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भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर खंड 38 – सं. 1 और 2 : 2017

24 जुलाई 2018

भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर खंड 38 – सं. 1 और 2 : 2017

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने सामयिक पेपरों का 38वां खंड जारी किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर रिज़र्व बैंक का अनुसंधान जर्नल है जिसमें रिज़र्व बैंक के स्टाफ का योगदान होता है तथा यह लेखकों के विचार दर्शाता है। इस अंक में चार लेख और तीन पुस्तक समीक्षाएं हैं।

लेख

1. गूगल ट्रेंड डेटा का उपयोग करते हुए भारत में रियल एस्टेट गतिविधि की फौरी पूर्वानुमान (नाउकास्टिंग)

प्रतीक मित्रा, अनिर्बन सान्याल और सोहिनी चौधरी द्वारा लिखा गया यह पेपर स्पष्ट करता है कि रियल एस्टेट क्षेत्र भारत में आर्थिक वृद्धि का प्रमुख संचालक होने के बावजूद वर्ष 2011-12 से सकल संवृद्धित वृद्धि में लगभग 11 प्रतिशत का योगदान कर रहा है, समयबद्ध तरीक से आंकड़ों की अनुपलब्धता इस क्षेत्र के कार्यनिष्पादन के वस्तुनिष्ठ आकलन में बाधा डालती है। यह पेपर गूगल सर्च आंकड़ों का उपयोग करते हुए रियल एस्टेट कंपनियों की बिक्री वृद्धि का फौरी पूर्वानुमान (नाउकॉस्टिंग) लगाने के लिए बिग डेटा एनैलिटिक्स का उपयोग करके इस अंतराल को पाटने का प्रयास करता है। पेपर निष्कर्ष निकालता है कि सर्च सघनता सूचना वर्तमान तिमाही के कार्यनिष्पादन का फौरी पूर्वानुमान लगाते हुए अन्य बेंचमार्क दृष्टिकोणों की तुलना में सटीकता में सुधार करती है।

2. भारत में फोरेक्स और स्टॉक बाजारों के बीच अस्थिरता प्रभाव-विस्‍तार (स्पिल-ओवर)

सुदर्शन साहू, हरेन्द्र बेहरा और पुष्पा त्रिवेदी द्वारा लिखा गया यह पेपर भारतीय विदेशी मुद्रा बाजार (फॉरेक्स) तथा स्टॉक बाजारों के बीच मूल्य और अस्थिरता प्रभाव-विस्‍तार की जांच करता है। स्टॉक बाजारों से अस्थिरता प्रभाव-विस्‍तार के लिए विदेशी मुद्रा बाजार की प्रतिक्रिया विषम है अर्थात स्टॉक बाजारों से नकारात्मक झटकों के परिणामस्वरूप सकारात्मक झटकों के मामले में विदेशी मुद्रा बाजार में उच्चतर अस्थिरता होती है। उच्च अस्थिर अवधियों के दौरान अस्थिरता प्रभाव-विस्‍तार पर साक्ष्य संभावित ‘संक्रमण’ प्रभाव की ओर संकेत करता है जो अस्थिरता को बढ़ा देता है और वित्तीय प्रणाली में दबाव बढ़ा देता है।

3. बिजनस क्रेडिट के लिए संपार्श्विक आवश्यकता कम करने के लिए अंतर-कालिक गणनात्मक ट्रस्ट डिज़ाइन

सिलु मुदुली और श्रीधर कुमार दाश प्रकाश डालते हैं कि सूचनात्मक विषमता से उत्पन्न होने वाली क्रेडिट राशनिंग तथा संपार्श्विक का अभाव क्रेडिट बाजारों में अच्छी तरह से चिह्नित आर्थिक बाधा है। यह अंतर-कालिक प्रोत्साहित भुगतान संरचना को डिज़ाइन करके विश्वसनीयता के आयाम (गणनात्मक ट्रस्ट) पर ध्यान केंद्रित करता है जो किसी परियोजना के बारे में उपलब्ध निजी सूचना को दर्शाने के लिए आर्थिक एजेंटों या परियोजना को वित्तपोषित करने वाले क्रेडिट के भुगतान के सच्चे इरादों को प्रेरित करती है। यह मॉडल उधारकर्ता की सच्चाई को ध्यान में रखते हुए आवश्यक संपार्श्विक का जोशीले ढंग से अनुमान लगाता है। अनुकरण परिणाम यह भी दिखाते हैं कि विश्वास निर्माण छोटे कारोबार मालिकों के लिए संपार्श्विक की आवश्यकता को काफी हद तक कम करने में मदद करता है।

