20 अप्रैल 2009 |
वर्ष 2008-09 में समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियाँ |
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भारतीय रिज़र्व बैंक ने 21 अप्रैल 2009 को घोषित की जानेवाली वर्ष 2009-10 के लिए वार्षिक नीति वक्तव्य की पृष्ठभूमि को दर्शाने वाला "वर्ष 2008-09 में समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियाँ" दस्तावेज आज जारी किया। वर्ष 2008-09 के दौरान समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की मुख्य-मुख्य बातें इस प्रकार हैं : |
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विहगावलोकन |
- कई उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में तीव्र गिरावट के अनुभव के साथ वर्ष 2008 के दौरान वैश्विक आर्थिक स्थिति में तेज़ी से गिरावट हई। खासकर वर्ष की चौथी तिमाही तक वैश्विक मंदी से सहबद्ध प्रतिकूल आधात उभरती हुई संपूर्ण बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं (इएमइ) में फैलते गए और इसने समकालिक वैश्विक मंदी को बल प्रदान किया।
- वर्ष के दौरान मुद्रास्फीति स्थितियों में तेज़ी से उतार-चढ़ाव देखा गया क्योंकि प्रमुख उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में व्यापक रूप से जुलाई 2008 तक हेडलाइन मुद्रास्फीति मज़बूत हुई लेकिन उसके बाद उसमें तेज़ी से गिरावट आयी।
- वैश्विक वित्तीय वातावरण सितंबर 2008 के मध्य में एक संकट की स्थिति में प्रवेश कर गया जिसके बाद बड़ी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाओं के बीच चिंता बढ़ने लगी।
- इन अप्रत्याशित प्रतिकूल वैश्विक गतिविधियों के होने वाले प्रभाव भारतीय अर्थव्यवस्था के समष्टि आर्थिक कार्यनिष्पादन में दिखाई पड़े क्योंकि इसने प्रमुख संचालकों में कमी को देखते हुए वृद्धि की गति में कुछ हानि का अनुभव किया। जबकि निजी उपभोग और निवेश में कमी दिखाई दे रही है तथापि, यह सरकार के अन्य प्रतिबद्ध व्यय के साथ-साथ राजकोषीय प्रोत्साहन वृद्धि में कमी को रोक सकता है।
- वर्ष 2008-09 के दौरान समष्टि आर्थिक और मौद्रिक नीति निर्माण में एक महत्त्वपूर्ण चुनौती भारतीय अर्थव्यवस्था के कई मुख्य आर्थिक संकेतकों के संबंध में उभरती हुई अस्थिरता का प्रबंध करना रहा है। खासकर वैश्विक अर्थव्यवस्था से कई चुनौतियों के होते हुए भी भारतीय अर्थव्यवस्था सापेक्षत: अनुकूल रही है, इसके वित्तीय संस्थान और निजी कंपनी क्षेत्र मज़बूत और अर्थक्षम रहे हैं। तथापि, समष्टि आर्थिक प्रबंध ने कई अन्य उन्नत और उभरती हुई बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के सापेक्षत: भारत में वित्तीय और वास्तविक क्षेत्र दोनों में कम अस्थिरता बनाए रखने में सहायता की है।
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उत्पादन |
- वृद्धि के घरेलू ॉााटतों के मज़बूत प्रभाव के बावजूद वैश्विक वित्तीय संकट ने भारत में वृद्धि की गति को बाधित किया। वर्ष 2008-09 की तीसरी तिमाही तक वृद्धि में स्पष्ट रूप से कमी हुई। कृषि क्षेत्र से संबंधित उद्योग और सेवा क्षेत्र उच्चतर वृद्धि के एक लंबे अंतराल के बाद कतिपय क्षेत्रों में चक्रीय मंदी से उत्पन्न अपनी वृद्धि के ह्रास में कुछ योगदान करते हुए प्रतिकूल बाह्य आघातों द्वारा अधिक प्रभावित हुए है।
- वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वृद्धि के लिए केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन (सीएसओ) का अनुमान (फरवरी 2009) वर्ष 2008-09 की तीसरी तिमाही के दौरान 5.3 प्रतिशत रखा गया था जो पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि के दौरान इसके सभी घटक क्षेत्रों की वृद्धि में गिरावट को दर्शाते हुए 8.9 प्रतिशत था।
- वर्ष 2008-09 के दौरान विभिन्न फसलों की बुआई में शामिल क्षेत्र में वर्षा में सामान्य कमी के कारण खरीफ मौसम के दौरान सीमांत रूप से गिरावट हुई। दूसरी ओर रबी के उत्पादन की संभावना एक वर्ष पूर्व की रबी फसल से उच्चतर रहते हुए रबी फसलों के अंतर्गत बुआई क्षेत्र के साथ अनुकूल बनी रही। वर्ष 2008-09 के दौरान कुल खाद्यान्न उत्पादन वर्ष 2007-08 में 230.8 मिलियन टन की तुलना में 227.9 मिलियन टन (दूसरा अग्रिम आकलन) रखा गया था।
- दक्षिणी-पश्चिमी मानसून मौसम वर्ष 2009 के दौरान भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (17 अप्रैल 2009) के लगभग सामान्य दीर्घकालीन मानसून अनुमान के परिप्रेक्ष्य में कृषि उत्पादन की संभावना संतोषप्रद रही।
- औद्योगिक क्षेत्र में वृद्धि की गति में कमी दिखाई दी क्योंकि वर्ष 2008-09 (अप्रैल-फरवरी) के दौरान औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि 2.8 प्रतिशत थी जो पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 8.8 प्रतिशत थी। विनिर्माण क्षेत्र और विद्युत क्षेत्र में उपर्युक्त अवधि के दौरान क्रमश: 9.3 प्रतिशत और 6.6 प्रतिशत की तुलना में 2.8 प्रतिशत और 2.4 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की गई।
- मूलभूत सुविधा क्षेत्र ने वर्ष 2008-09 (अप्रैल-फरवरी) के दौरान 3.0 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जो कोयला को छोड़कर सभी क्षेत्रों में गिरावट को दर्शाते हुए गत वर्ष की तदनुरूपी अवधि के दौरान 5.8 प्रतिशत से कम थी।
- विश्व के संपूर्ण देशों में वास्तविक अर्थव्यवस्था पर संकट के प्रभाव की गंभीरता के संदर्भ में वृद्धि उत्पादन भारतीय अर्थव्यवस्था के लचीलेपन को दर्शाता है।
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सकल माँग |
- वृद्धि प्रभावों के कमज़ोर होते हुए चरण में सकल माँग की भूमिका वर्ष 2008-09 में सार्वजनिक नीति के अग्रणी नीति के रूप में सामने आयी। बाह्य माँग में तीव्र कमी ने जैसाकि वैश्विक उत्पादन, रोज़गार और वेश्विक व्यापार में गिरावट से प्रत्यक्ष है स्पष्ट रूप से भारत के निर्यात कार्यनिष्पादन को प्रभावित किया।
- निजी उपभोग और निवेश व्यय दोनों के रूप में घरेलू माँग में खासकर वर्ष 2008-09 की तीसरी तिमाही में कमी हुई तथापि, सरकारी अंतिम उपभोग केंद्र सरकार के स्वैच्छिक राजकोषीय प्रोत्साहन उपायों और प्रतिबद्ध व्यय के कारण बढ़ गया।
