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वित्तीय स्थिरता : मुद्दे एवं चुनौतियां* - दुव्वुरी सुब्बाराव

डॉ. डी. सुब्बाराव, गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक

उद्बोधन दिया

वित्तीय स्थिरता : मुद्दे एवं चुनौतियां*
दुव्वुरी सुब्बाराव

* भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर डॉ. दुव्वुरी सुब्बाराव द्वारा 10 सितम्बर 2009 को मुंबई में फिक्की और आईबीए द्वारा ‘वैश्विक बैंकिंग : आमूलचूल परिवर्तन’ विषय पर संयुक्त रूप से आयोजित फिक्की-आईबीए सम्मेलन में दिया गया समापन भाषण।

I. वैश्विक बैंकिंग - आमूलचूल परिवर्तन

‘‘वैश्विक बैंकिंग : आमूलचूल परिवर्तन’’ विषय पर फिक्की-आईबीए के इस सम्मेलन में सहभागिता के लिए मुझे आमंत्रित करने के लिए धन्यवाद। मैं यह मानता हूं कि यह वार्षिक कैलेण्डर में महत्वपूर्ण बैंकिंग सम्मेलन में से एक है, इसलिए मैं यह सोचता रहा कि इस समापन भाषण में मुझे क्या कहना चाहिए जो सम्मेलन के विषय का प्रमुख हिस्सा है।

2. स्वाभाविक रूप से गत एक वर्ष के सार्वजनिक भाषणों में वैश्विक वित्तीय संकट ही छाया रहा है और इन भाषणों के महत्वपूर्ण पहलुओं में से एक वैश्विक बैंकिंग का भविष्य रहा है। दुनियाभर में विनियामक संरचना किस प्रकार पुनर्कल्पित की जाती है, वह वैश्विक बैंकिंग के आमूलचूल परिवर्तन का महत्वपूर्ण निर्धारक तत्त्व होगी। वर्ष 1962 में प्रकाशित ‘वैज्ञानिक क्रांतियों की संरचना’ पुस्तक में थॉमस कुहन ने तर्क दिया था कि जब प्रचलित वैज्ञानिक सिद्धांत के विरुद्ध प्रचुर प्रमाण एकत्रित हो जाते हैं तब उस सिद्धांत को अस्वीकार कर नये सिद्धांत को स्वीकार कर लिया जाता है, जो आमूलचूल परिवर्तन का संकेत है। जब हम संकट से मिली सीख पर चिंतन करते हैं तो यह प्रश्न उठता है कि केंद्रीय बैंकिंग और विनियमन के पुराने मॉडल के विरुद्ध क्या प्रमाण है और नया मॉडल क्या है? अपेक्षित आमूलचूल परिवर्तन क्या है? आज शाम के अपने इस भाषण में मैं इस आमूलचूल परिवर्तन के कुछ मुद्दों पर ही अपना ध्यान केंद्रित करूंगा।

II. वित्तीय स्थिरता - संकट से मुख्य सीख

विश्वास समाप्त होना

3. विश्व भर में मोटे तौर पर इस बात पर मतैक्य लगता है कि संकट का सबसे बुरा दौर पीछे छूट चुका है। दूसरी महा मंदी की ओर बढ़ने की जोखिम - जिसके मार्च में ही आने की आशंका थी - यदि पूरी तरह से समाप्त नहीं हुई तो काफी हद कम तो हुई है। फिर भी विश्वभर में इससे उबरने की गति और स्वरूप पर अत्यधिक विवाद है। इस विवाद पर किसी का कोई भी मत हो, हरेक व्यक्ति इस बात पर सहमत है कि मंदी से उभरने की गति और स्वरूप का केंद्र-बिन्दु वित्तीय प्रणाली में विश्वास को बहाल करना है। इस संकट में यह देखा गया है कि उसमें यदि स्वयं बाजार प्रणाली से विश्वास नहीं टूटा है तो संपूर्ण वित्तीय प्रणाली में विश्वास - बैंकों और गैर-बैंकों में विश्वास, केंद्रीय बैंकों और अन्य विनियामकों में विश्वास, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और निवेश सलाहकारों में विश्वास, ब्रोकरों, डीलरों एवं व्यापारियों में विश्वास और वित्तीय बाजारों में विश्वास - टूटा है।

वित्तीय अस्थिरता की संरचना

4. सितम्बर 2008 के मध्य में लेहमान ब्रदर्स के विफल होने के बाद विश्वास अचानक टूट गया जिसके कारण उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के वित्तीय बाजारों को झटका लगा। अचानक, न केवल हानि की मात्रा और उन हानियों को सहने के बैंकों के सामर्थ्य के बारे में, बल्कि उस प्रणाली में जोखिम की मात्रा, उसकी स्थिति और उसके विस्फोट के बारे में भी अनिश्चितता उत्पन्न हो गई। इस अनिश्चितता से अभूतपूर्व आतंक फैल गया और इसने वित्तीय मध्यस्थता की संपूर्ण श्रृंखला को लगभग पूरी तरह से पंगु बना दिया। बैंकों ने चलनिधि को रोक कर रखा। ऋण, बांड और इक्विटी बाजार लगभग ठण्डे पड़ गये। सुरक्षा की ओर व्यापक झुकाव का संकेत करते हुए, सरकारी प्रतिभूतियों पर प्रतिफल कम हो गया, वहीं सभी बाजार खंडों में जोखिम-मुक्त सरकारी प्रतिभूतियों में स्प्रेड अत्यधिक बढ़ गया। अनेक कमजोर वित्तीय संस्थाएं विफल होने के कगार पर पहुंच गईंं।  अत्यधिक डिलीवरेजिंग से आस्तियों के मूल्य घट गये जिससे दुष्चक्र की शुरुआत हुई। विश्वास पूरी तरह से समाप्त हो गया।

5. संकट का केंद्र उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में रहा, लेकिन यह शीघ्र ही दोनों दिशाओं में फैल गया। पहला, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में यह वित्तीय क्षेत्र से वास्तविक क्षेत्र में फैला जिससे उपभोग, निवेश, निर्यात और आयात गंभीर रूप से प्रभावित हुए । दूसरा, यह भौगोलिक रूप से उन्नत अर्थव्यवस्थाओं से उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं तक फैल गया और शीघ्र ही व्यापार, वित्त और विश्वास माध्यमों से लगभग पूरी दुनिया को चपेट में ले लिया। संक्षेप में, जिस वित्तीय स्थिरता को हम मानकर चलते थे, वह क्षीण हो गई।

वित्तीय स्थिरता ने केंद्रीय स्थान लिया

6. असल में संकट से प्राप्त अनेक सीखों में एक यह है कि वित्तीय स्थिरता मानकर नहीं चला जा सकता। हमने देखा है कि वित्तीय स्थिरता जोखिम में पड़ सकती है भले ही मूल्य स्थिरता और बृहत्-आर्थिक स्थिरता हो। हमने देखा है कि विश्व में कहीं पर भी वित्तीय स्थिरता के प्रति खतरा संभवत: सर्वत्र वित्तीय स्थिरता को खतरे में डाल सकता है। हमने यह सीखा है कि वित्तीय स्थिरता को आर्थिक नीति के अव्यक्त परिवर्ती से व्यक्त परिवर्ती में बदलना है।

