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वर्ष 2000-2001 के लिए मौद्रिक एवं ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा पर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. विमल जालान का वक्तव्य

वर्ष 2000-2001 के लिए मौद्रिक एवं ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा पर भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर
डॉ. विमल जालान का वक्तव्य

मौद्रिक एवं ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा संबंधी इस वक्तव्य के तीन भाग हैं : I. वर्ष 2000-01 में समष्टि-आर्थिक एवं मौद्रिक गतिविधियों की मध्यावधि समीक्षा II. वर्ष 2000-01 के उत्तरार्ध के लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य और III. वित्तीय क्षेत्र के सुधार और मौद्रिक नीति उपाय ।

 

  1. वर्ष 2000-01 में समष्टि-आर्थिक एवं मौद्रिक गतिविधियों की मध्यावधि समीक्षा

घरेलू गतिविधियाँ

  1. मौसम विभाग की सितंबर 2000 तक उपलब्ध रिपोर्टों के आधार पर यह देखा गया है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून सक्रिय था और वर्षा की मात्रा और वितरण कुल मिलाकर काफी संतोषजनक रहा । 35 मौसम उप-खंडों में से 28 उप-खंडों में पिछले वर्ष की ही तरह सामान्य या उससे अधिक वर्षा हुई । चूंकि कुछ उप-खंड अल्प वर्षा या बाढ़ से प्रभावित रहे, अत: वर्ष 2000-01 में कुल कृषि-उत्पादन कुछ हद तक अनिश्चित बना हुआ है । अभी तक की स्थिति के अनुसार वर्ष के दौरान खाद्यान्नों की पैदावार पिछले वर्ष जितनी होने की संभावना है । खाद्यान्नों का कुल सुरक्षित भंडार अगस्त 2000 के अंत तक 40.8 मिलियन टन रहा, जो अगस्त 1999 के 29.9 मिलियन टन के स्टॉक-स्तर से 38.3 प्रतिशत ज्यादा है । चावलों के 13.56 मिलियन टन भंडार 57.5 प्रतिशत और गेहूं के 27.9 प्रतिशत ज्यादा हैं । अत: वर्ष के दौरान कृषि-आपूर्ति की संभावना समग्रत: सुखद है ।

3. औद्योगिक संभावना एक मिली-जुली तस्वीर प्रस्तुत करती है । चालू वित्तीय वर्ष के पहले चार महीनों के दौरान औद्योगिक उत्पादन में 5.4 प्रतिशत वृद्धि हुई, जो पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान दर्ज की गई 5.9 प्रतिशत की वृद्धि से कम थी । विनिर्माण-क्षेत्र ने जुलाई 2000 तक पिछले वर्ष की इसी अवधि के 6.7 प्रतिशत की तुलना में 5.7 प्रतिशत की वृद्धि-दर दर्ज की । प्रयोग-आधारित वर्गीकरण के अनुसार मूल वस्तु उत्पादन में पिछले वर्ष की इसी अवधि के दौरान के 3.8 प्रतिशत की तुलना में 4.7 प्रतिशत की त्वरित वृद्धि-दर दर्ज की गई । उपभोक्ता वस्तु क्षेत्र में हुए उत्पादन ने भी पिछले वर्ष के 2.5 प्रतिशत की तुलना में 8.3 प्रतिशत का बेहतर निष्पादन दर्शाया । मध्यवर्ती वस्तु क्षेत्र ने पिछले वर्ष के 9.6 प्रतिशत की तुलना में 5.2 प्रतिशत की न्यून वृद्धि दर्ज की । पूंजी वस्तु क्षेत्र ने अभी तक 0.3 प्रतिशत की नकारात्मक वृद्धि दर्शाई है । आद्योगिक उत्पादन सूचकांक में देखी गई आम गिरावट अंशत: केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) द्वारा अवस्फीतिकारक के रूप में संशोधित थोक मूल्य सूचकांक (1993-94=100) शामिल किए जाने के कारण आई ।

  1. केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन ने अपने हाल के प्रकाशन में वर्ष 2000-2001 की पहली तिमाही (अप्रैल-जून) में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि 1999-2000 की पहली तिमाही के 6.9 प्रतिशत की तुलना में 5.8 प्रतिशत रखी है । पहली तिमाही के अनुमानों को मद्देनजर रखते हुए, वर्तमान संकेतकों के अनुसार, 2000-01 के दौरान वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि अप्रैल के नीति-वक्तव्य में दर्शाए गए 6.5-7.0 प्रतिशत के अनुमान के विपरीत 6.0-6.5 के दायरे में रखी जा सकती है ।
  2. 23 सितंबर 2000 को बिंदु-दर-बिंदु आधार पर मुद्रास्फीति की दर एक साल पहले के 3.20 प्रतिशत की तुलना में 6.06 थी । औसत आधार पर वार्षिक मुद्रास्फीति-दर पिछले वर्ष के 4.37 प्रतिशत की तुलना में 4.96 प्रतिशत थी । अगस्त 2000 के महीने में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) में वृद्धि से मापी गई मुद्रास्फीति अगस्त 1999 के 3.15 प्रतिशत की तुलना में 3.99 प्रतिशत थी । तथापि, औसत आधार पर वार्षिक सीपीआइ मुद्रास्फीति 3.25 थी जो पिछले वर्ष की इसी अवधि के 10.16 प्रतिशत की तुलना में काफी कम थी ।
  3. मुद्रास्फीति में वृद्धि मुख्यत: ‘र्इंंधन, पावर, प्रकाश और स्नेहक’ समूह के कारण हुई, जिसके सूचकांक में पिछले वर्ष की तुलना में 23 सितंबर 2000 को 25.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई । वृद्धि विशेषत: ‘खनिज तेलों’ में हुई । यह सितंबर 1999 से अंतर्राष्ट्रीय तेल मूल्यों में हुई भारी वृद्धि का परिणामजन्य प्रभाव है । प्राथमिक वस्तुओं और विनिर्मित उत्पादों, दोनों में उर्वरक को छोड़कर अन्य वस्तुओं के मूल्य में वृद्धि पर काबू पा लिया गया । ईंधन और पेट्रोलियम समूह में मूल्य-वृद्धि के प्रभाव को छोड़कर, मुद्रास्फीति-दर बिंदु-दर-बिंदु आधार पर केवल 2.44 प्रतिशत बैठती है । हालांकि मुद्रास्फीति के मोर्चे पर कड़ी नजर रखनी है, और अंतर्राष्ट्रीय तेल-मूल्य विशेष चिंता का विषय बने हुए हैं, फिर भी संवेदनशील वस्तुओं और विनिर्मित वस्तुओं के संबंध में समग्र मांग/पूर्ति की स्थितियां सुखद बनी हुई हैं । समग्र रूप से अभी तक की स्थिति के अनुसार वर्ष के लिए मुद्रास्फीति की दर कुल मिलाकर पिछले दो वर्षों के औसत के करीब रहने की संभावना है ।
  4. चालू वित्तीय वर्ष में 22 सितंबर 2000 तक मुद्रा आपूर्ति की वृद्धि-दर पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में आंकी गयी 6.8 प्रतिशत दर की तुलना में 6.6 प्रतिशत रही । एम3 में वार्षिक वृद्धि (24 सितंबर, 1999 की तुलना में 22 सितंबर, 2000 को) पिछले वर्ष की तुलनात्मक अवधि में 16.3 प्रतिशत के मुकाबले 13.6 प्रतिशत रही । चालू वित्तीय वर्ष में अब तक अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशियों में 59,603 करोड़ रुपए (7.3 प्रतिशत) की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष इसी अवधि के दौरान 5।,680 करोड़ रुपए (7.2 प्रतिशत) की वृद्धि हुई थी । यह मानते हुए कि इसी प्रकार जमाराशियों में व्यापक रूप से वृद्धि होती रहेगी, चालू वर्ष में कुल जमाराशियों में अप्रैल के मौद्रिक नीति वक्तव्य में परिकल्पित किये अनुसार 1,25,000 करोड़ रुपए तक की वृद्धि होगी । वर्ष 2000-01 में मुद्रा आपूर्ति अब तक अप्रैल के मौद्रिक नीति वक्तव्य में निर्दिष्ट संभावित मार्ग पर ही है और 2000-01 में एम3 की अनुमानित वृद्धि के 15.0 प्रतिशत के आस-पास बने रहने की संभावना है ।
  5. चालू वित्तीय वर्ष मे 29 सितंबर, 2000 तक आरक्षित मुद्रा में 688 करोड़ रुपए (0.2 प्रतिशत) की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष की तुलनात्मक अवधि में 3,617 करोड़ रुपए (1.4 प्रतिशत) की वृद्धि हुई थी । संचलन में मुद्रा में पिछले वर्ष की अनुरूपी अवधि की 3.8 प्रतिशत की वृद्धि की तुलना में 1.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई । वार्षिक आधार पर, मुद्रा वृद्धि पिछले वर्ष के 14.8 प्रतिशत की तुलना में 9.9 थी । वर्ष के दौरान आरक्षित मुद्रा की वृद्धि के लिए योगदान देनेवाले स्रोतों में परिवर्तन आया । 1999-2000 के दौरान आरक्षित मुद्रा में वृद्धि मुख्य रूप से निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों और वाणिज्य क्षेत्र को भारतीय रिज़र्व बैंक के ऋण के कारण हुई जबकि इस वर्ष अब तक हुई इस वृद्धि का मुख्य कारण केंद्र सरकार को दिये गये भारतीय रिज़र्व बैंक के निवल ऋण में वृद्धि होना है । चालू वर्ष में वाणिज्य क्षेत्र को भारतीय रिज़र्व बैंक के ऋण में तीव्र गिरावट आई । चालू वित्तीय वर्ष में भारतीय रिज़र्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा परिसंपत्तियों में भी 2,799 करोड़ रुपए की गिरावट आई जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में इसमें 5,219 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई थी । किंतु, सरकार को दिये गये भारतीय रिज़र्व बैंक के निवल ऋणों में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के 308 करोड़ रुपये के ऋण के मुकाबले पर्याप्त वृद्धि हुई और यह बढ़कर 10,588 करोड़ रुपए हो गया । घटकों की दृष्टि से भारतीय रिज़र्व बैंक के पास बैंकरों की जमाराशियों में 4,124 करोड़ रुपए की भारी गिरावट आई (इसका मुख्य कारण सीआरआर में कमी करना था) । समग्र रूप में, पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष आरक्षित मुद्रा में धीमी गति से और काफी कम वृद्धि होने की संभावना है ।
  6. चालू वर्ष के दौरान, बैंंकिंग प्रणाली से वाणिज्य क्षेत्र को बैंक ऋण एवं अन्य प्रवाहों में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुई । अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के ऋणों में 22 सितंबर, 2000 तक 30,867 करोड़ रुपए (7.1 प्रतिशत) की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष उनमें 11,821 करोड़ रुपए (3.2 प्रतिशत) की वृद्धि हुई थी । खाद्य ऋण में पिछले वर्ष के 3,716 करोड़ रुपए की वृद्धि की तुलना में 6,398 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई । खाद्येतर बैंक ऋण में पिछले वर्ष में हुई 8,105 करोड़ रुपए (2.3 प्रतिशत) की वृद्धि की तुलना में 24,469 करोड़ रुपये (6.0 प्रतिशत) की वृद्धि हुई । वाणिज्यिक पत्रों में निवेश, सरकारी क्षेत्र के प्रतिष्ठानों और निजी कंपनी क्षेत्र के बांडों/शेयरों/डिबेंचरों में निवेशों के अनंतिम आंकड़ों को मिलाकर अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से वाणिज्य क्षेत्र को संसाधनों के प्रवाह में पिछले वर्ष में हुई 13,647 करोड़ रुपए (3.4 प्रतिशत) वृद्धि की तुलना में 26,471 करोड़ रुपए (5.6 प्रतिशत) की वृद्धि हई । इस वर्ष वित्तीय संस्थाओं और पारस्परिक निधियों द्वारा जारी लिखतों में बैंकों के निवेशों में 171 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष इसमें 1,773 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई थी । पूंजी निर्गमों, वैश्विक निक्षेपी रसीदों और वित्तीय संस्थाओं से लिये गये उधारों में पिछले वर्ष में हुई 34,235 करोड़ रुपए की वृद्धि के मुकाबले 58,838 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई ।

10. चालू वर्ष के पिछले कुछ महीनों में औद्योगिक उत्पादन की विकास दर में आई कमी के कतिपय मामलों के होते हुए भी बैंकों से वाणिज्य क्षेत्र को संसाधनों के प्रवाह में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है । कुछ चुने गये बैंकों से प्राप्त ‘फीडबैक’ से यह पता चलता है कि उर्वरकों, चीनी, पेट्रोलियम और मोटर-गाड़ियों के स्टॉक में सकारात्मक वृद्धि हुई है । संरचनातमक क्षेत्र और प्राप्य वित्तीय बिलों की कार्यकारी पूंजी वृद्धि में कुछ तेजी आई है । निर्यात में भी वृद्धि हई है जिसकी वजह से अधिक निर्यात ऋण उपलब्ध कराया गया । 150 करोड़ रुपए और अधिक की अतिरिक्त सीमाआें के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा आंतरिक रूप से जमा किये गये आंकड़े रेशमी और सिन्थेटिक रेशों के विनिर्माण, दवाइयों और औषधियों, उर्वरकों, हलकी इंजीनियरी, पट्टादायी और किराया खरीद आदि की सीमाओं में उच्च वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि दर्शाते हैं ।

11. वर्ष 2000-01 के संघीय बजट में केंद्र सरकार के निवल बाजार उधार 76,383 करोड़ रुपए और सकल उधार 1,17,704 करोड़ रुपए रखे गए हैं । केंद्र सरकार ने सामान्य स्थिति बरकरार रखते हुए 6 अक्तूबर 2000 तक निवल उधार 47,026 करोड़ रुपए, और सकल उधार 77,183 करोड़ रुपए जुटाए । रिज़र्व बैंक बाजार की स्थितियों के अनुरूप सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों के निजी आबंटन द्वारा स्वीकृति के साथ नीलामी निर्गमों का तालमेल बिठाता रहा है । चालू वित्तीय वर्ष में अब तक सुपुर्दगी और निजी आबंटन के रूप में भारतीय रिज़र्व बैंक को 31,977 करोड़ रुपए मिले हैं । तथापि, वाणिज्य क्षेत्र को भारतीय रिज़र्व बैंक ऋण में और निवल विदेशी मुद्रा आस्तियों में हुई कमी की वजह से इसका आरक्षित धन प्रभाव संतुलित बना रहा । सरकारी प्रतिभूतियों में वाणिज्य बैंकों के निवेश में पिछले वर्ष की इसी अवधि के 35,766 करोड़ रुपए की वृद्धि की तुलना में इस वर्ष 23,934 करोड़ रुपए की वृद्धि हुई । फिर भी, कुल मिलाकर, बैंक एसएलआर निर्धारण के अलावा काफी मात्रा में सरकारी प्रतिभूतियां धारित किए हुए हैं ।

  1. भारत सरकार के राजकोषीय घाटे में इस वर्ष अगस्त 2000 तक 36,447 करोड़ रुपए की भारी कमी हुई है जो पिछले वर्ष की तुलना में 24.3 प्रतिशत का सुधार है । यह सुधार इसलिए हुआ है कि राजस्व प्राप्तियों में 64,523 करोड़ रुपए की भारी वृद्धि हुई है जो पिछले वर्ष से 27.5 प्रतिशत अधिक है, और व्यय में 2.7 प्रतिशत की मामूली वृद्धि हुई है । यह स्थिति उत्साहवर्धक है । हालांकि, दो अनिश्चितताएं ऐसी हैं तो अंतत: बजटीय दृष्टिकोण को प्रभावित कर सकती हैं : विनिवेश से मिलने वाली प्राप्तियों की वसूली में धीमी गति और ऑयल-पूल खाते में कमी को पूरा करने के लिए खर्च होने वाला बजट । इन अनिश्चितताओं के होते हुए भी यह अत्यंत जरूरी है कि उधार कार्यक्रम को बजट-स्तर के अंतर्गत ही रखा जाए । वस्तुत:, उधार कार्यक्रम में कमी किया जाना अपेक्षित होगा क्योंकि इससे ब्याज-दर संभावना को सकारात्मक एवं स्थिर बनाए रखने में अनुकूल मदद मिलेगी ।
  2. आंतरिक ऋण प्रबंध नीति के संबंध में हाल में कई कदम उठाए गए हैं । फलस्वरूप, पिछले दो वर्षों में परिपक्वता-संरचना में विस्तार हुआ है । प्रतिभूतियों के समेकन की दृष्टि से पुनर्निर्गम और मूल्य-आधारित नीलामियां भी शुरू की गईं । यथोचित समयों पर निजी आबंटन को अनुकूल खुले बाजार परिचालनों के साथ मिला देने से सरकारी उधार कार्यक्रम चलाया जा सका और अप्रत्याशित बाह्य एवं देशी गतिविधियों का उस पर अनावश्यक व्यवधान नहीं पड़ा । आंतरिक ऋण प्रबंध नीति चाहे जितनी प्रभावी हो, उधार बाजार पर बुरा असर डाले बिना लगातार बढ़ते हुए घाटे को नियंत्रित नहीं कर सकती है । अत: राजकोषीय स्थिति में अनुकूल सुधार लाने के लिए यह आवश्यक है कि एक मजबूत ढांचा बनाया जाए और यह उम्मीद की जाती है कि प्रस्तावित राजकोषीय दायित्व विधान इस मामले में कार्य करेगा ।
  3. बाह्य गतिविधियां

