विदेशी मुद्रा भंडार के प्रबंधन पर अर्धवार्षिक रिपोर्ट - आरबीआई - Reserve Bank of India
विदेशी मुद्रा भंडार के प्रबंधन पर अर्धवार्षिक रिपोर्ट
भाग I : विदेशी मुद्रा भंडार के उद्देश्य, सांविधिक उपबंध और उसमें घट-बढ़ वर्ष 2003 में भारतीय रिज़र्व बैंक ने पारदर्शिता और प्रकटन के साथ विदेशी मुद्रा भंडार के प्रबंधन संबंधी प्रमुख नीति और परिचालनगत मामलों की समीक्षा की तथा और अधिक पारदर्शिता लाने एवं प्रकटन के स्तर में वृद्धि लाने के उद्देश्य से यह निर्णय लिया गया कि विदेशी मुद्रा भंडार के प्रबंधन के संबंध में अर्धवार्षिक रिपोर्ट तैयार की जाए एवं उसे सार्वजनिक किया जाए । इस प्रकार की पहली रिपोर्ट 30 सितंबर 2003 की स्थिति के अनुसार तैयार की गई और 3 फरवरी 2004 को इसे पब्लिक डोमेन पर प्रदर्शित किया गया । यह रिपोर्ट अब 3 माह के अंतराल पर प्रत्येक वर्ष 31 मार्च और 30 सितंबर की स्थिति के संदर्भ में तैयार की जाती है ।30 सितंबर 2009 की स्थिति पर आधारित विदेशी मुद्रा भंडार की यह 13 वीं रिपोर्ट है । रिपोर्ट तीन भागों में विभाजित है : भाग I में विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन के उद्देश्य , सांविधिक उपबंध,विदेशी मुद्रा भंडार में घट-बढ़ और विदेशी मुद्रा भंडार के परिप्रेक्ष्य में बाहरी देयताएं , बाह्य ऋण का समयपूर्व भुगतान / चुकौती , अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की वित्तीय लेनदेन योजना (एफटीपी) , विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्तता, आदि के संबंध में जानकारी दी गई है। रिपोर्ट के भाग II में विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा अपनाई गई जोखिम प्रबंधन प्रणालियों का एक विहगावलोकन प्रस्तुत किया गया है। रिपोर्ट के भाग III में विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा अपनाई गई पारदर्शिता और प्रकटीकरण प्रथाओं के संबंध में जानकारी प्रस्तुत की गई है। I.2 विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन के उद्देश्य भारतमें विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन के मार्गदर्शी उद्देश्य विश्व के अन्य कई केंद्रीय बैंकों के समान ही हैं । विदेशी मुद्रा भंडार की आवश्यकता में कई घटकों के कारण व्यापक रूप से परिवर्तन आता है जिनमें देश द्वारा अपनाई गई विनियम दर प्रणाली , अर्थव्यवस्था के खुलेपन की सीमाएं , देश के सकल घरेलू उत्पाद में विदेशी क्षेत्र का विस्तार और देश में कार्यरत बाज़ारों का स्वरूप आदि शामिल है। इस विविधतायुक्त ढ़ांचे के अंतर्गत कई देशों ने विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन में क्रयशक्ति के रूप में विदेशी मुद्रा के दीर्घकालीन मूल्य के बने रहने को और प्रतिलाभ में जोखिम और अस्थिरता को न्यूनतम रखने की आवश्यकता को मुख्य उद्देश्य के रूप में निर्धारित किया गया है। भारत की भी यही भूमिका रही है । भारत में जहां विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन का दोहरा उद्देश्य सुरक्षा और तरलता को बनाए रखना है , वहीं इसी ढ़ांचे में अधिकतम प्रतिलाभ की नीति भी संरक्षित है । भारतीय रिज़र्व बैंक अधिनियम 1934 में मुद्रा,लिखत,जारीकर्ता और प्रतिपार्टियों के संबंध में व्यापक मानदंड निर्धारित करते हुए विदेशी मुद्रा आस्तियों (एफसीए) और स्वर्ण के नियोजन के लिए आवश्यक व्यापक विधिक ढ़ांचे का प्रावधान किया गया है । इस अधिनियम की उपधारा 17(6ए) 17(12),17(12ए),17(13) और 33(6) में विदेशी आस्तियों के प्रबंधन के लिए आवश्यक विधिक ढ़ांचे का प्रावधान किया गया है । संक्षेप में विधि द्वारा स्थूल रूपसे निम्नलिखित संवर्गों में निवेश के लिए अनुमति प्रदान की गई है:
