रिज़र्व बैंक समसामयिक पेपर खण्ड 39- संख्या 1 और 2 : 2018 - आरबीआई - Reserve Bank of India
रिज़र्व बैंक समसामयिक पेपर खण्ड 39- संख्या 1 और 2 : 2018
31 दिसंबर 2018 रिज़र्व बैंक समसामयिक पेपर खण्ड 39- संख्या 1 और 2 : 2018 भारतीय रिज़र्व बैंक आज अपने समसामयिक पेपर खण्ड 39 को जारी किया। रिज़र्व बैंक समसामयिक पेपर रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है और इसमें इसके कर्मचारियों का योगदान होता है और यह लेखकों के विचारों को दर्शाता है। इस अंक में पाँच लेख और दो पुस्तक समीक्षाएं शामिल हैं। लेख 1. कृषि ऋण माफी: तमिलनाडु की योजना का एक वृत्त अध्ययन दीपा एस. राज और एडविन प्रभु ए. द्वारा लिखा गया यह पेपर 2016 के तमिलनाडु के कृषि ऋण माफी योजना के प्रभाव और निहितार्थ की जांच करता है, जो राज्य के सात जिलों के एक क्षेत्र सर्वेक्षण के माध्यम से एकत्र किए गए आंकड़ों और साथ ही चयनीत प्राथमिक कृषि सहकारी ऋण समितियों से प्राप्त कृषि ऋण लेनदेन के आंकड़ों पर आधारीत है।पेपर के अनुभवजन्य निष्कर्षों से पता चलता है कि कृषि ऋण माफी के तत्काल पश्चात की अवधि में, 5 एकड़ की कटाई के पास, लाभार्थी किसानों की तुलना में गैर-लाभकारी किसानों के लिए ऋण प्राप्त करने की संभावना अधिक थी। हालांकि, लाभार्थी किसान और गैर-लाभार्थी किसान को ऋण माफी के बाद की छूट का अंतर कृषि ऋण के लिए धन की आपूर्ति सामान्य हो जाने पर कम हो जाता है। 2. क्या राजकोषीय नीति विकास के लिए महत्वपूर्ण है? उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं से साक्ष्य 2008 के वित्तीय संकट के बाद अर्थव्यवस्थाओं को पुनर्जीवित करने के लिए विश्व स्तर पर अधिकाधिक राजकोषीय सक्रियता की वकालत करते हुए, इंद्रनील भट्टाचार्य और अत्रि मुखर्जी ने 20 प्रमुख उभरते बाजार अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करने में राजकोषीय नीति की प्रभावकारिता की जांच की। उनके निष्कर्ष आर्थिक विकास को प्रोत्साहित करने में विस्तारक राजकोषीय नीति की अप्रभावीता को दर्शाते हैं। वित्तीय कारक, जो वित्तीय संकट के पूर्व और बाद के वर्षों के संदर्भ में विकास में कमी और नमूने को छोटा कर रहे थे, को नियंत्रित करने से, राजकोषीय उत्तेजना का प्रभाव बाद की अवधि में सकारात्मक और सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ है। इन निष्कर्षों से पता चलता है कि उत्तेजना के अभाव में वित्तीय संकट के बाद की अवधि में वृद्धि में गिरावट बहुत तेज हो गई होती, जिसका अर्थ है कि इन ईएमई द्वारा अपनाई गई राजकोषीय सक्रियता विकास के पतन को रोकने में सफल रही। 3. भारत में कार्यान्वित होने के बाद आरंभिक सार्वजनिक प्रस्ताव (आईपीओ) फर्मों का परिचालनात्मक निष्पादन: एक पुनर्विचार अवधेश कुमार शुक्ला और तारा शंकर शॉ अपने प्रारंभिक सार्वजनिक प्रस्तावों (आईपीओ) के बाद भारतीय फर्मों के परिचालनात्मक निष्पादन में बदलाव का आकलन करते है। पेपर में यह निष्कर्ष निकाला गया है कि आईपीओ के बाद फर्मों के परिचालनात्मक निष्पादन में कोई गिरावट नहीं है, अगर ‘लाभ’ जैसे निष्पादन संकेतक को परिसंपत्तियों के बजाय बिक्री की मात्रा (यानी, बिक्री पर प्रतिफल) द्वारा नियमित किया जाता है (यानी, परिसंपत्ति पर प्रतिफल)। इसी तरह के अन्य अध्ययनों में रिपोर्ट की गई आईपीओ के बाद की परिसंपत्ति के प्रतिफल में स्पष्ट गिरावट के विपरीत, यह पेपर बिक्री पर एक स्थिर प्रतिफल का अन्वेषण करता है। 