7. जैसाकि हमने देखा है वित्तीय अस्थिरता सर्वाधिक उन्नत अर्थव्यवस्थाओं को भी चोट पहुंचा सकती है लेकिन यह विशेष रूप से गरीब एवं विकासशील अर्थव्यवस्थाओं को गंभीर नुकसान पहुंचा सकती है। कम आय स्तर वाले लोगों के पास अधोगामी जोखिम वहन करने की कोई गुंजाइश नहीं होती है और वित्तीय अस्थिरता से उनकी आजीविका विघटित हो सकती है। अत: यह अधिक महत्वपूर्ण है कि हमारे जैसे देश वित्तीय स्थिरता को बनाये रखने पर विशेष ध्यान दें, भले ही हम देश में अपने वित्तीय क्षेत्र को अधिक गहन और व्यापक करें और उसे शेष दुनिया से एकीकृत करें।

8. वित्तीय स्थिरता के प्रबंधन में वित्तीय क्षेत्र के हम सभी की भूमिका है। इस विषय को हमारे अधिदेश का केंद्रबिन्दु मानकर इस शाम में मैं अपना अभिमत वित्तीय स्थिरता पर केंद्रित करूंगा। मैं अपनी बात इस तथ्य की जांच करते हुए शुरू करूंगा कि केंद्रीय बैंकों ने कैसे और क्यों दरारों के द्वारा वित्तीय स्थिरता को गिरने दिया और फिर प्रणाली में सुधार के लिए जारी अंतरराष्ट्रीय पहलों की समीक्षा करूंगा। इसके बाद मैं वित्तीय स्थिरता के संबंध में विशेष रूप से भारतीय दृष्टिकोण स्पष्ट करूंगा, जिसमें हमारी नीति और विनियामक ढाँचे में स्थिरता को बढ़ाने वाली विशेषताओं पर प्रकाश डालूंगा। अंत में, मैं कुछ भावी मुद्दों और चुनौतियों पर एक नजर डालूंगा।

III. केंद्रीय बैंक और वित्तीय स्थिरता

9. दुनिया भर के केंद्रीय बैंक संकट से मुकाबला करने में स्पष्ट रूप से सबसे आगे हैं। जहां वे स्पष्ट रूप से समाधान का हिस्सा हैं, वहीं उनसे ये प्रश्न पूछे जा रहे हैं कि क्या वे वास्तव में समस्या के हिस्से थे? विशेषकर, क्या वे आते हुए संकट को देखने में विफल रहे? क्या वे बन रहे अतिरेक को रोकने में वक्र के पीछे थे? क्या उन्होंने मूल्य स्थिरता के अपने उत्साही अनुसरण में वित्तीय स्थिरता की उपेक्षा की? इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि क्या उन्होंने ऐसा व्यवहार इसलिए किया क्योंकि जबाबदेही संबंधी प्रणाली कमजोर थी? इन प्रश्नों के समाधान के लिए मैं केंद्रीय बैंकों की तीन पक्की विफलताओं के बारे में बताता हूं।

पहली विफलता - मूल्य स्थिरता पर अनन्य संकेंद्रण

10. संकट से पहले के वर्षों में मुद्रास्फीति को लक्षित करने के लिए प्रभावशाली बौद्धिक सर्वसम्मति देखी गई। बड़ी संख्या में केंद्रीय बैंकों, जिनकी संख्या अस्सी के दशक के उत्तरार्द्ध में न्यूजीलैंड से आरंभ कर वर्तमान में 20 से अधिक है, ने मौद्रिक नीति में अनन्य रूप से मुद्रास्फीति को स्थिर करने पर बल दिया। जिन केंद्रीय बैंकों ने स्पष्ट तौर पर मुद्रास्फीति दर को लक्ष्य नहीं बनाया, उनकी नीतियों का उद्देश्य प्रमुख रूप से मूल्य स्थिरता नहीं भी था, तो भी उसे ध्यान में रखा गया था। यह दृष्टिकोण सफल लगा। स्थिर वृद्धि और न्यून रोजगार के साथ मूल्य स्थिरता की विस्तारित अवधि थी। यह धारणा कि मूल्य स्थिरता वित्तीय स्थिरता भी प्रदान करेगी, अभिपुष्ट हुई लगती है। सत्तर के दशक के ‘स्टैगफ्लेशन’ के घिनौने दौर ने टक्कर लेने और कारोबारी चक्र को वश में करने के बाद केंद्रीय बैंकों ने जीत घोषित की। उन्होंने पवित्र थाली की खोज कर ली।

11. संकट ने जीत की उस भावना को कुण्ठित कर दिया। इसने अनन्य रूप से मुद्रास्फीति को लक्ष्य बनाने की बुद्धिमत्ता पर प्रश्नचिहन लगाया और मौद्रिक नीति का एकमात्र उद्देश्य मूल्य स्थिरता होने की धारणा को चुनौती दी। इसने केंद्रीय बैंकों के नीतिगत मैट्रिक्स में सुस्पष्ट चर के रूप में वित्तीय स्थिरता की अभिस्वीकृति के महत्व को रेखांकित किया है।

दूसरी विफलता - आस्तियों के मूल्य के बुलबुले को रोकने में विफलता

12. केंद्रीय बैंकिंग की दूसरी और संबद्ध विशेषता, जिससे संकट आया, थी - आस्ति मूल्यों में वृद्धि और वित्तीय असंतुलन के प्रति की गई थोड़ी उपेक्षा। विशेषकर, आस्ति मूल्य मुद्रास्फीति के प्रति सुविचारित उदासीनता वाली मौद्रिक नीति अवस्थिति उससे उत्पन्न हुई थी जो अब ग्रीनस्पैन रूढ़िवादिता के नाम से बदनाम है जिसका सारांश इस प्रकार है। पहला, आस्ति मूल्य के बुलबुले को तत्काल आधार पर पहचानना मुश्किल है और जिन बुनियादी कारकों से आस्तियों के मूल्य बढ़ते हैं, वे सीधे तौर पर दृष्टिगोचर नहीं होते। दूसरा, आस्तियों के मूल्यों को बढ़ने से रोकने के लिए मौद्रिक नीति बहुत ही छोटा साधन है। तीसरा, यह नहीं माना जा सकता कि केंद्रीय बैंक को बाजार से अधिक जानकारी होती है। तथापि, वित्तीय बाजार कार्यक्षम, तर्कसंगत और स्वत: ठीक होने वाले हैं। बाजार को ठीक करने का केंद्रीय बैंक का कोई भी कार्य न केवल अनावश्यक होगा बल्कि इष्टतम से कम ही होगा। अत: यह अंदाजा था कि ‘हवा के विरुद्ध झुकने’ की अधिक सक्रियवादी मौद्रिक अवस्थिति की लागत-लाभ गणना स्पष्ट रूप से नकारात्मक थी। अत: मौद्रिक नीति के लिए अधिक किफायती यह माना गया कि बुलबुले में पहले ही छेद करने की बजाय इसको फटने और उसको साफ होने का इंतजार किया जाये।