भारतीय रिज़र्व बैंक ने विदेशी मुद्रा भंडार की सुरक्षा और तरलता बढ़ाने के उद्देश्य से जारीकर्ता / प्रतिपार्टियों / निवेश आदि के संबंध में कड़े मानदंड निर्धारित करते हुए उचित मार्गदर्शी सिद्धांत तैयार किए हैं । I.4 विदेशी मुद्रा भंडार में घट-बढ़ I.4.1 1991से विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि की समीक्षा भारत के विदेशी मुद्रा भंडार में 1991 से काफी वृद्धि हुई है। विदेशी मुद्रा भंडार जो कि मार्च 1991 के अंत में 5.8 बिलियन अमरीकी डॉलर था, क्रमिक रुप से बढ़कर मार्च 1995 के अंत में 25.2 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गया। 1990 के दशक के उत्तरार्ध में भी इसमें लगातार वृद्धि होती रही और मार्च 2000 के अंत में यह 38.0 बिलियन अमरीकी डॉलर के स्तर को छू गया। बाद में यह मार्च 2004 के अंत में 113.0 बिलियन अमरीकी डॉलर और मार्च 2008 के अंत में बढ़कर 309.7 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गया । उसके बाद मार्च 2009 के अंत में विदेशी मुद्रा भंडार कम हो कर 252.0 बिलियन अमरीकी डॉलर रह गया। सितंबर 2009 के अंत में विदेशी मुद्रा भंडारबढ़कर 281.3बिलियन अमरीकी डॉलर हो गया । (सारणी 1 और चार्ट 1)। यद्यपि अमरीकी डॉलर और यूरो मध्यवर्ती मुद्राएं हैं और विदेशी मुद्रा आस्तियां अमरीकी डॉलर, यूरो, पौंड स्टर्लिडग, जापानी येन आदि प्रमुख मुद्राओं में धारित की जाती हैं, तथापि विदेशी मुद्रा भंडार का मूल्य केवल अमरीक ा डॉलर में ही निर्धारित एवं अभिव्यक्त किया जाता है । वर्ष 2002-03 से पहले के विदेशी मुद्रा भंडार के आकड़ों में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा का टष (आईएमएफ) में रिजर्व ट्रांच पोज़ीशन (आरटीपी) सम्मिलित नहीं है। भारत में विदेशी मुद्रा आस्तियों में घट-बढ़ का मुख्य कारण विदेशी मुद्रा बाज़ार में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा विदेशी मुद्राओं की खरीद और बिक्री है ।इसके अतिरिक्त विदेशी मुद्रा भंडार के नियोजन के कारण उपचित आय भी विदेशी मुद्रा भंडार संविभाग में ही धारित की जाती है ।केंद्रीय सरकार द्वारा सहायता के रूप में प्राप्त राशियां भी विदेशी मुद्रा भंडार संविभाग में ही धारित की जाती हैं। अन्य मुद्राओं में धारित विदेशी मुद्रा आस्तियों के साथ लेनदेन के कारण भी अमरीकी डॉलर में धारित विदेशी मुद्रा भंडार का स्तर प्रभावित होता है।
I.4.2 विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि के स्रोत सारणी 2 में मार्च 1991 से सितंबर 2009 के अंत तक तक का अवधि के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार में हुई वृद्धि के प्रमुख स्रोतों के विवरण दिए गए हैं।
सारणी 3 में 2009 (अप्रैल-सितंबर) के दौरान विदेशी मुद्रा भंडार में हुए परिवर्तन के स्रोतों के विवरणों की तुलना में उसके पहले के वर्ष में उसी अवधि में हुए परिवर्तनों के विवरण दिए गए हैं।भुगतान संतुलन के आधार पर (अर्थात मूल्यांकन प्रभाव के अलावा) विदेशी मुद्रा भंडार में अप्रैल-सितंबर 2008 के दौरान 2,499 मिलियन अमरीकी डॉलर की गिरावट की तुलना में अप्रैल-सितंबर 2009 के दौरान 9,533 मिलियन अमरीकी डॉलर की वृद्धि हुई । अप्रैल-सितंबर 2008 के दौरान 20,888 मिलियन अमरीकी डॉलर के मूल्यांकन नुकसान की तुलना में अप्रैल-सितंबर 2009 के दौरान 19, 760 मिलियन अमरीकी डॉलर की मूल्यांकन वृद्धि हुई ,जिसमें प्रमुख मुद्राओं की तुलना में अमरीकी डॉलर का अवमूल्यन प्रतिबिंबित हुआ । तदनुसार अप्रैल-सितंबर 2009 के दौरान कुल विदेशी मुद्रा भंडार में हुई वृद्धि के 67.5 प्रतिशत मूल्यांकन वृद्धि हुई । अप्रैल-सितंबर 2009 के दौरान मूल्यांकन