RbiSearchHeader

Press escape key to go back

पिछली खोज

थीम
थीम
टेक्स्ट का साइज़
टेक्स्ट का साइज़
S2

Press Releases Marquee

आरबीआई की घोषणाएं
आरबीआई की घोषणाएं

RbiAnnouncementWeb

RBI Announcements
RBI Announcements

असेट प्रकाशक

81622554

भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. वाइ. वेणुगोपाल रेड्डी का वर्ष 2005-06 के लिए वार्षिक मौद्रिक नीति की तीसरी तिमाही समीक्षा के संबंध में वक्तव्य

24 जनवरी 2006

भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. वाइ. वेणुगोपाल रेड्डी का वर्ष 2005-06 के लिए वार्षिक मौद्रिक नीति की तीसरी तिमाही समीक्षा के संबंध में वक्तव्य

इस समीक्षा के तीन भाग हैं :

I. समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों का मूल्यांकन;
II. मौद्रिव नीति का दृष्टिकोण और
III. मौद्रिक उपाय।

समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों की समीक्षा का विश्लेषण एक दिन पहले ही इस समीक्षा के अनुपूरक के रूप में जारी किया गया था जिसमें आसान चार्टों और सारणियों की सहायता से आवश्यक जानकारी और तकनीकी विश्लेषण दिया गया है।


I. समष्टि आर्थिक और मौद्रिक गतिविधियों का मूल्यांकन

देशी गतिविधियां

समष्टि आर्थिक गतिविधि सुदृढ रही है जैसाकि केंद्रीय सांख्यिकीय संगठन द्वारा 2005-06 की दूसरी तिमाही (ति.2 या जुलाई-सितंबर) के लिये सकल देशी उत्पाद (सदेउ) के आकलन में परिलक्षित है। यह वर्ष की पहली छमाही की वास्तविक सदेउ में 8.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है जोकि पिछले वर्ष की पहली छमाही से 1 प्रतिशत अंक अधिक है। हाल ही में उपलब्ध आंकड़े भी दर्शाते है कि यह वृद्धि कमोबेश अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्र में अच्छी तरह से फैली।

उत्तर -पूर्वी मानसून की प्रगति संतोषजनक रही है हालांकि यह थोड़ा बहुत कुछ क्षेत्रों में केंद्रित हो गया था। भारतीय मौसम विभाग के अनुसार 31 दिसंबर तक कुल वर्षा पूरे देश के लिए सामान्य से 10 प्रतिशत अधिक रही और 36 मौसमी उप संभागों में से 17 में कम/सामान्य वर्षा हुई। देश में 76 प्रमुख जलाशयों में 13 जनवरी 2006 तक जलाशयों की पूरी क्षमता का 63 प्रतिशत तक जल भरा हुआ था जो एक वर्ष पहले की तुलना में 43 प्रतिशत अधिक और दस वर्षीय औसत से 50 प्रतिशत अधिक था। यह स्थिति रबी की फसल के लिए अच्छी है। रबी की गतिविधियां की प्रगति तथा खरीफ उत्पादन के अनुमान उत्साहजनक हैं। इस प्रकार, 215 मिलियन टन के खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य पाना आसान दिखाई रहा है और साथ ही काफी बड़ा भी है तथा खाद्यान्नेतर फसलों के उत्पादन में भी वर्ष - दर- वर्ष वृद्धि प्रत्याशित है। तदनुसार, कृषि एवं संबंद्ध गतिविधियों से उत्पन्न होने वाला वास्तविक सदेउ वर्ष 2005-06 की दूसरी छमाही में उच्च वृद्धि दर्शाने के लिए तैयार है जबकि वर्ष की पहली छमाही के लिए यह वृद्धि 2.0 प्रतिशत अनुमानित थी।

उद्योग क्षेत्र से उत्पन्न होनेवाले वास्तविक सदेउ की वृद्धि में जोर अप्रैल-सितंबर 2004 के 8.3 प्रतिशत की तुलना में वर्ष की पहली छमाही में 8.8 प्रतिशत रहा जिसमें विनिर्माण क्षेत्र में 10.2 प्रतिशत तक विस्तार हुआ। बाद के महीनों में बुनियादी ढांचा उद्योग क्षेत्र के निष्पादन में कुछ धीमेपन के बावजूद औद्योगिक गतिविधि विनिर्माण क्षेत्र में बरकरार वृद्धि के ऊपर कम-ज्यादा होती रही। अप्रैल-नवंबर 2005 के दौरान औद्योगिक उत्पादन सूचकांक 8.3 प्रतिशत तक बढ़ा जबकि बीते वर्ष की तदनुरूप अवधि में यह 8.6 प्रतिशत था। विनिर्माण क्षेत्र के उत्पादन में एक वर्ष पहले के 9.1 प्रतिशत की तुलना में 9.4 प्रतिशत की वृद्धि इुई। खनन और उत्खनन तथा बिजली उत्पादन में गिरावट आई। भारी सामान और उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन - टिकाऊ और गैर-टिकाऊ दोनो - में द्विअंकीय वृद्धि दरें दर्ज की गई और इसके साथ ही 1997-98 से अप्रैल-नवंबर के लिए भारी पूंजी क्षेत्र का विस्तार अपने चरम पर हुआ। एक ओर जहां बुनियादी चीजों को उत्पादन ने जोर पकड़ी वहीं मध्यवर्ती वस्तुओं के निष्पादन में मंदी दिखाई दी।

अप्रैल-नवंबर 2005 के दौरान बुनियादी ढ़ांचा उद्योग की समग्र वृद्धि 4.4 प्रतिशत रही जोकि एक वर्ष पहले के 6.7 प्रतिशत से कम थी। इस मंद गति का मुख्य कारण क्रूड पेट्रोलियम और पेट्रोलियम रिफाइनरी उत्पादों के उत्पादन में गिरावट के साथ-साथ काोयले और बिजली के उत्पादन में धीमापन रहा। तथापि सीमेंट के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई जो आवासन और भवन निर्माण तथा निर्यात की बडी मांग को प्रतिबिंबित करता है। फिनिश्ड स्टील और बिजली उत्पादन में जो अंदर-अंदर मामूली सुधार आ रहा है वह सामान्य परिस्थितियों में आगामी महीनों में बुनियादी ढांचा तथा समग्र औद्योगिक क्षेत्र की संभावनाओं को बेहतर बनायेगा।

विनिर्माण गतिविधि में आये उछाल का उद्योग जात के व्यापक क्षेत्र की निर्यात मांग, बैंक ऋण में विस्तार, क्षमता उपयोग/विस्तार में वृद्धि , बरकरार कंपनी निष्पादन और बढ़ते कारोबार तथा ग्राहक विश्वास से बढ़िया समर्थन मिला है। रिज़र्व बैंक के इंडस्ट्रियल आउटलुक सर्वे ने उत्पादन वृद्धि के संबंध में अधिक सकारात्मक दृष्टिकोण, कार्यशील पूंजी तक पहुंच और वित्तीय अपेक्षाओं, निर्यात और क्षमता उपयोग के आधार पर पिछली तिमाही की तुलना में अक्तूबर-दिसंबर 2005 में समग्र कारोबारी प्रत्याशाओं में सुधार की सूचना दी है। वर्ष 1998 में इन सर्वेक्षण के प्रारंभ से अक्तूबर दिसंबर 2005 में बिजनेस एक्सपेक्टेशन्स इंडेक्स अपने सर्वोच्च स्तर पर था। अन्य एजेंसियों द्वारा किए गए सर्वेक्षण भी 2005-06 की दूसरी छमाही के लिए कारोबारी विश्वास में इसी प्रकार के सुधार दर्शाते हैं जो वृद्धि की गतिशीलता में समग्र मजबूती के सूचक हैं।

2005-06 की पहली छमाही में निजी कंपनी क्षेत्र की वृद्धि मंदी के कुछ चिन्हों के साथ बरकरार रही। बिक्री में वर्ष हर वर्ष वृद्धि 2004-05 के अपने लगभग 23.0 प्रतिशत के औसत से घटकर 2005-06 की पहली तिमाही में 18.5 प्रतिशत और दूसरी तिमाही में 16.4 प्रतिशत हो गई। निवल लाभ में वृद्धि जोकि 2005-06 की पहली तिमाही तक 45.0 प्रतिशत से ऊपर बनी हुई थी दूसरी तिमाही में घटकर 27.5 प्रतिशत हो गई तथा तीसरी तिमाही में और भी घटकर 20.0 प्रतिशत हो गई। जहां क्षमता में कमी बहुत कम हो गई वहीं कंपनियों ने अपने पहले किए गए निवेश निर्णयों को समर्थन होने के लिए काफी आंतरिक संसाधन जुटा लिए। 1990 के दशक के मध्य की स्थिति के ाविपरीत जब मांग की प्रत्याशा में निवेश शुरु किए गए थे, ऐसा लगता है कि निवेश अब वैश्विक स्पर्धा से संचालित हैं और मांग देश के अंदर ही उत्पन्न हुई है। फिर भी, विभिन्न उद्योगों में नई टेक्नोलाजी का प्रभाव तैयारी की अवधि कके अंतराल में होनेवाली कमी में प्रतिबिंबित है। तदनुसार, कंपनी क्षेत्र का समग्र परिदृश्य काफी उत्साहजनक बना हुआ है।

सेवा क्षेत्र से उत्पन्न होने वाला सदेउ एक वर्ष पहले के 8.4 प्रतिशत की तुलना में 2005-06 की पहली छमाही में 9.7 प्रतिशत तक बढ़ा और यह उछाल इसके सभी घटक उप-क्षेत्रों में मिला-जुला में रहा। भवन निर्माण क्षेत्र की वृद्धि जोकि 2004-05 की पहली छमाही में 4.8 प्रतिशत थी बढ़कर अप्रैल-सितंबर 2005-06 में 7.6 प्रतिशत हो गई और आशा की जाती है कि यह सीमेंट और स्टील उत्पादन के समर्थन से और भी बढ़ेगी। व्यापार, होटल, ट्रांसपोर्ट और रेस्टोरेंट की वृद्धि जोकि 11.9 प्रतिशत से बढ़कर 12.2 प्रतिशत हो गई हो वाणिज्यिक वाहनों की बिक्री (अप्रैल-नवंबर मतें 11.4 प्रतिशत), रेल्वे भाड़े के राजस्व (अप्रैल-अक्तूबर में 9.5 प्रतिशत), देशी टर्मिनलों में एयरलाइनों के ियात्रियों में वृद्धि (अप्रैल-अक्तूबर में 22.5 प्रतिशत), प्रमुख बंदरगाहों में उतारे-चढ़ाए गए कार्गों (अप्रैल-अक्तूबर में 11.7 प्रतिशत), विदेशी पर्यटक आगमन (अप्रैल-अक्तूबर में 12.7 प्रतिशत) और टेलीफोन कनेक्शनों में (अप्रैल-अक्तूबर में 87.1 प्रतिशत) हइुई वृद्धि का लाभ मिलेगा। वित्तीयन, बीमा, स्थावर संपदा और कारोबारी सेवाओं ने 2005-06 की पहली छमाही में 9.1 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जबकि एक ावर्ष पहले यह 6.2 प्रतिशत थी। सामुदायिक सामाजिक और व्यक्तिगत सेवाओं में 2005-06 की पहली छमाही में 6.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई जबकि एक वर्ष पहले यह 5.4 प्रतिशत थी। समग्र रुप में, सेवा क्षेत्र की संभावनाएं उज्वल हैं।

बैंक ऋण का उल्लेखनीय रूप से विस्तार हुआ है जिससे काफी हद तक आर्थिक क्रियाकलापों में तेजी आयी है। अनुसूचित वाणिज्य बैंकों का ऋण पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में परिवर्तन को घटाकर, 19.9 प्रतिशत (रु.।,67,041 करोड़) की तुलना में 6 जनवरी 2006 तक वर्ष के दौरान 23.3 प्रतिशत (रु.2,56,441 करोड़) बढ़ा है। सार्वजनिक वितरण/भंडारण के लिए माल की खरीद में कमी के कारण खाद्यान्न ऋण में पिछले वर्ष रु.9,098 करोड़ की वृद्धि की तुलना में रु.1,979 करोड़ की साधारण वृद्धि हुई है। खाद्येतर ऋण में परिवर्तन को घटाकर, पिछले वर्ष की 19.6 प्रतिशत (रु.1,57,943 करोड़) की वृद्धि की तुलना में 24.0 प्रतिशत (रु.2,54,462 करोड़) की वृद्धि हुई। वर्ष-दर-वर्ष आधार पर खाद्येतर ऋण में वृद्धि पिछले वर्ष की तुलना में परिवर्तन को घटाकर 26.6 प्रतिशत वृद्धि हुई की तुलना में 6 जनवरी 2006 के अनुसार 32.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई जो कि उच्चतर रही।