  4. अप्रैल 2000 में जब वार्षिक मौद्रिक और ऋण नीति वक्तव्य प्रस्तुत किए गए तभी से बाहरी वातावरण में परिवर्तन होने शुरू हो गए । वर्ष 1999-2000 के दौरान तेल के मूल्यों में तीव्र वृद्धि होने के बावजूद भारत की विदेशी मुद्रा आस्तियों में 5.54 बिलियन अमरीकी डालर की वृद्धि हुई थी और विदेशी मुद्रा बाजार सामान्यतया स्थिर रहा । अकेले मार्च 2000 महीने में विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि में 2.1 बिलियन अमरीकी डालर की वृद्धि हुई और निर्यात एवं पूंजी प्रवाह दोनों में भारी वृद्धि दर्ज की गई । बाद की अवधि, यही कुछ आधे मई से लेकर अगस्त 2000 के शुरू तक की अवधि बाह्य क्षेत्र के प्रबंध के लिए कठिन साबित हुई । 31 मई और 29 सितंबर 2000 के मध्य अमरीकी डालर की तुलना में रुपए में 3.2 प्रतिशत अवमूल्यन हुआ जिससे काफी अनिश्चितता रही और विदेशी मुद्रा बाजार प्रभावित हुआ तथा समग्र विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि में 1.8 बिलियन अमरीकी डालर की कमी हो गई । अगस्त 2000 महीने के मध्य से स्थिति में कुछ सुधार आया और विदेशी मुद्रा बाजार एवं विदेशी मुद्रा आरक्षित निधि अपेक्षाकृत स्थिर रहे ।
  5. जैसा कि सभी जानते हैं कि अति अल्पकाल में किसी मुद्रा में अगले दिन या एक सप्ताह में या पखवाडेॅ में उसके संभावित व्यवहार की ‘प्रत्याशाएं’ विदेशी मुद्राओं, विशेष रूप से अमरीकी डालर के प्रति उस मुद्रा के उतार-चढ़ाव को निर्धारित करने में मुख्य भूमिका निभा सकती हैं । किसी प्रतिकूल उतार-चढ़ाव के ‘बैण्डवैगन’ प्रभाव और बाजार-सहभागियों के सामूहिक व्यवहार से प्रत्याशाएं प्राय: स्वत: पूरी हो जाती हैं । विशेष रूप से यह मंद गति से विकासशील देशी बाजार के विषय में सही है, जहां निवल मात्राएं अपेक्षाकृत छोटी हैं । मुद्रा बाजारों का दैनंदिन उतार-चढ़ाव निजी पूंजी प्रवाहों में अस्थिरता के कारण और भी जटिल हो जाता है, जो अल्पावधि देशी और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हो रही प्रगति एवं भावी अनुमानों के प्रति अत्यधिक संवेदनशील हैं । इन्हें और अन्य अति सूक्ष्म तत्वों को ध्यान में रखते हुए, मई-अगस्त 2000 के दौरान भारत में विदेशी मुद्रा बाजारों के व्यवहार को स्पष्ट करने में विभिन्न घटकों की सापेक्ष भूमिका के बारे में एक निश्चित निष्कर्ष पर पहुचना संभव नहीं है । इस अवधि के दौरान हुई गतिविधियों पर आधारित कुछ घटक निम्नानुसार थे :
  • मई 2000 में अमेरिकी ब्याज दरों में 50 आधार अंकों की वृद्धि जिसके बाद यूरोपीय ब्याज दर में जून में 50 आधार अंकों तथा अगस्त 2000 में 25 आधार अंकों की वृद्धि । अमेरिकी ब्याज दर में वृद्धि पूर्व में हुई विभिन्न वृद्धियों की तुलना में सर्वोपरि रही तथा इसने भारतीय रुपयों की तुलना में अमेरिकी डॉलरों में धारिताओं के सबंध में ब्याज में अंतरवाली राशि को उल्लेखनीय रूप में कम कर दिया ।
  • अप्रैल 2000 में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था की संभावनाओं के बारे में काफी अनिश्चितता थी । यह अन्य बातों के साथ-साथ ईक्विटी मूल्यों में तीव्र गिरावट में प्रतिबिंबित हुई । अप्रैल में, नासडाक़ (एनएएसडीएक्यू) सूचकांक लगभग 25 प्रतिशत गिरा जिसने आगे भारत में सेन्सेक्स सहित सभी प्रमख शेयर बाजारों में ईक्विटी मूल्यों को प्रभावित किया । फिर भी, अमेरिकी दृष्टिकोण इस बढ़ती हुई आम धारणा के साथ जून/जुलाई में नाटकीय रूप में परिवर्तित हुआ कि अमेरिका की

 

अर्थव्यवस्था ‘सरल आधार’ (सॉफट लैंडिंग) वाली है तथा इस बात की संभावना है कि अमेरिकी वृद्धि दरें अपेक्षाकृत उच्च स्तर पर निरंतर बनी रहेंगी ।

  • जापान में आर्थिक क्षेत्र में पूर्व स्थिति प्राप्त करने के बारे में लगातार बनी हुई अनिश्चितता एवं यूरोपीय अर्थव्यवस्थाओं के प्रति दृष्टिकोण को देखते हुए अमेरिकी डालर के मूल्य में ज्यादातर प्रमुख मुद्राओं की तुलना में तीव्र वृद्धि हुई । अमेरिकी डॉलर में मई के अंत से लेकर सितंबर 2000 के अंत तक की अवधि के दोरान यूरो, पौंड-स्टर्लिंग और जापानी येन की तुलना में क्रमश: 5.7 प्रतिशत, 2.2 प्रतिशत और 0.8 प्रतिशत वृद्धि हुई । इसी अवधि में अमेरिकी डॉलर में थाई बाट् की तुलना में 7.8 प्रतिशत, इंडोनेशियाई रुपैया की तुलना में 1.7 प्रतिशत, फिलिपीन्स के पेसो की तुलना में 8.5 प्रतिशत एवं सिंगापुर के डॉलर के मुकाबले 0.4 प्रतिशत की वृद्धि भी हुई । (यह नोट किया जाए कि चूंकि अमेरिकी डॉलर की तुलना में रुपए का मूल्यहा्रस अन्य कई मुद्राओं के मूल्यहा्रस की अपेक्षा कम था, अत: रुपए के मूल्य में भी मई के अंत से लेकर सितंबर के मध्य तक यूरो और पौंड-स्टर्लिंग के मुकाबले क्रमश: 4.4 प्रतिशत और 3.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई । तथापि, इसी अवधि में जापानी येन की तुलना में रुपए के मूल्य में 1.8 प्रतिशत का हा्रस हुआ ।)
  • भारत द्वारा आयात किये गये कच्चे तेल के मूल्य में पिछले वर्ष दर्ज की गई तीव्र वृद्धि से भी उच्चतम स्तर पर, वर्ष के दौरान और बढ़ोतरी हुई । ब्रेंट क्रूड के औसत मूल्य दिसंबर 1999 के 25.55 अमेरिकी डॉलर और सितंबर 1999 के 22.51 अमेरिकी डालर की तुलना में सितंबर 2000 में 32.97 अमेरिकी डॉलर प्रति बैरल थे । इसके परिणामस्वरूप, इंडियन ऑयल कार्पोरेशन (आइओसी) और कच्चे तेल के अन्य भारी आयातकों द्वारा विदेशी मुद्रा की मांग की मात्रा में काफी वृद्धि रही ।
  • भारत में ईक्विटी बाजार की संभावनाओं के बारे में कुछ अनिश्चितता सहित, विभिन्न कारणों से पूंजी प्रवाहों में विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइ) की वजह से तीव्र विपर्यय रहा । कैलेण्डर वर्ष की पहली तिमाही के दौरान विद्यमान 948 मिलियन अमेरिकी डॉलर के निवल अंतर्वाह की तुलना में मई से अगस्त 2000 तक के महीनों में 505 मिलियन अमेरिकी डॉलर का निवल बहिर्वाह रहा ।

16. उपर्युक्त कारकों के प्रतिकूल प्रभावों, जो कई सप्ताह तक बने रहे, से बचते हुए तालमेल बिठाने के लिए रिज़र्व बैंक को कुछ उपाय एकसाथ अपनाने पड़े । इनमें शामिल हैं : (क) मुद्रा बाजारों में, विशेष रूप से तेल आयातों और सरकारी ऋण शोधन के कारण अतिरिक्त मांग आंशिक रूप से पूरी करने के लिए विदेशी मुद्रा आरक्षित निधियों का उपयोग; (ख) आयातों के लिए बैंक द्वारा वित्तपोषण एवं अतिदेय निर्यात बिलों की लागत को बढ़ाना ; (ग) प्रचलित मांग/आपूर्ति स्थिति के प्रतिक्रियास्वरूप विनिमय दर में उतार-चढ़ाव की अनुमति देना; (घ) अंतर्वाहों में सुधार लाने के लिए डॉलर/रुपया धारिताओं के बीच ब्याज में अंतरवाली राशि के संकीर्णन को आंशिक रूप से उलटने हेतु बैंक दर को अप्रैल से पूर्व की स्थिति तक बढ़ाना । व्यवस्था में कुछ अतिरिक्त चलनिधि को कम करने के लिए आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) भी 0.5 प्रतिशत अंक बढ़ाया गया । अत्यंत अल्पावधि पुनर्खरीद (रिपो) और प्रतिवर्ती पुनर्खरीद दरों में भी अमेरिकी डॉलर में दैनिक दीर्घ स्थितियां बनाये रखने के संबंध में उसे कम आकर्षक बनाने हेतु वृद्धि की गयी; और (ङ) निर्यात अर्जक विदेशी मुद्रा (ईईएफसी) खातों में अगली अनुवृद्धियों के संबंध में -पात्रता में कमी सहित उक्त खातों में रखी गयी शेष राशि के 50 प्रतिशत का प्रत्यावर्तन ।

17. यह कहा जा सकता है कि अधिक गहनता से एक अथवा दो उपायों का सहारा लिया जाना अधिक उपयुक्त होता अथवा इसके विकल्प में रुपया विनिमय दर में बहुत तेजी से कमी लाने की अनुमति दी जा सकती थी और इसे "अपना स्तर स्वयं पाने दिया जा सकता था" । कुछ परिस्थितियों में इस बात की पुख्ता जानकारी की उपलब्धता के आधार पर कि विदेशी मुद्रा बाजारों में उथल-पुथल का क्या कारण था, इनमें से कोई सी भी स्थिति मान्य हो सकती हैं । तथापि, जहां कई बार विदेशी मुद्रा बाजार की अस्थिरता के कारणों को जानना आसान होता है (अर्थात् संक्रामक प्रभाव, आर्थिक प्रतिबंध या सीमा पर युद्धस्थिति) वहीं अक्सर अस्थिरता के वास्तविक कारण और मात्रा तथा अवधि का अनुमान लगाना अथवा उसकी भविष्यवाणी करना कठिन होता है । घटकों की बहुविधता (विभिन्नता) जो भी समय-समय पर बदल सकती है और जो अक्सर स्वयं पूरक होती हैं, विदेशी मुद्रा बाजार के परिणामों को प्रभावित कर सकती है (अर्थात् आर्थिक दृष्टिकोण की अनिश्चितता, तेल की कीमतों में परिवर्तन, विदेश में ईक्विटी बाजारों की प्रवृत्ति अथवा अमेरिकी डालर की तुलना में यूरो की विदेशी मुद्रा दर में उतार-चढ़ाव अथवा केंद्रीय बैंक की कार्रवाई के बारे में अफवाह आदि) । क्रमिक रूप से प्रकट होनेवाली स्थिति के निरंतर विश्लेषण के आधार पर मई-अगस्त 2000 के दौरान हमारे विदेशी मुद्रा बाजारों में प्रचलित स्थिति में उपायों के समूहन का सहारा लिया जाना उचित माना गया था ताकि बाकी अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव को कम किया जा सके । एक अथवा दो उपायों (अर्थात् तीव्र मौद्रिक संकुचन अथवा विदेशी मुद्रा दर में अनियंत्रित गिरावट और/अथवा आरक्षित निधियों का असीमित उपयोग) पर भरोसा करना अ-प्रत्यावर्तनीय अस्थिरीकरण के अत्यधिक जोखिम सहित अर्थव्यवस्था और वित्तीय प्रणाली के लिए अस्वीकार्य दीर्घावधि परिणामकारक हो सकता था ।

18. बाह्य क्षेत्र के प्रबंध पर हाल ही में हुई बहस में जो एक संबंधित मुद्दा सामने आया है वह यह है कि यदि अतिरिक्त पूंजी प्रवाह अथवा पूंजी वृद्धि की अवधि के दौरान (जैसा कि 1999-2000 के कुछ महीनों और उससे पूर्व अनुभव किया गया था) रुपए के मूल्य में पर्याप्त वृद्धि होने दी गयी होती (बजाय भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा अतिरिक्त आपूर्ति का एक अंश अथवा संपूर्ण आमेलित करने के) तो यह उपयुक्त रहा होता । सैद्धांतिक रूप से इस दलील में कुछ गुण है । यदि विदेशी मुद्रा दर में दुतरफा तेज उतार-चढ़ाव हुआ होता तो बाजार में क्रेता-विक्रेता विदेशी मुद्रा हेतु अतिरिक्त मांग की अवधि के दौरान ‘एक तरफा’ बाजी को स्वीकारने के बजाय दु-तरफा जोखिमों के अधीन होते । तथापि, वास्तव में स्थिति कुछ अधिक पेचीदा है । यह स्पष्ट नहीं है कि क्या विदेशी मुद्रा दरों में अत्यधिक अस्थिरता और अतिरिक्त मांग की अवधि के दौरान अत्यल्प अवधि के भीतर तेज मूल्यहास जारी रखना अपेक्षाओं को स्थिरता प्रदान करेगा अथवा सहनशीलता के स्तर से परे मुद्रा बाजारों में अस्थिरता पैदा करेगा । उभरते बाजारों का विश्व-व्यापी अनुभव यह है कि ‘भीतर आइये’ (जब विदेशी मुद्रा दर में वृद्धि हो रही होती है) के बजाय ‘बाहर जाइये’ (जब विदेशी मुद्रा दर में तेजी से गिरावट हो रही होती है) की ओर हमेशा अधिक रुझान होता है । भारत जैसे चालू खाते के घाटे वाले देश में विविध प्रकार के प्रवाहों और अन्य आवश्यकताओं से सम्बद्ध ‘चलनिधि जोखिम’ वाले विविध प्रकार के खातों को हिसाब में लेने हेतु आरक्षित निधि तैयार करना भी अनिवार्य है । जैसा कि अप्रैल के नीति वक्तव्य में कहा गया था, विशेष रूप से पूर्व एशियायी संकट की अवधि के दौरान के हाल ही के अंतर्राष्ट्रीय अनुभव ने इस तथ्य पर प्रकाश डाला है कि नयी बाजार अर्थव्यवस्था को बाहरी अनिवार्यता के दौरान अपने स्वयं के संसाधनों पर ज्यादातर विश्वास रखना होता है क्योंकि अल्प सूचना पर अतिरिक्त चल-निधि उपलब्ध कराने के लिए कोई ‘अंतिम ऋण दाता’ उपलब्ध नहीं होता है । जबकि मुद्रा में दु-तरफा उतार-चढ़ाव बिल्कुल वांछनीय हैं और जब अतिरिक्त पूंजी का अंतर्वाह होता है तब कोई ‘आधार’ उपलब्ध कराने हेतु कोई प्रयास नहीं किया जाना चाहिए, वहीं अनपेक्षित आकस्मिक घटनाओं से बचाव के परिप्रेक्ष्य में उपर्युक्त विचारों को ध्यान में रखना आवश्यक है ।

19. न केवल भारत में बल्कि अन्य देशों में अनुभव का सबक यह है कि विदेशी मुद्रा बाजारों के स्वरूप और अस्थायी दर वातावरण में पूंजी प्रवाहों की दिशा में अनिश्चितता को देखते हुए, स्थिति और दृष्टिकोण अल्पावधि में ही नाटकीय ढंग से बदल सकते हैं तथा विदेशी मुद्रा दर और विदेशी मुद्रा आरक्षित निधियों के प्रबंध में अत्यधिक सावधानी और ध्यान दिया जाना जरूरी है ।

 

20. चालू वर्ष की दूसरी छमाही में कई अनिश्चितताओं को ध्यान में रखते हुए बाहरी मोर्चे पर सावधानी और सतर्कता को बनाये रखने की जरूरत है । तेल और पेट्रोल निर्यातक देशों द्वारा सितंबर की शुरूआत में आपूर्ति बढ़ाने और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा कूटनीतिक आरक्षित निधि से कुछ तेल की बिक्री करने की कार्रवाई के बावजूद कच्चे तेल का अंतर्राष्ट्रीय मूल्य काफी अधिक बना रहा और तेल पर पर्याप्त भार पड़ा । अंतर्राष्ट्रीय रूप से औद्योगिक देशों में वृद्धि/मुद्रास्फीति दृष्टिकोण यद्यपि समग्रत: अनुकूल बना हुआ है, फिर भी विदेशी मुद्रा बाजार में अत्यंत अस्थिरता और अननुमानित उतार-चढ़ाव की स्थिति बनी हुई है (उदाहरणस्वरूप सितंबर के प्रारंभ में अमेरिकी डालर की तुलना में यूरो और पौंड स्टर्लिंग में अचानक हुए मूल्यहा्रस से यथा परिलक्षित हुआ है)। पूरे विश्व में ईक्विटी बाजारों का रुझान भी कतई स्थिर नहीं है । इस रुझान से संविभाग निवेश के लिए विदेशी पूंजी के अंतर्वाह प्रभावित होते हैं और ऐसे निवेशों में अप्रत्याशित परिवर्तन भी हो सकता है ।

21. इन अनिश्चितताओं के संदर्भ में भारत के लिए अनुकूल तत्व ये हैं : निर्यातों विशेषकर सॉफटवेयर निर्यातों का अच्छा कार्य-निष्पादन का जारी रहना; विदेशी मुद्रा आरक्षित निधियों का सुखद स्तर; कतिपय महत्वपूर्ण क्षेत्रों (जैसे सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार) में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश के लिए अनुकूल दृष्टिकोण; बाह्य वाणिज्यिक ऋण विशेषकर अल्पावधि ऋण का अपेक्षाकृत निम्न स्तर; और निरंतर आर्थिक वृद्धि के लिए सकारात्मक दृष्टिकोण । इन सकारात्मक तत्वों का अधिकतम लाभ उठाने तथा निर्यातों पर विशेष बल देते हुए वृद्धि की प्रक्रिया में और तेजी लाने हेतु भरपूर प्रयास किया जाना चाहिए ।

22. चालू वर्ष में निर्यातों का कार्य-निष्पादन अच्छा रहा है और हाल ही की अवधि में पूंजी अंतर्वाह में भी वृद्धि हुई है । चालू वित्तीय वर्ष के प्रथम चार महीनों में भारत के निर्यातों, जो 13.9 बिलियन अमेरिकी डालर के रहे, में पिछले वर्ष इसी अवधि के निर्यातों की तुलना में 25.0 प्रतिशत वृद्धि दर्ज की गयी । उक्त अवधि के दौरान, आयातों, जो 17.6 बिलियन अमेरिकी डालर के रहे, में भी पिछले वर्ष की 1.1 प्रतिशत वृद्धि की तुलना में 25.0 प्रतिशत वृद्धि हुई । कुल आयातों में से उच्चतर मूल्य के कारण तेल आयातों में 5.5 बिलियन अमेरिकी डालर (अथवा लगभग 100 प्रतिशत) की वृद्धि हुई । चालू वित्तीय वर्ष के प्रथम चार महीनों में व्यापार घाटा पिछले वर्ष की इसी अवधि के 3 बिलियन अमेरिकी डालर की तुलना में 3.7 बिलियन अमेरिकी डालर था । तथापि, तेल आयात बिल में हुई काफी अधिक वृद्धि के बावजूद, निर्यातों और अदृश्य प्राप्तियों में हुई वृद्धि के कारण वर्ष 2000-01 के लिए चालू खाता घाटा सकल देशी उत्पाद के 2.0 प्रतिशत से कम होने की आशा है, जो युक्तियुक्त रूप से संतोषजनक माना जाता है ।

