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भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर रिपोर्ट 2009-10 जारी किया

8 नवंबर 2010

भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और
प्रगति पर रिपोर्ट 2009-10 जारी किया

भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति पर अपनी सांविधिक रिपोर्ट 2009-10 जारी किया है। यह वार्षिक रिपोर्ट वर्ष 2009-10 के लिए वाणिज्यिक बैंकों, सहकारी बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाओं की नीति गतिविधियों और कार्यनिष्पादन का विस्तृत विवरण उपलब्ध कराती है। महत्त्वपूर्ण आँकड़ों में आवश्यक विश्लेषणात्मक सुदृढ़ता तथा निरंतरता बनाए रखते हुए वर्तमान रिपोर्ट के आकार को पठनीयता बढ़ाने की दृष्टि से औचित्यपूर्ण बनाया गया है।

वैश्विक वित्तीय संकट के पड़नेवाले कुछ प्रभावों के होते हुए भी यह रिपोर्ट यह उल्लेख करती है कि भारतीय बैंकिंग क्षेत्र वर्ष 2009-10 में व्यापक रूप से अनुकूल रहा है। जबकि इस वर्ष के दौरान लाभप्रदता और आस्ति गुणवत्ता में कुछ कमी दिखाई दी, बैंकों की मज़बूत पूँजी पर्याप्तता भविष्य की हानियों को आमेलित करने के लिए पर्याप्त सुविधा उपलब्ध कराती है। विनियमन के प्रति भारतीय दृष्टिकोण जो भविष्य के आकलन और वित्तीय संस्थाओं की तैयारी के लिए सक्रिय ह। को बिना किसी बाधा के समायोजित वित्तीय क्षेत्र सुधार की अनुमति दी गई है। भारतीय अर्थव्यवस्था जिसने संकट के बाद तीव्र सुधार की व्यवस्था की है, वह उच्चतर वृद्धि-पथ पर पहुँचने के लिए तैयार है। आगे जाकर बैंकिंग क्षेत्र को आस्ति गुणवत्ता, विवेकसम्मत प्रावधानीकरण तथा उभरते हुए प्रतिलाभ और जोखिमों को संतुलित करने हेतु आस्ति देयता प्रबंध बनाए रखते हुए अर्थव्यवस्था में वृद्धि की गति को सहायता करने की ज़रूरत होगी। दीर्घावधि में बैंक वित्तीय समावेश के प्रति शुरू किए जानेवाले प्रयासों और समानता के साथ आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करने के लिए मात्रा-तटस्थ प्रौद्योगिकी पर सुविधा प्रदान करने की ज़रूरत है।

इस रिपोर्ट में छह अध्याय हैं : (i) परिप्रेक्ष्य, (ii) वैश्विक बैंकिंग गतिविधियाँ, (iii) नीति वातावरण, (iv) वाणिज्यिक बैंकों का परिचालन और कार्यनिष्पादन, (v) सहकारी बैंकिंग में गतिविधियाँ, (vi) गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थाएँ और (vii) वित्तीय स्थिरता। इस रिपोर्ट में विस्तृत सांख्यिकी परिशिष्ट हैं जो वर्ष के दौरान वित्तीय क्षेत्र के निष्पादन के विविध संकेतकों पर आँकड़े उपलब्ध कराते हैं।

इस रिपोर्ट के मुख्य निष्कर्ष नीचे दिए जा रहे हैं:

परिप्रेक्ष्य

  • वैश्विक वित्तीय संकट ने कई सबक दिए हैं, अर्थात् (i) नवोन्मेषीकरणों से आगे जाने के लिए वित्तीय विनियमन की ज़रूरत, (ii) वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अंतर-एजेंसी समन्वय का महत्त्व, (iii) वित्तीय और राजकोषीय सुदृढ़ता पर व्यापक मात्रा के बचाव की जटिलताओं की एक गहरी समझ और (iv) जटिल व्युत्पन्नी उत्पादों (पैरा 1.1; पृष्ठ 1) का एक सूक्ष्म विश्लेषण।

  • वित्तीय संकट के परिणामस्वरूप विद्यमान वित्तीय संरचना-उल्लेखनीय रूप से पूँजी के पुन:-समायोजन और विनियामक सीमा की वृद्धि (पैरा 1.9; पृष्ठ 3-4) की कमज़ोरियों का समाधान करने के लिए बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासेल समिति (बीसीबीएस) और राष्ट्रीय प्राधिकारियों जैसे मानक निर्धारक निकायों द्वारा बहु-आयामी प्रयास शुरू किए गए हैं।

