आरबीआई – सामयिक प्रकाशन – खंड 43, सं.1, 2022 - आरबीआई - Reserve Bank of India
आरबीआई – सामयिक प्रकाशन – खंड 43, सं.1, 2022
20 फरवरी 2023 आरबीआई – सामयिक प्रकाशन – खंड 43, सं.1, 2022 आज, भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक प्रकाशन का खंड 43, सं.1, 2022 जारी किया। यह एक शोध पत्रिका है जिसमें इससे जुड़े स्टाफ-सदस्यों के आलेख हैं। इस अंक में चार आलेख और तीन पुस्तक समीक्षाएं हैं। आलेख: 1. भारत के विनिर्माण क्षेत्र से कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन: वियोजन विश्लेषण इस पेपर में, शशिकांत, मधुरेश कुमार, शाहबाज़ खान और सोमनाथ शर्मा ने 2009-10 से 2017-18 की अवधि के दौरान भारत में पंजीकृत विनिर्माण क्षेत्र से वार्षिक कार्बन डाइऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन में वृद्धि को, उत्पादन वृद्धि, संरचनात्मक परिवर्तन, ऊर्जा तीव्रता परिवर्तन, और ईंधन मिश्रण परिवर्तन से प्राप्त हिस्सों में वियोजित किया है। इस पेपर में पाया गया है कि कार्बन की तीव्रता, जिसे विनिर्माण क्षेत्र द्वारा योजित सकल मूल्य (जीवीए) के एक रुपये के निर्माण पर जितना CO2 उत्सर्जित होता है, के संदर्भ में मापा जाता है, 2011-12 के स्थिर मूल्य पर, 2009-10 में 46g CO2 प्रति रुपये जीवीए से घटकर 2017-18 में 36g CO2 प्रति रुपये जीवीए हो गया है। यहाँ विनिर्माण क्षेत्र में एक हल्का संरचनात्मक बदलाव भी पाया गया है, जिसमें स्वच्छ उद्योगों की कुल जीवीए में हिस्सेदारी अधिक हुई है और कार्बन-गहन उद्योगों की हिस्सेदारी में गिरावट आयी है। यह दर्शाता है कि ईंधन मिश्रण में बदलाव से CO2 उत्सर्जन में वृद्धि हुई है क्योंकि विनिर्माण क्षेत्र में कुल ईंधन इनपुट में कोयले और बिजली का हिस्सा बढ़ गया है, जबकि प्राकृतिक गैस का हिस्सा कम हो गया है। यह भी देखा गया है कि CO2 उत्सर्जन में बिजली का प्रमुख योगदान है। इसलिए, नवीकरणीय स्रोतों के माध्यम से बिजली उत्पादन अर्थव्यवस्था के तीव्र हरित परिवर्तन में सहायता कर सकता है। 2. विभिन्न बीमांकिक अनुमानों के प्रति बैंकों की पेंशन देयताओं की संवेदता आर. के. सिन्हा ने इस पेपर में संगठनों - विशेष रूप से भारतीय बैंकों - की भविष्य की पेंशन देयताओं के मूल्यांकन में शामिल संवेदता का आकलन किया है। बैंकों द्वारा विवेकपूर्ण और सामयिक प्रावधानीकरण के लिए भविष्य की पेंशन देनदारियों का विश्वसनीय मूल्यांकन आवश्यक है। ऐसा मूल्यांकन बैंकों में समग्र उद्यम जोखिम प्रबंधन के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस विषय पर सीमित शोध को जोड़ते हुए, यह पेपर 1987 से 2022 की अवधि के लिए भारत में बैंकों का प्रतिनिधिक नमूना लेकर वेतन सूचकांक तैयार करता है, और विभिन्न प्रमुख मान्यताओं के तहत सूचकांकों का दीर्घावधिक अनुमान तैयार करता है जिससे भविष्य की पेंशन देयताओं का अनुमान लगाया जा सके। पेंशन देयताओं के मूल्यांकन में अंतर्निहित विभिन्न अनुमानों के प्रति आकलनों की संवेदता - वेतनमान, ह्रास दर (मृत्यु दर और एट्रीशन) और ब्याज दर - बैंकों द्वारा संभावित