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भारतीय रिज़र्व बैंक वर्किंग पेपर श्रृंखला 8 समष्टि विवेकपूर्ण विनियमन और बैंक निष्पादन: भारत से साक्ष्य

25 सितंबर 2013

भारतीय रिज़र्व बैंक वर्किंग पेपर श्रृंखला 8
समष्टि विवेकपूर्ण विनियमन और बैंक निष्पादन: भारत से साक्ष्य

रिज़र्व बैंक ने आज अपनी वेबसाइट पर ''समष्टि विवेकपूर्ण विनियमन और बैंक निष्पादन: भारत से साक्ष्य'' शीर्षक वाला वर्किंग पेपर जारी किया है। यह पेपर डॉ. सैबल घोष द्वारा लिखा गया है।

हाल के समय में वित्तीय क्षेत्र की समग्र कार्यपद्धति में सुधार करने के साधन के रूप में वित्तीय क्षेत्र के सुधारों पर काफी ज़ोर दिया गया है। जैसेकि यह स्वीकार किया गया है, ऐसे सुधारों में सांविधिक आरक्षित निधि अपेक्षाओं को कम करना, ब्याज दरों का विनियंत्रण, आय पहचान, ऋण के वर्गीकरण तथा प्रावधानीकरण, विदेशी बैंकों के और उदार प्रवेश की अनुमति देने तथा राज्य स्वधिकृत बैंकों के स्वामित्व आधार को विविधिकृत करने संबंधी उपायों को शुरू करना सहित उपायों के बड़े दायरे को शामिल किया गया है। अनुभवजन्य अनुसंधान से मिलने वाला साक्ष्य स्वीकृत रूप से मिला-जुला है। वर्तमान साहित्य प्रत्येक समष्टि विवेकपूर्ण उपाय को पृथक रूप से देखता है और इस प्रकार बैंक के निष्पादन पर इन उपायों के समग्र प्रभाव की उपेक्षा की जाती है।

इस संदर्भ में, पेपर इस बात का पता लगाता है कि किस प्रकार समष्टि विवेकपूर्ण विनियमन के विभिन्न उपाय बैंकिंग क्षेत्र के निष्पादन पर प्रभाव डालते हैं। अधिक विशेष रूप से 1952-2012 की अवधि के लिए विभिन्न स्वामित्व श्रेणियों में बैंक-स्तरीय आंकड़ो का उपयोग करते हुए यह पेपर समष्टि विवेकपूर्ण विनियमन के प्रमुख तीन आयामों-पूंजी पर्याप्तता अनुपात, प्रावधानीकरण मानदण्ड और ऋण वर्गीकरण अपेक्षाओं का भारतीय बैंकिंग क्षेत्र के कार्यनिष्पादन पर प्रभाव पर विचार करता है। प्रभाव का आकलन करने के लिए लेखक चार सूचकों का उपयोग करता है जैसे लाभप्रदता उपाय के रूप में आस्ति प्रतिफल (आरओए), आर्थिक कार्यकुशलता के उपाय के रूप में निवल ब्याज मार्जिन (एनआईएम), बैंक स्थायित्व के उपाय के रूप में जेड स्कोर तथा अंतत: बैंक कारोबार के उपाय के रूप में उन्नत वृद्धि।

इस पेपर के प्रमुख निष्कर्षों को निम्नानुसार सारांश में प्रस्तुत किया जा सकता है:

  • अधिक खुदरा निर्भरता वाले बैंकों की उच्चतर लाभप्रदता और मार्जिन उच्चतर है। बेसलाइन विनिर्दिष्ट में खुदरा निर्भरता में 10 प्रतिशत वृद्धि से आस्ति प्रतिफल में लगभग 0.3 प्रतिशत अंकों तक सुधार होता है। इसका एक कारण ऐसी जमाराशियों की कम (अथवा नगण्य) लागत हो सकती है जिससे बैंक ऐसी निधियों पर उच्चतर मार्जिन और लाभप्रदता प्राप्त कर सकते हैं।
  • बड़े बैंक अधिक स्थायित्व दर्शाते हुए प्रतीत होते हैं। साथ ही बड़े बैंकों की ऋण वृद्धि धीमी रहती है जो इस तथ्य का सुझाव देती है कि छोटे बैंक बाज़ार हिस्सेदारी हासिल करने के लिए तेज़ गति से ऋण बढ़ाते हैं।
  • जब हम बैंक स्वामित्व को शामिल करते हैं तो यह देखा जाता है कि घरेलु निजी बैंकों की तुलना में विदेशी बैंकों की ऋण वृद्धि और स्थायित्व कम होता है। यह प्रभाव मात्रात्मक रूप से महत्वपूर्ण है जो यह दर्शाता है कि औसत विदेशी बैंक की ऋण वृद्धि औसत घरेलु निजी बैंक की तुलना में 0.08 प्रतिशत अंक कम है।
  • अगला, यह विश्लेषण जांच करता है कि क्या राज्य स्वधिकृत और निजी बैंकों के बीच अंतर समष्टि विवेकपूर्ण उपायों के कारण है, इसमें इस परिकल्पना के लिए प्रबल सहायता देखी गई है।

भारतीय रिज़र्व बैंक ने मार्च 2011 में आरबीआई वर्किंग पेपर श्रृंखला शुरूआत की थी। ये पेपर रिज़र्व बैंक के स्टाफ सदस्यों की प्रगति में अनुसंधान प्रस्तुत करते हैं और इन्हें टिप्पणियों और अधिक चर्चा के लिए प्रसारित किया जाता है। इन पेपरों में व्यक्त विचार लेखकों के विचार हैं और भारतीय रिज़र्व बैंक के विचार नहीं है। कृपया टिप्पणियां और विचार लेखकों को भेजे जाएं। ऐसे पेपरों के उद्धरण और उपयोग में इनकी अस्थाई विशेषता का ध्यान रखा जाए।

संगीता दास
निदेशक

प्रेस प्रकाशनी : 2013-2014/648

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