23. पिछले दो वर्षों में, जैसा कि अप्रैल के नीतिगत वक्तव्य में बताया गया है, निर्यातकों को समय पर ऋण वितरण सुनिश्चित करने और कार्यविधि संबंधी अड़चनों को दूर करने के लिए कई उपाय किये गये हैं । इन उपायों में निर्यातकों को ‘ऑन लाइन क्रेडिट’ का प्रावधान, अच्छा ट्रैक रिकाड़ वाले निर्यातकाें को अधिक लंबी अवधि के लिए ‘ऋण सहायता’ प्रदान करना, निर्यातकों को चरम/गैर-चरम ऋण सुविधाएं प्रदान करना, पोतलदान-पूर्व और पोतलदानोत्तर ऋण को आपस में बदलने की अनुमति और मशीनों की क्षमता बढ़ाने तथा उनके आधुनिकीकरण और प्रौद्योगिकी उन्नयन के लिए निर्यातकों की दीर्घकालीन ऋण आवश्यकताओं की पूर्ति शामिल हैं । बैंको की विशेषीकृत शाखाओं में निर्यात सबंधी दस्तावेजों पर कार्य करने और निर्यात ऋण के त्वरित (फास्ट ट्रैक) समाशोधन की कार्यपद्धति में भी सुधार किये गये । इसी प्रकार, सॉफटवेयर सेवाओं, परियोजना सेवाओं और सॉफटवेयर उत्पादों तथा पैकेजों के लिए ऋण सुविधाओं की मंजूरी हेतु नये सरलीकृत दिशा-निर्देश जारी किये गये ।

24. ऋण वितरण प्रणाली में किये गये उपर्युक्त क्रियाविधिक और अन्य सुधारों से वास्तव में निर्यातक लाभान्वित होते हैं या नहीं, यह सुनिश्चित करने के लिए रिज़र्व बैंक ने परिचालन स्तर पर बैंकर समूह (जिसमें वाणिज्य बेंकों तथा रिज़र्व बैंक के वरिष्ठ अधिकारी शामिल हैं) का गठन भी किया था । इस समूह ने उद्योग, संघों के साथ चर्चा करने के अलावा देश मे 21 प्रमुख निर्यात केंद्रो पर निर्यातकों एवं वाणिज्य बैंकों के आधारिक स्तर के अधिकारियों के साथ पारस्परिक विचार-विनिमय के लिए कई सत्र आयोजित किये । ऋण वितरण प्रणाली में और सुधार लाये जाने के उद्देश्य से रिज़र्व बैंक ने निर्यातकों को, विशेषकर गैर-महानगरीय स्थानों पर स्थित निर्यातकों से इस बात की उनकी प्रतिक्रिया प्रेषित करने का अनुरोध किया था कि क्या नई प्रणाली संतोषजनक ढंग से कार्य कर रही है । उनसे यह भी अनुरोध किया गया था कि वे क्रियाविधि में, विशेषकर ऐसी क्रियाविधि, जो जवाबदेही कम किये बिना कागजी-कार्य को कम करने हेतु बनायी गयी है, में सुधार के लिए अपने सुझाव भेजें ।

25. इस अनुरोध की प्रतिक्रियास्वरूप, निर्यात संगठनों और निर्यातकों से कई सुझाव, मुख्यत: ऐसे सुझाव जो क्रियाविधिक स्वरूप के थे, प्राप्त हुए थे । इनकी हाल ही में उक्त बैंकर समूह ने जांच की है । बैंकों को अलग से सूचित किया जा रहा है कि वे निर्यात ऋण संबंधी क्रियाविधि को और सरल बनाने के लिए उक्त समूह की सिफारिशों का कार्यान्वयन करें ।

26. रिज़र्व बैंक द्वारा अगस्त 2000 में निर्यात अर्जक विदेशी मुद्रा खाते में संचित शेष राशियों तथा उसमें और उपचय को कम करने के कार्य से निर्यातकों को निस्संदेह कुछ निराशा हुई है । यह स्मरणीय है कि यह खाता प्रमुखत: चालू खाता तथा अन्य स्वीकार्य भुगतानों को सुकर बनाने हेतु कतिपय विशेष प्रयोजनों के लिए अनिवार्यत: निर्यातकों के उपयोग के लिए था । जबकि हाल ही के वर्षों में अधिकांश निर्यातक इस योजना का उपयोग उन प्रयोजनों के लिए कर रहे थे जिन प्रयोजनों के लिए यह योजना बनाई गई थी, लेकिन यह बात जानकारी में आई कि इन खातों क शेषों में वृद्धि हो रही थी जिसके कारण बाह्य प्राप्तियों में ’अग्रता’ और ‘पश्चता’ की मात्रा में बढ़ोतरी हुई । रिज़र्व बैंक ने पिछले अनुभव तथा प्रमुख निर्यात संस्थाओं से प्राप्त प्रतिसूचना के परिप्रेक्ष्य में इस योजना की पुनरीक्षा की है । यह वांछनीय है कि इस योजना की सकारात्मक बातों को जैसे चालू खाते और अन्य अनुमत भुगतानों हेतु निर्यातकां के लिए ‘लेनदेन’ तथा बैंकिंग लागतों में कमी के साथ-साथ यह सुनिश्चित करना कि योजना का उपयोग ऐसे प्रयोजनों के लिए नहीं किया जाता जो इस योजना में शामिल नहीं थे, संरक्षित रखा जाये । संशोधित ईईएफसी योजना के ब्योरे भाग-III में दिये गये हैं ।

27. विगत दो वर्षों में, अनिवासी भारतीयों द्वारा विप्रेषणों, निवेशों और बैंक खाते रखने से संबंधित विभिन्न योजनाओं में कई परिवर्तन भी किये गये हैं ताकि इन विशेष सुविधाओं की क्रियाविधि को सरल बनाया जा सके । अप्रैल में रिज़र्व बैंक ने अनिवासी भारतीयों से इन सरलीकृत क्रियाविधियों के बारे में उनकी प्रतिक्रिया तथा उनमें और अधिक सुधार लाने के लिए सुझाव भी आमंत्रित किये थे । यह बहुत संतोषजनक बात है कि अधिकांश प्रतिक्रियाएं अत्यधिक सकारात्मक रहीं तथा इन योजनाओं के परिचालन में कोई विशेष समस्याएं नहीं पाई गई ।

28. हाल के महीनों में, सरकार ने परस्पर लाभ के आधार पर विदेशी सीधे निवेश के प्रवाह को प्रोत्साहित करने के लिए कई कदम उठाये हैं । इस प्रकार, सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र में नये विदेशी निवेश का प्रस्ताव अब स्वत: अनुमोदन के लिए पात्र हो जायेगा चाहे निवेशक का देश में काई विद्यमान संयुक्त उपक्रम अथवा तकनीकी सहयोग वाली सूचना प्रौद्योगिकी कंपनियों को अब आगे से नया कारोबार शुरू करने के लिए विद्यमान संयुक्त उपक्रम भागीदारों/सहभागियों से ‘अनापत्ति प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है । सरकार ने व्यष्टि ऋण/ग्रामीण ऋण गतिविधियों में विदेशी ईक्विटी निवेश की भी अनुमति दे दी है । कतिपय शर्तों के अधीन कारोबारवार ई-कॉमर्स के लिए शत-प्रतिशत विदेशी सीधे निवेश की अनुमति दे दी गई है । बिजली उत्पनन करने, संचरण तथा वितरण (आणविक रिएक्टर पावर संयंत्रों को छोड़कर) करने से संबंधित परियोजनाओं में विदेशी सीधे निवेश के लिए 1500 करोड़ रुपए की ऊपरी सीमा को हटा लिया गया है । तेल शोधन क्षेत्र में स्वचालित मार्ग से विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआइ) का स्तर भी 49 प्रतिशत से बढ़ाकर 100 प्रतिशत किया गया है । यह उल्लेखनीय है कि किसी भी एफडीआइ प्रस्ताव के लिए, यदि वह प्रस्ताव सरकार के दिशा-निर्देशों के अनुरूप हो तो रिज़र्व बैंक का ‘सिद्धांत:’ अथवा पूर्वानुमोदन अब आवश्यक नहीं है ।

29. हाल ही में, सरकार ने रिज़र्व बेंक को स्वचालित मार्ग के अंतर्गत 50 मिलियन अमेरिकी डालर तक और मामला-दर-मामला आधार पर 100 मिलियन अमेरिकी डालर तक विदेशी वाणिज्यिक उधॉरों के अनुमोदन की शक्तियां प्रत्यायोजित की हैं । अल्पावधि अथवा उच्च लागतवाली विदेशी वाणिज्यिक उधार-राशियों का आश्रय लेने की स्थिति से बचने के लिए सरकार ने न्यूनतम परिपक्वता अवधि और ऐसी उधार-राशियों के लिए स्वीकार्य स्प्रेड के संबंध में कतिपय शर्तें भी निर्धारित की हैं । स्वचालित मार्ग से विदेशी वाणिज्यिक उधारों के ऐसे प्रस्तावों के मामले में, जो सरकार के दिशा-निेर्देशों के अनुरूप हैं, भारतीय रिज़र्व बैंक का पूर्वानुमोदन आवश्यक नहीं होगा । जिन प्रस्तावों के लिए रिज़र्व बैंक का विशिष्ट अनुमोदन अपेक्षित है, उन पर लागू कार्य-पद्धति को भी सरल बनाया जा रहा है ।

II. 2000-2001 के उत्तरार्ध के लिए मौद्रिक नीति का उद्देश्य

30. 1 अप्रैल, 2000 को रिज़र्व बैंक ने चलनिधि में वृद्धि करने तथा बैंकों के लिए निधियों की लागत कम करने के कई उपायों की घोषणा की थी । इनमें बैंक दर, आरक्षित नकदी निधि अनुपात और पुनर्खरीद दर को एक-एक प्रतिशत अंक से कम करने के उपाय शामिल थे । 27 अप्रैल 2000 को वार्षिक मौद्रिक और ऋण नीति से संबंधित वक्तव्य में भारतीय रिज़र्व बैंक का इरादा इस प्रकार प्रकट किया गया है कि "मौद्रिक नीति के वर्तमान उद्देश्य को जारी रखा जाए और अत्यधिक मांग के कारण किसी प्रकार के मुद्रास्फीति दबाव पैदा न होने देने के प्रति सजग रहते हुए बैंक ऋण की जायज जरूरतों की पूर्ति सुनिश्चित की जाए । इस उद्देश्य के लिए रिज़र्व बैंक खुले बाजार के कार्यकलापों के माध्यम से चलनिधि के सक्रिय प्रबंध की अपनी नीति जारी रखेगा, जिसमें खजाना बिलों का दुतरफा विक्रय/क्रय और जब भी आवश्यक हो, आरक्षित नकदी निधि अनुपात में कमी करना शामिल है"। तथापि, भारतीय रिज़र्व बैंक ने 21 जुलाई 2000 को बैंक दर को 1 प्रतिशत अंक से और आरक्षित नकदी निधि अनुपात को 0.5 प्रतिशत अंक से बढ़ाया । अल्पकालिक पुनर्खरीद दरों को भी 5 जून 2000 को चलनिधि समायोजन सुविधा लागू किये जाने के तुरंत बाद कई चरणों में उल्लेखनीय रूप से बढ़ाया गया (इन दरों को हाल ही में कम किया गया है)। बैंक दर/आरक्षित नकदी निधि अनुपात में 1 अप्रैल को की गयी कटौतियों के बाद चार महीनों के भीतर किये गये परिवर्तन के कारण विशेषज्ञों, बाजार के भागीदारों और बैंकरों के बीच काफी टीका-टिप्पणी और बहस हुई है ।

31. इस ओर ध्यान आकृष्ट किया जाना उपयोगी होगा कि जहां अप्रैल के नीतिगत वक्तव्य में मौद्रिक नीति के विद्यमान उद्देश्यों को जारी रखने के इरादे की पुष्टि की गई थी, वहीं इस बात की भी चेतावनी दी गई थी कि ‘अनपेक्षित घरेलू अथवा अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं की स्थिति में उपर्युक्त दृष्टिकोण में अपेक्षाकृत कम समय में नाटकीय बदलाव होने की संभावना को नकारा नहीं जा सकता । वर्ष 1997 से लेकर वर्ष 1999 के दौरान अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण को प्रभावित करने वाली कई प्रतिकूल घटनाओं ने इस बात की आवश्यकता प्रतिपादित कर दी है कि जब भी आवश्यक हो तुरंत कदम उठाये जाएं और दृष्टिकोण में बदलाव लाया जाये ।’ साथ ही, यह भी कहा गया था कि ‘रिज़र्व बैंक मौद्रिक और बाह्य गतिविधियों पर निगरानी रखना जारी रखेगा और जब भी आवश्यक और अपरिहार्य होगा अपने पास उपलब्ध उपायों का प्रयोग करते हुए मौद्रिक नीति को कसेगा ।’ इसके अलावा, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं से खास तौर पर यह आग्रह किया गया था कि ‘वे अपनी व्यवसाय परिचालन संबंधी योजनाओं में अनपेक्षित आकस्मिकताओं के लिए पर्याप्त प्रावधान करें तथा अपने कार्यकलापों पर मौद्रिक तथा बाह्य पर्यावरण में होने वाले परिवर्तनों के प्रभावों का भी ध्यान रखें ।’ इस प्रकार, अप्रैल के नीतिगत वक्तव्य में घरेलू अथवा अंतर्राष्ट्रीय स्थिति में परिवर्तन होने की दशा में ‘दृष्टिकोण में परिवर्तन’ तथा ‘मौद्रिक नीति में कसावट’ की संभावना को विशेष रूप से स्पष्ट किया गया । जो भी हो, कुछ ही माह बाद इस प्रकार का परिवर्तन करना जरूरी भी हो गया ।

32. यह भी उल्लेखनीय है कि मौद्रिक नीति निर्धारित करते समय उभरती परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में दृष्टिकोण में परिवर्तन करना अक्सर अपरिहार्य हो जाता है । विकासशील अर्थव्यवस्थाओं तथा विकसित वित्तीय प्रणालियों वाले औद्योगिक देशों के अधिकांश केंद्रीय बैंकों का भी यही अनुभव है । उदाहरण के लिए, यूएस फेडरल रिज़र्व ने सितंबर से नवंबर 1998 के दौरान ब्याज दरों को लगातार चरणों में 5.5 प्रतिशत से घटाकर 4.75 कर दिया लेकिन, जून 1999 में रुख बदलते हुए लगातार चरणों में उन्हें बढ़ाकर 6.5 प्रतिशत करके, उस स्तर से परे ले जाया गया जिस पर ‘ईजिंग’ शुरू हुई थी । इसी प्रकार, यूरोपियन सेंट्रल बैंक ने जिसने मार्च 1999 तक ‘ईजिंग स्टांस’ का घोर विरोध किया था, वास्तव में, अप्रैल 1999 में ब्याज दरों को 50 आधार बिंदु से घटाया, लेकिन बाद में जब नई जानकारी उपलब्ध हुई तो अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करते हुए नवंबर 1999 में दरों में वृद्धि कर दी । बैंक ऑफ इंग्लैंड जिसने जून 1999 में दरों में ढील दी थी, अपना निर्णय वापस बदल लिया और सितंबर 1999 में उक्त दरों में वृद्धि की ।

33. जैसे जैसे वित्तीय प्रणालियां अधिक खुली और अधिक अविनियमित बनती जाती हैं, बाजार व्यवहार की प्रत्याशा करना या सही तौर पर पूर्वानुमान करना कठिन होता जाता है । दूसरी ओर वित्तीय बाजार की स्थितियों और बाजार के कार्यों का महत्वपूर्ण प्रभाव निवेश, वृद्धि, मुद्रास्फीति या बाह्य स्थिरता को लेकर, समष्टि-आर्थिक परिणामों पर हो सकता है । उदाहरण के लिए जब बाजारों का अत्यधिक नियंत्रण किया गया था, बैंक की ब्याज-दरें रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित की जाती थीं, तथा ऋण आबंटन केंद्रीकृत था, तब मौद्रिक नीति संबंधी निर्धारण लंबी अवधि के लिए नियत रूप में रह सकते थे । चूंकि हम एक अधिक कुशल, अधिक प्रतिमयोगी और अधिक गतिशील वित्तीय प्रणाली की दिशा में अग्रसर हैं, अत: यह तथ्य स्वीकार करने की आवश्यकता है कि मौद्रिक साधनों का प्रयोग अधिक लचीलेपन के साथ किया जाएगा । यह भी अत्यावश्यक है कि मौद्रिक परिस्थितियों में अप्रत्याशित प्रतिवर्तनों तथा ब्याज-दर संबंधी दृष्टिकोण को ध्यान में रखने हेतु, बाजार सहभागी उचित आस्ति-देयता एवं जोखिम प्रबंध तकनीकों का अधिकाधिक सहारा लें ।

34. कच्चे तेल के अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों में से वृद्धि के प्रभाव से अलग, घरेलू मुद्रास्फीति विषयक दृष्टिकोण कुछ-कुछ अनिश्चित है । 23 सितंबर 2000 की स्थिति के अनुसार 63.75 प्रतिशत के भार वाले "विनिर्मित उत्पादों" में बिंदु-दर-बिंदु मुद्रास्फीति 2.91 प्रतिशत थी, तथा 22.03 प्रतिशत के भार वाली "प्राथमिक वस्तुओं" में यह 1.25 प्रतिशत थी । वास्तव में खाद्यान्नों के मूल्यों में 5.44 प्रतिशत की गिरावट आई । आपूर्ति के संबंध में, अगस्त 2000 की समाप्ति पर खाद्यान्नों के स्टॉक 40.8 मिलियन टन के संतोषजनक स्तर पर थे । खाद्यान्नों के संतोषजनक स्टॉक एवं "प्राथमिक वस्तुओं" और "विनिर्मित उत्पादों" में मुद्रास्फीति की निम्न दर, समग्र मुद्रास्फीतिकारी परिवेश के प्रबंध में संतोषप्रद स्रोत हैं । 22 सितंबर, 2000 को एम3 वृद्धि 13.6 प्रतिशत थी जो नीति संबंधी अप्रैल के वक्तव्य में परिकल्पित 15.0 प्रतिशत की अनुमानित वृद्धि के अनुरूप भी थी । इस प्रकार की स्थिति के होते हुए, अब मांग पक्ष की ओर से कोई अनुचित दबाव प्रत्याशित नहीं है । तथापि, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, प्रधान रूप से कच्चे तेल के मूल्यों के संबंध में बाह्य दृष्टिकोण अत्यधिक अनिश्चित रह जाता है और यह चिंताजनक है ।