अंडर/ओवर-प्रोविजनिंग की सीमा का आकलन करने में सहायता के लिए प्रस्तुत की गई है। परिभाषित लाभ (डीबी) और परिभाषित अंशदान (डीसी) योजना के बीच पेंशन बोझ की तुलना इंगित करती है कि डीबी पेंशन योजना की लागत विभिन्न अनुमानों के तहत डीसी पेंशन योजना की तुलना में 3 से 5 गुना अधिक हो सकती है। पेंशन व्यय को ब्याज दर की धारणाओं के प्रति संवेदनशील पाया गया। ब्याज दर में 50 आधार अंकों की कमी से डीबी योजना की पेंशन देनदारी में लगभग 12 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है। 3. क्या बैंक विलय से दक्षता में सुधार होता है? भारतीय अनुभव इस शोधपत्र में स्नेहल एस. हेरवाडकर, शुभम गुप्ता और वैष्णवी चव्हाण ने 1997 के बाद से भारत में बैंक विलय का मूल्यांकन किया है ताकि अधिग्रहणकर्ताओं की दक्षता पर उनके प्रभाव का आकलन किया जा सके। इस शोधपत्र के निष्कर्ष बताते हैं कि विलय बैंकिंग क्षेत्र के लिए फायदेमंद रहा है, क्योंकि विलय के बाद अधिग्रहणकर्ताओं के वित्तीय प्रदर्शन और दक्षता में सुधार हुआ है। 1997-2017 की अवधि के लिए डेटा आवरण विश्लेषण (डीईए) के निष्कर्ष बताते हैं कि अधिग्रहणकर्ताओं की औसत तकनीकी दक्षता विलय से पहले की अवधि में 90.88 से बढ़कर विलय के तीन साल बाद 93.80 और विलय के पांच साल बाद 94.24 हो गई। उद्योग-व्यापी प्रभाव को नियंत्रित करने के बाद भी, परिणाम सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बैंकों दोनों के लिए मान्य हैं। अधिग्रहण करने वाले बैंकों में अपेक्षाकृत कम प्रबंधकीय और संगठनात्मक दक्षताएं विलय की गई इकाई की दक्षता को संरक्षित करने के लिए बाधा नहीं थीं और उत्पादक क्षमता के बढ़े हुए पैमाने के कारण विलय से अधिग्रहणकर्ताओं को लाभ सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण थे। जिन कारकों से दक्षता में वृद्धि हो सकती है, उनके संबंध में गहराई से पता लगाने पर पाया गया कि विलय के बाद भौगोलिक विविधीकरण और ब्याज आय पर बढ़ती निर्भरता को सुधार के लिए महत्वपूर्ण योगदानकर्ताओं के रूप में रहे हैं। डीईए और वित्तीय अनुपात विश्लेषण इस बात की पुष्टि करते हैं कि 2019-20 के दौरान हाल के विलय से भी अधिग्रहणकर्ताओं की दक्षता में सुधार हुआ है। इन विलयों पर घटना अध्ययन, विश्लेषण अधिग्रहण बैंकों की शेयरधारक आस्तियों में वृद्धि का संकेत देता है। 4. ऋण, निवेश और व्यापार चक्रों का व्यवहार: भारतीय अनुभव इस शोधपत्र में, सुजीश कुमार, पवन कुमार और आनंद प्रकाश ने राष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान ब्यूरो (एनबीईआर) डेटिंग प्रक्रिया द्वारा 1950-51 से 2020-21 की अवधि के दौरान भारत में ऋण, निवेश और व्यापार चक्रों के व्यवहार का अध्ययन किया है। इस अध्ययन में पाया गया है कि भारत में व्यापार चक्र और निवेश चक्र की औसत अवधि आठ साल है, जबकि लघु चक्रों के मामले में ऋण चक्र की औसत अवधि सात साल है। भारत में मध्यम ऋण चक्र की औसत अवधि (17 वर्ष) निवेश चक्र और व्यापार चक्र की तुलना में अधिक है, जिसमें ऋण चक्र के संकुचन चरण विस्तारवादी चरणों की तुलना में अधिक लंबे समय तक पाए गए हैं। 