  • वैश्विक ऋण संकट जो वर्ष 2010 की शुरूआत में उभरा उसने वैश्विक ऋण के प्रति बैंकों के एक्पोज़र और सार्वजनिक वित्त तथा वित्तीय प्रणाली के बीच प्रतिकूल प्रतिसूचना संयोजन पर प्रकाश डाला है। इससे बढ़ते हुए दबावों (पैरा 1.27; पृष्ठ 8) को रोकने के लिए विश्वसनीय राजकोषीय सुधारों और विवेकसम्मत समष्टि आर्थिक नीतियों के कार्यान्वयन की ज़रूरत को रेखांकित किया है।

  • बढ़े हुए बासेल II पूँजी और चलनिधि मानदंड पहले से ही विद्यमान पूँजी पर्याप्तता के उच्चतर स्तर तथा तुलनपत्रों की सीमित सुविधा को देखते हुए भारतीय बैंकों पर तात्कालिक प्रभाव नहीं डालने वाले हैं। तथापि, आगे जाकर बैंकों को अपने पूँजी आधार (पैरा 1.34 और 1.35; पृष्ठ 9 से 10) को और सीमित करने के प्रयासों की ज़रूरत है।

  • रिज़र्व बैंक ने जुलाई 2010 से आधार दर प्रणाली लागू की है जो पारदर्शिता और ऋण के मूल्यांकन में सुधार लाएगा और इस प्रकार मौद्रिक नीति अंतरण (पैरा 1.43; पृष्ठ 11 से 12) के ब्याज दर माध्यम के स्वरूप में वृद्धि करेगा।

  • भारतीय बैंकों को एएलएम असंतुलनों पर ध्यान दिए बिना दीर्घावधि वित्तीय सहायता में सहायता करने की ज़रुरत है। इसको ऋण चूक स्पैव (सीडीएस) जैसे नवोन्मेषी परिवर्धन व्यवस्थाओं के उपयोग से सुविधा प्राप्त होगी जिसके लिए अगस्त 2010 में रिज़र्व बैंक द्वारा (पैरा 1.37 से 1.49; पृष्ठ 10 से 11) प्रारूप दिशानिर्देश जारी किए गए हैं।

  • वित्तीय समावेशन को रिज़र्व बैंक द्वारा उच्च प्राथमिकता दी गई है। इन प्रयासों को नवोन्मेषी प्रौद्योगिकी समाधानों तथा स्पष्ट और अंतर्निहित प्रोत्साहनों (पैरा 1.47 से 1.49; पृष्ठ 13) के उपयोग द्वारा जारी रखने की ज़रुरत है।

वैश्विक बैंकिंग गतिविधियाँ

  • वर्ष 2009 में संकुचित होने के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था ने वर्ष 2010 की पहली छमाही के दौरान उल्लेखनीय सुधार देखा। तथापि, उभरती हुई और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं के बारे में यह अनुमान है कि वे उन्नत अर्थव्यवस्थाओं (पैरा 2.6; पृष्ठ 16) की अपेक्षा तेज़ गति से बढ़ेंगी।

  • वैश्विक बैंकिंग उद्योग के कार्यनिष्पादन ने भारी आय हानियों तथा वर्ष 2008-09 में वैश्विक संकट के परिप्रेक्ष्य में कमियों की एक उथल-पुथल भरी अवधि देखने के बाद कुछ सुधार दर्शाया। वैश्विक संकट के परिणामस्वरूप एक सकारात्मक विकास यह था कि वर्ष 2010 के पहले तीन महीनों के दौरान वैश्विक बैंकिंग उद्योग के अंतर्राष्ट्रीय दावे में वर्ष 2008 (पैरा 1.16; पृष्ठ 22) की तीसरी तिमाही के बाद पहली बार बढ़ोतरी दिखाई दी।

  • यद्यपि बड़े परिमाण में मौद्रिक और राजकोषीय उपायों से आर्थिक सुधार हुआ, वैश्विक बैंकिंग उद्योग के प्रति अवनतिशील जोखिमों खासकर बैंकों की आस्तिओं और लाभप्रदता की गुणवत्ता से संबंधित जोखिमों पर विभिन्न चिंताएं बरकरार नहीं। आगे जाकर बैंकों को अपनी देयताओं के बड़े हिस्से को पुनर्वित्त प्रदान करने तथा सार्वजनिक क्षेत्र (पैरा 2.1; पृष्ठ 15) से आकस्मिक सहायता उपायों पर अपनी निर्भरता से उत्पन्न चुनौतियों का समाधान करना होगा।