35. उक्त कारकों और साथ ही सरकार की उधार संबंधी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए, वर्तमान संकेतकों के अनुसार, चलनिधि की स्थितियां शेष वर्ष के दौरान पर्याप्त रहने की संभावना है । बैंकिंग प्रणाली को औद्योगिक और अन्य क्षेत्रों की वाणिज्यिक ऋण की मांग सर्वथा पूरी करने में कोई कठिनाई आने की संभावना नहीं है । अर्थव्यवस्था में समग्र चलनिधि-स्थिति के प्रबंधन के उद्देश्य से रिज़र्व बैंक भी अपनी चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के जरिये आवश्यकतानुसार उपयुक्त चलनिधि उपलब्ध कराने के लिए तैयार है ।

36. ॅशेष चालू वर्ष के दौरान ब्याज-दर संभावना निर्णायक रूप से बाह्य बाज़ार-स्थितियों, समग्र मुद्रास्फीति-दर के संबंध में घरेलू गतिविधियों, वाणिज्यिक क्षेत्र से ऋण की मांग और सरकार की उधार संबंधी आवश्यकताओं पर निर्भर करेगी । भारतीय रिज़र्व बैंक का यथासंभव यही प्रयास रहेगा कि स्थिर ब्याज-दर का माहौल बना रहे । किंतु, जैसा कि अप्रैल के नीति-वक्तव्य में उल्लेख किया गया है, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के लिए अपने कारोबार की परिचालन-परियोजनाओं में अप्रत्याशित आकस्मिकताओं के साथ मौद्रिक उपायों में संभव बदलावों के लिए पर्याप्त गुंजाइश रखना विवेकसंगत होगा, हालांकि स्थिर मौद्रिक स्थिति बनाए रखने की रिज़र्व बैंक की नीति जारी रहेगी ।

37. अंतिम चार महीनों में 5 जून, 2000 से लागू एलएएफ दिन-प्रतिदिन की चलनिधि-स्थितियों के अनुकूलन द्वारा अल्पावधि ब्याज-दरों को प्रभावित करने और विदेशी मुद्रा बाज़ार में अस्थिरता रोकने के लिए कारगर ढंग से इस्तेमाल की गई है । कुछ हफ्तों के लिए पुनर्खरीद-दरें तेजी से बढ़ीं और ऊंची बनी रहीं । अभी बिलकुल हाल ही में वे ज्यादा वाजिब स्तर तक नीचे लाई गई हैं । एलएएफ प्रयोज्य दरों और अविधियों, दोनों के अनुसार वित्तीय बाज़ारों की गतिविधियों के अनुरूप लचीले ढंग से परिचालित की जाती रहेगी । किंतु इस पर गौर करना जरूरी है कि एलएएफ की पूर्ण प्रभावोत्पादकता वर्तमान में बैंकों और प्राथमिक व्यापारियों को पुनर्वित्त और चलनिधि-सहायता सुविधाओं के माध्यम से उपलब्ध स्वचालित अतिरिक्त चलनिधि द्वारा बाधित हो गई है ।

III.वित्तीय क्षेत्र के सुधार और
मौद्रिक नीति उपाय
  1. हाल ही के वार्षिक मौद्रिक और ऋण नीति वक्तव्यों तथा मध्यावधि पुनरीक्षाओं में वित्तीय प्रणाली को सुदृढ़ बनाने तथा वित्तीय बाजारों के विविध खंडों की कार्यप्रणाली में सुधार लाने हेतु संरचनागत उपायों पर बल दिया गया है । जैसाकि अप्रैल के नीतिगत वक्तव्य में उल्लेख किया गया था, इन उपायों के पांच उद्देश्य रहे हैं :- (क) बाजार के विभिन्न घटकों को व्यापकता और गहनता प्रदान करते हुए मौद्रिक नीति की परिचालन दक्षता में वृद्धि; (ख) रिज़र्व बैंक की विनियामक भूमिका को पुनर्परिभाषित करना ताकि उसे अधिक दक्ष और सोद्देश्यपूर्ण बनाया जा सके; (ग) विवेकशील और पर्यवेक्षी मानदंडों को सुदृढ़ बनाना; (घ) ऋण सुपुर्दगी प्रणाली में सुधार लाना; तथा (ङ) वित्तीय क्षेत्र की प्रौद्योगिकीय तथा संरचनागत आधारभूत सुविधाओं का विकास ।
  2. उपर्युक्त उद्देश्यों को पूरा करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों में कई कदम उठाये गये हैं । इन कदमों के संबंध में अब तक की गई प्रगति तथा आवश्यकतानुसार उनमें से कुछ में किये गये संशोधनों की संक्षिप्त समीक्षा आगे के पैराग्राफों में करने का प्रयास किया गया है । प्रस्तावित परिवर्तन यथासंभव विशेषज्ञों और बाजार-सहभागियों के साथ व्यापक परामर्श के बाद किये गये हैं । प्रचार माध्यमों में तथा विशेषीकृत पत्रिकाओं में दिये गये सुझावों को भी यथोचित रूप से विचार में लिया गया है ।
  3. बैंक दर, आरक्षित नकदी निधि अनुपात अथवा एलएएफ जैसे कुछ महत्वपूर्ण मौद्रिक उपायों में किसी परिवर्तन का कोई प्रस्ताव नहीं किया गया है । जैसाकि पूर्व नीतिगत वक्तव्यों में बल दिया गया था, बैंक दर, आरक्षित नकदी निधि अनुपात तथा पुनर्खरीद दरों (एलएएफ के अंतर्गत) के संबंध में परिवर्तन जब भी जरूरी होंगे किये जाएंगे तथा उन्हें छमाही नीतिगत वक्तव्यों से अनिवार्यत: संबद्ध नहीं किया जायेगा ।

मुद्रा बाजार का विकास

41. अप्रैल 2000 के नीतिगत वक्तव्य के भाग के रूप में, वायदा दर करारों/ब्याज दर स्वॉप तथा जमा प्रमाणपत्रों के विकास को सुविधाजनक बनाने हेतु कुछ उपायों की घोषणा की गई थी । इसी प्रकार, मांग/सूचना मुद्रा बाजार तथा वाणिज्यिक पेपर से संबंधित नीतिगत उद्देश्य भी इंगित किया गया था । इन गतिविधियों की पुनरीक्षा के बाद निम्नलिखित उपाय लागू किये जा रहे हैं:-

(क) मांग मुद्रा बाजार में उधार देने हेतु
गैर-बैंकों को अनुमति

नरसिंहम समिति II की सिफारिशों का अनुपालन करते हुए रिज़र्व बैंक ने पुनर्खरीद बाजार में सहभागिता को बढ़ाने के लिए कई कदम उठाये हैं, जैसे (i) रिपो तथा रिवर्स रिपो दोनों के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक, मुंबई के पास चालू और एसजीएल खाते रखने हेतु गैर-बैंक सहभागियों को अनुमति; (ii) पुनर्खरीद (रिपो) लेनदेनों की न्यूनतम परिपक्वता अवधि को घटा कर 1 दिन करना; (iii) पुनर्खरीद के लिए राज्य सरकार की प्रतिभूतियों को पात्रता प्रदान करना; तथा (iv) जब भी आवश्यक हो, सरकारी प्रतिभूतियों को चलनिधि प्रदान करने के लिए अपनी खरीद खिड़की (परचेज़ विंडो) को खोलना । उक्त समिति द्वारा दी गई सिफारिश के अनुसार, एलएएफ की कार्यकुशलता को बढ़ाने, मुद्रा बाजार को अधिक दक्ष बनाने तथा अल्पावधि रुपया आय वक्र के विकास को संभव बनाने के लिए यह आवश्यक है कि यथाशीघ्र विशुद्ध अन्तर-बैंक मांग मुद्रा बाजार के उद्देश्य की ओर बढ़ा जाये । तथापि, इस तथ्य को विचार में लेते हुए कि पुनर्खरीद बाजार को लिखतों तथा सहभागियों के रूप में अभी व्यापक आधार प्रदान किया जाना है तथा उसमें काफी गहराई आनी है, यह निर्णय लिया गया है कि उन चयनित कंपनियों को दी गई अनुमति की अवधि में विस्तार किया जाये जिन्हें प्राथमिक व्यापारियों के माध्यम से मांग मुद्रा लेनदेन करने की विशिष्ट अनुमति दी गई है और जो अभी दिसंबर 2000 तक उपलब्ध है, इसे छह माह और बढ़ा कर जून 2001 कर दिया जाये ।

प्राथमिक व्यापारियों के माध्यम से मांग मुद्रा लेनदेनों के लिए जिन चयनित कंपनियों को अनुमति प्रदान की गई है, उनके अलावा वित्तीय संस्थाओं तथा पारस्परिक निधियों जैसी कई गैर-बैंक संस्थाएं हैं, जिन्हें वर्तमान में मांग/सूचना मुद्रा बाजार में सीधे ही उधार देने की अनुमति दी गई है । मांग मुद्रा बाजार केवल बैंकों/प्राथमिक व्यापारियों तक ही सीमित हो जाये इससे पहले इन संस्थाओं के संबंध में भी आवश्यक संक्रमणकालीन प्रावधान करने की दृष्टि से यह निर्णय लिया गया है कि एक ऐसे दल का गठन किया जाये जो मांग/सूचना मुद्रा बाजार में उनकी पहुंच में सुनियोजित रूप से कमी करने के लिए चरणबद्ध उपायों का सुझाव दें । इस दल में गैर-बैंक संस्थाओं के प्रतिनिधियों को भी शामिल किया जायेगा ।

(ख) वाणिज्यिक पेपर जारी करने के
लिए मार्गदर्शी सिद्धांत

अप्रैल के नीतिगत वक्तव्य में यह इंगित किया गया था कि वाणिज्यिक पेपर जारी करने से संबंधित वर्तमान मार्गदर्शी सिद्धांतों को एक आंतरिक दल द्वारा की गई सिफारिशों के परिप्रेक्ष्य में संशोधित किया जायेगा । तदनुसार, संशोधित मार्गदर्शी सिद्धांतों का एक प्रारूप तथा आंतरिक दल की रिपोर्ट जुलाई 2000 में परिचालित की गई । सहभागियों से प्राप्त सुझावों को ध्यान में रखते हुए अब मार्गदर्शी सिद्धांतों को अंतिम रूप दे दिया गया है । मार्गदर्शी सिद्धांतों का संक्षेप संलग्नक-I में दिया जा रहा है । पूर्ण पाठ (टेक्स्ट) अलग से जारी किया जा रहा है ।

यह आशा की जाती है कि नये मार्गदर्शी सिद्धांतों से सहभागियों को पर्याप्त लचीलापन उपलब्ध होगा तथा वाणिज्यिक पेपरों को गहराई और स्पंदन मिलेगा । इसके साथ ही, विवेकशील सुरक्षोपाय तथा पारदर्शिता भी सुनिश्चित होगी । विशेष रूप से, इन मार्गदर्शी सिद्धांतों से सेवा क्षेत्र में कार्यरत कंपनियों को उनकी अल्पकालिक कार्यशील पूंजी आवश्यकताओं को अधिक आसानी से पूरा करने में मदद मिलेगी । साथ ही, बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को वाणिज्यिक पेपरों सहित कंपनियों के वित्तपोषण के संसाधनों की पद्धति को विचार में लेते हुए कार्यशील पूंजी की सीमाएं निर्धारित करने में लचीलापन भी प्राप्त होगा ।

(ग) जमा प्रमाणपत्रों का अंतरण

वर्तमान में, जहां एक ओर वाणिज्यिक पत्रों की न्यूनतम परिपक्वता अवधि 15 दिन निर्धारित की गई है, वहीं दूसरी ओर यह प्रतिबंध भी लगाया गया है कि बैंकों और वित्तीय संस्थाओं द्वारा जारी किये गये जमा प्रमाणपत्रों का अंतरण नहीं किया जा सकता अथवा उनके जारी होने की तारीख से 15/30 दिन से पहले गौण बाजार में उनका लेनदेन नहीं किया जा सकता । गौण बाजार को लचीलापन तथा गहनता प्रदान करने की दृष्टि से बैंकों और वित्तीय संस्थाओं दोनों द्वारा जारी किये गये जमा प्रमाणपत्रों के लिए अंतरणीयता की अवधि संबंधी प्रतिबंध को हटाये जाने का प्रस्ताव किया जाता है ।

(घ) वित्तीय संस्थाओं द्वारा जुटायी
जानेवाली मीयादी जमाराशियों के
लिए साख-निर्धारण की आवश्यकता

वर्तमान में, भारतीय रिज़र्व बैंक के मार्गदर्शी सिद्धांतों द्वारा शासित चयनित अखिल भारतीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा मीयादी जमाराशियां जुटाने पर किसी साख-निर्धारण की जरूरत नहीं है । बाजार की कार्यात्मक कार्यकुशलता में वृद्धि करने की दृष्टि से यह प्रस्ताव किया जाता है कि अखिल भारतीय वित्तीय संस्थाओं द्वारा स्वीकार की जाने वाली मीयादी जमाराशियों के लिए 1 नवंबर 2000 से साख-निर्धारण को अनिवार्य किया जाए ।

सरकारी प्रतिभूति बाजार का विकास

42. अप्रैल के नीतिगत वक्तव्य में घोषित उपायों के संबंध में महत्वपूर्ण गतिविधियां निम्नानुसार हैं :-

  • प्रतिभूतियों के निपटान को आसान बनाने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक से अनाहरित पुनर्वित्त/चलनिधि सहायता के एसजीएल खाताधारक द्वारा उन्हें स्वत: लागू करने की एक योजना का प्रस्ताव किया गया था । उक्त सुविधा के कार्यान्वयन के लिए विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत इस बीच लागू कर दिये गये हैं ।
  • प्राथमिक निर्गमों में आबंटित प्रतिभूतियों के विक्रय को उसी दिन सुविधाजनक बनाने की दृष्टि से यह प्रस्ताव किया गया था कि प्राथमिक निर्गमों में आबंटन प्राप्त करने वालों को आबंटित प्रतिभूतियां उसी दिन बेचने की अनुमति दी जाये । इस संबंध में अनुदेश जारी किये जा चुके हैं ।
  • 14 और 91 दिवसीय खजाना बिलों के संबंध में भुगतान का दिन शनिवार के बजाय अगला कार्य दिवस किया गया था और छह माह के बाद उसकी समीक्षा की जानी थी । चूंकि यह प्रणाली अच्छी तरह से काम कर रही है अत: यह निर्णय लिया गया है कि शनिवार के बजाय अगले कार्य दिवस को भुगतान का दिन रखना जारी रखा जाये ।
  • प्राथमिक व्यापारियेां को चलनिधि समर्थन की विस्तृत समीक्षा की गई है और उनके साथ परामर्श से उक्त योजना में संशोधन लागू किये गये हैं । साथ ही, नीलामी खजाना बिलों के लिए प्राथमिक व्यापारियों को कमीशन का भुगतान समाप्त कर दिया गया है । प्राथमिक व्यापारियों के लिए प्रस्तावित पूंजी पर्याप्तता मानदंड वाला नोट परिचालित किया गया था तथा उनसे प्राप्त सुझावों की जांच करने के बाद उन्हें मार्गदर्शी सिद्धांतों में शामिल कर लिया गया । प्राथमिक व्यापारियों को संशोधित मार्गदर्शी सिद्धांत अलग से जारी किये जा रहे हैं ।
  • मुख्य प्रवर्तक के रूप में भारतीय स्टेट बैंक ने एक स्थायी दल का गठन किया है जो मुद्रा, ऋण और विदेशी मुद्रा बाजारों के लिए एक क्लियरिंग कारपोरेशन स्थापित करने हेतु रिपोर्ट तैयार कर रहा है । यह स्थायी दल प्रस्तावित क्लियरिंग कारपोरेशन की स्थापना के लिए विभिन्न विशेषज्ञों के साथ विचार-विमर्श कर रहा है और अपनी सिफारिशें शीघ्र ही प्रस्तुत कर देगा ।
  1. अब सरकारी प्रतिभूति बाजार के विकास के लिए कुछ और उपाय शुरू करने का प्रस्ताव है :
  2. (क) ग्राहकों के एसजीएल खातों के लिए दिशानिर्देश

    वर्तमान में एसजीएल खाताधारकों को भारतीय रिज़र्व बैंक की बहियों में एक दूसरा एसजीएल खाता रखने की सुविधा प्रदान की जाती है जिसे ग्राहकों का एसजीएल खाता कहा जाता है, ताकि वे अपने ग्राहकों की ओर से सरकारी प्रतिभूतियां धारित कर सकें । निवेशकों को प्रतिभूतियां स्क्रिप-रहित रूप में रखने को प्रोत्साहित करने के लिए और यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रतिभूतियां अपनी अभिरक्षा में रखने वाली संस्थाएं प्रथाएं और क्रियाविधियां लागू करें ताकि ग्राहकों की प्रतिभूतियों का उपयुक्त हिसाब रखा जाए और उन्हें सुरक्षित रखा जाए, ग्राहकों के एसजीएल खातों के रखरखाव को नियंत्रित करने वाले दिशानिर्देशों का एक सेट तैयार करने का निर्णय लिया गया है ।

    (ख) सरकारी प्रतिभूतियों में आदेश-चालित
    स्क्रीन-आधारित व्यापार

    भारतीय रिज़र्व बैंक ने सिद्धांतत: शेयर-बाजार में सरकारी प्रतिभूतियों में यथासमय आदेश-चालित स्क्रीन-आधारित व्यापार शुरू करने का निर्णय लिया है । भारतीय रिज़र्व बैंक सेबी के परामर्श से आदेश-चालित स्क्रीन-आधारित प्रणाली शुरू करने की तारीख विनिर्दिष्ट करेगा । जब भी तारीख विनिर्दिष्ट कर दी जाएगी, वह समस्त शेयर-बाजारों पर लागू हो जाएगी जहां बैंक और वित्तीय संस्थाएं कारोबार कर सकेंगी ।

