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भारत में ऋण और वृद्धि चक्रः अग्रणी और पिछड़ते व्यवहारों का एक अनुभवजन्य आकलनः आरबीआइ वर्किंग पेपर श्रृंखला सं.22

2 जनवरी 2012

भारत में ऋण और वृद्धि चक्रः अग्रणी और पिछड़ते व्यवहारों का
एक अनुभवजन्य आकलनः आरबीआइ वर्किंग पेपर श्रृंखला सं.22

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपनी वेबसाइट पर कृतिका बनर्जी का "भारत में ऋण और वृद्धि चक्रः अग्रणी और पिछड़ते व्यवहारों का एक अनुभवजन्य आकलन" शीर्षक वर्किंग पेपर श्रृंखला सं.22 जारी किया।

ऋण की प्रतिचक्रीयता ने एक ओर वृद्धि पर ध्यान केंद्रित करने में ऋण की भूमिका और दूसरी ओर वित्तीय स्थिरता के प्रति जोखिमों का विस्तृत स्वरूप प्रकट करने में अत्यधिक लिवरेज की भूमिका को देखते हुए संकट के बाद की अवधि में उल्लेखनीय नीति ध्यान आकर्षित किया है। मौद्रिक नीति के संचालन तथा समष्टि विवेकसम्मत नीतियाँ तैयार करने  के लिए देश विशिष्ट संदर्भ में कारोबारी चक्र से संबंधित ऋण चक्र का आकलन महत्वपूर्ण हो गया है। इस पृष्ठभूमि के समक्ष तैयार किया गया यह पेपर ऋण चक्र और वृद्धि चक्र के बीच अग्रणी और पिछड़ते हुए संबंध पर भारत में ध्यान केंद्रित करते हुए ऋण की प्रतिचक्रीयता की सीमा का अध्ययन करता है। यह इस मौलिक प्रश्न से शुरु  करता है कि क्या अर्थव्यवस्था में ऋण संपूर्ण रूप से अग्रणी अथवा पिछड़ा हुआ है और किस प्रकार यह संबंध समय और संपूर्ण क्षेत्र/उद्योग समूहों में बदलता रहता है और तब यह अनुभव के आधार पर समष्टि और व्यष्टि दोनों स्तरों पर इसकी जाँच करता है। यह पेपर प्रतिचक्रीयता और कारोबारी चक्र विश्लेषण तथा भारतीय कंपनी क्षेत्र के लिए वित्त में उभरती हुई प्रवृत्तियों पर विद्यमान साहित्य की चर्चा भी करता है।

यह पेपर उत्पादन और ऋण में वृद्धि चक्र के आकलन के लिए हॉड्रिक-प्रेस्कॉट फिल्टर का उपयोग करता है। ग्रैंगर आकस्मिकता जाँच और परस्पर सह-संबंधों का उपयोग इन चक्रों के बीच अग्रणी-पिछड़ी गतिशीलता को समझने के लिए किया गया है। वृद्धि दर चक्रों का उपयोग उद्योग-वार विश्लेषण के लिए किया गया है।

प्रमुख उद्धरण जिसका उल्लेख यह पेपर करता है वह यह है कि सुधार-पूर्व अवधि के बिपरीत सुधार-पश्चात् अवधि में उत्पादन ऋण से आगे है जब ऋण का उपयोग उत्पादन वृद्धि के लिए किया गया है। गैर-कृषि क्षेत्र भी ऋण के कारण उत्पादन में हैं। पेपर यह सुझाव भी देता है कि वृद्धि की ऋण तीव्रता में केवल कारोबारी चक्र के परस्परविरोधी चरण की दूसरी छमाही में  गिरावट आती है जो कारोबारी चक्र के विस्तारवादी चरण की पहली छमाही तक जारी रहती है। उसी प्रकार, ऋण तीव्रता में वृद्धि केवल विस्तारवादी चरण की दूसरी छमाही में अधिक दिखाई देती है जो कारोबारी चक्र के विस्तारवादी चरण की पहली छमाही तक व्याप्त रहती है। समस्त उद्योगों में प्रतिचक्रीयता की सीमा की जाँच करते हुए पेपर यह सुझाव देता है कि मौद्रिक नीति के उलट समष्टि विवेकसम्मत नीतियाँ विशिष्ट क्षेत्रों से वित्तीय स्थिरता जोखिमों के आकलन के आधार पर क्षेत्र-विशिष्ट हो सकती हैं। कारोबारी चक्र के कतिपय चरणों के दौरान तथा कुछ उद्योग समूहों के लिए ऋण की अग्रणी भूमिका यह प्रस्तावित करती है कि मौद्रिक और समष्टि विवेकसम्मत नीतियों को तदनुसार समरूप बनाया जाए ताकि मुद्रास्फीति तथा कारोबारी चक्र के वित्तीय स्थिरता प्रभावों के आकलन में सुधार हो सके। प्रतिचक्रीयता जोखिमों को अन्यों की अपेक्षा कतिपय उद्योग समूहों में उच्चतर पाया गया है।

अजीत प्रसाद
सहायक महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2011-2012/1055

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