तीसरी विफलता - विनियमन में नरमी

13. तीसरी गलती जिसके लिए केंद्रीय बैंकों और वित्तीय क्षेत्र के विनियामकों, जहां वे केंद्रीय बैंकों से अलग हैं, को उत्तरदायी ठहराया गया है, वह थी विनियमन में नरमी। अनेक कारक - तराश कर जटिल योजनाओं का नवोन्मेष, उद्भूत करके वितरित करने का उधार देने का तरीका, व्युत्पन्न उत्पादों का दुरुपयोग, ऐसा प्रतिभूतिकरण जिसने तुलनपत्र से इतर कार्यकलापों को आक्रामक रूप से प्रोत्साहित किया, ढीला पर्यवेक्षण और विनियमन - ने प्रणालीगत जोखिम को चरम बिन्दु पर पहुंचाया और यह जोखिम प्रबंध प्रणालियों के बढ़ते परिष्करण के बावजूद हुआ। विनियमन विशिष्ट रूप से वैयक्तिक संस्था पर केद्रित थे, जिनमें संघटन की इस भ्रांति को नहीं माना गया था कि प्रणाली के भीतर अलग-अलग संस्थाओं के स्थिर रहने के बावजूद प्रणालीगत स्थिरता जोखिम में पड़ सकती है। बैंकों की विनियामक प्रणाली के बाहर बैंक-जैसी संस्थाओं का पूरा नेटवर्क उभरा और फला-फूला, जिसे ‘प्रतिच्छाया बैंकिंग प्रणाली ’ कहा जाता है। विनियामक विवाचन सामान्य प्रथा बन गई क्योंकि बैंकों ने प्रतिच्छाया प्रणाली में जोखिम को संबद्ध संस्थाओं में अंतरित कर दिया और पूंजी अपेक्षाओं से बच गये।

चेतावनियों की उपेक्षा

14. ऐसा नहीं है कि वित्तीय स्थिरता में जोखिम चुपके से आई। कई अंतरराष्ट्रीय मंच बृहत्-आर्थिक असंतुलनों, आस्तियों के बढ़ते मूल्य, ऋण विस्तार और घटे हुए जोखिम प्रीमियम के कारण बढ़ते खतरों के बारे में चर्चा कर रहे थे तथा कुछ ने आसन्न संकट के बारे में सावधानियां और चेतावनियां जारी की थीं। लेकिन केंद्रीय बैंक विभिन्न कारणों - आस्ति मूल्य के बुलबुले को मिटाने के लिए मौद्रिक नीति की अनुभवजन्य अकार्यकुशलता, मौद्रिक और विनियामक नीतियों का अलग-अलग होना तथा वित्तीय बाजारों के स्वत: ठीक होने वाले बलों में अनुचित विश्वास - से सुदृढ़ सुधारात्मक कार्रवाई करने से अधिकांशत: बचते रहे। कम से कम कुछ केंद्रीय बैंकों ने असल में इस बात पर विश्वास किया कि महा मंदी ने बृहत्-आर्थिक सक्रियता को स्थायी रूप से बदल दिया है और अच्छा समय हमेशा के लिए आ जाएगा। इन सब का निवल परिणाम यह हुआ कि वित्तीय स्थिरिता पर जो ध्यान केंद्रीय बैंक को देना चाहिए था, उसमें वह विफल रहा।

IV. वित्तीय स्थिरता के लिए विश्व भर में कार्रवाई

15. जैसीकि आशा थी, संकट ने इस बात पर जोरदार बहस छेड़ दी कि वित्तीय स्थिरता को किस प्रकार बचाया जाये। हालांकि संकट पूरी तरह से हमसे दूर नहीं हुआ है लेकिन इससे हमें कई प्रकार की सीख मिली है। पहली, यह कि इलाज की बजाय रोकथाम अच्छा है और कि असंतुलन होने से रोकने के लिए केंद्रीय बैंकों को प्रति-चक्रीय नीतिगत कार्रवाई करनी चाहिए। दूसरी, इस बात पर लगभग सर्वसम्मति बन रही है कि केंद्रीय बैंक के कार्यक्षेत्र में वित्तीय स्थिरता को स्पष्टतया शामिल करना चाहिए। तीसरी, इस बात पर सहमति बढ़ रही है कि वित्तीय स्थिरता को सूक्ष्म और बृहत्, दोनों परिप्रेक्ष्यों में समझने और समाधान करने की जरूरत है। सूक्ष्म स्तर पर हमें यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि हर एक संस्था अच्छी, सुरक्षित और सुदृढ़ है, इसके अलावा हमें बृहत् स्तर पर वित्तीय स्थिरता को सुरक्षित रखने की जरूरत है।

16. अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली के लचीलेपन को संभालने के लिए पहले से किये गये महत्वपूर्ण कार्यों में बासेल II पूंजी ढाँचे में वृद्धि, विशेषकर बैंकों की ट्रेडिंग और तुलनपत्र से इतर प्रतिभूतिकरण कार्यकलापों के संबंध में, अभिशासन के संबंध में बैंकों और वित्तीय संस्थाओं के लिए सुदृढ़ जोखिम प्रबंध मानक निर्धारित करना, चलनिधि जोखिम और दबाव परीक्षण का प्रबंधन एवं प्रकटन, बासेल पूंजी ढाँचे में सुदृढ़ क्षतिपूर्ति सिद्धांतों का समाकलन करना, व्युत्पन्न व्यापार के लिए केंद्रीय प्रतिपक्षकारों की शुरुआत करना, विशेष प्रयोजन साधनों का समेकन बढ़ाने के लिए नये लेखांकन मानक तैयार करना, ऐसी संस्थाओं के साथ बैंकों के संबंध पारदर्शक बनाना और बचाव निधियों के निरीक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहमत सिद्धांत जारी करना शामिल हैं।

17. पहले से ही शुरू की गई कार्रवाइयों के अलावा, स्थिरता को मजबूत करने के लिए कई पहलों पर कार्य जारी है और मैं कुछ अधिक महत्वपूर्ण कार्यों पर प्रकाश डालना चाहता हूं।

  • विनियामक पूंजी ढाँचे को मजबूत करना : इस बात को मानते हुए कि बैंकिंग क्षेत्र पूंजी के अपर्याप्त स्तर और गुणवत्ता के कारण संकट में पड़ा है, बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासेल समिति बैंकों के पूंजी आधार की गुणवत्ता, सुसंगति और पारदर्शिता को सुदृढ़ करने के लिए ठोस प्रस्ताव तैयार कर रही है।

  • वैश्विक चलनिधि मानक तैयार करना : इस बात को मानते हुए कि बैंकों की अतरलता की स्थिति इनकी शोधक्षमता को उतनी ही जोखिम में डाल सकती है जितनी कि अपर्याप्त पूंजी और साथ ही वित्तीय प्रणाली की स्थिरता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकती है, चलनिधि जोखिम विनियमन और पर्यवेक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय ढाँचा तैयार करने पर काम चल रहा है।

  • सीमापारीय संस्थाओं के पर्यवेक्षण को सुदृढ़ बनाना : सीमापारीय वित्तीय संगुटों की बढ़ती संख्या और जोखिम संचारित करने में उनकी भूमिका को देखते हुए विनियामकों के बीच सीमापार सहयोग करने और पर्यवेक्षी मंडल स्थापित करने की व्यवस्था की जा रही है।

  • बृहत् विवेकपूर्ण ढाँचे को सुदृढ़ बनाना : विनियमन विशेष रूप से अलग-अलग संस्थाओं पर केंद्रित है जो, जैसाकि अब प्रकट हो गया है, आवश्यक है लेकिन पर्याप्त नहीं है। प्रणालीगत स्थिरता पर निगरानी रखना भी उतना ही महत्वपूर्ण है। बासेल समिति अब प्रचक्रीयता और प्रणालीगत जोखिम मुद्दों के समाधान के लिए बृहत्-विवेकपूर्ण विनियमन तैयार कर रही है।

  • अंतरराष्ट्रीय लेखांकन मानकों की समीक्षा करना : ऐसा मत है कि कुछ मौजूदा लेखांकन मानकों ने बाजार अस्थिरता में योगदान दिया है।  वित्तीय स्थिरता बोर्ड और लेखांकन मानक निकाय मानकों, विशेषकर उनको जो वित्तीय लिखतों और उनके मूल्यांकन से संबंधित हैं, को संशोधित करने पर मंत्रणा कर रहे हैं।

