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वित्तीय स्थिरता और बैंकों की भूमिका

श्री एस पी तलवार, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक

उद्बोधन दिया

वित्तीय स्थिरता और बैंकों की भूमिका

एक सुदृढ़ और दक्ष वित्तीय प्रणाली बाजार-संचालित, उत्पादक और प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था के निर्माण के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए महत्त्वपूर्ण है। अत: वित्तीय स्थिरता के लिए स्वस्थ वित्तीय संस्थाओं, विशेषकर, बैंकों का संवर्धन एक महत्त्वपूर्ण पूर्व-शर्त है। यह देखा गया है कि औद्योगिक देशों में अथवा उभरती हुई बाजारी अर्थव्यवस्था में अभी भी संकटों के सर्वाधिक अवसर आते हैं। इसका कारण है अच्छे समय में समग्र तुलनपत्रों में अत्यधिक विस्तार तथा उसके बाद व्यापक तौर पर गिरावट।

मैं यहां यह ज़ोर देना चाहूंगा कि वित्तीय स्थिरता के लिए व्यष्टिगत और समष्टिगत दोनों स्तरों पर उपयुक्त कार्रवाई किये जाने की आवश्यकता है। व्यष्टिगत स्तर पर तीन आयाम हैं - संस्थाएं, बाज़ार और बुनियादी संरचना। विनियामकों द्वारा प्रतिरोधक उपायों के रूप में इन तीन आयामों पर पर्याप्त ध्यान देना चाहिये जो देशी और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली को समर्थन प्रदान करते हैं। उपयुक्त विनिमय पर्यवेक्षण के माध्यम से वित्तीय संस्थाओं का अच्छा स्वास्थ्य, बाजारों का यथोचित रूप में कार्य करना तथा सुदृढ़ बुनियादी संरचना की स्थापना जिसमें कानूनी और न्याय प्रणाली, भुगतान और निपटान प्रणालियां भी शामिल हों, तथा पारदर्शी लेखांकन पद्धति तथा पर्याप्त प्रकटीकरण मानदंड स्थापित करना।

केन्द्रीय बैंक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह इन तीनों स्तम्भों की सुरक्षा करेगा और इसके लिए उनके अनुपालन के व्यवहारों के मानदंडों को विकसित करके लागू करेगा तथा विनियमों का अनुपालन न किये जाने के प्रति बन्धन लगायेगा। इन मानदंडों की पर्यवेक्षण के माध्यम से निगरानी करेगा तथा आपात चल निधि समर्थन, जिनमें राशि सुरक्षण योजना आदि के द्वारा समर्थकारी भूमिका अदा करेगा। तथापि व्यापक स्तर पर सुरक्षण के ये माध्यम मौद्रिक और ऋण नीति के अंग बने रहेंगे।

भारत में बैंकिंग प्रणाली वित्तीय क्षेत्र का सबसे प्रमुख घटक है जो नीधियों के प्रवाह का प्रमुख भाग है और यह मौद्रिक नीति के संकेतकों, ऋण सरण, और भुगतान प्रणालियों को आसान बनाने के लिए प्रमुख साधन है। अत: बैंकों का स्वास्थ्य बाजारों और विनियामकों के लिए प्रमुख दिलचस्पी का कारण बना रहता है।