- वर्ष 2008-09 के दौरान केंद्र और राज्य सरकारों के संयुक्त वित्त पर आर्थिक मंदी के कारण प्रतिकूल प्रभाव पड़ा। केंद्र सरकार वित्त, वर्ष 2008-09 के दौरान वर्ष की पहली छमाही में मुद्रास्फीतिकारी दबावों में कमी तथा दूसरी छमाही में आर्थिक वृद्धि में कमी को रोकने के लिए किए गए राजकोषीय उपायों के कारण राजस्व और व्यय दोनों ओर से दबाव में आ गया। परिणामत: मुख्य घाटा संकेतकों यथा, राजस्व घाटा और राजकोषीय घाटा बढ़कर क्रमश: 4.4 प्रतिशत और 6.0 प्रतिशत हो गया जो बज़ट अनुमान में क्रमश: वर्ष 2008-09 के लिए संशोधित अनुमान के अनुसार क्रमश:1.0 प्रतिशत और 2.5 प्रतिशत था।
- वर्ष 2009-10 के लिए केंद्रीय अंतरिम बज़ट ने राजकोषीय प्रोत्साहन उपायों के माध्यम से सकल माँग में वृद्धि को सुनिश्चित करने के लिए वर्ष 2008-09 और वर्ष 2009-10 के लिए राजकोषीय जवाबदेही तथा बज़ट प्रबंध (एफआरबीएम) लक्ष्य में रियायत का उल्लेख किया है। तथापि, मध्यावधि उद्देश्य के रूप में इसने यथाशीघ्र राजकोषीय समेकन प्रक्रिया को प्रत्यावर्तित करने की आवश्यकता को पहचाना है।
- कंपनी कार्य निष्पादन वर्ष 2008-09 के दौरान लाभप्रदता पर तीसरी तिमाही के दौरान विशेष प्रतिकूल प्रभावों के कारण धीमा बना रहा।
- सकल घरेलू बचत की दर मुख्यत: निजी कंपनी और सार्वजनिक क्षेत्रों के सुधरे हुए बचत कार्यनिष्पादन के करण वर्ष 2007-08 में 37.7 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद की ऊँचाई पर बना रहा। सकल घरेलू पूँजी निर्माण की दर (जीडीसीएफ) भी वर्ष 2007-08 में सकल घरेलू उत्पाद के 39.1 प्रतिशत की ऊँचाई पर बनी रही। बचत-निवेश संतुलन बचत दर से आगे जाते हुए निवेश गतिविधियों में लगातार उछाल को दर्शाते हुए वर्ष 2007-08 के दौरान बढ़ गया। तथापि, वर्ष 2008-09 में आर्थिक गतिविधि में गिरावट वर्ष के दौरान बचत और निवेश दोनों दरों को प्रभावित कर सकती है।
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बाह्य अर्थव्यवस्था |
- गिरते हुए बाह्य वातावरण के सामने भारत के भुगतान संतुलन (बीओपी) के विभिन्न संगटकों के माध्यम से संप्रेषित संक्रामकता के प्रतिकूल प्रभाव को व्यापक रूप से नीति कार्यवाईयों के माध्यम से रोका जा सकता था। वर्ष 2008-09 के दौरान एक उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि भुगतान संतुलन के माध्यम से भारत को संप्रेषित बाह्य आघातों के प्रभाव मुख्यत: वर्ष की तीसरी तिमाही में प्रारक्षित निधियों की हानि के साथ रोके जा सकते थे जब वैश्विक संकट गहरा गया था और उल्लेखनीय रूप से और अधिक दृश्यमान वास्तविक प्रभावों के साथ फैल गया था।
- वर्ष 2008-09 (अप्रैल-दिसंबर) में भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति एक व्यापक व्यापार घाटे द्वारा वर्णित की जा सकती है जिससे एक उच्चतर चालू खाता और न्यूनतर निवल पूँजी अंतर्वाह उत्पन्न हुआ था। गिरते हुए बाहरी वातावरण के समक्ष भारत के भुगतान संतुलन (बीओपी) के विभिन्न संघटकों के माध्यम से संप्रेषित संक्रामकता के प्रतिकूल प्रभाव अधिकांश रूप में रूके रहे।
- वैश्विक व्यापार में तीव्र कमी तीसरी तिमाही के दौरान अनुभूत नकारात्मक वृद्धि में परिलक्षित हुई जो अंतिम बार वर्ष 2001-02 में देखी गई थी। आयात में वृद्धि भी कच्चे तेल की न्यूनतर कीमतों और कमज़ोर होती हुई घरेलू माँग के कारण नीचे गिरकर तीसरी तिमाही के दौरान एकल अंकीय स्तर पर आ गई। पण्य वस्तु व्यापार घाटा और बढ़कर अप्रैल-फरवरी 2008-09 के दौरान 113.8 बिलियन अमरीकी डॉलर (एक वर्ष पूर्व 82.2 बिलियन अमरीकी डॉलर) हो गया।
