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भारतीय रिजर्व बैंक सामयिक पेपर्स वॉल्यूम 35 और 36 – संख्या 1 व 2: 2014 और 2015

25 नवंबर 2016

भारतीय रिजर्व बैंक सामयिक पेपर्स वॉल्यूम 35 और 36 –
संख्या 1 व 2: 2014 और 2015

भारतीय रिजर्व बैंक ने आज अपने सामयिक पेपर्स के वॉल्यूम 35 और 36 (2014 और 2015 के लिए संयुक्त) को जारी किया। भारतीय रिजर्व बैंक सामयिक पेपर्स रिजर्व बैंक की एक शोध पत्रिका है और इसमें उसके स्टाफ का योगदान शामिल है जो लेखकों के विचारों को दर्शाता है। इस अंक में चार लेख, दो विशेष नोट और एक किताब की समीक्षा शामिल है।

आलेख

i) भारत में आरक्षित निधि की पर्याप्तता का मूल्यांकन

“भारत में आरक्षित निधि की पर्याप्तता का मूल्यांकन” नामक पेपर में राजीव दास और सिद्धार्थ नाथ ने विभिन्न तरीकों का उपयोग करके भारत में विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्तता की परख की है। इसमें पता चलता है कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार समान बाह्य क्षेत्र की विशेषताओं जैसे चालू खाते के घाटे और उच्च विदेशी पोर्टफोलियो निवेश के समान होने पर भी कई देशों की तुलना में अधिक है और आरक्षित निधि पर्याप्तता के लिए 'रूल्स ऑफ द थम' से जुड़ा है। लेखकों का मानना है कि भारत की आरक्षित निधि होल्डिग पर्याप्त है और काफी हद तक अपनी बढ़ते बाह्य क्षेत्र में खुलेपन और जुड़े जोखिम के आलोक में आरक्षित निधि के कई एहतियाती उद्देश्यों से समझाया जाता है। अर्थमितीय विश्लेषण से पता चलता है कि भारत का वास्तविक आरक्षित निधि स्तर अनुमानित आरक्षित निधि मांग समीकरण के पूर्वानुमान के आसपास पर्याप्तता बैंड के भीतर है।

ii) भारत में मुद्रास्फीति प्रत्याशा और उपभोक्ता खर्च: उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण से साक्ष्य

“भारत में मुद्रास्फीति प्रत्याशा और उपभोक्ता खर्च: उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण से साक्ष्य” पर सुमन यादव और रविशंकर द्वारा लिखा गया पेपर भारत में उपभोक्ता खर्च और मुद्रास्फीति प्रत्याशा के बीच आनुभविक संबंधों की जाँच भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा मार्च 2011 से सितंबर 2014 के बीच विभिन्न दौरे में किए गए परिवारों के तिमाही उपभोक्ता विश्वास सर्वेक्षण के सूक्ष्म डेटा का उपयोग कर की गई है। पेपर में पता लगता है कि उच्च मुद्रास्फीति प्रत्याशा उच्च वर्तमान घरेलू खर्च करवाती है और भविष्य में भी कम खर्च की योजना बनाती है। इन निष्कर्षों का समय के साथ और विभिन्न जनसांख्यिकीय और व्यक्तिगत गुण के साथ स्थिर होना पाया गया है।

iii) सरकारी नकदी परिचालनः भारत में अस्थिरता और प्रबंधन

“सरकारी नकदी परिचालनः भारत में अस्थिरता और प्रबंधन” नामक पेपर में जय चंदर भारत सरकार के नकदी प्रबंध ढांचे की रूपरेखा बनाता है और अपने नकदी संतुलन में अस्थिरता को संभालने में भारत सरकार की ऋण प्रबंध कार्यनीति की प्रभावशीलता का आकलन करता है। पेपर में निष्कर्ष दिया गया है कि नकदी संतुलन में अस्थिरता मुख्य रूप से राजस्व और गैर-बाजार स्रोतों से उधार के कारण आई जबकि व्यय से अस्थिरता कम होना पाया गया। अनुभवजन्य साक्ष्य संकेत करते हैं कि ऋण प्रबंध कार्यनीति में प्रभावी भिन्नताएं देखी गई हैं जिसने नकदी संतुलन में अस्थिरता कम करने में मदद की।

iv) संरचनात्मक राजकोषीय संतुलनः भारत के लिए अनुभवजन्य जांच

“संरचनात्मक राजकोषीय संतुलनः भारत के लिए अनुभवजन्य जांच” नामक पेपर में संगीता मिश्रा और पुष्पा त्रिवेदी कारोबारी चक्रों के संदर्भ में भारत के लिए राजकोषीय संतुलन का विश्लेषण करते हैं और इकॉनोमेट्रिक दृष्टिकोणों का उपयोग करते हुए राजकोषीय संतुलन के संरचनात्मक घटकों का हिसाब लगाते हैं और इसके बाद देशपार अनुमानों हेतु ओईसीडी और ईसीबी को देखा गया है। अध्ययन में निष्कर्ष है कि अनुभवजन्य अनुमानित लचीलेपन के दायरे को देखते हुए और कभी-कभार होने वाली गतिविधि को ध्यान में रखते हुए राजकोषीय नीति पर आउटपुट चक्रों और कर आधार चक्रों का स्वचालित प्रभाव आउटपुट अंतराल अनुमानों के आधार पर जीडीपी के क्रमशः 0.6-0.7 प्रतिशत और 0.2-0.4 प्रतिशत की सीमा तक हो सकता है। इस प्रकार, भारत के लिए संरचनात्मक राजकोषीय संतुलन औसतन कम से कम लगभग 0.8 प्रतिशत बिंदु के आसपास हो सकता है जिसे वास्तव में देखा गया है।

