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मौद्रिक नीति की तीसरी तिमाही समीक्षा - डॉ.डी.सुब्बाराव गवर्नर का प्रेस वक्तव्य

27 जनवरी 2009

मौद्रिक नीति की तीसरी तिमाही समीक्षा - डॉ.डी.सुब्बाराव
गवर्नर का प्रेस वक्तव्य

"रिज़र्व बैंक की तीसरी तिमाही समीक्षा गिरती हुई वैश्विक आर्थिक संभावना और वैश्विक वित्तीय क्षेत्र के बारे में बढ़ी हुई अनिश्चितता के संदर्भ में निर्धारित की गई है। वास्तव में, अक्तूबर 2008 में रिज़र्व बैंक की मध्यावधि समीक्षा के बाद से वैश्विक आर्थिक संभावना में एक तीव्र और उल्लेखनीय गिरावट हुई है। लगातार बड़े अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों से निरंतर आधार पर अप्रिय समाचारों से यह चिंता बनी है कि कब वैश्विक वित्तीय क्षेत्र स्थिरता का एक स्वरूप प्राप्त करेगा।

भारत तेजी से वैश्विक प्रणाली में एकीकृत हुआ है और शेष विश्व के साथ इसकी सहबद्धता केवल व्यापार माध्यमों से ही नहीं बल्कि पूंजी और वित्त की दुतरफी आवाजाही से भी है। वैश्वीकृत संसार के एक अंतरंग भाग के रूप में भारत यह आशा नहीं कर सकता कि वह इस प्रकृति और परिमाण के वैश्विक संकट से बचा रह सके और इस संकट के प्रति कार्रवाई न कर सके। भारत को आगे चलकर शेष विश्व की तरह इस अनिश्चितता को वहन करना होगा।

भारतीय अर्थव्यवस्था ने वर्ष 2008-09 की पहली छमाही में उच्चतर मुद्रास्फीति के साथ विकास में एक चक्रीय सुधार का अनुभव किया है। अब वैश्विक गिरावट के परिणाम के रूप में और मंदी के स्पष्ट प्रमाण है।

वैश्विक वित्तीय संकट के प्रभाव, आर्थिक मंदी और पण्य मूल्यों में गिरावट से भारतीय अर्थव्यवस्था कई प्रकार से प्रभावित हो रही है। पूंजी का विपरीत प्रवाह सितंबर और अक्तूबर 2008 में गहरा हो गया; हालांकि उनके स्थिर होने के बाद भी अन्तर्राष्ट्रीय ऋण चैनल बाधित रहे; पूंजी बाजार मूल्यांकन कम रहा; औद्योगिक उत्पादन वृद्धि धीमी रही; अक्तूबर-नवंबर 2008 के दौरान निर्यात संवध्ंदान नकारात्मक रहा तथा समग्र कारोबार संवेदना में गिरावट आई है। सकारात्मक रूख की ओर, मुद्रास्फीति कम हुई है; हालांकि उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति को अभी सामान्य किया जाना है; तथा घरेलू वित्तीय बाजार सुचारू रूप से कार्य कर रहे हैं। हालांकि बैंक ऋण में वृद्धि पिछले वर्ष के दौरान से अधिक रही है; मोटे तौर पर गणना से पता चलता है कि पिछले वर्ष की तुलना में चालू वित्त वर्ष के दौरान वाणिज्य क्षेत्र को समग्र वित्तीय संसाधनों का प्रवाह सीमान्त रूप से कम रहा है। यह पूंजी बाजार से संसाधन जुटाने और बाहरी वाणिज्य उधारों जैसे निधीयन के अन्य संसाधनों में कमी के कारण है।