पूर्ववर्ती दो वर्षों की तुलना में बैंक के खाद्येतर ऋण परिचालनों के स्वरूप में कुछ बदलाव का संकेत करते है। वर्ष 2005-06 (अक्तूबर तक) के दौरान उद्योग को दिये गये ऋण में 11.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। पावर, लोहा और इस्पात, ऑटोमोबाइल, रसायन और रासायनिक उत्पाद, वस्त्र उद्योग, रत्न और जवाहरात, पेट्रोलियम, कोयला उत्पाद और परमाणु ईंधन, मार्ग और बंदरगाह और इंजीनियरी से कुल ऋण में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। सेवा क्षेत्र को बैंक ऋण में 20.7 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई जिसके फलस्वरुप खाद्येतर ऋण में 58.7 प्रतिशत की बढत हुई। सेवा क्षेत्र को दिये गये ऋण में वृद्धि आवास, वाणिज्यिक स्थावर संपदा और वैयक्तिक ऋण में की गयी पहल से हुई जो वर्ष 2005-06 में खाद्येतर ऋण में वृद्धि का एक तिहाई रही। वाणिज्यिक स्थावर संपदा और वैयक्तिक उधार को दिये गये ऋण के वृद्धि की प्रवृत्ति दर से अधिक उल्लेखनीय रूप से बढ़ रही है। कृषि को दिये गये ऋण में वर्ष 2005 से वर्ष दर वर्ष के आधार पर 39.1 प्रतिशत से बढ़ रही है, जो खाद्येतर ऋण को 11.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्शाता है।

सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों और निजी कंपनी क्षेत्र के बांडों/डिबेंचरों/शेयरों में अनुसूचित वाणिज्य बैंकों के निवेश से वाणिज्यिक पत्र (सीपी) और अन्य लिखतों में पिछले वर्ष के तदनुरूपी अवधि में कुल परिवर्तन (वित्तीय संस्था का बैंक के साथ विलय होने के कारण) में 7.2 प्रतिशत (रु.6,404 करोड़) की कमी के बदले 6 जनवरी 2006 तक 15.4 प्रतिशत (रु.14,474 करोड़) की कमी आयी। इसके बावजूद अनुसूचित वाणिज्य बैंकों से वाणिज्यिक क्षेत्र में संसाधनों का कुल प्रवाह पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में कुल परिवर्तन (वित्तीय संस्था का बैंक के साथ विलय होने के कारण) में 16.9 प्रतिशत (रु.1,51,539 करोड़) की तुलना में 20.8 प्रतिशत (रु.2,39,988 करोड़) की उल्लेखनीय वृद्धि दर्शायी है। संसाधनों के प्रवाह में वर्ष दर वर्ष वृद्धि भी पिछले वर्ष की तुलना में 23.2 प्रतिशत के बदले कुल परिवर्तन (वित्तीय संस्था का बैंक के साथ विलयन होने के कारण) 28.3 प्रतिशत से अधिक रही।

अनुसूचित वाणिज्य बैंकों की कुल जमाराशियां पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में कुल परिवर्तन, 10.0 प्रतिशत (रु.1,50,094 करोड़) की वृद्धि की तुलना में वर्ष 2005-06 के दौरान 6 जनवरी 2006 तक 14.1 प्रतिशत (रु.2,39,442 करोड़) से बढ़ी है। वर्ष दर वर्ष आधार पर कुल जमाराशियों में 14.5 प्रतिशत, कुल परिवर्तन, की तुलना में 17.0 प्रतिशत से वृद्धि हुई है। मांग जमाराशियां पिछले वर्ष 19.8 प्रतिशत की तुलना में 30.3 प्रतिशत से तेजी से बढ़ी जबकि सावधि जमाराशियां पिछले वर्ष के 13.7 प्रतिशत, कुल परिवर्तन, से 14.8 प्रतिशत की अधिक वृद्धि दर्शायी।

मुद्रा आपूर्ति (एम3) में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 8.8 प्रतिशत (रु.1,76,906 करोड़) कुल परिवर्तन, की तुलना में वर्ष 2005-06 के दौरान 6 जनवरी 2006 तक 12.4 प्रतिशत (रु.2,80,483 करोड़) की वृद्धि हुई है। वर्ष दर वर्ष आधार पर भी एम3 में वृद्धि पिछले वर्ष 13.5 प्रतिशत, कुल परिवर्तन की तुलना में 15.9 प्रतिशत पर अधिक रही। वर्ष 2005-06 में अब तक मुद्रा आपूर्ति में हुए अधिक विस्तार का मुख्य कारण खाद्येतर ऋण में हुई भारी वृद्धि है।

वर्ष 2005-06 के दौरान 13 जनवरी 2006 तक आरक्षित मुद्रा में 13.2 प्रतिशत (64,725 करोड़ रुपये) की वृद्धि हुई जबकि पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में उक्त वृद्धि 5.9 प्रतिशत (25,831 करोड़ रुपये) थी। संचलन में मुद्रा 9.6 प्रतिशत (31,556 करोड़ रुपये) की तुलना में 13.3 प्रतिशत (49,028 करोड़ रुपये) बढ़ गयी। रिज़र्व बैंक के पास रखी बैंकरों की जमाराशियां 4.8 प्रतिशत (5,017 करोड़ रुपये) की गिरावट के मुकाबले 15.2 प्रतिशत (17,319 करोड़ रुपये) बढ़ गई। जहां तक आरक्षित मुद्रा का प्रश्न है, केंद्र सरकार को रिज़र्व बैंक के निवल ऋण में 27,012 करोड़ रुपये की गिरावट के मुकाबले 69,955 करोड़ रुपये की बढ़ोतरी हुई। रिज़र्व बैंक की निवल विदेशी मुद्रा (एनएफईए) 10,719 करोड़ रुपये बढ़ गयी जिन्हें पुनर्मूल्यन के लिए समायोजित किया गया था, जबकि इसकी तुलना में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 60,875 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई थी। मुद्रा की तुलना में एनएफईए का अनुपात मार्च 2005 के 166.2 प्रतिशत से गिर कर 13 जनवरी 2006 तक 146.9 प्रतिशत रह गया। आरक्षित मुद्रा में वर्ष-दर-वर्ष वृद्धि 13 जनवरी 2006 को 19.8 प्रतिशत थी जबकि एक वर्ष पहले वह 17.3 प्रतिशत थी।

चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ), बाजार स्थिरीकरण योजना के अधीन पायी गयी बकाया राशि के रूप में कुल चलनिधि और केन्द्रीय सरकार के अधिशेष नकदी को एक साथ लेने पर अप्रैल 2005 में स्थित 1,18,044 करोड़ रुपयों के दैनिक औसत स्तर की तुलना में बढ़कर सितम्बर में 1,23,826 करोड़ रुपये के स्तर तक पहुंच गयी। वर्ष 2005-06 की तीसरी तिमाही की विशेषता चलनिधि की स्थिति में भारी परिवर्तन के रूप में रही। व्यापक रूप से, बाजार की चलनिधि पर आनेवाले दबाव आंशिक रूप से संघर्षपूर्ण थे और इंडिया मिलेनियम डिपाजिट (आइएमडी) के मोचन सहित मौसमी तथा अस्थायी तथ्यों से उत्पन्न होनेवाले और आंशिक रूप से वृद्धि की गतिमानता बढ़ जाने और बैंक ऋण के लिए प्रेरित मांग के साथ-साथ चक्रीय रही। इसके कारण बाजार दरों में होनेवाली व्यापक घट-बढ़ का निराकरण करने के लिए यथोचित मौद्रिक परिचालन करना तथा मौद्रिक नीति बल (अवस्थिति) के अनुरूप पर्याप्त स्थिरता सुनिश्चित करना जरूरी हो गया। अक्तूबर में, चलनिधि स्थितियों में त्यौहारों के लिए मुद्रा की मांग बढ़ने से मज़बूती आयी जो निरंतर आ रही ऋण की मांग पर हावी रही। तद्नुसार, चलनिधि समायोजन सुविधा के अधीन औसत रिवर्स रेपो स्तरों में पूर्ववर्ती महीनों के संदर्भ में कमी आयी। वर्ष की दूसरी छमाही के लिए संकेतक कैलेण्डर के अंतर्गत केन्द्र सरकार के बाजार उधार कार्यक्रम पुन: प्रारंभ होने के साथ चलनिधि की स्थितियां नवम्बर में और तंग हो गयी। बाजार स्थिरीकरण योजना के मोचन के जरिये नवम्बर में 5,500 करोड़ रुपये निवल चलनिधि जारी की गयी क्योंकि रिज़र्व बैंक ने उक्त महीने के उत्तरार्द्ध में योजना के अधीन नयी नीलामियां नहीं कीं। इसके बाद बाजार की स्थितियों में सुधार हुआ और रिज़र्व बैंक ने अवशोषण पद्धति पुन: अपना ली जिसमें दूसरी बार के एलएएफ के अधीन किये गये रिवर्स रेपो सहित एलएएफ के अधीन निंरतर रिवर्स रेपो धारिता बनाली गई। उसके बाद, दिसम्बर के मध्य में तिमाही अग्रिम कर के निर्गम होने, इंडिया मिलेनियम डिपाजिट की दिसम्बर के अंत में चुकौती तथा केन्द्र सरकार के नकदी शेष में उपचय होने के कारण से पुन:चलनिधि तंग कर दी गयी। रिवर्स रेपो के गिरते स्तर दिसम्बर 16 से किये गये रेपो के साथ साथ पाये गये और आम तौर पर, प्रणाली में चलनिधि निवल रूप में उपलब्ध करायी गयी। दिसम्बर के दौरान 19,522 करोड़ रुपये के और एमएसएस जारी किये गये। दिसम्बर 2005 के अंत में की गयी इंडिया मिलेनियम डिपाजिट की चुकौती सहित चलनिधि स्थिति की समीक्षा करने पर रिज़र्व बैंक ने खजाना बिलों और एमएसएस के अधीन दिनांकित प्रतिभूतियों के निर्गम निलंबित करने की घोषण की वहीं उसने उक्त योजना के अधीन बाजार को पर्याप्त सूचना देते हुए समय-समय पर नीलामियां करने की लोच बनाये रखी।

बाजार स्थिरीकरण योजना के अधीन बकाया शेष राशियां जो मार्च 2005 के अंत में 65,481 करोड़ रुपये थीं वे 20,000 करोड़ रुपयों की एमएसएस प्रतिभूतियों की चुकौती किये जाने पर बढ़कर 2 सितम्बर 2005 तक 80,585 करोड़ रुपये हो गयी। उसके बाद, नवम्बर के प्रारंभ में एमएसएस के अधीन बकाया शेष 71,600 करोड़ रुपये के नये उच्च स्तर पर पहुंच गये जिसके बाद के सप्ताहों में एमएसएस के अधीन प्रतिभूतियों को कम कर दिये जाने के कारण वे घटकर 20 जनवरी 2006 तक 40,028 करोड़ रुपये रह गये। चलनिधि समयोजन सुविधा के अधीन चलनिधि का निवल अवशोषण मार्च 2005 के अंत में 19,330 करोड़ रुपये था और वह 5 सितम्बर 2005 को 51,390 करोड़ रुपये के अपने सर्वोच्च स्तर तक पहुंच गया। इसके बाद, बाजार की तंगी के कारण रिज़र्व बैंक ने कई अवसरों पर रेपो परिचालनों के जरिए प्रणाली में चलनिधि उपलब्ध करायी थी। 20 जनवरी 2006 को 13,770 करोड़ रुपयों की निवल चलनिधि उपलब्ध करायी गयी थी। वर्ष 2005-06 के दौरान (18 जनवरी 2006 तक) केन्द्र सरकार के नकदी शेष 11,864 करोड़ रुपये बढ़ गये। तद्नुसार, दिसम्बर 2005 में कुल चलनिधि ओवर हैंग 94,585 करोड़ रुपये के औसत स्तर तक घट गया और 20 जनवरी 2006 तक और घटकर 61,317 करोड़ रुपये रह गया। चालू वित्तीय वर्ष के शेष भाग के दौरान एमएसएस के अधीन 10,028 करोड़ रुपये की चुकौतियां देय हैं और यदि कोई नये निर्गम नहीं होते हैं तो एमएसएस के अधीन बकाया शेष मार्च 2006 के अंत में लगभग 30,000 करोड़ रुपये होगा।

मध्यावधि समीक्षा में दिये गये आश्वासन के अनुसार रिज़र्व बैंक ने भारतीय स्टेट बैंक और अन्य बाजार सहभागियों के साथ निकट समन्वयन करते हुए यथोचित व्यवस्थाएं लागू की हैं ताकि 33,000 करोड़ रुपये या 7.1 बिलियन अमरीकी डालर के इंडिया मिलेनियम डिपाजिट की चुकौती मुद्रा, विदेशी मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजार पर बिना कोई अनुचित दबाव डाले करना सुनिश्चित हो सके। रिज़र्व बैंक ने विदेशी मुद्रा के समूचे बहिर्वाह की पूर्ति विदेशी मुद्रा प्रारक्षित धन में से दो शृंखलाओं अर्थात् 28 दिसम्बर को 5.1 बिलियन अमरिकी डालर और 29 दिसम्बर 2005 को 2.0 बिलियन अमरिकी डालर में की। भारतीय स्टेट बैंक ने अपनी ओर से, रिज़र्व बैंक से विदेशी मुद्रा खरीदने के लिए रुपया संसाधन जुटाने के लिए पर्याप्त कदम उठाएं। इसके अलावा, रुपया निधि में होनेवाली अस्थाई असंगति से उबरने के लिए रिज़र्व बैंक का चलनिधि समायोजन सुविधा (दूसरी बार के चलनिधि समायोजन सुविधा सहित) के जरिये चलनिधि समर्थन भी उपलब्ध था। इंडिया मिलेनियम डिपाजिट की सुचारू चुकौती से वित्तीय बाजारों की लोचपूर्ण मज़बूती और परिपक्वता का पता चलता है जिसके लिए रिज़र्व बैंक के लचीले परिचालन अनुपूरक पाये गये।