4. भारत में वित्तीय आउटरीच और विकास: उप-राष्ट्रीय स्तर पर सहभागिता सुनील कुमार, प्रभात कुमार, अरविंद श्रीवास्तव, अमरेन्द्र आचार्य और दीपक चौधरी द्वारा इस पेपर में 1996-2015 की अवधि में भारत में उप-राष्ट्रीय स्तर पर वित्तीय आउटरीच और आर्थिक विकास के बीच संबंधों का विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। राज्यों में परिकलित बैंकिंग आउटरीच सूचकांक, उप-राष्ट्रीय स्तर पर व्यापक विचलन के साथ रुझान में सुधार को परिलक्षित करता है। इसके अलावा, पेपर प्रति व्यक्ति आय वृद्धि पर वित्तीय आउटरीच का सकारात्मक और महत्वपूर्ण प्रभाव पाता है। 5. राज्यों का सामाजिक क्षेत्र का खर्च और स्थायी विकास लक्ष्य खिजमंग माटे, कौशिकी सिंह, बिचित्रानंद सेठ, इंद्राणी मन्ना, नीरज कुमार, प्रयाग सिंह रावत और संगीता मिश्रा का यह पेपर विकास के परिणामों को बेहतर बनाने में सामाजिक क्षेत्र के खर्च की भूमिका से संबंधित विभिन्न पहलुओं पर केंद्रित है। यह पेपर भारत के सामाजिक क्षेत्रों पर खर्च की तुलना चुनिंदा देशों के साथ करता है और स्थानिक वितरण पैटर्न के अभ्यास के साथ राज्यों के सामाजिक क्षेत्र के खर्च और स्थायी विकास लक्ष्यों (एसडीजी) के परिणामों विशेष रूप से, शिक्षा और स्वास्थ्य में, की समीक्षा करता है। विश्लेषणात्मक निष्कर्ष प्राथमिक नामांकन में सुधार और शिशु मृत्यु दर को कम करने में शिक्षा और स्वास्थ्य व्यय की महत्वपूर्ण भूमिका का समर्थन करते हैं। विशेष रूप से चालू दशक में एसडीजी परिणामों को बेहतर बनाने के लिए कुछ केंद्र प्रायोजित योजनाओं के माध्यम से खर्च करना भी उत्पादक रहा है। पेपर राज्यों में अभिसरण और पकड़ के लिए सबूत प्रदान करता है, जो स्थायी विकास के लिए अच्छा संकेत देते है। पुस्तक समीक्षाएं उपर्युक्त पाँच लेखों के अलावा, समसामयिक पेपर के इस अंक में दो पुस्तक समीक्षाएं भी शामिल हैं: 1. विमल किशोर ने बेजि़ल ओबरहोलर द्वारा लिखित “मॉनेटरी पॉलिसी एण्ड क्रूड ऑइल” की समीक्षा की। पुस्तक तेल बाजार और तेल बाजार, आर्थिक स्थिरता और पारिस्थितिक स्थिरता के बीच अंतर्संबंध पर कुछ दिलचस्प अनुभवजन्य साक्ष्य प्रदान करती है। यह वैश्विक कच्चे तेल बाजार में अमेरिकी मौद्रिक नीति की भूमिका का भी विश्लेषण करती है। 2. मनोज पंत और दीपिका श्रीवास्तव द्वारा लिखित "एफडीआई इन इंडिया : हिस्ट्री, पॉलिसी एण्ड द एशियन परस्पेक्टिव" की एस. चिनगईहलियन ने समीक्षा की। इस पुस्तक में 2000 के दशक में भारत के विकासात्मक प्रयासों के संदर्भ में भारत में एफडीआई के विकास और उसके ऐतिहासिक अवलोकन को प्रस्तुत किया गया है। यह इन आशंकाओं को दूर करने के लिए अनुभवजन्य साक्ष्य प्रदान करता है कि एफडीआई और विदेशी कंपनियों के प्रवेश से उनकी पूंजी-गहन तकनीकों पर ध्यान संकेंद्रित हो जाने से रोजगार के अवसरों में कमी हो सकती है। पुस्तक में विश्लेषण की गई चार आशियाई अर्थव्यवस्थाओं का अनुभव वांछित उद्देश्यों की प्राप्ति में एफडीआई नीति को अधिक प्रभावी बनाने के लिए महत्वपूर्ण सबक प्रदान करता है। अजीत प्रसाद प्रेस प्रकाशनी: 2018-2019/1509 |