सरकार और रिज़र्व बैंक, दोनों ने सितंबर 2008 के मध्य से संकट के विपरीत प्रभाव से अर्थव्यवस्था को बचाने के लिए कार्रवाई की है। जहाँ सरकार ने दो बड़े राजकोषीय पैकेजों की घोषणा की है, रिज़र्व बैंक ने पर्याप्त रूपया चलनिधि उपलब्ध कराने, सहजता से डॉलर चलनिधि सुनिश्चित करने तथा एक ऐसी मौद्रिक नीति माहौल बनाए रखने के प्रयास किए हैं ताकि उत्पादक क्षेत्रों को ऋण प्रवाह जारी रहे। इस प्रयास की ओर रिज़र्व बैंक ने परम्परागत तरीके, उदाहरणार्थ, नकदी प्रारक्षित निधि अनुपात (सीआरआर) में कटौती तथा गैर परम्परागत तरीके उदाहरणार्थ; बैंकों के लिए डॉलर अदला-बदली सुविधा, दोनों को अपनाया है।

रुपया चलनिधि के विस्तार के उद्देश्य हेतु उपायों में सीआरआर में कटौती, बैंकों के लिए चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के अन्तर्गत एक विशेष रिपो सुविधा प्रदान की गई ताकि बैंक म्युच्युल निधियों (एमएफ), गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों (एनबीएफसी) और आवास वित्त कम्पनियों (एचएफसी) को आगे उधार दे सकें तथा एक विशेष पुनर्वित्त सुविधा जिसका उपयोग बैंक बिना किसी संपार्श्विक के कर सकते हैं। चलनिधि प्रबन्धन के प्रयोजन से भारतीय रिज़र्व बैंक भी बाजार स्थिरीकरण योजना (एमएसएस) को समाप्त कर रहा है जो कि मोटे तौर पर सरकारी उधार कार्यक्रम के साथ सम्बद्ध हैं। इसके अलावा विशेष प्रयोजन सुविधा (एसपीवी) भी स्थापित किया जा रहा है ताकि गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनियों को नकदी समर्थन दिया जा सके।

विदेशी मुद्रा चलनिधि का प्रबन्ध करने के लक्ष्य को लेकर विदेशी मुद्रा अनिवासी (बैंक) (एफसीएनआर(बी)) और अनिवासी (विदेशी) रूपया खाते (एमआर(ई) आरए) की जमाराशियों पर बयाज दर की उच्चतम सीमा को बढ़ाया गया, विदेशी वाणिज्यिक उधार (ईसीबी) व्यवस्था में महत्वपूर्ण रूप से छूट प्रदान करना; एनबीएफसी/एचएफसी को विदेशों से उधार लेने की अनुमति देने और निगमित संस्थाओं को मंदी से ग्रसित वैश्विक बाजारों में विद्यमान डिस्काउन्ट का लाभ लेने के लिए विदेशी मुद्रा परिवर्तनीय बॉन्डों को वापस खरीदने जैसे उपायों को शामिल किया गया। रिज़र्व बैंक ने विदेशों में शाखाओं का संचालन करने वाले बैंकों के लिए रुपया-डॉलर स्वैप सुविधा शुरू की है ताकि वे अल्पावधि निधीयन अपेक्षाओं का सहजता से प्रबन्धन कर सकें।

दबाव का अनुभव कर रहे क्षेत्रों को ऋण का प्रवाह बढ़ाने के उपायों में निर्यातों के लिए प्री-शिपमेन्ट और पोस्ट-शिपमेन्ट अवधि का विस्तार, निर्यातों के लिए पुनर्वित्तीयन सुविधा का प्रसार, कुछ अपवादों सहित मानक आस्तियों के सभी प्रकारों के लिए प्रावधानीकरण मानदंडों में प्रति-चक्रीय समायोजन, प्रतिचक्रीय रूप से पहले बढ़ चुके कतिपय क्षेत्रों के लिए बैंकों के जोखिम पर जोखिम भार को कम करने, और भारतीय लघु उद्योग विकास बैंक (सिडबी), राष्ट्रीय आवास बैंक (एनएचबी) और भारतीय निर्यात-आयात बैंक (एक्जिम बैंक) के ऋण देने योग्य संसाधनों में विस्तार जैसे उपायों को शामिल किया गया।