पूंजी-पर्याप्तता के उपाय

अप्रत्याशित हानियों को झेलने के लिए सुदृढ़ पूंजी आधार बहुत आवश्यक है। बैंकिंग क्षेत्र में सुधार समिति की सिफारिशों के अनुपालन के एक भाग के रूप में 31 मार्च, 2000 को समाप्त वर्ष से जोखिम भारित आस्तियों के प्रति पूंजी अनुपात (सीआरएआर) बढ़ाकर 9 प्रतिशत कर दिया गया। भारत सरकार ने अनेक राष्ट्रीयकृत बैंकों की पूंजी में कुल मिलाकर 20,446 करोड़ रुपये तक का पुनर्पूंजीकरण किया है ताकि उनके सीआरएआर को सम्बल दिया जा सके। इसके साथ ही सार्वजनिक क्षेत्र के ग्यारह बैंकों ने बाजार से पूंजी जुटायी है। इसके फलस्वरूप एक को छोड़कर सार्वजनिक क्षेत्र के सभी बैंकों ने 31 मार्च 2000 को सीआरएआर का अपेक्षित स्तर बनाये रखा है। जोखिम आकलन (भारांकन) की पद्धति को भी बासले समझौते के अनुरूप बनाया गया है।

हालांकि जून 1999 में जारी किये गये नये पूंजी पर्याप्तता ढांचे पर परामर्शी आलेख में दिये गये नये प्रस्तावों के पूरे प्रभाव का आकलन करना अभी जल्दबाजी होगी, फिर भी, ऐसा लगता है वि इनके कारण अगले कुछ वर्षों में हमारे बैंकों के लिए पूंजी की अपेक्षा में वृद्धि होगी।

विवेक-सम्मत मानदंड

अंतर्राष्ट्रीय मानकों की ओर बढ़ने की दृष्टि से विवेक-सम्मत मानदंडों को और कठोर बनाया गया है। संदिग्ध आस्तियों के लिए समय सारणी 31 मार्च, 2001 से 24 माह से घटाकर 18 माह कर दी जायेगी। 0.25 प्रतिशत का न्यूनतम सामान्य प्रावधान 31 मार्च 2001 को समाप्त वर्ष से मानक आस्तियों पर भी लागू किया गया है। अलग-अलग उधारकर्ताओं के संबंध में जोखिम की सीमा को पूंजी निधियों की 25 प्रतिशत से घटाकर 20 प्रतिशत तक कर दिया गया है, तथापि, इतना ही पर्याप्त नहीं है। हम जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे, हमें मानक और अवमानक अग्रिमों पर प्रावधानीकरण संबंधी अपेक्षाओं को बढ़ाकर विवेकसम्मत मानकों को और कठोर बनाने, संदिग्ध हानियों के रूप में समय सारणी को घटाकर 12 महीने करने तथा जोखिम की सीमाओं को और अधिक घटाने के लिए विवेकसम्मत मानदंडों को और कठोर बनाने की आवश्यकता होगी।

अशोध्य ऋणों की वसूली

अशोध्य ऋणों की वसूली की समस्या से निपटने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक ने बैंकों को अनेक अनुदेश जारी किये हैं। जहां एक ओर लोक अदालत में सहमति द्वारा निपटान पर पहुंचने की प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जाना है, वहीं बैंकों को यह भी सलाह दी गयी है कि वे लघु क्षेत्र के अंतर्गत गैर-निष्पादित आस्तियों के पुराने मामलों को सहमति द्वारा निपटने के लिए निपटान परामर्शी समितियां (एसएसी) का गठन करें। सभी श्रेणियों में गैर निष्पादक आस्तियों की मात्रा को कम करने के लिए एक अधिक व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाने की दृष्टि से जुलाई 2000 में संशोधित दिशानिर्देश जारी किये गये हैं जो गैर-निष्पादक आस्तियों की वसूली के लिए एक सरल, गैर-विभेदकारी तथा और गैर-अविवेकशील प्रक्रिया उपलब्ध कराती है। हमें इस बात पर जोर देने की आवश्यकता नहीं है कि बैंकों को इन दिशानिर्देशों का अधिकाधिक लाभ उठाना चाहिए ताकि निश्चित समय सीमा के अंदर अर्थात मार्च 2001 तक वे अपनी बकाया राशि की अधिकतम वसूली कर सकें।