  • परिवर्धित बासेल II ढाँचे के अंतर्गत उच्चतर पूँजी प्रभार प्रस्ताव की दृष्टि से कुछ क्षेत्रों जैसेकि यूरो क्षेत्र में वैश्विक बैंकिंग उद्योग को पुन: पूँजीकरण की और चुनौतियों से तब दो-चार होना पड़ेगा जब निजी क्षेत्र निधीयन परिपक्व होगा और असाधारण सार्वजनिक सहायता वापस ले लिया जाएगा। (पैरा 2.33; पृष्ठ 27)

नीतिगत वातावरण

  • वर्ष 2009-10 में रिज़र्व बैंक ने अपना नीतिगत ध्यान धीरे-धीरे संकट प्रबंधन से सुधार प्रबंधन की ओर केंद्रित किया। ऋण सुपुदर्गी की अन्य बातों के साथ-साथ ओर नई गतिविधियों में आधार दर लागू करना और कृषि ऋणों के लिए प्रतिभूति/अंतर मानदण्डों से छूट सहित अन्य विषय शामिल थे।

  • स्व-रोज़गार को बढ़ावा देने के लिए खासकर लघु और सीमांत कृषकों और सूक्ष्म और लघु उद्यमों को ऋण प्रवाह सुगम बनाने के उपायों के अलावा ध्यान दिए जानेवाले सात राज्यों में वित्तीय साक्षरता और समावेशन को सुधारने के लिए किए गए प्रयास वर्ष 2009-10 में नीति विषय का एक महत्तपूर्ण भाग बने रहे। (पैरा 3.15 से 3.21; पृष्ठ 32 से 33)

  • विनियामकों के बीच किसी प्रकार के मतभेद को दूर करने के लिए एक संयुक्त व्यवस्था उपलब्ध कराने के लिए विधेयक द्वारा पारित प्रतिभूति और बीमा विधि (संधोधन और वैधीकरण) उध्यादेश वर्ष 2009-10 के दौरान लागू किया गया महत्त्वपूर्ण विधायी उपायों में से एक उपाय है। (पैरा 3.149; पृष्ठ 56)

  • बैंकिंग धोखाधड़ी, विदेशी परिचालनों, वित्तीय संघों, इलैक्ट्रॉनिक बैंकिंग और प्रौद्योगिकी जोखिम ने वर्ष 2009-10 में ध्यान आकर्षित किया। ग्राहक सेवा सुधरने और भुगतान और निपटान प्रणाली की सक्षमता पर भी ध्यान आकर्षित किया गया। (पैरा 3.53 से 3.59; पृष्ठ 39-40)

  • वर्ष 2009-10 में रिज़र्व बैंक ने सूचना प्रौद्योगिकी मूलभूत सुविधा में सुधार के लिए नए अनुप्रयोगों को कार्यान्वित करने तथा वित्तीय क्षेत्र में प्रौद्योगिकी के और अंगीकरण के उपाय शुरू करते हुए कई प्रयास शुरू किए। (पैरा 3.144 से 3.150; पृष्ठ 56-58)

वाणिज्यिक बैंकों का परिचालन और निष्पादन

  • वर्ष 2009-10 में मुख्य रूप से जमाराशि की बढ़ोतरी में कमी से अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों (एससीबी) के समेकित तुलनपत्र की वृद्धि में कमी हुई, जिसके कारण भारतीय बैंकिंग क्षेत्र ने कुछ कम निष्पादन का अनुभव किया। (पैरा 4.3; पृष्ठ 60)

  • जमाराशियों की संरचना चालू और बचत खातों (सीएएसए) के पक्ष में परिवर्तित हुई। यह पिछले वर्ष 33.2 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2010 के अंत में कुल जमाराशियों का 35.4 प्रतिशत के चालू और बचत खाता लेखांकन के कारण हुआ। (पैरा 4.6; पृष्ठ 62)

  • जमाराशि वृद्धि में कमी होने के कारण 2009-10 में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के बैंक ऋण की वृद्धि मंद हुई। तथापि, आंतर वर्ष आधार पर आर्थिक सुधार अधिक व्यापक हो जाने के कारण नवंबर 2009 के बाद बैंक ऋण में सुधार के संकेत दिखाई दिए। (पैरा 4.8; पृष्ठ 62)

