भारतीय रिज़र्व बैंक ने आरबीआई सामयिक पेपर खंड 34 – सं. 1 और 2 जारी कियाः 2013 - आरबीआई - Reserve Bank of India
भारतीय रिज़र्व बैंक ने आरबीआई सामयिक पेपर खंड 34 – सं. 1 और 2 जारी कियाः 2013
12 अगस्त 2015 भारतीय रिज़र्व बैंक ने आरबीआई सामयिक पेपर भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने सामयिक पेपरों का 34वां खंड (सं. 1 और 2) जारी किया। भारतीय रिज़र्व बैंक का सामयिक पेपर रिज़र्व बैंक का एक अनुसंधान जर्नल है और इसमें रिज़र्व बैंक के स्टाफ का योगदान होता है तथा यह लेखकों के विचार दर्शाता है। इस अंक में पांच आलेख, दो विशेष टिप्पणियां और दो पुस्तकों की समीक्षा शामिल है। सामाजिक क्षेत्र के व्यय का चक्रः भारतीय राज्यों से साक्ष्य बलबीर कौर, संगीता मिश्रा और अनूप के. सुरेश द्वारा लिखे गए “सामाजिक क्षेत्र के व्यय का चक्रः भारतीय राज्यों से साक्ष्य” शीर्षक वाले इस पेपर में वर्ष 2000-01 से 2012-13 की अवधि के लिए 17 गैर-विशिष्ट श्रेणी राज्यों के शिक्षा और स्वास्थ्य क्षेत्रों को शामिल किया गया है। इसमें निष्कर्ष है कि जबकि भारत में कुल सामाजिक व्यय राज्य स्तर पर अचक्रीय है, शिक्षा पर व्यय प्रचक्रीय है जिसमें गिरावट की तुलना मेंबढ़ोतरी के दौरान प्रचक्रीयता अधिक स्पष्ट दिखाई देती है। इसके अतिरिक्त बड़े राज्यों (आय के मामले में) के लिए प्रचक्रीयता कम आय वाले राज्यों की तुलना में अधिक ज्यादा है। इसमें संभवतः राजनीतिक-आर्थिक कारकों, राज्य के प्रचक्रीय राजस्व और विवेकपूर्ण अंतरण की भूमिका का संयुक्त प्रभाव नजर आता है। इस पेपर में निष्कर्ष है कि सामाजिक क्षेत्र के व्यय पर राजकोषीय घाटे का प्रभाव नकारात्मक है, जो राजकोषीय व्यापकता प्रभाव की परिकल्पना में सहायता प्रदान करता है। यह सुनिश्चित करने हेतु कि कम वृद्धि से मानव पूंजी निर्माण में कोई बाधा नहीं आए, राज्यों से अपेक्षित है कि वे कठिन समय के दौरान अपने सामाजिक क्षेत्र के व्यय में वृद्धि करें। तथापि, इसके लिए अच्छे समय में पर्याप्त राजकोषीय गुंजाइश की आवश्यकता होगी जिससे कि वे जरूरत पड़ने पर मानव पूंजी निवेश पर अधिक खर्च कर सकें जो दीर्घावधि समावेशी और संधारणीय विकास हासिल करने में मुख्य कारक है। अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एकीकरण और एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि अमरेंद्र आचार्य और अनुपम प्रकाश द्वारा लिखे गए “अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एकीकरण और एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की वृद्धि” शीर्षक वाला पेपर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एकीकरण (अर्थव्यवस्था को बाह्य और आंतरिक रूप से मुक्त करना) और वर्ष 1991-2010 की अवधि के दौरान 11 एशियाई अर्थव्यवस्थाओं की आर्थिक वृद्धि के बीच संबंध की जांच करता है। मुद्दों के समाधान के लिए इस पेपर में प्रयोग किए गए दृष्टिकोण विश्लेषणात्मक और अनुभवजन्य दोनों प्रकार के हैं। अनुभवजन्य विश्लेषण में सुझाव है कि वृद्धि पर अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एकीकरण का प्रभाव मिश्रित है। तथापि, अलग-अलग विश्लेषण दर्शाते हैं कि कुल पूंजीगत अंतर्वाह दो चैनलों के माध्यम से वृद्धि को बढ़ाता है, एक चैनल निवेश में वृद्धि करना और दूसरा उत्पादन को बढ़ाना है। इसके अतिरिक्त, प्रत्यक्ष निवेश और संविभाग दोनों निवेशों का वृद्धि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है। भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की कुल कारक उत्पादकता – सूचना प्रौद्योगिकी का प्रभाव “भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की कुल