वृद्धि के साथ-साथ विदेशी निवेश और अनिवासी भारतीयों से प्राप्त जमाराशियों और एाईएमएफ द्वारा आबंटित एसडीआर के कारण कुल विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि हुई । समीक्षाधीन अर्ध वर्ष के दौरान अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा 28 अगस्त 2009 को सामान्य आबंटन के अंतर्गत 3082.5 मिलियन एसडीआर (4883 मिलियन अमरीकी डॉलर के सममूल्य) आबंटित किए गए और 9 सितंबर 2009 को विशेष आबंटन के अंतर्गत 214.6 मिलियन एसडीआर (340 मिलियन अमरीकी डॉलर के सममूल्य) आबंटित किए गए। वैश्विक आर्थिक प्रणाली को तरलता प्रदान करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा किए गए प्रयासों के भाग के रूप में कोष द्वारा अपने सदस्य राष्ट्रों को विदेशी मुद्रा भंडार उपलब्ध कराया गया।
1991 के बाद आर्थिक सुधारों की संपूर्ण अवधि में विदेशी मुद्रा भंडार में वृद्धि के स्रोतों के विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि निवल विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफ डीआई) में 1991-92 के 129 मिलियन अमरीका डॉलर का तुलना में 2009-10 (अप्रैल-सितंबर) में 14.1 बिलियन अमरीक ा डॉलर तक हुई वृद्धि के कारण विदेशी मुद्रा भण्डार में वृद्धि संभव हुई । भारतीय पूंजी बाजार में जनवरी 1993 से शुरु हुए एफ आईआई निवेश में भी बाद के वर्षों में क ाफी वृद्धि देखी गई।संचयी निवल एफ आईआई निवेश में मार्च 1993 के अंत में 1मिलियन अमरीक ा डॉलर से सितंबर 2009 के अंत तक 66.9 बिलियन अमरीका डॉलर तक वृद्धि हुई । एफआईआई की आगमित निवल राशियों के कारण संचयी संविभाग स्टाक मार्च 2009 के अंत में 77.3 बिलियन अमरीकी डालर से सितंबर 2009 के अंत में 95.3 बिलियन अमरीकी डॉलर तक बढ़ गया । बकाया अनिवासी भारतीय जमाराशियां मार्च 1991 के अंत में 14.0 बिलियन अमरीक ा डॉलर से बढकर मार्च 2009 के अंत में 41.6 बिलियन अमरीका डॉलर हो गईं । सितंबर 2009 के अंत में बकाया अनिवासी भारतीय जमाराशियां 46.0 बिलियन अमरीकी डॉलर रहीं। चालू खाते का विचार करें तो , भारत के निर्यात जो कि 1991-92 के दौरान 18.3 बिलियन अमरीका डॉलर थे, बढकर 2008-09 में 189.0 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गए । 2009-2010(अप्रैल-सितंबर) के दौरान भारत के निर्यात 2008-2009(अप्रैल-सितंबर) के 111.1 बिलियन अमरीकी डॉलर के निर्यात की तुलना में 81.01 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गए । भारतीय आयात जो कि 1991-92 में 24.1 बिलियन अमरीकी डॉलर थे 2008-09 में 307.7 बिलियन अमरीकी डॉलर तक बढ़े। 2009-2010 (अप्रैल-सितंबर) के दौरान भारत के आयात जोकि 2008-2009 (अप्रैल-सितंबर) के दौरान 175.5 बिलियन अमरीकी डॉलर थे , की तुलना में, 139.4 बिलियन अमरीकी डॉलर रहे। अदृश्य (invisibles) ; विशेषत: निजी विप्रेषणों क ा भी चालू लेखा में काफी योगदान रहा। निवल अदृश्य अंतर्वाहों, जिसमें मुख्यत: निजी अंतरण विप्रेषण और सेवाएं शामिल रहती हैं, में भी 1991-92 में 1.6 बिलियन अमरीकी डॉलर से 2008-09 में 89.9 बिलियन अमरीकी डॉलर तक की वृद्धि हुई। भारत का चालू खाता शेष,जो कि 1990-91में जीडीपी के 3.0 प्रतिशत घाटे में था, 2001-02 में 0.7 प्रतिशत और आगे 2002-03 में 1.2 प्रतिशत अधिशेष में बदल गया। वित्तीय वर्ष 2003-04 के दौरान चालू खाते में मुख्यत: अदृश्य खातों में अधिशेष के कारण 14.1 बिलियन अमरीकी डॉलर का अधिशेष दर्ज किया गया ।2008 -2009 के दौरान उच्च आयात भुगतानों के कारण चालू खाता घाटा 28.7 बिलियन अमरीकी डॉलर अथवा जीडीपी का 2.5 प्रतिशत तक बढ़ गया।चालू खाता घाटा जोकि 2008-2009(अप्रैल-सितंबर) के दौरान 15.8 बिलियन अमरीकी डॉलर था, की तुलना में, 2009-10 (अप्रैल-सितंबर) के दौरान 18.6 बिलियन अमरीकी डॉलर हो गया। I.5. बाह्य देयताएं बनाम विदेशी मुद्रा भंडार विदेशी मुद्रा भंडार में हुई वृद्धि को देश की कुल बाह्य देयताओं के परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए । सितंबर 2009 के अंत में उपलब्ध भारत की अंतर्राष्ट्रीय निवेश स्थिति (आईआईपी) जो कि देश की बाह्य वित्तीय आस्तियों और देयताओं के स्टॉक का संक्षिप्त रेकॉर्ड है, सारणी 4 के अनुसार है।