    विवेकपूर्ण उपाय

  3. बैंकों की वित्तीय स्थिति सुदृढ़ बनाने की दृष्टि से लेखा-वर्ष 1992-93 से चरणबद्ध रूप में आय-निर्धारण, परिसंपत्ति-वर्गीकरण और प्रावधानीकरण के संबंध में विवेकपूर्ण मानदंड लागू किए गए हैं । इन मानदंडों के मूल सिद्धांत वसूली के रिकाड़ पर आधारित आय-निर्धारण, एकसमान और वस्तुपरक मानदंड के आधार पर परिसंपत्ति-वर्गीकरण और वसूली की संभावनाओं तथा परिसंपत्तियों के अनर्जक परिसंपत्ति (एनपीए) के रूप में रहने की अवधि के आधार पर प्रावधानीकरण थे । इसके अलावा, इन वर्षों में इन क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाएं अपनाने की ओर अग्रसर होने पर भी बल दिया गया है । वित्तीय क्षेत्र के व्यापक होते दायरे और तेजी से आते बदलावों को ध्यान में रखते हुए निम्नलिखित उपाय भी किए जा रहे हैं :

(क) टियर 2 पूंजी के रूप में मानक परिसंपत्तियाें
के संबंध में सामान्य प्रावधान

बैंकिंग क्षेत्र के सुधारों पर गठित नरसिंहम समिति ने पाया कि बैंकों में परिसंपत्ति-वर्गीकरण के संबंध में हमारे मानक उदार हैं और अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप बनाने के लिए उन्हें संशोधित किया जाना जरूरी है । इस संबंध में समिति ने मानक परिसंपत्तियों के संबंध में 1 प्रतिशत के सामान्य प्रावधान की सिफारिश की थी, जिसे रिज़र्व बैंक द्वारा चरणबद्ध तरीके से लागू करने पर विचार करना चाहिए । तदनुसार विवेकपूर्ण मानदंडों को कड़ा करते हुए अक्तूबर 1998 में बैंकों को 31 मार्च 2000 को समाप्त वर्ष से मानक परिसंपत्तियों पर न्यूनतम 25 आधार-अंकों का प्रावधान करने के लिए कहा गया । इन दिशानिर्देशों में 24 अप्रैल 2000 को आंशिक संशोधन करके यह व्यवस्था की गई कि प्रावधान घरेलू अग्रिमों के आधार पर नहीं बल्कि वैश्विक संविभाग के आधार पर किया जाए, मानक परिसंपत्तियों के संबंध में किया गया सामान्य प्रावधान टियर 2 पूंजी में शामिल किए जाने का पात्र नहीं होगा, आदि । इस संबंध में अपनाई जाने वाली अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं को दृष्टिगत रखते हुए मानक परिसंपत्तियों के संबंध में किया जाने वाला प्रावधान टियर 2 पूंजी में शामिल करने का प्रस्ताव है । आवश्यक अनुदेश अलग से जारी किए जाएंगे ।

(ख) बैंकों के निवेश संविभाग का वर्गीकरण और मूल्यांकन

जैसा कि 1999-2000 की मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा में उल्लेख किया गया था, बैंकों के निवेश संविभाग के मूल्यांकन पर गठित अनौपचारिक दल की रिपोर्ट बैंकों में परिचालित की गई और उस पर सनदी लेखाकार संस्थान तथा भारतीय बैंक संघ के साथ चर्चा की गई । उनसे प्राप्त टिप्पणियों और सुझावों को मद्देनजर रखते हुए दिशानिर्देशों को अब अंतिम रूप दे दिया गया है । संशोधित दिशानिर्देश निवेशों के वर्गीकरण और मूल्यांकन के संबंध में सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं के अनुरूप हैं और 30 सितंबर 2000 को समाप्त छमाही से लागू हैं ।

बैंकों के निवेशों के वर्गीकरण और मूल्यांकन संबंधी संशोधित दिशानिर्देशों का सार संलग्नक II में दिया गया है । विस्तृत परिचालन-अनुदेश अलग से जारी किए जा रहे हैं ।

(ग) सहायक कंपनियों के तुलन-पत्र मूल बैंक
के तुलन-पत्र के साथ संलग्न करना

बैंकों के लिए जरूरी है कि वे मार्च 2001 को समाप्त वर्ष से, स्वैच्छिक रूप स्।े, चरणों में, अपनी सहायक कंपनियों के जोखिमभारित घटक अपने तुलन-पत्र में काल्पनिक आधार पर अंतर्निहित करें और अपनी बहियों में अतिरिक्त पूंजी चिह्नित करें । किंतु वर्तमान में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए अपनी सहायक कंपनियों के तुलन-पत्र अपने तुलन-पत्र के साथ संलग्न करना आवश्यक नहीं । सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के तुलन-पत्रों में और अधिक पारदर्शिता लाने के उद्देश्य से और समेकित पर्यवेक्षण की दिशा में एक और कदम के रूप में, तथा अतिरिक्त प्रकटीकरण उपलब्ध कराने के लिए, यह निर्णय लिया गया है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंेक 31 मार्च 2001 को समाप्त वर्ष से अपनी सहायक कंपनियों के तुलन-पत्र भी अपने तुलन-पत्र के साथ संलग्न करें ।

(घ) अनर्जक परिसंपत्ति -"विगत देय" अवधारणा

मौजूदा कानूनी ढांचे, उत्पादन और भुगतान चक्रों, कारोबार-प्रथाओं, अर्थव्यवस्था के भौगोलिक विस्तार और कृषिक स्वरूप तथा भुगतान और निपटान प्रणालियों से जुड़ी समस्याओं को ध्यान में रखते हुए अप्रैल 1992 में लागू किए गए आय-निर्धारण, परिसंपत्ति-वर्गीकरण और प्रावधानीकरण के संबंध में दो-तिमाही-चूक-मानदंड में "विगत देय" की अवधारणा समाविष्ट की गई थी । तथापि "विगत देय" अवधारणा (30 दिन की अनुग्रह-अवधि) नकद-ऋण/ओवरड्राफट खातों और खरीदे तथा भुनाए गए बिलों के मामले में लागू नहीं होती, जो कि ऐसे खाते खराब होने या 180 दिन से ज्यादा की अवधि के लिए अतिदेय होने की स्थिति में अनर्जक के रूप में वर्गीकृत किए जाते हैं । किंतु कृषि संबंधी प्रयोजनों के लिए दिए गए अग्रिम तभी अनर्जक परिसंपत्ति समझे जाते हैं जब ब्याज और/या मूलधन की किस्त "विगत देय" होने पर दो फसल मौसमों की अवधि, जो कि दो छमाहियों से अधिक न हो, के लिए बिना चुकाई रह जाए । भुगतान और निपटान प्रणालियों में सुधार, वसूली-वातावरण, बैंकिंग क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के उन्नयन आदि के कारण "विगत देय" की अवधारणा अब प्रासंगिक नहीं समझी जाती । अत: "विगत देय" की अवधारणा समाप्त की जा रही है । इसे 31 मार्च 2001 से लागू किया जाएगा ।

(ङ) जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण की ओर अभियान

अप्रैल के नीति-वक्तव्य के एक अंग के रूप में यह घोषित किया गया था कि रिज़र्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय पर्यवेक्षी सर्वोत्तम प्रथाएं समाविष्ट करते हुए जोखिम-आधारित पर्यवेक्षण (आरबीएस) की ओर अग्रसर होने की एक समग्र योजना विकसित करने के लिए प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय परामर्शदाताओं की सेवाएं लेगा । तदनुसार, यूके के अंतर्राष्ट्रीय विकास विभाग ने आरबीएस के लिए निधि प्रदान करने पर सहमति जताई है और एक अंतर्राष्ट्रीय परामर्शदाता नियुक्त किया है । उन्होंने अपनी गतिविधि जुलाई 2000 में शुरू की है । परामर्शदाताओं ने वर्तमान पर्यवेक्षी और नियामक ढांचे, नीतियों, दिशानिर्देशों, अनुदेशों, उपकरणों, तकनीकों, प्रणालियों, उपलब्ध सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी बुनियादी सुविधाओं और विभिन्न आंतरिक और बाह्य सहलग्नताओं की समीक्षा और मूल्यांकन आयोजित करके परियोजना का पहला चरण पूरा कर दिया । उन्होंने अपनी सिफारिशों और निष्कर्षों सहित अपनी प्रारूप-रिपोर्ट प्रस्तुत कर दी है । पहले चरण की सिफारिशों का जोर निरीक्षण-प्रक्रिया को अधिक जोखिम-आधारित दृष्टिकोण के अधिक अनुरूप बनाने के साथ-साथ जोखिम पर अधिक ध्यान देने के माध्यम से समग्र पर्यवेक्षण की वर्धित प्रभावोत्पादकता की ओर ले जाने वाले नियामक और पर्यवेक्षी ढांचे को व्यापक बनाने पर है । उनकी सिफारिशें आंकड़ा-प्रबंधन, पर्यवेक्षी प्रक्रिया, निरीक्षण, बैंकों को फीडबैक, बाह्य लेखापरीक्षा आदि महत्वपूर्ण क्षेत्रों के लेकर हैं । परियोजना के दूसरे चरण के दौरान परामर्शदाताओं से उक्त सिफारिशों के व्यावहारिक और परिचालनात्मक पहलू विकसित करने और एक नया जोखिम-आधारित पर्यवेक्षी ढांचा सुझाने की अपेक्षा है जिसमें विभिन्न चरणों को क्रमबद्ध करने और कार्यान्वयन के लिए समय-सीमा सुझाना शामिल है ।

(च) त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई संबंधी चर्चा-पत्र

नियामक स्थगन से बचने हेतु और यह सुनिश्चित करने के लिए कि सभी संस्थाओं के लिए हस्तक्षेप सुसंगत और समस्या की हद तक है, पर्यवेक्षकों द्वारा त्वरित प्रतिसाद के लिए विभिन्न प्रेरक बिंदुओं वाला एक त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई ढांचा तैयार किया गया है । इस ढांचे में पर्यवेक्षकों के लिए कुछ अधिदेशात्मक और विवेकसम्मत विषय है । सुधारात्मक कार्रवाइयों का कार्यक्रम तीन मानदंडों अर्थात् जोखिम भारित परिसंपत्तियों से पूंजी का अनुपात (सीआरएआर), निवल अनर्जक परिसंपत्तियां और परिसंपत्तियों पर प्रतिलाभ (आरओए), जो पूंजी-पर्याप्तता, परिसंपत्ति-गुणवत्ता और लाभप्रदता के तीन महत्वपूर्ण मानदंडों के द्योतक हैं, के आधार पर बनाया गया है । जब कभी किसी बैंक का कार्य-निष्पादन इन प्रेरक बिंदुओं को सक्रिय बनायेगा, तब तदुपरांत कुल अनिवार्य/विवेकाधीन कार्यवाही शुरू हो जायेगी । इन कार्य बिंदुओं द्वारा बैंकों की सुदृढ़ता में किसी भी कमी को पहले से ही दूर करने का प्रस्ताव है । व्यापक तौर पर चर्चा, बहस और टिप्पणियों के लिए उक्त पीसीए वेब साइट ैैै.ींi.दीु.iह पर रखा गया है । विशेषज्ञों और बाजार सहभागियों से प्राप्त टिप्पणियों और सुझावों के आलोक में इस योजना को अंतिम रूप दिया जाएगा ।

(छ) स्थूल विवेकसम्मत निर्देशक (एमपीआइ)

वित्तीय प्रणालियों की स्थिति और सुदृढ़ता को परंपरागत रूप से स्थूल विवेकसम्मत निर्देशकों द्वारा मापा गया है । वित्तीय क्षेत्र पर्यवेक्षक कैमेल्स (सीएएमईएलएस) ढ़ांचे पर आधारित स्थूल विवेकसम्मत निर्देशकों का अपना ढांचा काम में लाते रहे हैं । पूर्वी एशियाई संकट के बाद व्यष्टि-विवेकसम्मत निर्देशकों में रुचि बढ़ गई है तथा यह मान लिया गया है कि स्थूल विवेकसम्मत निर्देशकों सहित कुल व्यष्टि-विवेकसम्मत निर्देशक (एएमपीआइ) वित्तीय प्रणालियों की स्थिति और स्थिरता के बेहतर स्थूल-स्तरीय निर्देशक होंगे । स्थूल- विवेकसम्मत निर्देशकों के अंतर्गत एएमपीआइ और एमईआइ हैं । आंतरिक परिचालन के लिए प्रारंभ में एमपीआइ आंकड़ों का उपयोग करते हुए एक छमाही वित्तीय स्थिरता समीक्षा तैयार की जाएगी ।

(ज) व्यक्ति/समूह उधारकर्ताओं को ऋण की उपलब्धता

अक्तूबर 1999 की मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा में यह घोषणा की गई थी कि व्यक्ति उधारकर्ता के संबंध में ऋण की उपलब्धता की उच्चतम सीमा को 1 अप्रैल, 2000 से पूंजीगत निधियों के 25 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत कर दिया जाए तथा जहां (तत्कालीन) ऋण की उपलब्धता 20 प्रतिशत से अधिक हो, वहां बैंकों को चाहिए कि वे अक्तूबर 2001 के साथ समाप्त होनेवाली दो वर्ष की अवधि में 20 प्रतिशत तक उक्त स्तर को कम करें ।

सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं की तुलना में ऋण की उपलब्धता की सीमाओं के संबंध में चालू प्रक्रियाओं की समीक्षा यह दर्शाती है कि कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके संबंध में आगे और विचार किया जाना चाहिए । पहला प्रश्न ‘पूंजीगत निधियों’ की संकल्पना से संबंधित है, दूसरा ऋण की उपलब्धता का मापन, विशेष रूप से गैर-निधि और अन्य तुलनपत्र से हटकर इतर उपलब्धताओं की व्याप्ति के माप की गुंजाइश से संबंधित है; तथा तीसरा स्वयं ऋण की उपलब्धता के स्तर से ही संबंधित है । संबद्ध जटिलताओं को हिसाब में लेते हुए यह निर्णय किया गया है कि इस विषय पर एक विस्तृत चर्चा पत्र (डिस्कशन पेपर) तैयार किया जाए जो अन्य बातों के साथ-साथ सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं की तुलना में भारत में प्रचलित प्रथाओं तथा पक्ष-विपक्ष सहित संभावित वैकल्पिक दृष्टिकोणों और अन्य संबंधित पहलुओं से संबंधित समस्याओं का समाधान करे । यह चर्चा पत्र जिसे दिसंबर 2000 तक अंतिम रूप दिये जाने की आशा है, बैंक के बीच परिचालित किया जाएगा । इन प्रश्नों पर प्राप्त टिप्पणियों और सुझावों के आधार पर तथा उसके बाद बैंकों के साथ विचार-विमर्श करके भारतीय रिज़र्व बैंक उस दृष्टिकोण के संबंध में अंतिम निर्णय लेगा जो मार्च 2002 के अंत तक लागू करने के उद्देश्य से अपनाया जाना चाहिए ।

बैंकों द्वारा ईक्विटी वित्तपोषण
और शेयरों में निवेश

45. भारतीय रिज़र्व बैंक और सेबी के अधिकारियों से युक्त स्थायी तकनीकी समिति ने, जिससे बैंक द्वारा ईक्विटियों के वित्तपोषण और शेयरों में निवेश की एक पारदर्शी और स्थिर प्रणाली के लिए परिचालनगत मार्गदर्शी सिद्धांत विकसित करने का अनुरोध किया गया था, अगस्त 2000 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । यह रिपोर्ट भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा जनसाधारण के अभिमतों के लिए प्रसारित की गई । उक्त समिति द्वारा किये गये प्रस्तावों पर विशेषज्ञों और अन्य बाजॉर सहभागियों से प्राप्त टिप्पणियों एवं सितंबर 2000 में प्रमुख बैंकों के मुख्य कार्यपालकों के साथ भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा आयोजित बैठक में बैंकों द्वारा व्यक्त किये गये विचारों के आधार पर भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा मार्गदर्शी सिद्धांतों का प्रारूप तैयार किया गया जिसे चुनिंदा बैंकों के बीच एक बार फिर परिचालित किया गया तथा इसे बैंेकों, वित्तीय संस्थाओं और अन्य बाज़ार सहभागियों से उनके अभिमत प्राप्त करने हेतु आरबीआइ वेबसाइट पर भी रखा गया । बैंकों और अन्य बाज़ार सहभागियों से प्राप्त प्रतिसूचना (फीडबैक) के आधार पर बैंकों द्वारा ईक्विटियों का वित्तपोषण और शेयरों में निवेश पर मार्गदर्शी सिद्धांतों को अब अंतिम रूप दे दिया गया है । ये मार्गदर्शी सिद्धांत संलग्नक III में दिये गये हैं ।

46. यह उम्मीद है कि इन मार्गदर्शी सिद्धांतों से बैंकों के बोर्डों को उनके अलग-अलग निहित जोखिमों को हिसाब में लेते हुए उपयुक्त परिचालनगत दिशानिर्देश बनाने में तथा ईक्विटी बाजार में बैंकों द्वारा निवेशों के लिए, उचित विवेकसम्मत विचार से अधिक स्थिर और दीर्घावधिक व्यवस्था करने में मदद मिलेगी । भारतीय रिज़र्व बैंक-सेबी तकनीकी समिति छह महीने के बाद चुनिंदा बैंकों के साथ सलाह-मशविरा करके, इन नये मार्गदर्शी सिद्धांतोंं की वास्तविक कार्यपद्धति की परिचालनगत समीक्षा करेगी । यदि परिचलानगत क्रियाविधियों और/या समग्र रूपरेखा में कोई परिवर्तन लाना जरूरी हो तो समिति की सिफारिशों को व्यापक रूप से परिचालित किया जाएगा और सभी संबंधितों से इस बारे में विचार-विमर्श किया जाएगा ।

विदेशी मुद्रा अर्जक विदेशी मुद्रा खाता
(ईईएफसी) सुविधा की समीक्षा

47. 14 अगस्त 2000 से बैंकों को इस बात की अनुमति दी गई है कि वे निर्यात-उन्मुख इकाइयों, निर्यात प्रसंस्करण क्षेत्र, सॉफ्टवेयर टेक्नॉलोजी पार्क या इलैक्ट्रॉनिक हाड़वेयर टेक्नॉलोजी पार्क की इकाइयों के ईईएफसी खाते में आवक प्रेषणों का 35 प्रतिशत तथा अन्यों के संबंध में आवक प्रेषणों का 25 प्रतिशत जमा करें । इसके पहले, इनकी पात्रताएं क्रमश: 70 प्रतिशत और 50 प्रतिशत थीं । समीक्षा करने के बाद त्वरित निर्यात-संबंधी भुगतानों को सुसाध्य बनाने के लिए और लेनदेन लागतों को कम करने के लिए यह निर्णय किया गया है कि पहले की क्रमश: 70 प्रतिशत और 50 प्रतिशत की पात्रताओं को पूर्णत: पुन: चालू किया जाए । इन खातों से जो भुगतान किये जा सकते हैं, वे भी पहले की ही तरह बने रहेंगे ।