भारत सरकार ने हाल ही में ऋण वसूली अधिकरण (डीआरटी) अधिनियम में आवश्यक संशोधन किये हैं। इनका उद्देश्य बकाया राशियों की शीघ्र वसूली के लिए ऋण वसूली अधिकरणों को शक्ति सम्पन्न बनाना है। सात अतिरिक्त ऋण वसूली अधिकरणों के गठन के लिए कदम उठाये गये हैं, जिनमें चार मुंबई में, एक -एक कलकत्ता, चेन्नई और नयी दिल्ली में होगा और इस प्रकार ऋण वसूली अधिकरणों की कुल संख्या 21 हो जायेगी। इसके अलावा प्रस्तावित दिवालिया अर्थात मोचन-निषेध के कानूनों को लागू करना, ऋण आसूचना ब्यूरो की स्थापना आदि इन हानिगत आस्तियों से निपटने के संस्थागत ढांचे को सुदृढ़ बनायेगी।

पर्यवेक्षी प्रक्रिया- तंत्र

बैंकिंग प्रणाली में नये उत्पादाें के नवोन्मेष की गति, गहन प्रतिस्पर्धा, तीव्र प्रौद्योगिकी विकास तथा वित्तीय बाजारों के साथ समन्वय ने एक सुदृढ़ और दक्ष पर्यवेक्षी प्रणाली की आवश्यकता को रेखांकित किया है। भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा किये जाने वाले बैंकों के वार्षिक वित्तीय निरीक्षण का केन्द्र बिन्दु और उसकी पद्धति बदल गयी है ताकि बैंकिंग कारोबार में विभिन्न जोखिमों का ध्यान रखने के लिए प्रचलित प्रणालियों के विश्लेषण पर प्रमुख बल दिया जा सके। अब निरीक्षण कैमल्स (सीएएमईएलएस) मॉडल के अंतर्गत अधिक वस्तुपरक रूप में किया जाता है तथा एक व्यापक साख दर निर्धारण प्रणाली स्थापित की गयी है। पारदर्शिता के हित में तथा बाद के वर्षों में साख दर निर्धारण में सुधार करने के उनके प्रयासों में सहायता करने की दृष्टि से बैंकों को साख दर निर्धारण के अभ्यास में अपनायी जानेवाली प्रक्रिया के बारे में सूचित किया गया है। जो प्रणालीगत 3 वर्षों से स्थापित है उसे अधिक वस्तुपरक और पारदर्शी बनाने के लिए उसकी समीक्षा की जा रही है।

वर्ष 2000-01 के लिए गवर्नर द्वारा घोषित मौद्रिक और ऋण नीति के अनुसार भारतीय रिज़र्व बैंक अब जोखिम आधारित पर्यवेक्षण की ओर बढ़ रहा है जो भारतीय परिवेश के अनुसार पर्यवेक्षण के अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम संव्यवहारों की यथोचित रूप में संशोधित करके अपने में समाहित करेगा। विशाखीकृत बैंकिंग कारोबार तथा जटिल जोखिम युक्त लिखतों में उभरते हुए उत्पादगत नवोन्मेषों के परिवर्तित परिवेश में जोखिम आधारित पर्यवेक्षण दृष्टिकोण पर्यवेक्षण के संसाधनों को अधिक दक्षतापूर्वक आबंटित करेगा जिसमें परम्परागत लेनदेन आधारित दृष्टिकोण के साथ-साथ पर्यवेक्षित संस्था की जोखिम लिखतों की निगरानी भी करेगा तथापि जोखिम आधारित दृष्टिकोण उचित रूप से कार्य करे, इसके लिए बैंकों को चाहिए कि वे जोखिम प्रबंध प्रणालियों का अपेक्षित स्तर स्थापित करें जैसाकि उक्त विषय पर हमारे दिशानिर्देशों में दर्शाया गया है।