कारक उत्पादकता – सूचना प्रौद्योगिकी का प्रभाव” शीर्षक वाले अपने पेपर में सुजीश कुमार एस. बैंकिंग क्षेत्र की उत्पादकता पर सूचना प्रौद्योगिकी के प्रभाव की जांच करता है। भारत में परिचालित सार्वजनिक, निजी और विदेशी बैंकों को कवर करने वाले भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की कुल कारक उत्पादकता गैर-मानदंड माल्मक्विस्ट उत्पादकता सूचक दृष्टिकोण पर आधारित डेटा एन्वेलप एनैलसिस का उपयोग कर निकाली जाती है। इसमें बहु-प्रतिगमन मॉडल (मल्टीपल रिग्रेशन मॉडल) का उपयोग कर भारतीय बैंकिंग क्षेत्र की उत्पादकता पर सूचना प्रौद्योगिकी के प्रभाव का पता लगाने का प्रयास भी किया गया है। इस अध्ययन के परिणाम दर्शाते हैं कि भारतीय बैंकिंग उद्योग की उत्पादकता में वर्ष 2008 से 2010 में वृदधि हुई। बाद के वर्षों में उत्पादकता में कम वृद्धि देखी गई। इसके अतिरिक्त, बहु-प्रतिगमन मॉडल दर्शाता है कि बैंकिंग चैनल में बढ़े हुए इलेक्ट्रॉनिक लेनदेनों के परिणामस्वरूप उत्पादकता में वृद्धि हुई। इसके अतिरिक्त, मध्यस्थता लागत – प्रौद्योगिकी के लिए परोक्ष निवेश भी बैंकिंग क्षेत्र की उत्पादकता के लिए महत्वपूर्ण है। भारत में कॉर्पोरेट निवेश के निर्धारक तत्वः फर्मों की विविधता पर एक अनुभवजन्य विश्लेषण “भारत में कॉर्पोरेट निवेश के निर्धारक तत्वः फर्मों की विविधता पर एक अनुभवजन्य विश्लेषण” शीर्षक वाले पेपर में एम. श्रीरामुलु, ए. रामनाथन और के. नारायणन इस बात की जांच करते हैं कि क्या वित्तीय चरों (अर्थात आंतरिक निधि, बैंक ऋण, इक्विटी पूंजी) और निवेश के बीच लिंक में आकार वर्गों और उद्योग समूहों के बीच विविधता मौजूद है, इसका पता लगाने के लिए वर्ष 1999-2000 से 2010-2011 की अवधि में भारत में विनिर्माण फर्मों के भारतीय रिज़र्व बैंक पैनल का उपयोग किया गया है। उनके परिणाम आकार वर्गों और उद्योग समूहों के बीच विविधता की पुष्टि करते हैं। यह पाया गया है कि बड़ी फर्में और उद्योग समूह अर्थात वस्त्र उद्योग, धातु उद्योग अपने निवेश के वित्तपोषण के लिए बैंक ऋण पर तुलनात्मक रूप से अधिक निर्भर रहते हैं। उद्योग समूह जो मुख्य रूप से एश्वर्य के सामान के उत्पादन में लगे हुए हैं, वे आंतरिक निधियों पर कम निर्भर रहते हैं। इसके विपरीत, बड़ी फर्मों के निवेश निर्णय ज्यादातर आंतरिक निधियों द्वारा प्रेरित होते हैं। छोटी फर्मों के लिए इक्विटी पूंजी का महत्व नहीं है और इन फर्मों द्वारा पूंजी बाजारों से निधि जुटाने में सामना की जाने वाली समस्याओं की सूचना की पुष्टि होती भारतीय राज्यों में ऋण असमानता की विवेचना – एक अनुभवजन्य विश्लेषण “भारतीय राज्यों में ऋण असमानता की विवेचना – एक अनुभवजन्य विश्लेषण” शीर्षक वाले पेपर में स्नेहल हर्वाडकर और सौरभ घोष ने इस बात का मूल्यांकन करने का प्रयास किया है कि क्या भारतीय राज्यों में ऋण असमानता को राज्य विशिष्ट कारकों द्वारा स्पष्ट किया जा सकता है जो कारक ऋण की मांग और आपूर्ति तथा बुनियादी सुविधाओं के बारे में बताते हैं। वर्ष 2004-2012 की अवधि के लिए 22 भारतीय राज्यों के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए इस पेपर में निष्कर्ष निकाला गया है कि ऋण में अंतर को वित्तीय सघनता और बुनियादी सुविधाओं के विकास जैसे कारकों द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इस बात से संकेत मिलता है कि उच्चतर जमाराशियां संचित करने वाले राज्यों में बेहतर बैंकिंग नेटवर्क है और उनका बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता में उच्च स्कोर है, वे राज्य अन्य राज्यों की तुलना में अधिक ऋण प्राप्त करते हैं। नीति दृष्टिकोण से यह पेपर वित्तीय समावेशन की भूमिका पर बल देता है तथा सुझाव देता है कि राज्य भी बेहतर बुनियादी सुविधाएं उपलब्ध कराकर इस लक्ष्य को हासिल करने में योगदान दे सकते हैं, इन बुनियादी सुविधाओं से राज्य के निवेश वातावरण में संवर्धन होगा। विशेष नोट “एसएमई फाइनैन्सिंग थ्रू आईपीओज़ – एन ओवरव्यू” पर एक नोट में आर.