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समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियां - तीसरी तिमाही समीक्षा 2008-2009

26 जनवरी 2009

समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियां - तीसरी तिमाही समीक्षा 2008-2009

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज मौद्रिक नीति 2008-09 की तीसरी तिमाही समीक्षा के परिप्रेक्ष्य में ‘‘समष्टि आर्थिक और मौद्रिक नीति की तीसरी तिमाही समीक्षा’’ जारी की।

वर्ष 2008-09 के दौरान समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की मुख्य बातें निम्नानुसार हैं :

विहंगावलोकन

  • वर्ष 2008-09 की दूसरी तिमाही में सुदृढ़ वृद्धि दर्शाते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था में वैश्विक आर्थिक मंदी के कारण सुधार आया। यद्यपि कृषि परिदृश्य संतोषजनक रहा, औद्योगिक विकास में तीव्र कमी हुई और सेवा क्षेत्र मंद रहा। वर्ष 2008-09 की पहली तिमाही की तुलना में दूसरी तिमाही के दौरान आई आर्थिक मंदी प्रमुख रूप से उपभोक्ता विकास में आए सुधार और व्यापारिक घाटे में वृद्धि तथा विशेष रूप से निवेश मांग बढ़ने के कारण आंशिक समायोजनों के कारण थी।
  • वर्ष 2008-09 की पहली छमाही के दौरान भुगतान संतुलन (बीओपी) में चालू खाते में बढ़ते घाटे में वृद्धि और पूंजी के प्रवाहों में सुधार देखा गया। वर्ष 2008-09 के दौरान निवल पूंजी अंतर्वाह में तेज गिरावट के साथ-साथ विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अंतर्वाह में वृद्धि हुई, जबकि संविभाग निवेश में पर्याप्त बहिर्वाह देखा गया।
  • वर्ष 2008-09 के दौरान खाद्येतर ऋण हाल के महीनों में कुछ मंदी के बावजूद अब तक उच्चतर रहा। मीयादी जमाराशियों में लगातार वृद्धि के कारण बैंकिंग प्रणाली ऋण में वृद्धि को सहन कर सकी जबकि वाणिज्य बैंकों के गैर बैंकिंग स्रोतों में कमी आई। वर्ष 2008-09 के दौरान वाणिज्य क्षेत्र को बैंकों और अन्य स्रोतों से मिलनेवाले कुल संसाधनों की उपलब्धता अब तक वर्ष 2008 की तुलनात्मक अवधि से कुछ कम रही।
  • भारत में वित्तीय बाजार जो अप्रैल 2008 से सितंबर 2008 के मध्य तक कमोबेश सुव्यवस्थित रहा था, में तीव्र अस्थिरता देखी गई जिसमें बाद में अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजार में गड़बड़ी के संकटों के प्रभाव और बाद में अनिश्चितता दिखाई दी। इसके कारण सितंबर 2008 के मध्य से रिज़र्व बैंक के लिए बाजार में रुपया और विदेशी मुद्रा चलनिधि डालने के उपाय करना जरूरी हो गया। नवंबर 2008 के मध्य से चलनिधि की स्थिति में सुधार आ गया और नवंबर 2008 के मध्य से स्थिति संतोषजनक हो गई।
  • प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में हेडलाइन मुद्रास्फीति में जुलाई/अगस्त 2008 से कमी आई। भारत में थोक मूल्य सूचकांक में वर्ष-दर-वर्ष के उतार-चढ़ाव पर मापी जानेवाली मुद्रास्फीति में अगस्त 2008 से तीव्र गिरावट आई और वह 10 जनवरी 2009 तक 5.6 प्रतिशत हो गई।
  • समष्टि आर्थिक मोर्चे पर आर्थिक वृद्धि के लिए निचले स्तर की जोखिम वैश्विक वित्तीय बाजारों में ह्रास और घरेलू माँग में मंदी को लाते हुए वैश्विक आर्थिक मंदी से उत्पन्न हुई। सकारात्मक स्तर के कारकों में मुख्यत: मौलिक छूट और टैक्स स्लैब में वृद्धि को दर्शाते हुए उपभोग माँग में प्रत्याशित वृद्धि, छठे वेतन आयोग के अधिनिर्णय, किसानों के लिए ऋण माफी और चुनावपूर्व व्यय शामिल हैं। अंतर्राष्ट्रीय तेल की कीमतों तथा पण्य वस्तु कीमतों में कमी मुद्रास्फीतिकारी दबावों को कम करने में सहायता कर सकती है।