I.6 विदेशी मुद्रा भंडार का पर्याप्तता विदेशी मुद्रा भण्डार की पर्याप्तता विदेशी उतार-चढावों को सहने की किसी देश की क्षमता को नापने संबंधी महत्वपूर्ण मापदण्ड के रुप में उभर रही है। पूंजी प्रवाहों के बदलते स्वरूप के साथ आयात के लिए सुरक्षित पूंजी के अनुसार विदेशी मुद्रा भंडार पर्याप्तता का मूल्यांकन करने का पारंपरिक दृष्टिकोण विस्तृत हो गया है और अब इसमें विभिन्न प्रकार के पूंजी प्रवाहों के आकार,संरचना और जोखिम के स्वरूप के साथ-साथ बाहरी उतार -चढावों के प्रकार जो अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं;से संबंधित अन्य कई मानदण्ड भी शामिल किए गए हैं। भुगतान संतुलन पर बनी उच्चस्तरीय समिति,जिसके अध्यक्ष डॉ.सी.रंगराजन, तत्कालीन गवर्नर , भारिबैंक थे , द्वारा यह सुझाव दिया गया कि विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्तता निर्धारित करते समय 3 से 4 माह के आयात के लिए सुरक्षित रखी गई विदेशी मुद्रा (इंपोर्ट कवर ) के पारंपरिक मापदंड के अतिरिक्त भुगतान संबंधी दायित्वों की ओर भी पर्याप्त ध्यान दिया जाना चाहिए । 1997 में श्री एस.एस.तारापोर (भारिबैंक के तत्कालीन उप गवर्नर ) की अध्यक्षता में पूंजी लेखा परिवर्तनीयता पर बनी समिति द्वारा विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्तता के लिए वैकल्पिक मानदंडों का सुझाव दिया गया जिसमें लेनदेन आधारित निर्देशांकों के अतिरिक्त मुद्रा और ऋण आधारित निर्देशांक भी शामिल किए गए । पूर्णतर पूंजी लेखा परिवर्तनीयता पर बनी समिति (अध्यक्ष श्री एस.एस.तारापोर , जुलाई 2006) का भी यही मत रहा है । हाल के वर्षों में नए उपायों के लागू किए जाने से विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्तता का मूल्यांकन प्रभावित हुआ है। ऐसे ही एक उपाय के अनुसार प्रयोज्य विदेशी मुद्रा भंडार अगले वर्ष के दौरान विदेशी मुद्रा ऋणों के अनुसूचित परिशोधन (रोल-ओवर के बगैर ) से अधिक होना चाहिए । एक अन्य उपाय ’जोखिम में चलनिधि ’ नियम पर आधारित है जिसमें किसी देश के संदर्भ में संभावित जोखिमों का ध्यान रखा जाता है। इस दृष्टिकोण के अनुसार यह अपेक्षित है कि वित्तीय स्थिति को प्रभावित करनेवाली मदों ; जैसे कि विनिमय दर,उपभोक्ता वस्तु कीमतें,ऋण सीमा (क्रेडिट स्प्रेड) आदि जैसे पूंजी लेखा प्रवाहों के संभाव्य परिणामों की विस्तार-सीमा के अंतर्गत उस देश की विदेशी मुद्रा तरलता की स्थिति का परिकलन किया जाए। भारिबैंक विदेशी मुद्रा भंडार के "जोखिम में चलनिधि" (एलएआर) का अंदाज़ लगाने के लिए अंत:प्रेरणा और जोखिम प्रतिमानों के आधार पर कार्य कर रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार की पर्याप्तता का पारंपरिक लेनदेन आधारित निर्देशांक , अर्थात आयात के लिए सुरक्षित रखी गई विदेशी मुद्रा ,जो दिसंबर 1990 के अंत में 3 सप्ताहों के आयात तक कम हो गया था, उसमें मार्च 2002 के अंत में 11.5 माह की आयात तक और आगे 14.2 माह की आयात अथवा मार्च 2003 के अंत में करीब 5 वर्ष की ऋण चुकौती (डेट सर्विसिंग) तक वृद्धि हो गई। मार्च 2004 के अंत में आयात के लिए सुरक्षित रखी गई विदेशी मुद्रा (इंपोर्ट कवर ) 16.9 माह थी जो मार्च 2009 के अंत में 9.8 माह तक कम हो गई।