय संस्थाओं से उधार-सहित वाणिज्य क्षेत्र को संसाधनों का कुल प्रवाह पिछले वर्ष के 1,38,000 करोड़ रुपए की तुलना में लगभग 1,49,000 करोड़ रुपए रहा ।
11. खाद्य ऋण में वृद्धि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 8,900 करोड़ रुपए की तुलना में 14,300 करोड़ रुपए रही जो बड़े पैमाने पर सरकारी खरीद कार्यों को प्रतिबिंबित करती है । खाद्यान्नों का सुरक्षित भंडार फरवरी 2001 की समाप्ति पर 46.8 मिलियन टन की उच्चतर सीमा पर पहुंच गया था । इस प्रकार के बड़े सुरक्षित भंडार के कार्यकलापों के राजकोषीय और मौद्रिक परिप्रेक्ष्यों से उत्पन्न होनेवाली अवसर-लागतों के संबंध में सावधानीपूर्वक विचार करने की आवश्यकता है । जैसे-जैसे खाद्यान्नों की सरकारी खरीद और निर्गम मूल्यों के बीच अंतर बढ़ जाता है, वैसे-वैसे बड़ा सुरक्षित भंडार लक्ष्य उपभोक्ताओं को लाभ पहुंचाने के बजाय, उत्पादकों की सब्सिडी का स्वरूप ग्रहण करके खाद्यान्न सब्सिडी के रूप में परिणत होने की प्रवृत्ति दर्शाता है । इस संदर्भ में, संघीय बजट 2001-02 में घोषित खाद्यान्न संबंधी अर्थव्यवस्था के प्रबंध में सुधार, जैसे-सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए खाद्यान्नों की खरीद और वितरण दोनों में राज्य सरकारों की भूमिका को व्यापक बनाने, खाद्यान्नों की मुक्त अंतर-राज्य आवाजाही को सुसाध्य बनाने के लिए अनिवार्य वस्तु अधिनियम (1955) के परिचालनों की समीक्षा तथा अनिवार्य वस्तुओं की सूची में कटौती करने का उद्देश्य खाद्यान्नों की सरकारी खरीद और वितरण प्रणाली की कार्यकुशलता बढ़ाना है ।
12. संघीय बजट के संशोधित अनुमानों के अनुसार, वर्ष 2000-01 के लिए केंद्र सरकार का राजकोषीय घाटा 1,11,972 करोड़ रुपए पर रखा गया जबकि बजट अनुमान 1,11,275 करोड़ रुपए का था । राजकोषीय घाटे पर इस नियंत्रण से मौद्रिक और ऋण प्रबंध के कार्य में सुविधा हुई क्योंकि केंद्र सरकार का बाजार उधार कार्यक्रम (सकल 1,15,183 करोड़ रुपए तथा निवल 73,787 करोड़ रुपए) ब्याज-दरों पर अनुचित दबाव के बिना चलाया जा सका । राज्य सरकारों के 12,880 करोड़ रुपए के निवल बाजार उधार लगभग उतने ही थे जितने कि पिछले वर्ष में 12,886 करोड़ रुपए के थे । वर्ष 2001-02 के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 4.7 प्रतिशत तक राजकोषीय घाटे में अनुमानित कमी तथा राजकोषीय दायित्व विधान की प्रत्याशा से ऋण प्रबंध के सुचारु रूप से संचालन के लिए अनुकूल वातावरण उपलब्ध होना चाहिए ।
13. जैसा कि नीति से संबंधित पिछले वक्तव्यों में जोर दिया गया है, समग्र मौद्रिक प्रबंध तब कठिन हो जाता है जब सरकार का बड़ा और वृद्धिशील उधार कार्यक्रम, वर्ष-दर-वर्ष, बाजार की अवशोषी क्षमता पर दबाव डालता है । बैंकिंग प्रणाली अब भी अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं का लगभग 35.0 प्रतिशत सरकारी प्रतिभूतियों में रखती है जबकि न्यूनतम सांविधिक अपेक्षा 25.0 प्रतिशत की है । मात्रा की दृष्टि से, सांविधिक चलनिधि अनुपात से अधिक ऐसी धारिताओं की राशि 1,00,000 करोड़ रुपये तक रही, जो सरकार की निवल वार्षिक उधार राशियों से बहुत अधिक है । इस संदर्भ में, 2001-02 के केंद्रीय बजट में किया गया राजकोषीय समेकन का प्रयास अत्यंत स्वागतयोग्य कदम है । संविदा बचतों पर ब्याज-दरों को कम करने के साथ-साथ राजकोषीय घाटे में कमी होने से एक अनुकूल ब्याज-दर प्रणाली की तरफ अग्रसर होने में मदद मिलेगी । इससे भौतिक और सामाजिक संरचना में अत्यावश्यक निवेश हेतु सरकारी संसाधनों को उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी, जिसके फलस्वरूप निजी निवेश को बढ़ावा मिल सकता है । लगातार होनेवाले राजकोषीय समेकन से उत्पन्न अतिरिक्त लाभों को अर्थव्यवस्था की मुद्रास्फीतिकारी अपेक्षाओं के स्थिरीकरण के जरिए कुछ समय बाद प्राप्त किया जाएगा ।
14. भारत सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों के प्राथमिक निर्गम की औसत लागत वर्ष 2000-01 में पिछले वर्ष के 11.77 प्रतिशत से घटकर 10.95 प्रतिशत हो गयी, जो ब्याज लागत में 80 आधार अंकों से अधिक की कमी दर्शाता है । वर्ष के उत्तरार्ध में समस्त परिपक्वताओं में सरकारी प्रतिभूतियों पर अनुषंगी बाज़ार की आय में भी स्पष्ट कमी आयी है । एक वर्षीय अवशिष्ट परिपक्वतावाली सरकारी प्रतिभूतियों पर आय, जो अगस्त 2000 में अप्रैल 2000 के 9.23 प्रतिशत से बढ़कर 10.82 प्रतिशत के शिखर पर पहुंच गयी थी, बाद में मार्च 2001 तक संयत होकर 9.05 प्रतिशत हो गयी । अत: अगस्त 2000 से इन प्रतिभूतियों की आय में 180 आधार अंकों (अथवा 1.8 प्रतिशत अंक) की कमी आयी है । इसी प्रकार, दस-वर्षीय अवशिष्ट परिपक्वतावाली सरकारी प्रतिभूतियों पर आय, जो अप्रैल 2000 के 10.37 प्रतिशत से बढ़कर सितंबर 2000 में 11.57 प्रतिशत हो गयी थी, मार्च 2001 तक गिरकर 10.36 प्रतिशत हो गयी ।
15. चलनिधि संबंधी सुखद स्थितियों और कम ब्याज-दर माहौल के होते हुए समग्र मौद्रिक स्थितियां अब युक्तियुक्त रूप से अनुकूल हैं । तथापि, पिछले साल का अनुभव एक और बार इस बात की पुष्टि करता है कि अब मौद्रिक प्रबंधन पहले के कुछ ही वर्षों की तुलना में भी अत्यधिक जटिल हो गया है । ऐसा कई कारणों से हुआ है, जैसे - विश्व भर में वित्तीय बाजारों में वर्तमान में होनेवाला एकीकरण, वित्तीय लेनदेनों में अत्यधिक वृद्धि, अर्थव्यवस्था का उदारीकरण और नई प्रौद्योगिकी के कारण अप्रत्याशित घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय छटकों को विश्व भर के वित्तीय बाज़ाराें में संप्रेषित करने में शीघ्रता । यह याद होगा कि पिछले वित्तीय वर्ष के प्रारंभ में, रिजॅर्व बैंक ने मौद्रिक नीति को सुगम बनाने हेतु कदम उठाये थे । तथापि, अननुकूल अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों, विशेषकर प्रमुख औद्योगिक अर्थव्यवस्थाओं में ब्याज-दरों में लगातार हुई वृद्धि को देखते हुए इन उपायों से पीछे हटना पड़ा था (जुलाई 2000 में) । अमरीका और यूरोप के केंद्रीय बैंकों-सहित अन्य मौद्रिक प्राधिकारियों का भी यह अनुभव रहा है कि उन्हें उभरती परिस्थिति के परिप्रेक्ष्य में नीतिगत उद्देश्य में शीघ्रता से बदलाव लाना पड़ा । इस पर बल देना आवश्यक है, क्योंकि यदि वर्तमान आर्थिक परिस्थितियां बदल जाती हैं तो पुन: उपयुक्त आर्थिक उपाय करने पड़ सकते हैं जो वर्तमान सुखद स्थितियों के अनुकूल नहीं हो सकते हैं । इन यथार्थ स्थितियों को ध्यान में रखते हुए बैंको और वित्तीय संस्थाओं के लिए यह विशेषत: महत्वपूर्ण है कि वे अपनी कारोबार योजनाओं में अप्रत्याशित आकस्मिकताओं के लिए पर्याप्त व्यवस्था करें और वे अपने परिचालनों पर मौद्रिक और बाह्य माहौल में होनेवाले परिवर्तनों की निहित समस्याओं को पूर्णरूपेण ध्यान में रखें ।
16. अद्यतन उपलब्ध आंकड़ों पर आधारित संभाव्य मुद्रास्फीतिकारी दबावों के सही आकलन में होनेवाली कठिनाई निश्चित अवधियों में मौद्रित नीति के संचालन को और उलझाने वाला एक तत्व है । यद्यपि थोक मूल्य सूचकांक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक की मुद्रास्फीतिकारी दरें सामान्यत: एक साथ परिवर्तित होती हैं, तथापि ऐसी अवधियां आयी हैं जब एक दर दूसरी दर से विपरीत दिशाओं में काफी भिन्न थी । उदाहरण के लिए, 1995-96 से 1998-99 तक की अवधि के दौरान, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति थोक मूल्य सूचकांक से उल्लेखनीय रूप से अधिक थी, जबकि 1999-2000 और 2000-01 में स्थिति विपरीत थी । दूसरे, यद्यपि इस बात पर मतभेद नहीं है कि मध्यम और दीर्घ काल में मुद्रास्फीति का प्रमुख कारण मौद्रिक विस्तार होता है, फिर भी अल्पावधि में मुद्रास्फीति गैर-मौद्रिक और आपूर्ति संबंधी तत्वों से बुरी तरह से प्रभावित हो सकती है । यह याद होगा कि वर्ष 1998-99 के प्रारंभ में फलों और सब्जियों - जैसे खाद्य-पदार्थों के मूल्यों में हुई उल्लेखनीय वृद्धि के बाद थोक मूल्य सूचकांक में उतार-चढ़ाव से मापित स्थायी मुद्रास्फीति दर में तीव्र वृद्धि परिलक्षित हुई थी और अक्तूबर 1998 में मौद्रिक नीति की बागडोर को कसकर बांधने का निर्णय लिया गया था क्योंकि मूल्यों में ऐसी वृद्धि अस्थायी आपूर्तिजन्य समस्याओं से हुई । ज्यों ही आपूर्ति स्थिति में सुधार आया, मुद्रास्फीति दर अपने आप उलट गयी और पहले अपनाया गया मौद्रिक नीति का उद्देश्य सही साबित हुआ । (तथापि, यदि अप्रत्याशित मांग अथवा आपूर्ति संबंधीं दबावों के उभरने के कारण मुद्रास्फीतिकारी दबाव जारी रहा होता अथवा उसमें तेजी हुई होती तो स्थिति अलग होती) ।
17. हम ने 2000-01 की अधिकांश अवधि के दौरान ऐसी ही स्थिति का सामना किया जबकि समग्र मुद्रास्फीति दर में बढ़त कच्चे तेल की अंतर्राष्ट्रीय कीमत में हुई तीव्र वृद्धि से उत्पन्न हुई । यदि थोक मूल्य सूचकांक से पेट्रोलियम संबंधी उप-समूह में हुई मूल्य-वृद्धि को अलग किया जाए तो मुद्रास्फीति दर, जो जनवरी 2001 के मध्य में 4.8 प्रतिशत के शिखर पर पहुंच गयी थी, अब मार्च 2001 के अंत में 2.6 प्रतिशत तक कम हो गयी है । अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि उपयुक्त नीतिगत उद्देश्य निर्धारित करने से पहले विभिन्न दृष्टियों से अंतर्निहित मुद्रास्फीति की दर समझी जाए । रिज़र्व बैंक विभिन्न सूचकांकों और मौद्रित निर्देशकों के सेट, जो बदलते माहौल में मौद्रित नीति बनाने में सबसे अच्छा मार्गदर्शन प्रदान कर सकता है, पर आधारित मुद्रास्फीति संबंधी दृष्टिकोण के आकलन के लिए कार्यपद्धति को और परिमार्जित करने का अपना वर्तमान कार्य जारी रखेगा ।
18. अप्रैल 1999 के वक्तव्य में, मौद्रिक नीति की प्रेषण प्रणाली को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक मजबूत अल्पकालिक परिचालनगत मॉडल को विकसित करने की आवश्यकता का उल्लेख किया गया था । इसके अनुरूप, उपलब्ध आंकड़ों के आधार पर एक चलनिधि आकलन मॉडल की संरचना की जा रही है ताकि वित्तीय प्रणाली के विभिन्न खंडों के बीच प्रणाली तथा अंतर संबंधों का आकलन किया जा सके ।
बाह्य गतिविधियां
19. अप्रैल 2000 में, पिछला वार्षिक नीतिगत वक्तव्य प्रस्तुत किये जाने के बाद बाह्य माहौल में उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं । यह याद होगा कि वर्ष 1999-2000 में तेल की कीमतों में हुई तीव्र वृद्धि के बावजूद भारत की विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में 5.5 बिलियन अमरीकी डालर की बढ़त हुई और विदेशी मुद्रा बाज़ार सामान्यत: स्थिर रहा । वर्ष 2000-01 के पूर्वार्ध में विशेषकर मध्य-मई से मध्य-अगस्त 2000 तक की अवधि में यह स्थिति उल्लेखनीय रूप से परिवर्तित हुई । तेल की कीमतों में लगातार हुई वृद्धि के साथ-साथ अमरीका और यूरोप में ब्याज-दरों में लगातार वृद्धि और निम्नतर पूंजी प्रवाहों के कारण वर्ष के प्रथम छह महीनों में भारत की विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में 2.5 बिलियन अमरीकी डालर की कमी आयी । अप्रैल और सितंबर 2000 के बीच अमरीकी डालर की तुलना में रुपये के मूल्य में 5.3 प्रतिशत का ह्रास होने के कारण विदेशी मुद्रा बाजार में भी उल्लेखनीय रूप से अस्थिरता दिखायी दी । इस अवधि के दौरान, यूरो और पौंड स्टेर्लिंग - जैसी अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में भी अमरीकी डालर का मूल्य बढ़ा ।
20. तथापि, वर्ष के उत्तरार्ध में विदेशी मुद्रा बाजार में अत्यधिक बदलाव परिलक्षित हुआ । भारत की विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में लगभग 7.0 बिलियन अमरीकी डालर की वृद्धि हुई और विदेशी मुद्रा दरों का उतार-चढ़ाव सामान्यत: व्यवस्थित तथा सीमाबद्ध रहा । यह अनुकूल गतिविधि मुख्यत: भारतीय स्टेट बैंक द्वारा इंडिया मिलेनियम डिपोजिट्स (आइएमडी) स्कीम, जिससे 5.5 बिलियन अमरीकी डालर की जमाराशियां प्राप्त की गयीं, के बहुत ही सफल ढंग से लागू किये जाने के कारण भारत की बाह्य संभावनाओं में विश्वास वापस आने की वजह से हुई । यह उल्लेखनीय है कि यदि आइएमडी स्कीम को अलग किया जाए तो वास्तव में वर्ष के उत्तरार्ध में भारत की विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में 1.5 बिलियन अमरीकी डालर की बढ़त हुई (तुलनात्मक आधार पर वर्ष के पूर्वार्ध में हुई 2.5 बिलियन अमरीकी डालर की कमी की तुलना में) ।
21. पिछले वर्ष के दौरान विदेशी मुद्रा स्थिति और विदेशी मुद्रा बाज़ारों के रुझान में हुआ तीव्र बदलाव बाह्य क्षेत्र के प्रबंधन के लिए अत्यधिक शिक्षाप्रद है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, वर्ष के पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विदेशी मुद्रा बाज़ार का रुख काफी भिन्न रहा, यद्यपि ‘वास्तविक’ अर्थव्यवस्था अथवा वृद्धि दर, व्यापार घाटा या तेल की कीमतें - जैसे महत्वपूर्ण आर्थिक चलों (वैरिएबल्स) में कोई खास परिवर्तन नहीं हुआ था । वर्ष के पूर्वार्ध में आरक्षित निधियों का औसत 36.7 बिलियन अमरीकी डालर रहा जो तेल आयातों की अतिरिक्त लागत अथवा यहां तक कि प्रत्याशित चालू खाता घाटे की तुलना में कई गुना अधिक है । पूरे वर्ष में निर्यातों का कार्यनिष्पादन भी अच्छा रहा जिनमें वर्ष के पूर्वार्ध में 20.1 प्रतिशत और उत्तरार्ध (फरवरी 2001 तक) में 16.3 प्रतिशत की औसत वृद्धि (अमरीकी डालर में) दर्ज़ की गयी । मई 2000 में, रिज़र्व बैंक ने इस बात की भी घोषणा की कि, जब भी आवश्यक हो, मांग-आपूर्ति के अंतरों को पूरा करने के लिए वह इंडियन आयल कार्पोरेशन द्वारा आयातों एवं सरकार की ऋण चुकौती संबंधी भुगतानों के लिए विदेशी मुद्रा की अपेक्षाओं की सीधे पूर्ति करेगा । फिर भी, वर्ष के उत्तरार्ध की तुलना में पूर्वार्ध में विदेशी मुद्रा बाज़ारों में अत्यधिक अस्थिरता और चिंताजनक स्थिति परिलक्षित हुई ।
इन दो अवधियों के दौरान बाज़ार के व्यवहार का एक विश्लेषण निम्नलिखित व्यापक निष्कर्षों को दर्शाता है :
- विदेशी मुद्रा बाजार में अल्पावधि में दैनंदिनी गतिविधियों को तथाकथित ‘मूल सिद्धांतों’ अथवा देश के भुगतान दायित्वों, जिसमें ऋण भुगतान भी शामिल है, को पूरा करने की देश की क्षमता से कोई खास लेना-देना नहीं होता है । इसके द्वारा उत्पन्न कोई प्रतिकूल समाचार और ‘संभावना’ एक सर्वोच्च भूमिका निभाने का कारण बन सकता है । निर्यात/आयात प्राप्तियों और अदायिगियों, प्रेषणों और अंत बैंक स्थितियों में ‘बढ़त और घटत’ पर अपने प्रतिकूल प्रभाव के कारण प्रतिकूल संभावनाएं सामान्यत: स्वत:पूर्ण भी होती हैं ।
- अंतर बैंक कारोबार के परिपेक्ष्य में, जो विदेशी मुद्रा बाजार में गति निर्धारित करता है, ‘सकल’ में लेन-देन की मात्रा ‘निवल’ प्रवाह की तुलना में कई गुणा अधिक और अस्थिर है । ‘सकल’ प्रवाह में विनिमय दरें अधिक संवेदनशील हैं और बदले में ‘सकल’ प्रवाह में अस्थिरता विनिमय दर संभावनाएं के संबंध में संवेदनशील हैं ।
- बुरी खबरों अथवा प्रतिकूल गतिविधियों के कारण किसी भी प्रकार की प्रारंभिक प्रतिकूल गतिविधि, व्यापक अंतर बैंक कारोबार के कारण तेज हो सकती है । प्रतिकूल गतिविधि के ‘अंधनकल’ प्रभाव की स्थिति और बाजार के सहभागियों की भेड़चाल से गैर बैंकिंग सहभागियों के बीच और अधिक खरीद अथवा बचाव व्यवस्था की स्थिति पैदा हो सकती है । जोखिम प्रबंधन की ‘जोखिम पर दैनिक आय’ उपाय भेड़चाल को सुदृढ़ बनाते हैं । किसी भी प्रतिकूल परिस्थिति में विशेषकर कुछेक प्रमुख परिचालकों के प्रभुत्व वाले अत्यल्प लेनदेन और अल्प विकसित बाजार में बजाय विपरीत स्थिति में काम करने में, दूसरों का अनुसरण करना एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है ।
- विकासशील देशों में सामान्यत: लघु और स्थानीयकृत विदेशी मुद्रा बाजार होते है, जहां सांकेतिक स्थानीय मुद्रा मूल्यों से हासिल प्रवृत्ति की अपेक्षा होती है, विशेषकर यदि मुद्रास्फीति की दर प्रमुख औद्योगिक देशों की तुलना में अधिक होती है । ऐसी स्थिति में, जब संभावनाएं प्रतिकूल होती हैं और मुद्रा मूल्यह्रास होता है तो बाजार के सहभागियों में विदेशी मुद्रा को अधिक समय तक रखने और बिक्री को रोक रखने की प्रवृत्ति रहती है किंतु जब मुद्रा का अधिमूल्यन होता है और संभावनाएं अनुकूल होती हैं तो सहभागियों की प्रवृत्ति उपर्युक्त के विपरीत होती है । इस प्रकार, दोनों स्थितियों में बाजार का चलन संतुलित नहीं रहता है ।
- आयातकों/निर्यातकों और अन्य आखरी उपयोगकर्ता की उपयुकत जोखिम प्रबंधन उपायों को अपनाएं बगैर विनिमय दर गतिविधियों को प्रतिफल के स्रोत के रूप में देखने की प्रवृत्ति कभी-कभी आपूर्ति की मांग की विषम स्थिति पैदा कर देती है जो अक्सर ‘समाचार और विचार’ पर आधारित होती है । आपूर्ति मांग का असंतुलन, इससे लाभ उठानेवाले के लिए बढ़े हुए अंतर-बैंक कारोबार और नकारात्मक संवेदनाओं द्वारा मूल सिद्धांतों के प्रतिकूल उत्पन्न प्रबल अस्थिरता के आत्मनिर्भर त्रिभुज को कार्यरत किया जा सकता है जिसमें प्राधिकारियों के त्वरित हस्तक्षेप/प्रतिक्रिया की जरूरत होती है ।
22. उपयुक्त विनिमय दर और बाजार हस्तक्षेप की नीतियां निर्धारित करने में विदेशी मुद्रा बाजार की उपर्युक्त वास्तविकताएं संपूर्ण विश्व के केंद्रीय बैंकों के लिए काफी कठिनाई पैदा करतीं हैं । सैद्धांतिक रूप से दरों के स्वतंत्र अस्थायी विनिमय दरों (बगैर हस्तक्षेप के) या नियत दरों के मुद्रा बोड़ जैसी व्यवस्था के लिए एक मजबूत मामला है । हालांकि, प्रयोग में, विदेशी मुद्रा बाजार की परिचालनगत वास्तविकताओं के कारण, अनुभवमूलक अनुसंधान दर्शाते है कि अधिकांश देशों ने विभिन्न प्रकार की मध्यवर्ती प्रणालियों को अपनाया है जिसमें नियत दर, धीमीगति से परिवर्तित होने वाली दर, एक दायरे में नियत दर, पूर्व घोषित न किए गए माध्यमों से नियंत्रित विदेशी मुद्रा विनिमय दर और दर परिवर्तन और अनुचित घट-बढ़ को रोक कर विदेशी मुद्रा हस्तक्षेप से स्वतंत्र निर्गम जारी करना शामिल हैं । कमोबेश, कुछेक को छोड़कर, अधिकांश देशों में नियंत्रित विदेशी मुद्रा विनिमय दर की कुछ किस्में हैं तथा केंद्रीय बैंक आवधिक रूप से बाजार में हस्तक्षेप करते हैं ।
23. विनिमय दर के संबंध में चिंता का एक कारण यह है कि वास्तविक अर्थव्यवस्था पर विदेशी मुद्रा बाजार में प्रतिकूल गतिविधियों का प्रभाव हो सकता है जैसा कि पूर्व एशिया, रूस, मेक्सिको और ब्राजिल में वर्षों पूर्व और तुर्की और अर्जेनटीना में हाल ही में हुआ था । ‘संक्रामक’ तत्काल प्रभावी होता है तथा मुद्रा मूल्य में तेज परिवर्तन वास्तविक अर्थव्यवस्था को आनुपातिक से अधिक प्रभावित कर सकती है । निर्यातकों को हानि उठानी पड़ सकती है यदि अप्रत्याशित तेज अधिकूल्यन हो तथा ऋणी या अन्य कंपनियां बुरी तरह प्रभावित हो सकतीं हैं यदि तेज अवमूल्यन हो और इससे बैंक विफल और दिवालिए हो सकते हैं ।
24. इस पृष्ठभूमि पर विचाराधीन मांग और आपूर्ति की परिस्थितियों को एक अवधि के दौरान विनिमय दरों की गतिविधियों को सुव्यवस्थित रूप से निर्धारित करने की अनुमति देते हुए भंरत की विनिमय दर नीति, बगैर नियत दर लक्ष्य के साथ अस्थिरता के प्रबंधन पर ध्यान केंद्रित करती है और यह नीति समय पर खरी उतरी है । विभिन्न अप्रत्याशित बाह्य और घरेलू गतिविधियों के बावजूद, भारत की बाह्य परिस्थितियां संतोषजनक रही । चालू वर्ष के दौरान भी विदेशी मुद्रा बाजार के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक सजगता, सावधानी और लोचकता का यही दृष्टिकोण कायम रखेगा ।