  • अनुसूचित वाणिज्यिकबैंकों के लाभों की वृद्धि में कमी चिंता का दूसरा विषय था। समग्र स्तर पर निवल लाभों में वृद्धि जोकि वर्ष 2007-09 तक चार वर्षों के दौरान निरंतर रूप से बढ़ी रही उसमें 2008-09 में कमी आयी और वर्ष 2009-10 में भी यह कमी जारी रही। (पैरा 4.22; पृष्ठ 69)

  • अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के आस्तियों पर प्रतिलाभ (आरओए) में 2008-09 में 1.13 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2009-10 में 1.05 प्रतिशत की कमी आयी। (पैरा 4.22 से 4.25; पृष्ठ 69 से 71)। साथ ही, वर्ष 2009-10 में इक्विटी पर प्रतिलाभ, निवल ब्याज मार्जिन और अंतर  जैसे (प्रतिलाभ और निधि की लागत के बीच के अंतर के रूप में परिभाषित) समग्र स्तर पर भी अन्य सभी संकेतकों में कमी आयी। (पैरा 4.26; पृष्ठ 72)

  • दूसरी उभरती चिंता बैंकों के आस्ति गुणवत्ता की थी। कुल अनर्जक आस्ति (एनपीए) अनुपात में वर्ष 2008-09 में 2.25 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2009-10 में 2.39 प्रतिशत की वृद्धि हुई। साथ ही, वर्ष 2009-10 में संदिग्ध और हानि आस्तियों के हिस्से में वृद्धि हुई। कुल अनर्जक आस्ति अनुपात में वृद्धि तथा समग्र स्तर पर वर्ष 2009-10 में कुल अनर्जक आस्ति अनुपात के प्रावधानों (बकाया) में कमी के कारण बैंकों को प्रावधान करने के संबंध में और अधिक मज़बूत होने की आवश्यकता है। (पैरा 4.35 से 4.42; पृष्ठ 74 से 79)

  • अनर्जक आस्ति अनुपात में वृद्धि की पृष्ठभूमि के बावजूद अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के जोखिम भारित आस्ति की तुलना में पूँजी का अनुपात (सीआरएआर) में वृद्धि हुई। यह वृद्धि मार्च 2010 के अंत में 14.5 प्रतिशत थी जो बासेल II ढाँचे के अंतर्गत 9 प्रतिशत की निर्धारित न्यूनतम अनुपात से काफी अधिक थी। इससे भारत में बैंकों की मज़बूत पूँजी पर्याप्तता का संकेत मिलता है। (पैरा 4.30; पृष्ठ 73)

  • वित्तीय समावेशन के संबंध में हाल ही के वर्षों में एक स्वागत रूप गतिविधि यह हुई कि बैंक शाखाओं और एटीएम (प्रति बैंक शाखा/एटीएम जनसंख्या में कमी को दर्शाता है) की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई। ग्रामीण भारत भर में शाखाओं और एटीएम दोनों के विस्तार में वृद्धि दिखाई देती है।

  • बैंकों में प्रौद्योगिकी की बढ़ोतरी के संबंध में महत्त्वपूर्ण गतिविधि यह हुई कि कंप्यूटीकरण लगभग पूरा हो गया है और वर्ष 2009-10 में सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों ने कोर बैंकिंग समाधान (सीबीएस) अपना लिया है।

सहकारी बैंकिंग की गतिविधियाँ

  • शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र (यीसीबी) में निरंतर चल रहे समेकन के परिणामस्वरूप वर्ष 2009-10 में शहरी सहकारी बैंकों की संख्या में और अधिक कमी आयी। तथापि, बैंकों की बड़े आस्ति आकार की श्रेणी तथा बड़े कारोबार आकार की श्रेणी में बैंकिंग कारोबार की हिस्सेदारी में वृद्धि के कारण शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र के भीतर बैंकिंग कारोबार के बढ़ते सकेंद्रण के भी संकेत मिले। (पैरा 5.5 से 5.7; पृष्ठ सं.104 से 106)

  • राज्य सहकारी बैंकों की तरह देयता पक्ष में जमाराशियों में वृद्धि और आस्ति पक्ष में दोनों निवेशों और उधारों तथा अग्रिमों में वृद्धि के कारण वर्ष 2009-10 में श्हरी सहकारी बैंकों के समेकित तुलनपत्रों में उच्च दर से विस्तार हुआ। (पैरा 5.12; पृष्ठ सं.108)