ज्यादा प्रभावी पर्यवेक्षण की ओर एक और कदम के रूप में त्वरित सुधारात्मक कार्रवाई  की एक प्रणाली बनायी जा रही है जो बैंकों की समस्या को प्रारंभिक अवस्था में ही निपटाने और उस पर विवेकानुसार प्रतिरोधी/निदानात्मक कार्रवाई करने के लिए तथा हानियों को सीमित रखने एवं संक्रामक प्रभाव को रोकने के लिए बैंकों की सहायता करेगी। इस प्रयोजन के लिए कुछ महत्त्वपूर्ण वित्तीय संकेतक जैसे सीआरएआर, निवल गैर-निष्पादक आस्तियां तथा आस्तियों पर प्रतिलाभ संकेतक मापदण्डों के रूप में कार्य करेंगे ।

प्रौद्योगिकी का प्रयोग

फिलहाल भारत में बैंकिंग जिन चुनौतियों का सामना कर रही है उनमें सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती है, वह है - बैंकिंग के विभिन्न आयामों में प्रौद्योगिकी का प्रभावी ढंग से उपयोग करने की आवश्यकता। इसका उद्देश्य न केवल ग्राहक सेवा की दक्षता में सुधार लाना है, बल्कि प्रबंध आसूचना प्रणाली को सुधारने तथा बेहतर आंतरिक रखरखाव (हाउसकीपिंग) में सुधार लाने के लिए है जिनमें अनुभवजनित निर्णय लेने की प्रक्रिया भी शामिल है। प्रौद्योगिकी ने भुगतान और निपटान प्रणालियों में भारी परिवर्तन किये हैं जिसके फलस्वरूप भारतीय रिज़र्व बैंक ने इस क्षेत्र में सुधार के लिए अनेक उपायों की तात्कालिक आवश्यकता बैंक की शाखाओं के कम्प्यूटरीकरण और हाड़वेयर के मानकीकरण, परिचालन प्रणालियों और नेटवर्किंग प्लेटफार्म को प्रणालीबद्ध रूप में कम्प्यूटरीकृत करना है, जिसका अंतिम उद्देश्य शाखाओं, नियंत्रक कार्यालयों और मुख्यालय के बीच अंतरसंबद्धता के लिए एक सुदृढ़ व्यापक संरचनागत मॉडल विकसित करना है जिसमें बैंकिंग प्रौद्योगिकी में विकास और अनुसंधान संस्था (डीआरबीटी) द्वारा लागू भारतीय वित्तीय नेटवर्क (इनफिनेट) का प्रयोग करना है। इस प्रकार के प्रयासों की सघनता से वाणिज्यिक रूप से महत्त्वपूर्ण केन्द्रों में बैंकों की लगभग सभी शाखाएं परस्पर संबद्ध हो जाएंगी और अपने-अपने शहरों में, साथ ही अन्य बैंक शाखाओं के बीच संदेशों को प्रेषित कर सकेंगी। अनेक नये भुगतान और निपटान उत्पाद भी भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा क्रियान्वयन के विभिन्न चरणों में हैं। यह आवश्यक है कि यदि बैंकों को इन सभी प्रणालियों में सक्रिय रूप से सहभाग करना है तो उन्हें या तो अपनी आंतरिक अनुप्रयोग प्रणाली विकसित करनी होगी जो इन प्रारूपों में संदेश निर्मित कर सकें, अथवा इंटरफेसिंग के लिए ऐसे प्रावधान करने होंगे जो बैंकों में वर्तमान अनुप्रयोगों से संदेश निर्मित कर सकें। एक बार तत्काल सकल निपटान प्रणाली स्थापित हो जाए तो यह प्रणाली सकल आधार पर भारी मूल्य के निपटानों की अपेक्षाओं की चिंता स्वयं कर लेगी। इससे हिताधिकारियों के खातों में निधियों की वसूली/जमा करने में लगने वाले समय में कटौती होगी तथा मुद्रा के वेग में वृद्धि होगी और लागत में कमी आयेगी।

