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भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति रिपोर्ट, 2006-07 जारी किया

27 नवंबर 2007

भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग की
प्रवृत्ति और प्रगति रिपोर्ट, 2006-07 जारी किया

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज भारत में बैकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति रिपोर्ट, 2006-07 जारी किया। सांविधिक रिपोर्ट वर्ष 2006-07 के दौरान वाणिज्यिक बैंकों, सहकारी बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं के विकास और कार्यनिष्पादन नीति पर विस्तृत विरण उपलब्ध कराती है। यह रिपोर्ट वित्तीय स्थिरता के दृष्टिकोण से भारतीय वित्तीय प्रणाली का विस्तृत विवरण भी प्रस्तुत करती है।

इस रिपोर्ट में सात अध्याय हैं। रिपोर्ट के साथ संलग्न सांख्यिकीय सारणियाँ बैंकों/वित्तीय संस्थाओं की अलग-अलग और सकल दोनों स्तरों पर परिचालन और कार्यनिष्पादन संबंधी सूचना उपलब्ध कराती हैं।

यह रिपोर्ट विशिष्ट रूप से यह उल्लिखित करती है कि वर्तमान समय में भारत में बैंकों के समक्ष एक विकासशील अर्थव्यवस्था की माँगों को पूरा करने के लिए संसाधनों को जुटाना प्रमुख चुनौतियाँ हैं। भारत में बैंकों का अधिकांश कारोबार अभी भी कुछ शहरी केंद्रों तक ही केंद्रीकृत है। इस समस्या को कम करने के लिए वर्ष 2006 से किसी बैंक के लिए नई शाखाएं खोले जाने को रिज़र्व बैंक द्वारा केवल इस शर्त पर अनुमोदित किया गया है कि ऐसी शाखाओं की कम-से-कम आधी शाखाएं रिज़र्व बैंक द्वारा यथा-अधिसूचित बैंक-सुविधारहित क्षेत्रों में खोली जाती हों। कई बैंक अब यह देखतें हैं कि अर्ध-शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों में शाखाएं भी वाणिज्यिक रूप से अर्थक्षम हैं। रिपोर्ट में यह दर्ज किया गया है कि कुछ ऐसे राज्य हैं जहाँ ऋण जमा अनुपात कम पाया गया है। गतिशील वित्तीय सघनता के लिए कुछ क्षेत्र विशिष्ट कार्य योजनाएं राज्य सरकारों, बैंकों और अन्य स्थानीय विकास एजेंसियों की संपूर्ण सहभागिता के साथ पहले ही तैयार कर ली गई हैं। रिज़र्व बैंक राज्यों और बैंकिंग प्रणाली के बीच बढ़ते हुए सहयोग के इन प्रयासों में एक उत्प्रेरक तथा संमन्वयक की भूमिका अदा करता रहेगा। रिपोर्ट में आगे यह भी उल्लेख किया गया है कि इन न्यूनतर ऋण जमा-अनुपात वाले छोटे केंद्रों और राज्यों में विकास के लिए भारी संभाव्यता बनी हुई है। आगे आनेवाली चुनौतियां बैंकों के क्षेत्र विस्तार में और वृद्धि के रूप में सामने आएंगी। अत: बैंकों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपनी ऋण नीतियों पर पुन: ध्यान केंद्रित करते हुए और समुचित प्रौद्योगिकी और वितरण माध्यम का उपयोग करते हुए अबतक बैंक सुविधारहित क्षेत्रों/राज्यों तक अपनी पहुंच का विस्तार करें। लेनदेन लागतों को कम करने के लिए सूचना प्रौद्योगिकी महत्त्वपूर्ण है। नीति स्तर पर रिज़र्व बैंक ने हाल के वर्षों में शतप्रतिशत वित्तीय समावेशन सुनिश्चित करने के लक्ष्य के साथ वित्तीय क्षेत्र के लोकतांत्रीकरण पर भी ध्यान केंद्रित किया है। रिज़र्व बैंक ने वित्तीय साक्षरता बढ़ाने और वित्तीय शिक्षण प्रदान करने की शुरुआत भी की है ताकि रोज़गार और उच्चतर आय मे प्रवेश करनेवाले नए लोगों की भारी संख्या को वित्तीय क्षेत्र के तीव्र बाज़ारीकरण में उनके वित्त का बेहतर प्रबंध किया जा सके।