राजकोषीय स्थिति को देखने पर, अप्रैल-नवम्बर 2005 के दौरान केन्द्र सरकार का 87,181 करोड़ रुपये का राजस्व घाटा वर्ष 2005-06 के बजट अनुमान का 91.5 प्रतिशत था जबकि इसकी तुलना में पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में वह 97.1 प्रतिशत (73,948 करोड़ रुपये) था। चालू वर्ष के दौरान राजस्व घाटे की वृद्धि की धीमी गति, कर राजस्व के एक वर्ष पहले के 45.6 प्रतिशत से बढ़कर 47.6 प्रतिशत हो जाने तथा ब्याज भुगतानों और उपदानों की वृद्धि को सीमित कर दिये जाने के कारण पायी जा सकी। 1,12,949 करोड़ रुपये या बजट अनुमान के 74.7 प्रतिशत का सकल राजकोषीय घाटा एक वर्ष पहले के 51.5 प्रतिशत (70,717 करोड़ रुपये) से उच्चतर था। तथापि, इसे ऋण स्वैप लेनदेनों से समायोजित किया गया। अप्रैल-नवम्बर 2004 के दौरान सकल राजकोषीय घाटा बजट अनुमान का 74.8 प्रतिशत था। चालू वित्तीय वर्ष के दौरान सकल राजकोषीय घाटे की वृद्धि मुख्य रूप से योजना राजस्व व्यय एवं राज्यों और संघशासित क्षेत्रों को दिये जानेवाले योजनेतर अनुदानों में वृद्धि के कारण थी।

20 जनवरी 2006 को केन्द्र सरकार ने वर्ष 2005-06 के उधार कार्यक्रम के अधीन 90,051 करोड़ रुपये (1,10,291 करोड़ रुपये की बजट राशि का 81.7 प्रतिशत) के निवल बाजार उधार तथा 1,49,682 करोड़ रुपये (1,78,467 करोड़ रुपये की बजट राशि का 83.8 प्रतिशत) का सकल बाजार उधार किया। खजॉना बिलों और दिनांकित प्रतिभूतियों के निर्गम अधिकांशत: अर्ध-वार्षिक संकेतक कैलेण्डर के अनुरूप थे। केवल एक निर्गम को छोड़कर सभी निर्गम पुनर्निर्गम थे जो लोक ऋण के समेकन के प्रति किये गये प्रयास, सरकारी प्रतिभूति बाजार को चलनिधि प्रदान किये जाने को इंगित करता है। 20 जनवरी 2006 तक दिनांकित प्रतिभूतियों के जरिए नये उधारों पर भारित औसत आय पिछले वर्ष की तद्नुरूपी अवधि के 6.11 प्रतिशत से बढ़कर 7.29 प्रतिशत हो गयी। चालू वित्तीय वर्ष के दौरान अब तक जारी की गयी केन्द्र सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों की भारित औसत परिपक्वता पिछले वर्ष की तद्नुरूपी अवधि के 13.84 वर्षं से बढ़कर 15.61 वर्ष हो गयी। वर्ष 2005-06 के दौरान राज्य सरकारों ने अपने बाजार उधार कार्यक्रम के 18,271 करोड़ रुपये (सकल 24,546 करोड़ रुपये) के निवल आबंटन के मुकाबले 20 जनवरी 2006 तक 9,910 करोड़ रुपये (निवल) और 16,184 करोड़ रुपये (सकल) जुटाये।

चालू वित्तीय वर्ष के दौरान वर्ष-दर-वर्ष आधार पर थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआइ) द्वारा मापी गयी मुद्रास्फीति 23 अप्रैल के 6.0 प्रतिशत के सर्वाधिक स्तर से कम होकर 27 अगस्त 2005 को 3.3 प्रतिशत के निम्नतम स्तर पर पहुंच गयी। 7 जनवरी 2006 को 4.2 प्रतिशत के स्तर पर पहुंचने के पहले मुद्रास्फीति 3 सितम्बर और 31 दिसम्बर 2005 के बीच 3.6-4.9 प्रतिशत के दायरे में रहीं।

प्राथमिक वस्तुओं के मूल्य (भार : 22.0 प्रतिशत) एक वर्ष पहले के 1.5 प्रतिशत के मुकाबले 5.1 प्रतिशत बढ़ गये जो मुख्य रूप से फलों और सब्जियों के मूल्यों में एक वर्ष पहले की 0.4 प्रतिशत की वृद्धि के मुकाबले हुई 13.9 प्रतिशत की वृद्धि के कारण थे। खाद्येतर वस्तुओं और खनिज पदार्थों के मूल्य 0.8 प्रतिशत बढ़े जबकि पिछले वर्ष 1.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। विनिर्मित उत्पादों के मूल्य (भार: 63.8 प्रतिशत) 2.5 प्रतिशत बढ़ गये जो पूर्ववर्ती वर्ष के 5.8 प्रतिशत से न्यूनतर थे। विनिर्मित उत्पादों की श्रेणी में, खाद्य तेल, खली और मूलभूत भारी जैव रसायनों के मूल्यों में आयी गिरावट से चाय, कॉफी के प्रसंस्करण, शराब उद्योगों तथा लकड़ी एवं लकड़ी के उत्पादों के मूल्यों में हुई तीव्र वृद्धि के प्रभावों में नरमी आयी।

ईंधन, पावर, बिजली और चिकनाई (एफपीएलएल) समूह के मूल्य (भार: 14.2 प्रतिशत) एक वर्ष पहले के 10.1 प्रतिशत के मुकाबले 8.1 प्रतिशत बढ़ गये। इस समूह के भीतर खनिज तेलों के मूल्य (भारत: 6.99 प्रतिशत) पिछले वर्ष के 14.8 प्रतिशत के मुकाबले 12.7 प्रतिशत बढ़ गये। हालांकि, आंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल के मूल्य अगस्त के अंत के रिकार्ड उच्च स्तर से कम हो गये, फिर भी, प्रारंभिक दबाव भारत से संबंधित औसत अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल के मूल्य बास्केट के साथ बने रहे हैं; ये 20 जनवरी 2006 को प्रति बैरल 62 अमरीकी डालर पर थे। 7 जनवरी 2006 को खनिज तेल का मुद्रास्फीति का लगभग 36 प्रतिशत का योगदान था। खनिज तेलों को छोड़ देने पर मुद्रास्फीति 2.7 प्रतिशत हो सकती थी। एफपीएलएल समूह को छोड़ देने पर यह 2.5 प्रतिशत रहती, औसत आधार पर 7 जनवरी 2006 को मुद्रास्फीति 4.7 प्रतिशत थी जो एक वर्ष पहले के 6.5 प्रतिशत से निम्नतर थी।

वर्ष-दर-वर्ष आधार पर औद्योगिक कामगारों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) द्वारा मापी जानेवाली मुद्रास्फीति नवम्बर 2005 में 5.3 प्रतिशत थी जबकि एक वर्ष पहले यह 4.2 प्रतिशत थी। औसत आधार पर सीपीआइ मुद्रास्फीति 3.8 प्रतिशत की तुलना में 4.1 प्रतिशत थी।

वित्तीय बाजार आम तौर पर स्थिर रहे, हालांकि लगभग सभी खंडों में ब्याज दरें मज़बूत हो गई। मांग मुद्रा दर अप्रैल 2005 के 4.77 प्रतिशत से बढ़कर जनवरी 2006 (20 जनवरी 2006 तक) में 6.58 प्रतिशत हो गयी। अक्तूबर भर में, मांग दरें सुस्थिति में तथा एलएएफ रिवर्स रेपो दर से अत्यंत समरूप रहीं। मांग दरें नवम्बर में बढ़ना शुरू हो गयी तथा नवम्बर 10-18 के दौरान रिज़र्व बैंक द्वारा प्रणाली में चलनिधि उपलब्ध कराये जाने से मांग मुद्रा बाजार शांत रहा और मांग दरें घटती हुई महीने के अंत में लगभग 5.4 प्रतिशत रह गयीं। मांग दरें 10 दिसम्बर से पुन:बढ़ना शुरू हो गयी और आम तौर पर रेपो दर से ऊपर बनी रहीं। मांग मुद्रा बाजार में दैनिक औसत टर्न ओवर अप्रैल में स्थित 17,213 करोड़ रुपये से बढ़कर जनवरी (20 जनवरी 2006 तक) में 18,776 करोड़ रुपये हो गया।

चालू वित्त वर्ष के दौरान स्पैक्ट्रम के अन्त में हमारे बाजार घटकों में इसी प्रकार का उतार चढ़ाव परिलक्षित होता है। बाजार रिपो (चलनिधि समायोजन सुविधा के बाहर) 4.63 प्रतिशत से बढ़ कर 6.10 प्रतिशत हो गया तथा दैनिक मात्रा 3,958 करोड़ रु. से बढ़ कर (20 जनवरी 2006 तक) 6,440 करोड़ रु. हो गई। संपार्श्विक उधार और ऋण देयता (सीबीएलओ) की औसत दैनिक मात्रा पर्याप्त रूप से 5,185 करोड़ रु. से बढ़ कर 13,090 करोडर् रु. हो गई तथा सीबीएलओ की दर 4.58 प्रतिशत से बढ़ कर 6.03 प्रतिशत हो गई। 61 - 90 दिन परिपक्वता की कर्मशियल पेपर पर भारित औसत बट्टा दर अप्रैल 2005 में 5.80 प्रतिशत से बढ़ कर मध्य जनवरी 2006 में 7.04 प्रतिशत हो गई तथा बकाया राशि 14,809 करोड़ रु. से बढ़ कर 17,235 करोड़ रु. हो गई। 3 माह प्रमाण पत्रों की जमाराशियों (सीडी) पर विशिष्ट ब्याज दर अप्रैल में 5.87 प्रतिशत से बढ़ कर दिसंबर अन्त 2005 को 6.75 प्रतिशत हो गई जिससे बकाया जमाराशियों में 14,975 करोड़ रु. से 32,806 करोड़ रु. की महत्वपूर्ण वृध्दि हुई।

सरकारी प्रतिभूति बाजार में 91 दिन तथा 364 दिन खजाना बिल दरें अप्रैल 2005 में 5.12 प्रतिशत और 5.60 प्रतिशत से बढ़ कर जनवरी 2006 में क्रमश: 6.19 प्रतिशत और 6.30 प्रतिशत हो गई। इस अवधि के दौरान 182 दिन खजाना बिल दर 5.21 प्रतिशत से बढ़ कर 6.22 प्रतिशत हो गई। अनुपूरक बाजार में 1 वर्ष अवशिष्ट परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर आय अप्रैल 2005 में 5.77 प्रतिशत से बढ़ कर जनवरी 2006 में 6.34 प्रतिशत हो गई। 10 वर्ष और 20 वर्ष अवशिष्ट परिपक्वता वाली सरकारी प्रतिभूतियों पर आय 7.35 प्रतिशत और 7.77 प्रतिशत से कम हो कर क्रमश: 7.13 प्रतिशत और 7.37 प्रतिशत हो गई। इसके परिणामस्वरूप 10 वर्ष और 1 वर्ष वाली सरकारी प्रतिभूतियों के बीच आय सीमा अप्रैल 2005 में 158 आधार बिंदु से कम हो कर जनवरी 2006 में 79 आधार बिंदु हो गई। 20 वर्ष और 1 वर्ष वाली सरकारी प्रतिभूतियों के बीच आय सीमा भी 200 आधार बिंदु से कम हो कर 103 आधार बिंदु हो गई।

सरकारी क्षेत्र के बैंकों की एक वर्ष से अधिक परिपक्वता वाली जमाराशियों पर ब्याज दरें अप्रैल 2005 में 5.25 - 6.50 प्रतिशत से बढ़ कर जनवरी 2006 में 5.50 - 7.00 प्रतिशत हो गई। इसी अवधि के दौरान सरकारी क्षेत्र के बैंकों, निजी क्षेत्र के बैंकों और विदेशी बैंकों की आधार मूल उधार दरें क्रमश: 10.25 - 11.25 प्रतिशत, 11.00 - 13.50 प्रतिशत और 10.00 - 14.50 प्रतिशत की सीमा में अपरिवर्तित रहीं। तथापि, कुछ प्रमुख सरकारी क्षेत्र के बैंकों के संबंध में मीयादी ऋणों के लिए मध्यवर्ती उधार दरें (जिस पर अधिकतम कारोबार किया गया है) सितंबर 2005 में 8.00 - 11.90 प्रतिशत की तुलना में दिसंबर 2005 में बढ़ कर 8.00 - 12.25 प्रतिशत हो गई।

