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भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का शरदकालीन 2010 अंक जारी किया

5 मई 2011

भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का शरदकालीन 2010 अंक जारी किया

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने सामयिक पेपर का शरदकालीन 2010 अंक जारी किया। सामयिक पेपर रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है और इसमें बैंक के स्‍टाफ का योगदान है तथा यह इसके लेखकों के विचारों को दर्शाता है। इसे कुछ महत्‍वपूर्ण विषयों के अनुसार तैयार किया गया है जो नीति चर्चा के प्रमुख विषय रहे है। इसमें आलेख, विशेष नोट और पुस्‍तक समीक्षाएं शामिल है।

क्‍या भारत में मौद्रिक नीति को आस्ति मूल्‍यों की गति पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए?

भूपाल सिंह और सितीकॉंता पट्टनाईक द्वारा लिखित ''क्‍या भारत में मौद्रिक नीति को आस्ति मूल्‍यों की गति पर प्रतिक्रिया देनी चाहिए?'' पेपर में यह जॉंच की गई है कि क्‍या मौद्रिक नीति को आस्ति मूल्‍य की गति के प्रति अधिक संवेदनशील बनना चाहिए और बबल्‍स निर्मित होने से बचने के लिए सक्रिय रूप से प्रतिक्रिया दर्शानी चाहिए। यह आकलन हाल के सब-प्राइम संकट से उभरे विवाद की पृष्‍ठभूमि में किया गया है। अध्‍ययन में अनुभवजन्‍य विश्‍लेषण यह दर्शाते हैं कि जबकि ब्‍याज दर में परिवर्तन से शेयर बाज़ार मूल्‍यों में गतिशीलता आती है शेयर बाज़ार मूल्‍यों में परिवर्तन से ब्‍याज दर में गति नहीं आती है अर्थात् विपरित परिस्थिति नहीं होती। यह इस बात का सुझाव देता है कि भारत में मौद्रिक नीति कभी आस्ति मूल्‍यों पर प्रतिक्रिया नहीं करती है किंन्‍तु मौद्रिक नीति के आस्ति मूल्‍य चैनल अंतरित होता है। तथापि ऋण परिस्थितियों के आघात मध्‍यम एवं दीर्घावधि पर आस्ति मूल्‍य घट-बढ़ का उल्‍लेखनीय भाग होता है जो कारोबार चक्र खासकर वास्‍तविक गतिविधि, ऋण प्रवाहों और आस्ति मूल्‍यों के घट-बढ़ के व्‍यापक सह-गतिशीलता का हिस्‍सा हो सकता है।

लेखकों का अभिमत है कि चूँकि उच्‍च ब्‍याज दरें उत्‍पादन, ऋण मॉंग तथा आस्ति मूल्‍यों में कमी का कारण होते है केवल आस्ति मूल्‍यों के प्रभाव को ही आस्ति मूल्‍य चक्रों की स्थिरता के लिए मौद्रिक नीति के प्रयोग को व्‍याप्‍त कारण के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। साथ ही, ऋण वृद्धि की समग्र गति को सीमित रखने के उद्देश्‍य वाली कोई नीति को गतिविधियों जैसेकि आर्थिक ऑवर-हीटिंग अथवा निरंतर उच्‍च मुद्रास्‍फीति से चालित होना चाहिए किंतु एक आस्ति मूल्‍य बबल की धारणा से नहीं। उनके मूल्‍यांकन में मौद्रिक नीति के आयोजन में आस्ति मूल्‍य गति का अर्थपूर्ण प्रयोग को स्‍पष्‍ट करना मुश्किल होगा। लेखकों का अभिमत है कि आस्ति मूल्‍य बबल्‍स से वित्तीय स्थिरता की चिंताओं को व्‍यष्टि और समष्टि विवेकपूर्ण उपायों के माध्‍यम से बेहतर रूप से संबोधित किया जा सकता है और ऐसे उपायों की प्रभावकारिता को बढ़ाया जा सकता है यदि उसे सुदृढ़ समष्टि आर्थिक नीति वातावरण में लागू किया जाता है।