- अदृश्य वस्तुओं के अंतर्गत निवल अधिशेष अप्रैल-दिसंबर 2008 में प्राथमिक रूप से निजी अंतरणों और सॉफ्टवेयर सेवाओं के कारण बढ़ गया यद्यपि, ऐसे अंतर्वाहों में कमी तीसरी तिमाही में आयी। इस प्रकार चालू खाता घाटा 36.5 बिलियन अमरीकी डॉलर (अप्रैल-दिसंबर 2007 में 15.5 बिलियन अमरी डॉलर) के स्तर तक बढ़ गया।
- वैश्विक वित्तीय बाज़ार हलचल के प्रतिकूल प्रभाव भी दीर्घावधि और अल्पावधि ऋण के अंतर्वाह में कमी और संविभाग अंतर्वाहों के प्रत्यावर्तन के रूप में भी महसूस किए गए। तथापि, एक सकारात्मक गतिविधि भारत के एक दीर्घावधि निवेश लक्ष्य के आकर्षण को दर्शाते हुए पूँजी प्रवाहों के प्रत्यावर्तन के आलोक में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश अंतर्वाह (अप्रैल-फरवरी 2008-09 में 31.7 बिलियन अमरीकी डॉलर ) के सापैखत: लचीली बनी रही।
- 10 अप्रैल 2009 तक विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि मार्च 2008 के अंत के स्तर से 56.7 बिलियन (मूल्यांकन सहित)अमरीकी डॉलर की गिरावट दर्शाते हुए 253 बिलियन अमरीकी डॉलर रही।
- भारत का बाह्य ऋण ऋण निरंतरता संकेतक और विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि के स्तर एक अनुकूल स्तरों पर बने रहे हैं और वे बाह्य स्थिरता को सुनिश्चित करेंगे।
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मौद्रिक स्थितियाँ |
- वैश्विक संकट ने जिसने प्राय: सभी वित्तीय बाज़ारों में कारोबार करने वाले वित्तीय लिखतों के लिए कड़ी बाज़ार चलनिधि के आलोक में निधि प्रदान करने हेतु तीव्र अनिश्चितता का सृजन किया था, चलनिधि उपलब्ध कराने और बाज़ार चलनिधि के बीच एक मज़बूत प्रतिक्रिया को सामने खड़ा किया। चूँकि वैश्विक चलनिधि संकट ने वर्ष 2008 की अंतिम तिमाही में घरेलू मुद्रा और विदेशी मुद्रा बाज़ारों को प्रभावित करना शुरू किया, रिज़र्व बैंक ने बाज़ार के सामान्य कार्यकलाप को बहाल करने के लक्ष्य के साथ बैंकों के माध्यम से घरेलू और विदेशी मुद्रा चलनिधि दोनों के लिए पर्याप्त प्रावधान सुनिश्चित किया जिसके द्वारा अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों को पर्याप्त ऋण प्रवाह की सुविधा प्राप्त हुई।
- रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति का रूझान वर्ष 2008-09 की पहली छमाही में मुद्रास्फीति से संबंधित चिंताओं से हटकर दूसरी छमाही में वित्तीय स्थिरता को बनाए रखने और सामान्य वृद्धि को बढ़ाना था। जबकि मुद्रा आपूर्ति ने निरंतर और संकेतात्मक अपेक्षाएं दर्शाई निजी क्षेत्र ऋण ने अर्थव्यवस्था के संपदा क्षेत्र में उभर रही परिस्थितियों को दर्शाया।
- व्यापक मुद्रा (एम3) में वृद्धि, वर्ष-दर-वर्ष आधार पर पिछले वर्ष की 12.2 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2009 के अंत में 18.4 प्रतिशत रही जो बैंक ऋण और पूँजी अंतर्वाह के विस्तार में कमी को दर्शाते है।
