भारतीय अर्थव्यवस्था आघात-सह है किंतु आत्मसंतुष्टि की गुंजाइश नहीं : भारतीय रिज़र्व बैंक की जून 2015 की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में बताया गया है - आरबीआई - Reserve Bank of India
भारतीय अर्थव्यवस्था आघात-सह है किंतु आत्मसंतुष्टि की गुंजाइश नहीं : भारतीय रिज़र्व बैंक की जून 2015 की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में बताया गया है
25 जून 2015 भारतीय अर्थव्यवस्था आघात-सह है किंतु आत्मसंतुष्टि की गुंजाइश नहीं : भारतीय रिज़र्व बैंक ने जून 2015 की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (एफएसआर) आज जारी की। यह इस अर्ध वार्षिक प्रकाशन का ग्यारहवां अंक है। वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट वित्तीय स्थिरता और विकास परिषद (एफएसडीसी) की उप-समिति द्वारा वित्तीय स्थिरता के जोखिमों और वित्तीय प्रणाली के आघात-सहनीयता के संबंध में किए गए सामूहिक मूल्यांकन का प्रतिबिंबित रूप है। इसके अलावा, इस रिपोर्ट में वित्तीय क्षेत्र के विकास और विनियमन से संबंधित मुद्दों पर चर्चा की गई है। प्रमुख अंश : वैश्विक परिवेश वैश्विक आर्थिक परिस्थिति का अपने-आप ही दीर्घकालीन सुधार हासिल करना संभव नहीं लग रहा है। साथ ही साथ, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं (एई) के मौद्रिक नीति रुख का प्रभाव-विस्तार (स्पिल ओवर) उभरती बाज़ार और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं (ईएमडीई) के सम्मुख चुनौती बढ़ा रहा है। यूनानी ऋण संकट की घटनाएं और यूएस फेडरल रिज़र्व द्वारा दरों में बढ़ोतरी करने के समय को लेकर रहने वाली अनिश्चितता निकट भविष्य में वैश्विक वित्तीय बाज़ार में कभी भी अस्थिरता पैदा कर सकती हैं। देशी परिदृश्य जहां तक देशी परिस्थिति का सवाल है समष्टि-आर्थिक परिदृश्य में काफी सुधार हुआ है तथा भविष्य में आर्थिक प्रदर्शन और बेहतर रहने की संभावना है। बाहरी खतरे कम हो गए हैं और वित्तीय समेकन की दिशा में प्रगति हुई है। पिछले वर्ष के दौरान भारत में विदेशी पोर्टफोलियो प्रवाह की गति अच्छी रही, तथापि, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की मौद्रिक नीति में होने वाले अप्रत्याशित बदलावों के कारण वित्तीय बाज़ारों के विभिन्न खंडों में हो रहे ऐसे प्रवाहों की गति धीमी हो सकती है/दिशा बदल सकती है। हालांकि भारत पूर्व की घटनाओं की तुलना में अस्थिरता की स्थिति से निपटने के लिए तैयार है। बैंकिंग क्षेत्र जबकि सितंबर 2014 से बैंकिंग स्थिरता संकेतक और ढांचे में बताए अनुसार बैंकिंग क्षेत्र के सम्मुख रहने वाले जोखिमों की तीव्रता कम हुई है, फिर भी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी), खासकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) के दबावग्रस्त अग्रिम अनुपात की बढ़ती प्रवृत्ति के माध्यम से आस्ति की गुणवत्ता में लगातार कमज़ोरी बने रहने के संकेत मिले हैं, वे चिंताजनक हैं। मैक्रो दबाव परीक्षणों से यह पता चला है कि अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की आस्ति गुणवत्ता के स्तर में वर्तमान में जो गिरावट दर्ज हो रही है वह आगे कई तिमाहियों में बने रहने की संभावना