बाजार की इक्विटी में घरेलू प्राथमिक घटक के साथ-साथ अन्तर्राष्ट्रीय पूंजी बाजारों से संसाधन बढ़ाने वाली कम्पनियों के साथ तेजी रही। अनुपूरक बाजार में बीच में होने वाले सुधारों के साथ तेजी रही। बीएसई सैंसेक्स ने 20 जनवरी 2006 को 9521 तक कम आने से पहले 4 जनवरी 2006 को 9648 की सर्वाधिक ऊचाँइयों को छुआ, यह विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआइआइएस) द्वारा निवेशों तथा कम्पनी आमदनी में तेजी के समर्थन, उपयुक्त निवेश वातावरण तथा सकारात्मक समष्टि आर्थिक और कारोबार संभावना के कारण हुआ।

बाह्य क्षेत्र में गतिविधियाँ

वाणिज्य आसूचना और सांख्यिकी महानिदेशालय (डी जी सी आइ एंड एस) से प्राप्त व्यापार आँकड़ों के आधार पर अप्रैल - दिसंबर 2005 के दौरान व्यापारिक माल की निर्यात विकास दर पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 26.6 प्रतिशत से कम हो कर अमरीकी डालर के अनुसार 18.1 प्रतिशत हो गयी। निर्यात विकास में यह कमी इंजीनियरिंग वस्तुओं, टैक्सटाइल और कपड़े, जेवरात और रत्नों के निर्यात में, अत्यधिक घरेलू मांग के चलते, हुई कमी के कारण हुई। निर्यात वृघ्दि में हाल ही में हुआ आधुनिकीकरण इस बात की ओर इंगित करता है कि निर्यात स्पर्धा को मजबूत करने के लिए समर्थक नीति वातावरण यथा मूलभूत सुविधाओं के विकास और प्रक्रिया के सरलीकरण की अत्यधिक आश्यकता है।

एक वर्ष पहले 36.3 प्रतिशत आयात की तुलना में 27.3 प्रतिशत की वृध्दि हुई। तेल में 46.3 प्रतिशत की रिकार्ड वृध्दि दर्ज की गई जो एक साल पहले की 45.7 प्रतिशत से सीमान्त रूप से कम है जिससे भारतीय बास्केट से दिसंबर में 55.1 अमरीकी डालर प्रति बैरल की मामूली कमी से अन्तर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमत में कमी परिलक्षित होती है। परिमाण के अनुसार पैट्रोलियम उत्पाद के आयात और उपभोग दोनों में कमी हुई है। तेल से इतर आयात में अप्रैल - दिसंबर 2005 के दौरान 20.2 प्रतिशत की वृध्दि हुई जो पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 32.9 प्रतिशत थी। तेल के इतर सोने के इतर आयात में अप्रैल - अक्तूबर 2005 में 30.8 प्रतिशत की वृध्दि हुई जो एक साल पहले 29.9 प्रतिशत थी। पूंजी वस्तुओं के आयात में 32.2 प्रतिशत की वृध्दि हुई (एक साल पहले 28.6 प्रतिशत) जो मुख्यत: इलैविट्रकल और इलैक्ट्रिकल से इतर मशीनरी, परिवहन उपकरण, परियोजना वस्तुओं, धातु उत्पाद और मशीन औजारों के कारण हुई। इसके फलस्वरूप, समग्र व्यापार घाटा 29.8 बिलियन अमरीकी डालर हो गया जो पिछले वर्ष की तदनुरूपी अवधि में 19.3 बिलियन अमरीकी डालर से 54.2 प्रतिशत अधिक है।

भुगतान संतुलन आँकड़ों के अनुसार व्यापार घाटा अप्रैल - सितंबर 2004 को 14.8 बिलियन अमरीकी डालर की तुलना में अप्रैल - सितंबर 2005 के दौरान बढ़ कर 31.6 बिलियन अमरीकी डालर हो गया। परिवहन, सॉपटवेयर निर्यातों और अन्य व्यावसायिक और कारोबार सेवाओं से प्राप्त आय में पर्याप्त वृध्दि होने के कारण अदृश्य आय में 53.0 प्रतिशत की वृध्दि हुई। विदेशों में कार्यरत भारतीयों से प्राप्त परेषणों के कारण निजी अन्तरण अप्रैल - सितंबर 2004 में 10.2 बिलियन अमरीकी डालर की तुलना में 12.3 बिलियन अमरीकी डालर हो गए। बाहर जाने वाले यात्रियों, परिवहन और कारोबार सेवाओं के लिए भुगतान यथा कारोबार और प्रबंधन परामर्शकार्य, इंजीनियरिंग, तकनीकी और वितरण सेवाएं तथा भुगतान की राशि के लाभांश और लाभ के कारण अदृश्य भुगतानों में तेजी से (71.0 प्रतिशत) वृध्दि हुई है। जिसके परिणमास्वरूप चालू खाता घाटा अप्रैल सितंबर 2004 में 0.5 बिलियन अमरीकी डालर की तुलना में अप्रैल - सितंबर 2005 में 13.0 बिलियन अमरीकी डालर हो गया।

अप्रैल-अक्तूबर 2005 में पूंजी प्रवाह का आधिक्य रहा। उद्योग और सेवा क्षेत्र गतिविधि तथा सकारात्मक निवेश वातावरण में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ डी आइ) में निरन्तर वृध्दि होती रही। एफ डी आइ प्रवाह अप्रैल - अक्तूबर 2005 में 3.6 बिलियन अमरीकी डालर था; यह एक वर्ष पहले 3.3 बिलियन अमरीकी डालर था। बाहरी एफ डी आइ में भी पिछले वर्षों का बढ़ता हुआ प्रोफाइल बना रहा जो बाजार और संसाधनों के अनुसार भारतीय कम्पनियों के सार्वभौमिक विस्तार की उत्सुकता को दर्शाता है। मजबूत विकास आकांक्षा और कम्पनी निष्पादन जून में एफ आइ आइ के आगमन के साथ-साथ शुरु हुआ जो 2005 तक बना रहा। संविभाग 1.3 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़ कर 4.8 बिलियन अमरीकी डालर हो गया जो मुख्यत: एफ आइ आइ के निवल निवेश के कारण था; यह 1.1 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़ कर 3.4 बिलियन अमरीकी डालर हो गया। ए डी आर/जी डी आर के रूप में संविभाग निवेश भी 0.2 बिलियन अमरीकी डालर से बढ़ कर 1.4 बिलियन अमरीकी डालर हो गया। अनिवासी जमा योजनाओं के अन्तर्गत निधियों का निवल अन्तर प्रवाह अप्रैल - अक्तूबर 2005 के दौरान 231 मिलियन अमरीकी डालर था, पिछले वर्ष उसी अवधि के दौरान 688 मिलियन अमरीकी डालर निधियों का निवल बहिर्गमन था। बाहय वाणिज्य उधारों (ई सी बी) और अल्पावधि ऋण को उच्चतर अवलंब बाहय उधारों पर न्यूनतर सीमा और बढ़ती हुई आयात वित्तपोषण अपेक्षाओं के कारण प्राप्त हुआ।

भारत के बाहय ऋण में मार्च 2005 के अन्त तक 1.0 बिलियन अमरीकी डालर की वृध्दि हुई जो सितंबर 2005 में 124.3 बिलियन अमरीकी डालर था। यह वृध्दि मुख्यतया ई सी बी तथा अल्पावधि ऋण के रूप में थी जिसका श्रेय दोनों, तेल और तेल से इतर, आयातों में बड़े विस्तार द्वारा आवश्यक वित्तपोषण अपेक्षाओं को जाता है। तदनुसार, कुल ऋण की तुलना में अल्पावधि ऋण का अनुपात मार्च 2005 के अन्त में 6.1 प्रतिशत से सीमान्त रूप से बढ़ कर सितंबर 2005 के अन्त में 6.7 प्रतिशत हो गया।

अप्रैल - सितंबर 2005 के दौरान विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि में निवल उपचय 6.5 बिलियन अमरीकी डालर (मूल्यांकन रहित) था, इनमें से बकाया विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि 143.1 बिलियन अमरीकी डालर थी। मूल्यांकन सहित भारत की विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि मार्च 2005 के अन्त में 141.5 बिलियन अमरीकी डालर थी जो 13 जनवरी 2006 को कम हो कर 139.4 बिलियन अमरीकी डालर हो गई, इस प्रकार इसमें 2.1 बिलियन अमरीकी डालर की कमी हुई। आइ एम डी शोधन के एकल ऑर्डर उत्पादन के प्रभाव के अतिरिक्त, विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि में 5.0 बिलियन अमरीकी डालर की वृध्दि हुई है।

भारतीय विदेशी मुद्रा बाजार में स्थिति व्यवस्थित रही। जिसमें रुपये की दोनों ओर गतिशीलता में अधिक लचीलापन बना रहा। 20 जनवरी 2006 तक रुपये के मूल्य में यूरो की तुलना में 5.6 प्रतिशत, पाउंड स्टर्लिंग की तुलना में 4.1 प्रतिशत और जापानी येन की तुलना में 5.4 प्रतिशत वृध्दि हुई जबकि अमरीकी डालर की तुलना में लगभग 1.4 प्रतिशत मूल्यह्रास हुआ।

वैश्विक अर्थव्यवस्था में गतिविधियाँ

वर्ष 2005 की तीसरी तिमाही में (ैं3) वैश्विक विकास में सुधार हुआ है। वर्ष 2005 की तीसरी तिमाही के दौरान वैश्विक आर्थिक गतिविधि को मजबूत होना और इसके बढ़ते हुए दायरे से प्रकट होता है कि वैश्विक विकास 1990-2004 की अवधि के औसत से अधिक स्तर प्राप्त कर सकता था। वर्ष 2006 के लिए अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने विश्व के विकास की दर 4.3 प्रतिशत का अनुमान लगाया है जिसमें विकसित अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर 2.7 प्रतिशत तथा उभरते हुए बाजार और अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की विकास दर 6.1 प्रतिशत होगी।

अमरीका में, अगस्त में हरीकेन के बाद खोए हुए विश्वास के पुन: लौटने पर उपभोक्ताओं में कारोबार में व्यय करने में मजबूती आने से वर्ष-दर-वर्ष ैं3 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद में 3.7 प्रतिशत की वृध्दि हुई है। नवंबर में व्यापारिक वस्तुओं के व्यापार घाटे में 64.2 बिलियन अमरीकी डालर का सुधार हुआ है। अमरीका का चालू खाते का घाटा तीसरी तिमाही में कम होकर सकल घरेलू उत्पाद का 6.2 प्रतिशत हो गया है। चालू खाते के घाटे का आसानी से वित्तपोषण करने से अमरीकी आस्तियों के लिए निरन्तर विदेशी उत्सुकता परिलक्षित होती है। यूरो क्षेत्र में, 2005 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद के साथ वसूली 1.2 से 1.6 प्रतिशत प्रतीत होती है। जापान में, अपस्फीति के कारण उत्पन्न हुई स्थिति में निरन्तर सुधार आया है जिसमें ैं3 में वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृध्दि बढ़ कर 2.9 प्रतिशत हो गई है; यह मुख्यतया घरेलू मांग और बैंक उधार बढ़ने से हुई है। औद्योगिक उत्पादन में भी नवंबर में 1.4 प्रतिशत की वृध्दि हुई है, चौथे माह में निरन्तर वृध्दि होना और अधिक रोजगार को इंगित करता है। विकासशील देशों चीन (9.4 प्रतिशत), हांगकांग (8.2 प्रतिशत) और भारत (8.0 प्रतिशत) में ैं3 में वृध्दि बहुत अधिक रही। ब्राजील के सिवाय, रूस और लेटिन अमरीका में भी वृध्दि की दर तेज रही जहाँ ैं3 में सकल घरेलू उत्पाद कम हो कर 2.8 प्रतिशत हो गया। तेल की अधिक कीमतों, घरेलू क्षमता घटक तथा मुद्रास्फीति के बढ़ते हुए दबाव आदि कुछ ऐसे घटक हैं जिनके कारण अधिकतर विकासशील देशों के विकास में अवरोध आ रहा है।

सितम्बर माह से कच्चे तेल के अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों के संतुलित रहने के कारण वर्ष 2005 की चौथी तिमाही में विकसित अर्थव्यवस्थाओं की उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति में गिरावट आई है। अमेरिका में दिसंबर के दौरान उपभोक्ता मूल्यों में 0.1 प्रतिशत की गिरावट आई जिससे वर्ष 2005 के लिए मुद्रास्फीति 3.4 प्रतिशत के स्तर पर रही। यूरो क्षेत्र में भी नवम्बर माह में मुद्रास्फीति में गिरावट हुई और यह पिछले माह के 2.5 प्रतिशत के स्तर से गिरकर 2.4 प्रतिशत हो गई। जापान में नवम्बर माह में समग्र उपभोक्ता मूल्यों में 0.8 प्रतिशत की गिरावट के साथ अवस्फीति जारी रही । यह गिरावट पिछले तीन वर्षों में सबसे अधिक गिरावट थी। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रमुख औद्योगिक देशों में मुद्रास्फीति नियंत्रित रही है तथा तेल मूल्यों का मजदूरी वृद्धि पर प्रभाव (स्पिलओवर) संतुलित रहा है। कुल मिलाकर, इन देशों में तेल झटकों को देखते हुए मूल्य स्थिरता को बनाए रखा गया है। हालांकि सम्पत्ति के मूल्य विशेष रूप से मकानों के मूल्य मुद्रास्फीति के संभावित दबावों तथा उपभोक्ता खर्च और वित्तीय क्षेत्र के तुलन पत्रों पर इसके अप्रत्यक्ष प्रभाव को देखते हुए चिंता का कारण बने रहे। दूसरी ओर, उभरती प्रमुख बाजार अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति में वृद्धि हुई है। तेल के बढ़ते मूल्यों के अलावा, गैर-तेल जिंस बाजारों की कठोर स्थिति ने मूल्यों पर दबाव बढ़ाया है।