निर्यात और आर्थिक विकास : भारत के लिए इएलजी अवधारणा की एक जॉंच

डॉ. नारायण चंद्र प्रधान ने ''निर्यात और आर्थिक विकास : भारत के लिए इएलजी अवधारणा की एक जॉंच'' विषय के पेपर में निर्यात वृद्धि और आर्थिक वृद्धि के बीच संबंध और भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के लिए निर्यात समर्थित वृद्धि (इएलजी) अवधारणा की जॉंच की है। इस पेपर में सेवा निर्यातों सहित निर्यातों को शामिल करते हुए बढ़े हुए कॉब-डगलस उत्‍पादन कार्य आकलन के द्वारा उत्‍पादन कार्य की पारंपरिक नव प्रतिष्ठित सिद्धांत से आगे गई है और उसने निर्यात और वृद्धि के बीच दोनों अल्‍पावधि और दीर्घावधि संबंधों की अनुभवजन्‍य जॉंच की है। अध्‍ययन में यह पाया गया है कि ''माल और सेवाओं'' तथा सकल घरेलू उत्‍पाद के मामले में प्रत्‍येक वर्ष 14 प्रतिशत असंतुलन को सुधारा जाता है। यह अनुभवजन्‍य जॉंच दोनों अल्‍पावधि और दीर्घावधि में निर्यात और सकल घरेलू उत्‍पाद वृद्धि के बीच के संबंध को पुन: साबित करता है। ग्रेन्‍गर कारणता जॉंच यह सुझाव देती है कि कारणता निर्यात वृद्धि से बढ़कर सकल घरेलू उत्‍पाद वृद्धि तक पहुँचती है। दूसरी ओर सकल घरेलू उत्‍पाद वृद्धि से निर्यात वृद्धि की कोई विपरित कारणता नहीं होती है। वीएआर ढॉंचे में ग्रेन्‍गर कारणता/ब्‍लॉक एक्‍ज़ोजिनीटी के परिणाम का अर्थ यह हो सकता है कि भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के मामले में निर्यातों की गतिशीलता सकल घरेलू उत्‍पाद को चलानेवाली प्रतीत होती है। इससे यह निहित होता है कि निर्यातों को सकल घरेलू उत्‍पाद के बेहतर अनूमान के लिए एक अतिरिक्‍त मद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है जिससे भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था के विकास की प्रक्रिया में निर्यातों के महत्‍व को सिद्ध किया जा सकता है।

विशेष टिप्‍पणियॉं

भारत में निजी कंपनी क्षेत्र निवेश के निर्धारक

विशेष टिप्‍पणी खण्‍ड के अंतर्गत रमेश जांगली और शरद कुमार द्वारा लिखित ''भारत में निजी कंपनी क्षेत्र निवेश के निर्धारक'' विषय के पेपर में भारत में परिचालित गैर-सरकारी गैर-वित्तीय सार्वजनिक लिमिटेड कंपनियों के एक नमूने में कंपनी निवेश के निर्धारकों की जॉंच की है। पेपर की अवधि 2000-01 से 2008-09 तक है। पेपर में कंपनी निवेश के निर्णयों को प्रभावित करनेवाले कारकों की आनुभाविक पहचान के लिए पैनल रिग्ररेशन मॉडल का प्रयोग किया है। विशेष कारण जैसे फर्म का विस्‍तार, लाभांश भुगतान, लीवरेज़ निधियों की लागत, उत्‍पादन तथा नकदी प्रवाह और समष्टि आर्थिक मदें जैसेकि वास्‍तविक प्रभावी विनिमय दर, मुद्रास्‍फीति, खाद्येतर ऋण वृद्धि और पूँजी बाज़ार गतिविधियों को मॉडल में अंतर्जात मदों के रूप में माना है। परिणाम यह दर्शाते हैं कि फर्म का विस्‍तार, नकद प्रवाह अनुपात और उत्‍पादन के मूल्‍य में वृद्धि सकारात्‍मक रूप से जुड़े हैं जबकि लाभांश भुगतान अनुपात और उधार की प्रभावी लागत नकारात्‍मक रूप से जुड़े है और फर्म के निवेश के लिए सांख्यिकी रूप से उल्‍लेखनीय है। लेखकों को यह भी लगता है कि समष्टि स्‍तर पर वास्‍तविक प्रभावी विनिमय दर और मुद्रास्‍फीति कंपनी निवेश और खाद्येतर ऋण वृद्धि से नकारात्‍मक रूप से जुड़े है और पूँजी बाज़ार विकास सकारात्‍मक रूप से जुड़े हैं।