25. पिछले वर्ष हमारे अनुभव ने अप्रत्याशित आकस्मिक खर्चों, अस्थिर पूंजी प्रवाह और अन्य गतिविधियों जो संभावनाओं को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती हैं, के लिए विदेशी मुद्रा प्रारक्षित नीधियों के सृजन के महत्व को बल दिया है । उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं को बाह्य अनिवार्यताओं (अथवा संक्रामण) के दौरान उनके निज के संसाधनों पर व्यापक रूप से निर्भर रहना होगा क्योंकि स्वीकार्य शर्तों पर अल्प सूचना पर अतिरिक्त राशि देने के लिए कोई भी अंतर्राष्ट्रीय ‘अंतिम ऋण दाता’ उपलब्ध नहीं है । इस प्रकार, यदि विनिमय दरों को स्वतंत्र प्रवाह की अनुमति दी जाती है तब भी पर्याप्त प्रारक्षित निधियों की आवश्यकता को दूर अथवा कम नहीं किया जा सकता है । अनिश्चितता अथवा प्रतिकूल संभावनाओं की अवधि में चाहे वह वास्तविक हो या काल्पनिक, विनिमय दर में तेज घट-बढ़ अर्थव्यवस्था के लिए काफी असंतुलित और महंगी हो सकती है । ये आर्थिक खर्चे, निवल वित्तीय खर्चे, यदि प्रारंक्षित निधि धारक हो, की तुलना में काफी अधिक हो सकते हैं । पिछले वर्ष इंडिया मिलेनियम डिपोज़िट स्कीम की सफलता और उसके द्वारा पैदा किया गया विश्वास, वर्ष के दूसरे छमाही में भारत के विदेशी मुद्रा बाज़ार को स्थिर करने और वास्तविक अर्थव्यवस्था में जोखिम को नियंत्रित करने में मुख्य घटक रहा ।
26. हाल के वर्षों में भारत के विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधियों के प्रबंधन की ओर समग्र दृष्टिकोण ने भुगतान संतुलन की बदलती हुई संरचना को दर्शाया है तथा प्रवारह के विभिन्न प्रकार के साथ जुड़े हुए ‘नकदी जोखिम’ और अन्य आवश्यकताओं को दर्शाने का प्रयास किया है । इस प्रकार प्रारक्षित निधियों के प्रबंधन की नीतिपहचानने योग्य घटकों के समूह और आकस्मिक व्ययों के आधार पर विवेकपूर्ण रूप से बनाई गई है । ऐसे घटक, अन्य बातों के साथ-साथ निम्नलिखित को भी शामिल करती है - चालू खाता घाटा का आकार अल्पावधि देयताओं (दीर्घावधि ऋणों पर चालू पुनर्भुगतान देयताओं सहित) का आकार संभाग निवेशों में संभाव्य परिवर्तनीयता और पूंजी प्रवाह के अन्य प्रकार बाह्य आघात से पैदा होनेवाले भुगतान संतुलन पर अप्रत्याशित दबाव (जैसे 1997-98 में पूर्वी एशिया संकट अथवा 1999-2000 में तेल मूल्यों में वृद्धि का प्रभाव) और अनिवासी भारतीयों केप्रत्यावर्तन योग्य विदेशी मुद्रा जमाराशियों में घट-बढ़ । इन घटकों को ध्यान में रखते हुए, भारत की विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधियां फिलहाल समुचित है । तथापि, आत्मसंतोष का कोई कारण नहीं हो सकता है । हमें सुनिश्चित करते रहना है कि प्रारक्षित निधिंयों के स्तर में अल्पावधि घट-बढ़ को छोड़कर, दीर्घावधि में प्रारक्षित निधियों की प्रमात्रा, अर्थव्यवस्था में वृद्धि और जोखिम समायोजित पूंजी प्रवाह के आकार के समकक्ष होती है । यह प्रतिकूल अथवा अप्रत्याशित घटनाक्रमों में जो अचानक घट सकता है, काफी सुरक्षा प्रदान करेगा ।
27. भारत के भुगतान संतुलन, विशेषकर निर्यात में उतार-चढ़ाव पर नजर रखने की आवश्यकता है । सौभाग्यवश, 2000-01 में निर्यात काफी अच्छा रहा तथा यह सुनिश्चित करने के लिए कि भुगतान संतुलन आर्थिक वृद्धि में बाधक न बन जाए, इस गति को बनाए रखना जरुरी है । विगत वर्षों में, निर्यातकों को समय पर ऋण उपलब्ध कराने और प्रक्रियागत परेशानियों को दूर करने को सुनिश्चित करने के लिए कई उपाय शुरु किए गए थे । अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में बताए गए अनुसार निर्यातकों और निर्यात व्यापार संगठनों से प्राप्त सुझावों को भारतीय रिज़र्व बैंक और बैंकर्स समूहों ने जांच की और निर्यात ऋण की प्रक्रिया को िऔर सरल बनाने के लिए बैंकों को मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किए गए । इनमें साख पत्रों पर स्वीकृत सीमा से अधिक मात्रा में आहरित बिलों का बेचान करने, शाखाओं को विवेकाधीन/अधिक स्वीकृति के अधिकार प्रदान करने, प्रत्येक वितरण और निर्यात-ऋण के लिए आदेश/साख पत्र के प्रस्तुतीकरण से छूट को शामिल करने के लिए बढ़ाई गई/तदर्थ ऋण सीमा के विचाराधीन स्वीकृतियों के कतिपय प्रतिशत के वितरण के लिए शाखाओं को प्राधिकृत करने और स्वीकृति पत्र में आवधिक अंतरालों पर हस्तगत आदेश/ऋण पत्रों के संबंध में विवरण के प्रस्तुतीकरण और त्वरित दावा निपटान को सुविधाजनक बनाने के लिए स्वीकृति की शर्तों के संबंध में ई.सी.जी.सी. को तत्काल सूचना देने में लचीला दृष्टिकोण अपनाना शामिल है ।
28. निर्यात ऋण संबंधी समस्याओ को सुलझाने और विदेशी मुद्रा की आवश्यकतों को पूरा करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक प्रमुख निर्यात केंद्रों पर निर्यातकों और शाखा स्तरीय बैंक अधिकारियों के लिए सेमिनार आयोजित करता है । निर्यातक संगठनों द्वारा उठाए गए मुद्दों पर विचार करने और उपयुक्त कार्रवाई के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक तिमाही अंतराल पर अखिल भारतीय निर्यात परामर्शदात्री समिति की बैठकें आयोजित करता है । इसके अलावा, निर्यातकों को यह भी बताया गया है कि वे अपनी शिकायतों के समाधान के लिए पूर्व निर्धारित मुलाकात की अनुमति के बगैर निर्दिष्ट काल खंड के दौरान किसी भी कार्य दिवस में संबंधित वरिष्ठ अधिकारी से मिल सकते हैं । निर्यात ऋण प्रदान करने की प्रक्रिया के भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा सरलीकरण साथ ही बैंक सेवा के संबंध में निर्यातकों के संतोष की मात्रा की प्रतिसूचना पाने के लिए, प्रस्ताव है कि एक स्वतंत्र बाहरी एजेंसी की सहायता से एक सर्वेक्षण किया जाए ।
29. निर्यात के क्षेत्र में क्रियाविधि को आसान बनाने की दिशा में इस क्षेत्र में हैसियत रखनेवाले (निर्यात/व्यापार/बड़े व्यापार घराने) और विनिर्माता निर्यातकों, जो अपने आधे से अधिक उत्पादन का निर्यात करते हैं और जिन्हें विदेश व्यापार महानिदेशक (डीजीएफटी) ने इस रूप में मान्यता दी है, को पिछले तीन वर्षों के दौरान अपने औसत वार्षिक निर्यात वसूली के 5.0 प्रतिशत तक की बकाया निर्यात वसूली को बट्टे खाते डालने की आसान सुविधा प्रदान की गई है ।
30. विनाशकारी भूकंप की वजह से निर्यातकों को होनेवाली परेशानियों को कम करने की दृष्टि से बैंकों को इस आशय के दिशा-निर्देश जारी किए गए हैं कि वे निर्यातकों को सहायता/रियायत प्रदान करें । इनमें पैंकिंग क्रेडिट की अवधि बढ़ाने, देय राशियों को उपयुक्त किस्तों में चुकाए जानेवाले अल्पावधि ऋण में बदलने और अनर्जक परिसंपत्तियों के वर्गीकरण मानदंडों में ढील देने संबंधी दिशा-निर्देश शामिल हैं ।
31. हाल में, अनिवासी भारतीयों के लिए विप्रेषणों, निवेशों और बैंक खातों को रखने आदि जैसे वित्तीय लेनदेनों की प्रक्रिया को काफी आसान बनाया गया है और इस सबंध में अनिवासी भारतीयों से प्राप्त फीडबैक काफी सकारात्मक रहा है । अनिवासी भारतीयों को दी जानेवाली विभिन्न सुविधाओं को आगे और बेहतर बनाने की दिशा में प्राप्त सुझावों का रिज़र्व बैंक आगे भी स्वागत करता रहेगा ।
32. विदेशी संस्थागत निवेशक (एफआइआइ) किसी कंपनी में संविभाग निवेश मार्ग (पोर्टफोलियो इन्वेस्टमेंट रूट) के अंतर्गत कंपनी की चुकता पूंजी के 24.0 प्रतिशत तक निवेश कर सकते हैं । संबंधित भारतीय कंपनी अब यह राशि 49.0 प्रतिशत (पहले 40.0 प्रतिशत) तक बढ़ा सकती है । इसके लिए कंपनी को पहले अपने निदेशक बोड़ की ओर से संकल्प पारित करना होगा और बाद में अपनी कंपनी की साधारण सभा में भी इस आशय का विशेष संकल्प पारित करना होगा ।
33. विदेशी निवेश को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से कतिपय परिस्थितियों को छोड़कर अधिकांश कार्यकलापों के लिए और बहुत छोटी-सी नकारात्मक सूची को छोड़कर स्वचालित मार्ग (ऑटोमैटिक रूट) के तहत विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति दी गई है । अब इस बात पर विचार किए बिना कि निवेशक का देश में संयुक्त उद्यम अथवा तकनीकी सहयोग है, सूचना प्रौद्योगिकी (आइटी) क्षेत्र में निवेश संबंधी प्रस्तावों को स्वचालित अनुमोदन की अनुमति दे दी गई है । स्वचालित मार्ग के अंतर्गत निवेश पर कोई मौद्रिक सीमा नहीं लगाई गई है । अब विदेशी निवेश संवर्धन बोड़ (एफआइपीबी) तेल-शोधक क्षेत्र, बिजनेस-टु-बिजनेस ई-कामर्स और इंटरनेट सर्विस प्रोवाइडर्स के मामले में कतिपय शर्तों पर 100 प्रतिशत तक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के आवेदनों पर विचार कर रहा है । विशेष आर्थिक क्षेत्रों (एसईजेड) में सभी विनिर्माण कार्यकलापों (कतिपय अपवादों को छोड़कर) के लिए स्वचालित मार्ग के अंतर्गत 100 प्रतिशत तक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की अनुमति दी गई है । जैसा कि केंद्र सरकार के बजट में घोषणा की गई है गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश स्वचालित मार्ग से किया जाएगा । बीमा क्षेत्र में 26 प्रतिशत तक की विदेशी इक्विटी सहभागिता की अनुमति दी गई है बशर्ते बीमा विनियामक और विकास प्राधिकरण (आइआरडीए) ने आवश्यक लाइसेंस जारी किया हो । रिज़र्व बेंक ने उन भारतीय कंपनियों को अपने विदेशी सहयोगियों को शेयर जारी करने की सामान्य अनुमति दी है जो स्वचालित मार्ग के अंतर्गत पात्र हैं अथवा जिन्हें एसआइए/ एफआइपीबी का अनुमोदन प्राप्त है । इसके लिए कंपनियों को केवल रिपोर्टिंग संबंधी कुछ अपेक्षाओं की पूर्ति करनी होगी ।
34. मार्च 2001 में केंद्र सरकार के बजट में की गई घोषणा के अनुसरण में पूंजी खाता के उदारीकरण की नीति को जारी रखते हुए एडीआर/जीडीआर बाजार में चलनिधि में सुधार लाने के लिए और भारत के शेयरधारकों को विदेश में एडीआर/जीडीआर बाजार में अपनी शेयरधारिता डिवेस्ट करने के लिए अनेक कदम उठाए गए हैं । इस प्रकार, जहां पर लागू हो वहां कुछ क्षेत्रीय प्रतिबंधों की शर्त पर भारतीय कंपनियों के एडीआर/जीडीआर शेयरों में निर्गमों में दो-तरफा परस्पर विनिमेय (ूैदर्-ैीब् ल्हिुiंiत्iूब्) प्रणाली लागू की गई है । अब भारत में शेयर दलालों को विदेशी निक्षेपागार (डिपोजेटरी) द्वारा एडीआर/जीडीआर जारी करने के लिए भारतीय अभिरक्षकों के पास उतनी सीमा तक के शेयर और जमा खरीदने की अनुमति दी गई है जो पूर्वाधिकार अंडरलाइंग शेयरों में अंतरित किए जा रहे हों । भारतीय कंपनियों को विदेशी निक्षेपागार के पास एडीआर/जीडीआर निर्गमों को ऐसे शेयरधारक द्वारा रखे गए शेयरों के बदले प्रायोजित करने की अनुमति दी गई है, जो विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बांड और साधारण शेयर (निक्षेपागार रसीद व्यवस्था के माध्यम से) योजना, 1993 और सरकार द्वारा जारी मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुपालन की शर्त पर इस विकल्प का प्रयोग करना चाहें ।
35. जो भारतीय कंपनियां विदेशी कंपनियों के अभिग्रहण की अथवा विदेश में संयुक्त उद्यमों/पूर्णत: स्वाधिकृत सहायक कंपनियों में सीधे निवेश करने की इच्छुक हों वे अब स्वचालित मार्ग के माध्यम से 50 मिलियन अमरीकी डालर का निवेश कर सकती हैं । इसके लिए तीन वर्ष की लाभप्रदता की शर्त लागू नहीं होगी । जिन कंपनियों का अच्छा कार्य- निष्पादन रिकाड़ रहा है उनके लिए कतिपय शर्तों पर 50 मिलियन अमरीकी डालर की सीमा से अतिरिक्त विदेशी मुद्रा निर्धारित की गई है । कंपनियां अपने एडीआर/जीडीआर निर्गमों से प्राप्त 100 प्रतिशत राशि तक का निवेश विदेशी कंपनियों के अभिग्रहण के लिए और संयुक्त उद्यमों तथा पूर्णत: स्वाधिकृत सहायक कंपनियों में प्रत्यक्ष निवेश के लिए कर सकती हैं । कोई भी भारतीय कंपनी जिसने एडीआर/जीडीआर जारी किए हों, अब उनके समान मुख्य कार्यकलापों में लगी विदेशी कंपनियों में शेयर ले सकती है । ये शेयर 100 मिलियन अमरीकी डालर की राशि तक के अथवा पिछले वर्ष में उनके निर्यातों के दस गुना तक की राशि के बराबर, जो भी अधिक हो, तक के हो सकते हैं । पहले कुछ ही क्षेत्रों में भारतीय कंपनियों को शेयरों की अदला-बदली की यह सुविधा प्राप्त थी । कतिपय विशिष्ट व्यावसायिक सेवाएं प्रदान करनेवाली साझेदारी फर्मों, उदाहरणस्वरूप, सनदी लेखाकार, कानूनी सेवाएं, चिकित्सा और स्वास्थ्य सेवाएं, सूचना प्रौद्योगिकी और मनोरंजन सॉफ्टवेयर से संबद्ध सेवाएं प्रदान करनवाली फर्मों को विदेश में समान कार्य करनेवाले विदेशी प्रतिष्ठानों मे निवेश करने की अनुमति दी गई है । इसके लिए कतिपय मानदंड तय किए गए हैं ।
36. भारत में उद्यम पूंजी उद्योग को बढ़ावा देने के लिए भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोड़ (सेबी) को ऐसी देशी और विदेशी दोनों प्रकार की उद्यम पूंजी निधियों के पंजीकरण के लिए एकल बिंदु प्रमुख एजेंसी बनाया गया है जिन्हें, सेबी के विनियमों की शर्त पर स्वचालित मार्ग से निवेश करने की अनुमति दी गई है । सेबी द्वारा पंजीकृत विदेशी उद्यम पूंजी निवेशों (एफवीसीआइ) को भारतीय उद्यम पूंजी उपक्रमों (आइवीसीयू) अथवा उद्यम पूंजी निधि (वीसीएफ) में निवेश करने के लिए और खरीदार तथा विक्रेता के बीच आपस में तय की गई कीमत पर अपने निवेश को डिवेस्ट करने की सामान्य अनुमति दी गई है ।
37. विदेशी मुद्रा संबंधी मामलों पर उचित जानकारी उपलब्ध कराने की दृष्टि से भारतीय रिज़र्व बैंक की वेबसाइट (www.fema.rbi.org.in) पर विभिन्न विषयों के संबंध में "आमतौर पर पूछे जानेवाले प्रश्न" (र्इींैं) शीर्षक के अंतर्गत जानकारी दी गई है । इसके अतिरिक्त विशिष्ट लेनदेनों के संबंध में जनता से पूछे जानेवाले सवालों के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर विभिन्न लेनदेनों के लिए आठ डेडिकेटिड ई-मेल एड्रेस दिए गए हैं ।
38. कार्यविधि को सरल बनाने, प्रलेखीकरण की अपेक्षाओं का कम करने और भारत में अनिवासी भारतीयों और अन्य कंपनियों आदि द्वारा और विदेश में भारतीय कंपनियों द्वारा उत्पादक निवेश करने के लिए आगे अवसरों को और उदार बनाने के लिए रिज़र्व बैंक अपने प्रयास जारी रखेगा । इन क्षेत्रों में विशेषज्ञों, कंपनियों और बाजार के सहभागियों से मिले सुझावों का स्वागत किया जाएगा ।
39. मार्च 2001 के दौरान, शेयर बाजारों ने काफी अस्तव्यस्तता और अनिश्चितता का अनुभव किया जिससे कुछ शेयर बाजारों में समस्याएं एवं कुछ सहकारी बैंकों में चलनिधि/ दिवालियापन की समस्याएं उत्पन्न हुईं जिन्होंने कुछ वाणिज्य बैंकों को भी प्रभावित किया । इस कठिन समय में रिज़र्व बैंक की एक महत्वपूर्ण वरीयता इस "संक्रामक रोग" को शेयर बाजारों से मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजारों तथा समग्र रूप में बैंकिंग प्रणाली में फैलने से रोकने का प्रयास करने और इसे न्यूनतम रखने की रही । इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए बैंकों को पर्याप्त संपार्श्विकीकृत चलनिधि का आश्वासन देना, एवं किसी एक क्षेत्र में विशिष्ट सहकारी बैंकों को प्रभावित करनेवाली समस्या को अन्य वित्तीय संस्थाओं में फैलने से रोकने हेतु शीघ्र कार्रवाई करना आवश्यक था । कुल मिलाकर अब तक मुद्रा बाजार एवं सरकारी प्रतिभूति बाजार ने सामान्य रूप से कार्य करना जारी रखा है । इनके अलावा, भुगतान में विलंब/चूक के कुछ मामलों के होने के बावजूद बाजार की चलनिधि में कोई कमी नहीं रही है । शेयर बाजार की अव्यवस्था का ब्याज-दरों पर भी कोई तत्काल प्रतिकूल प्रभाव नहीं रहा है ।
40. शेयर बाजारों के हाल के अनुभव तथा उसके परिणाम ने विनियामक तंत्र के लिए एवं मौद्रिक नीति के संचालन के लिए नई चुनौतियां उत्पन्न की हैं । यह स्पष्ट हो चुका है कि सहकारी क्षेत्र के कुछ बैंकों ने अपने विवेकपूर्ण मानदंडों का पालन नहीं किया, न ही उन्होंने आस्ति-देयता प्रबंध के सुपरिभाषित विनियामक दिशा-निर्देशों का अनुसरण किया और न अपने अंतर-बैंक भुगतान संबंधी दायित्व पूरे करने की अपेक्षा का भी ध्यान रखा । यद्यपि ऐसा व्यवहार राष्ट्रीय मानकों की दृष्टि से, दो या तीन स्थानों पर थोड़े-से अपेक्षाकृत छोटे बैंकों तक ही सीमित था, तथापि, इसके कारण जमाकर्ताओं के लिए गंभीर समस्याएं उत्पन्न होने के अलावा कुछ संपर्ककर्ता बैंकों को हानि उठानी पड़ी । वित्तीय सुदृढ़ता के हित में यह महत्वपूर्ण है कि सहकारी क्षेत्र के लिए विनियामक ढांचे को मजबूत बनाने के लिए उपाय किए जाएं तथा इसके लिए उनकी प्रबंध संरचना हेतु स्पष्ट मार्गदर्शी सिद्धांत निर्धारित करके " दुहरे " नियंत्रण को हटाया जाए तथा असंपार्श्विकीकृत निधियों तक उनकी पहुंच और अस्थिर आस्तियों के आधार पर उनके द्वारा उधार दिये जाने के संबंध में अतिरिक्त विवेकसम्मत मानक लागू किए जाएं । हाल के अनुभव के आलोक में वाणिज्य बैंकों को उनके निवेश संविभाग के प्रबंध में अनुचित जोखिम उठाने से रोकने के लिए कुछ सुधारात्मक कार्रवाई की रूपरेखा भी इस वक्तव्य के भाग III में दी गई है ।
41. समग्र रूप में समष्टि-आर्थिक निर्देशक शेयर बाजार में हाल की गतिविधियों के बावजूद मूल्य स्थिरता के साथ वृद्धि के लिए लगातार अनुकूल हैं । जैसा कि पहले उल्लेख किया जा चुका है, सकल घरेलू उत्पाद मध्यावधि समीक्षा में निर्दिष्ट अनुमान के अनुरूप 2000-01 में लगभग 6.0 प्रतिशत होने की संभावना है । 4.9 प्रतिशत पर "हेडलाइन" मुद्रास्फीति दर मध्यावधि समीक्षा में अनुमानित दर से भी निम्नतर रही । पेट्रोलियम उप-समूह को छोड़कर मुद्रास्फीति दर मार्च 31, 2001 को 2.6 प्रतिशत थी । निर्यातों की अच्छी स्थिति एवं चालू खाता घाटे के सकल घरेलू उत्पाद के 2.0 प्रतिशत से भी पर्याप्त रूप से कम होने के अनुमान के होते हुए वर्ष के दौरान बाह्य क्षेत्र भी सुविधाजनक रहा । मुद्रा आपूर्ति वृद्धि भी कुल मिलाकर अनुमानित प्रक्षेप-पथ के अनुरूप थी तथा हाल के बजट ने राजकोषीय समेकन और राजकोषीय घाटे में कमी की ओर दृढ़ प्रतिबद्धता का संकेत दिया है । वर्ष के बीच में कुछ दृढ़ीकरण के बाद ब्याज दरें 2000-01 की दूसरी छमाही में कम हो गई थीं । विभिन्न परिपक्वता अवधियों के ख़ज़ाना बिलों में प्राथमिक प्राप्तियां, जो अप्रैल 2000 में 7.0-9.2 प्रतिशत के दायरे से ऊपर उठकर अगस्त 2000 में 11.0 प्रतिशत के निकट पहुंच चुकी थीं, मार्च 2001 तक 8.8-9.1 प्रतिशत के दायरे में नीचे आ गई हैं । 10-वर्षीय सरकारी प्रतिभूतियों पर प्राथमिक प्राप्ति अक्तूबर 2000 के 11.7 प्रतिशत की उच्चतम स्थिति से गिरकर जनवरी 2001 में 10.7 प्रतिशत हो गई है । द्वितीयक बाजार की प्राप्तियां भी प्राथमिक बाजार के साथ-साथ ही गतिशील रहीं ।
42. जबकि अभी भी काफी अनिश्चितता बनी हुई है, व्यापक रूप से यह अनुमान है कि विश्व की सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि पिछले वर्ष के लगभग 5.0 प्रतिशत की उच्च वृद्धि की तुलना में, अमरीका की अर्थव्यवस्था में आयी मंदी के कारण 2001 में बहुत कम रहेगी । इस वर्ष एक अनुकूल तत्व यह देखा गया है कि अंतर्राष्ट्रीय स्फीतिकारी परिवेश काफी अनुकूल है । मुद्रास्फीति संबंधी निम्न अनुमानों से प्रमुख औद्योगिक देशों में आर्थिक गतिविधियों को पुन: प्रवर्तित करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय ब्याज दरों में काफी कमी करना सुसाध्य हो गया है । भारत इन विश्वव्यापी गतिविधियों के प्रभाव को नजरअंदाज नहीं कर सकता, यद्यपि व्यापार के उसके अपेक्षाकृत छोटे अंश-सहित, अनेक कारणों से भारत में सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि के, इन गतिविधियों द्वारा उस प्रकार गंभीर रूप से प्रभावित होने की संभावना नहीं है, जैसा कि कई अन्य देशों में घटित हुआ है । जबकि व्यापारिक माल के निर्यातों में वृद्धि थोड़ी-सी सामान्य हो सकती है, अधिक विविधीकृत गंतव्य स्थानों-सहित साफटवेयर के निर्यात और निजी धन-प्रेषण की स्थिति अभी भी बनाये रखी जा सकती है । अत: चालू खाता घाटे का आकार सकल घरेलू उत्पाद के 2.0 प्रतिशत के अंदर ही जारी रहने की आशा है ।
