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भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर खंड 32 - संख्या 3 : विंटर 2011

9 जनवरी 2014

भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर खंड 32 - संख्या 3 : विंटर 2011

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने सामयिक पेपर का विंटर 2011 अंक जारी किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर रिज़र्व बैंक की अनुसंधान पत्रिका है और इसमें स्टाफ सदस्यों का योगदान होता है तथा लेखकों के विचार परिलक्षित होते हैं। इसमें निम्नलिखित आलेख, विशेष टिप्पणियां और पुस्तक समीक्षाएं सम्मिलित हैं।

भारत में वित्तीय स्थिरता, आर्थिक वृद्धि, मुद्रास्फीति और मौद्रिक नीति संयोजन : एक अनुभवजन्य झलक

श्री सरत धल, पूर्णेंदु कुमार और जुगनू अंसारी द्वारा ‘’भारत में वित्तीय स्थिरता, आर्थिक वृद्धि, मुद्रास्फीति और मौद्रिक नीति संयोजन : एक अनुभवजन्य झलक’’ पर तैयार किया गया पेपर भारत के संदर्भ में आर्थिक वृद्धि और मुद्रास्फीति के साथ वित्तीय स्थिरता के संयोजन से संबंधित महत्वपूर्ण मदों का अनुभवजन्य मूल्यांकन प्रस्तुत करता है। इस प्रयोजन के लिए इस अध्ययन में सदिश स्वप्रतिगमन (वेक्टर ऑटो रिग्रेशन) मॉडल का उपयोग किया गया है जिसमें 1995 की दूसरी तिमाही से 2012 की तीसरी तिमाही तक की अवधि के लिए उत्पादन, महंगाई, ब्याज दर और बैंकिंग क्षेत्र के स्थिरता सूचकांक शामिल हैं। बैंकिंग स्थिरता सूचकांक का निर्माण पूंजी पर्याप्तता, आस्ति गुणवत्ता, प्रबंधन कौशल, अर्जन और चलनिधि (कैमल) सूचकांकों से होता है। पेपर से पता चलता है कि एक ओर वित्तीय स्थिरता और दूसरी ओर उत्पादन, महंगाई और ब्याज दरों वाले समष्टि आर्थिक सूचकांक सांख्यिकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण द्विदिशीय ग्रेन्जर ब्लॉक कॉजल रिलेशनशिप शेयर कर सकते हैं। वीएआर मॉडल के प्रभावी प्रतिक्रियात्मक कार्य कुछ रोचक परिदृश्य उपलब्ध कराते हैं। पहला, वित्तीय स्थिरता, वृद्धि और महंगाई में मध्यम-दीर्घकालीन संबंध हो सकते हैं। दूसरा, बढ़ी हुई वित्तीय स्थिरता उच्चतर वृद्धि से जुड़ी हुई हो सकती है जिसके साथ मध्यम से दीर्घ अवधि में मूल्य स्थिरता को अधिक जोखिम में न डालते हुए नरम ब्याज दरें होंगी। तीसरे, बढ़ी हुई आर्थिक स्थिरता अथवा उच्चतर उत्पादन वृद्धि से आर्थिक स्थिरता में वृद्धि हो सकती है। चौथा, उच्चतर मुद्रास्फीति अथवा मूल्य अस्थिरता से वित्तीय स्थिरता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है। पांचवां, वित्तीय स्थिरता से मुद्रा प्रसार प्रणाली की प्रभावक्षमता में योगदान मिल सकता है। अंतत: पेपर इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि वित्तीय स्थिरता से उत्पादन वृद्धि और अधिक स्थायी हो सकती है और महंगाई कम स्थायी।