उत्पादन

  • केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन(सीएसओ) द्वारा नवंबर 2008 में जारी आकलनों के अनुसार वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद वर्ष 2008-09 की दूसरी तिमाही में उद्योग एवं सेवाओं में गिरावट को दर्शाते हुए 7.6 प्रतिशत रहा जो वर्ष 2007-08 की तदनुरूपी तिमाही के दौरान 9.3 प्रतिशत था।
  • कृषि मंत्रालय ने वर्ष 2008-09 के दौरान 233.0 मिलियन टन खाद्यान्न उत्पादन का एक नया लक्ष्य सामने रखा। प्रथम अग्रिम आकलनों के अनुसार वर्ष 2008-09 के दौरान खरीफ खाद्यान्न उत्पादन 115.3 मिलियन टन रहा जबकि (चतुर्थ अग्रिम आकलन) पिछले वर्ष के दौरान यह 121 मिलियन टन था।
  • अप्रैल - नवंबर 2008-09 के दौरान उद्योग उत्पादन सूचकांक ने वर्ष-दर-वर्ष 3.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जबकि वर्ष 2007-08 के अप्रैल नवंबर के दौरान यह 9.2 प्रतिशत था। विनिर्माण क्षेत्र ने वर्ष 2008-09 के अप्रैल नवंबर के दौरान 4.0 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की (वर्ष 2007-08 के अप्रैल-नवंबर में 9.8 प्रतिशत रही। तथा विद्युत क्षेत्र ने 2.9 प्रतिशत की वृद्धि दर्शायी (वर्ष 2007-08 के अप्रैल -नवंबर के दौरान यह 7.00 प्रतिशत रही थी)
  • वर्ष 2008-09 के अप्रैल- अक्तूबर के दौरान सेवा क्षेत्र गतिविधियों के प्रमुख संकेतकों द्वारा प्राप्त जानकारी के अनुसार कई संकेतकें यथा रेलवे राजस्व प्राप्ति तथा फ्रेट ट्रैफिक एवं नागरिक उद्ययन द्वारा की जाने वाली निर्यात वस्तुओं में वर्ष 2007-08 की तदनुरूपी अवधि की तुलना में तीव्र वृद्धि पायी गयी। इसकी तरफ प्रमुख एवं निर्यात वस्तुओं वाहनों एवं सीमेंट एवं स्टील को छोड़कर, नागरिक विमानन के अन्य संकेंतकों की वृद्धि में गिरावट नज़र आयी।