48. चूंकि उक्त खातों की शेष राशियां खाता-धारकों द्वारा अपने चालू खाता व्यापार लेनदेनों और अन्य अनुमतिप्राप्त भुगतानों के लिए उपयोग में लाने के लिए हैं, अत: ईईएफसी खाते (मौजूदा खातों सहित) अब से चालू खातों के रूप में रखे जाएंगे । निर्यातकों की सुविधा के लिए इन खातों के संबंध में चेक जारी करने की सुविधा का उपलब्ध होना जारी रहेगा । उक्त ईईएफसी शेष राशियों की जमानत पर बैंकों द्वारा कोई भी ऋण-सुविधा चाहे निधि-आधारित हो या गैर निधि-आधारित, उपलब्ध नहीं करायी जायेगी ।

ऋण वितरण तंत्र

49. ऋण वितरण तंत्र कार्यविधियों में सुधार लाकर और उन्हें सरल बनाकर तथा प्रलेखीकरण को कम करके और निर्णय लेने की प्रक्रिया के विकेंद्रीकरण को इस प्रकार बढ़ाकर कि जिससे लक्ष्यीकृत क्षेत्र यानी कृषि, निर्यात, समष्टि-ऋण संस्थाएं और लघु उद्योग किसी अनुचित समस्या के बिना ऋण प्राप्त हो सवे, सुदृढ़ बनाये गये हैं । इस दिशा में एक और कदम आगे बढ़ाते हुए निम्नलिखित उपाय किये जा रहे हैं :

(क) दंडात्मक ब्याज लगाना : अविनियमन

चालू अनुदेशों के अनुसार बैंकों द्वारा लगाये जानेवाले समग्र दंडात्मक ब्याज/ अतिरिक्त ब्याज के बारे में बैंकों को सूचित किया गया है कि वह संबंधित उधारकर्ताओं के लिए लागू/सामान्यत: प्रभारित ब्याज-दर से ऊपर 2 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए । यह उल्लेखनीय है कि उपर्युक्त अनुदेश जारी करने के बाद से ऋणों और जमाराशियों पर ब्याज-दरों को काफी अविनियमित किया गया है तथा बैंकों के बोर्डों को इस प्रकार अधिवार दिए गए हैं कि वे निधि की लागत, अंतर्निहित ऋण जोखिम, आदि को ध्यान में रखते हुए उधार ब्याज-दरों के संबंध में नीति बना लें । चूंकि बोर्डों को मूल उधार दर (पीएलआर) एवं पीएलआर स्प्रेड पर निर्णय करने के लिए अधिकार दिये गये हैं, अत: यह महसूस किया जाता है कि चुकौती में चूक, वित्तीय विवरण प्रस्तुत न करना, आदि कारणों के लिए लगाये जानेवाले दंडात्मक ब्याज के बारे में निर्णय भी प्रत्येक बैंक के बोड़ पर छोड़ दिया जाए । इससे बैंकों की परिचालनात्मक स्वायत्तता में भी वृद्धि होगी । अत: यह निर्णय किया गया है कि बैंक अपने बोर्डों के अनुमोदन के साथ, दंडात्मक ब्याज-दरें लगाने के लिए पारदर्शी नीति बनाएं । यह नीति पारदर्शिता, ईमानदारी, ऋण के शोधन के लिए प्रोत्साहन और ग्राहकों की वास्तविक कठिनाइयों का उचित रूप से ध्यान रखने के स्वीकृत सिद्धांतों द्वारा भली-भांति नियंत्रित होनी चाहिए ।

(ख) चीनी के मुक्त विक्रय के लिए
ऋण पर मार्जिन : अविनियमन

चयनात्मक ऋण नियंत्रण के अंतर्गत मार्जिनों का निर्धारण वर्तमान में केवल चीनी के संबंध में ही प्रचलित है । 22 अक्तूबर, 1997 से चीनी मिलों के पास मुक्त न किये गये चीनी के स्टॉकों के लिए जिसमें लेवी और मुक्त विक्रय वाले दोनों ही घटक शामिल हैं, अलग-अलग मार्जिन निर्धारित किये गये हैं । लेवी स्टॉक के लिए न्यूनतम मार्जिन 10 प्रतिशत निर्धारित है, जबकि मुक्त विक्रय वाली चीनी 15 प्रतिशत के मार्जिन के अधीन है । सुरक्षित भंडार (बफॅर स्टॉक) पर कोई मार्जिन नहीं है । बाजार की स्थितियों की समीक्षा करने पर तथा मार्जिन निर्धारित करने में बैंकों को लचीलापन प्रदान करने की दृष्टि से, मुक्त विक्रय वाली चीनी पर चयनात्मक ऋण नियंत्रण के अंतर्गत मौजूदा निर्धारित शर्तों को समाप्त करने का निर्णय किया गया है । मुक्त विक्रय वाली चीनी के संबंध में मार्जिनों का निर्णय बैंकों द्वारा अपने वाणिज्यिक विवेक के आधार पर किया जाएगा । लेवी स्टॉक के संबंध में निर्धारित 10 प्रतिशत मार्जिन और सुरक्षित भंडारों के संबंध में निर्धारित शून्य मार्जिन बिना किसी परिवर्तन के जारी रहेंगे ।

(ग) खाद्य ऋण के लिए सहायता संघ
व्यवस्था की समीक्षा

वर्तमान में, खाद्य ऋण का वितरण भारतीय स्टेट बैंक के नेतृत्व में एकल स्रोत सहायता संघ द्वारा किया जा रहा है । किंतु, भारतीय रिज़र्व बैंक, राज्य सरकारों और भारतीय खाद्य निगम द्वारा खाद्यान्न की अधिप्राप्ति के लिए सीमा निर्धारित करने, सहायता संघ के सदस्यों के बीच प्रतिशत हिस्सा तय करने और खाद्य ऋण पर लिए जानेवाले ब्याज की दर तय करने के संबंध में सहायता संघ व्यवस्था पर नियंत्रण रखता है । बैंकों तथा सरकार और अन्य उद्यमों को अधिक लचीलापन और परिचालनगत स्वतंत्रता प्रदान करने की मौजूदा नीति के मद्देनजर इन व्यवस्थाओं की समीक्षा करने का निर्णय लिया गया है । इस प्रयोजन के लिए बैंकों, भारतीय रिज़र्व बैंक, सरकार और भारतीय खाद्य निगम के प्रतिनिधियों की एक समिति बनाई जायेगी ।

(घ) निर्यात ऋण

जैसा कि भाग I में बताया गया है, निर्यातकों से सुझावों के लिए गए अनुरोध की प्रतिक्रिया में भारतीय रिज़र्व बैंक को निर्यातक संगठनों तथा निर्यातकों से अनेक सुझाव प्राप्त हुए । ये सुझाव मुख्य रूप से ऋण वितरण प्रणाली में आगे और सुधार लाने के लिए प्रक्रियात्मक स्वरूप के थे । इन सुझावों की बैंकरों के दल तथा भारतीय रिज़र्व बैंक ने जांच की तथा बैंकों से दल की सिफारिशों को लागू करने का अनुरोध किया जा रहा है ।

(ङ) बिल डिस्काउंटिंग संबंधी दल की
सिफारिशों की समीक्षा

श्री के.आर. राममूर्ति की अध्यक्षता में बैंकों द्वारा बिल डिस्काउंटिंग संबंधी कार्यकारी दल का गठन किया गया था । इस दल का कार्य अन्य बातों के साथ-साथ, सेवा क्षेत्र विशेषकर सूचना प्रौद्योगिकी, साफटवेयर सर्विसेज़, यात्रा और पर्यटन आदि जैसे उद्योगों को बिल डिस्काउंटिंग की सुविधा प्रदान करने की संभावना की जांच करना था । देश की अर्थ-व्यवस्था के स्वरूप में सेवा क्षेत्र द्वारा लाए जा रहे सुधारों को देखते हुए और इस बात को ध्यान में रखते हुए कि यह क्षेत्र असीमित रूप से वृद्धि करने और समग्र अर्थ-व्यवस्था में उल्लेखनीय रूप से योगदान देने के लिए पूरी तरह से तैयार है, इस दल ने बिल वित्तीयन से संबद्ध महत्वपूर्ण मामलों की विस्तार से जांच की और मौजूदा बिल डिस्काउंकटिंग प्रणाली को मजबूत बनाने और इसे सेवा-क्षेत्र तक बढ़ाये जाने की संभावना की जांच की । इस दल ने भारतीय संदर्भ में बिल वित्तीयन, बैंकर की स्वीकृति, बिल वित्तीयन-सेवा क्षेत्र और देश के वित्तीय क्षेत्र के सामने ई-कामर्स से आनेवाली चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए कई सिफारिशें कीं । इस कार्यकारी दल ने हाल ही में भारतीय रिज़र्व बैंक को अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है । यह पूरी रिपोर्ट रिज़र्व बैंक की वेबसाइट ैैै.ींi.दीु.iह पर डाली गयी है ताकि इस पर व्यापक रूप से विचार-विमर्श और चर्चा की जा सके । इस संबंध में प्राप्त फीडबैक और बाजार के सहभागियों के विचार-विमर्श से भारतीय रिज़र्व बैंक कार्यान्वयन के लिए उपयुक्त मार्गदर्शी सिद्धांत तैयार करेगा ।

(च) किसान क्रेडिट काड़

बजट घोषणा के अनुसरण में 1998 में कृषक उधारकर्ताओं के लिए किसान क्रेडिट काड़ जारी करने की एक नमूना योजना तैयार की गयी और सभी बैंकों को इसे लागू करने के लिए सूचित किया गया । यह योजना मुख्य रूप से किसानों की अल्पावधि ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए तैयार की गयी थी । सरकारी क्षेत्र के सभी बैंकों को, उनके लिए निर्धारित वार्षिक लक्ष्य के भीतर मासिक लक्ष्य निर्धारित करने और समग्र लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कार्य-योजना तैयार करने के लिए कहा गया ।

(छ) स्वर्ण जयंती ग्राम स्वरोजगार योजना
(एसजीएसवाय) का कार्यान्वयन

वर्ष 1999-2000 एसजीएसवाय के कार्यान्वयन का पहला वर्ष था । यह योजना 1 अप्रैल, 1999 से लागू की गयी और योजना के तत्काल कार्यान्वयन के लिए रिज़र्व बैंक द्वारा बैंकों को विस्तृत मार्गदर्शी सिद्धांत जारी किये गये । सरकारी क्षेत्र के बैंकों को यह भी सूचित किया गया कि वे इस योजना और इसके कार्यान्वयन पर विचार-विमर्श के लिए विशेष कार्यशालाएं आयोजित करें । बैंकों को आवधिक रूप से योजना की प्रगति पर निगरानी रखने तथा इसकी सफलता के लिए तत्परता से प्रयास करने के लिए कहा गया ।

(ज) स्वयं सहायता समूह

वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में महिलाओं, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों सहित अति-संवदनशील क्षेत्रों द्वारा ग्रामीण क्षेत्रों में लघु उद्यम लगाने के लिए विशेष बल देने के संबंध में घोषणा की । वर्ष 1999-2000 में बैंकाें द्वारा स्वयं सहायता समूहों को ऋण संयोजन और ऋण के वितरण के मामले, पिछले वर्ष के अंत पर, नाबाड़ कार्यकम के अंतर्गत, संचयी निष्पादन के दुगुने से अधिक थे । वर्ष 2000-01 के दौरान नाबाड़ और सिडबी द्वारा और एक लाख स्वयं सहायता समूहों को शामिल करने की घोषणा की गयी । बैंकों को सूचित किया गया कि भारतीय रिज़र्व बैंक के 3 मार्च, 2000 के परिपत्र के अनुसार स्वयं सहायता समूहों को अधिकतम सहयोग दिया जाये ।

(झ) लघु उद्योग

वित्त मंत्री ने 29 फरवरी, 2000 के अपने बजट भाषण में यह घोषणा की कि सरकारी क्षेत्र के बैंकों को लघु उद्योग शाखाएं खोलने के अपने कार्यक्रम में तेजी लानी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो कि प्रत्येक ज़िले तथा ज़िलों के भीतर लघु उद्योग समूहों की सेवा करने के लिए, कम-से-कम ऐसी एक शाखा हो । जिलों के अग्रणी बैंकों को यह कहा गया कि वे अपने-अपने जिलों में इन शाखाओं को शुरू करने के लिए कदम उठाएं । इसके लिए वे या तो नई शाखाएं खोल सकते हैं अथवा मौजूदा शाखाओं को परिवर्तित कर सकते हैं । प्रत्येक राज्य में राज्यस्तरीय बैंकर समिति के संयोजक बैंक को अपने-अपने राज्य में हुई प्रगति पर निगरानी रखने के लिए कहा गया है । सरकारी क्षेत्र के बैंकों को यह भी सूचित किया गया कि वे 31 दिसंबर, 2000 तक लघु उद्योग शाखाओं को खोलने/शुरू करने की कार्रवाई पूरी करें ।

गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां

50. पंजीकरण के लिए जिन 37,212 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से आवेदन प्राप्त हुए उनमें से बैंक ने अब तक 702 जमा स्वीकार करनेवाली कंपनियों का पंजीकरण किया है और उन्हें जनता से जमाराशियां स्वीकार करने की अनुमति दी गयी है । इसके अतिरिक्त, जनता से जमाराशियां स्वीकार न करनेवाली कंपनियों के वर्ग में 9,857 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का भी पंजीकरण किया गया है । 10 जनवरी 2000 को 25 लाख रुपये की निवल स्वाधिकृत निधि (एनओएफ) की न्यूनतम निर्धारित राशि प्राप्त करने की समय-सीमा समाप्त होने से बैंक को 8,027 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों से आवेदन प्राप्त हुए जिन्होंने 25 लाख रुपए की निवल स्वाधिकृत निधि प्राप्त करने की सूचना दी है । इसके अतिरिक्त, 2,207 गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों ने समय-सीमा बढ़ाने के लिए आवेदन किया है । बैंक इस समय ऐसी गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के आवेदनों की प्रोसेसिंग कर रहा है जिनकी निवल स्वाधिकृत निधि 10 जनवरी, 2000 को 25 लाख रुपए से कम थी । बैंक द्वारा पहले ही यह घोषणा की गयी है कि प्रत्येक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी के गुण-दोष के आधार पर ही समय बढ़ाने के अनुरोध पर विचार किया जायेगा । पंजीकरण के लिए अपेक्षित मानदंडों पर खरा न उतर पाने के कारण बैंक ने 15,727 कंपनियों के आवेदन तो रद्द किये ही हैं, साथ ही बैंक ने जनता से जमाराशियां स्वीकार करने पर रोक, कानूनी कार्रवाई करना, दोषी कंपनियों के खिलाफ समापन याचिका दायर करना आदि अनेक और कदम भी उठाये हैं ।

(क) गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों
के लिए विनियामक मानदंड

गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का स्वनियंत्रक संगठन बनाने के लिए रिज़र्व बैंक गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के संघों के साथ विचार-विमर्श कर इसके लिए तौर-तरीके तैयार कर रहा है । गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनी उद्योग के विचार जानने के लिए परिसंपत्ति देयता प्रबंधन के मार्गदर्शी सिद्धांतों का प्रारूप और इन कंपनियों के लिए अलग तुलन-पत्र के फार्मेट गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के अनौपचारिक सलाहकार दल के सदस्यों के बीच परिचालित किये गये । गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के लिए प्रकटीकरण संबंधी मानदंडों और जोखिम प्रबंधन संबंधी दिशा-निर्देशों को व्यवस्थित रूप देने के लिए आगे और कदम उठाए जाएंगे ।

(ख) परिसंपत्ति प्रतिभूतिकरण संबंधी कार्य-दल

भारतीय वित्त प्रणाली में परिसंपत्ति प्रतिभूतिकरण के लिए मार्गदर्शी सिद्धांत तय करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा नियुक्त परिसंपत्ति प्रतिभूतिकरण संबंधी कार्य-दल ने दिसंबर 1999 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की । कार्य-दल की विभिन्न सिफारिशों को अल्पावधि, मध्यावधि और दीर्घावधि सिफारिशों के रूप में अलग-अलग किया गया और प्रत्येक वर्ग के लिए निश्चित समय-सीमा तय की गयी है । मुख्य रूप से सिफारिशें विभिन्न संविधियाें से संबद्ध कानूनी ढांचे में परिवर्तन करने, प्रतिभूतिकरण कार्रवाई के लिए कर-तटस्थता, स्टॉम्प शुल्क का युक्तिकरण और पंजीकरण प्रभारों को कम करना, उपयुक्त लेखाकरण नीतियां और विवेकपूर्ण मानदंड, दस्तावेजों का मानकीकरण, विशेषीकृत वित्तीय बिचौलियों का विकास आदि से संबंधित हैं । उपर्युक्त सिफारिशों को अमल में लाने के लिए रूपरेखा तैयार करने के लिए रिज़र्व बैंक ने एक कार्यान्वयन समिति गठित की है ।

प्रौद्योगिकी उन्नयन

51. भारतीय रिज़र्व बैंक देश में भुगतान और निपटान प्रणाली के सुधार में केंद्रीय भूमिका अदा कर रहा है । मौजूदा भुगतान प्रणाली को समेकित करने, भुगतान की तकनीकी रूप से उन्नत विधि विकसित करने और विभिन्न भुगतान एवं निपटान प्रणालियों को एक सक्षम और एकीकृत प्रणाली में परिवर्तित कर देने के अंतिम उद्देश्य की ओर उन्मुख होने में काफी प्रगति हुई है जो ऑन-लाइन वास्तविक समय के माहौल में कार्य करेगी । इसके लिए निम्नलिखित उपाय लागू किये गये हैं :

(क) "भुगतान प्रणाली विज़न
दस्तावेज" तैयार करना

इस दस्तावेज में अगले 2/3 वर्षों में अपनाये जाने वाले प्रस्तावित भुगतान प्रणाली संबंधी कार्यसूची का ब्यौरा होगा । यह विज़न दस्तावेज अत्यधिक मूल्य के अंतर-बैंक निधि अंतरणों को प्रभावित करने वाले सिस्टम की दृष्टि से महत्वपूर्ण भुगतान प्रणाली संबंधी एप्लिकेशनों के कार्यान्वयन पर बल देगा । इसमें सूचना प्रवाह तथा निधियों के आवागमन के लिए इन्फिनेट के विस्तृत प्रयोग का ब्यौरा होगा । इसमें बैंकों की सूचना प्रौद्योगिकी संबंधी योजनाओं को इन्फिनेट के साथ जोड़ने की आवश्यकता का ब्यौरा भी होगा ।