कच्चे तेल के मूल्यों में हुई और वृद्धि वैश्विक वृद्धि तथा स्थिरता की संभावना के लिए प्रमुख जोखिम बनी रही। हालांकि वर्ष 2004 में सामान्य तौर पर मांग ने तेल के मूल्यों को ऊंचे स्तर पर रखा, वर्ष 2005 में हुई मूल्य वृद्धि भी आपूर्ति अवरोधों, अपर्याप्त निवेशों के साथ-साथ विश्व की अधिशेष तेल क्षमता में कमी का परिणाम थी। यह क्षमता पिछले तीन दशकों में सबसे कम स्तर पर पहुंच गई है। चीन और अमेरिका दोनों में मांग में धीमी वृद्धि होने के बावजूद वर्ष 2005 में पूरे वर्ष के दौरान विश्व में तेल के मूल्यों में वृद्धि रही। उत्तरी गोलार्ध में सौम्य मौसम तथा अमेरिका में तूफान से निपटने के सतत प्रयासों के कारण अक्तूबर-नवम्बर के दौरान पेट्रोलियम उत्पादों (विशेष रूप से पेट्रोल और डीज़ल) के मूल्यों में आई गिरावट के बाद दिसंबर में भू-राजनैतिक घटकों के कारण मूल्यों में कुछ तेजी आई है। अन्तर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की किस्मों के भारतीय समूह (जिसमें ब्रेंट और दुबई फतेह शामिल है) के औसत मूल्य अक्तूबर-जनवरी के दौरान लगभग 60.0 अमेरिकी डालर प्रति बैरल के स्तर पर रहे जो पिछली तिमाही की तुलना में 3.8 प्रतिशत कम है जबकि एक वर्ष पहले की तुलना में यह 41.5 प्रतिशत अधिक है।

घरेलू खुदरा मूल्यों पर तेल मूल्यों का अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव (पास-थ्रू) विभिन्न देशों में अलग-अलग रहा। हालांकि दिसंबर 2005 में पेट्रोल के घरेलू खुदरा मूल्य (कर सहित) में वर्ष दर वर्ष आधार पर कनाडा में 22.5 प्रतिशत (अमेरिकी डालर के संदर्भ में) और अमेरिका में 16.9 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वही जापान और इटली में इसके मूल्य में 4.9 प्रतिशत की गिरावट आई है। इसी प्रकार डीजल के मूल्यों में कनाडा में 23.5 प्रतिशत और अमेरिका में 20.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं फ्रांस में इसके मूल्य में 4.5 प्रतिशत की गिरावट आई है। तुलनात्मक रूप से भारत में जनवरी तक पेट्रोल और डीज़ल के घरेलू खुदरा मूल्य (चार मेट्रो में तेल के मूल्य का औसत) क्रमश: 14.6 प्रतिशत और 13.0 प्रतिशत बढ़े हैं। हालांकि मार्च 2004 और दिसंबर 2005 के बीच कच्चे तेल के अन्तर्राष्ट्रीय मूल्यों में 69.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, वहीं इस अवधि के दौरान पेट्रोल और डीज़ल के खुदरा मूल्यों में 34.0 प्रतिशत, एलपीजी के मूल्य में 16.4 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन केरोसीन के मूल्यों में कोई वृद्धि नहीं हुई है। चूंकि खुदरा मूल्यों में कर का हिस्सा प्रत्येक देश में अलग-अलग होता है इसलिए कर-रहित स्थिति की तुलना करना अधिक उपयुक्त होता है। पेट्रोल और डीज़ल के कर-रहित खुदरा मूल्यों में विकसित विश्व में वृद्धि हुई है। जहां एक ओर पेट्रोल मूल्य में वृद्धि कनाडा में 32.0 प्रतिशत, अमेरिका में 21.1 प्रतिशत और जापान में 1.1 प्रतिशत की रेंज में रही है वहीं दूसरी ओर डीज़ल के मूल्य में वृद्धि कनाडा में 29.0 प्रतिशत, अमेरिका में 25.9 प्रतिशत और फ्रांस में 3.3 प्रतिशत रही। ऐसा अनुमान है कि अन्तर्राष्ट्रीय आपूर्ति की कड़ी स्थिति तथा बढ़ती मांग के कारण वर्ष 2006 के दौरान कच्चे तेल, पेट्रोलियम पदार्थों और प्राकृतिक गैस मूल्य उच्च स्तर पर बने रहेंगे। विश्व बैंक के अनुसार तेल सुपुर्दगी में 2 मिलियन बैरल प्रति दिन की कमी करने वाला एक आपूर्ति झटका मूल्यों में 90 अमेरिकी डालर प्रति बैरल से अधिक की वृद्धि कर सकता है जिससे वैश्विक विकास में 1.0 प्रतिशत की कमी होगी तथा विशाल-कम आय वाली अर्थव्यवस्थाओं के विकास में 1.7 प्रतिशत की कमी होगी।

अमेरिका के चालू खाते के विशाल घाटे का वित्तपोषण निरंतर चिंता का कारण बनता जा रहा है। अमेरिका और जापान में सरकारी बचत में गिरावट आई है तथा जिन देशों में गृह उछाल (हाउसिंग बूम) देखा जा रहा है वहां घरेलू वित्तीय बचत वस्तुत: गायब हो गई है। इसके विपरीत, कई उभरते बाजारों (विशेष रूप से एशिया के) में चालू खाता अधिशेष स्थिति में है जिसके परिणामस्वरूप अन्तर्राष्ट्रीय रिज़र्व बढॅ गये हैं। ओईसीडी के अनुमान के अनुसार वर्ष 2007 में अमेरिका का चालू खाता घाटा सकल देशी उत्पाद (जीडीपी) के 7.0 प्रतिशत से अधिक होगा जिसमें अधिक मात्रा में अधिशेष कहीं ओर होंगे। ऐसी संस्थिति मेक्रो असंतुलनों के अनियमित रूप से बढ़ने तथा प्रमुख मुद्राओं में विघटनकारी उतार-चढ़ाव की संभावनाओं को बढ़ा सकती है।

बढ़ते वैश्विक असंतुलनों में वर्तमान में तेल निर्यातक देशों का चालू खाता अधिशेष, प्रतिदेय ऋण बहुत अधिक हैं और इन देशों ने आस्तियां जोड़ ली हैं जैसा कि रुस के मामले में हुआ है। तेल निर्यातक देश अपने निर्यात राजस्व का उपयोग विभिन्न देशों में वित्तीय आस्तियां खरीदने में सक्रिय रूप से करते रहे हैं। इस कारण, तेल मूल्यों में वृद्धि ने आय के बड़े भाग के तेल उपभोक्ताओं से तेल उत्पादकों के बीच पुन:वितरण को दर्शाया है जिसका वैश्विक मांग और वैश्विक असंतुलनों को नरम रखने की भावी दिशा पर प्रभाव पड़ सकता है।

मौद्रिक स्थिति को तेजी से कड़ा करने की संभावना ने अक्तूबर के शुरू में पूरे विश्व में इक्विटी मूल्यों में गिरावट को तीव्र किया है। अमेरिका में अभी भी सुदृढ़ वृद्धि के संकेतों तथा विलय की घोषणाओं, शेयरों के बॉयबैक एवं लाभांश में वृद्धि के कारण नवम्बर के बाद इक्विटी बाजारों में मजबूत उछाल रहा है। इस संपूर्ण अवधि के दौरान जापान का अन्य इक्विटी बाजारों की तुलना में बेहतर निष्पादन रहा है। पॉलिसी दरों में वृद्धि का उभरती बाजार आस्तियों के मूल्यों पर आश्चर्यजनक रूप से मंद प्रभाव रहा। वर्ष 2005 में विदेशी पोर्टफोलिया के रिकार्ड निवेश से उभरते बाजारों को लाभ हुआ। चूंकि अमेरिका में मंद विकास संबंधी चिंताएं शांत हो गई थी इसलिए उभरते बाजारों में अक्तूबर के आखिरी हिस्से के उनके निम्न स्तरों में तेजी से वृद्धि दिखाई दी। नवम्बर के आखिरी हिस्से तक इक्विटी और बॉण्ड मूल्य सितंबर के अंत में उनके उच्च मूल्य-स्तर पर पहुंच गए तथा जनवरी 2006 के आरंभ तक ये मूल्य आमतौर पर अपने रिकार्ड स्तर पर थे। तथापि, उसके बाद विदेशों में इक्विटी बाजार कच्चे तेल के वैश्विक मूल्यों में नए सिरे से आई वृद्धि के कारण कमजोर रहे। अक्तूबर में कार्पोरेट क्रेडिट डिफाल्ट स्वैप दरों और बॉण्ड स्प्रेड कमोबेश अपरिवर्तित रहे जबकिनवंबर के बाद से इनमें काफी विस्तार हुआ है। हालांकि सितम्बर और अक्तूबर के दौरान कई बाजारों में दीर्घावधि ब्याज दरों में वृद्धि हुई, नवम्बर के दौरान इनमें मामूली गिरावट रही तथा दिसंबर के अंत तक यह अनिश्चित था कि क्या आय (यील्ड) में हुई वर्तमान वृद्धि क्षणिक रहेगी जैसा कि पिछली वृद्धियां रही थीं। दीर्घावधि आय में वृद्धि मुख्यतया निकट भविष्य में ब्याज दर अपेक्षाओं में वृद्धि को दर्शाती है। इसके अलावा, मुद्रास्फीति दबावों को बढ़ाने के लिए ऊर्जा लागतों में वृद्धि होने की संभावना निवेशकों के ध्यान का केन्द्र बिन्दु रही। अन्तर्निहित उतार-चढ़ाव में वृद्धि ने आर्थिक परिदृश्य के बारे में बढ़ती अनिश्चितता को भी दर्शाया। दिसंबर 2000 के बाद से पहली बार दिसंबर 27-30, 2005 के दौरान 10 वर्षीय यूएस ट्रेज़री पर आय दो वर्षीय नोट की आय की तुलना में कम रही जिससे अन्त:दिवसीय (इंट्रा-डे) कारोबार तथा अपेक्षाओं के उन संकेतों का उत्क्रमण हुआ कि भविष्य में ब्याज दरें गिर सकती हैं जो आमतौर पर कमजोर वृद्धि से जुड़ी होती हैं। विश्लेषक के रूप में आया यह उत्क्रमण अंतत: वर्तमान कडॅी स्थिति के चक्र के समाप्त होने तथा विगत की तुलना में दीर्घावधि कम जोखिम प्रीमियम का पूर्वानुमान लगा रहा था। तथापि, जनवरी 2006 में अंतर (स्प्रेड) पुन: सकारात्मक हआ। कारोबार-भार (ट्रेड-वेटिड) के संदर्भ में वर्ष 2005 में अमेरिकी डालर में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई तथा यही प्रवृत्ति जनवरी 2006 में भी जारी रही।

प्रमुख केन्द्रीय बैंकों में यूएस फेडरल रिज़र्व ने तेरह अवसरों में से प्रत्येक अवसर पर अपनी पॉलिसी दर में 25 आधार बिन्दुओं की वृद्धि की और यह जून 2004 के 1.0 प्रतिशत से बढ़कर दिसंबर 2005 में 4.25 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई। हालांकि, हाल ही में उसने पॉलिसी दर में मापी हुई वृद्धि के चक्र के लगभग समाप्त होने के संकेत दिए हैं। बैंक ऑफ इंग्लैण्ड ने मंद घरेलू विकास के प्रत्युत्तर में अगस्त 2005 से अपनी रेपो दर को 4.50 प्रतिशत के स्तर पर अपरिवर्तित रखा है। यूरोपियन सेन्ट्रल बैंक ने अपनी पॉलिसी दर को जून 2003 के बाद से 2.0 प्रतिशत के स्तर पर रखने के बाद बढ़ती मुद्रास्फीति अपेक्षाओं के प्रत्युत्तर में इस दर में 25 आधार बिन्दुओं की वृद्धि की है। एशिया की कुछेक उभरती अर्थव्यवस्थाओं में प्रमुख रूप से ईंधन के उच्च मूल्यों तथा अमेरिका में पॉलिसी को नियमित रूप से कड़ा करने के प्रत्युत्तर में मौद्रिक नीति को कठोर बनाया गया है। बैंक इंडोनेशिया ने दिसंबर 6, 2005 को अपनी पॉलिसी दर में 50 आधार बिन्दुओं की वृद्धि कर इसे 12.75 प्रतिशत किया है। वर्ष के दौरान की गई यह दसवीं क्रमिक वृद्धि थी। थायलैण्ड में जनवरी, 2005 के बाद से 14 दिवसीय पुनर्खरीद दर (रिपर्चेज रेट) में सातवीं बार वृद्धि की गई और यह 2.0 प्रतिशत के स्तर से बढ़कर जनवरी 18, 2006 को 4.25 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गई। पिछले वर्ष के दौरान दिसंबर तक सिंगापुर तथा हांगकांग के मौद्रिक प्राधिकरण ने अपनी पॉलिसी दरों में क्रमश: 187 और 200 आधार बिन्दुओं की वृद्धि की है। मलेशिया में नवंबर, 2005 के अंत में पॉलिसी दर को बढ़ाकर 3.0 प्रतिशत किया गया है। आमतौर पर उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं में नीति में परिवर्तन की दिशा या तो इसे कठोर बनाने की ओर रही या उदार स्थिति को वापस लेने की ओर रही है।