फिर भी सितंबर 2009 के अंत में आयात के लिए सुरक्षित रखी गई विदेशी मुद्रा (इंपोर्ट कवर ) में 12.4 माह तक वृद्धि हो गई। लघु अवधि ऋण* का विदेशी मुद्रा भंडार के साथ अनुपात मार्च 1991 के अंत में 146.5 प्रतिशत से कम होकर मार्च 2005 के अंत तक 12.5 प्रतिशत हो गया किंतु मार्च 2006 के अंत में बढ़कर 12.9 प्रतिशत हो गया। लघु अवधि ऋण की बढ़ती व्याप्ति के साथ यह अनुपात मार्च 2007 के अंत में 14.1 प्रतिशत और मार्च 2008 के अंत तक 14.8 प्रतिशत और आगे मार्च 2009 के अंत तक 17.2 प्रतिशत तक बढ गया। सितंबर 2009 के अंत तक लघु अवधि ऋण का विदेशी मुद्रा भंडार के साथ अनुपात 15.1 प्रतिशत हो गया। अस्थिर पूंजी प्रवाह (आवर्ती संविभाग अंतर्वाहों और लघु अवधि ऋण के समावेश के लिए व्याख्यित) का विदेशी मुद्रा भंडार के साथ अनुपात मार्च 1991 के अंत में 146.6 प्रतिशत से कम होकर मार्च 2004 के अंत में 35.0 प्रतिशत हो गया । यह अनुपात जो मार्च 2009 में 47.9 प्रतिशत था सितंबर 2009 के अंत तक बढ़कर 48.9 प्रतिशत हो गया। I.7 प्रारक्षित स्वर्ण का प्रबंधन भारतीय रिज़र्व बैंक के पास करीब 357.75** टन सोना है जो सितंबर 2009 की समाप्ति के मूल्य निर्धारण के अनुसार कुल विदेशी मुद्रा भंडार के करीब 3.7 प्रतिशत के बराबर है । इसमें से 65.49 टन सोना 1991 से विदेशों में बैंक ऑफ इंग्लैड और बीआईएस के पास जमा के रूप में / सुरक्षित अभिरक्षा में रखा गया है । नवंबर 2009 में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा काटष (आईएमएफ) से मर्यादित स्वर्ण विक्रय कार्यक्रम के अंतर्गत रिज़र्व बैंक ने 200 मेट्रिक टन स्वर्ण की खरीद की । यह खरीद सरकारी क्षेत्र के लेनदेन के रूप में बाजार आधारित कीमतों पर 19 से 30 अक्तूबर 2009 के दौरान दो सप्ताहों की अवधि में कार्यान्वित की गई । इस खरीद के परिणामस्वरूप रिज़र्व बैंक द्वारा धारित स्वर्ण बढकर 357.75 टन से 557.75 टन हो गया। I.8 विदेशी मुद्रा आस्तियों के निवेश का स्वरूप और उससे आय सर्वश्रेष्ठ अंतर्राष्ट्रीय मानकों के व्यापक अनुसरण में बने मौजूदा मानदण्डों के अनुरूप विदेशी मुद्रा आस्तियों का निवेश बहु मुद्रा, बहु आस्ति संविभागों में किया जाता है। सितंबर 2009 के अंत की स्थिति के अनुसार 264.4 बिलियन अमरीकी डॉलरों की कुल विदेशी मुद्रा आस्तियों में से 148.0 बिलियन अमरीकी डॉलरों का निवेश प्रतिभूतियों में किया गया, 111.3 बिलियन अमरीकी डॉलर अन्य केंद्रीय बैंकों, अंतर्राष्ट्रीय निपटान बैंक (बीआईएस) और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ ) में जमा किए गए और 5.1 बिलियन अमरीकी डॉलर विदेशी वाणिज्य बैंकों / बाह्य आस्ति प्रबंधकों ( ईएएम ) के पास जमा किए गए (सारणी 5) । विदेशी मुद्रा भंडार का एक छोटा हिस्सा इस उद्देश्य से बाह्य आस्ति प्रबंधकों को सौंपा जाता है ताकि उनके माध्यम से उनके कौशल और बाज़ार संबंधी अनुसंधान का लाभ उठाया जा सके ।
विदेशी मुद्रा आस्तियों और स्वर्ण से प्राप्त आय की दर , मूल्यह्रास की गणना के बाद जुलाई 2007 - जून 2008 के दौरान 4.82 प्रतिशत से घटकर जुलाई 2008 - जून 2009 के दौरान 4.16 प्रतिशत हो गई। विदेशी मुद्रा भण्डार में हुई क ाफी वृध्दि के कारण फरवरी 2003 में भारत सरकार द्वारा एशियन विकास बैंक (एडीबी)और अंतर्राष्ट्रीय पुनर्निर्माण और विकास बैंक (आईबीआरडी) / विश्व बैंक से लिए गए 3.03 बिलियन अमरीकी डॉलर के कुछ उच्च लागत वाले विदेशी मुद्रा ऋणों का समय-पूर्व भुगतान संभव हो पाया। वर्ष 2003-04 में सरकार द्वारा आईबीआरडी और एडीबी से लिए गए 2.6 बिलियन अमरीक ा डॉलर के उच्च लागत वाले ऋणों का समय-पूर्व भुगतान किया गया। इसके अतिरित्त 1.1 मिलियन अमरीकी डॉलर के द्विपक्षीय ऋणों का भी समय-पूर्व भुगतान कि या गया। इस प्रक ार से वर्ष 2003-04 के दौरान कुल 3.7 बिलियन अमरीकी डॉलर की कुल राशि का समय-पूर्व भुगतान कि या गया । वर्ष 2004-05 के दौरान 30.3 मिलियन अमरीकी डॉलर के द्विपक्षीय ऋणों का भुगतान किया गया । 