कम्पनी संचालन

कम्पनी संचालन का मुख्य आधार है : संस्था के प्रबंध-तंत्र, निदेशक मंडल, शेयर धारकों तथा पणधारियों के बीच पारदर्शी संबंध का होना। अत: इसे शेयरधारकों की मूल्य वृद्धि, अधिकारों की सुरक्षा, निदेशक मंडल के गठन और उनकी भूमिका, लेखांकन पद्धति की निष्ठा तथा प्रकटीकरण मानदण्ड एवं आंतरिक नियंत्रण प्रणाली जैसे पहलुओं का ध्यान देना चाहिए। जहां तक बैंकिंग उद्योग का संबंध है, कम्पनी संचालन का तात्पर्य उस स्वरूप से है जिसमें अलग-अलग बैंकों के कारोबार और उनके कार्य, उनके निदेशक मंडल तथा वरिष्ठ-प्रबंध-तंत्र द्वारा निदेशित और प्रबंधित किये जाते हैं। यह ऐसी संरचना भी उपलब्ध कराता है जिसके माध्यम से संस्था के उद्देश्य निश्चित किये जाते हैं, इन उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए ऋण नीति का निर्धारण किया जाता है और संस्था के कार्यकलापों की निगरानी की जाती है।

इस विषय पर बैंक पर्यवेक्षण पर बासले समिति (बीसीबीएस) के आलेख में बैंकों में सुदृढ़ कम्पनी संचालन से संबंधित मूलभूत कुछ ऋण नीतियों और तकनीकों की परिकल्पना की गयी है। कम्पनी संचालन के मूलभूत तत्व हैं : सक्षम और अनुभवी निदेशक मंडल, दक्ष प्रबंध-तंत्र, सुसंगत रणनीति और कारोबारी योजना तथा उत्तरदायित्व और जवाबदेही की स्पष्ट विभाजन रेखा। जहां बैंकों में एक अच्छे कम्पनी संचालन की प्राथमिक दायित्व निदेशक मंडल पर होता है, वहीं सरकार, विनियामव, लेखा परीक्षक और बैंकिंग उद्योग संघों द्वारा अदा की गयी भूमिका भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है ।

कुमारमंगलम समिति की सिफारिशें, बासले समिति का आलेख तथा अन्य केन्द्रीय बैंकों में अपनाये जा रहे संव्यवहारों की भारतीय रिज़र्व बैंक जांच कर रहा है और बैंकों में प्रभावी कम्पनी संचालन को प्रोन्नत करने के लिए शीघ्र दिशानिर्देश जारी किये जाएंगे।

लेखांकन और प्रकटीकरण मानदंड

भारत में बैंकों द्वारा अपनाये गये लेखांकन के मानदंड तथा मूल्यांकन की पद्धतियां काफी सीमा तक अंतर्राष्ट्रीय मानकों से तुलनीय हैं। बैंकों की पारदर्शिता की मात्रा तथा तुलनपत्रों के प्रकटीकरण के मानक चरणबद्ध रूप में काफी सीमा तक बढ़ा दिये गये हैं। बैंकों को यह सूचित किया गया है कि वे जमाराशियों, उधारराशियों, निवेशों, अग्रिमों और विदेशी मुद्रा आस्तियों और देयताओं के परिपक्वता स्वरूप, गैर-निष्पादक आस्तियों में घटबढ़ तथा संवेदनशील क्षेत्रों को उधार की सूचना 31 मार्च 2001 से प्रकट करें। विद्यमान प्रकटीकरण मानदंड बाजार के सहभागियों को आवश्यक सूचना पूरी तरह उपलब्ध नहीं कराते हैं जिससे वे बैंकों की दक्षता, प्रतिस्पर्धी क्षमता तथा बाजार में साख आदि के बारे में मूल्यांकन कर सकें। इसके लिए आवश्यक है कि जोखिम प्रबंध नीतियों संकेन्द्रणों, संबद्ध संस्थाओं को उधार देने, सहायक संस्थाओं में निवेश के मूल्यांकन कार्य निष्पादन उपायों तथा उनके संकेतकों आदि को भी शामिल किया जाए।