  • विनियमन की परिधि को बढ़ाना : गैर-बैंकों पर लागू किये जाने वाले पंजीकरण, विनियामक प्रकटन और रिपोर्टिंग संबंधी अपेक्षाओं को नियंत्रित करने वाला वैश्विक ढाँचा तैयार किया जा रहा है। जो सिद्धांत पेश किया जा रहा है उसमें यदि कोई संस्था बैंक की तरह दिखती और व्यवहार करती है तो उसे, उसका विधिक रूप कोई भी हो, बैंक की तरह नियंत्रित किया जाना चाहिए।

  • क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के पर्यवेक्षण को मजबूत करना : इस संकट ने क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की सत्यनिष्ठा, आचार-व्यवहार और कारोबारी मॉडल पर प्रश्नचिहन लगा दिया है। प्रक्रियाधीन सुधारात्मक पहलों में क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों का अधिक सुदृढ़ विनियमन, हितों के संघर्ष को मिटाने के उपाय, संरचित और अन्य उत्पादों की रेटिंग में अंतर तथा रेटिंग प्रक्रिया की सत्यनिष्ठा को सुदृढ़ करना शामिल हैं।

  • क्षतिपूर्ति संरचना को तर्कसंगत बनाना : इस बात पर सहमति है कि बड़ी वित्तीय संस्थाओं में क्षतिपूर्ति संरचना से दीर्घकालिक वहनीयता की लागत पर लाभ को अधिकाधिक करने के लिए स्टाफ को विकृत प्रोत्साहन को बढ़ावा मिला है। प्रस्तावित परिवर्तनों का मुख्य उद्देश्य ऐसी क्षतिपूर्ति योजना को बढ़ावा देना है जो उसमें अंतर्निहित जोखिमों को प्रदर्शित करे और जिसमें अदायगी को पृष्ठभारित करना और भरपाई (क्ला बैक) खंड शामिल हो, जिनके तहत भावी स्थिति हानियों के आधार पर बोनस को पूर्वप्रभावी रूप से समायोजित किया जाए।

18. जी-20, विस्तारित वित्तीय स्थिरता बोर्ड (एफएसबी) और बैंकिंग पर्यवेक्षण की बासेल समिति (बीसीबीएस) का सदस्य होने के नाते भारत इन कई अंतरराष्ट्रीय पहलों में सक्रिय रूप से लगा हुआ है। हमारा कार्य संकट से सीख लेना, अंतरराष्ट्रीय बेहतरीन पद्धतियों को समझना और हमारे संदर्भ में उनको अनुकूल बनाना होगा।

V. वित्तीय स्थिरता - भारतीय दृष्टिकोण

संकट के दौरान भारत में वित्तीय स्थिरता

19. ऐसे विप्लवकारी संकट के समय में भी हमारा वित्तीय क्षेत्र सुरक्षित और सुदृढ़ बना रहा तथा हमारे वित्तीय बाजार सामान्य रूप से कार्य करते रहे। बेशक हमें संकट से चोट पहुंची है लेकिन अधिकांश अन्यों की तुलना में बहुत कम। हालांकि यह मूर्खता होगी कि हम इससे आत्मसंतुष्ट होकर बैठ जाएं और इस बात पर विश्वास कर लें कि भारतीय वित्तीय स्थिरता के बारे में कुछ ऐसा है जो अपरिहार्य है। जैसे-जैसे भारत शेष दुनिया के साथ और एकीकृत होता जाएगा, हम अपरिहार्य रूप से वैश्वीकरण की ताकतों से धीरे-धीरे अरक्षित होते जाएंगे। हम वैश्वीकृत और साथ ही ‘विसंयोजन’ में रहने की आशा नहीं कर सकते। असल में इस संकट ने यह प्रदर्शित किया है कि ‘विसंयोजन’ ऐसा देवता है जो विफल हो गया है। यदि वित्तीय स्थिरता पर दुनिया में कहीं संकट आता है तो हमारी वित्तीय स्थिरता भी असुरक्षित हो जायेगी।

वित्तीय स्थिरता के प्रति भारत का दृष्टिकोण

20. ‘एकल उद्देश्य, एकल लिखत’ के न्यूनतमवादी सूत्र के विपरीत, रिज़र्व बैंक द्वारा मौद्रिक नीति का संचालन बहु-उद्देश्यों और बहु-लिखतों द्वारा निर्देशित होता है। सामान्य तौर पर हमारे उद्देश्यों में आपसी प्राथमिकता के साथ तीन प्रमुख उद्देश्य मूल्य स्थिरता, विकास और वित्तीय स्थिरता रहे हैं जो बृहत्-आर्थिक परिस्थितियों के आधार पर समय-समय पर बदलते रहे हैं।

21. वित्तीय स्थिरता को बचाने के लिए हमारे दृष्टिकोण की प्रमुख विशेषताएं क्या रही हैं? वित्तीय वैश्वीकरण के मामले में हमारी अवस्थिति आनुक्रमिक - धीरे-धीरे शीघ्रता लाने - की रही है। हम पूंजी खाते के उदारीकरण को प्रक्रिया मानते हैं न कि घटना। इसको खोलने की सीमा अन्य क्षेत्रों में प्रगति के अधीन है। नीतिगत ढाँचा इक्विटी प्रवाह, विशेषकर सीधे निवेश प्रवाह को प्रोत्साहित करता है लेकिन ऋण प्रवाह के लिए कुछ प्रतिबंध हैं जिनकी आवधिक आधार पर समीक्षा कर उसे परिष्कृत किया जाता है। विनिमय दर मोटे तौर पर बाजार द्वारा निर्धारित की जाती है और हम अत्यधिक अस्थिरता के समय ही विदेशी मुद्रा विनिमय बाजार में हस्तक्षेप करते हैं।

22. वित्तीय क्षेत्र के विनियमन के संबंध में हमारा दृष्टिकोण इस तथ्य पर आधारित होता है कि हमारी प्रणाली में वाणिज्य बैंकों का प्रभुत्व है। अत: रिज़र्व बैंक ने नब्बे के दशक के मध्य में ही समग्र संरचनागत सुधार के हिस्से के रूप में बैंकों, विशेषकर वाणिज्य बैंकों, को नियंत्रित करने वाले विवेकपूर्ण ढाँचे की शुरुआत कर दी थी। अप्रैल 2009 को हमारे वाणिज्य बैंक बासेल II अनुपालक थे।

23. हमने बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थाओं पर संकेद्रित विनियमन और पर्यवेक्षण के लिए रिज़र्व बैंक के अधिकार क्षेत्र के अधीन वित्तीय पर्यवेक्षण बोर्ड गठित किया है। हमने लिखतों, उत्पादों और सहभागियों के रूप में वित्तीय बाजारों को जहां व्यापक एवं गहन बनाया, वहीं साथ ही आकर्षक उत्पादों के प्रति सतर्क दृष्टिकोण बनाये रखा।

भारत - वित्तीय स्थिरता के लिए महत्वपूर्ण उपाय

24. हमारी प्रणाली की उन कुछ विशिष्ट विशेषताओं पर प्रकाश डालना प्रासंगिक होगा जिनका वित्तीय स्थिरता में योगदान रहा है