सकल मांग

  • यद्यपि हाल के वर्षों में निर्यात को क्रमिक रूप से उच्चतर महत्व मिलता रहा परंतु भारतीय अर्थव्यवस्था की कुल मांग प्रमुख रूप से घरेलू मांग द्वारा संचालित होती है। दूसरी तिमाही के साथ-साथ वर्ष 2008-09 की प्रथम तिमाही के दौरान आर्थिक मंदी उपभोग वृद्धि में सुधार एवं व्यापार घाटे में विस्तार के कारण हुई जो अंशत: निवेश मांग में वृद्धि से तेज हुई। दूसरी तरफ, उसी अवधि के दौरान सरकारी उपभोग व्यय में तेजी आयी।
  • वर्ष 2008-09 (अप्रैल नवंबर) के दौरान केंद्रीय सरकार वित्तपोषण पर प्राप्त अद्यतन जानकारी के अनुसार निरपेक्ष अवधि तथा बजट आकलन के प्रतिशत दोनों के अनुसार मुख्य रूप से उच्चतर राजस्व व्यय की वजह से अप्रैल-नवंबर 2007 की तुलना में राजस्व घाटा एवं राजकोषीय घाटा उच्चतर दर्ज किया गया।
  • बजट अनुमान के प्रतिशत के रूप में राजस्व कर में कमी आर्थिक मंदी के कारण आय कर, कार्पोशन कर एवं सीमा शुल्क में न्यूनतर वृद्धि के कारण हुई जो पिछले वर्ष की तुलना में कम रही। बजट अनुमान के प्रतिशत के रूप में सकल व्यय पिछले वर्ष की तुलना में उच्चतर रहा जो उच्चतर राजस्व व्यय विशेषकर आर्थिक सहायता, प्रतिरक्षा, अन्य आर्थिक सेवाओं, सामाजिक सेवाओं तथा राज्यों/संघ शासित क्षेत्रों को योजना अनुदान के कारण था।
  • जबकि आर्थिक मंदी के समाधान हेतु सरकार द्वारा शुरु किए गए राजकोषीय सुधार उपायों के कारण व्यय में वृद्धि संभावित है, आर्थिक गतिविधियों में नरमी के कारण वर्ष 2008-09 के आनेवाले महीनों में कर राजस्व में गिरावट की संभावना है। अनुदान के लिए दो अनुपूरक माँगों के कारण निवल नकदी बहिर्वाह 1,48,093 करोड़ रुपए आँका गया है। बदले में यह केंद्रीय बज़ट 2008-09 में परिकल्पित वर्ष 2008-09 के लिए घाटे के लक्ष्यों को प्राप्त नहीं करने के रूप में परिलक्षित होगा।
  • वर्ष 2008-09 (23 जनवरी, 2009 तक) के दौरान क्रमश: तेल विपणन कंपनियों एवं रासायनिक उर्वरक कंपनियों को 44,000 करोड़ रुपए एवं 14,000 करोड़ रूपयों की कीमत के विशेष बंधपत्र जारी किए गए थे।
  • वर्ष 2008-09 की प्रथम दो तिमाहियों के दौरान निजी कार्पोरेट क्षेत्र में चुनिन्दा गैर सरकारी गैर- वित्तीय सार्वजनिक क्षेत्र की लिमिटेड कंपनियों का बिक्री-निष्पादन काफी प्रभावशाली रहा; तथापि वर्ष 2007-08 की तुलना में लाभ कम हुए थे। बिक्री में वृद्धि के संबंध में व्यय में आई उच्चतर वृद्धि प्राथमिक रूप से बढ़ती हुई निविष्टि लागतों, ब्याज व्ययों एवं विदेशी मुद्रा से संबंधित विनिमय जिन्होंने लाभों पर दबाव डाला से संबंधित प्रतिभूतियों के दैनिक बाज़ार मूल्य के घाटों के लिए किए जा रहे बड़े प्रावधानों के कारण थी।

