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भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपना सामयिक पेपर जारी किया

10 अगस्त 2010

भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपना सामयिक पेपर जारी किया

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर का मॉनसून 2009 अंक जारी किया। यह रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है और इसमें बैंक के स्टाफ का योगदान है तथा यह इसके लेखकों के विचारों को दर्शाता है। इसे कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों के अनुसार तैयार किया गया है जो नीति चर्चा के प्रमुख विषय रहे हैं। इसमें आलेख, विशेष नोट और पुस्तक समीक्षाएं शामिल है।

हरेंद्र कुमार बेहरा और राजीव रंजन द्वारा लिखित पहला पेपर ‘वित्तीय वैश्विकरण और विकास की गति: उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के कुछ साक्ष्य’ विषय पर है। इस पेपर में उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं (इएमइ) में विकास पर वित्तीय वैश्विकरण के प्रभाव को नव साहित्यीक अनुमान की आनुभविक जाँच की गई है। इस पेपर ने 27 उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के लिए आर्थिक विकास और वित्तीय उदारीकरण के बीच दीर्घावधि संबंध की एक विशिष्ट रूप से जाँच की है। साहित्य के अन्य अध्ययनों की तरह इस पेपर ने प्रति व्यक्ति उत्पाद वृद्धि के बज़ाए प्रति व्यक्ति उत्पाद स्तर के साथ पूँजी खाता उदारीकरण जोड़ने के लिए हाल ही में विकसित पैनल यूनिट रूट जाँच और सहसमेकन जाँच का प्रयोग किया है। पेपर का निष्कर्ष है कि आर्थिक विकास और वित्तीय खुलेपन के बीच एक गतिशील लंबा संबंध है। परिणाम अपरिवर्तीत रहता है जब प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद में व्यापार खुलेपन के आँकड़ो का योगदान शामिल किया जाता है। साथ ही, वित्तीय खुलापन का दीर्घावधि गुणांक का अनुमान उल्लेखनीय रूप से सकारात्मक है। जाँच विशेष रूप से यह दर्शाती है कि पूर्व में किए गए कई अध्ययनों के निष्कर्षों के विपरित पूँजी खाता उदारीकरण और विकास के बीच एक सकारात्मक दीर्घावधि संबंध है।

‘भारत में संभाव्य उत्पाद का अनुमान’ नामक दूसरा पेपर संजीब बारडोलाइ, अभिमान दास और रमेश जंगले द्वारा लिखित है। इस पेपर में यह दर्शाया गया है कि संभाव्य उत्पाद का संदर्भ उस उत्पाद से है जिसका उच्चतम स्तर दीर्घावधि तक बनाए रखा जा सकता है। यह माना गया है कि उत्पाद की सीमा तक उसका अस्तित्त्व नैसर्गिक और संस्थागत कमियों की वजह से है। यदि वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद बढ़ा है और संभाव्य उत्पाद से अधिक बना रहता है तो (मज़दूरी और मूल्य नियंत्रणों के अभाव में) जैसे-जैसे माँग आपूर्ति से अधिक होती जाती है मुद्रास्फीति बढ़ने लगती है। इसी प्रकार, यदि उत्पाद संभाव्य स्तर से नीचे है तो आपूर्तिकर्ता अपनी अधिशेष उत्पादन क्षमता को पूरा करने के लिए किमतों को कम करने के कारण मुद्रास्फीति कम होगी। अत: संभाव्य उत्पाद के आकलन करने का मामला एक अर्थयवस्था में सकल मुद्रास्फीतिकारी गतिशीलता समझने के लिए अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है।