  • बैंकों से यह अपेक्षा है कि वे सांविधिक चलनिधि अनुपात (एसएलआर) प्रणाली के अंतर्गत उनकी देयताओं का एक न्यूनतम प्रतिशत जोखिम-मुक्त सरकारी प्रतिभूतियों में रखें। यह शर्त सुनिश्चित करती है कि दबाव के समय बैंकों के पास चलनिधि का बफर रहे।

  • हमने पूंजी खाते का सक्रिय रूप से प्रबंध किया। वर्ष 2006-08 के दौरान बड़े पूंजी अंतर्वाह के कारण उत्पन्न अतिरिक्त चलनिधि को हमने नकदी आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में सुविचारित बढ़ोतरी करने और बाजार स्थिरीकरण योजना (एमएसएस) प्रतिभूतियों के निर्गम के जरिये निष्फल किया। जब 2008 की अंतिम तिमाही के दौरान प्रवाह उलटा हुआ, तो हमने भी उपायों को उलट दिया।  हमने सीआरआर में कमी की और बैंकिंग प्रणाली में चलनिधि उपलब्ध कराने के लिए एमएसएस प्रतिभूतियों का पुन:क्रय किया।

  • ‘संवेदनशील क्षेत्रों’ के लिए पूर्वक्रयात्मक प्रतिचक्रीय प्रावधानीकरण और विभेदित जोखिम भार की शर्त के ज़रिये हम कुछ क्षेत्रों में उच्च ऋण वृद्धि के प्रतिकूल प्रभाव और बैंकों के तुलनपत्र पर आस्ति मूल्य उतार-चढ़ाव को रोक पाये थे। 

प्रतिभूतिकरण मूल्य-योजक है, यह सुनिश्चित करने के लिए हम ‘सही बिक्री’ और ऋण संवृद्धि पर बल देते हैं तथा चलनिधि सहायता पूंजी विनियमनों के अधीन है। हमें एसपीवी को आस्तियों की बिक्री से लाभ की भी जरूरत होती है जिसे जारी प्रतिभूतियों के जीवनकाल में परिशोधित किया जाना है।

  • एकदिवसीय अप्रतिभूत मांग बाजार में प्रवेश बैंकों और प्राथमिक डीलरों तक सीमित किया गया है। अन्य संस्थाएं एकदिवसीय बाजार में केवल ऐसी संपार्श्विकीकृत लिखतों के जरिये ही प्रवेश कर सकती हैं जो केंद्रीय प्रतिपक्षी द्वारा गारंटीकृत आधार पर समाशोधित और निपटान किये हुए हों।

  • विनियमन और पर्यवेक्षण को व्यवस्थित तरीके से महत्वपूर्ण गैर-जमा स्वीकार करने वाली, गैर-बैंकिंग वित्त कंपनियों तक बढ़ाया गया है और इसमें विनियामक अंतरपणन के लिए सीमित लीवरेज और स्थान है।

  • गैर-बैंक वित्त कंपनियों के प्रति बैंकों के एक्सपोजर को विवेकपूर्ण ढाँचे के अधीन लाकर प्रणालीगत अंतरसंबद्धता का समाधान किया गया है। 

  • केंद्रीय प्रतिपक्षी (सीसीपी) समाशोधन और गारंटीकृत निपटान वर्तमान में सरकारी प्रतिभूतियों के लेनदेनों और अंतर-बैंक रुपया-अमरीकी डॉलर विदेशी मुद्रा लेनदेनों के लिए लागू है। विदेशी मुद्रा वायदों और ओटीसी रुपया ब्याज दर स्वैप के लिए सीसीपी गारंटीकृत व्यवस्थाएं की जा रही हैं।

रिज़र्व बैंक में वित्तीय स्थिरता इकाई

25. जैसाकि आप उपर्युक्त सूचीबद्धता से नोट करेंगे, हमने वित्तीय स्थिरता को बनाये रखने के लिए मौद्रिक एवं विनियामक दोनों उपायों का उपयोग किया है। यह सहक्रियात्मक दृष्टिकोण इसलिए संभव हो पाया है क्योंकि रिज़र्व बैंक मौद्रिक प्राधिकारी और बैंकों, गैर-बैंकों एवं वित्तीय बाजारों के बड़े खंड का विनियामक दोनों है। भविष्य में हमारे वित्तीय बाजार और अधिक गहन तथा व्यापक होंगे और हम धीरे-धीरे वैश्वीकरण की शक्तियों से अरक्षित होते जाएंगे। इन सबका हमारी वित्तीय स्थिरता पर प्रभाव पड़ेगा। रिज़र्व बैंक वित्तीय स्थिरता और इस क्षेत्र में हमारे कौशल में सुधार पर अधिक ध्यान देने की जरूरत के प्रति सचेत है। इस दिशा में शुरुआत के तौर पर हमने रिज़र्व बैंक में बहु-क्षेत्रीय वित्तीय स्थिरता इकाई गठित की है और नियमित वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट प्रस्तुत करने की योजना बना रहे हैं। ऐसी पहली रिपोर्ट अगले कुछ महीनों में लाने की योजना है। इन रिपोर्टों में प्रणालीगत स्थिरता की संभाव्य जोखिमों की पहचान और विश्लेषण पर फोकस करते हुए वित्तीय प्रणाली की स्थिति के बारे में समग्र एकीकृत मूल्यांकन प्रस्तुत किया जाएगा।

VI. वित्तीय स्थिरता : भावी दिशा

26. अन्य सभी नीतिगत उपायों की तरह, वित्तीय स्थिरता को बनाये रखने में समझौताकारी समन्वय शामिल है और अनेक चुनौतियां उभरती हैं। मैं उन पाँच महत्वपूर्ण चुनौतियों की मुख्य बातें बताना चाहता हूं जिनका भविष्य में हमें निदान करने की जरूरत होगी। यह बताते समय मैं वैश्विक अनुभव को ध्यान में रखूंगा।

पहली चुनौती : वित्तीय स्थिरता को कैसे परिभाषित किया और मापा जाये

27. संकट के दौरान कई देशों में यह बात ध्यान में आई कि वित्तीय स्थिरता बनाये रखने की जिम्मेदारी में कमियां हैं क्योंकि किसी भी एजेंसी या विनियामक को निश्चित रूप से इसका अधिदेश नहीं दिया गया था। अब स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करने के प्रस्ताव हैं कि वित्तीय स्थिरता के लिए कौन सी एजेंसी/एजेंसियां जिम्मेदार होगी/होंगी। साथ ही वित्तीय स्थिरता के खतरों का समाधान करने के लिए प्रोटोकॉल निर्दिष्ट करना है, जो मुख्यत: प्राकृतिक आपदाओं के प्रबंध के लिए हमारे द्वारा तैयार किए गए प्रोटोकॉल के ही अनुसार होगा। लेकिन इसके लिए पहले वित्तीय स्थिरता को ठीक से परिभाषित करने की जरूरत है।

28. वित्तीय स्थिरता का व्यापक उपयोग होने के बावजूद इसको अकेले उपाय के रूप में परिभाषित करना कठिन है। यह मूल्य स्थिरता के विपरीत है जिसे परिभाषित और परिमाणित किया जा सकता है। वित्तीय स्थिरता को कुछ लोग वित्तीय अस्थिरता न होने के रूप में परिभाषित करते हैं जो असल में पुनरुक्तिपूर्ण है। बृहत्-विवेकपूर्ण परिप्रेक्ष्य से वित्तीय स्थिरता को उस स्थिति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है जहां वित्तीय क्षेत्र बिना किसी व्यवधान के कार्य करता है। यह परिभाषा वैचारिक रूप से स्वच्छ है लेकिन जब तक इसे मापने के उद्देश्य से परिमाणित नहीं किया जा सकता, नीतिगत उद्देश्यों के लिए उपयोगी नहीं है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नीति निर्माता और विश्लेषक परिभाषा को पुष्ट करने के लिए सक्रिय रूप से लगे हुए हैं ताकि यह सही, मापनेयोग्य और व्यापक हो। किसी भी वित्तीय स्थिरता ढाँचे के कुछ महत्वपूर्ण तत्व, ऐसे पहलू जिन्हें वित्तीय स्थिरता की परिभाषा सूचित करने की जरूरत है, निम्नानुसार हैं