बाह्य अर्थव्यवस्था

  • वर्ष 2008-09 (अप्रैल - सितंबर ) की पहली छमाही के दौरान भारत के भुगतान संतुलन की स्थिति ने व्यापार घाटा दर्शाया जिसके परिणामस्वरुप बड़े चालू खाता घाटे एवं पूंजीगत प्रवाहों में नरमी आई। व्यापारिक कारोबारी घाटे ने अप्रैल - नवंबर 2008 के दौरान ज्यादा समय के लिए कच्चे तेल की बढ़ी हुई कीमतों एवं सितंबर 2008 से निर्यात की गति में आई कमी के कारण तेज वृद्धि दर्ज की। इनविज़िबल्स के अन्तर्गत निवल अधिशेष राशि में उछाल जारी रहा, एवं साथ ही सॉप्टवेयर निर्यात एवं निजी हस्तांतरणों में भी बढ़ोत्तरी होती रही। निवल पूंजीगत आगम तेजी से कम एवं वे वष्ंद 2008-09 को अब तक के दौरान अस्थिर रहे।
  • अप्रैल - सितंबर 2008 के दौरान व्यापारिक कारोबार में व्यापक वृद्धि ने चालू खाता घाटे में अप्रैल-सितंबर 2007 के स्तर की तुलना में महत्वपूर्ण वृद्धि दर्ज की है। अप्रैल - सितंबर 2008 के दौरान व्यापार घाटे में हुई वृद्धि का श्रेय उच्च आगम अदायगियों को दिया जा सकता है जे उच्च अन्तर्राष्ट्रीय पण्य मूल्यों विशेष तौर पर कच्चे तेल की कीमतों में परिलक्षित हुई।
  • अप्रैल-सितंबर 2008 के दौरान पूंजीगत खाते में अधिशेष राशि में सुधार हुआ जिससे वैश्विक वित्तीय उथल-पुथल के कारण बढ़े हुए सकल पूंजीगत वृद्धि प्रवाह परिलक्षित होते हैं। जबकि निवल आवक विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (विदेशी निवेशकों द्वारा निवल प्रत्यक्ष निवेश) में उछाल जारी रही जिनसे भारतीय अर्थव्यवस्था के सापेक्षत: मजबूत आधार परिलक्षित हुए एवं विदेशी प्रत्यक्ष निवेश को आकर्षित करने के लिए किए जा रहे जारी उदारीकरण उपाय, निवल बाह्य विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (अप्रवासी भारतीयों द्वारा निवल प्रत्यक्ष निवेश) भी अप्रैल - सितंबर 2008 के दौरान उच्च रहा। इसी अवधि के दौरान उच्च विदेशी प्रत्यक्ष निवेश अंतर्वाह एवं अप्रवासी भारतीयों की जमाराशियों के कारण सकल पूँजीगत अंतर्वाह उच्चतर बने रहे।
  • अवशिष्ट परिपक्वता की शर्तों के अनुसार संशोधित अल्पकालिक ऋण (एक वर्ष से कम) जिसमें संपूर्ण ऋण, वाणिज्यिक उधार, अप्रवासी भारतीयों की जमाराशियाँ अल्पावधि व्यापार ऋण क्रेडिट एवं मार्च 2009 तक परिपक्व होने वाले अन्य क्रेडिट का मार्च 2008 के अन्त में 85 विलियन डॉलर अनुमान किया गया था।
  • वाणिज्यिक आसूचना और अंक संकलन महानिदेशालय(डीजीसीआइएण्डएस)द्वारा जारी अनंतिम आँकड़ों के अनुसार, भारत के व्यापारिक माल निर्यात में अप्रैल-नवंबर 2008 के दौरान 18.7 प्रतिशत तक वृद्धि हुई जबकि आयात में अधिकांश रूप से पेट्रोलियम, तेल और लुब्रिकेंट (पीओएल) आयातों में बढ़ोतरी के कारण 32.5 प्रतिशत की उच्चतर वृद्धि दर्ज की गई। तेल आयात में वृद्धि प्रमुख रूप से अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की बढ़ी हई कीमतों के कारण थी जबकि तेल निर्यात के परिमाण में कमी आयी। अप्रैल-नवंबर 2008 के दौरान व्यापारिक माल कारोबारी घाटा बढ़कर 84.4 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गया जो एक वर्ष पूर्व 53.2 बिलियन अमरीकी डॉलर था।
  • 16 जनवरी 2009 तक की स्थिति के अनुसार विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि 252.2 बिलियन अमरीकी डॉलर थी जो मूल्यांकन हानियों के कारण परिवर्तनों सहित मार्च 2008 के अंत के स्तर से 57.5 बिलियन अमरीकी डॉलर कम थी।

मौद्रिक स्थितयाँ

  • मौद्रिक और चलनिधि सकल राशियों ने जो वर्ष 2008-09 की पहली छमाही के दौरान सुदृढ़ स्थिति में थीं पूँजी प्रवाहों में गिरावट को दर्शाते हुए और रिज़र्व बैंक द्वारा विदेशी मुद्रा हस्तक्षेप के परिणामस्वरूप तीसरी तिमाही के दौरान कुछ कमी दर्शायी।
  • 2 जनवरी 2009 को व्यापक मुद्रा (एम3) में वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि 19.6 प्रतिशत (7,36,777 करोड़ रु.) थी जो एक वर्ष पहले 22.6 प्रतिशत (6,91,768 करोड़ रु.) से कम थी।
  • बैंकों की समग्र जमाराशियों में एक वर्ष पहले 24.0 प्रतिशत (6,21,944 करोड़ रु पये) की तुलना में 2 जनवरी 2009 को वर्ष-दर-वर्ष 20.2 प्रतिशत (6,49,152 करोड़ रु.) का विस्तार हुआ।
  • बैंक ऋण मं वृद्धि ऊँचे स्तर पर बनी रही। अनुसूचित वाणिज्य बेंकों द्वारा गैर खाद्य ऋण एक वर्ष पहले 22.0 प्रतिशत (3,79,655 करोड़ रु.) की तुलना में 2 जनवरी 2009 को वर्ष-दर-वर्ष आधार पर 23.9 प्रतिशत (5,01,645 करोड़ रु.) था।
  • वैश्विक वित्तीय उथल पुथल की तीव्रता तथा घरेलू वित्तीय बाजार पर उसका प्रभाव और सुर्खियों में रही मुद्रास्फीति से रिज़र्व बैंक के लिए यह आवश्यक हो गया कि सितंबर 2008 के मध्य से अपनी मौद्रिक नीति को सरल बनाया जाए।
  • प्रारक्षित मुद्रा में वृद्धि 16 जनवरी 2009 को वर्ष-दर-वर्ष आधार पर 6.6 प्रतिशत थी जो एक वर्ष पहले के 30.6 प्रतिशत से काफी कम थी। नकदी प्रारक्षित निधि अनुपात में परिवर्तन के पहले चरण के प्रभाव में समायोजित करते हुए प्रारक्षित मुद्रा में वृद्धि एक वर्ष पहले 21.6 प्रतिशत की तुलना में 18.0 प्रतिशत थी।