के. जैन, अवधेश कुमार शुक्ला और कौशिकी सिंह ने आईपीओ के माध्यम से एसएमई के पूंजीगत वित्तपोषण के अनुभव पर विचार-विमर्श किया है। उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला है कि आईपीओ के माध्यम से एसएमई के वित्तपोषण का अनुभव न केवल उत्साहवर्धक है, बल्कि आईपीओ के द्वितीयक बाज़ार में भी एसएमई का कार्यनिष्पादन अच्छा रहा है। तथापि, ऐसा प्रतीत होता है कि पर्याप्त मात्रा में चलनिधि के न होने और टर्नओवर कम रहने के कारण निवेशकों की दृष्टि से यह जोखिम भरा है। बाज़ार के इस खंड से संबंधित मुद्दों की पहचान करते हुए इस पत्र में एसएमई प्लैटफार्मों पर सूचीबद्ध कंपनियों में अपेक्षाकृत अधिक पारदर्शिता एवं बड़ी मात्रा में संस्थागत सहभागिता की आवश्यकता पर जोर दिया गया है। इसमें यह भी सुझाव दिया गया है कि शेयर बाज़ार इन कंपनियों के प्रबंध-तंत्र को सतत रूप से सहयोग दें। “ब्यूटिफुल माइन्ड्स : द नोबल मेमोरियल प्राइज़ इन इकोनॉमिक्स” से संबंधित एक और नोट में साइबल घोष ने अर्थशास्त्र में नोबल विजेताओं की सूची उपलब्ध कराई है और उन्होंने कुछ ऐसे रुचिकर तथ्यों पर प्रकाश डाला है जो संभावित विजेताओं के लिए मार्गदर्शक के रूप में काम आ सकते हैं। इस विश्लेषण में यह सुझाव दिया गया है कि पुरस्कार विजेताओं की सूची यूएस में स्थित विश्वविद्यालयों की ओर प्रवण है। इसके अलावा, पुरस्कार विजेताओं ने 15 ऐसे चयनित विश्वविद्यालयों, जो प्रसिद्ध ट्रैक रिकार्ड रखते हैं, में से किसी एक विश्वविद्यालय से डॉक्टरल उपाधि प्राप्त की है और इनमें से 8 विश्वविद्यालय यूएस में स्थित हैं। अंतत: पुरस्कार विजेताओं की सूची में बिना सामान्य मत पर प्रभावित किए गेम थियोरी और सूक्ष्म-अर्थशास्त्र का आधिपत्य दिखाई देता है, तथापि, हाल में इसमें समष्टि-अर्थशास्त्र और अनुभव-जन्य अनुप्रयोगों को महत्व दिया जा रहा है। पुस्तक समीक्षा देवस्मिता जेना ने शैलेंद्र डी. शर्मा (कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय प्रेस : 2014) द्वारा लिखित “ग्लोबल फाइनैन्शियल कंटॉजियन : बिल्डिंग अ रिजिलियंट वर्ल्ड इकोनॉकी” नामक पुस्तक की समीक्षा की है। इस पुस्तक में लेखक ने वैश्विक वित्तीय संकट की आर्थिक व राजनीतिक जड़ों पर चर्चा की है। इस पुस्तक में यह भी बताया गया है कि जी-20 की संस्थागत कमज़ोरियों ने उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था का कायापलट करने में एक वास्तविक निर्णायक की भूमिका अदा करने से रोका है तथा वह वैश्विक असंतुलनों से संबंधित प्रमुख मुद्दों को दूर करने में आगे बढ़ने में असमर्थ रहा है। साक्षी परिहार ने लैरी डॉयल (पॉलग्रेव मैकमिलन, न्यू यार्क, 2014) द्वारा लिखित “इन बेड विथ वॉल स्ट्रीट, द कान्स्पिरसी क्रिप्लिंग ऑर ग्लोबल इकोनॉमी” नामक पुस्तक की समीक्षा की है। इस पुस्तक में यूएस में वॉल स्ट्रीट के लिए विनियमन और निगरानी का न रहना कैसे 2008 में वित्तीय बाज़ार ढहने का कारण बना, इससे संबंधित दिलचस्प अंतर्दृष्टि प्रदान की गई है। इस पुस्तक में लेखक ने वॉल स्ट्रीट की भ्रष्ट प्रथाओं को उजागर किया है और इस बात पर प्रकाश डाला है कि किस प्रकार विनियामक (नियमाधीन संस्थाओं के भूतपूर्व या भावी संस्थाएं) निवेशकों व बाज़ारों को सुरक्षा प्रदान करने के बजाय उद्योग के हितों को बचाने में जुटे हुए थे। संगीता दास प्रेस प्रकाशनी : 2015-2016/382 |