भारत में कोर मुद्रास्फीति की माप - एक अनुभवजन्य मूल्यांकन

जनक राज और संगीता मिश्रा ने अपने पेपर ‘’भारत में कोर मुद्रास्फीति की माप - एक अनुभवजन्य मूल्यांकन'' में 2004-11 तक की अवधि के लिए थोक मूल्य सूचकांक (2004-05 = 100) पर आधारित कोर मुद्रास्फीति की 7 अपवर्जन (exclusion) आधारित मापों का विश्लेषण करने का प्रयास किया है। इन मापों की अस्थिरता, निष्पक्षता और प्रवृत्ति तथा पूर्वानुमेयता का पता करने के लिए जांच की गई। पेपर का निष्कर्ष यह रहा है कि 2 मापों अर्थात खाद्य को छोड़कर थोक मूल्य सूचकांक और खाद्य और ईंधन को छोड़कर थोक मूल्य सूचकांक ने अस्थिरता के मामले में अच्छा निष्पादन नहीं किया, शेष 5 मापों – ईंधन को छोड़कर थोक मूल्य सूचकांक, खाद्येतर विनिर्माण थोक मूल्य सूचकांक, ईंधन, मूल धातु और धातु उत्पादों को छोडकर थोक मूल्य सूचकांक, ईंधन, धातु समूह और खाद्येतर प्राथमिक वस्तुओं को छोड़कर थोक मूल्य सूचकांक और गैर-धातु विनिर्माण थोक मूल्य सूचकांक ने अस्थिरता ,निष्पक्षता और भावी मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति और पूर्वानुमेयता संबंधी शर्तों को व्यापक रूप से पूरा किया। इन पांच मापों में पारंपरिक अंतराल दृष्टिकोण मॉडल के आधार पर यह जांच की गई है कि खाद्येतर विनिर्माण को छोड़कर सभी कोर माप मूल गुणस्वभाव के विपरीत हेडलाइन महंगाई पर लौट आते हैं । इन निष्कर्षों को आगे ग्रेंजर कॉजॅलिटी और मुद्रास्फीति निरंतरता जांच द्वारा पुष्ट किया गया। इस प्रकार पेपर से यह निष्कर्ष निकलता है कि खाद्येतर विनिर्माण ही केवल एक अपवर्जन आधारित माप है जो विस्तृत रूप से कोर मापक के सभी गण-स्वभावों की पूर्ति करता है। तथापि कोर मुद्रास्फीति के निर्माण में जानकारी की हानि और तुलनात्मक रूप से हेडलाइन मुद्रास्फीति की अधिक जन स्वीकार्यता से कोर मापक नीतिगत लक्ष्यों की तुलना में अंतर्निहित मुद्रास्फीति प्रक्रिया के केवल सूचक होते हैं। इस प्रकार, अंतर्विष्ट हेडलाइन मुद्रास्फीति और न कि कोर मुद्रास्फीति मौद्रिक नीति का केंद्रबिंदु होनी चाहिए, विशेषकर भारत जैसे देशों में जहां खाद्य और ईंधन उपभोग बास्केट के मुख्य अंश हैं ।

भारत में कॉरपोरेट बॉण्ड मार्केट : मुद्दे और चुनौतियां

‘’भारत में कॉरपोरेट बॉण्ड मार्केट : मुद्दे और चुनौतियां‘’ नामक पेपर में अमरेंद्र आचार्य ने भारत में कॉरपोरेट ऋण बाज़ार पर साहित्य में कमी को पूरा करने का प्रयास किया है । मुद्दों के निपटान के दृष्टिकोण विश्लेषणात्मक और अनुभवजन्य दोनों प्रकार के हैं । कॉरपोरेट बॉण्ड और प्रतिभूतिकरण पर आर.एच. पाटिल समिति की सिफारिशों पर हुई प्रगति का वर्णन वित्तीय बाज़ार के इस खंड पर मुद्दों के विश्लेषण के परिणाम के रूप में किया गया है। एसवीआरए के माध्यम से मौद्रिक नीति के प्रसारण का अनुभवजन्य सत्यापन और वीईसीएच (1,1) के माध्यम से अस्थिरता प्रभाव-विस्तार से यह पुष्टि होती है कि यह खण्ड घाटे की चलनिधि शर्तों में मौद्रिक नीति पर प्रतिक्रिया दिखाता है और इस पर विदेशी प्रभावों का असर नहीं होता है।