  • शहरी सहकारी बैंक क्षेत्र की लाभप्रदत्ता के संबंध में चिंताएं उभर रही थी क्योंकि परिचालन लाभों में कमी के कारण वर्ष 2009-10 में निवल लाभों में कमी दर्ज हुई। इसके परिणामस्वरूप शहरी सहकारी क्षेत्र के आस्तियों पर प्रतिलाभ में 2008-09 में 0.8 प्रतिशत की तुलना में 2009-10 में 0.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। (पैरा 5.17; पृष्ठ सं.110)

  • सकल अनर्जक आस्ति अनुपात में मार्च 2009 के अंत में 13.0 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2010 के अंत में 11.9 प्रतिशत की गिरावट के कारण शहरी सहकारी बैंक क्षेत्र की आस्ति गुणवत्ता में सुधार हुआ। (पैरा 5.20; पृष्ठ सं.111)

  • महत्त्वपूर्ण रूप से मार्च 2010 के अंत में 86.3 प्रतिशत शहरी सहकारी बैंकों द्वारा 9 प्रतिशत के न्यूनतम सीआरएआर मानदण्ड का पालन करने के कारण शहरी सहकारी बैंकों की पूँजी पर्याप्तता उपयुक्त थी। (पैरा 5.22; पृष्ठ सं.112)

  • वित्तीय समावेशन में अपनी भूमिका के अनुसरण में वर्ष 2009-10 में शहरी सहकारी बैंकों के कुल अग्रिमों का लगभग 65 प्रतिशत प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को दिया गया जिसमें से कुल अग्रिमों के 16 प्रतिशत से अधिक कमज़ोर वर्गों को दिया गया। (पैरा 5.27; पृष्ठ सं.115)

  • जबकि वर्ष 2008-09 में राज्य सहकारी बैंकों, जिला केंद्रीय सहकारी बैंकों और राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों ने निवल लाभ अर्जित किया वहीं आधारभूत संस्थाओं अर्थात् प्राथमिक कृषि ऋण समितियों और प्राथमिक सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों ने निवल हानि दर्ज की। (पैरा 5.32; पृष्ठ सं.116)

  • वित्तीय निष्पादन में बढोतरी के बावजूद ग्रामीण सहकारी ऋण संस्थाओं की आस्ति गुणवत्ता में मार्च 2009 के अंत में अल्पावधि ग्रामीण सहकारी ऋण संस्थाओं ने कमी दर्ज़ की जो गैर-निष्पादन ऋणों का एक प्रमुख हिस्सा था। (पैरा 5.32; पृष्ठ 116)

गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं

  • वर्ष 2009-10 के दौरान वित्तीय संस्थाओं के वित्तीय निष्पादन में 2008-09 की तुलना में सुधार हुआ। यह मुख्य रूप से गैर-ब्याज आय में गिरावट के बावजूद ब्याज आय में उल्लेखनीय वृद्धि होने के कारण हुआ। (पैरा 6.19; पृष्ठ 140)

  • समग्र स्तर पर वर्ष 2009-10 में वित्तीय संस्थाओं की निवल अनर्जक आस्तियों की राशि में वृद्धि हुई जो केवल सिडबी के कारण थी। तथापि, वित्तीय संस्थाओं की पूँजी पर्याप्तता सभी वित्तीय संस्थाओं का सीआरएआर निर्धारित न्यूनतम 9 प्रतिशत के मानदण्ड से काफी अधिक थी। (पैरा 6.20 से 6.23; पृष्ठ 142 से 143)

  • जमाराशियाँ स्वीकार करनेवाली गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की आस्ति गुणवत्ता में सुधार हुआ। यह सुधार उनके कुल अनर्जक आस्ति अनुपात में मार्च 2009 के अंत में 2.0 प्रतिशत की तुलना में मार्च 2010 के अंत में 1.3 प्रतिशत की गिरावट के कारण हुआ। उनकी पूँजी पर्याप्तता में भी सुधार हुआ। यह सुधार मार्च 2010 के अंत में 216 जमाराशियाँ स्वीकार करनेवाली गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों में से केवल 3 का सीआरएआर 9 प्रतिशत के नीचे होने के कारण हुआ। (पैरा 6.41 से 6.44; पृष्ठ 150 से 152)

अजीत प्रसाद
सहायक महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2010-2011/640

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