समावेशित वृद्धि और उसका क्षेत्रीय विस्‍तार

पी.के.नायक, साधन कुमार चट्टोपाध्‍याय, अरूण विष्‍णु कुमार और वी.धन्‍य द्वारा ''समावेशित वृद्धि और उसका क्षेत्रीय विस्‍तार'' विषय के अध्‍ययन में भारत की विकास प्रक्रिया की नवीनता को समझने के लिए विभिन्‍न विकास संकेतकों और विभिन्‍न क्षेत्रों और खण्‍डों के बीच अंतर-संबंध का विश्‍लेषण किया गया है। लेखकों ने यह संबंध और भूल सुधार मॉडल के साथ समय-श्रृंखला ढॉंचे में बैंक वित्त और आर्थिक वृद्धि के बीच सामान्‍य संबंध की जॉंच की है। अध्‍ययन में यह पाया गया है कि बैंक वित्त की सकल घरेलू उत्‍पाद वृद्धि और वित्तीय विकास के बीच द्वितरफी कारणता के साथ विकास प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका होती है। प्रभावी प्रतिक्रिया कार्य विश्‍लेषण यह दर्शाती है कि सकल घरेलू उत्‍पाद पर ऋण प्रभाव विपरित से अधिक मज़बूत होता है। समाप्ति पर लेखकों ने समावेशित वृद्धि की समग्र योजना में वित्तीय संस्‍थाओं की भूमिका पर ज़ोर दिया है। अध्‍ययन ने यह निष्‍कर्ष किया है कि समष्टि आर्थिक सुधार को आगे बढ़ाना, क्षेत्रों के बीच सहक्रियाशीलता संबंध प्राप्‍त करना, वैश्विकरण के तत्‍वों से प्राप्‍त अवसरों और प्रौद्योगिकी के गहन प्रयोग से समावेशित विकास का उच्‍च स्‍तर प्राप्‍त किया जा सकता है।

पुस्‍तक समीक्षा

पी.एस.रावत ने जॉन मालकॉम डॉवलिंग और प्रदुमना बिक्रम राणा, पलग्रेव - मैकमिलन, 2010 द्वारा लिखित ''एशिया और वैश्विक आर्थिक संकट : वित्तीय रूप से एकीकृत विश्‍व की चुनौतियॉं'' पुस्‍तक की समीक्षा की है।

बारह अध्‍याय वाले इस पुस्‍तक में वैश्विक आर्थिक संकट की शुरूआत को व्‍यापक रूप से शामिल किया गया है और अमरीका और यूरोप की प्रतिक्रियाओं के विषय पर कहा गया है और एशिया में उसका विस्‍तार खासकर उस पर एशिया की कार्रवाई/नीति पर ध्‍यान केंद्रीत किया गया है। इस पुस्‍तक में नीति प्रतिक्रियाओं और वैश्विक अर्थव्‍यवस्‍था के पुन:संतुलन की निरंतर चुनौतियॉं एशिया में क्षेत्रीय आर्थिक समेकन में अगला कदम और अंतर्राष्‍ट्रीय वित्तीय संरचना के सुधार से संबंधित मामलों के प्रभाव का विश्‍लेषण किया गया है।

जैसे-जैसे विश्‍व संकट से उबर रहा है पुस्‍तक में आकलन किया गया है कि अब तक क्‍या उपलब्धि हुई है, नई शताब्‍दी की शुरुआत में एशिया किस स्‍तर पर खड़ा है और भविष्‍य में वित्तीय वैश्विकरण के सफलतापूर्वक प्रबंधन के लिए और क्‍या करना आवश्‍यक है।

अजीत प्रसाद
सहायक महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2010-2011/1617

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