है। साथ ही, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को क्रेडिट जोखिम के लिए किए जा रहे वर्तमान स्तर को बढ़ाना पड़ सकता है ताकि वे समष्टि-आर्थिक परिवेश में प्रतिकूल परिस्थितियां पैदा होने की दशा में ‘प्रत्याशित हानियों’ की भरपाई करने की स्थिति में रह सकें। तथापि, प्रणाली के स्तर पर देखा जाए तो अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों का जोखिम भारित आस्तियों की तुलना में पूंजी अनुपात (सीआरएआर) न्यूनतम विनियामक स्तर के ऊपर ही रहा है, जबकि इन परीक्षणों में प्रतिकूल समष्टि-आर्थिक परिस्थितियों की परिकल्पना की गई थी। कॉर्पोरेट क्षेत्र के गिरते लाभ मार्जिन और कम होती ऋण अदायगी क्षमताओं से इन चिंताओं में बढ़ोतरी हुई है, भले ही भारतीय अर्थव्यवस्था में समग्र लीवरेज स्तर अन्य अधिकारक्षेत्रों की तुलना में सुविधाजनक हो। जबकि अधिक बाजार पहुंच और बाजार अनुशासन को प्रोत्साहित करने के लिए विनियामक प्रयास से घरेलू वित्तीय बाजारों के विकास, बैंकिंग क्षेत्र को सहायता मिलेगी, विशेषकर सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से अपेक्षा होगी की कि वे अर्थव्यवस्था में तीव्र वृद्धि की आवश्यकता के दायित्व को जारी रखें। इस संबंध में सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अभिशासन और प्रबंध प्रक्रियाओं में सुधार करने की नीतिगत पहलें महत्वपूर्ण हो जाती हैं। प्रतिभूति और पण्य-वस्तु बाजार हाल के वर्षों में बढ़ती एल्गरिदम ट्रेडिंग को लेकर पैदा होने वाली चिंताएं भारत के प्रतिभूति बाजारों के लिए सावधानी की आवश्यकता पर प्रकाश डालती हैं, जबकि इसके समाधान के लिए उपाय किए गए हैं। अनधिकृत पैसा जुटाने संबंधी गतिविधियों भेदिया कारोबार (इनसाइडर ट्रेडिंग) से निपटने और डिपोजिटरीज़ में जोखिम प्रबंध प्रणालियों को सुदृढ़ करने के लिए विनियमों को कड़ा करने हेतु महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं। मौसम से संबंधित आपदाओं की बारंबार घटनाओं और विशेषकर छोटे तथा कमजोर किसानों पर इसके प्रभाव को देखते हुए कृषि बीमा पर तुरंत ध्यान दिए जाने की आवश्यकता है। दूसरी तरफ भौतिक पण्य-वस्तु बाजार के विनियमन और मुख्य रूप से कृषि पण्य-वस्तु डेरिवेटिव बाजारों तथा भौतिक (नकदी) बाजारों के बीच संबंध सुदृढ़ करने के बीच सामंजस्य स्थापित करने की आवश्यकता है। आने वाले दशकों में जनसांख्यिकी में प्रत्याशित बदलावों में वृद्धावस्था आय सुरक्षा और पेंशन योजनाओं पर ध्यान देने की आवश्यकता है, विशेषकर असंगठित क्षेत्र के मामले में जिसके लिए केंद्रीय सरकार द्वारा एक नई योजना की घोषणा की गई है। निष्कर्ष कुल मिलाकर, वृद्धि, मुद्रास्फीति, चालू खाता और राजकोषीय घाटे के संबंध में भारत के तुलनात्मक रूप से मजबूत समष्टि आर्थिक मूलभूत तत्व वैश्विक कारकों के स्पिल-ओवर प्रभावों की स्थिति में भारतीय वित्तीय प्रणाली में उचित लचीलापन मुहैया कराते हैं। तथापि, वैश्विक वृद्धि के बारे में निरंतर अनिश्चितता और प्रभावी अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक नीति समन्वय के अभाव में आत्मसंतुष्टि की कोई गुंजाइश नहीं है। अल्पना किल्लावाला प्रेस प्रकाशनी : 2014-2015/2748 |