- बैंकों की समग्र जमाराशियाँ, वर्ष-दर-वर्ष आधार पर पिछले वर्ष की 21.7 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2009 के अंत में 18.8 प्रतिशत रही।
- वाणिज्यिक क्षेत्र में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की खाद्येतर ऋण वृद्धि (वर्ष-दर-वर्ष आधार पर) उद्योग के निधीयन के अन्य ॉााटतों के अत्यंत कम हो जाने के परिप्रेक्ष्य में अक्तूबर 2008 तक मज़बूत बनी रही किंतु उसके बाद उसमें निरंतर गिरावट दिखाई दी। अनुसूचित वाणिज्य बैंकों द्वारा खाद्येतर ऋण पिछले वर्ष की 28.0 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2009 के अंत में वर्ष-दर-वर्ष आधार पर 17.5 प्रतिशत पर सामान्य बनी रही।
- आरक्षित निधि और घरेलू चलनिधि पर निवल विदेशी मुद्रा आस्तियों में कमी के नकारात्मक प्रभाव को खुले बाज़ार परिचालनों (ओएमओ), बाज़ार स्थिरीकरण योजना के मोचन और रुपया चलनिधि को बढ़ाने के अन्य उपायों से रोका गया। आरक्षित नकदी निधि अनुपात में परिवर्तन के प्रथम दौर के प्रभाव से आरक्षित निधि में वृद्धि (वर्ष-दर-वर्ष आधार पर) पिछले वर्ष की 25.3 प्रतिशत की तुलना में 31 मार्च 2009 को 19.0 प्रतिशत पर कम रही।
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वित्तीय बाज़ार |
- विकसित अर्थव्यवस्थाओं से ली जा रही सुविधाओं से हटने की प्रक्रिया और दुक्रिया वित्तीय बाज़ार जो वैश्विक वित्तीय संकट के रूप में उभरी ने समष्टि आर्थिक लक्ष्य प्राप्ति के लिए बाज़ारों की सुगम कार्यप्रणाली के महत्त्व को उजागर किया है।
- वर्ष 2008-09 की तीसरी तिमाही में जब वैश्विक आर्थिक बाज़ारों में चलनिधि बिलकुल कम हो गई थी और ऋण बाज़ार लगभग खत्म हो गए थे तब घरेलू निधि और विदेशी मुद्रा बाज़ारों पर ज़ोरदार प्रभाव पड़ा जिससे रिज़र्व बैंक को रुपए और विदेशी मुद्रा चलनिधि का पर्याप्त प्रावधान सुनिश्चित करने के लिए उपाय करने पड़े।
- रिज़र्व बैंक द्वारा की गई कार्रवाई और अन्य केंद्रीय बैंकों द्वारा की गई कार्रवाई में महत्त्वपूर्ण भिन्नता यह है कि यह आदान-प्रदान अब तक मुख्य रूप से बैंकिंग चैनलों के माध्यम से ही है। अन्य एक उल्लेखनीय भिन्नता यह है कि रिज़र्व बैंक द्वारा किए गए संपार्श्विक में कोई गिरावट नहीं हुई है।
- जबकि मुद्रा बाज़ार में नवंबर 2008 तक सुगम परिस्थिति बहाल की जा सकी, देश के भुगतान संतुलन पर दबाव और विदेशी मुद्रा निधियों में कमी के साथ-साथ विनिमय दर पर दबाव बना रहा। ईक्विटी बाज़ारों में समान्य वैश्विक विचारों और बाज़ार प्रवृत्तियों को अपनाया और तेज़ मंदी के चरण के बाद बाज़ारों ने मार्च 2009 से कुछ सुधार दर्शाया है।
- सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में, अर्थव्यवस्था में व्यापक वित्तीय प्रोत्साहन की आवश्यकता को दर्शाते हुए वर्ष 2008-09 में सरकार के सकल बाज़ार उधार वर्ष 2007-08 की तुलना में काफी अधिक रहे और रिज़र्व बैंक ने समग्र बाज़ार उधार कार्यक्रम का सुगमता से प्रबंध किया।
- ऋण बाज़ार में रिज़र्व बैंक द्वारा नीति दरों में की गई उल्लेखनीय कमी के फलस्वरूप बैंकों ने उधार दरों में कुछ सुगमता दर्शाना शुरू किया है।