समग्र आकलन

समग्र आकलन के अनुसार वर्ष 2005-06 की पहली तीन तिमाहियों में भारतीय अर्थव्यवस्था का परिदृश्य काफी उज्ज्वल हुआ है। अगस्त के अंत के बाद से मुद्रास्फीति में हुए अपसरण के बावजूद यह स्वीकार्य सीमाओं के अंदर रही। अग्रसक्रिय नीतिगत प्रतिक्रियाओं ने मेक्रोइकनॉमिक निष्पादन की इस अनुकूल संस्थिति को बढ़ाया है। अपनी ओर से रिज़र्व बैंक ने अधिशेष मांग के उन संभावित दबावों को तुरंत हटाया जो विकास चक्र के विस्तार दौर में विशिष्ट रूप से दिखाई देते हैं। एलएएफ दरों में अक्तूबर, 2004 से तीन बार वृद्धि की गई है और हर अवसर पर 25 आधार बिन्दुओं की वृद्धि की गई ताकि अधिशेष चलनिधि का मांग दबावों में उपयोग करने पर इस पर लगाम लगाई जा सके। इसके अलावा, जनता के केन्द्रित ध्यान के लिए ऋण वृद्धि की गुणवत्ता से संबंधित चिंताओं को रेखांकित किया गया है। संवेदनशील क्षेत्रों जैसे कि इक्विटी बाजार में बैंकिंग सिस्टम की निवेश सीमाओं पर निगरानी को बढ़ाया गया है। गृह और स्थावर संपदा के लिए पूंजी पर्याप्तता की गणना के लिए जोखिम भार में वृद्धि की गई है। इसके अलावा, रिज़र्व बैंक ने प्रो-साइक्लिकल प्रावधान नीति शुरू की है। रिज़र्व बैंक ने सापेक्ष रूप से अधिक जोखिम प्रोफाइल वाले बैंकों की चयनात्मक पर्यवेक्षण समीक्षा भी शुरू की है। ऐसी आशा है कि ये उपाय भारत में विकास के वर्तमान विस्तारपरक दौर तथा ऋण चक्रों को बढ़ायेंगे।

25 अक्तूबर 2005 को हुई मध्यावधि समीक्षा के बाद से सकल मांग में वृद्धि प्रतीत होती है। संगठित सेवा क्षेत्र में रोजगार और वेतन दोनों में वृद्धि हो रही है। निवेश बढ़ रहा है तथा उपभोक्ता खर्च में तेजी बनी हुई है। बैंक के गैर-खाद्य ऋण (नॉन फूड क्रेडिट) के लिए मांग बहुत तेज है। सुदृढ़ मूलभूत कारकों के कारण कार्पोरेट निष्पादनों में निरंतर तेजी रही। सम्पत्ति के मूल्यों - मकान, इक्विटी, बुलियन - में वृद्धि जारी है। तथापि, निर्यातों और औद्योगिक उत्पाद में वृद्धि संयमित रही है। आधारभूत उद्योगों के निष्पादन में गिरावट के कारण आपूर्ति अवरोध उत्पन्न हो सकता है। इस कारण भौतिक आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता और इनकी गुणवत्ता में सुधार विकास संबंधी आपूर्ति अवरोधों को काफी हद तक आसान करेगा।

वैश्विक अर्थव्यवस्था प्रारंभ में किए गए अनुमान से अधिक मजबूत और लोचपूर्ण हुई। जब संपूर्ण चित्र उभरेगा तब 2005 में विश्व की सकल देशी उत्पाद वृद्धि अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा किए गए 4.3 प्रतिशत के अनुमान से अधिक हो सकती है। इसके साथ ही, विश्व व्यापार की वृद्धि की गति बढ़ी। दूसरी ओर, नीचे किए गए वर्णन के अनुसार हाल की वैश्विक गतिविधियों से उनमें निहित जोखिम बढ़ी है, विशेषत: भारत जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए।

पहले, वृद्धि और मुद्रास्फीति दोनों के लिए अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल मूल्य का प्रमुख जोखिम बना रहा। भौगोलिक और राजनीतिक तनाव से आपूर्ति संबंधी आशंका ने 2006 में पेट्रोलियम उत्पादों की वैश्विक मांग में विस्तार संबंधी तमाम पूर्वानुमानों की समभि- रुपता को भी कम नहीं किया है। हाल ही के सप्ताहों में अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल के मूल्य बढ़ गए और 2006 में उसके बढ़ते रहने का अनुमान है। इस परिप्रेक्ष्य में यह वृद्धि उपभोक्ता मूल्यों में अंतरित होने की संभावना है और इसके कारण सामान्य मूल्य में वृद्धि हो सकती है जिससे मुद्रास्फीतिकारी अपेक्षाओं पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

दूसरे, प्रचुर चलनिधि की स्थितियों में बढ़ते आस्ति मूल्य से घरेलू तुलनपत्र और ऋण ग्रस्तता के लिए जोखिम रहता है। इसके परिणामस्वरूप , नीति निर्धारक आस्ति मूल्यों पर संभाव्य परिणामों को देखते हुए मौद्रिक नीतिगत कार्रवाई करते हुए उपभोग व्यय पर प्रतिकूल प्रभाव न पड़ने पर ध्यान देते हैं। अन्य आस्ति मूल्य जैसे स्वर्ण और ईक्विटी में आकस्मिक विपरित बदलाव आ जाने से संकुचनकारी प्रभाव भी हो सकते हैं।

तीसरे, यद्यपि अमेरिका में मुद्रास्फीतिकारी अपेक्षाएं स्थिर रही हैं, फिर भी विश्व के कुछ क्षेत्रों विशेषत: विकासशील देशों में उसके स्तर में वृद्धि हुई है।

चौथे, अमेरिकी डालर में बड़े पैमाने पर अपेक्षा के अनुसार सुधार वास्तविक रूप में न होने से मुद्रा संबंधी घट-बढ़ से होनेवाले जोखिम में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। वर्ष 2005 की तीसरी तिमाही में 195.8 बिलियन अमेरिकी डालर के चालू खाता घाटे के बावजूद वर्ष के दौरान व्यापार-भारित संदर्भ में अमेरिकी डालर में 3.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। इसके कारण अमेरिका और शेष विश्व के बीच ब्याज दर अंतर बढने की पृष्ठभूमि में अमेरिकी डालर में मूल्यवर्गीकृत आस्तियों के लिए भारी मांग रही। जहां मुद्रा समायोजन की संभाव्यता के संबंध में मौद्रिक नीतिगत कार्रवाई करना कठिन है, वहीं ऐसी स्थिति से निपटने के लिए प्राधिकारियों को अच्छी तरह से तैयार रहना आवश्यक है। अंतिम विश्लेषण में, इन गतिविधियों से मुद्रा घट-बढ़ के संदर्भ में होनेवाली अनिश्चितता में वृद्धि हुई है।

जहां देश विशेष की स्थिति के परिप्रेक्ष्य में इन गतिविधियों के प्रति किए गए नीतिगत उपाय भिन्न-भिन्न रहे हैं वहीं नीतिगत कार्रवाई में सामान्य रूप से निभाव को हटाया जा रहा है। इस संबंध में कुछ मतैक्य भी है कि इस नीतिगत अवस्थिति के साथ दृढ़ता की मात्रा को "तटस्थ" ब्याज दर पाने तक सीमित रखा जाएगा अर्थात् एक ऐसी दर होगी जिससे आर्थिक गतिविधि में न तो तेजी आएगी न ही मंदी। ऐसा भी कुछ समझौता हुआ है कि वर्तमान में तटस्थ दर का स्तर ऐतिहासिक अनुभव से दर्शाई गई दर से कम होगी। उभरती स्थितियों को देखते हुए और यह मानते हुए कि संभाव्य जोखिम की स्थिति नहीं आएगी ऐसी संभावना है कि मौद्रिक नीति में निभाव को हटाए जाने से 2006 में किसी समय तटस्थ ब्याज दर का ऐसा स्तर प्राप्त होगा जिसकी व्यवस्थित परिभाषा न की गई हो।

भारत में, वास्तविक सकल देशी उत्पाद वृद्धि पिछली नौ तिमाहियों में औसतन 8.0 प्रतिशत रही। अब तक बुनियादी सुविधा में भारी खाइयों के बावजूद विनिर्माण क्षेत्र वृद्धि में अग्रणी रहा है। तदनुसार, अर्थव्यवस्था में संभाव्य वृद्धि के लिाए मूलभूत सुविधा में पर्याप्त निवेश महत्वपूर्ण कारक होता है। सार्वजनिक वित्त के लिए किए जा रहे समकेन के सुदृढ़ीकरण के लक्षणों के साथ यह महत्वपूर्ण है कि मूलभूत सुविधा क्षेत्र के संबंध में बजटीय व्यय किया जाए और निजी क्षेत्र को पर्याप्त संसाधन प्राप्त होने के लिए विनियामक परिवेश में सुधार किया जाए। केंद्र और राज्यों द्वारा राजस्व घाटे में कटौती के अधीन स्थिरता के साथ वृद्धि की गति को बनाए रखने के लिए सकल देशी बचत में सुधार आवश्यक है। यह मानते हुए कि वैश्विक परिवेश प्रतिकूल नहीं होगा और कोई अप्रत्याशित आघात नहीं होंगे तथा कृषि, मूलभूत सुविधाए और इन सबसे ऊपर राजकोषीय क्षेत्रों में यथोचित और समय पर उपाय किए जाएंगे। 2006-07 में वास्तविक सकल देशी उत्पाद वृद्धि दर तकरीबन 2004-05 और 2005-06 के स्तर पर रखी जा सकेगी।

वैश्विक गतिविधियों विशेषत: अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल के बढ़े हुए और अस्थिर स्तर के बावजूद अब तक भारत में मुद्रास्फीति सीमित रही है। इस समय अंतर्राष्ट्रीय तेल मूल्य में हुई को वृद्धि देशी मूल्य में अंतरित करने की व्यवस्था तेल कंपनियां, सरकार और उपभोक्ता के बीच भारवहन/प्रति सहायता द्वारा की जाती है। सकल विश्लेषण में ऐसा अंतरण एलपीजी, मिट्टी का तेल और कुछ हद तक पेट्रोल और डीजल के संदर्भ में अधूरा रहता है। यह मानते हुए कि वर्तमान मूल्य स्थायी घटक का प्रतिनिधित्व करते हैं इसलिए अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों के साथ संरेखण की आवश्यकता और आनेवाले वर्ष में कच्चे तेल के उच्चतर मूल्य होने की संभावना के कारण 2006-07 में मुद्रास्फीति में वृद्धि होने का जोखिम है। ऋण वृद्धि में किए गए उपाय, आस्ति मूल्यों में घट-बढ़ और मौद्रिक समुच्चय में वृद्धि से संभाव्य मुद्रास्फीतिकारी दबावों का भी जोखिम है। इस तरह से समग्र मांग का प्रबंध एक चुनौती है जिसके लिए देशी और वैश्विक गतिविधियों पर सावधानी से और निरंतर रूप से ध्यान देना आवश्यक है। वैश्विक रूप से मुद्रा घट-बढ़, ब्याज दर घट-बढ़ और तेल मूल्य से संबंधित अनिश्चितताएं मौद्रिक नीतिगत उद्देश्यों के लिए मुख्य जोखिम हैं। इस बात को मानते हुए कि नीतिगत उपायों के प्रभाव दिखाई देने में देर होती है , वर्ष 2006-07 में मुद्रास्फीति की संभावना इन जोखिमों के सामने आने और मौद्रिक नीति के लिए समय पर किए गए उपायों पर निर्भर होगी। इस पृष्ठभूमि में नीति निर्धारण का उद्दिष्ट 2006-07 में मुद्रास्फीति के स्तर को 2005-06 से अनधिक स्तर तक सीमित रखने का है जो उचित ही है। वृद्धि की गति को जारी रखने और समष्टि आर्थिक और वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए सुस्थिर मुद्रास्फीतिकारी अनुमानों को बनाए रखने का अभिभावी महत्व अहम है।