विशेष टिप्पणियां

ऋण संसाधन जुटाने के लिए एक लिखत के रूप में निजी नियोजन का चयनः भारतीय फर्मों से साक्ष्य नामक नोट में, अवधेश कुमार शुक्ला और ए.एडविन प्रभु अनुभव से निफ्टी 500 गैर-वित्तीय फर्मों के लिए निजी नियोजन हेतु फर्म के चयन पर फर्म स्तरीय और समष्टि आर्थिक स्थिति के महत्व का परीक्षण करते हैं, इसके लिए वर्ष 2003-04 से वर्ष 2014-15 की अवधि को कवर किया गया है। निजी रूप से नियोजित कंपनियों की वित्तीय विशेषताओं के आधार पर विश्लेषण दर्शाता है कि ये अनुदेश तुलनात्मक रूप से बड़ी आस्ति आकार, कम वृद्धि संभावना और वित्तीय दबाव की अधिक संभावना वाली कंपनियों द्वारा जारी किए जाते हैं। अध्ययन में समष्टि आर्थिक स्थिति के मजबूत साक्ष्य दिया गया है जो निजी नियोजन हेतु किसी फर्म के चयन को प्रभावित करता है।

“लघु उधारकर्ताओं को बैंक क्रेडिटः आपूर्ति और मांग पक्ष संकेतकों पर आधारित विश्लेषण” पर एक अन्य नोट में पल्लवी चव्हान भारतीय बैंकों द्वारा लघु उधारकर्ताओं के कवरेज़ का विश्लेषण करती है जिसमें बैंकों के क्रेडिट पोर्टफोलियो (आपूर्ति पक्ष) और उधारकर्ता परिवारों के ऋण पोर्टफोलियो (मांग पक्ष) पर आंकड़ों का उपयोग किया गया है। लेखिका निष्कर्ष देती है कि वर्ष 2005 से बैंकिंग प्रणाली द्वारा लघु उधारकर्ताओं के कवरेज़ के संबंध में कतिपय अनुकूल बदलाव हुए हैं। प्रमुख लाभकर्ता ग्रामीण क्षेत्रों की लघु महिला उधारकर्ता, कृषि/ग्रामीण श्रमिक और छोटे/सीमांत किसान रहे हैं। तथापि, इस अवधि के दौरान बैंक क्रेडिट के आवंटन में शहरी क्षेत्रों के लघु महिला उधारकर्ताओं और पिछड़े सामाजिक समूहों के बढ़ते सीमांतीकरण के संकेत दिखाई दे रहे हैं। निष्कर्षों के आधार पर लेखक ग्रामीण क्षेत्रों में बैंकिंग उपस्थिति के सुदृढ़ीकरण हेतु वित्तीय समावेशन पर नीति को जारी रखने तथा बढ़ते शहरीकरण के आलोक में शहरी गरीबों की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है।

पुस्तक समीक्षा

आनंद शंकर ने बेन बर्नांके की पुस्तक “दि करेज़ टु एक्टः ए मेमॉयर ऑफ ए क्राइसिस एंड इट्स आफटरमैथ” (डब्ल्यू.डब्ल्यू. नोर्टन एंड कंपनी 2015) की समीक्षा की है। बर्नांके ने वित्तीय संकट के दौरान अमेरिका में कई वित्तीय संस्थाओं को दी गई वित्तीय सहायता के पीछे के औचित्य को समझाने और लेहमन को क्यों नहीं बचाया जा सका, प्रश्न का जवाब देने का प्रयास किया है। पुस्तक में वित्तीय संकट की घटना और इसके प्रबंध के अतिरिक्त भी बहुत कुछ है। इसमें अच्छे नीति संप्रेषण, वित्तीय संकट के समय नीतिगत कार्ययोजना की रूपरेखा, मानव संसाधन प्रबंध, वित्तीय स्थिरता नीति और इसका कार्यान्वयन, विनियमन और पर्यवेक्षण के लिए एक संपूर्ण दृष्टिकोण की आवश्यकता, नीति की पारदर्शिता, मुद्रास्फीति का लक्ष्य, अपारंपरिक मौद्रिक नीति, मात्रात्मक सहजता और सामान्य रूप से नीतिनिर्माताओं और विशेषरूप से केंद्रीय बैंकों की रूचि के अनेक अन्य मुद्दों पर व्याख्यात्मक समीक्षा दी गई है।

अल्पना किल्लावाला
प्रधान परामर्शदाता

प्रेस प्रकाशनी : 2016-2017/1325

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