इस पेपर में दोनों मासिक और त्रैमासिक आँकड़ों पर आधारित कई विकसित अर्थमिती पद्धतियों का प्रयोग करके भारत के लिए संभाव्य उत्पाद के आनुभविक अनुमानों को प्रस्तुत किया गया है। एक उचित पद्धति का चयन करना नमूना पूर्वानुमानों में से तथा उनकी स्पैकड्रल गहराई विशेषता को देखते हुए किया जाना चाहिए। मासिक आँकड़ो के संबंध में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए संभाव्य विकास दर के अनुमान को अधिकतर पद्धतियों के लिए 9.4 प्रतिशत से 9.7 प्रतिशत की सीमा में पाया गया। त्रैमासिक आँकड़ों के संबंध में उक्त पद्धतियाँ निरंतर लगभग 9.0 प्रतिशत का संभाव्य उत्पाद अनुमान लगाते है। आनुभविक पद्धतियों की जाँच यह सुझाव देते है कि त्रैमासिक संभाव्य उत्पाद के आकलन के लिए अनदेखे घटक नमूने सबसे सक्षम पद्धतियाँ है।

विशेष टिप्पणी अनुभाग में अभिमान दास, मंजूषा सेनापति, जोइस जॉन द्वारा लिखित "कृषि उत्पादन पर ऋण का प्रभाव : भारत में एक आनुभविक विश्लेषण" के विषय पर पेपर यह सुझाव देता है कि प्रत्यक्ष कृषि ऋण राशि का कृषि उत्पाद पर सकारात्मक और सांख्यिकीय रूप से महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है और उसका असर तुरंत होता है। अप्रत्यक्ष कृषि ऋण के खातों की संख्या का भी कृषि उत्पाद पर सकारात्मक और उल्लेखनीय प्रभाव पड़ता है किंतु यह प्रभाव एक वर्ष के अंतराल में होता है। ये परिणाम यह दर्शाते है कि हालांकि छोटे और सीमांत किसानों को अपर्याप्त ऋण उपलब्ध होना, मध्यम और दीर्घावधि उधार की कमी और जमाराशियों की सीमित गतिशीलता और प्रमुख कृषि ऋण चाहने वालों द्वारा उधार की निधियों पर अत्यधिक निर्भरता जैसे वर्तमान संस्थागत ऋण सुपुर्दगी प्रणाली में कई कमियाँ है, फिर भी भारत में कृषि उत्पादन में सहयोग देने के लिए कृषि ऋण की अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है।

पल्लवी चौहाण और भास्कर बिराजदार द्वारा लिखित "लघु वित्त और महिला का वित्तीय समावेशन: एक मूल्यांकन" नामक पेपर में लघु वित्त संस्थानों के भौगोलिक विस्तार, महिला उधारकर्ताओं के लिए लघु वित्त तक पहुँच और प्राप्यता तथा स्व-सहायता समूहों (एसएचजी) से महिला उधारकर्ताओं की पहुँच का विश्लेषण किया गया है। इस पेपर के निष्कर्षों में भारत में लघु वित्त की सीमित मात्रा और विस्तार को दर्शाया गया है। प्राथमिक आँकड़ों से देखे गए अनुसार स्व-सहायता समूहों को महिला सदस्यों की अनौपचारिक ॉााटतों पर जारी निर्भरता भी लघु वित्त के सीमित विस्तार का समर्थन करती है। स्व-सहायता समूह ऋणों की उच्च ब्याज दरें अनौपचारिक क्षेत्र की दरों के समान ही है जो गरीब उधारकर्ताओं के लिए लघु वित्त प्राप्यता के मामले को दर्शाता है। साथ ही ब्याज दरों के संबंध में सदस्यता में गिरावट की दर का मामला है। स्व-सहायता समूह सदस्यता में गिरावट का सामान्य कारण ऋणों की अनियमित चुकौती है। सदस्य समय पर अपने ऋणों की चुकौती में असमर्थ होने की शिकायत करते हैं। पेपर में यह दर्शाया गया है कि लघु वित्त को सुविधा रहित समूहों/क्षेत्रों के लिए वित्तीय समावेशन के एक योग्य और प्रभावी रूप में उभरने के लिए काफी आधार है। इससे उनको वित्त के अनौपचारिक ॉााटतों की पकड़ को कमज़ोर करने में सहायता मिलेगी और सुविधारहित क्षेत्रों को औपचारिक वित्त के दायरे में स्थायी रूप से शामिल करना सुनिश्चित किया जाएगा।

अजीत प्रसाद
प्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2010-2011/215

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