43. केंद्र सरकार के राजकोषीय घाटे के संबंध में 2001-02 के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 4.7 प्रतिशत की बजट व्यवस्था की गई है तथा केंद्र के उधार कार्यक्रम के लिए की गई ऐसी व्यवस्था 1,18,852 करोड़ रुपए (सकल) और 77,353 करोड़ रुपए (निवल) है । जबकि कुछ राज्यों के संबंध में उधार कार्यक्रम दबाव के अंतर्गत आ गया है, भारतीय रिज़र्व बैंक यह आशा करता है कि ऋण प्रबंध का संचालन समग्र चलनिधि और ब्याज दरों पर किसी गंभीर दबाव के बिना किया जाए ।
44. इस पृष्ठभूमि में, रिज़र्व बैंक यह सुनिश्चित करते रहने का प्रस्ताव करता है कि ऋण के लिए सभी विधिसम्मत अपेक्षाओं की पूर्ति मूल्य स्थिरता के अनुरूप की जाए । इस लक्ष्य की दिशा में, रिज़र्व बैंक खजाना बिलों के दुतरफा विक्रय/क्रय-सहित खुले बाजार के कार्यकलापों (ओएमओ) के माध्यम से एवं जब भी आवययक हो, आरक्षित नकदी निधि अनुपात में आगे और कमी करते हुए, चलनिधि के सक्रिय मांग-प्रबंध की अपनी नीति जारी रखेगा । जब तक परिस्थितियों में अप्रत्याशित रूप से परिवर्तन नहीं होता या बाजार के कुछ खंडों में विद्यमान समस्याओं का निराकरण शीघ्र नहीं किया जाता, तब तक वर्तमान स्थिति के अंतर्गत हाल के बजट में घोषित ब्याज दरों के लचीलेपन के उद्देश्य के बाद, यह भी संभव होना चाहिए कि चालू ब्याज दर परिवेश को बनाये रखा जाए, तथा मध्यावधि और दीर्घावधि ब्याज दरों में कुछ और नरमी लाने की संभावना का पता लगाया जाए । फिर भी, जैसा कि पिछले वर्ष तथा इस वक्तव्य के भाग I में बल दिया गया है, अपने कारोबार की योजनाएं बनाते समय बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को चाहिए कि यदि अंतर्निहित स्फीतिकारी स्थिति प्रतिकूल हो जाए अथवा अननुकूल और अप्रत्याशित बाह्य गतिविधियां सामने आएं तो वे मौद्रिक नीति को उलटने या कसने के लिए तैयार रहें ।
45. चालू वर्ष 2001-2002 के लिए समग्र वृद्धि दर का यथार्थपरक अनुमान औद्योगिक वृद्धि के प्रति दृष्टिकोण से संबंधित अनिश्चितताओं को देखते हुए वर्तमान में कठिन है । जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है, वृद्धि के पुन: प्रवर्तन के लिए वस्तुपरक स्थितियां अनुकूल हैं, परंतु पिछले वर्ष की अंतिम तिमाही में उत्पादन की वृद्धि और निवेश की मांग की प्रवृत्ति बहुत उत्साहवर्धक नहीं रही है । अगली तिमाही से औद्योगिक क्षेत्र के पुनरुत्थान, उचित मौसम और निर्यातों के अच्छे निष्पादन को मानते हुए, पूरे वर्ष के लिए मौद्रिक नीति बनाने के उद्देश्यों के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 6.0 से 6.5 प्रतिशत तक रखी जा सकती है । मुद्रास्फीति की दर पिछले वर्ष की दर के आसपास अर्थात् 5.0 प्रतिशत के भीतर मानी जाती है वर्ष 2001-02 के लिए व्यापक मुद्रा (एम3) में अनुमानित विस्तार 14.5 प्रतिशत के आसपास होगा । विद्यमान लोच (इलैस्टिसिटीजॅ) से सामंजस्य रखते हुए एम3 में हुई वृद्धि लगभग इसी दर (अथवा लगभग 1,34,000 करोड़ रुपये) पर अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की सकल जमाराशियों में वृद्धि करेगी । वाणिज्यिक पेपर, सरकारी क्षेत्र और निजी कंपनी क्षेत्र के उपक्रमों के शेयरों/डिबेंचरों/बांडों में निवेश के लिए समायोजित खाद्येतर बैंक ऋण में 16.0 से 17.0 प्रतिशत तक वृद्धि का अनुमान है । इतने ऋण विस्तार के परिणामस्वरूप यह अपेक्षा की जाती है कि उससे अर्थ-व्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों की ऋण आवश्यकताओं को पर्याप्त रूप से पूरा किया जा सकेगा ।
46. अक्तूबर 1999 की मध्यावधि समीक्षा ने कतिपय पारंपरिक ठोस उपायों को हटाने के लिए ठोस कदम उठाने की आवश्यकता को रेखांकित किया है ताकि व्यापार चक्र के विभिन्न चरणों के दौरान ब्याज दर ढांचे को अधिक लचीला बनाया जा सके । तब से समग्र वित्तीय प्रणाली में ब्याज दरों के लचीलेपन में आनेवाली बाधाएं कुछ कम होती जा रही हैं । यह मानते हुए कि स्फीतिकारक अपेक्षाओं के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण जारी रहेगा, यदि निश्चित दिशाओं में निरंतर प्रगति की जाती है तो और अधिक लोच बढ़ाई जाएगी । जैसे कि बजट में यह बल दिया गया है कि प्रशासित ब्याज दरों में लचीलेपन के साथ संबद्ध निरंतर और विश्वसनीय राजकोषीय समायोजन की अत्यंत आवश्यकता है । वित्तीय प्रणाली को अपनी परिचालनगत क्षमता भी बढ़ानी चाहिए और मध्यस्थता की लागत में और कटौती करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए । इस संबंध में ऋण वसूली प्रणाली को सुधारने की आवश्यकता है ताकि वित्तीय प्रणाली पर अनर्जक आस्तियों का बोझ कम हो सके । यद्यपि बैंकों को जमाराशियों पर लचीली और परिवर्तनशील दरें लागू करने की स्वतंत्रता दी गयी है, फिर भी अधिकांश जमाराशियां अभी भी निर्धारित दर पर हैं जिन्हें उधार दरें कम करने पर धारणीय नहीं रखा जा सकता । बैंकों के लिए यह आवश्यक है कि वे स्फीतिकारक दृष्टिकोण में परिवर्तनों के अनुरूप ब्याज दर में लचीलेपन के लिए परिचालनगत कार्यक्षमता और सक्रिय देयता प्रबंध में और सुधार लाएं । राजकोषीय घाटे में कमी और समग्र सरकारी उधार कार्यक्रम से बैंकिंग प्रणाली के विनियामक बोझ को आरक्षित नकदी निधि अनुपात के उच्च अपेक्षाकृत स्तर को कम करके हल्का किया जा सकेगा । कर-व्यवस्था को औचित्यपूर्ण बनाने की भी आवश्यकता है ताकि विभिन्न लिखतों और बाजारों के बीच लाभ की प्रभावी दरों में कर-प्रेरित विकृति को टाला जा सके ।
47. भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा आरक्षित नकदी निधि अनुपात के साथ बैंक दर में परिवर्तन और पुनर्खरीद दरों में परिवर्तन ब्याज दर में परिवर्तनों और चलनिधि तथा मौद्रिक प्रबंध के महत्वपूर्ण साधनों में परिवर्तन के सुस्पष्ट संकेत के रूप में उभरे हैं । जून 2000 से आरंभ की गई चलनिधि समायोजन सुविधा अधिक लचीले तरीके से दिन-प्रति दिन आधार पर चलनिधि को अवशोषित करने और/अथवा चलनिधि बढ़ाने के लिए प्रभावी तंत्र साबित हुई है और इस प्रक्रिया में मांग मुद्रा बाजार को एक सीमाबद्ध स्थिति (कॉरिडोर) प्रदान की है । चलनिधि समायोजन सुविधा के साथ संतोषजनक अनुभव प्राप्त हुआ है और भारतीय रिज़र्व बैंक का यह प्रयास रहेगा कि वर्तमान संस्थागत, क्रियाविधिकी और तकनीकी बाध्यताओं को दूर करके इसे और सक्षम बनाया जाय । भारतीय रिज़र्व बैंक वित्तीय बाजारों के सही विकास और सुचारू कार्यनिर्वाह के लिए अपने प्रयास जारी रखेगा और वित्तीय क्षेत्र सुधार में आगे कदम उठाएगा ।
48. संक्षेप में, सामान्य परिस्थितियों के अंतर्गत और घरेलू अथवा बाह्य क्षेत्राें में किसी विपरीत और अप्रत्याशित गतिविधियों के उभरने को छोड़कर वर्ष 2001-02 के लिए मौद्रिक नीति का समग्र उद्देश्य इस प्रकार रहेगा :
- मूल्यों के स्तर में उतार-चढ़ाव पर सतत निगरानी रखते हुए ऋण वृद्धि की पूर्ति तथा निवेश मांग को समर्थन देने के लिए पर्याप्त चलनिधि का प्रावधान ।
- मध्यावधि में ब्याज दर व्यवस्था में अधिक लचीलापन लाने के समग्र ढांचे के भीतर, उभरती स्थिति में आवश्यक सीमा तक कमी लाने के लिए वरीयता के साथ वर्तमान स्थिर ब्याज दर वातावरण को जारी रखना ।
III. वित्तीय क्षेत्र सुधार और
मौद्रिक नीति उपाय
49. हाल ही के वार्षिक नीति वक्तव्यों और मध्यावधि समीक्षाओं ने ढांचागत उपायों पर ध्यान केंद्रित किया है ताकि वित्तीय प्रणाली को मजबूत बनाया जा सके और वित्तीय बाजारों के विविध खंडों के कार्य में सुधार हो सके । इन उपायों के मुख्य उद्देश्य हैं मौद्रिक नीति की परिचालनगत प्रभावशीलता को बढ़ाना, रिज़र्व बैंक की विनियामक भूमिका पुनर्परिभाषित करना, विवेकपूर्ण और पर्यवेक्षी मानदंडों को मजबूत बनाना, ऋण सुपुर्दगी प्रणाली को सुधारना और वित्तीय क्षेत्र में तकनीकी और संस्थागत संरचना को विकसित करना । इस वर्ष की नीति में भी यह प्रस्ताव है कि इन क्षेत्रों में और प्रगति की जाए । जहां तक संभव हुआ है, संरचनात्मक प्रकृति के प्रस्तावित परिवर्तन विशेषज्ञों और बाजार सहभागियों के साथ व्यापक चर्चा के बाद निर्धारित किये गये हैं ।
50. जैसा कि पहले घोषित किया गया है, यह आवश्यक नहीं कि अल्पावधि ऋण तथा बैंक दर अथवा आरक्षित नकदी निधि अनुपात में परिवर्तन जैसे विनियामक उपाय छमाही नीतिगत वक्तव्य का अनिवार्यत: एक भाग रहेंगे । ये अल्पावधि उपाय घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजारों में उभरती गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में समय-समय पर घोषित किये जाते हैं । इस प्रकार, हाल ही में अंतर्राष्ट्रीय और घरेलू वित्तीय बाजारों में गतिविधियों की समीक्षा के बाद, भारतीय रिज़र्व बैंक ने 16 फरवरी, 2001 को बैंक दर और आरक्षित नकदी निधि अनुपात में कमी की है । पहली मार्च 2001 को बजट के बाद बैंक दर में और कटौती घोषित की गयी । आरक्षित नकदी निधि अनुपात अथवा बैंक दर में अब आगे और कोई परिवर्तन प्रस्तावित नहीं है । ये समग्र मौद्रिक और अन्य गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में जब भी और जैसे ही आवश्यक महसूस किये जाएंगे, तब घोषित किये जाएंगे ।
चलनिधि समायोजन सुविधा की समीक्षा - चरण II
51. जैसा कि अप्रैल 2000 के नीतिगत वक्तव्य में निर्दिष्ट किया गया था, चलनिधि समायोजन सुविधा उत्तरोत्तर तीन सुविधाजनक चरणों में आरंभ की जा रही है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि परिवर्तन सुचारू रूपसे संपन्न होता है । प्रथम चरण में 5 जून, 2000 से अतिरिक्त संपार्श्विक उधार सुविधा और प्राथमिक व्यापारियों को स्तर II सहायता को उसी दिन भुगतान के साथ परिवर्तनीय दर पर पुनर्खरीद नीलामी से बदल दिया गया । चलनिधि समायोजन सुविधा का दूसरा चरण संपार्श्विक उधार सुविधा और प्राथमिक व्यापारियों को स्तर-I सहायता को परिवर्तनीय दर पर पुनर्खरीद में बदलने पर विचार करता है । यह संकेत किया गया था कि दूसरे चरण के लिए प्रभावी दर बैंकों और प्राथमिक व्यापारियों के साथ चर्चा करके निर्धारित की जाएगी । प्राप्त अनुभवों और व्यापक परामर्शों के आधार पर यह निर्णय लिया गया है कि नीचे दिये गये अनुसार सुपरिभाषित सोपानों में दूसरा चरण आगे कार्यान्वित किया जाये । तीसरे चरण में दिन-भर में बहु-नीलामी की परिकल्पना है जो निधियों और प्रतिभूतियों के प्रस्तावित इलैक्ट्रानिक अंतरण के प्रारंभ से संभव हो जायेगा ।
52. एक आंतरिक दल ने बाजार सहभागियों से प्राप्त प्रतिसूचना को विचार में लेते हुए इस योजना की समीक्षा की है और चलनिधि समायोजन सुविधा को अधिक प्रभावशील बनाने के लिए कतिपय सुझाव दिये हैं । मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजार संबंधी तकनीकी परामर्शदात्री समिति ने चलनिधि समायोजन सुविधा के कार्यचालन पर भी विचार किया था । इसी विषय पर फिक्स इनकम मनी मार्केट एण्ड डेरिवेटिवज़ एसोसिएशन (एफआइएमएमडीए) ने कुछ समय पहले एक सेमिनार भी आयोजित किया था । मोटे तौर पर यह देखा गया है कि चलनिधि समायोजन सुविधा चलनिधि प्रदान करने/ग्रहण करने के लिए एक लचीले लिखत के रूप में और अल्पावधि मुद्रा बाजार के लिए ब्याज-दर संकेतक के रूप में संतोषजनक ढंग से कार्य कर रही है । इन परामर्शों से उत्पन्न सुझाव मोटे तौर पर नीलामियों, द्वितीय स्तर के समर्थन की आवश्यकता, आदि से सम्बद्ध प्रक्रियागत पहलुओं से संबंधित हैं ताकि चलनिधि समायोजन सुविधा को परिचालन की दृष्टि से अधिक लचीला और समस्या-मुक्त बनाया जा सके ।
53. चलनिधि समायोजन सुविधा से प्राप्त अनुभव ने यह भी दर्शाया है कि इस सुविधा को तभी पूर्णत: प्रभावी बनाया जा सकता है जब इसे चलनिधि समायोजन का प्राथमिक लिखत बताया जा सके और प्रणाली को प्राप्त अन्य चलनिधि समर्थन अर्थात् बैंकों को संपार्श्विक उधार सुविधा तथा निर्यात ऋण पुनर्वित्त और प्राथमिक व्यापारियों को चलनिधि समर्थन को चलनिधि समायोजन सुविधा से धीरे-धीरे प्रतिस्थापित किया जाए । तथापि, पूर्व में ये सुविधाएं कतिपय विशिष्ट शर्तों पर प्रदान की जाती थीं । अत: इन सुविधाओं के प्रतिस्थापन को एक युक्तियुक्त अवधि के दौरान बनाया और समयबद्ध किया जाना चाहिए ताकि प्राथमिक लिखत के रूप में चलनिधि समायोजन सुविधा में होनेवाले परिवर्तन से बैंकों तथा प्राथमिक व्यापारियों के लिए अपनी परिसंपत्ति-देयता संबंधी स्थितियों को आसानी से समायोजित करने में कोई गंभीर परिचालनगत समस्या उत्पन्न न हो जाए ।
54. चलनिधि समायोजन सुविधा के पूर्णत: प्रभावी बनने के लिए एक अपेक्षा यह भी है कि पर्याप्त सुरक्षा-उपायों के साथ पुनर्खरीद बाज़ार को सक्रिय बनाने के लिए और गैर-बैंक सहभागियों, जिन्हें वर्तमान में मांग/नोटिस मुद्रा बाज़ार में उधार देने में अनुमति दी जाती है, को अन्य वैकल्पिक अल्पकालिक निवेश विकल्पों के लिए पूर्णरूपेण अंतर-बैंक मांग/नोटिस मुद्रा बाज़ार की तरफ अग्रसर होने की आवश्यकता और अवसरों के सृजन की आवश्यकता है ।
55. उपर्युक्त बातों को ध्यान में रखते हुए उपायों के एक पैकेज की घोषणा करने का प्रस्ताव है, जिसमें नीलामी की कार्यविधि और अवधियों, मांग मुद्रा बाज़ार के पूर्णत: अंतर-बैंक बाज़ार में सुगम परिवर्तन की रणनीति और बाज़ार की विभिन्न अपेक्षाओं के जरिए, वर्तमान में प्रणाली को उपलब्ध चलनिधि समर्थन को युक्तियुक्त बनाने हेतु एक व्यापक एवं सुसंबद्ध कार्यक्रम-सहित, चलनिधि समायोजन सुविधा की परिचालनगत कार्यविधि में परिवर्तन शामिल होंगे । यह भी प्रस्ताव है कि मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाज़ारों में कतिपय अनुपूरक और संबद्ध उपायों की घोषणा की जाए । आशा है कि यह पैकेज समस्त लिखतों और भागीदारों में निधियों के सुगम प्रवाह में वृद्धि करते हुए समग्रत: बाज़ार के भागीदारों को काफी अधिक परिचालनगत लचीलापन प्रदान करेगा । इसके फलस्वरूप मुद्रा बाज़ार का और एकीकरण होगा जिससे मौद्रिक नीति के और प्रभावी संप्रेषण चैनल के रूप में उसका सुधार होगा ।
56. यह योजना कार्यविधि और परिचालनगत पहलुओं को परिमार्जित करने और सुधारने के उद्देश्य से हमेशा की तरह बाज़ार के भागीदारों और मुद्रा एवं सरकारी प्रतिभूति बाज़ार संबंधी तकनीकी परामर्शदात्री समिति के साथ परामर्श करते हुए निरंतर समीक्षा के अधीन होगी ।
(क) प्रणाली को उपलब्ध स्थायी
चलनिधि सुविधाओं में परिवर्तन
और बैक-स्टॉफ सुविधा शुरू करना
57. फिलहाल, बैंकों को दो योजनाओं अर्थात् (i) संपार्श्विक उधार सुविधा जो प्रत्येक वाणिज्य बैंक को वर्ष 1997-98 के दौरान उसकी औसत सकल जमाराशियों के 0.125 प्रतिशत के स्तर पर उपलब्ध है और (ii) 16 फरवरी, 1996 की स्थिति के अनुसार पुनर्वित्त के लिए पात्र उसके बकाया निर्यात ऋण की तुलना में ऐसे बकाया ऋण में हुई वृद्धि के 50.0 प्रतिशत की सीमा तक निर्यात ऋण पुनर्वित्त, के अंतर्गत चलनिधि समर्थन प्रदान किया जाता है । वर्तमान में प्राथमिक व्यापारियों को संपार्श्विक चलनिधि समर्थन प्रदान किया जाता है और प्राथमिक व्यापारी-वार सीमाएं रिज़र्व बैंक को उनकी वचनबद्धता से संबंधित कतिपय मानदंडों पर आधारित हैं ।
58. जब चलनिधि समायोजन सुविधा की समीक्षा की गयी तब यह महसूस किया गया कि इस सुविधा के संपूर्ण परिचालन में सुगम ढंग से परिवर्तित होने के लिए, प्रणाली को बैंक दर पर स्थायी चलनिधि सुविधाओं के जरिए और दैनिक नीलामियों में चलनिधि समायोजन सुविधा के परिचालनों के जरिए उपलब्ध सहायता के साथ-साथ एक अतिरिक्त सुविधा (कुशन) के रूप में परिवर्तनशील ब्याज-दर पर बैक-स्टॉफ सुविधा का होना आवश्यक है ।
59. उपर्युक्त विशेषताओं और चलनिधि समायोजन सुविधा के अनुवर्ती चरण में क्रमिक रूप से परिवर्तित होने की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए वर्तमान स्थायी चलनिधि सुविधाओं में निम्नलिखित आशोधनों की घोषणा की जाती है:
- भारतीय रिज़र्व बैंक से उपलब्ध स्थायी चलनिधि सुविधाओं को दो भागों, अर्थात् (i) सामान्य सुविधा और (ii) बैक-स्टॉप सुविधा, में विभाजित करने का प्रस्ताव है । तदनुसार, सीएलएफ तथा निर्यात ऋण पुनर्वित्त के अंतर्गत बैंकों को उपलब्ध समर्थन की कुल मात्रा और प्राथमिक व्यापारियों के लिए उपलब्ध समर्थन की मात्रा को दो घटकों, अर्थात् सामान्य सुविधा और बैक-स्टॉप सुविधा में विभाजित किया जाएगा ।
- सामान्य सुविधा बैंक दर पर उपलब्ध करायी जाएगी । बैक-स्टॉप सुविधा परिवर्तनशील दैनिक दर पर उपलब्ध होगी । परिवर्तनशील दर निम्नानुसार चलनिधि समायोजन सुविधा की नियमित नीलामियों से उभरनेवाली अधिकतम (कट-ऑफ) दरों से संबद्ध होगी और ऐसी दरों के अभाव में उक्त दर नेशनल स्टॉक एक्स्चेंज - मुंबई - इंटर-बैंक ऑफर रेट (एनएसई - एमआइबीओआर) से संबद्ध होगी :
(i) बैक-स्टॉप सुविधा के लिए दैनिक आधार पर निश्चित की जानेवाली परिवर्तनशील दर उस प्रति-पुनर्खरीद-अधिकतम दर से 1.0 प्रतिशत अंक अधिक होगी जिस पर चलनिधि समायोजन सुविधा की नियमित नीलामियों में दिन के दौरान पहले निधियां प्रदान की गयी थीं
(ii) जहां चलनिधि समायोजन सुविधा की नीलामी के भाग के रूप में कोई भी प्रति-पुनर्खरीद बोली स्वीकार नहीं की गयी, वहां दर रिज़र्व बैंक के निर्णयानुसार चलनिधि समायोजन सुविधा की नीलामी में प्राप्त दिन की पुनर्खरीद अधिकतम दर से 2.0 से 3.0 प्रतिशत अंक अधिक होगी
(iii) यदि दिन के दौरान पहले पुनर्खरीद अथवा प्रति पुनर्खरीद नीलामियों में बोलियां स्वीकार नहीं की गयीं तो दर रिज़र्व बैंक के निर्णयानुसार एनएसई - एमआइबीओआर से 2.0 से 3.0 प्रतिशत अंक अधिक रहेगी ।
- बैक-स्टॉप सुविधा बैंकिंग समय की समाप्ति तक परिचालित होगी ।
- प्राथमिक व्यापारियों और बैंकों को उपलब्ध चलनिधि समर्थन की कुल सीमाओं में सामान्य सुविधा का हिस्सा प्रारंभ में लगभग दो-तिहाई होगा तथा बैक-स्टॉप का हिस्सा एक-तिहाई होगा । प्राथमिक व्यापारी-वार और बैंक-वार सीमाओं की घोषणा अलग से की जाएगी ।
60. फिलहाल, बैंकों को आधार तिथि की तुलना में वृद्धिशील आधार पर पुनर्वित्त के लिए पात्र बकाया निर्यात ऋण के आधार पर पुनर्वित्त प्रदान किया गया है । यह देखा गया है कि कुछ बैंकों का निर्यात क्षेत्र में आधार तिथि को एकसपोजर अत्यधिक था और वे या तो रिज़र्व बैंक से कोई भी पुनर्वित्त प्राप्त करने में असमर्थ हैं अथवा उनकी पात्रताएं बहुत ही कम हैं । उदाहरण के लिए, ऐसा बैंक जिसका बकाया ऋण 16 फरवरी, 1996 को कुल अग्रिमों का 30.0 प्रतिशत था और हाल ही की अवधि में उसी समग्र राशि का बकाया ऋण था, उसे मौजूदा फार्मूला के अनुसार कोई भी पुनर्वित्त सुविधा नहीं मिलती है, भले ही कुल अग्रिमों के प्रतिशत के रूप में निर्यात ऋण का अनुपात अत्यधिक क्यों न हो । अत: यह निर्णय किया गया है कि निर्यात ऋण पुनर्वित्त सुविधा को युक्तियुक्त बनाया जाए ताकि यह सुविधा निर्यातकों को बैंक द्वारा दिए जा रहे कुल्ा ऋण सहायता की मात्रा को अच्छी तरह दर्शा सके । अब, ऋण सीमाएं किसी आधार तारीख को वृद्धिशील निर्यात ऋण के लिए पात्र के स्थान पर कुल बकाया पात्र निर्यात ऋण के आधार पर निर्धारित की जाएंगी ।
61. तदनुसार, यह निर्णय लिया गया है कि 5 मई, 2001 से शुरू होने वाले पखवाड़े से वाणिज्य बैंकों को द्वितीय पूर्ववर्ती पखवाड़े के अंत की स्थिति के अनुसार पुनर्वित्त के लिए पात्र बकाया निर्यात ऋण के 15.0 प्रतिशत की सीमा तक निर्यात ऋण पुनर्वित्त दिया जाएगा । फार्मूला में परिवर्तन के कारण, उपर्युक्त उल्लिखित बैंक पुनर्वित्त के कतिपय प्रतिशत पाने के हकदार बने रहेंगे । यदि इन बैंकों द्वारा लिये जानेवाले निर्यात ऋणों की मात्रा में वृद्धि होती है तो उनको दी जानेवाली पुनर्वित्त सुविधा में भी तदनुसार वृद्धि होगी ।