मानव संसाधन विकास संबंधी पहल

सार्वजनिक क्षेत्र के अनेक बैंकों ने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति योजना प्रारंभ की थी जिसे अच्छा फीडबैक मिला। निकट भविष्य में बैंकों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके सामान्य क्रियाकलापों में बाधा न आये और इसके परिणामस्वरूप कार्य के पुनर्आबंटन और मानव संसाधन के पुनर्नियोजन को वे अविलंब पूरा कर सकें। यहां यह उल्लेखनीय है कि बैंक अनेक अनुभवी और दक्ष कार्मिकों को खोने जा रहे हैं। एक उपयुक्त मानव संसाधन प्रबंध नीति बैंकों द्वारा अपनायी जानी अपेक्षित है जिसमें गहन और व्यापक प्रशिक्षण पर बल दिया जाना है ताकि कार्मिक बैंक-कारोबार अधिक दक्षतापूर्वक कर सकें। बैंकों को यह भी प्रयास करना होगा कि वे निर्णय लेने के वर्तमान विभिन्न स्तरों में कमी लायें तथा कार्यमूलक स्तरों पर कार्य करनेवाले कार्मिकों को पर्याप्त रूप से शक्तियां प्रत्यायोजित करें ताकि उनकी दक्षता बढ़ सके तथा वे विदेशी तथा नयी पीढ़ी के निजी क्षेत्र के बैंकों से प्रतिस्पर्धा कर सके।

एक संगठनात्मक पुनर्संरचना की भी आवश्यकता है जिसमें शाखाओं को युक्तिसंगत बनाना और कारोबार को युक्तिसंगत बनाना भी शामिल है जिससे बैंकिंग सेवाएं उत्पाद और ग्राहकों के अनुकूल बन सकें। इस संदर्भ में मैं इस बात पर बल देना चाहूंगा कि बैंकों को बदलते हुए प्रबंध की संकल्पना को स्वीकार कर लेना चाहिए। बैंकों को अब टीम बनाने और अपने स्टाफ को विकसित बाजार तथा ग्राहकोन्मुखी वित्तीय प्रणाली के अनुसार ढालने पर अपना ध्यान केन्द्रित करना चाहिए।

पर्यवेक्षण + (प्लस)

भारत में उदारीकरण की अवधि के बाद बैंकिंग पर्यवेक्षण की कार्य सूची का एक प्रमुख मुद्दा अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम संव्यवहारों पर आधारित विवेकसम्मत विनियमों की व्यवस्था के अनुपालन को प्रोन्नत करना रहा है। जहां बैंकों ने विनियामक अपेक्षाओं के प्रति अपनी प्रतिक्रिया भलीभांति व्यक्त की है, वहीं अब उन्हें बाहर से आरोपित पर्यवेक्षण से आगे बढ़कर आंतरिक रूप से पर्यवेक्षण को अपनाने की आवश्यकता है और इसके लिए मानकों और आंतरिक नियंत्रणों को सुस्थापित करना होगा जो कि भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित मानकों और नियंत्रणों से कहीं अधिक कठोर हैं। विवेक-सम्मत विनियमन न्यूनतम अपेक्षा समझी जानी चाहिए और बैंकों को चाहिये कि वे ऐसे आंतरिक आधार चिह्न स्थापित करें जो पर्यवेक्षकों द्वारा अधिदेशित आधार चिह्न से और भी आगे जाते हैं। मैं इस दृष्टिकोण को पर्यवेक्षण + कहना चाहूंगा। यह कोई नया दृष्टिकोण नहीं है। सुप्रबन्धित अंतर्राष्ट्रीय बैंक इस दृष्टिकोण को पहले ही अपना रहे हैं चाहे वे पूंजी आबंटन के मामले में हाें या जोखिम मानदंडों के स्थापना के बारे में अथवा प्रावधानों के पर्याप्त स्तर निर्धारित करने के मामले में हों।