वित्तीय बाजार

  • वित्तीय बाज़ार में संकट सितंबर 2008 के मध्य से लेहमैन ब्रदर्स के गिरने के बाद सभी देशों की कई अन्य वित्तीय फर्मों की असफलता के कारण और अधिक विकट हो गया। वित्तीय बाज़ारों पर दबाव बढ़ने से ऋण सीमा में रिकार्ड स्तर तक विस्तार होने तथा इक्विटी मूल्यों के ऐतिहासिक रूप से गिरने से बाजार में व्यापक उतार-चढ़ाव आए। ऋण और मुद्रा बाज़ारों से यह उथल पुथल वैश्विक वित्तीय प्रणाली की ओर अधिक व्यापक हो गई। इस संक्रमण ने उभरते हुए बाजारों को भी प्रभावित किया जिससे जोखिम प्रवृत्ति के गिरते हुए स्तर के बीच व्यापक आधार वाले आस्ति मूल्यों में कमी आई है।
  • इसके साथ-साथ, वैश्विक आर्थिक दृष्टिकोण में अत्यधिक गिरावट आई है। इसके परिणामस्वरूप, कई देशों के प्राधिकरणों ने प्रणालीगत जोखिम को नियंत्रित करने, आस्ति मूल्यों में वृद्धि को रोकने तथा अन्तर्राष्ट्रीय बैंकिंग प्रणाली में विश्वास बनाने के लिए नीति पहल की नई लहर शुरू की। हालांकि इन उपायों से स्थिरता का कुछ स्तर प्राप्त करने में सहायता मिली लेकिन अक्तूबर - दिसंबर 2008 की अवधि के दौरान वित्तीय बाजार स्थिति सामान्य से काफी दूर रहीं।
  • भारत में सितंबर के मध्य और अक्तूबर 2008 के बीच, विपरीत अन्तर्राष्ट्रीय गतिविधियों और कुछ घरेलू घटकों से उत्पन्न, चलनिधि की स्थिति काफी तंग रही। भारत में वित्तीय बाजार सितंबर 2008 के मध्य से दबाव में आ गए जो अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय बाजारों में अवरोधों के प्रभाव दर्शाते हैं। इससे रिज़र्व बैंक ने रूपये की मात्रा और विदेशी मुद्रा चलनिध्ंा ि को बढ़ाने के लिए सितंबर 2008 के मध्य से कई कदम उठाए।
  • तदनुसार, भारत में मुद्रा बाज़ार कुछ दबाव में आए जिसके पूंजी के प्रवाह और म्युच्युअल फंडों और अन्य निवेशकर्ताओं के समक्ष प्रतिदेय दबाव प्रतिबिम्बित हुए। मुद्रा बाजारों पर दबाव चलनिधि समायोजन सुविधा )एलएएफ) ऊपरी सीमा का उल्लंघन करती हुई मांग दरों से परिलक्षित होता है लेकिन यह नवंबर 2008 तक सीमा के भीतर आ गई। मुद्रा बाज़ार के संपार्श्विक घटकों में ब्याज दरें आगे-पीछे रहीं लेकिन 2008-09 की तीसरी तिमाही में मांग दरों से नीचे रहीं।
  • ऋण बाजार में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की उधार दरें जो प्रारंभ में बढ़ी हुई थीं, दिसंबर 2008 में घटने लगीं। सरकारी प्रतिभूति बाजार में प्रतिलाभ भी वर्ष 2008-09 की तीसरी तिमाही के दौरान सुधरने लगे।
  • विदेशी मुद्रा बाजार में भारतीय रुपए का सामान्यत: प्रमुख मुद्राओं की तुलना में अवमूल्यन हुआ। भारतीय इक्विटी बाजार में प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय इक्विटी बाजारों की प्रवृति के पूर्णत: अनुरूप गिरावट देखी गई।
  • रिज़र्व बैंक ने तेजी के साथ कई उपाय किए जिससे बाजार को पुन: आश्वस्त करते हुए चलनिधि स्थितियों को इस प्रकार सामान्य बनाने में सहायता मिली कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली सुरक्षित और सुदृढ़, सुपूँजीकृत और सुनियंत्रित बनी रहे।