(ख) इंटरनेट बैंकिंग पर कार्य-दल

बैंक ने इंटरनेट बैंकिंग पर एक आंतरिक दल गठित किया है । इस दल के लिए निर्धारित कार्य इस प्रकार हैं : संगठन और बैंकिंग प्रणाली की जोखिमों को पहचानना; एक उपयुक्त पर्यवेक्षी तथा विधिक ढांचे के लिए सुझाव देना; सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं को अपनाये जाने के उपायों को सुझाना; अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप पर्याप्त सुरक्षा प्रणालियों की सिफारिशें करना; और इलैक्ट्रॉनिक बैंकिंग और इलैक्ट्रॉनिक धन अंतरणों के लिए समाशोधन और निपटान व्यवस्था के लिए सुझाव देना । वाणिज्य बैंकों से अनुरोध है कि वे उक्त कार्य-दल द्वारा विचार किये जाने हेतु अपने सुझाव भेजें ।

(ग) समाशोधन समाधान अंतरों को कम करने
हेतु इमैजिंग प्रौद्योगिकी का प्रयोग

चार महानगरों में, जहां बैंक द्वारा माइकर परिचलन का कार्य किया जा रहा है, रिज़र्व बैंक ने ग्रेस्केल इमैजिंग प्रौद्योगिकी लागू करने की तैयारी पूरी कर ली है जो समाशोधन गृह के सदस्यों के लिए मूल्य-वर्धित सेवा होगी । इमैजिंग के लाभ अनेक हैं । प्रथमत:, इससे रीडर सोर्टरों से गुजरे चेकों के रिकाड़ के सृजन में मदद मिलती है । यह समाधान प्रक्रिया में सहायक होगा । महत्वपूर्ण बात यह है कि इमैजिंग मानदंडों को संदेहास्पद लिखतों को ढूंढ़ निकालने हेतु सेट किया जा सकता है ।

(घ) चेक विच्छेदन के पूर्वोपाय के
रूप में इमैजिंग का कार्य

चेक विच्छेदन से पेपर भुगतान लिखतों को प्रस्तुतकर्ता बैंक के स्तर पर ही रखा जा सकेगा । इससे नेटवर्क पर केवल लिखित का इमैज ही संचारित होगा । इससे लिखतों, विशेषकर शहर के भीतर के चेकों की उगाही में लगनेवाला समय काफी हद तक कम हो जाएगा । तथापि, चेक विच्छेदन को लागू करने के लिए परक्राम्य लिखत अधिनियम में संशोधन किया जाना आवश्यक है ताकि भुगतानकर्ता बैंंकर को वास्तविक रूप से लिखतों को प्रस्तुत किये जाने की आवश्यकता को दूर किया जा सके । राष्ट्रीय भुगतान परिषद दौरा विधिक मामलों पर गठित कार्य-दल विभिन्न अधिनियमों में संशोधनों की आवश्यकता और बहुविध इलैक्ट्रॉनिक भुगतानों के विनियमन के लिए नये नियम बनाने की आवश्यकता पर विचार कर रहा है ।

विधिक सुधार

52. सूचना और संचार प्रौद्योगिकियों में तीव्र गति से हुए विकास के कारण, वित्तीय प्रणाली निरंतर हो रहे परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रही है । इन घटनाक्रमों के अनुसरण में कार्य संचालन के लिए केंद्रीय बैंकों के लिए यह महत्वपूर्ण है कि उन्हें परिचालनात्मक, विनियामक और पर्यवेक्षी ढांचों को उपयुक्त रूप से पुनरोन्मुख करने के लिए पर्याप्त लचीलापन हो । केंद्रीय वित्त मंत्री ने भी फरवरी 2000 में अपने बजट भाषण में मौद्रिक नीति के संचालन में अधिक लचीलापन प्रदान करने की आवश्यकता को रेखांकित किया है । भारतीय रिज़र्व बैंक इस संबंध में भारतीय रिजॅर्व बैंक अधिनियम, 1934 और बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949 में संशोधनों के प्रस्तावों के संबंध में कार्रवाई कर रहा है ।

अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानक और कोड

53. जैसा कि अप्रैल के नीतिगत वक्तव्य में उल्लेख किया गया है, अंतर्राष्ट्रीय घटनाक्रमों के संदर्भ में तैयार किये जा रहे वैश्विक मानकों और कोडों में हो रही गतिविधियों को पहचानने और उनपर निगरानी रखने तथा इन मानकों व कोडों की भारतीय वित्तीय प्रणाली में प्रयोज्यता और भारत के मानकों और प्रथाओं को सर्वोत्ततम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं से जोड़ने हेतु दिशानिर्देश तैयार करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय मानकों तथा कोडों पर एक स्थायी समिति का गठन किया गया । इस स्थायी समिति की मदद के लिए चालू वर्ष के प्रारंभ में दस प्रमुख विषय-क्षेत्रों में सलाहकार समूह गठित किये गये । इन दस सलाहकार समूहों में से "मौद्रिक और वित्तीय नीतियों में पारदर्शिता" पर गठित सलाहकार समूह ने सितंबर 2000 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की है । इस समूह ने मौद्रिक नीति तैयार करने और उसके कार्यान्वयन में पारदर्शिता सहित कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों की स्पष्टता से संबंधित मामलों की विस्तार से जांच की है । "भुगतान और निपटान प्रणाली", "बैंकिंग पर्यवेक्षण" और "बीमा विनियमन" पर गठित सलाहकार समूहों ने भी अपनी-अपनी रिपोर्टों का प्रथम भाग प्रस्तुत किया है । "भुगतान और निपटान प्रणाली" संबंधी रिपोर्ट अंतर-बैंक भुगतान और निपटान प्रणाली, जिसमें स्थायी सिद्धांत और केंद्रीय बैंक के उत्तरदायित्व शामिल हैं, के मामलों से संबंधित है । "बैंकिंग पर्यवेक्षण" संबंधी रिपोर्ट में बैंकिंग विनियमन के चार क्षेत्रों अर्थात् बैंकों में कार्पोरेट प्रबंधन, भारतीय बैंकिंग में पारदर्शिता की प्रथाओं, सीमा-पार बैंकिंग के पर्यवेक्षण और बैंकों द्वारा अपनायी जा रही आंतरिक दर-निर्धारण प्रथाओं के संबंध में विस्तृत ब्यौरा और सिफारिशें प्रस्तुत की गयी हैं । "बीमा विनियम" संबंधी रिपोर्ट प्रमुख्यत: बीमा पर्यवेक्षकों के अंतर्राष्ट्रीय संघ द्वारा निर्धारित मानकों और ओईसीडी द्वारा जारी बीमा संबंधी बीस दिशानिर्देशों के परिप्रेक्ष्य में बीमा कंपनियों के लाइसेन्सीकरण के विभिन्न प्रावधानों से संबंधित है । इन सलाहकार समूहों की रिपोर्टें बैंक के वेबसाइट ैैै.ींi.दीु.iह पर उपलब्ध हैं ।

54. "लेखांकन और लेखा-परीक्षा" पर गठित सलाहकार समूह की रिपोर्ट में लेखांकन और लेखा-परीक्षा में पारदर्शिता संबंधी प्रथाओं, भारत में अंतर्राष्ट्रीय लेखांकन मानकों के अनुपालन की स्थिति और यूएस-जीएएपी को अपनाये जाने संबंधी विभिन्न मामलों का प्रतिपादन है । यह आशा की जाती है कि यह समूह नवंबर 2000 तक अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करेगा ।

55. शेष पांच सलाहकार समूहों, अर्थात् "कार्पोरेट प्रबंधन", "डाटा संचरण", "धन शोधन अक्षमता विधि", "राजकोषीय पारदर्शिता" और "प्रतिभूति बाज़ार विनियमन" पर गठित सलाहकार समूहों ने उल्लेखनीय प्रगति हासिल की है और यह आशा की जाती है कि ये सलाहकार समूह अपनी रिपोर्टों को नवंबर 2000 तक अंतिम रूप देंगे ।

विनियम समीक्षा प्राधिकरण

56. रिज़र्व बैंक इस अवसर पर बैंकरों, विशेषज्ञों, बाज़ार के सहभागियों और जन-सदस्यों के प्रति आभार व्यक्त करना चाहता है जिन्होंने अप्रैल 1999 में बैंक द्वारा गठित विनियम समीक्षा प्राधिकरण को अपने सुझाव भेजे हैं । विनियम समीक्षा प्राधिकरण ने अपने कार्यकाल का डेढ़ साल पूरा किया है और उसे प्राप्त सुझावों के आधार पर उसने रिज़र्व बैंक के कई नियमों, विनियमों और रिपोर्टिंग प्रणाली की समीक्षा की है । इस अवधि में, विनियम समीक्षा प्राधिकरण को 235 आवेदन प्राप्त हुए जिनमें बैंक के विभिन्न परिचालन क्षेत्रों से संबंधित 400 से अधिक सुझाव निहित हैं । इन सुझावों के कार्यान्वयन के फलस्वरूप चालू वर्ष (अप्रैल-सितंबर 2000) के दौरान हुई कुछ महत्वपूर्ण गतिविधियां इस प्रकार हैं : (क) बैंक से सूचना मांगनेवालों के लाभार्थ बैंक में इलैक्ट्रॉनिक रूप में एक व्यापक व प्रभावी सूचना प्रेषण प्रणाली स्थापित की गयी, (ख) राहत बांडों में निवेश करनेवालों के लाभार्थ नामांकन सुविधा, आदि से संबंधित बैंक के अनुदेशों में संशोधन किये गये, (ग) बैंकों द्वारा उगाही के लिए प्रेषित स्थानीय/बाहरी लिखतों को उसी दिन जमा करने की सीमा को 5,000 रुपए से 7,500 रुपए तक बढ़ाया गया, (घ) अनुसूचित वाणिज्य बैंकों को उनकी सीआरआर शेष राशियों पर ब्याज के त्वरित भुगतान की क्रियाविधि को सरल और कारगर बनाया गया और (ङ) जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों द्वारा अनिवासी बाह्य रुपया खातों को खोलने और उनके रखरखाव के लिए निर्धारित पात्रता के मानदंडों में ढील दी गयी ।

57. विनियम समीक्षा प्राधिकरण के तत्त्वावधान में, बैंकों तथा संस्थाओं द्वारा अनुपालन के महत्वपूर्ण क्षेत्रों के संबंध में तैयार किये जा रहे कई मास्टर परिपत्रों में से निवेश मानदंडों से संबंधित परिपत्र जारी किया जा चुका है और अन्य परिपत्रों को विभिन्न स्तरों पर अंतिम रूप दिया जा रहा है ।

58. विनियम समीक्षा प्राधिकरण का कार्य-संचालन 31 मार्च, 2001 को औपचारिक रूप से समाप्त हो जाएगा । तथापि, रिज़र्व बैंक के विभिन्न विभाग कार्य-पद्धतियों को और सरल बनाने, कागजी कार्रवाई को कम करने और सेवा में सुधार लाने के अपने प्रयास जारी रखेंगे । बैंकरों और अन्यों से सुझावों का स्वागत किया जाएगा ।

मुंबई

10 अक्तूबर 2000


संलग्नक-I

वाणिज्यिक पत्र जारी करने के लिए मार्गदर्शी सिद्धांतों का सारांश

पात्रता: कार्पोरेट, प्राथमिक व्यापारी, सटेलाइट व्यापारी और अखिल भारतीय वित्तीय संस्थाएं; कार्पोरेट की पात्रता के लिए (क) भौतिक निवल मूल्य 4 करोड़ रुपए, (ख) किसी बैंक/वित्तीय संस्था से स्वीकृत कार्यशील पूंजी सीमा; तथा (ग) उधारी खाता, मानक-परिसंपत्ति वाला हो ।

दर्जा-निर्धारण (रेटिंग) अपेक्षाएं: न्यूनतम क्रेडिट रेटिंग क्रिसिल की पी-2 हो अथवा अन्य अनुमोदित एजेंसी की समतुल्य रेटिंग ।

परिपक्वता: न्यूनतम 15 दिन और अधिकतम एक वर्ष तक ।

मूल्य-वर्ग: न्यूनतम 5 लाख रुपए और उसके गुणज में ।

सीमा और राशि: वाणिज्यिक पत्र "स्टैण्ड अलोन" प्रोडक्ट के रूप में जारी किया जा सकता है । बैंकों और वित्तीय संस्थाओं को छूट होगी कि वे कंपनी के वाणिज्यिक पत्रों सहित उनके वित्तपोषण के संसाधन-पैटर्न को विधिवत ध्यान में रखते हुए कार्यशील पूंजी सीमा निर्धारित करें ।

जारीकर्ता और भुगतानकर्ता एजेंट (आईपीए): केवल अनुसूचित बैंक आईपीए के रूप में कार्य कर सकते हैं ।

वाणिज्यिक पत्र में निवेश: वाणिज्यिक पत्र कोई व्यक्ति, बैंक, कार्पोरेट, अनियमित निकाय, अनिवासी भारतीय और विदेशी संस्थागत निवेशक रख सकता है ।

जारी करने की विधि: वाणिज्यिक पत्र एक वचनपत्र के रूप में या डीमैट रूप में जारी किया जा सकता है । हामीदारी की अनुमति नहीं है ।

डीमैट को वरीयता: जारीकर्ताओं और ग्राहकों को प्रोत्साहित किया जाता है कि वे खास तौर से इसके डीमैट रूप पर निर्भरता को तरजीह दें । बैंकों, वित्तीय संस्थाओं, प्राथमिक व्यापारियों, सटेलाइट व्यापारियों को सूचित किया जाता है कि वे व्यवस्था लागू होते ही केवल अमूर्त रूप में निवेश करें ।

आपाती (स्टैण्ड-बाइ) सुविधा: बैंकों/वित्तीय संस्थाओं के लिए अनिवार्य नहीं है कि वे आपाती सुविधा उपलब्ध करवाएं । उन्हें यह छूट है कि वे विवेकपूर्ण मानदंडों के अधीन ऋण विस्तार सुविधा उपलब्ध करवाएं ।

भूमिका और दायित्व: ये मार्गदर्शी सिद्धांत जारीकर्ता, आईपीए एवं क्रेडिट रेटिंग एजेंसी की भूमिका और उनके दायित्व निर्धारित करते हैं । फिमडा (एफआईएमएमडीए), स्वनियंत्रक संगठन के रूप में अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम प्रथाओं के अनुरूप मानकीकृत क्रियाविधि एवं प्रलेखन का निर्धारण कर सकते हैं । तब तक भारतीय बैंक संघ द्वारा निर्धारित क्रियाविधि/प्रलेखन अपनाया जाए ।

संलग्नक-II

बैंक के निवेशों के वर्गीकरण और मूल्यांकन से संबंधित मार्गदर्शी सिद्धांतों का सारांश

बैंक के निवेश संविभाग का एसएलआर और गैर-एसएलआर समूह में वर्गीकरण निम्नलिखित ब्योरे के अनुसार किया जाएगा । प्रस्तावित मार्गदर्शी सिद्धांत 30 सितंबर, 2000 को समाप्त छमाही से लागू होंगे ।

अ.वर्गीकरण:

1) बैंकों के संपूर्ण निवेश संविभाग (एसएलआर प्रतिभूतियों एवं गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों सहित) को तीन श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाएगा अर्थात् ‘परिपक्वता तक धारित’, ‘विक्रय के लिए उपलब्ध’ और ‘व्यापार के लिए धारित’ । प्रत्येक श्रेणी के अंतर्गत छह-वर्गों में वर्गीकरण करना, यदि लागू हो, जारी रहेगा जैसा कि अभी तक जारी था । फलस्वरूप, तुलनपत्र में निवेश वर्तमान छह वर्गों (क) सरकारी प्रतिभूतियां, (ख) अन्य अनुमोदित प्रतिभूतियां, (ग) शेयर, (घ) डिबेंचर और बाण्ड, (ङ) अनुषंगी एवं संयुक्त उद्यम और (च) अन्य, में दिखलाया जाता रहेगा ।

डपरिभाषा : बैंकों द्वारा परिपक्वता तक रखे जाने के आशय से प्राप्त की गई प्रतिभूतियों को परिपक्वता तक धारित के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाएगा । बैंकों द्वारा अल्पकालीन मूल्य/ब्याज दर में उतार-चढ़ाव के फायदे उठाने के लिए व्यापार करने के आशय से प्राप्त की गई प्रतिभूतियों को व्यापार के लिए धारित के अंतर्गत वर्गीकृत किया जाएगा । ऐसी प्रतिभूतियां जो उक्त दो वर्गों में नहीं आती हैं उन्हें विक्रय के लिए उपलब्धके अंतर्गत वर्गीकृत किया जाएगा ।

2) बैंक इसे प्राप्त करते समय ही उसका निवेश-वर्ग निश्चित करें और अपने निर्णय को निवेश प्रस्ताव पर दर्ज करें ।

परिपक्वता तक धारित

  1. ‘परिपक्वता तक धारित’ के अंतर्गत वर्गीकृत निवेश में निम्नलिखित शामिल होंगे :
    1. पुनर्पूंजीकरण बाण्ड
    2. अनुषंगी और संयुक्त उद्यमों में निवेश
    3. डिबेंचरों में निवेश जिसे अग्रिम के रूप में समझा जाता है ।
    4. कोई अन्य निवेश जिसे बैंक इस श्रेणी में शामिल करना चाहे । ऐसे निवेश कुल निवेश के 25 प्रतिशत से अधिक नहीं होंगे और उसमें उक्त (i), (ii) एवं (iii) में निर्दिष्ट निवेश शामिल नहीं होंगे ।

4) जिन बैंकों ने अपने एसएलआर संविभाग का 75 प्रतिशत पहले ही मार्क-टू-मार्केट कर चुके हैं उन्हें इस श्रेणी के अंतर्गत स्वीकार्य स्तर तक अपने निवेश को पुन: वर्गीकृत करने का विकल्प दिया जाएगा ।

5) इस श्रेणी में निवेश विक्रय से होने वाले लाभ को पहले लाभ और हानि खाता में लिया जाएगा और उसके बाद ‘पूंजी आरक्षित निधि खाता’ में समायोजित किया जाएगा । विक्रय से होने वाली हानि को लाभ और हानि खाता में दिखाया जाएगा ।

