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भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामायिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2008 अंक जारी किया

05 फरवरी, 2009

 

भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामायिक पेपर का
ग्रीष्मकालीन 2008 अंक जारी किया

 

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने भारतीय रिज़र्व बैंक सामायिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2008 अंक जारी किया जो रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है तथा बैंक के स्टाफ के योगदान को शामिल करता है तथा इसके लेखकों के विचारों को दर्शाता है। यह अंक कुछ महत्वपूर्ण विषयों के अनुसार तैयार किया गया है जो नीति चर्चा के प्रमुख विषय रहे हैं। इसमें आलेख, विशेष नोट और पुस्तक समीक्षाएं शामिल हैं।

  श्री जे.के. खुंद्राकप्पन और डॉ. राजीव रंजन द्वारा तैयार किया गया ‘क्या कोई अंत: अस्थायी प्रतिदर्श भारत के चालू खाता शेष का वर्णन कर सकता है ?’ शीर्षक पहला पत्र वर्ष 1950-51 से 2005-06 की अवधि के लिए निजी उपभोग की समय श्रृंखला पर आधारित भारत के चालू खाता शेष के व्यवहार का विश्लेषण करता है। पेपर में यह टिपण्णी कि गयी है की चालू खाता शेष जो अंत:अस्थायी रूप से सुधार-पूर्व अवधि के दौरान अर्थक्षम नही रहा है वह सुधार के बाद की अवधि के दौरान अर्थक्षम हो गया है। प्रारंभिक रूप में यह उन गतिविधियों का प्रतिबिंब है जो सुधार के बाद के अवधि के दौरान हुई है जब पूंजी प्रवाहों पर प्रतिबंध को उल्लेखनीय रूप से उदार बनाया गया है। यह पेपर निजी प्रवाहों के बीच असमानता के साक्ष्य उपलब्ध कराता है जो प्रत्याशित है क्योंकि भारत से पूंजी बहिर्वाह पर प्रतिबंध भारत को पूंजी के अंतर्वाहें से अधिक रहे हैं। पेपर का निष्कर्ष है कि इष्टतम चालू खाता शेष वास्तविक चालू खाता शेष से व्यापक रहा है। यह सहज रूप से स्वीकार करने योग्य है क्योंकि सुधार-पूर्व अवधि में बहुत कड़े विदेशी मुद्रा प्रतिबंध थे जिन्होंने इष्टतम स्तर तक निजी उपभोग को सहज बनाने को प्रतिबंधित किया था। यह पेपर यह निष्कर्ष देता है कि अंतर्वाह और बहिर्वाह दोनों के और उदारीकरण के साथ एजेंटो के लिए यह संभव होगा कि वे संभावित उच्चतर वृद्धि प्राप्त करने के लिए उच्चतर चालू खाता घाटा हेतु संभावना की अनुमति देते हुए वांछित इष्टतम स्तर तक अपने उपभोग को और सहज बनाएं।

  डॉ. सौरभ घोष और नारायण चंद्र प्रधान द्वारा प्रस्तुत ‘वाणिज्यिक पत्र के लिए डब्ल्यूएडीआर के निर्धारकःभारत के लिए अनुभवजन्य विश्लेषण" शीर्षक दूसरा पत्र भारत के वाणिज्यिक पत्र (सीपी) बाज़ार में भारित औसत बट्टा दर (डब्ल्यूएडीआर) के प्रमुख निर्धारकों का विश्लेषण करने के लिए पिछले पाँच वर्षो (अप्रैल 2002 से सितम्बर 2007) के दौरान मासिक स्तर पर वास्तविक और वित्तीय क्षेत्र चर-वस्तुओं का उपयोग करता है। अनुभवजन्य परिणाम यह संकेत करते हैं कि वर्षों के दौरान ‘वाणिज्यिक पत्र का औसत मासिक निर्गम’, भारित औसत बट्टा दर (डब्ल्यूएडीआर) तथा ‘भारित औसत बट्टा दर (डब्ल्यूएडीआर) में अस्थिरता’ बढ़ी हुई है। वे कारक जो उल्लेखनीय रूप से भारित औसत बट्टा दर (डब्ल्यूएडीआर) में गतिविधियों का वर्णन करते हं वे माँग दर, 364-दिवसीय ट्रेज़री बिलों के कट-ऑफ प्रतिलाभ, लगातार वृद्धिशील बैंक ऋण और निर्गम राशि के रूप में पाये गये हैं।