- वर्ष 2008-09 में वैश्विक वित्तीय बाज़ारों में देखे गए अत्यधिक उतार-चढ़ाव के संदर्भ में भारतीय बाज़ारों का एक महत्त्वपूर्ण पहलु यह रहा कि सभी बाज़ार अल्पावधि के लिए कुछ अवसरों पर उतार-चढ़ाव को छोड़कर सामान्य रूप से कार्य करते रहे।
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मूल्यन स्थिति |
- वर्ष 2008-09 के दौरान भारत में देखी गई मुद्रास्फीति में व्यापक उतार-चढ़ाव अप्रत्याशित है। अंतर्राष्ट्रीय पण्य मूल्यों में तेज़ उतार-चढ़ाव पहली छमाही में चक्रीय मुदास्फीति के कारण हुआ और उसके बाद वर्ष 2008-09 की दूसरी छमाही में उच्च आधार से तेज़ गति से गिरावट हुई।
- भारत में, मुद्रास्फीति जिसे थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपआइ) में वर्ष-दर-वर्ष में उतार-चढ़ाव से मापा जाता है, में 2 अगस्त 2008 को 12.91 प्रतिशत पर अंतर-वर्ष अधिकतम पर पहुँच गया। इसके बाद मार्च 2009 के अंत में 0.26 प्रतिशत की भारी गिरावट आयी और 4 अप्रैल 2009 को 0.18 प्रतिशत की अतिरिक्त गिरावट हुई।
- जैसे ही वर्ष 2008-09 के दौरान माँग दबावों के साथ-साथ बाह्य और आपूर्ति कारकों ने मुद्रास्फीति को सुगम बनाया माँग प्रबंधन नीति उपायों को समायोजित रूप से लागू किया गया। जबकि वर्ष 2008-09 की पहली छमाही में एक अर्थव्यवस्था पर समग्र माँग का समायोजन करना पड़ा, दूसरी छमाही में मुद्रास्फीति में तेज़ गिरावट ने व्यापक मौद्रिक सुगमता की सुविधा दी जिसका लक्ष्य आर्थिक मंदी को रोकना था।
- उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति के विभिन्न उपाय में हालांकि कमी आने लगी थी फिर भी वह फरवरी 2008 में 5.2 से 6.4 प्रतिशत की तुलना में जनवरी/फरवरी 2009 के दौरान 9.6 से 10.8 प्रतिशत की स्तर पर उच्चतर बनी रही।
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समष्टि आर्थिक दृष्टिकोण |
- मौजूदा स्थिति में आर्थिक परिस्थिति का आकलन यह दर्शाते है कि वर्ष 2008 के दौरान वैश्विक आर्थिक परिस्थितियों में तेज़ गिरावट हुई है और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के पूर्वानुमान यह दर्शाते है कि वर्ष 2009 के दौरान भी मंदी की परिस्थितियाँ और गहरी होंगी।
- वैश्विक विकास और भारतीय अर्थव्यवस्था पर उनका प्रभाव तथा घरेलू चक्रीय कारकों को दर्शाते हुए आर्थिक गतिविधियों के विभिन्न सर्वेक्षण यह दर्शाते है कि आनेवाले महीनों में भारतीय अर्थव्यवस्था के दृष्टिकोण के लिए सकारात्मक विचार कम बने रहेंगे। दिसंबर 2008 में रिज़र्व बैंक द्वारा आयोजित व्यावसायिक पूर्वानुमानकों का सर्वेक्षण यह सुझाव देते है कि वर्ष 2008-09 और वर्ष 2009-10 में आर्थिक गतिविधियाँ सामान्य बनी रहेंगी।
- निजी क्षेत्र में विनिर्माण कंपनियों के रिज़र्व बैंक के औद्योगिक दृष्टिकोण सर्वेक्षण यह दर्शाते हैं कि जनवरी-मार्च 2009 के लिए आकलन और अप्रैल-जून 2009 के लिए प्रत्याशाओं पर आधारित कारोबार प्रत्याशाओं के सूचकांक में पूववर्ती तिमाहियों में क्रमश: 20.7 प्रतिशत और 13.9 प्रतिशत की तेज़ गिरावट हुई है।
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अल्पना किल्लावाला |
मुख्य महाप्रबंधक
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प्रेस प्रकाशनी : 2008-2009/1729 |