62. सभी बैंकों को और सुविधा देने के लिए, वर्तमान फार्मूला के अनुसार 4 मई, 2000 की स्थिति की वर्तमान पुनर्वित्त सीमा 31 मार्च 2002 के लिए उपलब्ध न्यूनतम सीमा में निहित होगी ।
63. उपर्युक्त सभी संशोधन 5 मई 2001 से शुरू होनेवाले पखवाड़े से लागू होंगे ।
(ख) चलनिधि समायोजन सुविधा को परिचालित
करने संबंधी प्रक्रिया में परिवर्तन
- नकदी समायोजन सुविधा प्रक्रिया संबंधी उपाय नीचे दिए गए हैं :
- चलनिधि समायोजन सुविधा की न्यूनतम बोली की मात्रा को 10 करोड़ रुपए से घटाकर 5 करोड़ रुपए कर दिया गया है ताकि योजना में और परिचालनगत लोच लाया जा सके और छोटे स्तर के परिचालक इसमें भाग ले सकें ।
- चलनिधि समायोजन सुविधा की अवधि को 30 मिनट बढ़ाया जा रहा है - बोलियों की प्राप्ति के लिए समय पूर्वाह्न 10.30 और परिणाम की घोषणा के लिए दोपहर 12..00 बजे ।
- बाजार की अपेक्षाओं को स्थिर करने और मांग दरों में भारी अस्थिरता को रोकने के लिए यह निर्णय किया गया है कि बाजारों को अतिरिक्त सूचना दी जाए । दो दिन विलंब के साथ पखवाड़े के दौरान संचयी आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक के पास रखे गए अनुसूचित बैंकों के सकल नकदी शेष के संबंध में बाजार को सूचना दी जाए ।
- वर्तमान में, रिपो नीलामियां बगैर किसी पूर्व घोषित दर के आयोजित की जाती हैं तथा बोलियां समान मूल्य प्रणाली के आधार पर स्वीकार की जाती हैं । अनपेक्षित देशी और विदेशी घट-बढ़ को पूरा करने के लिए जहां कहीं आवश्यक हो, त्वरित ब्याज दर संकेतक प्रदान करने की दृष्टि से, भारतीय रिज़र्व बैंक के पास अब से आगे रातभर के आधार पर नियत दर रिपो में स्विचओवर करने का अतिरिक्त विकल्प होगा किंतु इस विकल्प के उपयोग किए जाने की बहुत कम संभावना है । ऐसे रिपो के लिए, यदि आवश्यक हो तो ब्याज की दरों की घोषणा नीलामी के दिन की पूर्व संध्या अथवा नीलामी के दिन पूर्वाह्न 10 बजे नीलामी घोषणा के एक भाग के रूप में की जाएगी ।
- ओवरनाइट रिपो के अलावा, भारतीय रिज़र्व बैंक को यह भी विवेकाधिकार होगा कि जब कभी आवश्यक हो वह 14 दिन की अवधि तक के दीर्घकालीन रिपो की शुरूआत करे ।
65. वर्तमान में, नकदी समायोजन सुविधा समान मूल्य आधार पर आयोजित की जाती है । समान मूल्य नीलामी को, निधियों की प्राप्ति और उसे प्रदान करने के लिए एकल रिपो के निर्णय का लाभ मिलेगा । इसके अलावा, बहुत मूल्य नीलामी से भिन्न, तथाकथित "विजेता अभिशाप" की समस्या नहीं है, क्योंकि सभी सफल बोली लगानेवालों को एक ही दर मिलती है । तथापि, समान मूल्य प्रणाली की एक महत्वपूर्ण कमी यह है कि बोली लगानेवाले सबसे अनुकूल दर पाने के लिए निश्चित रहते हैं । अत: बाजार के दायरे से अलग हटकर अविवेकी अथवा गैर-जिम्मेदाराना बोली लगाने की संभावना है । दूसरी ओर बहु-मूल्य प्रणाली में, बोली लगानेवाले अपनी आवश्यकता और लागत के मूल्यांकन के अनुसार विभिन्न दर पाते हैं । अत: बोली लगाने में अधिक प्रतिबद्धता को सुनिश्चित करने की संभावना होती है और बोली लगाने की पद्धति में बाजार में मांग की मात्रा दिखाई देती है । जबकि एक प्रणाली की दूसरी प्रणाली से श्रेष्ठ होने के कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं, देश का अनुभव यह दर्शाता है कि परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न अवसरों पर विभिन्न लिखतों के लिए दोनों प्रणालियों का उपयोग किया जाता है । हाल ही में, फिमडा के एक सेमिनार में नकदी समायोजन सुविधा के अंतर्गत दोनों नीलामी प्रणालियों के मुद्दे पर चर्चा हुई तथा उससे एक दृष्टिकोण उभरकर आया कि भारतीय रिज़र्व बैंक को इस चरण में बहु-मूल्य नीलामी प्रणाली को अपनाना चाहिए । अत: यह निर्णय लिया गया है कि मई 2001 के दौरान एक माह की अवधि के लिए प्रायोगिक आधार पर बहु-मूल्य प्रणाली नीलामी (वर्तमान समान मूल्य नीलामी के स्थान पर) की शुरुआत की जाए । बहु-मूल्य नीलामी के मामले में, भारित औसत अधिकतम आय को जनता को जारी किया जाएगा जो उच्चतम दरों के साथ मांग मुद्रा बाजार के लिए परिचालन के संबंध में एक सीमा का काम करेगा ।
66. मध्यावधि लक्ष्य केवल पूर्व-उल्लिखित परिवर्तनीय दरों वाली ‘बैक-स्टॉप’ सुविधा से युक्त नकदी समायोजन सुविधा के माध्यम से नकदी समायोजन की ओर धीरे-धीरे अग्रसर होना है । साथ ही इसका लक्ष्य इस समय बैंक दर पर विद्यमान उपलब्ध विभिन्न विशिष्ट स्थायी नकदी सुविधाओं को समाप्त करना भी है ।
(ग) निर्यात ऋण संबंधी ब्याज दरों का औचित्य-निर्धारण
67. फिलहाल, निर्यात ऋण लदानपूर्व ऋण पर विशिष्ट ब्याज दरें निर्धारित कर और लदानोत्तर ऋण के मामले में अधिकांशत: उच्चतम सीमा के रूप में प्रदान किया जाता है । इसके बाद से यह प्रस्ताव है कि बैंकों द्वारा दिये जानेवाले निर्यात ऋण संबंधी ब्याज दर को सभी श्रेणियों के मामले में उच्चतम दर के रूप में उल्लिखित किया जाये, ताकि बैंकों द्वारा लगायी गयी ब्याज दर वस्तुत: निर्धारित दर से कम हो । इसके साथ ही यह भी प्रस्ताव है कि उक्त उच्चतम दरों को संबंधित बैंकों के अन्य देशी उधारकर्ताओं को उपलब्ध मूल उधार दरों (पीएलआर) से जोड़ दिया जाये । तदनुसार, 180 दिन तक वाले लदानपूर्व ऋण के संबंध में लागू उच्चतम दर मूल ब्याज दर से (संलग्नक I में ब्योरे दिये गये हैं) 1.5 प्रतिशत अंक कम होगी बैंक निर्धारित उच्चतम दर से कम ब्याज दर लगाने के लिए स्वतंत्र होंगे, यथा मूल ब्याज दर से 1.5 प्रतिशत अंक कम ।
68. फिलहाल, बैंक अल्पावधि और विभिन्न परिपक्वता अवधि के आधार पर भी मूल उधार दर निर्धारित करते हैं । निर्यात ऋण संबंधी बैंकों द्वारा लागू ब्याज दरें बैंक द्वारा निर्धारित प्रचलित मूल उधार दर के आधार पर होंगी । वर्तमान में, सरकारी क्षेत्र के तीन प्रमुख बैंकों के 180 दिन तक के लिए अवधि-संबद्ध मूल उधार दर 10.0-10.5 प्रतिशत के दायरे में है । इस तरह निर्धारित उपर्युक्त उच्चतम दरों का परिणाम सरकारी क्षेत्र के प्रमुख बैंकों के निर्यात ऋण संबंधी ब्याज दरों में 1.0-1.5 प्रतिशत की कमी होगा जिससे 180 दिन तक वाले लदानपूर्व ऋण सबंधी 10.0 प्रतिशत की वर्तमान ब्याज दर (और 90 दिन तक वाले लदानोत्तर ऋण के उच्चतम सीमा के रूप में) की तुलना में घट कर उक्त दर 8.5-9.0 प्रतिशत हो जायेगी । यह आशा की जाती है कि इससे स्वस्थ प्रतियोगिता की शुरूआत होगी और निर्यातकों को ब्याज दर, उत्तम सेवा और कारोबार लागत की दृष्टि से बैंकिंग सेवाओं के उपयोग के लिए बेहतर विकल्प उपलब्ध होंगे ।
69. यह उल्लेखनीय है कि फिलहाल भारतीय बाजार में अमरीकी डालर के लिए फारवड़ प्रीमियम 6 महीने के लिए लगभग 4.5 प्रतिशत है । इस तरह एक निर्यातक 8.5-9.0 प्रतिशत ब्याज दर पर रुपया-निर्यात ऋण लेकर अनुमानित निर्यात आय वायदा बाजार में बेच सकता है और इस तरह अपनी ब्याज लागत को लगभग 4.0-4.5 प्रतिशत तक कम कर सकता है जो अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अत्यंत ही प्रतियोगी है ।
70. निर्यातकों को अब विदेशी मुद्रा में लदानपूर्व और लदानोत्तर ऋण लेने का विकल्प उपलब्ध है जो लिबोर की उच्चतम दर (+) 1.5 प्रतिशत अंक पर उपलब्ध है । विदेशी मुद्रा अनिवासी (बी) जमाराशि संबंधी उच्चतम दर को लिबोर (लाइबोर (+) 0.5 प्रतिशत अंक के स्थान) पर परिवर्तित करने के साथ यह निर्णय किया गया है कि बैंकाें द्वारा निर्यात के लिए विदेशी मुद्रा संबंधी उच्चतम दर को संशोधित कर लिबोर (+) 1.0 प्रतिशत अंक किया जाये जिससे यह दर और अधिक प्रतियोगी हो जायेगी ।
(घ) मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजारों से संबद्ध पूरक उपाय
71. नकदी समायोजन सुविधा को व्यवस्थित करने और मौद्रिक नीति के संचार चैनल में सुधार के हिस्से के रूप में मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजारों के संबंध में निम्नलिखित पूरक और संबद्ध उपाय घोषित किये गये हैं :
(i) शुद्ध अंतर-बैंक मांग मुद्रा बाजार
की ओर अग्रसर
72. उन चयनित कंपनियों के अलावा, जो मांग कारोबार प्राथमिक व्यापारी के माध्यम से करते हैं, वित्तीय संस्थाओं और पारस्परिक निधियों (म्यूचुअल फंड) जैसी अनेक बैंकेतर संस्थाएं हैं जिन्हें मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में सीधे उधार देने की अनुमति है । नरसिंहम समिति II की सिफारिशों के अनुसरण में यह निर्णय किया गया था कि शुद्ध अंतर-बैंक (प्राधिकृत व्यापारी सहित) मांग/नोटिस मुद्रा बाजार की ओर अग्रसर हुआ जाए । जैसा कि अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, मांग/नोटिस मुद्रा बाजार से इन संस्थाओं को सुगमतापूर्वक चरणबद्ध रूप से बाहर करने के लिए योजना तैयार करने की दृष्टि से, भारतीय रिज़र्व बैंक, बैंकेतर संस्थाओं और बैंकों के प्रतिनिधियों को लेकर एक तकनीकी दल का गठन किया गया था । उक्त दल ने अपनी रिपोर्ट पेश कर दी है । यह 29 मार्च 2001 को आरबीआइ वेबसाइट (www.rbi.org.in) पर विशेषज्ञों और बाजार के अन्य सहभागियों के अभिमत और सुझाव के लिए रखी गयी थी । इस दल ने, अन्य बातों के साथ-साथ, बैंकेतर संस्थाओं को सहभागिता से धीरे-धीरे क्रमिक रूप से बाहर करने के लिए एक कार्यनीति की भी सिफारिश की है ।
ग्रुप की सिफारिशों और सिफारिशों पर प्राप्त फीडबैक के मद्देनज़र निम्नलिखित कदम उठाए जा रहे हैं :
- अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में की गई घोषणा के अनुसार कंपनियों (कार्पोरेट) को प्राथमिक व्यापारियों के माध्यम से अपना मांग कारोबार करने की अनुमति 30 जून, 2001 तक होगी ।
- मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में कार्य करने के लिए अन्य गैर-बैंक संस्थ्।ाओं (वित्तीय संस्थाओं, म्युचुअल फंड एवं बीमा कंपनियों सहित की पहुंच को धीरे-धीरे चार चरणों में कम किया जाएगा :
- चरण I में, गैर-बैंकों को 5 मई 2001 से वर्ष 2000-01 के दौरान अपने औसत दैनिक उधार का 85.0 प्रतिशत मांग बाजार में उधार देने की अनुमति होगी ।
- चरण II में, गैर-बैंकों को समाशोधन निगम के परिचालित होने की तारीख से वर्ष 2000-01 के दौरान अपने औसत दैनिक उधार का 70.0 प्रतिशत मांग बाजार में उधार देने की अनुमति होगी ।
- चरण -III में, चरण II के तीन महीने बाद की तारीख से गैर-बैंकों की मांग/सूचना मुद्रा में बाजार में पहुंच, मांग बाज़ार में उनके वर्ष 2000-01 के दौरान औसत दैनिक उधार के 40.0 प्रतिशत के बराबर होगी ।
- चरण IV में, चरण III के तीन महीने बाद की तारीख से गैर-बैंकों की मांग/सूचना मुद्रा बाज़ार में पहुंच्।, मांग बाजार में उनके वर्ष 2000-01 के दौरान औसत दैनिक उधार के 10.0 प्रतिशत के बराबर होगी ।
- चरण IV के प्रारंभ हो जाने के बाद भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा अधिसूचित तारीख से गैर-बैंकों को मांग/सूचना मुद्रा बाजार में उधार देने की अनुमति नहीं होगी ।
73. उपर्युक्त उपायों से दोनों पक्षों अर्थात् उधार देने व उधार लेनेवाले बाजार-सहभागियों को बाजार में बिना किसी रुकावट के अपने संविभाग (पोर्टफोलियो) को समायोजित करने के लिए पर्याप्त समय होगा क्योंकि यह कार्यक्रम निर्दिष्ट चार चरणों में तकनीकी समूह की सिफारिशों के अनुरूप कार्यान्वित होगा । प्रस्तावित समाशोधन निगम की स्थापना से पुनर्खरीद (रिपो) का कार्य न केवल कुशलता से होगा बल्कि गैर-सरकारी प्रतिभूतियों में पुनर्खरीद कारबार करना भी संभव होगा । ऐसा अनुमान है कि अंतत: मांग मुद्रा बाजार और पुनर्खरीद/प्रति पुनर्खरीद बाजार दोनों अन्य मुद्रा बाजार लिखतों जैसे-मीयादी मुद्रा, वाणिज्यिक पेपर (सीपी), जमा प्रमाणपत्र (सीडी) और खज़ाना बिल बाजार से मिलकर एक एकीकृत बाजार बनाएंगे जो बैंकों और गैर-बैंकों दोनों के लिए अल्पकालिक निधियों को संतुलित करेगा । यह भी उम्मीद की जाती है कि ऐसे एकीकरण से मुद्रा बाजार, मौद्रिक नीति का प्रभावी संचार चैनल बन जाएगा ।
(ii) मीयादी जमाराशियों की न्यूनतम
परिपक्वता अवधि कम करना
74. इस समय सभी मीयादी जमाराशियों पर ब्याज दरें मुक्त हैं और बैंक 15 दिन (जो मीयादी जमाराशि की न्यूनतम परिपक्वता अवधि है) से अधिक की परिपक्वता अवधियों के लिए कई तरह की ब्याज दरें देते हैं । और अधिक अविनियमन की ओर बढ़ने की दृष्टि से, गैर-बैंकों को जब वे चरणबद्ध रूप से मांग मुद्रा बाजार से बाहर हो जाएंगे उन्हें अल्पकालिक अधिशेष निधियों को अधिक लचीले तरीके से निवेश करने का अवसर देने और बैंकों को अपनी परिसंपत्ति देयता प्रबंधन (एएलएम) में अधिक लचीलापन लाने में सक्षम बनाने के लिए यह निर्णय किया गया है कि मीयादी जमाराशि की न्यूनतम परिपक्वता अवधि वर्तमान 15 दिन से कम करके 7 दिन कर दी जाए जो प्रत्येक बैंक के स्वविवेक पर निर्भर होगा । किंतु यह सुविधा 15 लाख रुपए और उससे अधिक की थोक जमाराशि के लिए होगी जिसमें बैंकों को जमाराशि की मात्रा के अनुसार विभेदक ब्याज दर देने की आज़ादी होगी । तथापि, जमाराशि प्रमाणपत्रों और वाणिज्यिक पत्रों के लिए न्यूनतम परिपक्वता अवधि 15 दिन ही रहेगी ।
(iii) दैनिक न्यूनतम आरक्षित नकदी निधि अनुपातबनाए रखने की अपेक्षा में छूट
75. भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम के अनुसार सभी अनुसूचित बैंकों द्वारा रिपोर्टिंग पखवाड़े के दौरान औसत दैनिक आधार पर आरक्षित नकदी निधि अनुपात बनाए रखना होता है । बैंकों की नकदी व्यवस्था में सुधार लाने और सुचारु अंतर-बैंक नकदी समायोजन के लिए विलंबित आरक्षित निधि अपेक्षा बनाए रखने सहित न्यूनतम दैनिक अपेक्षा को पूर्व के 85.0 प्रतिशत से घटाकर 65.0 प्रतिशत कर दिया गया था । तथापि, न्यूनतम अपेक्षा पखवाड़े के रिपोर्टिंग शुक्रवार के लिए लागू नहीं है । अब यह प्रस्ताव है कि रिपोर्टिंग पखवाड़े के पहले सात दिनों के लिए दैनिक न्यूनतम अपेक्षा 65.0 प्रतिशत से घटाकर 50.0 प्रतिशत कर दी जाए जबकि पखवाडेॅ के शेष दिनों में 65.0 प्रतिशत न्यूनतम अपेक्षा बनाए रखना जारी रहेगा तथापि, यह न्यूनतम अपेक्षा रिपोर्टिंग शुक्रवार सहित बिना किसी अपवाद के सभी सातों दिन के लिए लागू होगी । यह 11 अगस्त, 2001 से शुरू होने वाले पखवाड़े से प्रभावी होगा । इससे बैंकों को आरक्षित निधि रखने में और सहूलियत होगी और यह बैंकोंे के अंत:- अवधि नकदी-प्रवाह पर निर्भर होगा । आशा की जाती है कि इस उपाय से मांग मुद्रा बाजार की अस्थिरता में कमी आएगी ।
(iv) आरक्षित नकदी निधि अनुपात के अंतर्गतभारतीय रिज़र्व बैंक में धारित नकदी शेष पर ब्याज
76. वर्तमान में, सभी अनुसूचित वाणिज्य बैंकों (क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों को छोड़कर) को आरक्षित नकदी निधि अनुपात संबंधी अपेक्षा के अंतर्गत भारतीय रिज़र्व बैंक के पास रखी गयी पात्र नकदी शेष राशियों पर प्रतिवर्ष 4.0 प्रतिशत की दर से ब्याज अदा किया जाता है । यद्यपि मध्यवर्ती उपाय के रूप में, आरक्षित नकदी निधि अनुपात में कमी सांविधिक न्यूनतम अपेक्षा तक करने के मध्यावधि लक्ष्य को कायम रखा जाएगा, पात्र शेष नकद राशियों पर ब्याज दर दो स्तरों पर बैंक दर के समान होगी । प्रथम स्तर पर, 21 अप्रैल, 2001 को प्रारंभ होने वाले पखवाड़े से पात्र शेष राशियों पर दिये जानेवाले ब्याज को बढ़ाकर 6.0 प्रतिशत कर दिया जाएगा । परवर्ती स्तर पर, जिसकी घोषणा बाद में की जाएगी, चुकाया गया ब्याज बैंक दर के समान होगा ।
(v) न्यूनतम आरक्षित नकदी निधि अनुपात सेअंतर-बैंक मीयादी देयता की छूट
77. वर्तमान में, अंतर-बैंक देयताओं के लिए 3.0 प्रतिशत न्यूनतम अपेक्षा के अधीन आरक्षित नकदी निधि अनुपात के निर्धारण से छूट दी जाती है । चूंकि अंतर-बैंक उधार अल्पकालिक स्वरूप के होते हैं और इससे किसी प्रकार का द्वितीयक जमाराशियों का विस्तार नहीं होता है, इसलिए यह प्रस्ताव है कि 15 दिन या उससे अधिक की अवधिपूर्णता वाली अंतर-बैंक मीयादी देयताओं को तथा उपर्युक्त 3.0 प्रतिशत की आरक्षित नकदी निधि अनुपात की न्यूनतम अपेक्षा के निर्धारण से छूट दी जाए । बैंक की लागत पर न्यून बचत के अलावा, यह आशा की जाती है कि इस उपाय से अंतर-बैंक मीयादी मुद्रा बाजार विकसित करने में मदद मिलेगी । यह उपाय, 11 अगस्त, 2001 को प्रारंभ होनेवाले पखवाड़े से लागू होगा ।
(vi) खजाना बिल बाजार
- यह प्रस्ताव किया गया है कि वर्तमान 14 दिवसीय खजाना बिल और 182 दिवसीय खजाना बिल की नीलामियों को समाप्त कर दिया जाए और इसके बदले में, 91 दिवसीय खजाना बिल की नीलामियों में अधिसूचित राशि को बढ़ाकर 250 करोड़ रुपए कर दिया जाए । 364 दिवसीय खजाना बिल की नीलामी में अधिसूचित राशि 750 करोड़ रुपए ही रहेगी । यह प्रस्ताव है कि दोनों 91 दिवसीय और 364 दिवसीय खजाना बिलों के लिए भुगतान की तारीख को एक ही निर्धारित कर दिया जाए । अत: 91 दिवसीय और 364 दिवसीय बिल दोनों ही की अवधि समान तारीखों को पूर्ण होगी तथा वे एक साथ ही द्वितीयक बाजार में विभिन्न अवधिपूर्णता वाले खजाना बिलों का पर्याप्त समरूप स्टॉक मुहैया करायेंगे ।
- सहायक सामान्य खाता बही मंे किए गए
लेनदेनों के लिए टी प्लस 1 निपटान
79. वर्तमान में, सरकारी प्रतिभूतियों के लेनदेन का निपटान कारोबार की तारीख या आगामी कार्य दिवस को किया जाता है जब तक कि यह लेनदेन किसी अनुमत शेयर बाजार के किसी दलाल की मार्फत नहीं किया जाता हो जिसमें निपटान टी प्लस 5 आधार पर होता हो । लोक ऋण कार्यालय (पीडीओ) के कंप्यूटरीकरण में हुई प्रगति से देशभर में क्षेत्रीय कार्यालयों में मौजूद समूहीकृत टर्मिनल सुविधा तथा वार्ता तय व्यापार प्रणाली (एनडीएस) के लिए सदस्य टर्मिनल संभव हो पाये हैं (संलग्नक-3) । इस प्रस्तावित वार्ता तय व्यापार प्रणाली (एनडीएस) में, एनडीएस के सदस्यों के बीच सभी प्रकार के व्यापारों की सूचना एनडीएस पर देनी होगी जो भुगतान प्रणाली से सीधे जुड़ी होगी । इसके लिए कि बाजार के प्रतिभागी स्वयं एनडीएस के लिए तैयार हों, यह प्रस्ताव है कि 2 जून, 2001 से भारतीय रिज़र्व बैंक की सुपुर्दगी बनाम भुगतान (डीवीपी) प्रणाली के माध्यम से किये गये सभी लेनदेन टी प्लस 1 आधार पर होंगे । चूंकि इससे निपटान की तारीख को प्रतिभूति लेनदेनों के लिए निपटान निधियों के लिए मांग के बारे में बाजार के प्रतिभागियों को निश्चिंतता प्राप्त होगी इसलिए यह उम्मीद की जाती है कि इससे मुद्रा बाजार के प्रतिभागियों के बीच नकदी और चलनिधि प्रबंधन में सुधार होगा । मांग मुद्रा बाजार पर भी इसका स्थिर प्रभाव पड़ेगा ।
ब्याज दर नीति
(क) न्यूनतम उधार दर संबंधी मानदंडों की समीक्षा
80. ब्याज दरों के अविनियमन तथा बैंकों को परिचालनात्मक लचीलापन मुहैया कराने की कार्रवाई के रूप में अप्रैल 1997 में न्यूनतम उधार दर (पीएलआर) लागू की गयी । तभी से, बैंकों द्वारा न्यूनतम उधार दर लागू करने संबंधी मानदंडों को धीरे-धीरे और अधिक उपयुक्त तथा उदार बनाया गया है । बैंकों को यह स्वतंत्रता प्रदान की गयी कि वे अपनी न्यूनतम उधार दरें तथा अधिकतम व्याप्ति की घोषणा कर सकते हैं । बाद में, न्यूनतम अवधि-उधार दर (पीटीएलआर) लागू की गयी और तत्पश्चात् बैंकों को यह भी स्वतंत्रता प्रदान की गयी कि वे अवधि से संबद्ध न्यूनतम उधार दर का प्रस्ताव कर सकते हैं । बैंकों को अब यह भी छूट दी गयी है कि वे नियत या अस्थायी दर आधार पर उधार दरें लागू कर सकते हैं ।
- वर्तमान में न्यूनतम उधार दर 2 लाख रुपये तक की ऋण सीमा के लिए उच्चतम सीमा दर और 2 लाख रुपये से अधिक ऋण अथवा ऋण सीमाओ के लिए न्यूनतम दर उपयुक्त है । इस नीति के लिए तर्काधार यह है कि न्यूनतम उधार दर बैंक के सर्वोत्तम उधारकर्ता के लिए-प्रभार्य दर है अत: पारदर्शिता और उदे्दश्यता के लिए यह अपेक्षित है कि यह उधारकर्ता के लिए प्रभार्य न्यूनतम दर होनी चाहिए । तथापि, बैंकिंग प्रणाली के अनुरोधों के आधार पर बैंकों को अक्तूबर 1999 के मध्यावधि समीक्षा में कुछ संवर्ग के कर्जों/ऋण जैसे, बिलों को भुनाना, मध्यवर्ती एजेंसियों को उधार देना आदि के संबंध में न्यूनतम उधार दर का संदर्भ लिये बिना ब्याज दरों में परिवर्तन करने का लचीलापन अपनाने किया गया है ।