1990 के दशक की शुरुआत में वित्तीय क्षेत्र के सुधारों की शुरुआत के बाद से ऋण चक्र की अवधि लंबी हो गई है। इस शोधपत्र में सुधारों के बाद की अवधि में ऋण चक्र, निवेश चक्र और व्यापार चक्र के बीच द्वि-दिशात्मक कार्य-कारण पाया गया है। शोधपत्र में बनाए गए सुसंगतता सूचकांक से पता चलता है कि निवेश चक्र और व्यापार चक्र के बीच फेज़ तुल्यकालन 68 प्रतिशत है, जबकि ऋण चक्र और निवेश चक्र के बीच तुल्यकालन 65 प्रतिशत है। इन परिणामों से वैश्विक वित्तीय संकट के बाद उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के साथ-साथ उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के साथ भारत में ऋण चक्र के तालमेल में वृद्धि हुई है। पुस्तक समीक्षा: आरबीआई सामयिक पत्र के इस अंक में तीन पुस्तक समीक्षाएं भी शामिल हैं: 1. आकाश कोवुरी ने बैरी आइचेंग्रीन, असमा अल-गनैनी, रुई एस्टेव्स और क्रिस जेम्स मिचेनर द्वारा लिखित पुस्तक "इन डिफेंस ऑफ पब्लिक डेट" की समीक्षा की है। पुस्तक में सार्वजनिक कर्ज के विकास का एक ऐतिहासिक विवरण प्रस्तुत किया गया है, जिसमें मध्यकालीन यूरोप (14वीं शताब्दी) से लेकर महामारी से पीड़ित वर्तमान विश्व तक कर्ज संकट और कर्ज समेकन के प्रकरणों का वर्णन किया गया है। संकट के दौरान नीति के एक प्रमुख साधन के रूप में सार्वजनिक कर्ज की उपयोगिता का बचाव करते हुए, पुस्तक में तर्क दिया गया है कि ऋण समेकन समान रूप से महत्वपूर्ण है, और राजकोषीय प्रभुत्व वाला छोटा रास्ता महंगा पड़ सकता है। 2. रशिका अरोड़ा ने ईटेल सोलिंगन द्वारा संपादित पुस्तक "जियोपॉलिटिक्स, सप्लाई चेन्स एंड इंटरनेशनल रिलेशंस इन ईस्ट एशिया" की समीक्षा की है। इस संपादित वॉल्यूम में इन देशों की राजनीतिक और आर्थिक प्रणालियों के संदर्भ में विभिन्न पूर्व-एशियाई देशों में वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं (जीएससी) का विश्लेषण करने और अंतरराष्ट्रीय सहयोग एवं संघर्षों का अवलोकन करने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा अंतर-विषयक कार्य को एक साथ लाया ज्ञ है। वॉल्यूम में जीएससी को देशों के बीच परस्पर निर्भरता के एक अद्वितीय लेकिन जटिल तंत्र के रूप में प्रस्तुत किया गया है, और जीएससी के लिए भू-राजनीतिक तनावों के निहितार्थों को सामने लाया गया है। 3. अंशु कुमारी ने पॉल डोमजन, गेविन सेर्किन, ब्रैंडन थॉमस और जॉन टॉस्क द्वारा लिखित पुस्तक "चेन रिएक्शन: हाउ ब्लॉकचैन विल ट्रांसफॉर्म द डेवलपिंग वर्ल्ड" की समीक्षा की है। पुस्तक में बताया गया है कि विकासशील देशों में विश्वास, सत्यापन और मूल्य हस्तांतरण से जुड़ी समस्याओं को डिस्ट्रीब्यूटेड लेजर टेक्नॉलॉजी (डीएलटी) का उपयोग करके हल किया जा सकता है। पुस्तक में डीएलटी के तकनीकी पहलुओं की व्याख्या की गयी है और विकासशील देशों के सक्रिय मामलों के अध्ययन का उपयोग करते हुए संपत्ति पंजीकरण, धन हस्तांतरण, विदेशी सहायता, नकली दवाओं और कई अन्य के लिए इसके विविध अनुप्रयोगों की पड़ताल की गयी है। (योगेश दयाल) प्रेस प्रकाशनी: 2022-2023/1748 |