II. मौद्रिक नीति की अवस्थिति

25 अक्तूबर 2005 की मध्यावधि समीक्षा में अर्थव्यवस्था के मूल्यांकन और विशेषत: मुद्रास्फीति संबंधी संभावना के संदर्भ में नीतिगत उद्देश्यों की प्राथमिकताओं में पुनर्संतुलन लाते हुए 29 अप्रैल के वार्षिक नीति वक्तव्य में निर्धारित मौद्रिक नीति की अवस्थिति की फिर से पुष्टि की गई। सामने आ गए जोखिम - ऋण गुणवत्ता संबंधी चिंताएं, बढ़ते आस्ति मूल्य विशेषत: आवास के संबंध में, अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल के उच्च और अस्थिर मूल्य जिसमें कच्चे तेल के मूल्य में हुई वृद्धि के भारी अंश को स्थायी रूप में माना जाता है, व्यापक व्यापार घाटा और अंतर्राष्ट्रीय ब्याज दर चक्र में वृद्धि - के प्रति किए गए उपाय में मूल्य स्थिरता पर अधिकतर बल दिया गया । रिज़र्व बैंक इस अवस्थिति के अनुकूल प्रेरक ब्याज दर परिवेश को सुनिश्चित करने और वृद्धि की गति को बनाए रखने के लिए अर्थव्यवस्था की वास्तविक ऋण आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु यथोचित चलनिधि की व्यवस्था करने के लिए प्रतिबद्ध है। रिज़र्व बैंक ने यह भी कहा है कि वह उभरती परिस्थितियों के जवाब में मुद्रास्फीतिकारी अनुमानों को स्थिर रखने के लिए अंशांकित और तत्पर स्वरूप में उपाय करने पर विचार करेगा। नीतिगत उपायों के बिना मुद्रास्फीति को 5.0 - 5.5 प्रतिशत की अनुमानित सीमा में नियंत्रित रखना कठिन होगा यह कहते हुए चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत निर्धारित प्रत्यावर्तनीय रेपो दर में 25 आधार अंक की वृद्धि करते हुए उसे 5.25 प्रतिशत किया गया जबकि प्रत्यावर्तनीय रेपो और रेपो दरों के बीच का अंतर 100 आधार अंक रखा गया ।

तब से समष्टि आर्थिक और वित्तीय गतिविधियां मौद्रिक नीतिगत अवस्थिति के अनुकूल रही हैं। पहले, मुद्रास्फीतिकारी प्रत्याशाओं को नीतिगत पूर्वानुमानों के अनुकूल स्थिर रखा गया। अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल मूल्य को यथोचित समय पर अंतरित करने से पहले प्रत्याशित तेल मूल्य वृद्धि के दूसरे चक्र के प्रभाव उल्लेखनीय रूप से मंद रहें। मांग समूह के घटक यथोचित रहें जबकि समग्र गतिविधि में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। खनिज तेल को छोड़कर मुद्रास्फीति 2.7 प्रतिशत रही जबकि मुख्य मुद्रास्फीति 7 जनवरी 2006 को 4.2 प्रतिशत थी। कच्चे तेल मूल्य में अगस्त-सितंबर में आई वृद्धि से सीमित रूप में गिरावट आ जाने से और कृषि उत्पादों के वैश्विक मूल्य कम हो जाने से आयातित मुद्रास्फीति के दबाव भी कम हो गए। दूसरे, उच्च अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल मूल्य के प्रभाव और आयातित निविष्टियों के लिए तेज औद्योगिक मांग के अंतर्गत व्यापार घाटा व्यापक रहा जिसका वित्तपोषण पूंजी प्रवाह द्वारा किया गया। अमेरिकी डालर की तुलना में रुपये की विनिमय दर में नवंबर 2005 के प्रारंभ से जनवरी 2006 की मध्यावधि में लगभग 2.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई। तीसरे, रिज़र्व बैंक द्वारा अधिशेष और घाटे की स्थितियों में चलनिधि समायोजन सुविधा, बाजार स्थिरीकरण योजना और स्थायी सुविधाओं द्वारा किए गए यथोचित और लचीले चलनिधि प्रबंध से वित्तीय बाजार शांत रहे जिसके कारण मुद्रास्फीति के बारे में बाजार प्रत्याशाएं नीतिगत बल के समभिरुप रहीं और नीतिगत उपाय तदनुसार ही किए गए। चलनिधि के ओवरहैंग की स्थिति में सितंबर 2005 और जनवरी 2006 के बीच 60,472 करोड़ रुपये की गिरावट आकर वह 1,23,826 करोड़ रुपये से 63,354 करोड़ रुपये रह गया।

बाजार सहभागियों की आवश्यकताओं के संदर्भ में रिज़र्व बैंक ने 28 नवंबर 2005 से सुचारु चलनिधि प्रबंध के अतिरिक्त साधन के रूप में दूसरी चलनिधि समायोजन सुविधा शुरू की। विशेषत: इंडिया मिलेनियम डिपाजिट के मोचन के परिणामस्वरुप यथोचित चलनिधि बनाए रखने के लिए यह सुविधा काफी कारगर साबित हुई है।

वृद्धि की प्रारंभिक संभावना हाल ही के महीनों में और ही सुस्पष्ट हुई है। पहले, मानसून की कमी की आशंकाएं सुस्पष्ट रूप से कम हुई हैं और रबी फसल के लिए संभावनाएं वर्तमान स्तर पर अनुकूल हैं। इससे वर्ष के लिए खाद्यान्न का लक्ष्य निर्धारित किया जा सका है तथा साथ ही कृषि क्षेत्र से सकल देशी उत्पाद में वृद्धि की प्रवृत्ति फिर से दिखाई देगी। दूसरे, मूलभूत सुविधा क्षेत्र द्वारा डाली गई बाधाओं के बावजूद विनिर्माण गतिविधि के बलबूते समग्र औद्योगिक वृद्धि जारी रही। औद्योगिक कार्यनिष्पादन को तेज और व्यापक-आधारित बैंक ऋण, उच्च कारपोरेट लाभप्रदता से बहुत समर्थन मिला जिससे निवेश के आंतरिक निधीयन को बढ़ावा मिला, निर्यात मांग जारी रही और कारोबारी आशा बनी रही। तीसरे, सेवा क्षेत्र के समग्र विस्तार से अर्थव्यवस्था की उच्चतर वृद्धि की अभिलाषाओं में विश्वास बढ़ा जिसे बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मकता से समर्थन मिला। चौथे, रिज़र्व बैंक के चलनिधि प्रबंध संबंधी परिचालनों से वित्तीय बाजारों की स्थिरता में योगदान दिया और वाणिज्यिक ऋण के पक्ष में बैंक के संविभागों में सहज परिवर्तन हो सका। पांचवे, भारतीय अर्थव्यवस्था में निवेश के लिए अंतर्राष्ट्रीय निवेशक की मांग मजबूत रही जिससे समष्टि आर्थिक मूलभूत सिद्धांत में हुए सुधार का संकेत मिलता है। यही बात भारी संविभाग प्रवाह तथा साथ ही प्रत्यक्ष निवेश प्रवाह और भारत को अंतर्राष्ट्रीय बैंक उधार में हुई उल्लेखनीय वृद्धि में परिलक्षित होती है। इन सभी घटकों से वृद्धि की संभावनाओं का पूर्वग्रह बन गया है।

वर्ष 2005-06 की तीसरी तिमाही के दौरान सकल मांग में वृद्धि होने के संकेत हैं। कई सर्वेक्षणों में ग्राहक और कारोबारी विश्वास में सुधार का संकेत दिया गया है। देशी मांग में आई मजबूती बढ़ते आस्ति मूल्य, निरंतर जारी रही बिक्री वृद्धि, अंतिम उत्पादन मांग में वृद्धि, अप्रत्यक्ष कर वसूली में तेजी और मौद्रिक तथा ऋण समुच्चय में प्रत्याशित विस्तार से अधिक मजबूती के अनुसार भी दिखाई देती है। पूंजी और उपभोक्ता वस्तु उद्योगों की सम्पाती वृद्धि ने भी अंतिम मांग की खपत को समर्थन दिया। विशेषत: उद्योग, मूलभूत सुविधा और खुदरा क्षेत्र को दिए गए वर्ष - दर - वर्ष संतुलित खाद्येतर ऋण में हुई वृद्धि ने यह दर्शाया है कि व्यापक आधार पर मांग बढ़ रही है। अब तक 2005-06 में समग्र सकल मांग का प्रबंध यथोचित रूप में किया गया है जिसे रिज़र्व बैंक द्वारा किए गए यथोचित चलनिधि प्रबंध से सहायता मिली और राजकोष मंद दबावों के कारण केंद्र के वित्त में सीमित सुधार हुआ। तथापि हाल ही की गतिविधियां विशेषत: राजकोषीय गतिविधियों संबंधी सकल मांग स्थितियों को उच्च प्राथमिकता देने की ओर संकेत करती हैं तथा मौद्रिक प्रबंध के कारगर संचलन के लिए सावधानीपूर्वक और निरंतर निगरानी की आवश्यकता है।

जहां वैविध्यपूर्ण भारी ऋण वृद्धि अधिकतर ऋण प्रभाव और निवेश गतिविधि को इंगित करती है वहीं विस्तार की स्थिति में ऋण की गुणवत्ता के बारे में चिंताएं रहती हैं। रिज़र्व बैंक ने पहले से ही कुछ उपाय घोषित किए हैं और इस संबंध में बैंकों को आगाह किया है। ऋण वृद्धि में हाल ही की प्रवृत्तियों से ये चिंताएं बनी रही हैं। बैंकों से आग्रह है कि वे ऐसे क्षेत्र जहां तेजी से ऋण विस्तार हो रहा है के विशेष संदर्भ में गतिविधियों वें क्षेत्रवार विश्लेषण सहित ऋण गुणवत्ता की व्यापक समीक्षा करें।

इस स्तर पर, मौद्रिक नीति की अवस्थिति की समीक्षा में, संभावना के प्रति संभाव्य कम जोखिम पर विचार करना भी यथोचित हो सकता है। पहले, अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल मूल्य समग्र मूल्य स्थिरता के लिए संभाव्य खतरा बने रहे हैं। जहां अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल मूल्य को अंतरित करना अब तक अच्छी तरह से प्रबंधित रहा है, वहीं और वृद्धि करना राजकोष, तेल कंपनियों और उपभोक्ताओं के बीच वर्तमान में रहनेवाले दुर्बल शेष को तत्काल खतरा पैदा कर सकता है। दूसरे, अभी उभरे संविभाग में बदलाव तथा चलनिधि असंगतताओं ने आरक्षित मुद्रा में भारी अस्थिरता पैदा की है जिससे बैंकिंग प्रणाली में जमाराशियों की परिपक्वता अवधि को कम करने के साथ साथ मुद्रा आपूर्ति पर वृद्धिशील दबाव पड़ा हैं। मांग जमाराशियां मीयादी जमाराशियों की अपेक्षा तेज़ी से बढ़ी हैं और जमा प्रमाणपत्र कतिपय बैंकों के निधीयन का महत्वपूर्ण स्रोत बन गया है। इन गतिविधियों के कारण निरंतर तथा सावधानीपूर्वक निगरानी किये जाने की जरूरत है ताकि यह संभाव्य मांग दबाव निर्माण होने के प्रारंभ में ही सुरक्षा रूप में रहे। तीसरे, ऋण गुणवत्ता पर आनेवाली संभाव्य दबाव चिंता का एक विषय बना हुआ है। विशेष रूप से, वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के संदर्भ में, और इससे समष्टि आर्थिक तथा मूल्यस्थिरता के साथ सहक्रिया प्राप्त हो सके। चौथे, आयातों में आयी तेजी ने 2005-06 की पहली छमाही में चालू खाता घाटे में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। इस परिप्रक्ष्य में, बाह्य क्षेत्र पर निरंतर सतर्कता बरतना तथा चालू खाता घाटे के स्थिर वित्तपोषण को सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है। पांचवें, निवेश गतिविधि में तेजी सहित सकल मांग पर वृद्धिशील दबाव के परिप्रेक्ष्य में, राजस्व घाटे में कटौती करने तथा राजकोषीय घाटे में और सुधार करने से समष्टि आर्थिक प्रबंध को और सुविधा प्राप्त होगी।

जैसा कि पिछली समीक्षा में उल्लेख किया गया था, भुगतान संतुलन की हाल की गतिविधियों से यह संकेत मिल सकता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था कारोबारी चक्र के विस्तार के चरण में प्रविष्ट हो गयी है। वर्ष 2005-06 की पहली छमाही में 13 बिलियन अमरीकी डालर के चालू खाता घाटे को वृद्धि के उस मार्ग के व्यापक हो जाने के अनुरूप के रूप में देखा जाना चाहिए जो कि चालू वित्तीय वर्ष में पाया गया है। व्यापक होते जा रहे वणिक व्यापार घाटे के मूल में तेल से इतर आयातों में उल्लेखनीय वृद्धि है जो पूंजीगत वस्तुओं, निर्यात संबंधित इनपुट और उर्वरक, अलौह धातुओं और लोहा तथा इस्पात सहित मध्यवर्ती वस्तुओं की श्रेणी से निर्मित हुई है। यह नोट करना जरूरी है कि तेल से इतर आयातों में अंतर्भूत वृद्धि-संबद्ध विशेषता है और इन आयातों में हाल में हुई उच्च वृद्धि अर्थव्यवस्था में स्थाई वृद्धि होने को प्रमाणित करती है। आयातों में हुई भारी वृद्धि से भी ठोस निर्यात वृद्धि हो रही है। इस आशय में, वणिक व्यापार घाटे को वृद्धि उन्मुख आयात प्राप्त हुआ है और इसे एक सकारात्मक गतिविधि के रूप में देखा जा सकता है।