विक्रय के लिए उपलब्ध और व्यापार के लिए धारित

6) बैंकों को विक्रय के लिए उपलब्ध और व्यापार के लिए धारित श्रेणियों के अंतर्गत अपनी धारिता की सीमा तय करने की स्वतंत्रता होगी । यह निर्णय वे विभिन्न पहलुओं जैसे उद्देश्य का आधार, व्यापार योजनाओं, जोखिम प्रबंध क्षमता, कर-योजना, श्रमशक्ति कौशल एवं पूंजीगत स्थिति को ध्यान में रखने के बाद करेंगे ।

7) व्यापार के लिए धारित श्रेणी के अंतर्गत वर्गीकृत निवेशों को 90 दिन के भीतर विक्रय करना है । यदि बैंक अपवादात्मक परिस्थितियों जैसे दुर्लभ चलनिधि स्थिति, या अत्यधिक अस्थिरता, या बाज़ार के एकदिशीय हो जाने पर प्रतिभूति नहीं बेच पाता है तो प्रतिभूति को विक्रय के लिए उपलब्ध श्रेणी में अंतरित कर दिया जाए ।

8) उक्त दोनों श्रेणियों में निवेशों के विक्रय से होने वाले लाभ या हानि को लाभ और हानि खाते में लिया जाएगा ।

आ. श्रेणीगत अंतरण

9) बैंक वर्ष में एक बार निदेशक मण्डल के अनुमोदन से निवेशों को परिपक्वता तक धारित श्रेणी में/से अंतरित कर सकते हैं । ऐसे अंतरण की अनुमति आमतौर से लेखा वर्ष के शुरू में दी जाएगी । लेखा वर्ष की शेष अवधि के दौरान इस श्रेणी को/से अंतरण की और अनुमति नहीं दी जाएगी ।

10) बैंक अपने निदेशक मण्डल/परिसंपत्ति-देयता समिति/निवेश समिति के अनुमोदन से निवेशों को विक्रय के लिए उपलब्ध श्रेणी से व्यापार के लिए धारित श्रेणी में अंतरित कर सकते हैं ।

11) आमतौर से निवेशों को व्यापार के लिए धारित श्रेणी से विक्रय के लिए उपलब्ध श्रेणी में अंतरित करने की अनुमति नहीं है । तथापि, केवल मद 7 में दी गई अपवादात्मक परिस्थितियों में निदेशक मण्डल/परिसंपत्ति-देयता समिति/निवेश समिति के अनुमोदन पर इसकी अनुमति दी जाएगी ।

12) सभी परिस्थितियों में प्रतिभूतियों का एक श्रेणी से दूसरी श्रेणी में अंतरण उसके अंतरण किए जाने की तारीख को उसकी अभिग्रहण लागत/अंकित-मूल्य/बाज़ार-मूल्य, जो भी सबसे कम हो, पर किया जाए और इस अंतरण के समय यदि उसमें कोई मूल्यह्रास हो तो उसके लिए पूरा प्रावधान किया जाए ।

इ. मूल्यांकन

13) परिपक्वता के लिए धारित श्रेणी के अंतर्गत वर्गीकृत निवेशों को मार्क टू मार्केट करने की आवश्यकता नहीं है और इसका मूल्यांकन अभिग्रहण लागत पर किया जाता रहेगा बशर्ते कि यह लागत उसके अंकित मूल्य से अधिक हो, और इस मामले में परिपक्वता के लिए शेष अवधि में ही प्रीमियम का परिशोधन किया जाए ।

14) बैंक को चाहिए कि वे अनुषंगी संस्थाओं/संयुक्त उद्यमों में किए गए उनके निवेशों जो परिपक्वता के लिए धारित श्रेणी में शामिल हैं, के मूल्य में अस्थाई ह्रास से इतर हुए मूल्यह्रास का निर्धारण करें और उसके लिए प्रावधान करें । ऐसा मूलहृास प्रत्येक निवेश के लिए अलग-अलग रूप से निर्धारित किया जाना चाहिए और उसके लिए प्रावधान किया जाना चाहिए ।

15) विक्रय के लिए उपलब्ध श्रेणी की व्यक्तिगत प्रतिभूतियों को वर्षांत में या और शीघ्र अंतरालों में मार्क-टॅू-मार्केट किया जाएगा ।

16) व्यापार के लिए धारित श्रेणी की व्यक्तिगत प्रतिभूतियों का पुनर्मूल्यन मासिक आधार पर अथवा और शीघ्र अंतरालों में किया जाएगा ।

बाज़ार मूल्य

17) विक्रय के लिए उपलब्ध और व्यापार के लिए धारित श्रेणियों में किए गए निवेशों के आवधिक मूल्यांकन हेतु ‘बाज़ार मूल्य’ प्रतिभूति का वह बाज़ार मूल्य होगा जो व्यापार/स्टॉक एक्सचेंज की दरों, एसजीएल लेनदेन के मूल्य, भारतीय रिज़र्व बैंक की मूल्य-सूची से उपलब्ध होगा ।

18) बैंकों द्वारा निवेशों के मूल्यांकन किए जाने हेतु भारतीय रिज़र्व बैंक अब से अनकोटेड सरकारी प्रतिभूतियों की परिपक्वता प्रतिफल दर घोषित नहीं करेगा । बैंक अनकोटेड एसएलआर प्रतिभूतियों का मूल्यांकन परिपक्वता प्रतिफल दर के आधार पर करें जो भारतीय प्राथमिक व्यापारी संघ (पीडीएआई) द्वारा नियत आय मुद्रा बाज़ार और व्युत्पन्न संघ (फिमडा) के साथ संयुक्त रूप से तिमाही अंतराल पर तय की जाती हैं । अन्य अनकोटेड गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों का मूल्यांकन, जहां कहीं वे परिपक्वता प्रतिफल दर से जुड़ी हुई हैं, पीडीएआई/ फिमडा द्वारा तय की गई परिपक्वता प्रतिफल दर के अनुसार किया जाएगा ।


संलग्नक III

ईक्विटी और शेयरों में निवेश का बैंक

वित्तपोषण पर मार्गदर्शी सिद्धांत

भारतीय रिज़र्व बैंक और भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोड़ के अधिकारियों से युक्त ईक्विटी के बैंक वित्तपोषण पर स्थायी तकनीकी समिति का गठन ईक्विटी और शेयरों में निवेश के बैंक वित्तपोषण की पारदर्शी और स्थिर प्रणाली के लिए परिचालनगत मार्गदर्शी सिद्धांत विकसित करने के लिए किये गये जिसने अपनी रिपोर्ट 30 अगस्त, 2000 को प्रस्तुत की । इस रिपोर्ट को जनता के अभिमत जानने के लिए जारी किया गया । समिति द्वारा किये गये प्रस्तावों पर प्रसार माध्यम तथा अन्य बाजार सहभागियों से प्राप्त विचारों के आधार पर, साथ ही 19 सितंबर, 2000 को प्रमुख बैंकों के मुख्य कार्यपालकों के साथ भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा आयोजित बैठक में बैंकों द्वारा व्यक्त विचारों के आधार पर रिज़र्व बैंक ने मार्गदर्शी सिद्धांतों का नया प्रारूप तैयार किया है । मार्गदर्शी सिद्धांतों के इस प्रारूप को पुन: चुनिंदा बैंकों के बीच परिचालित किया गया और बैंकों, वित्तीय संस्थाओं और बाजार सहभागियों के अभिमत जानने हेतु आरबीआइ वेबसाइट पर भी उसे प्रसारित किया गया ।

बैंकों और अन्यों से प्राप्त प्रतिसूचना (फीड बैक) के आधार पर ईक्विटी और शेयरों में निवेश के बैंक वित्तपोषण पर मार्गदर्शी-सिद्धांतों को अंतिम रूप दिया गया है । इन्हें नीचे दिया जा रहा है ।

  1. ईक्विटी का बैंक वित्तपोषण
  1. जनता को प्रारंभिक शेयर जारी करने (आइपीओ)
  2. हेतु वित्तपोषण

    (क) जनता को प्रारंभिक शेयर जारी करने हेतु वित्तपोषण को एकल व्यक्तियों को शेयरों की जमानत पर दिए जानेवाले अग्रिमों के रूप में माना जाना चाहिए । तदनुसार, बैंक केवल एकल व्यक्तियों को, जनता को प्रारंभिक शेयर जारी करने के संबंध में अभिदान करने हेतु अग्रिम की मंजूरी दे सकते हैं । इसके अतिरिक्त, जनता को प्रारंभिक शेयर जारी करने के संबंध में वित्तपोषण हेतु शर्तें वही होनी चाहिए जो दिनांक 28 अगस्त, 1998 के हमारे मास्टर परिपत्र डीबीओडी सं.डीआइआर. बीसी. 90/13.07.05/1998 में दी गयी है, जो एकल व्यक्ति के लिए शेयरों की जमानत पर अग्रिमों हेतु लागू हैं । जनता को प्रारंभिक शेयर जारी करने के आधार पर एकल व्यक्ति को दी जानेवाली वित्त की अधिकतम राशि 10 लाख रुपए होनी चाहिए जैसा कि वास्तविक शेयरों पर अग्रिमों हेतु लागू है । बैंकों द्वारा कंपनियों को अन्य कंपनियों के जनता को प्रारंभिक शेयर जारी करने में निवेश हेतु ऋण नहीं दिया जाना चाहिए । इसी तरह, बैंकों द्वारा जनता को प्रारंभिक शेयर जारी करने हेतु एकल व्यक्तियों को और उधार देने के लिए गैर-बैंविंग वित्तीय कंपनियों द्वारा वित्त उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए ।

    (ख) बैंक द्वारा प्रारंभिक तौर पर शेयरों के सार्वजनिक निर्गम के लिए दिये गये वित्त को पूंजी बाजार के निवेश के रूप में गिनना चाहिए ।

  3. दलालों की ओर से गारंटियां जारी करना
  4. बैंकों द्वारा शेयर दलालों की ओर से गारंटियां जारी करने के लिए नकदी सीमा सहित 25 प्रतिशत की न्यूनतम मार्जिन प्राप्त की जानी चाहिए । बैंक अपने विवेकाधिकार से अपने निदेशक मंडल द्वारा अनुमोदित नीति के अनुसार 25 प्रतिशत से उच्चतर मार्जिन प्राप्त कर सकते हैं ।

  5. कुल निवेश

बैंक के निदेशक मंडल अपनी समग्र जोखिम रूपरेखा को ध्यान में रखते हुए पूंजी बाजार में बैंक के कुल निवेश पर विवेकसम्मत सीमा निर्धारित कर सकते हैं । प्रत्येक बैंक के बोड़ (मंडल) को अपनी समग्र जोखिम प्रबंध नीति को ध्यान में रखते हुए या तो प्राथमिक या अनुषंगी बाजार अथवा ‘बुक बिल्डिंग’ मार्ग के जरिए एक विशिष्ट कंपनी पर निवेश का विचार करना चाहिए । तथापि, बैंक के निवेश को बैंककारी विनियमन अधिनियम, 1949 की धारा 19(2) और (3) तथा 20(1)(क) में निहित कंपनी की शेयर धारिता के साथ ही रिज़र्व बैंक द्वारा नियत किये गये एकल उधारकर्ता और उधारकर्ता समूह संबंधी निवेश मानदंडों के बारे में सांविधिक आवश्यकताओं को पूरा किया जाना चाहिए । निम्नलिखित को पूंजी बाजार के लिए बैंक के कुल निवेश की गणना करने हेतु छोड़ दिया जाए ।

(क) शेयरों की समर्थक प्रतिभूति पर अग्रिम

(ख) शेयरों की प्रतिभूति पर शिक्षण, आवास, उपभोग, आदि जैसे व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए एकल व्यक्तियों को अग्रिम ।

(ग) वाणिज्यिक पत्र, अपरिवर्तनीय डिबेंचर, आदि जैसे ऋण प्रतिस्थापन को पूंजी बाजार के प्रति बैंक के निवेश पाने के लिए ऋण संविभाग के एक भाग के रूप में गिना नहीं जाए ।

  1. शेयरों और डिबेंचरों में बैंक का निवेश
  2. (i) 18 मई, 1994 के परिपत्र डीबीओडी.सं.डीआइआर.बीसी.61/13.07.05/94 के अनुसार बैंक पिछले वर्ष की वर्धमान जमाराशियों के 5 प्रतिशत की उच्चतम सीमा के अधीन कंपनियों के शेयरों, परिवर्तनीय डिबेंचरों और ईक्विटी अभिमुखी म्युच्यूअल फंडों के यूनिटों को प्राप्त करने के लिए स्वतंत्र हैं । भारतीय रिज़र्व बैंक - भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोड़ की तकनीकी समिति ने यह सिफारिश की कि बैंकों के शेयरों, परिवर्तनीय डिबेंचरों में निवेश आदि के लिए निर्धारित उच्चतम सीमा बकाया अग्रिमों से संबधित होनी चाहिए, न कि पिछले वर्ष की वर्धमान जमाराशियों से । अत:, यह निर्णय लिया गया है कि संवेदनशील क्षेत्रों के लिए समग्र निवेश के भीतर, शेयरों, परिवर्तनीय डिबेंचरों और म्युच्यूअल फंडों (कर्ज निधियों को छोड़कर) के यूनिटों में निवेश के रूप में पूंजी बाजार के लिए बैंक का कुल निवेश बैंक के पिछले वर्ष के 31 मार्च को यथाविद्यमान कुल बकाया ऋण के 5 प्रतिशत से अधिक नहीं होना चाहिए । आगे यह भी स्पष्ट किया जाता है कि शेयरों आदि में निवेश के लिए उच्चतम सीमाएं अधिकतम अनुमत सीमाएं हैं और किसी बैंक के निदेशक मंडल बैंक की समग्र जोखिम रूपरेखा और ईक्विटी मूल्यों में अस्थिरता को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग बैंक के लिए न्यूनतर उच्चतम सीमा स्वीकार करने के लिए स्वतंत्र है । ऐसे बैंकों के संबंध में जिनका ईक्विटियों में वर्तमान बकाया निवेश कम है और समग्र उच्चतम सीमा से 5 प्रतिशत से भी कम है, यथोचित उपाय के रूप में बोड़, ईक्विटियों में नये निवेश के लिए वार्षिक उच्चतम सीमा भी तैयार करें ताकि ईक्विटियों के नये निवेशों में कोई भी वृद्धि हर वर्ष बोड़ द्वारा नियत की गयी अंतिम उच्चतम सीमा के भीतर ही क्रमिक, उत्तरोत्तर और सावधानीपूर्वक ढंग से हो ।

    (ii) बैंक, सीधे ही अथवा भारतीय यूनिट ट्रस्ट और भारतीय प्रतिभूति विनिमय बोड़ द्वारा अनुमोदित अच्छे ट्रेक रिकाड़ वाले अन्य विविध म्युच्यूअल फंडों के शेयरों में निवेश कर सकते हैं । भारतीय यूनिट ट्रस्ट/म्युच्यूअल फंडों में निवेश, बैंक में उपलब्ध आंतरिक विशेषज्ञता को ध्यान में रखते हुए निदेशक मंडल द्वारा अनुमोदित निवेश नीति के अनुसार होगा । यह परामर्श दिया जाता है कि शेयरों आदि में निवेश के बारे में जो भी निर्णय हो, वह बैंक द्वारा गठित निवेश समिति में किया जाना चाहिए ।

    (iii) बैंकों द्वारा बुक बिल्डिंग मार्ग के जरिए प्राथमिक शेयर निर्गम के संबंध में लिया गया हामीदारी वायदा उक्त मानदंडों के भीतर ही होगा ।

    (iv) प्रवर्तकों के अंशदान को पूरा करने के लिए कंपनियों को मंजूर किया गया ऋण और कंपनियों को अपेक्षित ईक्विटी उपलब्धि/शेयर निर्गमों पर एक वर्ष से अनधिक अवधि के लिए मंजूर किया गया तात्कालिक ऋण, अपरिवर्तनीय डिबेंचरों की अपेक्षित आय, बाहरी वाणिज्यिक उधार, वैश्विक निक्षेपागार रसीद और/अथवा विदेशी प्रत्यक्ष निवेशों के रूप में निधियां, (जो अब पिछले वर्ष की वर्धमान जमाराशियों के 5 प्रतिशत की उच्चतम सीमा के भीतर होती है), भी उक्त समग्र उच्चतम सीमा के भीतर ही जारी रहेंगी ।

    (v) शेयरों, डिबेंचरों आदि में निवेशों पर जो भी निर्णय हो वह असंतुलन के अनुमत छूट स्तरों को ध्यान में रखते हुए प्रत्येक बैंक का बोड़/परिसंपत्ति देयता समिति (एएलसीओ) द्वारा लिया जाए । ऐसे निवेशों की मात्रा और अवधि का निर्णय प्रत्येक बैंक के बोड़ द्वारा किया जाए ।

    (vi) ऐसे बैंक जिनका शेयरों आदि में निवेश अब 31 मार्च 2000 को बकाया ऋण के 5 प्रतिशत से अधिक है, उनके निवेशों को 31 मार्च 2001 तक इस विवेकपूर्ण मानदंड के अनुरूप करने के लिए क्रमिक रूप से नीचे लाया जाए ।

  3. मूल्यन और प्रकटीकरण
  4. बैंकों द्वारा ईक्विटियों में अपने निवेश संविभाग को अन्य निवेशों की तरह ‘मार्क-टॅू-मार्केट’ तिमाही आधार पर किया जाना चाहिए । इसके अतिरिक्त, बैंकों द्वारा मार्च 2001 को समाप्त होनेवाले वर्ष से अपने तुलन-पत्र के साथ ‘लेखा पर टिप्पणी’ में शेयरों, परिवर्तनीय शेयरों और ईक्विटी अभिमुख म्युच्यूअल फंड के युनिटों में किये गये कुल निवेश साथ ही, शेयरों आदि पर दिये गये कुल अग्रिमों को भी प्रकट किया जाना चाहिए ।

  5. मार्गदर्शी सिद्धांतों की समीक्षा

भारतीय रिज़र्व बैंक और भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोड़ की स्थायी तकनीकी समिति, परिचालनगत व्यवस्था और प्राप्त किये गये अनुभव को ध्यान में रखते हुए बैंकों की राय लेकर छह महीनों के बाद मार्गदर्शी सिद्धांतों की समीक्षा करेगी । वास्तविक अनुभव के प्रकाश में यदि कोई परिवर्तन की आवश्यकता हो तो समिति भारतीय रिज़र्व बैंक को उचित सिफारिशें करेगी ।

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