मूल्य स्थिति

  • सितंबर 2008 से अधिकांश केंद्रीय बैंकों द्वारा अनुपालित की जा रही सुविधापूर्ण मौद्रिक नीति का लक्ष्य आर्थिक वृद्धि और रोजगार पर हाल के वित्तीय बाजार संकट के प्रतिकूल प्रभाव को कम करना था।
  • जुलाई/अगस्त 2008 से ही प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं में हेड लाइन मुद्रास्फीति में अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा और पण्य वस्तुओं की कीमतों में उल्लेखनीय गिरावट के साथ-साथ अमेरिकी सब-प्राइम संकट के बाद जारी वित्तीय बाजार अस्थिरता से उभरती हुई सकल मांग में गिरावट के कारण सुधार हुआ।
  • एक व्यापक अवधि तक बढ़े हुए स्तरों पर बने रहने के बाद कच्चे तेल, धातु और खाद्यान्नों की कीमतों में गिरावट के कारण वर्ष 2008-09 की दूसरी तिमाही से वैश्विक पण्य वस्तु-कीमतों में तेजी से गिरावट हुई। डब्ल्यूटीआइ कच्चे तेल की कीमतें 3 जुलाई 2008 को 145.3 अमेरिकी डालर प्रति बैरल के स्तर की ऐतिहासिक ऊंचाई पर रहते हुए आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) देशों में गिरती हुई मांग तथा कुछ विकसित देशों में उल्लेखनीय रूप से एशिया में आर्थिक मंदी को दर्शाते हुए 22 जनवरी 2009 को लगभग 42.3 अमेरिकी डालर प्रति बैरल तक सुधर गयी हैं। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (ओईसीडी) देशों विशेषत: चीन में कमजोर निर्माण मांग तथा आपूर्ति में कुछ सुधार दर्शाते हुए वर्ष 2008-09 की तीसरी तिमाही के दौरान धातु की कीमतों में और सुधार हुआ।
  • भारत में मुद्रास्फीति थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) में वर्ष-दर-वर्ष परिवर्तनों के आधार पर 2 अगस्त 2008 को आंतर वर्ष की 12.9 प्रतिशत की ऊंचाई से तेजी से गिरकर 10 जनवरी 2009 को 5.6 प्रतिशत हो गया। थोक मूल्य सूचकांक मुद्रास्फीति में हाल की गिरावट खनिज तेलों, लौह और इस्पात, तिलहन, खाद्य तेल, ऑयल केक, कच्चे कपास की कीमतों में गिरावट के कारण हुई।
  • प्रमुख समूह के बीच प्राथमिक वस्तु मुद्रास्फीति वर्ष-दर-वर्ष बढ़कर 10 जनवरी 2009 को 11.6 प्रतिशत हो गई जो एक वर्ष पूर्व में 4.5 प्रतिशत (वर्ष 2008 के मार्च के अंत तक 9.7 प्रतिशत) थी। यह मुख्य रूप से खाद्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से विशेषत: गेहूं, फल, दूध और अंडे, मछली और मांस के साथ-साथ तिलहन और कच्चे कपास जैसी गैर खाद्य वस्तुओं की कीमतों में वृद्धि से परिलक्षित हुआ।
  • ईंधन समूह मुद्रास्फीति 2 अगस्त 2008 को 18.0 प्रतिशत की आंतर वर्ष ऊंचाई की तुलना में 10 जनवरी 2009 को नकारात्मक (-1.3 प्रतिशत) हो गई। यह 6 दिसंबर 2008 से पेट्रोल की कीमतों में प्रति लीटर 5 रुपये और डिजल की कीमतों में प्रति लीटर 2 रुपये में कमी के साथ-साथ अगस्त 2008 से 30-65 प्रतिशत की सीमा में पेट्रोलियम उत्पादों के स्वतंत्र रूप से निर्धारित कीमतों में कमी से परिलक्षित हुआ।
  • विनिर्मित उत्पाद वस्तु मुद्रास्फीति वर्ष-दर-वर्ष सुधरकर 10 जनवरी 2009 को 5.9 प्रतिशत हो गई जो अगस्त 2008 के मध्य में 11.9 प्रतिशत की ऊंचाई पर थी लेकिन एक वर्ष पूर्व 4.6 प्रतिशत से अधिक बनी रही। विनिर्मित उत्पाद वस्तु कीमतों में वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि मुख्यत: चीनी, खाद्य तेलों/ऑयल केक, वॉा उद्योग, रसायन, लौह और इस्पात तथा मशीनरी और मशीनी उपकरणों के कारण थी।
  • उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआइ) में वर्ष-दर-वर्ष परिवर्तन पर आधारित मुद्रास्फीति नवंबर-दिसंबर 2008 के दौरान मुख्यत: खाद्य वस्तु, ईंधन और सेवाओं (‘विविध’ समूह के द्वारा दर्शाये गये) में वृद्धि के कारण थी। उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति के विभिन्न उपायों को नवंबर-दिसंबर 2008 के दौरान 10.4-11.1 प्रतिशत की सीमा में रखा गया जो जून 2008 में 7.3 - 8.8 प्रतिशत तथा नवंबर 2007 में 5.1 -6.2 प्रतिशत थे।