चालू खाता घाटे का उचित स्तर एक गतिशील संकल्पना है और मध्यावधि परिदर्श में उसका मूल्यांकन होना चाहिए। चालू खाता-घाटे का आकार अर्थव्यवस्था में धीमी गति का कार्य है - शीघ्र गति से बढ़ने वाली अर्थव्यवस्था सापेक्षत: धीमी वृद्धि से उच्चतर चालू खाता घाटा लाने की संभावना है। हाल के वर्षों में चालू आय वृद्धि में कुछ त्वरणशील बढ़ोतरी हुई, जिसके अंदर सॉफ्टवेअर अर्जन की वृद्धि दरें और कारोबार सेवाओं की व्यापक विविधता ने दिलासा दिलाया। साथ ही, निजी अंतरण आय, जिसमें मुख्यत: विदेश में कार्यरत भारतीयों के प्रेषणों का समावेश है, ने अधिक स्थायी विशेषता दिखायी और हाल के वर्षों में सकल देशी उत्पाद को 3 प्रतिशत के करीब रखने के लिए वे एकसमान रूप से बढ़े। इन घटकों ने भारतीय अर्थव्यवस्था की क्षमता को मजबूत बनाये रखा जिससे उच्चतर चालू खाता घाटे का प्रबंधन आसान हुआ, जो पहले धारणीय समझा गया था। अब तक निवल पूंजी प्रवाह चालू खाता घाटे की आवश्यकताओं से अधिक हो गये जो आरक्षित निधि की बड़ी वृद्धि में प्रतिबिंबित हुए। वर्ष 2005-06 की पहली छमाही के दौरान चालू खाता घाटे का वित्तपोषण 6.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर के साथ निवल पूंजी प्रवाहों द्वारा किया गया जो विदेशी मुद्रा आरक्षित निधियों में मिला लिये गये। चालू खाता घाटे का मौजूदा फैलाव मुख्य रूप से कच्चे तेल की कीमतों के प्रभाव की एककालिक अभिव्यक्ति और देशीं निवेश में बढ़ोतरी प्रतिबिंबित करता है। यह आशा है कि पूंजी वस्तुओं के आयातों में बड़ी वृद्धि और निहित प्रौद्योगिकी भारत के व्यापारिक निर्यातों की प्रतिस्पर्धात्मकता को और बढ़ावा देगा जो बाहय क्षेत्र के मजबूती का मुख्य आधार है। तथापि, यह आवश्यक है कि किसी भी अनिश्चितताओं और आघातों के लिए तैयार रहते हुए निर्यात प्रतिस्पर्धात्मकता पर नज़दीकी से निगरानी रखे और बाहय गतिविधयों के संबंध में निरंतर सतर्क रहें।

समष्टि आर्थिक और मौद्रिक स्थितियों का पूर्ववर्ती मूल्यांकन और अवधि के नजीक के परिदृश्य का ध्यान रखते हुए, मौद्रिक प्रबंधन के प्रयोजन के लिए (व) वर्ष 2005-06 में सकल देशी उत्पाद में वृद्धि, कृषिगत उत्पाद और औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में गति में वृद्धि के वर्तमान मूल्यांकन के आधार पर 7.5 - 8.0 प्रतिशत की सीमा में रखी गयी और (वव) पहले किये गये अनुमान के अनुसार मुद्रास्फीति 5.0 - 5.5 प्रतिशत की सीमा में रखी गयी। दिनांक 29 अप्रैल 2005 को वार्षिक नीति वक्तव्य में किये गये अनुमान से एम3 में वृद्धि 14.5 प्रतिशत से महत्चपूर्ण रूप से उच्चतर होने की आशा हैं और कुल जमाराशियों में पहले किये गये 2,60,000 करोड़ रूपये अनुमान से काफी उच्चतर वृद्धि होगी। गैर-खाद्य बैंक ऋण, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों के बांडों/डिबेंचरों/शेयरों और निजी कंपनी क्षेत्र, वाणिज्यिक पत्र और अन्य में निवेश भी शामिल हैं, पहले किये गये 19.0 प्रतिशत अनुमान से लक्षणीय रूप से उच्चतर होने की संभावना है। यह आवश्यक है कि वर्ष 2005-06 के लिए मौद्रिक और कुल ऋण में संभाव्य वृद्धि के पूर्वग्रह को वृद्धि की गति को बरक़रार रखने के लिए यथोचित चलनिधि सुनिश्चित करते हुए सावधानीपूर्वक नोट करना जरूरी है।

मूल्य और वित्तीय स्थिरता के प्रति प्रतिबद्धता के लिए वैश्विक गतिविधियों पर सतत और सावधानीपूर्वक निगरानी रखना जरुरी होगा, विशेषत: अंतर्राष्ट्रीय ब्याज दरों और वैश्विक असंतुलनों के निरन्तर चल रहे समायोजनों, अंतर्राष्ट्रीय तेल कीमतों का परिदृश्य, भारत में ऋण और परिसंपत्ति बाजार गतिविधि के तेजी के स्तर और चालू खाता घाटों की बढ़ने वाली प्रवृत्ति की गतिविधियों पर विशेष रूप से निगरानी रखनी होगी। हालांकि हाल के महीनों में वृद्धि की भावी संभावनाओं में सुधार हुआ है, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि ये लाभ न तो मुद्रास्फीतिकारी दबावों से या वित्तीय स्थिरता के प्रति किसी आशंका से गायब नहीं हो जाते। निर्यात के समर्थन के लिए गैर खाद्य ऋण में उत्साहजनक वृद्धि और अर्थव्यवस्था में निवेश मांग को प्रोत्साहन देते हुए रिज़र्व बैंक निरन्तर रूप से ऋण की गुणवत्ता पर बल देता रहा है। हालांकि अर्थव्यवस्था के लिए वृद्धि और मुद्रास्फीति दृष्टिकोण में बाहय घटकों पर देशी घटक हावी होना जारी रहा है, इस समय भारतीय अर्थव्यवस्था पर बाहय स्थितियों के बढ़ते हुए प्रभाव को पहचानने की आवश्यकता है। इस बात को पहचानते हुए कि समष्टि आर्थिक और वित्तीय घटकों की मौजूदा समनुरूपता भारत में स्थिरता के साथ वृद्धि के अनुकूल है, यह महत्वपूर्ण है कि मूल्य स्थिरता पर बेहतर बल देना जारी रखते हुए इन लाभों का विस्तार किया जाये। वर्ष 2006-07 में देशी और वैश्विक गतिविधियों, दोनों से मुद्रास्फीति के प्रति जोखिमें उच्च रहना जारी रहेगा। विशेष रूप से अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल की कीमतों का एलपीजी और केरोसिन में शेष पास-थ्रू वर्ष 2006-07 में मुद्रास्फीति के उर्ध्वमुखी पूर्वग्रह की पूर्वसूचना देता है।

कुल माँग में वृद्धि के संकेतक व्यापार और चालू खाता घाटों के विस्तार के रूप में बाहय क्षेत्र में प्रबंध करने योग्य फैलाव के साथ मजबूत होते जा रहे हैं। इन गतिविधियों को यथासमय और पहले से अधिकृत तरीके से प्रतिक्रिया दिखाना महत्वपूर्ण है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि सामान्य मुद्रास्फीति उत्तरोत्तर वृद्धि ऐसे वातावरण में विकसित नहीं होती जो चलनिधि में बड़े पैमाने पर बदलाव के साथ मुद्रा आपूर्ति और बैंक ऋण में प्रत्याशित विस्तार से उच्चतर है। इस स्तर पर परिमित नीति प्रतिक्रिया मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं को स्थिर रखेगी और वृद्धि पर संक्षारक प्रभावों का प्रतिबंध करेगी। यदि मौजूदा स्थिति इस तरीके से विकसित होती है जो समष्टि आर्थिक और मूल्य स्थिरता के प्रति आशंका पैदा करती है, तो वह भविष्य में बड़े पैमाने पर और अधिक प्रबल उपक्रम की अनिवार्यता का भी निवारण करेगी। रिज़र्व बैंक सकारात्मक निवेश वातावरण को जारी रखना सुनिश्चित करते हुए स्थिर मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं और सुचारू वित्तीय बाजारों को बरक़रार रखने के प्रयास करेगा। इस पृष्ठभूमि में मौद्रिक नीति की अवस्थिति मौद्रिक नीति के पीछे रह गये प्रभावों का विचार करते हुए समय समय पर दोनों देशी और वैश्विक रूप से उभरते मांग और आपूर्ति घटकों पर निर्भर होगी।

रिज़र्व बैंक यह सुनिश्चित करना जारी रखेगा कि प्रणाली में यथोचित चलनिधि बरक़रार रहती है ताकि मूल्य और वित्तीय स्थिरता के उद्देश्य के साथ सामंजस्य रखते हुए ऋण की सभी वास्तविक आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है। इस ओर, रिज़र्व बैंक खुला बाजार परिचालन, जिसमें बाजार स्थिरीकरण योजना, चलनिधि समायोजन सुविधा और आरक्षित नकदी-निधि अनुपात शामिल है, के माध्यम से चलनिधि की सक्रिय मांग प्रबंधन नीति जारी रखेगा और परिस्थिति की मांग के अनुसार लचीले रूप से सभी नीतिगत लिखतों का इस्तेमाल करेगा।

संक्षेप में, समष्टि आर्थिक गतिविधियों के प्रामाणिक मूल्यांकन पर आधारित, जिसमें प्रगामी तरीके से वृद्धि और मुद्रास्फीति का दृष्टिकोण शामिल है, और अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों में अप्रत्याशित गतिविधियां और किसी प्रतिकूल आकस्मिकता को छोड़कर इस मौजूदा स्तर पर मौद्रिक नीति की समग्र अवस्थिति इस तरह होगी :

  • मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं को स्थिर रखने की दृष्टि से मूल्य स्थिरता पर बल बरक़रार रखना।
  • समष्टि आर्थिक कीमत और वित्तीय स्थिरता के लिए सहायक ब्याज दर वातावरण सुनिश्चित करते हुए वृद्धि की गति को बरक़रार रखने के लिए अर्थव्यवस्था में निर्यात और निवेश मांग का समर्थन जारी रखना।
  • गुणवत्ता पर यथोचित बल देते हुए अर्थव्यवस्था की वास्तविक ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए उचित चलनिधि का प्रावधान करना।
  • विकसित होने वाली परिस्थितियों के लिए यथोचित प्रतिक्रियाओं पर विचार करना।

III. मौद्रिक उपाय

(क) बैंक दर

बैंक दर 6.0 प्रतिशत पर अपरिवर्तित रखा गया।

(ख) प्रत्यावर्तनीय रेपो दर

चालू समष्टि आर्थिक और समग्र मौद्रिक स्थितियों को देखते हुए यह निर्णय लिया गया :

  • रिज़र्व बैंक की चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत निर्धारित प्रत्यावर्तनीय रेपो दर तत्काल प्रभाव से 25 आधार अंकों से बढ़ाकर 5.25 प्रतिशत से 5.50 प्रतिशत कर दिया जाये।

रेपो दर प्रत्यावर्तनीय रेपो दर से संबद्ध रहना जारी रहेगा। प्रत्यावर्तनीय रेपो दर और रेपो दर के बीच का कीमत-लागत अंतर अब तक की तरह 100 आधार अंकों पर बरक़रार रखा गया है। तदनुसार, चलनिधि समायोजन सुविधा के अंतर्गत निर्धारित रेपो दर तत्काल प्रभाव से 6.50 प्रतिशत होगा।

(ग) आरक्षित नकदी निधि अनुपात

अनुसूचित बैंकों का आरक्षित नकदी निधि अनुपात इस समय 5.0 प्रतिशत है। यद्यपि, रिज़व बैंक आरक्षित नकदी निधि अनुपात 3.0 प्रतिशत की सांविधिक न्यूनतम सीमा तक कम रखने का अपना मध्यावधि उद्देश्य आगे बढ़ाना जारी रखता है, मौजूदा नकदी स्थिति की समीक्षा पर यह वांछनीय लगा कि आरक्षित नकदी निधि अनुपात का स्तर 5.0 प्रतिशत पर अपरिवर्तनीय रखा जाये।

वर्ष 2006-07 के लिए वार्षिक नीति वक्तव्य

वर्ष 2006-07 के लिए वार्षिक नीति वक्तव्य की घोषणा 18 अप्रैल 2006 को की जायेगी।

दीपा वाडदेकर

प्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2005-06/930

RbiTtsCommonUtility

प्ले हो रहा है
सुनें

संबंधित एसेट

आरबीआई-इंस्टॉल-आरबीआई-सामग्री-वैश्विक

RbiSocialMediaUtility

आरबीआई मोबाइल एप्लीकेशन इंस्टॉल करें और लेटेस्ट न्यूज़ का तुरंत एक्सेस पाएं!

Scan Your QR code to Install our app

RbiWasItHelpfulUtility

क्या यह पेज उपयोगी था?