   विशेष नोट के खंड में श्री एल. लक्ष्मणन द्वारा प्रस्तुत ‘भारतीय मूलभूत सुविधा विकास में सार्वजनिक - निजी सहभागिता: मुद्दे और विकल्प’ शीर्षक पेपर देश में क्षेत्रवार मूलभूत सुविधा विकास का एक विश्लेषणात्मक सारांश तथा निजी सहभागिता और ऐसी सर्वाजनिक मूलभूत सुविधा के निर्माण में सार्वजनिक - निजी सहभागिता के स्तर को उपलब्ध कराने का प्रयत्न करता है। यह पेपर विद्युत, परिवहन, टेलीकॉम, पेट्रोलियम और शहरी मूलभूत सुविधा क्षेत्रों में कुछ विशिष्ट चिंता का उल्लेख करता है तथा निजी सहभागिता बढ़ाने के लिए उपाय प्रस्तावित करता है। यह पेपर कुछ मौलिक मुद्दों जैसे कि प्रक्रियाओं की अपर्याप्त पारदर्शिता, असंतुलित जोखिम आबंटन, अनुचित परियोजना मूल्यांकन, लागत तथा समय बढाया जाना, विनियामक स्वतंत्रता का अतिक्रमण, अच्छे अभिशासन का अभाव आदि की पहचान भी करता है जिन पर सार्वजनिक मूलभूत सुविधा निर्माण में सहभागिता के लिए निजी निवेशकों को आकर्षित करने हेतु ध्यान देने की आवश्यकता है।

  श्री रमेश गोलाइत और श्री एस.एम. लोकारे द्वारा प्रस्तुत ‘भारतीय कृषि में पूंजी पर्याप्तता: एक पुनरावलोकन’ शीर्षक पेपर भारतीय कृषि के वृद्धि पर बाध्यकारी बाध्यता और प्रभावित करने वाली पूंजी संरचना की भूमिका की जाँच करता है। इस पर बल देने की जरूरत है कि वृद्धि प्रक्रिया में निवेश एक महत्वपूर्ण एकल कारक है तथा कम वांछित क्षेत्रों में कृषि में सार्वजनिक निवेश न केवल प्रति इकाई व्यय की दृष्टि से गरीबी में भारी कमी करता है बल्कि उच्चतम आर्थिक प्रतिलाभ भी देता है। इस प्रकार यह पेपर कृषि क्षेत्र में घरेलू निवेश को बढ़ाने की माँग करता है क्योंकि यह बहुप्रतीक्षित संरचनात्मक शुरुआत उपलब्ध कराता है और कृषि क्षेत्र में वृद्धिशील पूंजी उत्पादन अनुपात (आईसीओआर) के उच्चतर बने रहने पर भी स्थिरता के संसार से भारतीय कृषि को उन्नतिशील बनाता है। पेपर का निष्कर्ष है कि सचेष्ट निवेशों के माध्यम से कृषि क्षेत्र को आधुनिक बनाने तथा वृद्धिशील पूंजी उत्पादन अनुपात (आईसीओआर) में कमी लाने की आवश्यकता है और इसके द्वारा कृषि क्षेत्र को औद्योगिक क्षेत्र की तरह अच्छे ढंग से कार्य करने की अनुमति देने की जरूरत है। कृषि में निवेश जो सर्वोच्च गतिविधि है को XI वीं पंचवर्षीय योजना में यथा परिकल्पित प्रतिवर्ष 4 प्रतिशत से अधिक कि वृद्धि का वांछित स्तर प्राप्त करने के लिए इसे गतिशील करने की जरूरत है। अधिक महत्वपूर्ण रूप में इस निवेश को अधिकतम प्रभाव के लिए समुचित ढंग से संरचित करने, समयावधि तैयार करने और ठीक ढंग से कार्यान्वित करने की जरूरत है।

 
 
अल्पना किल्लावाला
मुख्य महाप्रबंधक
प्रेस प्रकाशनी : 2008-2009/1242

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