जैसा कि रिपोर्ट में उल्लिखित है बैंकिंग क्षेत्र के लिए यह आवश्यक है कि कृषि और लघु उद्योगों के लिए ऋण प्रवाह में वृद्धि की जाए। इस समस्या के समाधान के लिए रिज़र्व बैंक ने नीति स्तर पर अप्रैल 2007 में प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र की परिभाषा को पहले ही संशोधित कर दिया है। प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को अब कृषि, लघु उद्योग, विद्यार्थियों के लिए शैक्षिक ऋण और न्यूनतम लागत वाले आवास ऋण जैसे उच्च रोज़गारवाले व्यापक क्षेत्रों को अग्रिम देने पर रोक लगा दी गई है।

रिपोर्ट में यह पाया गया है कि तेजी से बढ़ती हुई एक अर्थव्यवस्था में परिचालनों को बनाए रखने के लिए लगातार बाजार से पूंजी प्राप्त करना बैंकों के लिए एक चुनौती है। उन्हें भविष्य में अपनी लाभप्रदता को बनाए रखने के बारे में भी सतर्क रहने की जरुरत है। हाल के वर्षों में बैंकों की निवल ब्याज मार्जिन कम हुई है। यह बढ़ी हुई प्रतिस्पर्धा का परिणाम है और यह बैंकिंग क्षेत्र में दक्षता में सुधार को प्रतिबिंबित करती है। तथापि, बैंकों की लाभप्रदता पर घटी हुई मार्जिनों की प्रभाव पिछले कुछ वर्षों में सुदृढ़ मात्रा बढ़ोत्तरी के रूप में सामने आए हैं। अत: भविष्य में अपनी लाभप्रदता को बनाए रखने के लिए बैंकों को आय के गैर-ब्याज ॉााटतों की खोज के अलावा परिचालन लागतों को भी कम करना होगा।

एक वृद्धिशील वैश्विक और प्रतिस्पर्धात्मक वित्तीय विश्व में बैंकों के लिए एक प्रमुख चुनौती यह होगी कि ऐसी जोखिमों का प्रबंध करने के लिए समुचित जोखिम प्रबंध प्रणालियां स्थापित की जाएं और रिज़र्व बैंक के लिए यह चुनौती होगी कि जोखिम के बदलते स्वरूपों को समझा जाए और वित्तीय स्थिरता कायम रखते समय समुचित रूप से अपनी विनियामक और पर्यवेक्षी दायित्वों को अंगीकार किया जाए।

वाणिज्यिक बैंकों के परिचालन और कार्यनिष्पादन

‘ वाणिज्यिक बैंकों के परिचालन और कार्यनिष्पादन’ शीर्षक अध्याय में प्रस्तुत विश्लेषण से उभरते हुए मुख्य बिंदु हैं :