  • बृहत्-चरों जैसे ब्याज दर और विनिमय दरों में अत्यधिक अस्थिरता, जिनका वास्तविक अर्थव्यवस्था पर सीधा प्रभाव होता है।

  • वित्तीय, कॉरपोरेट और घरेलू क्षेत्र के तुलनपत्रों में उल्लेखनीय लीवरेज बनाना।

  • ऐसी संस्थाओं के सामने उत्पन्न नैतिक संकट संबंधी जोखिम, जो ‘‘इतनी बड़ी हैं कि विफल नहीं हो सकतीं ’’ या इतनी अंतर-संबद्ध अथवा जटिल हैं कि उनका समाधान नहीं किया जा सकता है।

  • अर्थव्यवस्था को संभाव्य आघातों का मुकाबला करने के लिए वित्तीय क्षेत्र के भीतर संस्था और प्रणालीगत दोनों स्तरों पर आंतरिक प्रणालीगत बफर।

  • भले ही ‘संगीत चल रहा हो’ , पर हवा के खिलाफ झुकने के लिए सुदृढ़ नीतिगत और संस्थागत कार्यप्रणाली।

  • वित्तीय क्षेत्र में अविनियमित ग्रंथियों का प्रचलन जो, औपचारिक विनियमित प्रणाली के साथ अपनी अंतर-संबद्धता के जरिये, प्रणाली संबंधी असुरक्षितताएं उत्पन्न कर सकती हैं।

दूसरी चुनौती : वित्तीय स्थिरता - अनन्य या साझा जिम्मेदारी?

29. संकट ने ऐसी समुचित विनियामक संरचना के बारे में सक्रिय चर्चा को प्रवर्तित किया है जो वित्तीय स्थिरता की सुरक्षा के लिए सबसे उपयुक्त हो। इसके लिए कई विनियामक मॉडल हैं जिनमें वे भी शामिल हैं जहां केंद्रीय बैंक केवल मौद्रिक प्राधिकारी है और बैंक विनियमन और पर्यवेक्षण किसी दूसरी एजेंसी के पास है। संकट के बाद यह मत उभरा कि संकट, कम- से-कम आंशिक रूप से, अलग-अलग निकायों के बीच समन्वय और सूचना के अभाव में उत्पन्न हुआ है और कि वित्तीय स्थिरता के हित में यह इष्टतम होगा कि बैंकों और गैर-बैंकों के विनियमन का भी कार्य केंद्रीय बैंकों को सौंपा जाये। इसका तर्क यह है कि केवल मौद्रिक प्राधिकारी अंतिम ऋणदाता के रूप में आपातकालीन चलनिधि सहायता प्रदान कर सकता है। साथ ही विनियामक होने के नाते मौद्रिक प्राधिकारी को बाजार की स्थितियों का अच्छा आभास रहता है, अत: इस चलनिधि का अधिक कुशलता से प्रबंधन कर सकता है।

30. लेकिन इस मॉडल के बारे में भी नये प्रश्न उठ खड़े होते हैं। विशेषकर क्या केंद्रीय बैंक की वित्तीय स्थिरता के लिए अनन्य जिम्मेदारी हो सकती है? इसके विपरीत, क्या सरकार प्रधान-एजेंट मॉडल के अधीन केंद्रीय बैंक को यह जिम्मेदारी पूरी तरह से प्रत्यायोजित कर सकती है?

31. उदाहरण के लिए उस स्थिति पर विचार कीजिए, जब बैंकिंग प्रणाली पर अस्थिरता की जोखिम हो। यह निर्णय लिया जाना हो कि किस बैंक को बचाया जाये और कितनी सहायता प्रदान की जाये। इन सबके लिए राजकोषीय सहायता देने की जरूरत होगी। क्या एक सरकार, विशेषकर ऐसी सरकार जो प्रजातांत्रिक रूप से चुनी हुई हो और विधायिका के प्रति जवाबदेह हो, इस संबंध में कुछ नहीं कहना चाहेगी? इसके लिए निम्नलिखित प्रश्नों का जवाब चाहिए। वित्तीय स्थिरता के लिए सरकार और केंद्रीय बैंक के बीच जिम्मेदारी को किस प्रकार बांटा जाना चाहिए? निर्णयन के लिए प्रोटोकॉल क्या होना चाहिए? गतिरोध की स्थिति में किसकी चलेगी और किन परिस्थितियों में चलेगी?

तीसरी चुनौती : विकास और वित्तीय स्थिरता - तालमेल का प्रबंध

32. वित्तीय स्थिरता को बनाये रखने के लिए हमने परंपरागत रूप से विभिन्न प्रकार के विवेकपूर्ण उपायों जैसे एक्सपोजर मानदंड निर्दिष्ट करना और जोखिम भारों को पहले से कड़ा करने तथा प्रावधान करने संबंधी अपेक्षाओं का प्रयोग किया है। लेकिन ये उपाय हमेशा लागतहीन नहीं रहे हैं। उदाहरण के लिए, जोखिम भारों को कड़ा करने के बारे में तर्क दिया जाता है कि यह कुछ क्षेत्रों को ऋण के प्रवाह को मंद कर देता है लेकिन अत्यधिक, असामयिक या अनावश्यक सख्ती से विकास अवरुद्ध हो सकता है। इसी प्रकार, एक्सपोजर मानदंड संकेंद्रण जोखिम से सुरक्षा प्रदान करते हैं, हालांकि ऐसी सीमाएं महत्वपूर्ण विकास क्षेत्रों को ऋण की उपलब्धता को प्रतिबंधित कर सकती हैं। बुनियादी क्षेत्र के वित्तपोषण की विशाल जरूरतों के संदर्भ में यह हमारे देश का जीवंत मुद्दा है। इस प्रकार मूल्य स्थिरता के मामले की तरह केंद्रीय बैंक वित्तीय स्थिरता और विकास के बीच तालमेल के प्रबंध की चुनौती का सामना करते हैं।

33. इस बात को स्वीकार करने की जरूरत है कि संकट के बाद पश्चदृष्टि के लाभ के साथ सभी रूढ़िवादी नीतियां सुरक्षित लगती हैं। लेकिन संभाव्य संकट से बच निकलने की तैयारी करने के क्रम में अत्यधिक रूढ़िवादिता विकास और वित्तीय नवोन्मेष को निष्फल कर सकती है। प्रश्न यह है कि हम इसके लिए क्या मूल्य चुकाने के इच्छुक हैं, दूसरे शब्दों में, अभूतपूर्व संकट को रोकने के लिए कौन से संभाव्य लाभ छोड़ने के लिए हम तैयार हैं? अनुभव से पता चलता है कि इस चुनौती का प्रबंध करना, अर्थात् कितना कड़ा किया जाये और कब किया जाये इसका निर्धारण करना, विश्लेषणात्मक कौशल की बजाय अच्छे निर्णय का प्रश्न है। इस निर्णय कौशल पर, विशेषकर भारत जैसे विकासशील देशों में, केंद्रीय बैंकों को सान लगाना है क्योंकि वे विकास और वित्तीय स्थिरता, दोनों उद्देश्यों को साथ-साथ पाने की खोज में रहते हैं।