संवृद्धि के आगे बढ़ने की गति को बरकरार रखने के लिए उत्पादक क्षेत्रों को वहनीय लागतों पर ऋण का प्रवाह बढ़ाने के लिए रिज़र्व बैंक ने अपनी महत्वपूर्ण नीतिगत दरों - रिपो रेट और रिवर्स रिपो दर- दोनो में महत्वपूर्ण कटौती करते हुए ब्याज दर संरचना को नीचे लाने के संकेत दिए। सांविधिक चलनिधि अनुपात (एसएलआर) भी ऋण नियोजन के लिए बैंकों को निधि जारी करने के लिए एक प्रतिशत अंक से घटा दिया गया है।

सरकार ने जमाराशि स्वीकार न करनेवाली सर्वांगीण महत्वपूर्ण गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसीज-एनडी-एसआइ) की अस्थायी चलनिधि बाधाओं को संबोधित करने के लिए एसपीवी की स्थापना करने की घोषणा की है। यह तंत्र इस प्रकार होगा : एसपीवी सरकार द्वारा गारंटीकृत प्रतिभूतियाँ रिज़र्व बैंक को जारी करेगा। एसपीवी इसके बदले केवल निवेश ग्रेड वाणिज्यिक पेपर और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के अपरिवर्तनीय डिबेंचर प्राप्त करने के लिए निधियों का उपयोग करेगा। एसपीवी अपने मूल्यांकन के दौरान यह सुनिश्चित करेगा कि गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनी निधि का उपयोग चलनिधि बाधाओं को संबोधित करने के लिए कर रहा है और न कि कारोबार बढ़ाने के लिए। रिज़र्व बैंक द्वारा समग्र सहायता 20,000/- करोड़ रुपये की सीमा तक रहेगी, इस में 5000/- करोड़ रुपये से और बढ़ने का विकल्प रहेगा। यह सुविधा एनबीएफसीज की वर्तमान चलनिधि चिंताओं को संबोधित करने के लिए सीमित अवधि तक उपलब्ध रहेगी।

सितंबर 2008 की मध्यावधि से किये गये कतिपय उपायों के परिणामस्वरूप चलनिधि में 3,88,000 करोड़ रुपये की वास्तविक/संभाव्य वृद्धि हुई, जिससे चलनिधि की स्थिति में उल्लेखनीय सुधार आया। इसके अतिरिक्त, निवल माँग और मीयादी देयताओं (एनडीटीएल) के 1.00 प्रतिशत सांविधिक चलनिधि अनुपात (एसएलआर) में कायम स्वरूप की घटौती से चलनिधि निधि ऋण प्रसार के लिए 40,000 करोड़ रुपये तक की मात्रा तक उपलब्ध हो गये।

चलनिधि की स्थिति में रिज़र्व बैंक द्वारा किये गये कतिपय उपाय अपनाने के कारण उल्लेखनीय रूप से सुधार आया है। ओवरनाइट माँग मुद्रा दर जो सामान्यतः सितंबर-अक्तूबर 2008 के दौरान रिपो दर पर मँडराती रही, के कारण नवंबर 2008 के प्रारंभ में महत्वपूर्ण रूप से नरम हुई और चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के निचले स्तरों पर आ गई। ओवरनाइट माँग मुद्रा दरों के अनुरूप चलते हुए मुद्रा बाज़ार के अन्य दरों में नरमी आई। दस वर्षीय सरकारी प्रतिभूतियों से होनेवाली दिसंबर 2008 के मध्य से 6 प्रतिशत से कम पर बनी रही। नवंबर 2008 के मध्य से ही एलएएफ विंडो सामान्यतः अवशोषक प्रवृत्ति में है। म्युचुअल फंडों के सामने चलनिधि की समस्या अब काफी सहज हो गई प्रतीत होती है।