समष्टि आर्थिक दृष्टिकोण

  • अभी हाल ही में जारी की गई व्यवसाय प्रत्याशाओं के विभिन्न सर्वेक्षणों से सप्ष्ट है कि अर्थव्यवस्था में आशावादी भावनाओं की विद्यमानता कम है। दिसंबर 2008 में रिज़र्व बैंक द्वारा किए गए ‘व्यावसायिक अनुमानकर्ता’ सर्वेक्षण के परिणामों से भी यही सुझाव मिलता है कि 2008-09 के लिए आर्थिक क्रियाकलापों में और भी नरमी रहेगी।
  • निजी क्षेत्र में विनिर्माता कंपनियों के लिए रिज़र्व बैंक के संभावना सर्वेक्षण के अनुसार अक्तूबर-दिसंबर 2008 के लिए अनुमानों के आधार पर व्यवसाय प्रत्याशा सूचकों और जनवरी-मार्च 2009 के अनुमानों के आधार पर इनमें समरूपी विगत तिमाहियों की तुलना में क्रमश: 2.6 प्रतिशत और 5.9 प्रतिशत की गिरावट रही।
  • सितंबर 2008 से अब तक वैश्विक आर्थिक संभावना में कई देशों के परिप्रेक्ष्य में खासकर यूएस, यूके, यूरो क्षेत्र और जापान में मंदी को देखते हुए गिरावट दर्ज की गई है। भारत में भी आर्थिक क्रियाकलापों में गिरावट के प्रमाण मिले हैं। विकसित देशों में इस संकट का संक्रमण वित्तीय क्षेत्र से संपदा खेत्र की ओर गया जबकि भारत में संपदा क्षेत्र में आई मंदी ने वित्तीय क्षेत्र को प्रभावित किया, इसके फलस्वरूप संपदा क्षेत्र पर दुहरा बोझ पड़ गया।
  • सकारात्मक घटकों में देखें तो उपभोक्ता मांग में संभावित बढ़ोतरी शामिल है, जो कि मूलभूत उपभोग सीमा और टैक्स स्लैब में बढ़ोतरी, छठे वेतन आयोग के अधिनिर्णय, किसानों के लिए ऋण माफी और चुनाव पूर्व व्यय में बढ़ोतरी पर आधारित है।
  • अंतर्राष्ट्रीय उपभोक्ता कीमतों, खासकर कच्चे तेल, इस्पाद और चुनिंदा खाद्य वस्तुओं की कीमतों में गिरावट के कारण थोक मूल्य सूचकांक में तीव्र गिरावट हुई, यद्यपि इसमें घरेलू मांग में कमी का भी कुछ योगदान रहा। आगामी समय में अंतराष्ट्रीय उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों पर दृष्टिकोण को देखें तो यह संकेत मिलता है कि घरेलू कीमतों में और गिरावट होगी।

जी.रघुराज
उप महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2008-2009/1161

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