चौथी चुनौती : विनियामक ढाँचे को सुधारना

34. जैसे-जैसे संकट से सीख मिल रही है, केंद्रीय बैंकों ने प्रभावशाली ढंग से अपने को पुन: तैयार किया है और लगभग सभी देश अपने विनियामक ढाँचे की समीक्षा कर रहे हैं। इस परिवर्तन का कारण दो मुख्य सीखें रही हैं : पहली, वित्तीय स्थिरता की जिम्मेदारी को कई विनियामकों के बीच विभाजित नहीं किया जा सकता, यह जिम्मेदारी स्पष्ट रूप से एक विनियामक के पास ही रहनी चाहिए और इष्टतम रूप से वह विनियामक केंद्रीय बैंक है। दूसरी, विनियामकों के बीच नियमित आधार पर समन्वय और संकट की स्थिति का सामना करने के लिए प्रोटोकॉल तैयार करने के लिए की जरूरत है।  मैं विनियामक ढाँचे के व्यापक क्षेत्र में से तीन मुद्दों पर संबोधित करना चाहता हूं।

35. पहला मुद्दा विनियामक समन्वय से संबंधित है। भारत में वित्तीय क्षेत्र में अनेक विनियामक हैं -रिज़र्व बैंक, सेबी, इरडा और पीएफआरडीए।  उनके बीच समन्वय में सहायता के लिए वित्तीय बाजारों से संबंधित उच्च स्तरीय समन्वय समिति (एचएलसीसी-एफएम) है जिसमें सभी विनियामक और वित्त सचिव शामिल हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक के गवर्नर एचएलसीसी-एफएम के अध्यक्ष हैं और वित्त मंत्रालय में इसका सचिवालय है। एचएलसीसी बैठकों की मुख्य विशेषता, जो उसमें सर्वाधिक योगदान देती है,यह है कि बैठकें अनौपचारिक होती हैं और स्थितियों, विचारों और अभिमतों का स्वतंत्र आदान-प्रदान होता है। ऐसा विचार है कि एचएलसीसी-एफएम को औपचारिक रूप प्रदान किया जाये।  जहां औपचारिक ढाँचे में जिम्मेदारी डालने की विशेषता होगी, वहीं कमजोर पक्ष यह है कि यह मंच को अत्यधिक नौकरशाही बना देगा और इसकी अन्य मूल्ययोजित विशेषताओं को कम कर देगा।यह एक ऐसा मुद्दा है जिस पर हमें और चर्चा करनी चाहिए। एक ऐसा क्षेत्र, जहां एचएलसीसी-एफएम अधिक निरूपित भूमिका निभा सकता है, वह बड़े वित्तीय संगुटों के पर्यवेक्षण से संबंधित है।

36. वित्तीय स्थिरता से सुसंगत विनियामक ढाँचे संबंधी दूसरा मुद्दा वित्तीय बाजारों के विनियमन में वांछित परिवर्तन, यदि कोई हों, करने से संबंधित है। हाल की दो रिपोर्टें में, दोनों ही प्रभावशाली हैं, जिसमें एक परसी मिस्त्री की ‘मुंबई एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र के रूप में’ और दूसरी रघुराम राजन की ‘वित्तीय क्षेत्र में सुधारों’ के बारे में है, संस्तुति की गई है कि वित्तीय उत्पादों एवं लिखतों की सभी प्रकार की ट्रेडिंग का विनियमन सेबी के अधीन लाया जाये। हमें ऐसे एकीकरण के औचित्य पर गंभीरता से चर्चा करने की जरूरत है।

37. वर्तमान में वित्तीय बाजारों के विनियमन की व्यवस्था निम्नानुसार है। रिज़र्व बैंक, बैंकों, एनबीएफसी और अन्य वित्तीय संस्थाओं के अलावा मुद्रा बाजार, सरकारी प्रतिभूति बाजार, ऋण बाजार और विदेशी मुद्रा बाजार और उनके व्युत्पन्नियों का विनियमन करता है। ओटीसी व्युत्पन्नियों के संबंध में केवल ऐसे व्युत्पन्नी, जिनमें लेनदेन का एक पक्षकार रिज़र्व बैंक द्वारा नियंत्रित संस्था हो, की विधिक मान्यता होती है। शेयर बाजारों में क्रय-विक्रय किये जाने वाले उत्पादों से संबंधित व्यापार निष्पादन प्रक्रिया सेबी के विनियामक क्षेत्र के भीतर आती है। अत: कई देशों से अलग, भारत ने ओटीसी व्युत्पन्नियों के विनियमन के लिए प्रक्रिया स्थापित की है।

38. वर्तमान व्यवस्था क्यों जारी रहनी चाहिए, इसका सबसे महत्वपूर्ण कारण वित्तीय स्थिरता को बनाये रखना है। इक्विटी मूल्यों से भिन्न, ब्याज दरें और विनिमय दर वे प्रमुख बृहत् आर्थिक चर हैं जिनका मौद्रिक नीति और समग्र बृहत् आर्थिक स्थिरता पर प्रभाव होता है। इसके अलावा ब्याज और विनिमय दर बाजारों में बैंकों का प्रभुत्व है। इन बाजारों का भी विनियामक होने के नाते रिज़र्व बैंक बाजार घटनाओं पर निगरानी रखने, आसन्न घटनाओं का अनुमान लगाने, अग्रिम कार्रवाई करने, अत्यधिक अस्थिरता को रोकने और प्रणालीगत स्तर पर वित्तीय स्थिरता बनाये रखने के लिए संस्थाओं, बाजारों और उत्पादों का पर्यवेक्षण करने की स्थिति में है। यही व्यवस्था समय के साथ खरी उतरी है और कुछ भयंकर अभ्याघातों के समय भी इसने हमारी वित्तीय स्थिरता को बचाया है। एकीकृत बाजार विनियामक की खोज में हमें इस व्यवस्था को हल्के से पेंक नहीं देना चाहिए।

39. विनियामक ढाँचे के सुधार में तीसरा मुद्दा यह है कि क्या केंद्रीय बैंक को बैंकिंग विनियामक भी होना चाहिए। संकट से पूर्व, हित के संभावित टकराव के आधार पर मौद्रिक और विनियामक कार्य अलग होने के बारे में ठोस तर्क दिये गये थे। इस मत के अनुसार यदि वित्तीय स्थिरता केंद्रीय बैंक की प्रमुख चिंता हो जाती है तो इससे बैंकों के लिए नैतिक संकट खड़ा हो जायेगा। बैंकों द्वारा पूरे विश्वास के साथ अत्यधिक जोखिम लिये जाने की संभावना होगी कि विनियामक भी होने के नाते केंद्रीय बैंक उन्हें संकट से उबारने के लिए नीतियों में ढील और विनियामक स्थगन की सुविधा प्रदान करेगा। विरोधाभासी रूप में, वित्तीय स्थिरता का आक्रामक अनुसरण दीर्घकाल में वित्तीय स्थिरता के लिए खतरा बन जायेगा।