रिज़र्व बैंक ने मौद्रिक नीति सहायता पर, विशेष रूप से विस्तार और गति दोनो दृष्टि से ब्याज में कटौती के जरिए आक्रामक और सबसे पहले कार्रवाई की। एक ही तिमाही में, रिपो दर को 9.0 प्रतिशत से घटाकर 5.5 प्रतिशत और रिवर्स रिपो दर को 6.0 प्रतिशत से घटाकर 4.0 प्रतिशत कर दिया गया और इस प्रकार दोनों दरों को ऐतिहासक रूप से सबसे कम स्तर पर लाया गया।

मौद्रिक और सरकारी प्रतिभूति बाज़ार में नीतिगत व्याज दर संकेत का अंतरण प्रभावी रहा, यद्यपि, ऋण बाज़ार में यह अंतरण अब तक कम रहा है। वास्तविक अर्थव्यवस्था की संभवनाओं से देखें तो किसी मौद्रिक नीति के लिए मांग को प्रोत्साहित करने के प्रभाव के लिए उधार दरों का नीचे आना जरुरी होता है। अधिकांश बैंकों ने कुछ हद तक उधार और जमा दरों को कम किया है, लेकिन कुछ बैंकों को अभी तक ऐसा करना है। रिज़र्व बैक के विचार में, इसके द्वारा पिछले कुछ महीनों में नीति में दी गई छूट से बैंकों को नीतिगत संकेतों पर अधिक सक्रिय रूप से कार्रवाई करनी चाहिए।

रिज़र्व बैंक ने बाज़ार के सहभागियों को यह आश्वासन दिया है कि वह एक दिवसीय मुद्रा बाज़ार को एलएएफ क़ॉरीडोर के अंदर ही रखेगा। रिज़र्व बैंक बाज़ार में प्रचुर मात्रा में चलनिधि जारी करना और एक दिवसीय मुद्रा बाज़ार को एलएएफ कॉरीडोर के अंदर बनाए रखना सुनिश्चित करने के लिए इस रुझान को जारी रखेगा। ऐसा करने के लिए, जैसा कि पहले किया था, रिज़र्व बैंक परंपरागत और गैरपरंपरागत उपायों का अवलंबन लेगा।

बैंकिंग क्षेत्र की ओर से ऋण की मांग में वृद्धि हुई क्यों कि वाणिज्य क्षेत्र के लिए निधि के अन्य ॉााटत घट गए। उपलब्ध जानकारी (23 जनवरी 2009 के अनुसार) से पता चलता है कि वाणिज्य क्षेत्र के लिए सभी क्षेत्रों से संसाधनों की कुल उपलब्धता जो राजस्व वर्ष 2008-09 में अब तक 4,85,000 करोड़ रुपये आंकी गई है, वह पिछले वर्ष की प्रतिपक्षी अवधि में लगभग 4,99,000 करोड़ रुपए से कम रही है। जबकि कुछ हद तक निधि के अन्य ॉााटतों में आई कमी को बैंक ऋण द्वारा प्रतिस्थापित किया गया है, तथापि पूर्ण प्रतिस्थापन अब भी किया जाना बाकी है।

भारतीय रिज़र्व बैंक की अक्तूबर 2008 की मध्यावधि समीक्षा में यह आकलन किया गया है कि वर्ष 2008-09 के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि 7.5 - 8.0 प्रतिशत की सीमा में रही। तबसे वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद संभावना पर और आगे भी प्रभाव पड़ा है एवं वृद्धि पर गिरावट के जोखिमों की संभावना बढ़ी है क्योंकि औद्योगिक गतिविधियां धीमी हुई हैं एवं निर्यात घाटे में परिलक्षित बाह्य मांग कमजोर हुई है। सेवा क्षेत्र की गतिविधियां वर्ष 2008-09 की दूसरी छमाही में और अधिक कम होने की संभावना है। उद्योग एवं सेवाओं में आने वाली मंदी एवं साधारण कृषिगत उत्पादन की संभाव्यता को ध्यान में रखते हुए वर्ष 2008-09 के लिए समस्त वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद विकास का लक्ष्य अधोगामी प्रवृत्ति के कारण 7.0 प्रतिशत पर संशोधित अनुमान किया गया है।