4. वैश्विक चलनिधि और भारत में विदेशी पोर्टफोलियो प्रवाहः अनुभवजन्य आकलन

इस पेपर में, अमरेन्द्र आचार्य, प्रकाश सालवी और सुनील कुमार वैश्विक चलनिधि की भारत में बाह्य वित्तीय प्रवाहों के संचालक के रूप में भूमिका की जांच करता है। उन्होंने पाया है कि वैश्विक चलनिधि स्थितियों का प्रभाव प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और बाह्य वाणिज्यिक उधारों की तुलना में भारत में विदेशी पोर्टफोलियो निवेश प्रवाहों में अधिक होता है। इसके अलावा, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं की उदार मौद्रिक नीतियों का भारत में चलनिधि अंतर चैनल अधिक स्पष्ट पाया गया है, जबकि पोर्टफोलियो संतुलन चैनल और विश्वास चैनल भारत में पोर्टफोलियो प्रवाहों पर सांख्यिकीय रूप से अधिक प्रभाव नहीं दर्शाते हैं।

पुस्तक समीक्षाएं

उपर्युक्त चार लेखों के अतिरिक्त, सामयिक पेपरों के इस अंक में तीन पुस्तक समीक्षाएं दी गई हैं :

1. के. जयंती आनंद ने माउरो एफ. गुलन द्वारा रचित पुस्तक “दि आर्किटेक्चर ऑफ कॉलप्सः द ग्लोबल सिस्टम इन द 21 सेंचुरी” की समीक्षा की है। पुस्तक में तर्क दिया गया है कि आधुनिक वैश्विक प्रणाली जटिल, अंतर-संबद्ध, दुष्कर और अपूर्वानुमेय बन गई है तथा यह जिस तरह से वर्तमान में संरचित की गई है, उसके कारण अस्थिर हो गई है।

2. दीपक चौधरी ने संजय भगत द्वारा रचित पुस्तक फाइनैंशियल क्राइसिस, कॉर्पोरेट गवर्नेंस एंड बैंक कैपिटल की समीक्षा की है। यह पुस्तक वर्ष 2007-08 के वैश्विक वित्तीय संकट, विशेषकर जो बैंकों के कॉर्पोरेट अभिशासन और शीर्ष कार्यपालकों के अनुकम्पा पैकेज से संबंधित है, के कुछ जटिल पहलुओं को स्पष्ट करती है। यह बैंकों में कॉर्पोरेट अभिशासन और पूंजी अपेक्षा के बीच संबंध के अनुभवजन्य विश्लेषण में विशिष्ट दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है।

3. मधुचंदा साहू ने केट रावर्थ द्वारा रचित पुस्तक “डोनट इकॉनमिक्सः सेवन वेज टु थिंक लाइक अ 21 सेंचुरी इकॉनमिस्ट” की समीक्षा की है। यह पुस्तक बताती है कि आउटपुट वृद्धि का अनुकरण करते हुए संसाधनों के उपयोग और वातावरण संधारणीयता पर ध्यान केंद्रित करते हुए हमारे उद्देश्यों को पुनः वरीयता देने की आवश्यकता है। यह पुस्तक डोनट के रूप में अर्थव्यवस्था को देखने का नया दृष्टिकोण अपनाती है जिसमें अंदरुनी हिस्सा (रिंग) सामाजिक और मानवीय नींव प्रस्तुत करता है और बाहरी हिस्सा (रिंग) परिस्थिति संबंधी पहलुओं की ओर संकेत करता है। पुस्तक बताती है कि हमारे उद्देश्य हिस्सों के अंदर रहने चाहिए।

जोस जे. कट्टूर
मुख्य महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी: 2018-2019/211

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