40.संकट ने इस तर्क को स्पष्ट रूप से कमजोर कर दिया है। विनियामक स्थगन पर चिंता बढ़ा-चढ़ाकर व्यक्त की गई है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि कुछ ऐसी उन्नत अर्थव्यवस्थाएं, जहां विनियमन और पर्यवेक्षण केंद्रीय बैंक के अलावा किसी अन्य एजेंसी के पास है, स्वयं अपने विनियामक ढाँचे का पुनरीक्षण कर रही हैं और कुछ एकीकरण पर विचार कर रही हैं। संकट ने यह भी बता दिया है कि मौद्रिक नीति प्रबंध और वित्तीय क्षेत्र के विनियमन के बीच स्पष्ट सामंजस्य है। विशेषकर केंद्रीय बैंक ‘अंतिम ऋणदाता‘ का कार्य अधिक प्रभावी ढंग से कर सकता है यदि उसे संस्था का वर्तमान और संभावी तुलनपत्र तथा इसकी चलनिधि और शोधन स्थिति के संबंध में स्पष्ट जानकारी हो।

41. अभी तक यह तय नहीं हो पाया है कि कौन-सा मॉडल सर्वोत्तम है क्योंकि संकट ने लगभग सभी मॉडलों पर संदेह प्रकट किया है। हालांकि मैं यह संकेत करना चाहता हूं कि हमें अपने विनियामक ढाँचे में सुधार करने से पहले संकट से मिली सीख पर गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत है।

पाँचवीं चुनौती : राजकोषीय नीति, वित्तीय स्थिरता और केंद्रीय बैंक की स्वतंत्रता

42. अन्य बातों के साथ-साथ उभरते विनियामक ढाँचे को वित्तीय स्थिरता को बचाने के अनुकूल बनाने का असर केंद्रीय बैंक की उत्कृष्ट स्वायतता पर पड़ेगा। 1970 से पहले सभी देशों में प्रतिरूपी तौर पर मौद्रिक नीति पर राजकोषीय दबावों का बंधन था। लेकिन सत्तर के दशक में ‘स्टैगफ्लेशन’ के बाद और उसके बाद मौद्रिक नीति के प्रभुत्व से एक स्वच्छ व्यवस्था का प्रादुर्भाव शुरू हुआ। सरकारें राजकोष के मामले में जिम्मेदार होने लगीं और मौद्रिक नीति को स्वायत्तता मिलनी शुरू हुई।

43. संकट के कारण अब यह व्यवस्था सुलझ रही है। संकट के पैमाने और इसकी तेजी से हतोत्साहित दुनिया भर की सरकारों और केंद्रीय बैंकों ने नीतिगत बल के अप्रत्याशित प्रदर्शन द्वारा प्रतिसाद व्यक्त किया। केंद्रीय बैंकों ने नीतिगत ब्याज दरों में कमी की और अनके उपायों, जिन्हें मात्रात्मक और ऋण आसान करना कहा जाता है, के जरिये प्रणाली में अत्यधिक चलनिधि भरने का सहारा लिया। सरकारों ने राजकोषीय प्रोत्साहन पैकेज के द्वारा सहायता प्रदान की, जिसके कारण राजकोषीय घाटा उस स्तर तक पहुंच गया जिस तक शांति के समय कभी नहीं पहुंचा। सरकारों और केंद्रीय बैंकों ने सहयोग दिया, पर राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के बीच अंतरंग तनाव शुरू हो गया। हालांकि मोटे तौर पर यह उम्मीद थी कि जैसे ही संकट से मुक्ति मिलेगी ये तनाव दूर हो जाएंगे और मौद्रिक नीति एक बार फिर राजकोषीय दबावों से मुक्त होकर संचालित होगी। दूसरी ओर, ऐसी आशंकाएं हैं कि मंदी से उबरने की संभावित लंबी अवधि और साथ ही मध्यावधि में राजकोषीय घाटे को उच्च स्तर पर बनाये रखने वाले संरचनागत कारकों के कारण ऐसा जल्दी नहीं होगा।

44. राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के बीच ये तनाव संभाव्य रूप से वित्तीय स्थिरता के प्रतिकूल हो सकते हैं। यदि सरकारें लगातार बड़ा राजकोषीय घाटा उपगत करती रहीं तो मूल्य स्थिरता बनाये रखने के लिए केंद्रीय बैंकों को काफी मुश्किल होगा। जहां वर्तमान संकट ने यह दिखाया है कि वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए मूल्य स्थिरता पर्याप्त नहीं है, वहीं वित्तीय स्थिरता के लिए मूल्य स्थिरता निश्चित रूप से आवश्यक शर्त है। उच्चतर मुद्रास्फीति प्रतिफल वक्र को ऊपर की ओर धकेल सकता है। इसके फलस्वरूप नियत आय वाली लिखतों के लिए बाजार मूल्य को बही में अंकित करने पर उल्लेखनीय हानि हो सकती है, जिसका बैंकों की लाभप्रदता पर संभाव्य रूप से प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा।  यह पुन: वित्तीय स्थिरता को क्षीण कर सकता है।

45. भारत में भी हम राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के बीच तनाव के प्रबंध की दुविधा का सामना कर रहे हैं। सरकार ने वित्त आयोग को राजकोषीय समेकन के पथ पर लौटने के लिए रूपरेखा निर्दिष्ट करने के लिए कहा है। यह अनिवार्य है कि भारत में केंद्र और राज्य, दोनों वित्तीय स्थिरता को बचाने की जरूरत सहित अनेक कारणों से राजकोषीय समेकन के पथ पर लौटा आएं।

VIII. निष्कर्ष

46. मैं अब अपनी बात को समाप्त करता हूं। संक्षेप में, मैंने इस बात की ओर संकेत किया है कि इस संकट के दौरान वित्तीय स्थिरता किस प्रकार क्षीण हुई है और केंद्रीय बैंक प्रतिमान में कौन सी त्रुटियां थीं जो इसके लिए जिम्मेदार रही होंगी। मैंने वित्तीय स्थिरता को बचाये रखने और इसे सुदृढ़ करने के लिए विचाराधीन कुछ महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय पहलों के बारे में बताया है। मैंने यह तर्क दिया है कि दुनिया के साथ भारत के तेजी से होते एकीकरण के सामने हमें अपनी वित्तीय स्थिरता को संरक्षित करने के बारे में सतर्क रहने की जरूरत है क्योंकि दुनिया में कहीं की भी घटना हमें प्रभावित कर सकती है। मैंने वित्तीय स्थिरता के बारे में भारत के दृष्टिकोण को स्पष्ट किया है और यह संकेत किया है कि रिज़र्व बैंक वित्तीय स्थिरता की सुरक्षा के लिए अपने को पुन: तैयार कर रहा है। अंत में, मैंने ऐसी पाँच प्रमुख चुनौतियों के बारे में बताया है, जिनका समाधान भविष्य में भारत सहित दुनिया को ढूंढ़ना होगा।

47. वित्तीय स्थिरता के बारे में हम जितना अध्ययन और विश्लेषण करते हैं यह उतना ही स्पष्ट होता जाता है कि वित्तीय स्थिरता को बचाना और सुदृढ़ करना जटिल चुनौती है। हमें संयत और समय पर कार्रवाई करने तथा संतुलित निर्णय लेने की जरूरत है, जो बहुत सौम्य न हो पर साथ ही अत्यधिक या असामयिक सख्ती सहित कठोर भी नहीं हो।

48. कुछ लोगों की यह चिंता है कि यह संकट वित्तीय क्षेत्र में सुधारों के हमारे उत्साह को ठंडा कर सकता है। मेरा यह विश्वास है कि यह चिंता अनुचित है। हम सुधारों को धीमा नहीं करेंगे लेकिन संकट से सीख लेते हुए निश्चित रूप से रूपरेखा पुन: तैयार करेंगे।

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