दुनिया भर में पण्य मूल्यों पर पड़ने वाले दबाव कम हुए हैं जिनसे वैश्विक मांग में आई गिरावट परिलक्षित होती है। घरेलू बाजार में, थोक मूल्य सूचकांक के अनुसार मुद्रास्फीति पहले से ही 7.0 प्रतिशत से कम है जिसका अनुमान मार्च 2009 के अन्त के लिए किया गया था, वर्तमान आकलन के अनुसार इसके वर्ष 2008-09 की अंतिम तिमाही में नरम पड़ने की संभावना है। पण्य मूल्यों की वैश्विक प्रवृत्ति एवं घरेलू मांग-आपूर्ति संतुलन को ध्यान में रखते हुए, अब डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति के मार्च 2009 के अन्त तक गिरकर 3.0 प्रतिशत से कम हो जाने का अनुमान है।

हेडलाइन डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति में अनुमानित गिरावट के बावजूद, इस बात पर गौर किया जाना चाहिए कि उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति अभी भी नर्म होगी एवं मुद्रास्फीति की अपेक्षाओं में आई गिरावट डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति में आई तीव्र गिरावट के अनुरूप नहीं रही है। तथापि, डब्ल्यूपीआई मुद्रास्फीति के महत्वपूर्ण रूप से नरम पड़ जाने के कारण, उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति भी गिरेगी, हालांकि यह काफी मंथर गति से होगी। सुव्यवस्थित मुद्रास्फीति अपेक्षाओं के साथ मूल्य स्थिरता को सुनिश्चित करने वाली इसकी नीतिगत पहल के लिए, भारतीय रिज़र्व बैंक सभी मूल्य सूचकांकों एवं उनके घटकों पर ध्यान देगा।

बाह्य एवं गैर-बैंक घरेलू स्रोतों दोनों ही की ओर से संसाधन उपलब्धता की अनिश्चित संभावना को देखते हुए, भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकिंग क्षेत्र की ओर से वाणिज्यिक क्षेत्र की ओर जानेवाले कुल क्रेडिट प्रवाह के अपने सांकेतिक अनुमान को वार्षिक नीति वक्तव्य में 20 प्रतिशत से बढ़ाकर 24 प्रतिशत किया है। बैंकों द्वारा ऋण प्रवाह के वर्तमान स्तर को बनाए रखने के लिए एक सरकारी बाजार उधार कार्यक्रम यथा रिज़र्व बैंक मौद्रिक परिचालन चलाया जाएगा ताकि वर्ष 2008-09 में निर्धारित संशोधित सांकेतिक धन आपूर्ति अनुमान 19.0 प्रतिशत पर बना रहे जो कि वार्षिक नीति वक्तव्य में उससे उच्चतर 16.5 - 17.0 प्रतिशत पर अनुमानित किया गया था।

आर्थिक वृद्धि की नरमी को रोकने के लिए यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि बैंक अपने ऋण प्रवाह को अर्थव्यवस्था के उत्पाद क्षेत्रों की तरफ व्यवहार्य रूप से बढ़ाएं। साथ ही साथ, बैंक अपने ऋण निवेश सूची पर निगरानी रखते हुए अपनी कमियों को दरकिनार करें तथा आस्ति गुणवत्ता में सुधार हेतु पिछले कई वर्षों के प्रभाव को भी अर्जित करें। रिज़र्व बैंक मानता है कि सामान्य परिस्थितियों में जोखिम प्रबंधन एक दुष्कर कार्य होता है। अनिश्चितता एवं मंदी के दौर में यह और अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। ऋण प्रवाह को उत्पाद क्षेत्रों तक पहुंचाने के सम्मिलित प्रयास को बनाये रखने के लिए रिज़र्व बैंक यथोचित समय पर यथावश्यक मौद्रिक नीति अनाएगा।