- बैंकरों के साथ हाल ही की बैठकों में यह अनुरोध किया गया था कि न्यूनतम उधार दर उधारकर्ताओं को प्रभार्य न्यूनतम दर के रूप में मानी जाने के बजाए बैंकों के लिए संदर्भ अथवा आधार दर में उसे परिवर्तित किया जाना चाहिए । इस संदर्भ में अन्तर्राष्ट्रीय प्रथा की समीक्षा भी यह दर्शाती है कि जब कि न्यूनतम उधार दर उच्चतम ऋण पात्रता मुल्यांकन सहित पारंपारिक रूप से प्राथमिक उधारकर्ताओं के लिए प्रभारित ऋण दर थी तब हाल ही के वर्षों में बैंकों द्वारा न्यूनतम उधार दर से कम दर में ऋणों को उपलब्ध करने की प्रथा सामान्य हो गई ।
- अन्तर्राष्ट्रीय प्रथा और वाणिज्य बैंकों को अपनी उधार दर निश्चित करने में और आगे परिचालनगत लचीलापन उपलब्ध कराने को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया है कि 2 लाख से अधिक के ऋणों के लिए आधार दर के रूप में न्यूनतम उधार दर की आवश्यकता को शिथिल किया जाए । बैंक अपने बोर्डों द्वारा अनुमोदित पारदर्शिता तथा उद्देश्यता नीति के समान ही सरकारी उधमाें सहित निर्यातकर्ताओं अथवा अन्य अच्छी साखवाले उधारकर्ताओं को न्यूनतम उधार दर से कम दर पर ऋण दे सकेंगे । बैंक, न्यूनतम उधार दर पर ब्याज दरों की अधिकतम व्याप्ति घोषित करना जारी रखेगा । तथापि, भारत में प्रचलित ऋण बाजार और लघु उधारकर्ताओं के लिए रियायतों को जारी रखने की आवश्यकता को देखते हुए न्यूनतम उधार दर 2 लाख रुपये तक के ऋणों के लिए उच्चतम सीमा के रूप में माने जाने की प्रथा जारी रहेंगी ।
- वर्तमान विनियमावली के अनुसार बैंकों पर 15 लाख रुपये से अधिक की एकल मीयादी जमाराशियों को छोड़कर अन्य जमाराशियों पर प्रदत्त ब्याज दरों के मामलों में विभेद करना प्रतिबंधित है । कई वरिष्ठ नागरिकों और उनके संगठनों से प्राप्त अनुरोधों के आधार पर यह निर्णय किया गया है कि बैंकों कों किसी भी आकार की सामान्य जमाराशियों की तुलना में उच्चतम तथा नियत ब्याज दर प्रस्तुत करते हुए विशेष रूप से वरिष्ठ नागरिकाें के लिए तैयार की गई नियत जमा योजनाओं को निरूपित करने के लिए अनुमति प्रदान की जाए । इन योजनाओं में ऐसे जमाकर्ताओं, जिनकी मृत्यु होने की स्थिति में उनके नामिती को जमा राशियों के स्वत: अंतरण के लिए सरलीकृत प्रक्रिया भी शामिल की जानी चाहिए ।
(ख) वरिष्ठ नागरिकों के लिए जमा योजना
(ग) मीयादी जमाराशियां - बैंकों के लिए लचीलापन
85. बैंकों को मीयादी जमाराशियों पर नियत/अस्थायी दर प्रस्तुत करने की स्वतंत्रता दी गई है और ऐसी जमाराशियों का असामायिक आहरण करने की अनुमति प्रदान की गई है । बैंकों से प्राप्त सुझाावों के आधार पर बेहतर परिसम्पत्ति देयता प्रबंध को सुसाध्य बनाने के लिए वर्तमान प्रावधानों में निम्नलिखित परिवर्तन प्रस्तावित किये जाते हैं :
- घरेलू/अनिवासी विदेशी जमाराशियों पर वर्तमान मार्गदर्शी निर्देशों के अनुसार बैंकों के लिए, यदि जमाकर्ता अनुरोध करते हैं तो असामायिक आहरण करने की अनुमति देना अनिवार्य है । तथापि बैंक, उसी बैंक में मीयादी जमाराशि में पुनर्निवेश करने के मामले को छोड़कर असामायिक आहरण की अनुमति देते हुए दंडात्मक ब्याज दर निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र है । तथापि, अत्यधिक संख्यावाले असामायिक आहरण बैंक के परिसम्पत्ति देयता प्रबंध के कार्य पर प्रभाव डाल सकता है । अत: यह प्रस्ताव किया गया है कि बैंक एकल और हिंदु अविभक्त परिवारों से इतर तत्वों द्वारा रखी गई अत्यधिक जमाराशियों के असामायिक आहरण को अस्वीकार करने के अपने विवेकाधिकार का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र होंगे । तथापि, बैंकों को असामायिक आहरण अस्वीकार करने की अपनी नीति के बारे में पहले ही अर्थात् ऐसी जमाराशियां स्वीकार करते समय ऐसे जमाकर्ताओं को सूचित करना होगा । वर्तमान जमाराशियों के संबंध में वर्तमान प्रावधान एकल जमाराशियों के नवीकरण के समय तक जारी रहेगा ।
- वर्तमान में, बैंक परिपक्वता अवधि में लागू ब्याज दर पर अतिदेय घरेलू मीयादी जमाराशियों का नवीकरण करने के लिए स्वतंत्र हैं । बेहतर परिसम्पत्ति देयता प्रबंध को सुसाध्य बनाने के लिए यह प्रस्तावित है कि परिपक्वता अवधि में प्रचलित ब्याज दर पर अतिदेय जमाराशियों का नवीकरण केवल 14 दिवसीय अतिदेय अवधि के लिए ही अनुमत हो । यदि अतिदेय अवधि 14 दिनों से अधिक होती है तो जमाराशियों को मीयादी जमाराशियों के रूप में माना जाना चाहिए और बैंक अतिदेय अवधि के लिए अपना ब्याज दर निर्धारित कर सकते हैं । तथापि, बैंकों को चाहिए कि वे जमाकर्ताओं को अतिदेय जमाराशियों के नवीकरण के लिए अपनी नीति के बारे में पहले ही सूचित कर दे ।
(घ) विदेशी मुद्रा अनिवासी (बैंक) जमाराशियों पर ब्याज दर
86. वर्तमान में बैंकों को यह स्वतंत्रता है कि वे 1-3 वर्षों की परिपक्वता अवधि के लिए विदेशी मुद्रा अनिवासी (बैंक) जमाराशियाँ स्वीकार करें और उन पर नियत अथवा अस्थायी ब्याज दर लागू करें बशर्ते कि अस्थायी ब्याज दर छह महिनों की ब्याज पुनर्निर्धारित अवधि सहित हो और वह तदनुरूपी परिपक्वता के लिए 50 आधार अंकों एवं लाइबोर/स्वैप दरों की उच्चतम सीमा के अधीन हो ।
सरकारी प्रतिभूति बाज़ार की गतिविधियां
87. केंद्र सरकार के 2001-02 के बजट में की गई घोषणा के बाद रिज़र्व बैंक ने निम्नलिखित उपाय किए हैं :
- समाशोधन निगम के जून 2001 से अपना कार्यकलाप आरंभ करने की संभावना है । भारतीय स्टेट बैंक इसका मुख्य प्रवर्तक होगा और पांच अन्य बैंक तथा वित्तीय संस्थाएं इसमें शामिल होंगी । इस निगम से मुद्रा, सरकारी प्रतिभूतियों और विदेशी मुद्रा लेनदेनों के समाशोधन और निपटान का कार्य सुविधाजनक तरीके से होने की संभावना है । संलग्नक-2 में समाशोधन निगम से संबंधित प्रस्तावों के बारे में विस्तार से बताया गया है ।
- अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में यह बताया गया था कि भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोड़ (सेबी) के परामर्श से सरकारी प्रतिभूतियों की खुदरा खरीद को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से शेयर बाज़ारों में सरकारी प्रतिभूतियों में आदेश-चालित-स्क्रीन-आधारित ट्रेडिंग प्रणाली शुरू की जाएगी । इसके कार्यान्वयन में हुई प्रगति की बराबर समीक्षा की जा रही है ।
- तत्क्षण आधार (रियल-टाइम बेसिज़) पर सरकारी प्रतिभूतियों के द्वितीयक बाजार लेनदेनों और नीलामियों में पारदर्शी इलेक्ट्रॉनिक बोली लगाने को सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से जून 2001 तक इलेक्ट्रॉनिक नेगोशिएटेड डीलिंग सिस्टम (एनडीएस) लागू करने का निर्णय लिया गया है । प्रस्तावित एनडीएस के संबंध में और अधिक जानकारी संलग्नक-3 में दी गई है ।
- लोक ऋण अधिनियम के स्थान पर सरकारी प्रतिभूति अधिनियम लाया जाना प्रस्तावित है । इस अधिनियम से सरकारी प्रतिभूतियों के लेनदेन तथा खुदरा बिक्री में लचीलापन आयेगा ।
88. प्राथमिक व्यापारियों द्वारा उठाये जानेवाले बाजार जोखिम को विचार में लेते हुए सरकारी प्रतिभूति बाजार में संस्थागत-तंत्र को सुदृढ़ बनाने के लिए स्वीकृत अंतर्राष्ट्रीय मानकों पर आधारित पूंजी पर्याप्तता मार्गदर्शी सिद्धांत उन्हें दिसंबर 2000 में जारी किये गये थे । सरकारी प्रतिभूति-बाजार को और विकसित करने के लिए निम्नलिखित उपायों की घोषणा की जा रही है :
- सरकारी प्रतिभूतियों के लिए प्राथमिक बाजार में खुदरा सहभागिता को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से भारित औसत अधिकतम आय पर गैर-प्रतियोगी आधार पर खुदरा निवेशकों को आबंटन के लिए दिनांकित प्रतिभूतियों की प्रत्येक नीलामी में अधिसूचित राशि के अधिकतम 5.0 प्रतिशत तक विनियोजन का प्रस्ताव किया जाता है । इस योजना का परिचालन केवल प्राथमिक व्यापारियों और अनुषंगी व्यापारियों (सेटेलाइट डीलर्स) के ही माध्यम से किया जाता रहेगा । व्यक्तियों और भविष्य निधियों को भी इसमें सहभागिता की अनुमति दी जायेगी और वे इस योजना के अंतर्गत आबंटन के लिए पात्र होंगे । इस प्रकार का आबंटन अधिसूचित राशि के अलावा होगा । यह योजना प्रायोगिक आधार पर होगी । बाद में इस योजना की समीक्षा की जाएगी और आवश्यक समझे जाने पर इसमें आशोधन किया जाएगा ।
- वर्तमान में, 91 दिवसीय खजाना बिलों को जारी करने के लिए एकसमान कीमत नीलामी फार्मेट (यूनिफार्म प्राइज ऑक्शन फार्मेट) इस्तेमाल में लाया जा रहा है । इस फार्मेट के लाभ निर्धारण के लिए चुनिंदा और प्रायोगिक आधार पर दिनांकित प्रतिभूतियों की नीलामियों के लिए इस फार्मेट को लागू करने का प्रस्ताव है । अलग-अलग नीलामियों के लिए जारी अधिसूचना में प्रयोग किए जानेवाले फार्मेट अर्थात् एकसमान कीमत फार्मेट अथवा बहुकीमत फार्मेट के बारे में भी निर्दिष्ट किया जाएगा ।
- सरकारी प्रतिभूतियों के प्राथमिक व्यापारियों के दूसरे टियर के रूप में सहायक बुनियादी ढांचा तैयार करने के लिए दिसंबर 1996 में अनुषंगी व्यापारी योजना शुरू की गई । अनुषंगी व्यापारियों को दी गई सुविधाओं में भारतीय रिज़र्व बैंक के पास चालू और सहायक सामान्य खाता बही की हकदारी और पिछले दिन के अन्त में बकाया स्टॉक के 50.0 प्रतिशत की सीमा तक पुनर्खरीद के माध्यम से चलनिधि सहायता की सुलभता शामिल है । योजना की समीक्षा के बाद यह निर्णय लिया गया है कि जबकि अनुषंगी व्यापारी बने रहने के लिए मौजूदा पात्रता मानदंड जारी रहेगा, भारतीय रिज़र्व बैंक की ओर से उपलब्ध मौजूदा चलनिधि सहायता बंद कर दी जाएगी । अनुषंगी व्यापारी पुनर्खरीद बाजार में खुद के लिए निधि जुटाने के काबिल रहेंगे क्योंकि समाशोधन निगम की स्थापना के होते ही पुनर्खरीद बाजार में अनुषंगी व्यापारियों द्वारा लेनदेन सुविधाजनक ढंग से किया जा सकेगा ।
89. यह उल्लेखनीय है कि प्रस्तावित एनडीएस और समाशोधन निगम से मुद्रा, सरकारी प्रतिभूति और विदेशी मुद्रा बाज़ारों में अधिक पारदर्शी और प्रभावी ट्रेडिंग संभव होगी । इसके साथ-साथ ट्रेडिंग सिस्टम, समाशोधन निगम और लोक ऋण कार्यालय तथा भुगतान प्रणाली के बीच इलेक्ट्रॉनिक लिंक स्थापित होने से प्रभावी और सुरक्षित निपटान सुनिश्चित हो सकेगा ।
ऋण प्रबंधन को अलग करने
की दिशा में हुई प्रगति
90. मौद्रिक प्रबंधन से ऋण प्रबंधन को अलग करने के संबंध में नवंबर 1997 में भारतीय रिज़र्व बैंक में गठित कार्यकारी दल ने दिसंबर 1997 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । कार्यकारी दल ने अन्य बातों के साथ-साथ ऋण प्रबंधन को मौद्रिक प्रबंधन से अलग करने की और ऋण प्रबंधन के कार्य को करने के लिए कंपनी अधिनियम, 1956 के अंतर्गत स्वतंत्र कंपनी की स्थापना की सिफारिश की है । हालांकि इस संदर्भ में, कार्यान्वयन के विस्तृत ब्यौरे पर कोई विचार नहीं किया गया है, सिद्धांत रूप में यह मान लिया गया है कि दोनों कार्यों को अलग करने का निर्णय लेना वांछनीय होगा । किंतु, यह महसूस किया गया कि दोनों कार्यों को अलग करना तीन पूर्व शर्तों, अर्थात् - वित्तीय बाज़ारों के विकास, राजकोषीय घाटे पर समुचित नियंत्रण और आवश्यक वैधानिक परिवर्तनों को पूरा करने पर निर्भर करेगा ।
- बाद की गतिविधियों से सभी स्तरों पर पर्याप्त प्रगति दिखाई देती है :
- प्रथमत: वित्तीय बाजारों में नए लिखतों को लागू करने से और नए सहभागियों के आगमन से, संस्थागत बुनियादी ढांचे को मजबूत बनाने से और विनियामक ढांचे के अधिक स्पष्ट होने से वित्तीय बाजारों के विकास और एकीकरण में उल्लेखनीय प्रगति हुई है । यह ध्यान देने योग्य है कि प्रतिभूति संविदा (विनियमन) अधिनियम, 1956 में हाल ही में किए गए संशोधन से, वित्तीय बाजारों पर भारतीय रिज़र्व बैंक और सेबी की विनियामक भूमिकाएं अलग-अलग तय हो गई हैं ।
- द्वितीयत: 2000-2001 के बजट अभिभाषण में वित्त मंत्री ने मौद्रिक नीति तैयार करने और वित्तीय प्रणाली के विनियमन के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक को अधिक परिचालनगत सहूलियत देने की आवश्यकता पर बल दिया । तदनुसार, भारतीय रिज़र्व बैंक ने विभिन्न अधिनियमों में संशोधन करने के प्रस्ताव रखे हैं । इन प्रस्तावों पर सक्रिय रूप से विचार किया जा रहा है ।
- तृतीयत: भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा लोक ऋण के प्रबंधन के अधिदेशात्मक स्वरूप को वापस लेने के लिए, भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम में संशोधन का और लोक ऋण प्रबंधन का कार्य केंद्र सरकार द्वारा स्वयं करने अथवा यदि केंद्र सरकार ऐसा चाहे तो किसी अन्य स्वतंत्र निकाय को यह कार्य सौंपने के लिए केंद्र सरकार के पास विवेकाधिकार निहित करने का प्रस्ताव रखा है ।
- चतुर्थत: जब प्रस्तावित राजकोषीय उत्तरदायित्व बिल पारित किया जाएगा तो इससे राजकोषीय घाटे पर समुचित नियंत्रण होने की उम्मीद है । प्रस्तावित बिल में 31 मार्च, 2006 तक राजस्व घाटे को समाप्त करने और इसी अवधि में राजकोषीय घाटे के सकल घरेलू उत्पाद के 2.0 प्रतिशत तक लाने के अलावा यह परिकल्पना की गई है कि तीन वर्ष के बाद केंद्र सरकार भारतीय रिज़र्व बैंक से प्रत्यक्ष उधारी नहीं लेगा, केवल अस्थायी नकदी की जरूरतों को पूरा करने के लिए ही अग्रिमों के रूप में उधार लिया जाएगा ।
- पंचमत: समाशोधन निगम की स्थापना और स्वयंपूर्ण नकदी समायोजन सुविधा (एलएएफ) के परिचालन और अन्य प्रौद्योगिकी आधारभूत सुविधाओं को लागू करने से भारतीय रिज़र्व बैंक अपनी मौद्रिक नीति के साधनों का परिचालन अधिक सहूलियत से कर सकेगा और ऋण प्रबंधन को अलग करने के प्रस्ताव से भारतीय रिज़र्व बैंक को अपने मौद्रिक प्रबंधन के कार्य को करने के लिए स्वतंत्रता रहेगी ।
92. उपर्युक्त परिप्रेक्ष्य में, जैसे ही राजकोषीय उत्तरदायित्व बिल के संबंध में वैधानिक कार्रवाई पूरी हो जाती है और भारतीय रिज़र्व बैंक अधिंनियम में संशोधन हो जाते हैं, उसके बाद भारतीय रिज़र्व बैंक से सरकारी ऋण प्रबंध कार्य को अलग करने की संभाव्यता और इस बारे में आगे और कदम उठाने के लिए सरकार के साथ विचार-विमर्श करने का प्रस्ताव है ।
विवेकपूर्ण उपाय
(क) ऋण को अनर्जक के रूप में मानने के लिए
90 दिन का मानदंड अपनाना
93. वर्तमान में, ऋण को उस स्थिति में अनर्जक माना जाता है जबकि उसका ब्याज और/अथवा मूल ऋण की किस्त 180 दिन से अधिक समय तक अतिदेय रहती है जबकि अंतर्राष्ट्रीय प्रथा के अनुसार इसकी अधिकतम अवधि 90 दिन की है । अंतर्राष्ट्रीय रूप से बेहतर प्रथाओं को अपनाने की दिशा में कदम उठाने और अधिक पारदर्शिता सुनिश्चित करने की दृष्टि से 31 मार्च, 2004 को समाप्त वर्ष से इसके लिए 90 दिन के मानदंड को अपनाने का निर्णय लिया गया है ।
94. अत: बैंकों से यह अपेक्षित है कि 90 दिन के मानदंड को सुविधाजनक तरीके से अपनाने के लिए वे उपयुक्त प्रणाली तैयार करें । सुविधाजनक उपाय के रूप में बैंकों को चाहिए कि वे 1अप्रैल, 2002 तक मासिक अंतरालों पर ब्याज लगायें । 90 दिन के मानदंड के आधार पर अनर्जक परिसंपत्तियों (एनपीए) को निश्चित करने की दृष्टि से बैंकों को अपनी मौजूदा प्रबंध सूचना प्रणाली (एमआइएस) को बड़े पैमाने पर अपग्रेड करना होगा जिससे वे ऐसे ऋणों के आंकड़े एकत्र कर सकें जहां ब्याज और/या मूल ऋण की किस्त 90 दिन से अधिक अवधि के लिए अतिदेय रही हो । बैंकों को चाहिए कि वे 31 मार्च, 2002 को समाप्त वर्ष से ऐसे ऋणों के लिए अतिरिक्त प्रावधान करना शुरू करें । इससे उनके तुलन पत्र मजबूत होंगे और 31 मार्च, 2004 तक सुविधाजनक रूप से 90 दिन के मानदंड को अपनाने के लिए वे तैयार हो जाएंगे । बैंकों को सूचित किया गया है कि वे इसके लिए आवश्यक तौर-तरीके अपनाएं और इस संबंध में अपनी कार्य-योजना अपने बोड़ से अनुमोदित कराने के बाद भारतीय रिज़र्व बैंक को प्रस्तुत करें । भारतीय रिज़र्व बैंक छमाही आधार पर इन योजनाओं के कार्यान्वयन पर निगरानी रखेगा ।
95. भारतीय रिज़र्व बैंक लगातार विवेकपूर्ण प्रावधानों के संबंध में विनियामक आवश्यकताओं की समीलक्षा करता रहा है । भविष्य में प्रावधानन की अपेक्षाओं को धीरे-धीरे बढ़ाने का प्रस्ताव रखा जाता है । इस बात को ध्यान में रखते हुए कि ऋण के नुकसान के लिए अधिक प्रावधान करने से बैंकों और वित्तीय क्षेत्र की समग्र वित्तीय स्थिति मजबूत होती है, बैंकों से अनुरोध किया जाता है कि वे वांछनीय प्रथा के रूप में स्वेच्छा से भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित न्यूनतम विवेकपूर्ण स्तरों से काफी अधिक प्रावधान करें ।
(ख) वित्तीय संस्थाओं के लिए विवेकपूर्ण मानदण्ड
96. वर्तमान दिशानिर्देशों के अनुसार किसी ऋण सुविधा को अनर्जक के रूप में वित्तीय संस्थाएं तभी मानेंगी जब उस पर ब्याज 180 से अधिक दिनों तक अतिदेय हो जाए और/अथवा उसका मूलधन 365 से अधिक दिनों तक अतिदेय हो जाए । पिछले कई वर्षों में, बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं के की बकाया राशियों की वसूली से संबंधित कानूनी ढांचे को और बेहतर बनाने के लिए भारत सरकार ने कई कदम उठाए हैं । भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को कतिपय क्षेत्रों, जिनमें समन्वय की आवश्यकता होती है, खास तौर से बैंकों एवं वित्तीय संस्थाओं द्वारा संयुक्त रूप से वित्तपोषित बड़ी लागत वाली परियोजनाओं के संबंध में बुनियादी-नियम पहले ही परिचालित किए हैं ताकि विलंब से बचा जा सके और कार्यान्वयन की सामान्य समस्याओं का बेहतर समाधान हो सके । चूंकि बैंकिंग प्रणाली, ऋण की अनर्जकता के अभिनिर्धारण के संबंध में 90 दिन के मानदण्ड को अपनाने की ओर बढ़ रही है, यह निर्णय किया गया है कि वित्तीय संस्थाओं और बैंकों के बीच परिसंपत्तियों के वर्गीकरण के मानदण्डों में यथोचित अवधि में एकरूपता लाई जाए । तदनुसार, शुरुआत के तौर पर, 31 मार्च, 2002 को समाप्त वर्ष से किसी वित्तीय संस्था की परिसंपत्ति तभी अनर्जक मानी जाएगी जब उसका ब्याज एवं/अथवा मूलधन मौजूदा 365 दिन तक अतिदेय रहने के बजाय 180 दिन तक अतिदेय रहता है ।
(ग) निजी क्षेत्र के बैंकों के संबंध में सांविधिक
केंद्रीय लेखा-परीक्षकों हेतु मानदण्ड
97. हाल ही में, भारतीय रिज़र्व बैंक ने यह देखा कि निजी क्षेत्र के बैंकों में सांविधिक केंद्रीय लेखा-परीक्षकों की नियुक्ति के बारे में कोई एकरूपता नहीं है । बहुत से बैंक बहुत छोटी लेखा-परीक्षा फर्मों और तुलनात्मक दृष्टि से बहुत कम अनुभव वाले स्वामित्व प्रतिष्ठानों की नियुक्ति करते हैं । आमतौर से वित्तीय क्षेत्र में और खासतौर से बैंकिंग क्षेत्र में तेजी से हो रहे परिवर्तनों तथा निजी क्षेत्र के कुछ नए बैंकों द्वारा अपने दैनिक कार्यों में अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी के प्रयोग को ध्यान में रखते हुए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने लेखा-परीक्षा फर्मों के नामों को भारतीय निजी क्षेत्र के बैंकों के सांविधिक लेखा-परीक्षकों के रूप में अनुमोदित करने से पहले लेखा-परीक्षा फर्मों के लिए न्यूनतम पात्रता मानक निर्धारित करने संबंधी मामले की जांच की है । तदनुसार, वर्ष 2001-02 से भारतीय निजी क्षेत्र के बैंकों द्वारा उनके यहां सांविधिक लेखा-परीक्षकों के रूप में जिन लेखा-परीक्षा फर्मों की सिफारिश की जाती है उन्हें इस संबंध में निर्धारित मानकों को पूरा करना होगा, जैसे कि उनका न्यूनतम स्थायित्व (स्टैंडिंग), पूर्णकालिक भागीदारों की न्यूनतम संख्या जो फर्म के साथ कम से कम 3 वर्षों से जुड़े रहे हैं, फर्म के साथ पूरी तरह जुड़े रहे सनदी लेखाकारों की न्यूनतम संख्या, पेशेवर लेखा-परीक्षा स्टाफ की संख्या तथा लेखा-परीक्षकों का सांविधिक केंद्रीय लेखा-परीक्षा के रूप में न्यूनतम अनुभव । अभिनिर्धारित न्यूनतम मानकों को लागू करने की दृष्टि से भारतीय निजी क्षेत्र के बैंकों को उनकी पिछले वर्ष मार्च की समाप्ति पर परिसंपत्तियों कि मात्रा के आधार पर दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है अर्थात् ऐसे बैंक जिनकी परिसंपत्तियां 5000 करोड़ रुपए हैं और वे बैंक जिनकी परिसंपत्तियां 5000 करोड़ रुपए से अधिक हैं ।