  • लगातार तीसरे वर्ष में बैंक ऋण वृद्धि मजबूत बनी रही यद्यपि थोड़ी नरमी आयी थी। वाणिज्यिक बैंकों की जमावृद्धि मुख्यत: मीयादी जमाराशियों के कारण हुई। ऋण में विस्तार की अपेक्षा जमाराशियों में उच्चतर निवल वृद्धि के परिणामस्वरूप निवेश संविभाग (पैरा 3.16)(पृष्ठ 71) में भी कुछ बढ़ोतरी हुई।
  • अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के निवल लाभ में वृद्धि ब्याज आय में बढ़ोतरी और परिचालन व्ययों (पैरा 3.73)(पृष्ठ 89) को सीमित रखने के आधार पर हुई।
  • सकल और निवल दोनों आधार पर अनर्जक आस्ति अनुपात में और कमी (पैरा 3.77)(पृष्ठ 91) हुई।
  • अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों का जोखिम भारित पूंजी अनुपात को अधिकांशत: ऋण विस्तार (पैरा 3.87)(पृष्ठ 95) से उत्पन्न जोखिम भारित आस्तियों में मजबूत वृद्धि के बावजूद गत वर्ष के स्तर पर बनाए रखा गया।
  • 17 राज्यों में 19 बैंकों द्वारा प्रायोजित 147 क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के 46 नए ग्रामीण बैंकों में विलयन के परिणामस्वरूप क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की संख्या 31 अगस्त 2007 तक (पैरा 3.129)(पृष्ठ 113) 196 से कम होकर 95 हो गईं।

सहकारी बैंकिंग में गतिविधियाँ

‘सहकारी बैंकिंग में गतिविधियाँ’ शीर्षक अध्याय में सहकारिता के तुलनपत्रों, वित्तीय कार्यनिष्पादन और सुदृढ संकेतकों के विश्लेषण से उभरनेवाले प्रमुख बिंदु हैं :

  • शहरी सहकारी बैंकों (अनुसूचित और गैर-अनुसूचित दोनों) की आस्तियों में वर्ष 2006-07 के दौरान (पैरा 4.77)(पृष्ठ 133) कुछ वृद्धि हुई।
  • अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों की निवल आय में मुख्यत: प्रावधानों, आकस्मिकताओं और करों (पैरा 4.84)(पृष्ठ 135) में वृद्धि के कारण गतवर्ष में हुई वृद्धि के विपरीत वर्ष 2006-07 में कमी हुई।
  • शहरी सहकारी बैंकों की आस्ति गुणवत्ता में वर्ष 2006-07 के दौरान (पैरा 4.81)(पृष्ठ 135) महत्त्वपूर्ण रूप से सुधार हुआ।
  • ग्रामीण सहकारी बैंकों की अल्पकालिक संरचना में वर्ष 2005-06 के दौरान राज्य सहकारी बैंकों के परिचालन लाभ में गिरावट आयी जबकि उनके निवल लाभ में मुख्यत: प्रावधानीकरण में आवश्यक गिरावट के कारण महत्त्वपूर्ण वृद्धि हुई। ज़िला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों के तुलन-पत्रों में साधारण बढ़ोतरी हुई। उनके लाभों में तेज कमी आई। वर्ष 2005-06 के दौरान लाभ दर्ज करने वाली प्राथमिक कृषि ऋण समिति द्वारा अर्जित कुल लाभ में वृद्धि हुई जबकि हानि वाली प्राथमिक कृषि ऋण समिति की हानि में कमी दर्शाई गई (पैरा 4.104-4.121)(पृष्ठ सं.142-147)।
  • दिर्घावधि स्वरूपों के मामले में, राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (एससीएआरडीबी) के परिचालनगत लाभों में तेज वृद्धि दर्ज हुई (पैरा 4.124)(पृष्ठ सं.149)।
  • राज्य सहकारी बैंकों, जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों और राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों की आस्ति गुणवत्ता में कमी आई जबकि निजी सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों की आस्ति गुणवत्ता में उल्लेखनीय सुधार हुआ (पैरा 4.106, 4.112, 4.125 और 4.130)(पृष्ठ सं.142, 145, 149 और 151)।
  • स्वयं सहायता समूह-बैंक लिंक कार्यक्रमों में उल्लेखनीय प्रगति जारी रही क्योंकि वर्ष 2006-07 के दौरान बैंकिंग प्रणाली द्वारा 0.6 मिलियन नए ऋण लिंक शामिल किए गए जिससे स्वयं सहायता समूहों की ऋण लिंक की सकल संख्या 2.86 मिलियन हो गई (पैरा 4.136)(पृष्ठ सं.153)।

गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं

इस अध्याय में प्रमुख नीतिगत गतिविधियों तथा वित्तीय संस्थानों (एफआइ), गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) और प्राथमिक व्यापारियों (पीडी) के कारोबार परिचालनों और वित्तीय कार्यनिष्पादन का विश्लेषण किया गया है।

इस अध्याय में किए गए विश्लेषण से उभरी प्रमुख मदें निम्नप्रकार हैं :

  • वर्ष 2006-07 के दौरान वित्तीय संस्थानों द्वारा स्वीकृत और संवितरित की गई वित्तीय सहायता में वृद्धि जारी रही जबकि पूर्ववर्ती वर्ष की तुलना में स्वीकृतियाँ कम दर से बढ़ी किंतु संवितरण में तेज वृद्धि दर्ज की गई (पैरा 5.16)(पृष्ठ 166)।
  • वर्ष 2006-07 के दौरान वित्तीय संस्थानों के सम्मिलित तुलन-पत्रों में पूर्ववर्ती वर्ष की तुलना में उच्च दर से वृद्धि हुई। आस्तियों में, त्रण और अग्रिमों में कुछ साधारण वृद्धि जारी रही (पैरा 5.18)(पृष्ठ सं.167)
  • जबकि वर्ष 2006-07 के दौरान वित्तीय संस्थानों के गैर-ब्याज आय में उल्लेखनीय वृद्धि दर्शाई गई, वित्तीय संस्थानों के परिचालनगत व्यय में कमी दर्ज हुई जिसके फलस्वरूप परिचालनगत लाभों में तेज वृद्धि हुई (पैरा 5.26)(पृष्ठ सं.170)।
  • वित्तीय संस्थानों की पूंजी पर्याप्तता अनुपात में निर्धारित न्यूनतम से उल्लेखनीय रूप से अधिक रहना जारी रहा। वर्ष के दौरान वित्तीय संस्थानों की आस्ति गुणवत्ता में सुधार हुआ (पैरा 5.29)(पृष्ठ सं.170)।
  • वर्ष 2005-06 की तुलना में वर्ष 2006-07 के दौरान गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (अवशिष्ट गैर-बैंकिंग कंपनियों को छोड़कर) की कुछ आस्तियों में उच्च दर से वृद्धि हुई (पैरा 5.63)(पृष्ठ सं.178)।
  • वर्ष 2006-07 के दौरान गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के वित्तीय कार्यनिष्पादन में विपरित बदलाव हुआ। ऐसा पुर्णत: आय निर्धारित निधियों में हुई तेज वृद्धि के कारण हुआ जिससे परिचालनगत व्यय और वित्तीय व्यय में तेज वृद्धि हुई (पैरा 5.76)(पृष्ठ सं.185)।
  • अनर्जक आस्तियों की विभिन्न श्रेणियों में दर्शायी गई विभिन्न प्रकार के गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की आस्ति गुणवत्ता व्यापक रूप से पूर्ववर्ती वर्ष के स्तर पर बनी रही (पैरा 5.80)(पृष्ठ सं.186)।
  • वर्ष 2006-07 के दौरान अवशिष्ट गैर-बैंकिंग कंपनियों की आय में वृद्धि उसकी व्यय की वृद्धि से अधिक रही जिसके फालस्वरूप अवशिष्ट गैर-बैंकिंग कंपनियों के परिचालनगत लाभ में वृद्धि हुई (पैरा 5.85)(पृष्ठ सं.189)।
  • पूर्ववर्ती वर्ष की तुलना में मार्च 2007 को समाप्त वर्ष के दौरान जमाराशियाँ स्वीकार नहीं करनेवाली प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (100 करोड़ रुपए और उससे अधिक राशिवाली आस्तियाँ) (एनबीएफसी-एनडी-एसआइ) की देयताओं/आस्तियों में वृद्धि हुई (पैरा 5.89)(पृष्ठ सं.190)।
  • मार्च 2007 को समाप्त वर्ष के दौरान गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों-जमाराशियाँ स्वीकार नहीं करनेवाली-प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण की कुल आस्ति अनुपात की तुलना में सकल अनर्जक आस्तियों में कमी आयी (पैरा 5.93)(पृष्ठ सं.191)।
  • वर्ष 2006-07 के दौरान व्यय में तेज वृद्धि के फलस्वरूप प्राथमिक व्यापारियों के निवल लाभ में कमी आयी (पैरा 5.104)(पृष्ठ सं.195)।
  • प्राथमिक व्यापारियों के जोखिम भारित आस्तियों के प्रति पूंजी अनुपात, कुल जोखिम भारित आस्तियों के 15 प्रतिशत के निर्धारित न्यूनतम से अधिकता बनी रही (पैरा 5.98)(पृष्ठ सं.193)।