यद्यपि, समूचे विश्व में संकट के कारण एक जैसे ही होते हैं परंतु संकट का प्रभाव अलग-अलग अर्थव्यवस्थाओं पर अलग-अलग पड़ा है। प्रमुख रूप से उन्नत अर्थव्यवस्था, जहां पर इसका उदय होता है, संकट वित्तीय क्षेत्र से उठकर वास्तविक क्षेत्र की ओर फैलता है। उभरती अर्थव्यवस्था वाले देशों में घरेलू संवेदनशीलता की ओर बाह्य आघातों का फैलाव वास्तविक क्षेत्रों की ओर से वित्तीय क्षेत्रों की ओर होता है। विभिन्न देशों ने संकट का सामना अपनी विशिष्ट परिस्थितियों के आधार पर किया। विशेष रूप से जबकि उन्नत अर्थव्यवस्था वाले देशों ने वित्तीय संकट एवं मंदी दोनों को झेला है वहीं भारत में नीति का उत्तरदायित्व आर्थिक वृद्धि में में नरमी को रोकने की कोशिशों तक सीमित रही है। हमारे वित्तीय बाजार की लगातार सुचारू कार्यपद्धति एवं सुदृढ़ पूंजीयुक्त स्वस्थ बैंकिंग प्रणाली के द्वारा कार्रवाई करने की हमारी क्षमता में वृद्धि हुई है। इस प्रकार, नीति कार्रवाई सभी देशों में व्यापक रूप से एकसमान होने पर भी उनके संक्षिप्त अभिकल्प, परिमाण, क्रम निर्धारण और सामयिकता भिन्न-भिन्न हैं। भारत के साथ भी यही स्थिति है। जबकि हमने निश्चित रूप से विश्व भर में अन्य केंद्रीय बैंकों द्वारा शुरू किये गये उपायों का अध्ययन और मूल्यांकन किया है, हमने भारत के विशिष्ट आर्थिक संदर्भ को ध्यान में रखते हुए अपनी कार्रवाई को समायोजित किया है और उसे स्वरूप प्रदान किया है।

समग्र संभावनाओं पर विचार करते हुए यह स्मरण करना होगा कि वैश्विक वित्तीय संकट के मूल में गैर कार्यात्मक और निक्रिय वित्तीय बाजार है। उनके अंतर्राष्ट्रीय सहभागियों के समरूप भारत में वित्तीय प्रणाली अनुकूल तथा स्थायी रही है। सितंबर के मध्य से अक्तूबर की शुरूआत के दौरान चलनिधि में कुछ कड़ाई को छोड़कर मुद्रा, विदेशी मुद्रा और सरकारी प्रतिभूति बाजार व्यवस्थित रहे हैं जैसा कि सामान्य समय के दौरान बाजार दरों, ब्याज सीमा और लेनदेन की मात्रा के संदर्भ में उनमें दर्शाया गया है। भारतीय बैंकिंग प्रणाली मजबूत, सुपूंजीकृत, अनुकूल और लाभप्रद रही है। ऋण बाजार ठीक ढंग से कार्य कर रहे हैं और बैंक ऋण में विस्तार हुआ है। तथापि, बैंक ऋण विस्तार ने वाणिज्यिक क्षेत्र के संसाधनों के कुल प्रवाह में कमी को पूरा नहीं किया है।