2006-07 के दौरान माह अप्रैल 2006 में 58.7 मिलियन अमरीकी डॉलर का केवल एक समय-पूर्व भुगतान किया गया। उसके बाद 30 सितंबर 2009 तक किसी भी ऋण का समय-पूर्व भुगतान नहीं किया गया। I.9.2 अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ ) की वित्तीय लेनदेन योजना (एफ टीपी) फरवरी 2003 में अतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा अपनी वित्तीय लेनदेन योजना में भारत को ऋणदाता के रुप में प्राधिकृत किया गया। इस व्यवस्था के अनुसार भारत ने मार्च- मई 2003 में बुरुंडी को 5 मिलियन एसडीआर और जून-सितम्बर 2003 में ब्राजील को 350 मिलियन एसडीआर के आईएमएफ द्वारा किए गए वित्तीय सहयोग में अंशदान किया। एफटीपी के अंतर्गत इंडोनेशिया को दिसबर 2003 में 43 मिलियन एसडीआर उपलब्ध कराए गए । वर्ष 2004-05 के दौरान एफटीपी के अंतर्गत उरुग्वे, हैती, डोमिनिकन रिपब्लिक और श्रीलंका आदि देशों को 61 मिलियन एसडीआर उपलब्ध कराए गए। मई-जून 2005 में टर्की और उरुग्वे को 34 मिलियन एसडीआर उपलब्ध कराए गए । वर्ष 2008-09 में 403 मिलियन एसडीआर बंग्लादेश, टर्की, पाकिस्तान और जॉर्जिया को उपलब्ध कराए गए । आगे अप्रैल-सितंबर 2009 के दौरान को रुमानिया को 130 मिलियन एसडीआर और श्रीलंका को 50 मिलियन एसडीआर उपलब्ध कराए गए । इस तरह से सितंबर 2009 के अंत तक कुल 1076 मिलियन एसडीआर खरीदे गए। एफटीपी की पुनर्खरीद लेनदेनों में नवंबर 2005 से भारत को शामिल किया गया। नवंबर 2005 से मार्च 2009 तक की अवधि में टर्की, अल्जेरिया, ब्राजील, इंडोनेशिया ,उरुग्वे, युक्रैन और मोल्दोवा आदि 7 देशों से 772 मिलियन एसडीआर के 21 पुनर्खरीद लेनदेन किए गए। भाग II : जोखिम प्रबंधन सशक्त जोखिम प्रबंधन कुशल विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है । विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन संबंधी नीति बनाते समय विदेशी मुद्रा के नियोजन से जुड़े वित्तीय और परिचालनगत जोखिमों के नियंत्रण और प्रबंधन पर जोर दिया जाता है । मुद्रा संरचना और निवेश संबंधी नीति के साथ विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन संबंधी व्यापक रणनीति भारत सरकार के साथ विचार-विमर्श के बाद निर्धारित की जाती है । जोखिम प्रबंधन संबंधी कार्यों का मुख्य उद्देश्य होता है सर्वोत्तम अंतर्राष्ट्रीय प्रथाओं , विकसित लेखाकरण नीति, सभी परिचालनों में जोखिम संबंधी सतर्कता की प्रणाली और उपलब्ध कौशल और विशेषज्ञता के विकास के लिए प्रभावी संसाधन आबंटन के साथ-साथ सक्षम प्रशासनिक संरचना का विकास सुनिश्चित करना । आगे के परिच्छेदों में विदेशी मुद्रा भंडार के विनियोजन के साथी अर्थात क्रेडिट जोखिम ,बाज़ार जोखिम, तरलता जोखिम, और परिचालनगत जोखिम और इन जोखिमों के प्रबंधन के लिए कार्यरत प्रणालियों के संबंध में विस्तृत जानकारी प्रस्तुत की गई है। क्रेडिट जोखिम को उस संभावना के रूप में परिभाषित किया जाता है जिसमें उधारकर्ता अथवा प्रतिपार्टी स्वीकृत शर्तों के अनुसार दायित्वों की पूर्ति करने में असफल रहती है । अंतर्राष्टीय बाज़ारों में विदेशी मुद्रा भंडार के निवेश से उत्पन्न क्रेडिट जोखिम के मामले में भारतीय रिज़र्व बैंक बेहद संवेदनशील है। सरकारी और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के उच्च दर वाले बाण्डों / खजाना बिलों में निवेश से तत्वत: क्रेडिट