(घ) अनर्जक परिसंपत्तियों की वसूली हेतु
संशोधित मार्गदर्शी निर्देश
- केंद्र सरकार के वर्ष 1999-2000 के बजट में की गई घोषणा के अनुसार लघुक्षेत्र की पुरानी अनर्जक परिसंपत्तियों (एन पी ए) के निपटान-समझौते हेतु निपटान परामर्शदात्री समितियों (एस.एसी) के गठन के लिए मार्गदर्शी निर्देश बनाए गए थे । यद्यपि बैकाें से यह अपेक्षा थी कि वे नई अनर्जक परिसंपत्तियों के प्रभाव पर बंदिश लगाने के उद्देश्य से ऋण-मूल्यांकन एवं ऋणोत्तर निगरानी को मजबूत बनाने के लिए प्रभावी उपाय करें किंतु यह महसूस किया गया वि सभी श्रेणियों में विद्यमान पुरानी अनर्जक परिसंपत्तियों के स्टॉक को कम करने के लिए और भी यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाया जाए । अत: मार्गदर्शी निर्देशों को जुलाई 2000 में संशोधित किया गया जिससे अनर्जक परिसंपत्तियों की वसूली के लिए अत्यंत सहज, स्वनिर्णय रहित और भेदभावरहित प्रक्रिया प्राप्त हो सकी । ये मार्गदर्शी निर्देश भारतीय रिजॅर्व बैंक की वेबसाइट (www.rbi.org.in)पर उपलब्ध हैं । सरकार और भारतीय रिजॅर्व बैंक को औद्योगिक/व्यापारिक संगठनों, उधारकर्ताओं तथा बैंकों से इस संबंध में बहुत सारे अभ्यावेदन प्राप्त हुए हैं कि मार्गदर्शी निर्देशों की अवधि बढ़ाई जाए । तदनुसार, 31 मार्च, 2001 तक लागू आशोधित मार्गदर्शी निर्देश की अवधि जून, 2001 तक बढ़ा दी गई है । इन आवेदनों/मामलों पर कार्रवाई करने के लिए बैंकों को 30 सितंबर 2001 तक का समय दिया जाता है । सरकारी क्षेत्र के सभी बैंकों के लिए इन मार्गदर्शी निर्देशों का समान रूप से पालन करना आवश्यक है, ताकि वे निर्दिष्ट अवधि में अनर्जक परिसंपत्तियों की अधिकतम वसूली कर सकें ।
- अक्तूबर, 2000 की मध्यावधि समीक्षा में यह घोषणा की गई थी कि अंतर्राष्ट्रीय परंपराओं की तुलना में ऋण-राशि सीमा की वर्तमान परंपरा की समीक्षा से पता चलता है कि इसमें कतिपय मुद्दे ऐसे हैं जिन पर और अधिक विचार किए जाने की आवश्यकता है । पहला मुद्दा ‘पूंजी निधि’ सिद्धांत से संबंधित है दूसरा मुद्दा ऋण-राशि को मापने की संभावना से है, विशेष रूप से गैर-निधि एवं वह राशि जो तुलनपत्र में नहीं दर्शाई जाती है, उनकी व्याप्ति और तीसरा मुद्दा स्वयं राशि सीमा के स्तर से है । इस संबंध में निहित जटिलताओं को ध्यान में रखते हुए इस विषय पर एक चर्चा-पत्र तैयार किया गया और उसे सरकारी क्षेत्र और निजी क्षेत्र के कुछ बैंकों एवं कुछ विदेशी बैंकों में परिचालित किया गया । इन मुद्दों पर बैंकों से प्राप्त अभिमत और सुझावों के आधार पर निम्नलिखित उपाय घोषित किए जा रहे हैं :
(ङ) व्यक्ति/समूह उधारकर्ताओं को ऋण-राशि
- अंतर्राष्ट्रीय रूप से एक्सपोजर की उच्चतम सीमाओं की गणना पूंजी पर्याप्तता मानकों के अंतर्गत यथा परिभाषित कुल पूंजी की तुलना में की जाती है (टियर I एवं टियर II पूंजी) । सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय परंपराओं को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय किया गया है कि स्वदेशी एवं विदेशी दोनों बैंकों द्वारा समान रूप से एकसपोजर-सीमा निर्धारित करने हेतु पूंजी पर्याप्तता मानकों के अंतर्गत यथापरिभाषित पूंजी-निधि के सिद्धांत को 31 मार्च, 2002 से अपनाया जाए ।
- सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय परंपराओं के अनुरूप यह निर्णय किया गया है कि पहली अप्रैल, 2003 से गैर-निधि आधारित एक्सपोजर की गणना 100 प्रतिशत पर की जाए और उसके अतिरिक्त, बैंक व्यक्तिगत/समूह उधारकर्ताओं की राशि-सीमा निर्धारित करने के लिए विदेशी विनिमय में वायदा संविदा और अन्य व्युत्पन्न प्रोडक्ट जैसे करेंसी स्वैप्स और ऑप्शन्स को, उनकी प्रतिस्थापन लागत मूल्य पर शामिल कर लें ।
- चूंकि पूंजी-निधि सिद्धांत का विस्तार हुआ है और वह कुल पूंजी (टियर I एवं टियर II पूंजी) प्रतिनिधित्व करता है , यह निर्णय किया गया है कि 31 मार्च, 2002 से एकल उधारकर्ता के लिए एक्सपोजर सीमा का समायोजन वर्तमान 20.0 प्रतिशत से 15.0 प्रतिशत किया जाए । इसी प्रकार से, समूह एक्सपोजर सीमा 31 मार्च, 2002 से पूंजी-निधि के 40.0 प्रतिशत से समायोजित की जाएगी । संरचनात्मक परियोजनाओं के वित्तपोषण के मामले में यह सीमा 10.0 प्रतिशत और बढ़ाई जा सकती है अर्थात् 50.0 प्रतिशत तक की जा सकती है ।
(च) ऋण वसूली प्राधिकरण
100. संघीय बजट 2001-02 में यह घोषणा की गई थी कि सरकार विद्यमान 22 ऋण वसूली अधिकरणों एवं 5 अपीलीय अधिकरणों के अतिरिक्त, वर्ष 2001-02 के दौरान 7 और ऋण वसूली अधिकरणों की स्थापना करेगी ताकि बैंक, उधारकर्ताओं से अपनी बकाया राशियों की वसूली तेज़ी से कर सकें । इसके अलावा, सरकार ने कानून लाने का भी प्रस्ताव किया है ताकि चूक होने पर प्रतिभूतियों का मोचन-निषेध (फोरक्लोजर) तथा प्रवर्तन हो सके और बैंक एवं वित्तीय संस्थाएं अपनी बकाया राशियों की वसूली कर सकें ।
(छ) चूककर्ता सूची - कवरेज को व्यापक बनाना
101. बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के एक करोड़ और उससे अधिक राशि के चूककर्ताओं की सूची का वार्षिक प्रकाशन भारतीय रिज़र्व बैंक में 1995 से शुरू हुआ जिसमें बैंकिंग विधि में विहित गोपनीय प्रावधानों के कारण केवल वही मामले प्रकाशित किए जाते हैं जिनमें मुकदमे दायर किए गए हों । संदिग्ध अथवा हानि श्रेणी के एक करोड़ रुपए और उससे अधिक राशि के चूककर्ताओं के नामों को वर्ष में दो बार परिचालित करके योजना को और व्यापक बनाया गया है । 25 लाख रुपए और उससे अधिक की बकाया राशि की जानबूझ्कर चूक करने वालों के संबंध में जानकारी एकत्र करना और उसके त्रैमासिक प्रचार की योजना फरवरी, 1999 में प्रारंभ की गई । बैंकिंग विधि में संशोधन को लंबित रखते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को सूचित किया कि वे ऋण-करार में एक शर्त जोड़ें जिसमें उधारकर्ता की यह सहमति प्राप्त की जाएगी कि वे चूककर्ता होने पर अपने नाम बता देंगे । वे बैंक जिन्होंने उधारकर्ताओं की सहमति प्राप्त करने की शर्त अभी तक नहीं जोड़ी है उन्हें सूचित किया जाता है कि वे इस कार्य को 30 सितंबर, 2001 तक पूरा कर लें ।
(ज) शेयर बाजार में बैंकों की राशियों (एक्सपोजर)
से संबंधित मार्गदर्शी निर्देश
102. अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में की गई घोषणा के अनुसार भारतीय रिज़र्व बैंक-सेबी तकनीकी समिति ने शेयरों में बैंकों के निवेश तथा शेयरों पर अग्रिम एवं अन्य संबंधित राशियों के बारे में भारतीय रिज़र्व बैंक के मार्गदर्शी निर्देशों की समीक्षा की । समिति ने अपनी सिफारिशें करते हुए बैंकों के हाल के अनुभवों तथा उनके द्वारा शेयरों एवं वित्तीय गारंटियों पर अग्रिमों के रूप में ली गई राशियों (एक्सपोजर) को ध्यान में रखा है । भारतीय रिज़र्व बैंक -सेबी तकनीकी समिति की रिपोर्ट जो 12 अप्रैल, 2001 को भारतीय रिज़र्व बैंक को प्रस्तुत की गई थी उसे भारतीय रिज़र्व बैंक ने उसी दिन जारी कर दिया है ताकि उस पर विशेषज्ञों/बाज़ार सहभागियों एवं अन्य से अभिमत/सुझाव प्राप्त हो सकें । यह रिपोर्ट भारतीय रिज़र्व बैंक वेबसाइट पर उपलब्ध है ।
103. तकनीकी समिति ने पाया है कि पूंजी बाज़ार (निधिकृत और गैर-निधिकृत ऋण सुविधाएं, दोनों अर्थों में) में बैंकों की समग्र राशि फरवरी 2001 में बैंकों के कुल अग्रिम का 1.76 प्रतिशत बनी रही जो संतुलित स्थिति है । समग्र बैंकिंग प्रणाली और सरकारी क्षेत्र के बैंक जिनकी अर्थव्यवस्था में जमाराशियों एवं अग्रिमों के लिए भारी हिस्सेदारी है, का मार्च 2000 के क्रमश: 1.88 प्रतिशत और 0.53 प्रतिशत की तुलना में वर्तमान में एक्सपोजर कुल अग्रिमों का क्रमश: 1.76 प्रतिशत तथा 0.49 प्रतिशत रहा है, जो यह दर्शाता है कि पिछले वर्ष जारी मार्गदर्शी निर्देशों का प्रभाव नगण्य रहा है । तथापि, ऐसा लगता है कि तुलनात्मक रूप से कुछ छोटे बैंकों (कुल अग्रिमों में उनके हिस्से के अनुसार) ने यथोचित जोखिम प्रबंध मार्गदर्शी निर्देशों का पालन नहीं किया है, विशेष रूप से कुछ शेयर दलाली संस्थाओं (उनकी सहयोगी और अंत: संबद्ध कंपनियों सहित) को शेयरों पर और गैर-निधीकृत गारंटियों पर दिए गए अग्रिमों के मामले में । इन कुछ बैंकों द्वारा केवल कुछ संस्थाओं में जो निवेश केन्द्रित किया गया उसे विवेकपूर्ण आधार पर उचित नहीं ठहराया जा सकता और इससे गंभीर नीतिगत चिंताएं बढ़ जाने के अलावा ऐसे अग्रिमों/गारंटियों से संबद्ध जोखिमों में भी भारी वृद्धि हुई ।
104. तकनीकी समिति की सिफारिशों से यह अपेक्षा की जाती है कि कुछ अंतर-संबद्ध स्टॉक ब्रोकिंग संस्थाओं और कुछ निजी क्षेत्र के और सहकारी बैंकों के प्रवर्तकों/प्रबंधकों के बीच ऐसे अवांछित और अनैतिक ‘संबंध’ उभरने की संभावना कम हो जाएगी । साथ ही, तकनीकी समिति की सिफारिशें ग्राहकों के बीच बैंकों की विविधता द्वारा निधियों के उचित संवितरण के साथ पूंजी बाजार को बैंक की वित्तीय सहायता में वृद्धि के लिए स्थान और अवसर प्रदान करेंगे ।
105. तकनीकी समिति की सिफारिशों के परिप्रेक्ष्य में, भारतीय रिज़र्व बैंक यह प्रस्ताव रखता है कि शेयरों में बैंकों के निवेशों तथा शेयरों के बदले अग्रिमों और अन्य संबंधित निवेशों के संबंध में पूर्व में नवंबर 2000 में जारी किये गये मार्गदर्शी निर्देशों में संशोधन किया जाए । यह प्रस्ताव है कि इस संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक को आगे और प्राप्त होने वाले अभिमतों/ सुझावों को विचार में लेते हुए अंतिम मार्गदर्शी निर्देश मई 2001 के शुरू में जारी किये जाएं ।
106. यह भी प्रस्ताव है कि संशोधित मार्गदर्शी निर्देशों के वास्तविक प्रभावों की समीक्षा छह माह बाद पुन: की जाए । ईक्विटी द्वारा समर्थित आस्तियों का वित्तपोषण अधिकांश बैंकों के लिए अपेक्षाकृत नया कार्यकलाप होगा । जब नवंबर 2000 में वर्तमान मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किये गये थे तब भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा सभी संबंधितों के साथ गहन और खुली चर्चा करने के बाद यह प्रत्याशा की गयी थी कि वास्तविक अनुभव को मद्देनजर रखते हुए इन मार्गदर्शी सिद्धांतों में कुछ संशोधनों की आवश्यकता पड़ सकती है । बैंकों से भी यह अनुरोध किया गया था कि वे अपने परिचालनों पर कड़ी नजर रखें ओर इस क्षेत्र से संबंधित आंकड़ों पर निगरानी रखें । सभी बड़े और छोटे बैंकों को पुन: यह सूचित किया जाता है कि वे इस संवेदनशील क्षेत्र में अपने परिचालनों की ध्यानपूर्वक निगरानी रखें ताकि जोखिम न्यूनतम किया जा सके और पारदर्शिता अधिकाधिक बढ़ सके ।
(झ) माँग मुद्रा बाज़ार पर निर्भरता
107. बढ़ती हुई अविनियमितता के साथ, यह आवश्यक है कि बैंक तुलन-पत्रों के वैज्ञानिक प्रबंध के लिए परिसंपत्ति-देयता प्रबंध तकनीक को अपनाएं । तदनुसार, भारतीय रिज़र्व बैंक ने फरवरी 1999 में परिसंपत्ति-देयता प्रबंध प्रणाली पर व्यापक मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किये जिसके द्वारा बैंकों को यह सूचित किया गया कि वे पहली अप्रैल 1999 से वैज्ञानिक प्रणाली लागू करें । विवेकपूर्ण उपाय के रूप में बैंकों को अन्य बातों के साथ-साथ यह सूचित किया गया कि पहली दो समयावधियों के दौरान अर्थात् 1-14 दिन और 15-28 दिनों के दौरान नकदी प्रवाह में होनेवाले बेमेल हर हालत में नकदी बाह्य प्रवाह के 20 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए ।
108. नरसिंहम समिति II ने यह भी सिफारिश की थी कि ऐसी सुपरिभाषित विवेकपूर्ण सीमाएं स्पष्ट रूप से निर्धारित की जानी चाहिए जिनके परे बैंकों को माँग मुद्रा बाज़ार पर निर्भर रहने के लिए अनुमति नहीं दी जानी चाहिए और माँग बाजार में यह पहुंच अनिवार्य रूप से केवल अप्रत्याशित उतार-चढ़ाव का सामना करने के लिए होनी चाहिए न कि बैंकों के उधार देने के कार्य के वित्तपोषण के नियमित साधन के रूप में । तथापि, यह देखते हुए कि मुद्रा और निर्धारित आय वाली प्रतिभूतियों के बाजार अधिक विकसित नहीं थे और बैंकों को यह सूचित किया गया था कि वे बेमेल के संबंध में विवेकपूर्ण सीमाओं का अनुपालन करें, यह निर्णय लिया गया कि उत्पाद-विनिर्दिष्ट सीमा न रखी जाए । तथापि, भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा की गयी समीक्षा से यह प्रकट हुआ कि कुछ बैंकों ने मांग मुद्रा बाजार का अत्यधिक सहारा लिया । इन बैंकों को विशेष रूप से यह सूचित किया गया कि वे परिपक्वता बेमेलताएं कम करने के लिए निश्चित योजना बनाएं और मांग मुद्रा बाजार पर अत्यधिक निर्भर रहने से बचें । हाल ही के एक मूल्यांकन से यह संकेत प्राप्त हुआ है कि कुछ बैंकों ने मांग मुद्रा बाजार पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए स्थायी जमा आधार बनाने, प्रतिबद्ध ऋण-व्यवस्था आदि करने के लिए ठोस कदम उठाये हैं । तथापि, यदि कोई बैंक अपने बैंकिंग परिचालनों के लिए मांग मुद्रा बाजार पर अत्यधिक रूप से निर्भर रहना जारी रखता है तो भारतीय रिज़र्व बैंक उसके साथ विचार-विमर्श के बाद मांग मुद्रा पर उसकी दीर्घकालिक निर्भरता को कम करने के लिए विशेष सीमा निर्धारित करेगा ।
(ट) वाणिज्यिक पत्र
(i) अमूर्तीकृत धारिता के लिए वरीयता
109. वाणिज्यिक पेपर के निर्गम के लिए अक्तूबर 2000 में जारी नये मार्गदर्शी निर्देशों के एक भाग के रूप में बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, प्राथमिक व्यापारियों और गौण व्यापारियों को यह सूचित किया गया था कि वे वाणिज्यिक पत्र में निवेश करें और जैसे ही अमूर्तीकरण के लिए व्यवस्था हो, उसे अमूर्तीकृत रूप में रखें । चूंकि वाणिज्यिक पत्र के अमूर्तीकृत धारण के लिए वर्तमान व्यवस्था को पर्याप्त और संतोषजनक माना जाता है, अत: यह निर्णय लिया गया है कि 30 जून, 2001 से बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, प्राथमिक व्यापारियों और गौण व्यापारियों को नये निवेश करने के लिए और वाणिज्यिक पत्र को केवल अमूर्तीकृत रूप में रखने के लिए ही अनुमति दी जाए । प्रतिभूति-पत्र के रूप में बकाया निवेशों को भी 31 अक्तूबर, 2001 से अमूर्तीकृत रूप में परिवर्तित किया जाए ।
110. साथ ही, यह भी समयोचित समझा गया कि बांडों, डिबेंचरों और ईक्विटियों जैसे अन्य निवेशों को भी अमूर्तीकृत रूप में रखने वे लिए सूचित किया जाए । तदनुसार, 31 अक्तूबर, 2001 से बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, प्राथमिक व्यापारियों और गौण व्यापारियों को नये निवेश करने के लिए और निजी रूप से अथवा अन्यथा रखे गये बांडों और डिबेंचरों को केवल अमूर्तीकृत फार्म में रखने की अनुमति दी जाएगी । प्रतिभूति-पत्र के रूप में बकाया निवेश 30 जून, 2002 तक अमूर्तीकृत रूप में परिवर्तित किये जाएं । जहां तक ईक्विटी लिखत का सवाल है, उन्हें भारतीय प्रतिभूति और व्यापार बोड़ (सेबी) के साथ परामर्श करते हुए अधिसूचित किये जाने की तारीख से उपर्युक्त संस्थाओं द्वारा केवल अमूर्तीकृत रूप में धारण करने की अनुमति दी जाएगी ।
(ii) प्रलेखीकरण और क्रियाविधि
111. वाणिज्यिक पेपर के निर्गम के संबंध में अक्तूबर 2000 में जारी नये मार्गदर्शी सिद्धांतों के एक भाग के रूप मे, ‘फिम्मडा’ को यह कार्य सौंपा गया कि वे अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप सहभागियों द्वारा पालन किये जाने के लिए मानक क्रियाविधि और प्रलेखीकरण निर्धारित करे । इस संबंध में ‘फिम्मडा’ ने भारतीय रिज़र्व बैंक के साथ निरंतर सम्पर्क रखा है और वे ऐसी मानक क्रियाविधि और प्रलेखीकरण तैयार कर रहा है । इन्हें अंतिम रूप देने से पहले ‘फिमडा’ अपने सदस्यों और बाजार के अन्य सहभागियों के बीच इन मार्गदर्शी सिद्धांतों का प्रारूप परिचालित करेगा ।
(ठ) नया बास्ले पूंजी प्रस्ताव
112. बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बास्ले समिति ने हाल ही में नये पूंजी प्रस्ताव पर परामर्शदात्री दस्तावेजों का दूसरा सेट जारी किया है । नया पूंजी प्रस्ताव ऋण के लिए सुनिश्चित पूंजी, बाजार और परिचालनगत जोखिम प्रदान करने के लिए अत्याधुनिकता बढ़ाने हेतु कई विकल्प प्रदान करता है । यह माना जाता है कि वर्ष 2004 में सदस्य क्षेत्राधिकार में नया प्रस्ताव कार्यान्वित किया जाएगा । भारतीय रिज़र्व बैंक में वर्तमान में एक आंतरिक कार्यकारी दल नये प्रस्ताव के निहितार्थों की जांच कर रहा है ।
113. जबकि 1988 का प्रस्ताव उसकी सरलता और लोच के कारण आसानी से स्वीकार किया जा सकता था, नये प्रस्ताव में लाये गये अत्याधुनिक प्रावधानों ने बैंकों और पर्यवेक्षकों के लिए कार्यान्वयन संबंधी उल्लेखनीय चुनौतियां खड़ी कर दी हैं । कुछ बैंकों से प्राप्त प्रतिसूचना से यह संकेत मिलता है कि उन्हें अपनी वर्तमान प्रबंध सूचना प्रणाली, जोखिम प्रबंध प्रथाओं और क्रियाविधियों तथा स्टाफ के तकनीकी कौशल का काफी उन्नयन करना होगा । अत: बैंकों को चाहिए कि वे यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक कदम उठाएं कि नये प्रस्ताव जैसे ही और जब अनुमोदित हों उन्हें अपनाने के लिए वे तैयार हों । इस संदर्भ में बैंकों को यह सूचित किया जाता है कि वे नये प्रस्ताव को अपनाने के लिए अपनी तैयारी का मूल्यांकन करें और उसके कार्यान्वयन के लिए एक योजना बनाएं ।
(ड) समेकित लेखाकरण और पर्यवेक्षण
114. वित्तीय पर्यवेक्षण बोड़ ने भारतीय संदर्भ में उचित समेकित पर्यवेक्षण के लिए एक दृष्टिकोण बनाया है जिसके आधार पर पिछले साल कई उपाय घोषित किये गये थे । अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप समेकित लेखाकरण और समेकित पर्यवेक्षण के लिए परिमाणात्मक तकनीकों को प्रारंभ करने के लिए एक बहु-विषयक कार्यकारी दल का भी गठन किया गया है । आशा है कि यह दल अपनी रिपोर्ट जुलाई 2001 से पूर्व प्रस्तुत कर देगा ।
(ढ) जोखिम आधारित पर्यवेक्षण की ओर पहल
115. जैसा कि अप्रैल 2000 के नीतिगत वक्तव्य में कहा गया था, इस अवधारणा की स्वीकृति बढ़ती जा रही है कि पारंपरिक कारोबार आधारित पर्यवेक्षण दृष्टिकोण के मुकाबले जोखिम आधारित पर्यवेक्षण दृष्टिकोण (आरबीएस) ज्यादा कुशल होगा । तदनुसार, जोखिम आधारित पर्यवेक्षण दृष्टिकोण के उचित पुनर्विन्यास के सबंध में परामर्श देने के लिए नियुक्त एक अंतर्राष्ट्रीय परामर्शदाता की सिफारिशों के अनुसरण में परियोजना के कार्यान्वयन और प्रबंधन संबंधी गुत्थियों को सुलझाने के लिए रिज़र्व बैंक में एक समर्पित ग्रुप का गठन किया गया है । जोखिम आधारित पर्यवेक्षण की अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए बैंकों को अपने जोखिम प्रबंधन, प्रबंधन-सूचना और पर्यवेक्षण सूचना प्रणालियों की सुदृढ़ता और विश्वसनीयता में सुधार के लिए तत्काल उपाय करने पड़ेंगे ।
(ण) ऋण सूचना ब्यूरो