पिछले 5 वर्ष के दौरान भारत 8.8 प्रतिशत की औसत वार्षिक वृद्धि के इर्द-गिर्द बना रहा है जो व्यापक रूप से निवल निर्यात के हिस्से की बढ़ोतरी के बावजूद घरेलू उपभोग और निवेश के कारण हुआ है। वास्तविक वैश्विक वातावरण के होते हुए भी सहज चलनिधि और न्यूनतम ब्याज दरों ने सहायता की है, भारत की वृद्धि के मूल में इसका बढ़ता हुआ उद्यम उत्साह और उत्पादकता में वृद्धि रही है। यह मौलिक ताकतें आज भी कार्य कर रही हैं तो भी वैश्विक संकट भारत की वृद्धि के पथ को निवेश और निर्यात में मंदी की ओर ले जाएगा। स्पष्ट रूप से आगे हम लोगों के लिए कष्टकर समायोजन की अवधि है। तथापि, एक बार यदि वैश्विक अर्थव्यवस्था में सुधार शुरू हो जाता है तो भारत का सुधार हमारे मजबूत मौलिक उपायों और जारी वृद्धि संभावनाओं की सहायता से त्वरित और शीघ्रगामी हो जाएगा। इसी बीच, सरकार और रिज़र्व बैंक के लिए यह चुनौती है कि यथासंभव न्यूनतम कष्ट के साथ समायोजन का प्रबंध किया जाए।

वैश्विक परिदृश्य और घरेलू अर्थव्यवस्था के आकलन खासकर वृद्धि और मुद्रास्फीति की संभावना पर आधारित वर्ष 2008-09 की शेष अवधि के लिए मौद्रिक नीति का रुझान निम्नप्रकार होगा :

  • आर्थिक वृद्धि के समग्र अनुमान के अनुरूप अपेक्षित ऋण वृद्धि i ाट पूरा करने के लिए सहज चलनिधि के प्रावधान।
  • वृद्धि और वित्तीय स्थिरता पर प्रभाव डालनेवाली उभरती हुई वैश्विक और घरेलू स्थिति के लिए आवश्यक सभी संभावित उपायों पर तीव्र और प्रभावी कार्रवाई करना।
  • वित्तीय बाजारों में मूल्य स्थिरता, सुव्यवस्थित मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं और व्यवस्थित स्थितियों के अनुरूप एक मौद्रिक और ब्याज दर वातावरण सुनिश्चित करना।

वैश्विक संकट पर अनिश्चित संभावनाओं को देखते हुए यह कठिन है कि प्रत्येक गतिविधि का स्पष्ट रूप से अनुमान किया जाए। रिज़र्व बैंक सतर्कता, घरेलू और वैश्विक गतिविधियों की निगरानी जारी रखेगा और संकट के प्रभाव को कम करने के लिए तीव्र और प्रभावी कार्रवाई करेगा तथा अर्थव्यवस्था को मूल्य स्थिरता के साथ इसके संभावित वृद्धि-पथ की ओर ले जाएगा। पिछले कई महीनों के दौरान रिज़र्व बैंक के नीति कार्यों पर कार्रवाई अभी की जानी है। जैसा कि हाल की विगत अवधि में दिखाई दिया है, रिज़र्व बैंक द्वारा विकसित होते हुए और जब कभी उभरती हुई बाह्य और घरेलू स्थितियों में आवश्यक होगा, तेजी से तथा निर्णायक रूप से कार्रवाई की जाएगी।

उपर्युक्त आकलन और मौद्रिक नीति रुझान के अनुरूप यह निर्णय लिया गया है कि नीति दरों तथा आरक्षित नकदी निधि अनुपात (सीआरआर) को वर्तमान स्तर पर बनाए रखा जाए। दो चलनिधि सुविधाएं अर्थात् 1 नवंबर 2008 को लागू भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम, 1934 की धारा 17 (3 बी) के अंतर्गत विशेष पुनर्वित्त सुविधा और पारस्परिक निधियों, गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों और आवास वित्त कंपनियों की निधीयन आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए बैंकों की सहायता हेतु विशेष मीयादी रेपो सुविधा जो वर्तमान में 30 जून 2009 तक उपलब्ध है, को 30 सितंबर 2009 तक बढ़ा दिया गया है।"

जी.रघुराज
उप महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2008-2009/1164

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