जोखिम नहीं बढ़ती है । बीआईएस अथवा अन्य केंद्रीय बैंकों के साथ जमाएं भी क्रेडिट जोखिम से मुक्त मानी जाती है । तथापि, वाणिज्यिक बैंकों के साथ जमाएं अथवा वाणिज्यिक बैंकों / निवेश बैंकों और अन्य प्रतिभूति संबंधी कारोबार करनेवाली फर्मों के साथ विदेशी मुद्रा विनिमय और बाण्डों / खजाना बिलों संबंधी लेनदेन क्रेडिट जोखिम बढ़ाते हैं। वर्ष 2008 के दूसरे अर्धवर्ष और वर्ष 2009 के दौरान अमरीकी वित्तीय बाज़ारों में उभरी साख समस्या और अन्य अर्थव्यवस्थाओं पर उनके संक्रामक प्रभाव से उत्पन्न वैश्विक वित्तीय समस्याओं के कारण साख जोखिम पर ध्यान केंद्रित किया जा रहा है ।इसीलिए प्रतिपार्टियों के चयन के लिए कड़े क्रेडिट मापदंड अपनाए जाते हैं । अनुमोदित प्रतिपार्टियों के संबंध में स्वीकृत सीमा और ऋण के स्तर की निरंतर रूप से निगरानी रखी जाती है । साथ ही प्रतिपार्टियों की वित्तीय सक्षमता पर निरंतर रूप से नज़र रखी जाती है । इस प्रकार के निरंतर अभ्यास का मूल उद्देश्य यह निर्धारित करना होता है कि किसी प्रतिपार्टी अनुमोदित संस्था का दर्जा संभावित खतरे के दायरे में तो नहीं आ रहा है। बाज़ार जोखिम विनिमय दर और ब्याज दर में घट-बढ़ के कारण उत्पन्न होती है जिनका विवरण निम्ननुसार है: II.1.2.1 मुद्रा जोखिम : मुद्रा जोखिम विनिमय दरों की अनिश्चितता के कारण उत्पन्न होती है। विभिन्न मुद्राओं के मामले में उनके विनिमय दर में होनेवाली संभाव्य घट-बढ़ और उनसे मध्यम और दीर्घकालीन अपेक्षाओं (जैसेकि मध्यवर्ती मुद्रा में विदेशी मुद्रा भंडार का बड़ा हिस्सा रखना, देश की बदलती विदेश व्यापार संबंधी रूपरेखा के अनुरूप अनुमानित विदेशी मुद्रा भंडार की मुद्रा रूपरेखा (करेंसी प्रोफाइल), विविधता का लाभ आदि) के आधार पर दीर्घकालीन निवेश संबंधी निर्णय लिए जाते हैं।नियमित आधार पर नीति की समीक्षा द्वारा निर्णयों की पुष्टि की जाती है। तरलता जोखिम में आवश्यकता के अनुसार बिना किसी लागत के किसी लिखत को बेच अथवा रोक न लगा पाने की जोखिम अंतर्निहित रहती है । किन्हीं अप्रत्याशित अथवा अत्यावश्यक जरूरतों की पूर्ति करने के उद्देश्य से विदेशी मुद्रा भंडार में सदैव उच्च स्तर की तरलता बनाई रखी जाती है । किसी विपरीत गतिविधि को रोकने के लिए विदेशी मुद्रा भंडार का प्रयोग किया जाता है । इसीलिए इस संविभाग में उच्च स्तर की तरलता बनाई रखने की आवश्यकता निवेश रणनीति में बाधक बन जाती है । लिखतों के चयन पर संविभाग की तरलता निर्भर रहती है । जैसे कि कुछ बाज़ारों में राजकोषीय प्रतिभूतियां बड़ी संख्या में बाज़ार में मूल्य को ज्यादा प्रभावित किए बगैर बेची जा सकती है और इसीलिए उन्हें तरल माना जाता है । वास्तव में विदेशी वाणिज्य बैंकों और केंद्रीय बैंकों में धारित मीयादी जमा राशियों को और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा जारी प्रतिभूतियों को छोड़कर सभी प्रकार के निवेशों में उच्च स्तर की तरलता होती है, जो अल्प सूचना पर नकदी में परिवर्तित किए जा सकते हैं। किसी अप्रत्याशित/आकस्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए काफी अल्प सूचना पर नकदी में परिवर्तित होनेवाले विदेशी मुद्रा भंडार के हिस्से पर भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा कड़ी नज़र रखी जाती है। II.1.4 परिचालनगत जोखिम और नियंत्रण प्रणाली वैश्विक रुझान के अनुरूप परिचालनगत जोखिम नियंत्रण संबंधी व्यवस्थाओं को सक्षम करने की ओर काफी ध्यान दिया जा रहा है । महत्वपूर्ण परिचालनगत प्रक्रियाओं का दस्तावेजीकरण किया गया है । आंतरिक रूप से अग्र और पश्च कार्यालय के कार्यों को पूरी तरह से अलग कर दिया गया है और आंतरिक नियंत्रण प्रणाली द्वारा यह सुनिश्चित किया जाता है कि डील कॅप्चर,डील प्रोसेसिंग और निपटान के स्तरों पर कई जांचबिंदु सुनिश्चित किए गए हैं । जोखिम निर्धारण, उसकी निगरानी, कार्य-निष्पादन मूल्यांकन और समवर्ती लेखा परीक्षा की जिम्मेदारी के लिए अलग व्यवस्था है ।