116. ऋण सूचना ब्यूरो (सीआइबी) की स्थापना के लिए भारतीय स्टेट बैंक का एचडीएफसी लि. और अन्य विदेशी प्रौद्योगिकीय भागीदारों के साथ हुए एक समझौता-ज्ञापन के संबंध में अप्रैल 2000 के नीतिगत वक्तव्य में उल्लेख किया गया था । उक्त ब्यूरो बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को ऋण सबंधी सूचना के आपसी आदान-प्रदान के लिए एक सांस्थानिक तंत्र उपलब्ध करायेगा । 25 करोड़ रुपये की प्रदत्त पूंजी से ऋण सूचना ब्यूरो की स्थापना हो चुकी है । यह ऋण संस्थाओं के उधारकर्ताओं के संबंध में ऋण संबंधी सूचना प्राप्त कर उन्हें संग्रहीत, संसाधित करेगा और आपस में आदान-प्रदान करेगा । विद्यमान विधायी ढांचे के अंतर्गत ऋण सूचना ब्यूरो की सफलता बैंकों के इस प्रयास पर निर्भर करेगी कि वे ऋण सूचना ब्यूरो को सूचना के प्रकटीकरण और उपलब्ध कराने के लिए अपने उधारकर्ताओं को कहां तक सहमत करा पाते हैं । विद्यमान ढांचे में जहां ऋण सूचना ब्यूरो काम कर सकता है, वहीं ब्यूरो की कार्य-प्रणाली को और कारगर बनाने के लिए वैधानिक प्रणाली को और सुदृढ़ करने हेतु ब्यूरो के दायित्वों, सदस्य ऋण संस्थाओं के अधिकारों और कर्तव्यों तथा गोपनीयता के अधिकारों की रक्षा को शामिल करते हुए एक व्यापक विधान का प्रारूप (ड्राफ्ट मास्टर लेजिस्लेशन) भारत सरकार को भेजा गया है ।
(त) अविलम्ब सुधारात्मक कार्रवाई
117. जैसा कि अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, अविलम्ब सुधारात्मक कार्रवाई (पीसीए) का एक ढांचा तैयार किया गया था जिसमें पर्यवेक्षकों द्वारा तुरंत प्रतिक्रिया के लिए विभिन्न कार्रवाई बिंदु थे । प्रारूप योजना को आरबीआइ वेबसाइट पर रखा गया था और चयनित बैंकों को भेजा गया था । उनसे प्राप्त सुझावों के आधार पर योजना में संशोधन किया गया है । उक्त योजना को सरकार और बैंकों के परामर्श से अंतिम रूप दिया जायेगा ।
(थ) समष्टिगत विवेकपूर्ण निर्देशक
118. अक्तूबर 2000 की मध्यावधि समीक्षा में यह कहा गया था कि आंतरिक परिचालन के लिए समष्टिगत विवेकपूर्ण निर्देशकों (एमपीआइ) का उपयोग करते हुए छमाही वित्तीय स्थिरता-समीक्षा तैयार की जायेगी । इस संबंध में एक अंतर्विभागीय ग्रुप का गठन किया गया और मार्च 2000 में समाप्त छमाही के लिए समष्टिगत विवेकपूर्ण निर्देशकों (एमपीआइ) की एक प्रारंभिक समीक्षा को अंतिम रूप दिया गया और सितंबर 2000 के लिए एक समीक्षा तैयार की गयी है । यह संभावना है कि ये प्रारंभिक समीक्षाएं एमपीआइ का ज्यादातर संकलन हो, यह आशा की जाती है कि आगे चलकर ये समीक्षाएं वित्तीय प्रणाली में संभावित कमजोरियों को उजागर करनेवाली एक पूर्व चेतावनी प्रणाली की नींव के रूप में काम करेंगी । भारतीय संदर्भ में उपयुक्त मॉडेल तैयार करने के अंतिम उद्देश्य हेतु इनसे समष्टिगत आर्थिक निदेशकों और अलग-अलग संस्थाओं के तुलन-पत्रों के बीच संबंधों का भी पता चलेगा । इन आवधिक समीक्षाओं से और अधिक जांच-पड़ताल तथा आंतरिक शोध की अपेक्षावाले मुद्दों का भी पता चलेगा और इस क्षेत्र में आनेवाले साहित्य के सतत विश्लेषण से डेटा संग्रहनण/संकलन प्रक्रिया में सुधार संबंधी सुझाव भी मिलते रहेंगे ।
शहरी सहकारी बैंक
(i) विवेकपूर्ण मानदंड
119. यह मानना ही पड़ेगा कि शहरी सहकारी बैंकों (यूसीबी) के लिए निर्धारित विद्यमान विवेकपूर्ण मानदंडों और विनियामक प्रणाली वाणिज्य बैंकों के लिए निर्धारित वैसे ही मानदंडों और प्रणाली की तुलना में अपेक्षाकृत नरम हैं । ऐसा अंशत: ऐतिहासिक कारणों से है और अंशत: सामान्यत: उनके छोटे आकार और सहकारी ढांचे के अधिमान्य व्यवहार के कारण है । फिलहाल, शहरी सहकारी बैंकों के विनियामक और प्रवर्तन संबंध पहलुओं में तीन प्राधिकरण शामिल हैं - केंद्र सरकार (बहु राज्य व्यापी बैंकों के मामले में), राज्य सरकार और भारतीय रिज़र्व बैंक । कभी-कभी इसके कारण कार्यक्षेत्र में अतिव्यापन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है और प्रशासनिक/विवेकपूर्ण उपायों को अपेक्षित तेजी से और कठोरतापूर्वक अमल में लाने में कठिनाई होती है । हाल के अनुभव से यह सामने आया है कि देश में कुछ-एक सहकारी बैंकों के गैर जिम्मेदाराना और अनैतिक व्यवहार का संक्रामक असर उस खास क्षेत्र या राज्य से बाहर तक हो सकता है और अपेक्षाकृत छोटे सहकारी बैंकों सहित जमाकर्ताओं को भारी नुकसान पहुंचा सकता है । कानूनी और सांस्थानिक सुधारों की प्रतीक्षा किये बिना यह सुनिश्चित करना जरूरी है कि ऐसे गंभीर प्रतिकूल परिणामोंवाली आकस्मिकताओं से निपटने के लिए तत्कालीन अंतरिम उपाय किये जाएं । निम्नलिखित उपाय प्रस्तावित हैं :
- आज भी सहकारी बैंकों को शेयर बाजार में सीधे निवेश करने या शेयर दलालों को ऋण देने की अनुमति नहीं है । लेकिन वे अलग-अलग उधारकर्ताओं को मूर्त रूप से शेयर गिरवी रखकर प्रति उधारकर्ता 10 लाख रुपये तक उधार दे सकते हैं और अगर शेयर अमूर्त रूप (डीमैट फार्म) में हैं तो प्रति उधारकर्ता 20 लाख रुपये तक उधार दे सकते हैं । उपलब्ध सूचना से पता चलता है कि कुछ-एक शहरी सहकारी बैंकों ने विद्यमान मार्गदर्शी निर्देशों की अवहेलना करते हुए शेयर बाजार में कारोबार के लिए कुछ शेयर दलालों से मिली-भगत कर ली । भविष्य में किसी भी संभावित दुरुपयोग की रोक-थाम के लिए यह जरूरी है कि शहरी सहकारी बैंकों द्वारा शेयरों की जमानत पर व्यक्तियों अथवा कंपनियों को प्रत्यक्षत: अथवा परोक्षत: ऋण देने पर रोक लगा दी जाए । तत्काल प्रभाव से, शहरी सहकारी बैंकों को यह सूचित किया जा रहा है कि वे किसी व्यक्ति अथवा अन्य कंपनियों को शेयर की जमानत पर प्रत्यक्षत: अथवा अप्रत्यक्षत: ऋण देने के नये प्रस्ताव स्वीकार नहीं करें । उन्हें यह भी सूचित किया जा रहा है कि शेयर दलालों को दिये गये विद्यमान ऋण या शेयरों में प्रत्यक्ष निवेश जल्द से जल्द वापस ले लिये जाएं क्योंकि इसकी उन्हें अनुमति नहीं थी । लेकिन, शेयर की जमानत पर व्यक्तियों को पहले ही दिये गये अनुमत राशि तक के ऋण संविदा की निर्दिष्ट तारीख तक जारी रखे जा सकते हैं । सहकारी बैंकों के प्रबंध-तंत्र उपर्युक्त उपायों और नये मार्गदर्शी निर्देशों के कार्यान्वयन के लिए बैंकों द्वारा किये गये उपायों की संबंधित सदस्यों को तत्काल सूचना दें ।
- कुछ शहरी सहकारी बैंकों की मांग मुद्रा बाजार पर अति निर्भरता को कम करने के लिए यह प्रावधान किया जा रहा है कि मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में दैनिक आधार पर उनका उधार पिछले वर्ष के मार्च के अंत में कुल जमाराशियों के 2.0 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए । मांग/नोटिस मुद्रा बाजार में उधार देने की उनकी वर्तमान स्वतंत्रता कायम रहेगी ।
- शहरी सहकारी बैंकों द्वारा दूसरे शहरी सहकारी बैंकों के पास निधियां रखने में प्रणालीगत जोखिम पैदा हो सकती है, इसलिए सावधानी के तौर पर शहरी सहकारी बैंकों को यह सूचित किया जा रहा है कि वे अन्य शहरी सहकारी बैंकों के पास रखी अपनी सावधि जमाराशियों में और बढ़ोतरी न करें । शहरी सहकारी बैंकों को अन्य शहरी सहकारी बैंकों के पास रखी सावधि जमाराशियों में जहां वृद्धि करने की अनुमति नहीं होगी, वहीं 19 अप्रैल 2001 की स्थिति के अनुसार अन्य शहरी सहकारी बैंकाें के पास बकाया जमाराशियां जून 2002 के अंत तक वापस ले लेनी चाहिए । शहरी सहकारी बैंक अपने दैनिक समाशोधन और विप्रेषण अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए अपने विवेकानुसार अन्य शहरी सहकारी बैंकों के पास चालू खाते में राशि रख सकते हैं ।
- शहरी सहकारी बैंकों को यह अनुमति है कि वे सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में निवेश के रूप में अथवा जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों/राज्य सहकारी बैंकों के पास जमाराशियों के रूप में अपना सांविधिक चलनिधि अनुपात (निवल मांग और मीयादी देयताओं का 25.0 प्रतिशत) रख सकते हैं । विद्यमान मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुसार, अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों से यह अपेक्षित है कि वे अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं का कम-से-कम 15.0 प्रतिशत सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में निवेश के रूप में बनाये रखें 25 करोड़ रुपये और उससे अधिक जमाराशियोंवाले गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों से यह अपेक्षा है कि वे अपनी निवल मांग और मीयादी देयताओं का कम-से-कम 10.0 प्रतिशत सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में निवेश के रूप में बनाये रखें; 25 करोड़ रुपये से कम जमाराशियोंवाले गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के मामले में सरकारी और अनुमोदित प्रतिभूतियों में निवेश के रूप में सांविधिक चलनिधि अनुपात रखने की शर्त नहीं है । अब यह प्रस्ताव है कि सरकारी और अनुमोदित प्रतिभूतियों में निवल मांग और मीयादी देयताओं के प्रतिशत के रूप में सांविधिक चलनिधि अनुपात में निम्नानुसार वृद्धि की जाए, जिसे मार्च 2002 के अंत तक हासिल कर लिया जाए :
शहरी सहकारी बैंकों की श्रेणी |
निवल मांग और मीयादी देयताओं के प्रतिशत के रूप में सरकारी और अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियों में सांविधिक चलनिधि अनुपात |
|
गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक |
विद्यमान
|
प्रस्तावित |
(i)25 करोड़ रुपये और उससे |
10.0 प्रतिशत |
15.0 प्रतिशत |
(ii) 25 करोड़ रुपये से कम जमा- राशियों वाले शहरी सहकारी बैंक |
शून्य |
10.0 प्रतिशत |
अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक |
15.0 प्रतिशत |
20.0 प्रतिशत |
- 1 अप्रैल 2003 से अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों को अपनी निवल मांग और मीयादी देयाताओं का 25.0 प्रतिशत समस्त सांविधिक चलनिधि अनुपात आस्तियां केवल सरकारी और अनुमोदित प्रतिभूतियों में रखनी होंगी । यथासमय आरक्षित नकदी अनुपात अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के समकक्ष निर्धारित किया जायेगा ।
- 25 करोड़ रुपये और उससे अधिक जमाराशियोंवाले सभी अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक और गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों को इसके बाद रिज़र्व बैंक के पास एसजीएल खाते में अथवा प्राथमिक व्यापारियों और सरकारी क्षेत्र के बैंकों के घटक एसजीएल खाते में सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश बनाये रखने होंगे । 25 करोड़ रुपये से कम जमाराशियोंवाले गैर-अनुसूचित शहरी सरकारी बैंकों को मूर्त अथवा स्क्रिप रूप में सरकारी प्रतिभूतियां रखने की सुविधा उपलब्ध होगी ।
- शहरी सहकारी बैंकों को, अपने कारोबार में, इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वाणिज्य बैंक अनुसूचित सहकारी बैंकों द्वारा जारी भुगतान-आदेशों को भुनाने के लिए, उनकी निवल जमाराशियों/निवल मूल्य, आदि के आकार को ध्यान में रखते हुए, उचित अंतर-बैंक मुद्रा सीमा निर्धारित कर सकते हैं ।
120. यह नोट किया जाये कि शहरी सहकारी बैंकों पर किसी भी वित्तीय प्रभाव को कम करने के लिए सभी उपाय स्वाभावत: ‘संभावनापूर्ण’ हैं अथवा शहरी सहकारी बैंकों को अपने सदस्यों के हित में उन्हें कार्यान्वित करने के लिए काफी समय दिया गया है । उपुर्यक्त उपायों से शहरी सहकारी बैंकों की जमाराशियों और सदस्यों को और अधिक सुरक्षा प्राप्त होगी और शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र के ठोस विकास में योगदान मिलेगा ।
- शहरी सहकारी बैंकों के लिए नई पर्यवेक्षी संरचना
121. जैसा कि पहले कहा गया है शहरी सहकारी बैंकाें के विनियमन, पर्यवेक्षण और/अथवा प्रशासन में वर्तमान में तीन प्राधिकारी (केन्द्र, राज्य सरकारें तथा भारतीय रिजॅर्व बैंक) शामिल हैं । लगभग 2,084 शहरी सहकारी बैंक हैं जिनमें से 51 अनुसूचित शहरी सहकारी बैंक हैं और बाकी गैर-अनुसूचित हैं । इनकी बडी संख्या तथा बिखरे हुए और स्थानीय स्वरूप के कारण उनका पर्यवेक्षण और निरीक्षण विशेष समस्याएं उत्पन्न करता है । वर्तमान में, जब कि शहरी सहकारी बैंकों की लेखा परीक्षा राज्य सरकारों द्वारा की जानी अपेक्षित है, बड़ी संख्या में शहरी सहकारी बैंकों की लेखा-परीक्षा पूरी करने में पर्याप्त विलंब होता है । सामान्यत:, भारतीय रिज़ॅर्व बैंक अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के संबंध में दो वर्ष में एक बार, गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के संबंध में दो से तीन वर्ष में एक बार सांविधिक निरीक्षण करता है, लेकिन अभिज्ञात कमज़ोर बैंकों का निरीक्षण वार्षिक आधार पर किया जाता है ।
122. शहरी सहकारी बैकों के पर्यवेक्षण और विनियमन में शामिल प्राधिकारियों के वर्तमान बाहुल्य के संभाव्य परिणामों और पायी गयी अन्य समस्याओं पर चिंता व्यक्त करते हुए भारतीय रिज़ॅर्व बैंक ने श्री के. माधव राव की अध्यक्षता में मई 1999 में एक उच्च स्तरीय समिति गठित की थी। इस समिति में सहकारी बैंंकिग क्षेत्र के और भारतीय रिजॅर्व बैंक के प्रतिनिधि के साथ-साथ अन्य विशेषज्ञ भी सदस्य के रूप में शामिल थे । इस समिति ने अपनी रिपोर्ट नवंबर 1999 में प्रस्तुत की और उसे केन्द्र तथा राज्य सरकारों को विचारार्थ भेजा था। समिति ने सहकारी बैंकों के कार्यों में सुधार लाने के लिए व्यापक सिफारिशें की हैं । इन सिफारिशों में, अन्य बातों के साथ-साथ्।, प्रारंभिक मानदंडों में पर्याप्त सुधार करना, व्यावसायिक प्रबंध लागू करना, द्वि-पर्यवेक्षी नियंत्रण हटाना और कड़े विवेकपूर्ण तथा अन्य मानदंड लागू करना शामिल है । भारतीय रिजॅर्व बैंक ने समिति की कई सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है, परंतु राज्य सरकारों के स्तर पर अपेक्षित विधायी कार्रवाई वाली सिफारिशों को अब तक कार्यान्वित किया जाना है । भारतीय रिजॅर्व बैंक, समिति की सिफारिशों को यथाशीघ्र कार्यान्वित किये जाने के लिए राज्य सरकारों से संपर्क कर रहा है ।
- हाल ही के अनुभव के आलोक में कई विकल्पों में से एक विकल्प, जिसे गंभीरता से स्वीकार किया जाना चाहिए, नई शीर्ष पर्यवेक्षी संस्था की स्थापना जो अनुसूचित और गैर-अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के संबंध में संपूर्ण निरीक्षण/पर्यवेक्षी कार्य करेगी । यह शीर्ष संस्था केन्द्र सरकार, राज्य सरकारों, भारतीय रिजॅर्व बैंक तथा विशेषज्ञों वाले एक अलग उच्च-स्तरीय पर्यवेक्षी बोड़ के नियंत्रण के अधीन हो सकती है । इसे शहरी सहकारी बैंकों के निरीक्षण/और पर्यवेक्षण के साथ-साथ भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा निर्धारित विवेक पूर्ण, पूंजी पर्याप्तता और जोखिम प्रबंध संबंधी मानदंडों की अनुपालना को सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी भी दी जा सकती है ।
- भारतीय रिजॅर्व बैंक ने उक्त सुझाव पर केन्द्र सरकार का परामर्श लेने का प्रस्ताव किया है और यदि इसे सिद्धांत:स्वीकार्य पाया जाता है तो प्रस्ताव को राज्य सरकारों तथा अन्य संबंधितों के परामर्श से आगे बढ़ाया जा सकता है । भारतीय रिजॅर्व बैंक नई शीर्ष पर्यवेक्षी संस्था को यथावश्यक श्रम-शक्ति और अन्य सहायता उपलब्ध कराने के लिए तैयार है ।
भारतीय रिजॅर्व बैंक के स्वामित्व कार्य
- वर्तमान में, भारतीय रिजॅर्व बैंक के शेयर भारतीय स्टेट बैंक, राष्ट्रीय आवास बैंक, इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फाइनांस कंपनी, निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम, राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक, भारतीय रिजॅर्व बैंक नोट मुद्रण लिमिटेड, भारतीय मितीकाटा और वित्त गृह लि. और भारतीय प्रतिभूति व्यापार निगम में हैं ।
- यह स्मरणीय है कि नरसिंहम् समिति II का यह विचार था कि भारतीय रिजॅर्व बैंक के लिए उसके अपने नियंत्रणवाली संस्थाओं का स्वामित्व रखना उपयुक्त नहीं है । डेवलपमेंट फाइनांस इन्सटिट्यूशन और बैंकों की भूमिका और परिचालन में सामंजस्य पर भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा तैयार किये गये चर्चा पत्र (जनवरी 1999) में यह सुझाव दिया गया था कि अपने विनियामक और पर्यवेक्षी कार्यों पर पूरा ध्यान केन्द्रित करने की द्दृष्टि से आदर्श बात यह होगी कि भारतीय रिजॅर्व बैंक वित्तपोषण संस्थाओं का स्वामित्व सरकार को अंतरित कर दे । यह भी कहा गया था कि भारतीय रिजॅर्व बैंक, वाणिज्य बैंकिंग तथा पुनर्वित्त अथवा विकास वित्त संस्थाओं दोनों पर से अपने स्वामित्व के कार्यों को जारी रखना बंद कर दे ।
- भारतीय रिजॅर्व बैंक ने भारतीय स्टेट बैंक, राष्ट्रीय आवास बैंक और नाबाड़ में अपने शेयरों का स्वामित्व केन्द्र सरकार को अंतरित करने की सिफारिश स्वीकार की है और इस संबंध में वह सरकार के संपर्क में है । इस मामले की और आगे विस्तृत जांच सरकार और भारतीय रिजॅर्व बैंक को करनी है और चूंवि नीतिगत निर्णय तथा विधायी कार्रवाई इसमें शामिल है, अत: सरकार को इस बारे में अपना विचार बनाना है ।
- भारतीय रिजॅर्व बैंक, भविष्य में उपयुक्त समय पर इन्फ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट फाइनांस कंपनी के संबंध में प्रक्रिया शुरू करने की योजना भी बना रहा है । बी आर बी एन एम एल के संबंध में इस स्तर पर भारतीय रिजॅर्व बैंक की शेयरधारिता के अधिकार को वंचित रखने का कोई अभिप्राय नहीं है क्योंकि भारतीय रिजॅर्व बैंक एक आबद्ध ग्राहक है और उसका कोई विनियामक निहितार्थ नहीं है । निक्षेप बीमा और प्रत्यय गारंटी निगम के संबंध में भारतीय रिजॅर्व बैंक द्वारा वित्तीय क्षेत्र के उदारीकरण के साथ उसे अनुकूल बनाने के लिए नया नियम तैयार करने हेतु सरकार को पहले ही प्रस्ताव प्रस्तुत किया गया है ।
- उक्त दृष्टिकोण के अनुरूप भारतीय रिजॅर्व बैंक ने भारतीय मितीकाटा और वित्त गृह लि. तथा एस टी सी आइ में अपनी अधिकतर शेयरधारिता पहले ही छोड़ दी है । संप्रति, भारतीय रिजॅर्व बैंक भारतीय मितीकाटा और वित्त गृह लि. में शेयरों का केवल 10.50 प्रतिशत और एसटीसीआइ में शेयरों की 14.40 प्रतिशत शेयरधारिता ही रखता है । यह निर्णय किया गया है कि चालू वर्ष में इस शेयरधारिता को पूर्णत: छोड़ दिया जाए ।
- जनवरी 2001 में गुजरात राज्य में आये भूकंप के कारण संपत्तियों को व्यापक रूप से क्षति पहुंची और बड़े पैमाने पर जन हानि हुई । इस विध्वंसक प्रभाव को ध्यान में रखते हुए भारतीय रिजॅर्व बैंक ने राज्य के लिए राहत उपायों के एक पैकेज की घोषणा की है । इन उपायों में निम्नलिखित शामिल हैं :
ऋण वितरण व्यवस्था
गुजरात के लिए राहत उपाय
- भूकंप से प्रभावित उधारकर्ताओं के संबंध में ऋण वर्गीकरण स्थिति पर अर्थ-दंड प्रावधानों को लगाये बिना 10.0 प्रतिशत की रियायती ब्याज दर की 31 मार्च, 2003 तक यथास्थिति पर स्थिर रखा गया है ।
- वर्तमान ऋण वर्गीकरण स्थिति के होते हुए भी प्रभावित लघु व्यापारी, लघु व्यवसायी, स्वरोजगार और लघु सड़क परिवहन परिचालकों, आदि को अपने व्यवसायों को फिर से चालू करने/पुन:स्थापित करने के उद्देश्य से न्यूनतम उधार दर से अनधिक ब्याज दर पर 1 लाख रुपये तक नया ऋण स्वीकृत किया जाएगा ।
- बैंकों को यह सूचित किया गया है कि वे भूकंप से क्षतिग्रस्त हुए मकानों/दुकानों की मरम्मत/पुन:निर्माण के लिए न्यूनतम उधार दर से अनधिक ब्याज दर पर 2 लाख रुपये तक ऋण मंजूर करें ।
- प्रभावित लघु उद्योग, व्यवसाय, व्यापार और उद्योग के लिए आवश्यकता आधारित दृष्टिकोण के अधीन न्यूनतम उधार दर पर 10 लाख रुपये तक और बैंक के विवेकाधिकार पर 10 लाख रुपये से अधिक अतिरिक्त सीमा/वर्तमान सीमा की पुनर्व्यवस्था का प्रावधान ।
- मकानों और दुकानों की मरम्मत/पुन:निर्माण तथा लघु व्यापारियों, लघु व्यवसायियों, स्वरोजगारों और लघु सड़क परिवहन परिचालकों, आदि के लिए ऋण की गणना प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र के उधारों के रूप में की जाएगी ।