कम्पनियों के तुलनपत्र, बैंकिंग प्रणाली के तुलनपत्र मे दर्शाये जाते हैं और उनकी वित्तीय स्थिति बैंकिंग प्रणाली की वित्तीय स्थिति को प्रभावित करती है। कम्पनी (यहां तक कि सार्वजनिक) क्षेत्र में अत्यधिक लिवरेज देने से, विशेषकर वित्तीय प्रणाली से उधार लेकर, अर्थव्यवस्था को कमजोर करने में योगदान कर सकते हैं। ऐसी स्थिति विकसित हो इससे सुरक्षा प्रदान करने की दृष्टि से बैंकों को चाहे वे व्यक्तिगत और सामूहिक जोखिम मानदंडों को स्थापित करें जो कि भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा निर्धारित 20 प्रतिशत और 50 प्रतिशत से कम हों। बैंकों को चाहिये कि वे उधार लेनेवाली संस्थाओं, विशेषकर, बड़े उधारकर्ताओं और समूहों के संबंध में ऋण इक्विटी अनुपात पर आंकड़े संग्रहित करें ताकि इन ऋणकर्ताओं को अत्यधिक उधारकर्ता संस्थाओं के रूप में बनाने से रोका जा सकें क्योंकि ये वित्तीय प्रणाली के लिए एक व्यवस्थागत खतरा बन जाता है।

आस्ति-गुणवत्ता के क्षेत्र में मात्र परिभाषा देने व ी तुलना में जो अधिक महत्त्वपूर्ण मुद्दे हैं, वे हैं : वे सीमाएं जिन तक बैंकों ने अपने गैर-निष्पादक आस्तियों के लिए न्यूनतम निर्धारित अपेक्षाओं से अधिक प्रभावित किया है। सहज बुद्धि की दृष्टि से बैंकों के लिये यह वांछनीय होगा कि वे निकट भविष्य में अपने कुल गैर-निष्पादक ऋणों के 50 प्रतिशत तक के स्तर तक हानिगत ऋण के रूप में प्रावधान करने का प्रयास करें।

हाल ही में हमने इरादतन चूककर्ताओं की सूची बैंकों और वित्त संस्थाओं के बीच परिचालित करना शुरू कर दिया है। बैंकों को स्वाभाविक चूककर्ताओं और इरादतन  चूककर्ताओं के बीच भेद करने की कला सीखनी चाहिए। जहां पहली श्रेणी के संबंध में भिन्न दृष्टिकोण पर विचार किया जा सकता है वहीं इरादतन चूककर्ताओं पर बैंकों को सख्ती से पेश आना चाहिए और कुछ बड़े इरादतन चूककर्ताओं पर फौजदारी मामले शुरू करने पर विचार करना चाहिए जिससे कि बाकी जानबूझकर चूककर्ताओं तथा हठी उधारकर्ताओं पर निश्चयात्मक प्रभाव पड़ सके।

सारांश

भारतीय बैंकिंग प्रणाली सीमा की कसौटी पर खरी उतरी है और इसमें वह आंतरिक शक्ति है कि वह अपने आप को बदलते परिवेश के अनुसार ढल सकती है। जिस चीज की आवश्यकता है कि वह है - उपयुक्त मार्गदर्शन और प्रेरणा। नेतृत्व ऐसा हो जो अपने कार्मिकों में विश्वास जगा सके तब वे पायेंगे कि उनका कार्य बहुत आसान हो गया है।

*उप गवर्नर श्री एस. पी. तलवार द्वारा 16 जनवरी, 2001 को नई दिल्ली में बैंक अर्थशास्रियों के सम्मेलन में प्रस्तुत व्याख्यान के उद्धरण

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