प्रोसेसिंगऔर निपटान प्रणाली भी आंतरिक नियंत्रण संबंधी मार्गदर्शी सिद्धांतों के अधीन है जोकि वन पाईंट डेटा एंटी तत्व पर आधारित है और भुगतान अनुदेशों को जारी करने की अनुमति विविध स्तरों के अधिकारियों को प्रदान की गई है । सभी आंतरिक नियंत्रण संबंधी मार्गदर्शी सिद्धांतों के अनुपालन के लिए समवर्ती लेखापरीक्षा प्रणाली कार्यरत है । आगे, नियमित रूप से आंकड़ों का मिलान किया जाता है। इस उद्देश्य के लिए रिज़र्व बैंक की आंतरिक व्यवस्था के रूप में वार्षिक निरीक्षण और बाहरी लेखाकारों द्वारा लेखों की सांविधिक जांच के अलावा डीलिंग रूम के लेनदेनों की लेखापरीक्षा के लिए विशेष लेखाकार भी नियुक्त किए जाते हैं । विशेष लेखा परीक्षाओं का मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि जोखिम प्रबंधन प्रणाली और आंतरिक नियंत्रण संबंधी दिशानिर्देशों का अनुपालन किया जा रहा है। विदेशी मुद्रा भंडार प्रबंधन संबंधी महत्वपूर्ण क्षेत्रों की गतिविधियों / परिचालनों को सम्मिलित करनेवाला एक व्यापक सूचना तंत्र है। इस प्रकार की सूचना वरिष्ठ प्रबंध तंत्र को आवधिक रूप से अर्थात दैनिक,साप्ताहिक ,मासिक त्रैमासिक,अर्ध-वार्षिक और वार्षिक अंतराल पर जैसा भी मामला हो और जानकारी जितनी संवेदनशील हो, तदनुसार प्रदान की जाती है । रिज़र्व बैंक अपने व्यापार संबंधी अदायगी करने और प्रतिपार्टियों , बैंकों जिनके साथ नोस्ट्रो खाते रखे गए हैं, प्रतिभूतियों के अभिरक्षकों और अन्य कारोबारी भागीदारों को वित्तीय संदेश भेजने के लिए ’स्विफ्ट’ प्रणाली का प्रयोग करता है । रिज़र्व बैंक के बाह्य निवेश और परिचालन विभाग की सूचना सुरक्षा प्रबंधन प्रणाली (आई एस एम एस) आईएसओ 27001 के मानकों के प्रावधानों के अनुरूप है । भाग III : पारदर्शिता और प्रकटन भारतीय रिज़र्व बैंक विदेशी मुद्रा बाज़ार एवं विदेशी मुद्रा बाज़ार में अपने परिचालनों से संबंधित आंकड़े, देश की बाह्य आस्तियों और देयताओं संबंधी स्थिति और विदेशी मुद्रा आस्तियों और स्वर्ण के नियोजन के माध्यम से प्राप्त आय से संबंधित आंकड़े साप्ताहिक सांख्यिकी अनुपूरक (डब्लूएसएस), मासिक बुलेटिन, वार्षिक रिपोर्टों के माध्यम से आवधिक प्रेस प्रकाशनों द्वारा सार्वजनिक करता है । पारदर्शिता और प्रकटीकरण के संबंध में भारतीय रिज़र्व बैंक का दृष्टिकोण इस विषयक उत्तम अंतर्राष्टीय प्रणालियों के अनुरूप रहता है । भारतीय रिज़र्व बैंक विश्वभर के उन 66 केंद्रीय बैंकों में से एक है जिन्होंने विदेशी मुद्रा भंडार संबंधी विस्तृत आंकड़ों के प्रकटीकरण के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के विशेष आंकड़ा प्रसार मानक (एसडीडीएस) टेम्प्लेट को अपनाया है ।ये आंकड़े भारतीय रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर मासिक आधार पर उपलब्ध कराए जाते हैं । * ( 2005-06 से 180 दिनों तक आपूर्तिकर्ता के ऋण और एफआईआई निवेश का सरकारी खजाना बिल और अन्य लिखतों में समावेश के साथ और आगे मार्च 2007 में बैंकिंग प्रणाली की बाह्य ऋण देयताओं और विदेशी केंद्रीय बैंकों और अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों में निवेश के समावेश के साथ पुनर्व्याख्यित) ** 31 मार्च 2009 की तुलना में 30 सितंबर 2009 को धारित स्वर्ण की मात्रा में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ । तथापि इस रिपोर्ट में धारित स्वर्ण की मात्रा को 2 दशमलव तक दर्शाया गया है। |