- प्रभावित हिताधिकारियों के लिए प्रक्रिया शुल्क की छूट ।
- बैंक कृषि ऋणाें के संबंध में प्रभावित किसानों से 7 वर्ष तक की पुनर्व्यवस्था के लिए प्रावधान-सहित दो वर्ष के लिए मूलधन अथवा ब्याज की वसूली नहीं करेगा ।
- प्रभावित उधारकर्ताओं के ऋणों पर ब्याज दर के उद्देश्यों के लिए भारतीय स्टेट बैंक की न्यूनतम उधार दर सभी बैंकों द्वारा एकसमान रूप से लागू की जाएगी ।
- राष्ट्रीय आवास बैंक के अनुरोध पर भारतीय रिजॅर्व बैंक ने 18 वर्ष की अवधि में प्रतिदेय 6.0 प्रतिशत ब्याज दर पर 1000 करोड़ रुपये का दीर्घावधि ऋण मंजूर किया है ताकि वह भूकंप प्रभावित लोगों से मकानों के पुनर्निर्माण, आदि के लिए ऋण उपलब्ध कराने हेतु आवास वित्त कंपनियों, बैंकों, आदि को पुनर्वित्त सहायता उपलब्ध कर सके ।
- प्रभावित निर्यातकर्ताओं के लिए राहत/रियायत में पैकिंग ऋण की अवधि बढ़ाना, उपयुक्त किस्तों में प्रतिदेय अल्पावधि ऋणों में देय राशि का परिवर्तन और अनर्जक परिसम्पत्ति वर्गीकरण मानदंडों में छूट शामिल हैं ।
गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां
- हाल ही के वर्षों में रिजॅर्व बैंक ने गैर-बैंकिग वित्तीय कंपनियों के कार्यों में सुधार की प्रक्रिया में गति लाने के लिए कई पहल और उपाय किये हैं । वर्तमान विनियमावली (संशोधित भारतीय रिजॅर्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 45 आइए) के अनुसार गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को भारतीय रिजॅर्व बैंक से पंजीकरण प्रमाण-पत्र के बिना अधिनियम में परिभाषित किये अनुसार वित्तीय कारोबार शुरू करने/जारी रखने की अनुमति नहीं दी जाती है । गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से बैंक को पंजीकरण प्रमाणपत्र के लिए 36,870 आवेदनपत्र प्राप्त हुए थे जिनमें से फरवरी, 2001 के अंत तक 12,690 आवेदनपत्रों का अनुमोदन किया गया था और 17,736 आवेदनपत्रों को अस्वीकृत कर दिया गया था । कुल 12,690 अनुमोदित आवेदनपत्रों में से सिर्फ 734 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को जनता से जमाराशियां स्वीकार करने की अनुमति प्रदान की गयी है । यहां यह उल्लेखनीय है कि इनमें से सिर्फ 25 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के पास 50 करोड़ रुपए से अधिक जनता की जमाराशियां थीं । इस बात का पुन: उल्लेख किया जा सकता है कि जो गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भारतीय रिज़र्व बैंक में पंजीकृत नहीं हैं, और जिन संस्थाओं को जनता से जमाराशियां स्वीकार करने की अनुमति नहीं दी गयी है वे जनता से जमाराशियां स्वीकार न करें । इसके अतिरिक्त, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों को यह सूचित किया गया है कि वे जमाराशियां स्वीकार करने संबंधी अपनी शर्तों के अनुसार जनता की जमाराशियां उन्हें वापस कर दें तथा भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम के प्रावधानों और समय-समय पर जारी किए गए अन्य दिशा-निर्देशों का पालन करते रहें ।
132. गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से संबंधित नियामक/पर्यवेक्षी ढांचे को और अधिक मज़बूत बनाने के विचार से निम्नलिखित उपाय प्रस्तावित हैं :
(क) गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों
के लिए पृथक अधिनियम
133. इस उद्देश्य के लिए कि गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां देश के आर्थिक विकास में कारगर ढंग से अपनी भूमिका निभायें, सरकार ने गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के जमाकर्ताओं को और अधिक सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक पृथक कानून का प्रस्ताव किया है । यह कानूनी विधेयक सरकार के विचाराधीन है ।
(ख) गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए परिसंपत्ति
देयता प्रबंधन के लिए दिशा-निर्देशों का प्रारूप
134. रिज़र्व बैंक ने गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए परिसंपत्ति-देयता प्रबंधन के लिए दिशा-निर्देशों के प्रारूप के बारे में गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और अन्य संबंधित संस्थाओं के साथ अपना परामर्श कर लिया है । अंतिम दिशा-निर्देश जल्दी ही जारी किए जाएंगे ।
प्रौद्योगिकी उन्नयन
135. वित्तीय क्षेत्र सुधार के प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्रों में भुगतान प्रणाली में सुधार भी एक क्षेत्र है । इस दिशा में, निम्नलिखित और भी उपाय किए जा रहे हैं :
(क) भुगतान प्रणाली विज़न दस्तावेज
136. अक्तूबर, 2000 की मध्यावधि समीक्षा में "भुगतान प्रणाली विज़न दस्तावेज" के निर्माण का उल्लेख किया गया है जिसमें सुव्यवस्थित महत्वपूर्ण भुगतान प्रणाली लागू किये जाने पर बल दिया गया है जिसका प्रभाव अधिक मूल्य की अंतर-बैंक निधियों के अंतरण पर पडेॅगा । इस विज़न दस्तावेज का प्रारूप तैयार करने के बाद उसे व्यापक तौर पर परिचालित किया गया । भारतीय रिज़र्व बैंक को बैंकों से प्रतिसूचना और राष्ट्रीय भुगतान परिषद जैसे अग्रणी निकायों के सदस्यों के अभिमत प्राप्त हो चुके हैं । रिज़र्व बैंक इन अभिमतों/ प्रतिसूचनाओं की जांच कर रहा है और इस विज़न दस्तावेज का अंतिम पाठ जल्दी प्रकाशित होगा । विज़न दस्तावेज में भुगतान प्रणाली परियोजना में महत्वपूर्ण गतिविधियों का पूरा खाका दिया जाएगा । इसे बैंकों को उत्तम भुगतान और निपटान सेवाओं के लिए निर्धारित नए उत्पादों में कारगर हिस्सेदारी के लिए पूर्णत: तैयार होने में मदद मिलेगी ।
(ख) चेकों में कमी करने के लिए पूर्वोपाय के रूप में ‘इमेजिंग’
137. अक्तूबर, 2000 की मध्यावधि समीक्षा में, चेकों में कमी लाने के लिए पूर्वोपाय के रूप में ‘इमेजिंग’ को लागू करने से संबंधित गतिविधि के चरणों को एक भाग के रूप में दर्शाया गया है । वित्त मंत्रालय, भारत सरकार द्वारा गठित कार्यदल परक्राम्य लिखत अधिनियम के अंतर्गत चेकों में कमी की वैधानिक अपेक्षाओं की जांच कर रहा है ।
(ग) इंटरनेट बैंकिंग
138. जैसा कि अक्तूबर, 2000 की मध्यावधि समीक्षा में उल्लिखित है, इंटरनेट बैंकिंग पर कार्यदल ने अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है जिसे कार्यान्वयन के लिए स्वीकार कर लिया गया है । इस प्रक्रिया के एक हिस्से के रूप में, विभिन्न बैंकों में प्रौद्योगिकी के प्रयोग के स्तरों पर आधारित अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है जिसमें अत्यधिक सुरक्षित वातावरण में इंटरनेट आधारित लेनदेनों का संचालन और समुचित जोखिम नियंत्रण उपाय तथा जोखिम प्रबंध तकनीक शामिल हैं ।
(घ) भारतीय वित्तीय नेटवर्क
139. सूचना प्रवाह और निधि संबंधी गतिविधियों के लिए भारतीय वित्तीय नेटवर्क (इनफिनेट) के अत्यधिक उपयोग के अलावा, कुशल निधि प्रबंध को सुसाध्य बनाने के लिए बुनियादी संरचना में सुधार करने के प्रयोजन से और भी कई कदम उठाये गये हैं । तदनुसार, यह निर्णय लिया गया है कि संरचनात्मक वित्तीय संदेश आधार प्रणाली का गठन किया जाए जिसके लिए "स्विफट" जैसे संदेश फार्मेट को अंतिम रूप देकर बैंकों के बीच परिचालित किया गया है ताकि सरकारी लेनदेनों तथा कर्ज़ से संबंधित लेनदेनों सहित आंतरिक और अंतर-बैंक कार्यकलापों के विभिन्न प्रकारों को भी शामिल किया जा सके ।
140. प्रतिभूति निपटान प्रणाली, वार्ता तय लेनदेन प्रणाली, केंद्रीकृत निधि प्रबंधन प्रणाली और तत्काल सकल भुगतान प्रणाली जैसी अन्य प्रौद्योगिकी से संबंधित संरचना का काम जल्दी ही पूरा करने का प्रबंध किया गया है । अत: बैंकों को चाहिए कि वे शाखाओं के बीच अंतर-शहरी सहबद्धता तथा नेटवर्किंग को सुनिश्चित करते हुए उपयुक्त कार्रवाई करें और बड़े शहरों में गेटवेज्ॉ स्थापित करें । राष्ट्रीय भुगतान परिषद् ने नेटवर्क से जोड़े जाने के लिए वैसे 21 केंद्रों की पहचान कर ली है जहाँ भारतीय रिज़र्व बैंक के कार्यालय स्थित हैं । परंतु, इन 21 केंद्रों में शहरों तथा बैंकों के अंदर नेटवर्किंग का काम अलग-अलग बैंकों को खुद ही करना होगा ।
विधिक सुधार
141. अभी हाल के महीनों में बैंकिंग क्षेत्र में जो प्रमुख सुधार किए गए हैं उनमें प्रतिभूति कानूनों, परक्राम्य लिखत अधिनियम, बैंकों में धोखाधड़ी तथा बैंकिंग के नियामक ढांचे को भी शामिल किया गया है । भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 और बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949 में व्यापक संशोधनों के लिए भारत सरकार को अपनी सिफारिशें भेजी हैं जो सरकार के विचाराधीन हैं । भारत सरकार ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 के प्रावधानों में परिवर्तन का सुझाव देने के लिए एक कार्य दल का गठन किया है ताकि उसे सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 के समरूप बनाया जा सके और परक्राम्य लिखत अधिनियम की सीमा के अंतर्गत इलेक्ट्रानिक चेक, प्रतिभूतिकृत प्रमाणपत्र तथा तैयार किये जा रहे अन्य उत्पादों के निगमन की भी जांच की जा सके । इसके अतिरिक्त धोखाधड़ी के बढ़ते हुए स्तर तथा जटिलता के कारण कानूनी प्रक्रिया अपनाते हुए वित्तीय नुकसान को पूरा करने में बैंकों को हो रही कठिनाइयों को देखते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों में धोखाधड़ी के कानूनी मुद्दों पर एक समिति का गठन किया है जो वित्तीय धोखाधड़ी को परिभाषित करे, प्रक्रियागत कानून निर्धारित करे और बैंक धोखाधड़ी के अन्वेषण की प्रक्रिया तथा संलग्न व्यक्तियों के अभियोजन की जांच करे ।
142. भारत सरकार ने कानूनी ढांचे में अपेक्षित परिवर्तनों के संबंध में नरसिंहम समिति II द्वारा दिए गए सुझावों को लागू करने के लिए विशिष्ट प्रस्ताव तैयार करने के प्रयोजनार्थ श्री टी.आर.अंध्यार्जुन की अध्यक्षता में एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया है । इस समिति ने फरवरी 2000 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी । अनुवर्ती कार्रवाई के रूप में, भारत सरकार ने कार्यान्वयन के लिए विशेषज्ञ समिति की सिफारिशों की जांच करने के लिए परिसंपत्ति प्रतिभूतिकरण पर जुलाई 2000 में एक कार्यदल (अध्यक्ष : श्री एस.एच.भोजानी और भारतीय रिज़र्व बैंक से सदस्य के रूप में श्री एम.आर.उमरजी) का गठन किया । इस कार्यदल ने अधिनियमन के लिए परिसंपत्ति प्रतिभूतिकरण के लिए एक विधेयक का प्रारूप तैयार किया है और उसे सरकार को प्रस्तुत किया गया है ।
143. जुलाई 2000 में, सरकार ने एक अन्य कार्यदल (अध्यक्ष : श्री एम.आर.उमरजी) का गठन किया ताकि न्यायालयों के हस्तक्षेप के बिना प्रतिभूतियों को धारित करने तथा बिक्री करने के लिए बैंकों और वित्तीय संस्थाओं की शक्तियों की जांच की जा सके और भारत सरकार के विचारार्थ एक विधेयक का प्रारूप तैयार किया जा सके । आशा है, यह कार्यदल अपनी रिपोर्ट जल्दी ही प्रस्तुत कर देगा ।
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानक और कूट (कोड)
144. अक्तूबर, 2000 की मध्यावधि समीक्षा में इस बात का उल्लेख किया गया है कि अंतर्राष्ट्रीय मानकों और कूटों पर कतिपय परामर्शदात्री समूहों ने भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा सरकार के परामर्श से गठित एक स्थायी समिति को अपनी रिपोर्टें अंशत:/पूर्णत: प्रस्तुत कर दी हैं । गैर-सरकारी विशेषज्ञों से युक्त इन परामर्शदात्री समूहों ने अब विभिन्न विषयगत क्षेत्रों में अपने विचार व्यक्त करने में काफी प्रगति की है । फिलहाल, निम्नलिखित विषयों पर रिपोर्टें/रिपोर्टों के भाग स्थायी समिति को पहले ही प्राप्त हो चुके हैं : (i) मौद्रिक एवं वित्तीय नीतियों की पारदर्शिता (अंतिम), (ii) भुगतान और निपटान प्रणाली, (iii) बीमा विनियमन, (iv) बैंकिंग पर्यवेक्षण, (भाग I), (v) लेखांकन और लेखा परीक्षण, (vi) दिवालियापन संबंधी कानून (अंतरिम) और (vii) कंपनी अभिशासन । तीन विषयों, अर्थात् आंकड़ों का प्रसार, राजकोषीय पारदर्शिता और प्रतिभूति बाजार विनियमन पर शेष रिपोर्टें मई 2001 तक प्रत्याशित हैं । परामर्शदात्री समूहों की सभी रिपोर्टों को चर्चा और विचार-विमर्श के लिए आरबीआइ वेबसाइट (www.rbi.org.in)पर रख दिया गया है । स्थायी समिति की यह भी योजना है कि वह सिफारिशों पर ठोस दृष्टिकोण अपनाने तथा इस संबंध में चेतना जागृत करने के साथ-साथ निजी और सरकारी क्षेत्र दोनों ही के संगठनों, अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं और विशेषज्ञों के अभिमत/प्रतिसूचना प्राप्त करने के लिए सेमिनार/ कार्यशालाएं आयोजित करने में इन दलाें की सहायता करे । इस महत्वपूर्ण क्षेत्र में स्थायी समिति तथा गैर-सरकारी परामर्शदाता दलों के कार्य को अंतर्राष्ट्रीय तौर पर सराहना मिली है ।
विनियम समीक्षा प्राधिकारी
145. सामान्य जनता, बाजार-सहभागियों तथा भारतीय रिज़र्व बैंक की सेवाओं के अन्य उपयोगकर्ताओं से प्राप्त सुझावों के आधार पर रिज़र्व बैंक के नियमों, विनियमों तथा रिपोर्टिंग प्रणाली की समीक्षा करने के लिए 1 अप्रैल 1999 को गठित विनियम समीक्षा समिति ने अपनी अवधि समाप्त होने पर 31 मार्च 2001 से काम करना बंद कर दिया है । अपनी दो वर्ष की कार्य-अवधि के दौरान इसे बहुत से सुझाव प्राप्त हुए जिनमें से कई सुझावों को कार्यान्वित किया गया । इससे भा.रि.बैं. की रिपोर्टिंग-प्रणाली में से अनावश्यक बातों को हटाने के साथ-साथ कई प्रयोजनमूलक क्षेत्रों की विविध आंतरिक क्रियाविधियों और नियमों को सरल बनाने में सहायता मिली । साथ ही, वाणिज्य बैंकों की परिचालनात्मक कुशलता बढ़ाने में भी कुछ सहायता मिली जिससे ग्राहक सेवा को बेहतर बनाया जा सका । विनियम समीक्षा समिति की पहल का एक महत्वपूर्ण परिणाम यह रहा कि भा.रि.बैंक के अनुदेशों/मार्गदर्शी सिद्धांतों को शामिल करते हुए कई विनियामक क्षेत्रों के मास्टर सर्वुलर्स को एक ही साथ लाने की व्यवस्था की गई ।
146. यद्यपि विनियम समीक्षा समिति ने काम करना बंद कर दिया है, तथापि इस योजना के संबंध में अनुकूल प्रतिक्रिया को देखते हुए भारतीय रिज़र्व बैंक ने यह निर्णय लिया है कि ऐसी समीक्षा को वह अपनी आंतरिक प्रणाली का एक अभिन्न हिस्सा बनाये और तदनुसार, 1 अप्रैल 2001 से ऐसे आवेदनों पर विचार करने के लिए एक कार्यपालक निदेशक के प्रभार में एक वैकल्पिक प्रणाली शुरू की गई है । इससे भारतीय रिज़र्व बैंक को अपनी क्रियाविधियों को और सरल बनाने, कागजी-कार्रवाई को कम करने तथा ग्राहक सेवा में सुधार लाने के लिए निरंतर मदद मिलेगी ।
मध्यावधि समीक्षा
147. चालू वर्ष की पहली छमाही में ऋण और मौद्रिक गतिविधयों की समीक्षा अक्तूबर 2001 में की जायेगी । मध्यावधि समीक्षा मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा तक ही सीमित रहेगी और ऐसे ही परिवर्तन किये जाएंगे जो वर्ष की दूसरी छमाही के लिए अनुमानों और मौद्रिक नीति के लिए आवश्यक होंगे ।
मुंबई
19 अप्रैल, 2001
संलग्नक-1
निर्यात ऋण के संबंध में विद्यमान और संशोधित ब्याज दर ढांचा
श्रेणी |
विद्यमान |
संशोधित* |
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लदानपूर्व ऋण |
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(i) 180 दिन तक |
10.0 प्रतिशत |
‘मूल उधार दर से अनधिक’ से 1.5 प्रतिशत अंक कम |
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(ii)180 दिन से अधिक और 270 दिन तक | 13.0 प्रतिशत |
‘मूल उधार दर से अनधिक’ से 1.5 प्रतिशत अंक अधिक |
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लदानोत्तर ऋण |
|||
(क) पारगमन अवधि के लिए मांग बिलों पर (फिडाइ द्वारा विनिर्दिष्ट) |
10.0 प्रतिशत से अनधिक |
‘मूल उधार दर से अनधिक’ से 1.5 प्रतिशत अंक कम |
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(ख) मीयादी बिल |
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(i) 90 दिन तक |
10.0 प्रतिशत से अनधिक |
‘मूल उधार दर से अनधिक’ से 1.5 प्रतिशत अंक कम |
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(ii) 90 दिन से अधिक और |
12.0 प्रतिशत |
‘मूल उधार दर से अनधिक’ से 1.5 प्रतिशत अंक अधिक |
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*टिप्पणी : |
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संलग्नक-2
समाशोधन निगम
मुद्रा, सरकारी प्रतिभूतियों तथा विदेशी मुद्रा परिचालनों के समाशोधन के लिए प्रस्तावित समाशोधन निगम की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार हैं :
- समाशोधन निगम भारतीय कंपनी अधिनियम 1956 के अंतर्गत सीमित देयता वाली कंपनी के रूप में गठित किया जायेगा और इसे "दि क्लियरिंग कारपोरेशन ऑफ इंडिया लि." के नाम से जाना जायेगा ।
- इस कंपनी की प्राधिकृत पूंजी 50 करोड़ रुपये होगी ।
- समाशोधन निगम का स्वामित्व बाजार सहभागियों का होगा और इसका प्रवर्तन भारतीय स्टेट बैंक करेगा । इसके अन्य स्थायी प्रवर्तक बैंक ऑफ बड़ौदा, एचडीएफसी बैंक, आइसीआइसीआइ, आइडीबीआइ और एलआइसी होंगे ।
- इस प्रस्तावित समाशोधन निगम का प्रबंधन एक निदेशक बोड़ करेगा जिसकी अध्यक्षता एक गैर-कार्यपालक अध्यक्ष करेगा ।
- यह समाशोधन निगम एक ऐसी कुशल प्रतिभूति निपटान प्रणाली की आवश्यकता को पूरा करेगा जिसमें मुद्रा, सरकारी प्रतिभूतियां और विदेशी मुद्रा बाजार शामिल होंगे ।
- यह समाशोधन निगम :
- गैर-सरकारी प्रतिभूतियों की पुनर्खरीद के बाजार के विस्तार को गति देगा तथा बाजार में सहभागियों की संख्या में वृद्धि करेगा ।
- अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप संपार्श्विक के कुशल प्रबंधन के लिए त्रिपक्षीय एजेंट के रूप में कार्य करेगा ।
- नवीकरण के माध्यम से एक केंद्रीय काउंटर पार्टी के रूप में कार्य करते हुए काउंटर पार्टी जोखिम को कम करेगा ।
- यह निगम एक निपटान गारंटी निधि भी चलायेगा ताकि भुगतान जोखिम को न्यूनतम किया जा सके ।
संलग्नक-3
वार्तातय लेनदेन प्रणाली
वार्तातय लेनदेन प्रणाली की मुख्य विशेषताएं निम्नानुसार हैं -
- भारतीय रिज़र्व बैंक के पास सहायक सामान्य बही और चालू खाता रखने वाले बैंक, प्राथमिक व्यापारी और वित्तीय संस्थाएं इस प्रणाली का सदस्य बनने के लिए पात्र होंगे ।
- यह प्रणाली देश भर में कार्यरत लोक ऋण कार्यालयों के क्षेत्रीय कार्यालयों में स्थित ‘पूल्ड टर्मिनल’ सुविधा तथा ‘मेंबर-टर्मिनलों’ के माध्यम से सरकारी प्रतिभूतियों की नीलामियों/ निर्गमों हेतु बोलियों/आवेदनों की प्रस्तुति को सुविधाजनक बनायेगी ।
- इस प्रणाली का उपयोग चलनिधि समायोजन प्रणाली के अंतर्गत दैनिक पुनर्खरीद तथा प्रति-पुनर्खरीद नीलामियों के लिए किया जा सकता है ।
- यह सरकारी प्रतिभूतियों में प्राथमिक और द्वितीयक बाजार सहभागियों के लिए इलेक्ट्रॉनिक लेनदेन सुविधा उपलब्ध करायेगी तथा इस प्रणाली के माध्यम से किये गये लेन-देनों के अलावा सूचना-प्रसार और भुगतान के लिए एक्सचेंजों के जरिये निष्पादित व्यापारों की रिपोर्टिंग को भी सुविधाजनक बनायेगी ।
- सरकारी दिनांकित प्रतिभूतियों, खजाना बिलों, पुनर्खरीद करारों, मांग/सूचना/सावधि धन, वाणिज्यिक पत्र, जमा-प्रमाणपत्र, वायदा दर करारों/ब्याज दर स्वैप आदि इस हेतु पात्र लिखत होंगे ।
- सरकारी प्रतिभूतियों तथा खजाना बिलों में किये गये लेनदेनों के निपटान को सुविधाजनक बनाने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक के लोक ऋण कार्यालय की प्रतिभूति निपटान प्रणाली के साथ वार्तातय लेन-देन प्रणाली को समन्वित किया जाएगा ।
- इससे सहभागियों को द्वितीयक बाजार में किये गये व्यापार के ब्योरों की जानकारी के अलावा तुरंत नीलामी/बिक्री के माध्यम से किये गये प्राथमिक निर्गम तथा हामीदारी से संबंधित सूचना भी मिल सकेगी ।