विशेष नोट

''आफ्टर ए डिकेड - वॉट डू दि ट्रेन्ड्स एण्ड प्रोग्रेस ऑफ फिस्कल मैनेजमेंट ऑफ उत्तराखंड सजेस्ट?”, शीर्षांकित नोट में पी.एस. रावत ने नवंबर 2000 में हुई स्थापना से एक दशक बाद की उत्तराखंड की राजस्व संबंधी परिस्थितियों का पर्यावलोकन प्रस्तुत किया है। बजटीय लेनदेनों के संरचनागत पहलुओं को समझने के उद्देश्य से लेखक ने उत्तराखंड के वित्त की जांच की है। यह देखा गया है कि यद्यपि उत्तराखंड को राजस्व संबंधी समस्याएं विरासत के रूप में अविभाजित उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुई है, एफआरबीएम अधिनियम का लागू हो जाना और वैट का कार्यान्वयन राज्य की राजस्व संबंधी स्थिति में सुधार लाने के लिए सहायक सिद्ध हुए हैं। एफआरबीएम के लागू हो जाने के पहले का सकल राजस्व घाटा 5.1 प्रतिशत से एफआरबीएम के लागू हो जाने के बाद की अवधि में घटकर 3.2 प्रतिशत हो गया। फिर भी 2009-10 से छठे वित्त आयोग के कार्यान्वयन और घरेलु अर्थव्यवस्था में मंदी के कारण कर वसूली में आई कमी के कारण वहां कुछ राजस्व संबंधी दवाब बढ़ गया है। पेपर में यह सुझाव दिया गया है कि उत्तराखंड की अर्थव्यवस्था को और तेज करने के लिए सार्वजनिक नीतियों को उच्च प्राथमिकता दी जाएं जो वनों से वृद्धि की संभावना को ध्यान में रखते हुए समृद्ध जैव मंडलीय सुरक्षा सुनिश्चित करते हुए उत्पादकीय क्षमताओं को बढ़ाएंगी।

पुस्तक समीक्षाएं

दीपक चौधरी ने ची लो लिखित पाल्ग्रेव मैकमिलन (यूके) द्वारा प्रकाशित पुस्तक ''चाइना आफ्टर सब प्राइम क्राइसिस : अपॉर्च्यूनिटीज इन दि न्यू इकॉनमिक लैंडस्केप'' की समीक्षा की है।

लेखक विश्व की महान शक्ति के रूप में चीन के विकास के लिए विश्व आर्थिक संकट के प्रभावों की जांच करता है। इसमें वृद्धि के गतिविज्ञान से वित्तीय क्षेत्र के कड़ेपन तक विविध विषय जो किसी अर्थव्यवस्था के लिए वैश्विक प्रांगण में अपना स्थान बनाने में महत्वपूर्ण होते हैं, शामिल किए गए हैं। लेखक की राय है कि तिकोने आपूर्ति पक्ष विस्तार वृद्धि मॉडल से चीन की घरेलु खपत को कम किया गया है। तथापि, भारी घरेलु बचत, कम कर्ज-आश्रित उपभोक्ता क्षेत्र, समाज कल्याण में सुधार और महत्वपूर्ण भारी खपत के कारण यह अपेक्षित है कि चीन की वृद्धि अधिक कायम रहेगी और बाहरी मांग पर कम निर्भर रहेगी।

सौमश्री तिवारी ने शंकर आचार्य द्वारा लिखित और ओरिएंट ब्लैकस्वान (हैदराबाद) द्वारा प्रकाशित ''इंडिया आफ्टर ग्लोबल क्राइसिस'' नामक पुस्तक की समीक्षा की है। यह पुस्तक जो लेखक द्वारा संकलित निबंधों का संग्रह है, 2008 में उभरे अमरीकी आर्थिक संकट और विश्व अर्थव्यवस्था द्वारा यूरोपीय संघ सरकारी ऋण समस्या के आघात का सामना करने वाली अवधि के दौरान के भारत के कार्यनिष्पादन पर ध्यान केंद्रित करती है। इस पुस्तक में लेखक ने 2008 के वैश्विक आर्थिक और वित्तीय समस्याओं के सामने भारत की आघात सहनीयता का सुस्पष्ट चित्र प्रस्तुत किया है जिसके बाद सुदृढ़ वृद्धि, पूंजी खाता परिवर्तनीयता, बैंकों और अन्य वित्तीय मध्यस्थों के विनियमन के प्रति भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) का नियमित दृष्टिकोण देखा गया। लेखक के अनुसार सरकारी ऋण समस्याओं के फिर से उभरने और विकसित देशों के खराब कार्यनिष्पादन के परिप्रेक्ष्य में निकट भविष्य में संकट के खत्म होने के अवसर सुदूर हैं जिनका आने वाले वर्षों में भारत के वृद्धि निष्पादन पर प्रभाव होगा।

अजीत प्रसाद
सहायक महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2013-2014/1386

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