वित्तीय स्थिरता

वित्तीय स्थिरता पर अध्याय के विश्लेषण से उभरी प्रमुख मदें निम्नप्रकार हैं:

  • केवल कुछ अवसरों को छोड़कर जब मुख्य रूप से बड़ी मात्रा में पूंजी अंतर्वाह और सरकारी नकदी शेषों में गति के कारण मुद्रा बाज़ार में काफी उतार-चढ़ाव आया, वर्ष 2006-07 के दौरान वित्तीय बाज़ार सुगम रहे (पैरा 6.75)(पृष्ठ सं.217)।
  • वर्ष 2006-07 के दौरान मुद्रा बाज़ार के क्रियाकलाप में संपाश्वीक खण्ड से गैर-संपार्श्वीक खण्ड में और अधिक उल्लेखनीय अंतरण दिखाई दिया (पैरा 6.86)(पृष्ठ सं.220)।
  • वर्ष 2006-07 के दौरान विदेशी मुद्रा बाज़ारों में दुतर्फी गति दिखाई दी (पैरा 6.91)(पृष्ठ सं.221)।
  • वर्ष 2006-07 के पिछले भाग में और वर्ष 2007-08 के पहले भाग के दौरान सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में प्रतिलाभ सख्त हुए जो घरेलू गतिविधियों और वैश्विक अवसरों को दर्शाते हैं (पैरा 6.102)(पृष्ठ सं.224)।
  • म्युच्युअल फण्डों द्वारा वर्ष 2006-07 के दौरान ईक्विटी उन्मुख योजनाओं के अंतर्गत संसाधनों के निवल संग्रह में गिरावट आयी जो निवेशकों के बीच विशेषकर शेयर बाज़ार के उल्लेखनीय उचांइयों को छूने की दृष्टि से जोखिम के प्रति अनिच्छा की प्रवृत्ति को दर्शाता है (पैरा 6.107)(पृष्ठ सं.226)।
  • शेयर बाज़ारों ने मुख्य रूप से वैश्विक गतिविधियों में हुए उतार-चढ़ाव के कारण व्यापक आय दर्ज की (पैरा 6.111)(पृष्ठ सं.228)।
  • वर्ष 2007-08 के दौरान मुंबई शेयर बाज़ार सेंसक्स ने अपनी बढ़ती हुई प्रवृत्ति को जारी रखते हुए 2 नवंबर 2007 को 19976 की सार्वकालिक उच्चतर स्तर पर बंद हुई (पैरा 6.110)(पृष्ठ सं.228)।
  • तत्काल सकल भुगतान के माध्यम से हुए लेनदेन की मात्रा और मूल्य में कई गुना वृद्धि हुई (पैरा 6.116)(पृष्ठ सं.229)।

अल्पना किल्लावाला
मुख्य महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2007-2008/716

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