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विनियामक और पर्यवेक्षी सुधारों के लिए वैश्विक कार्यसूची : स्थिति का जायजा और भावी दिशा* - उषा थोरात

श्रीमती उषा थोराट, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक

उद्बोधन दिया

विनियामक और पर्यवेक्षी सुधारों के लिए वैश्विक कार्यसूची : स्थिति का जायजा और भावी दिशा*
उषा थोरात

* होटल ग्रांड हयात, मुंबई में 8 सितम्बर 2009 को ‘वैश्विक बैंकिंग : आमूलचूल परिवर्तन’ विषय पर फिक्की-आईबीए सम्मेलन में ‘ वित्तीय विनियमन और पर्यवेक्षण को सुदृढ़ करना’ पर चर्चा सत्र में उप गवर्नर श्रीमती उषा थोरात की उद्घाटन टिप्पणी। इस भाषण को तैयार करने में श्री तुलसी गोपीनाथ द्वारा दी गई सहायता के लिए उनके प्रति आभार प्रकट किया जाता है।

‘वैश्विक बैंकिंग : आमूलचूल परिवर्तन’ विषय पर फिक्की-आईबीए सम्मेलन में आज शाम ‘वित्तीय विनियमन और पर्यवेक्षण को सुदृढ़ करना’ पर आयोजित चर्चा सत्र की अध्यक्षता के लिए आमंत्रित करने के लिए मैं आयोजकों को धन्यवाद देती हूं।

बृहत् आर्थिक परिदृश्य

2. उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में वित्तीय क्षेत्र के पटरी से काफी ज्यादा उतर जाने का विश्व अर्थव्यवस्था पर गहरा प्रभाव पड़ा है। वर्ष 2009 में दुनिया भर के उत्पादन में 1.4 प्रतिशत की कमी होने की संभावना है, उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के जीडीपी में वर्ष 2010 में 0.6 प्रतिशत की मामूली सी वृद्धि से पहले वर्ष 2009 में 3.8 प्रतिशत की कमी प्रक्षेपित है। अमरीका और यू.के. के जीडीपी में वर्ष 2010 में क्रमश: 0.8 प्रतिशत और 0.2 प्रतिशत की बहुत ही कम दर की वृद्धि होने से पहले वर्ष 2009 में क्रमश: 2.6 प्रतिशत और 4.2 प्रतिशत की गिरावट होने का पूर्वानुमान है। दूसरी ओर यूरो क्षेत्र में वर्ष 2009 और 2010 में क्रमश: 4.8 प्रतिशत और 0.3 प्रतिशत की कमी होने की संभावना है (डब्ल्यूईओ 2009)। उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में बेराजगारी वर्ष 2008 में 5.8 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2009 में 8.1 प्रतिशत होने और पुन: 2010 में 9.2 प्रतिशत होना प्रक्षेपित है (डब्ल्यूईओ 2009)। अमरीका में बेरोजगारी वर्ष 2008 के 5.8 प्रतिशत से लगभग दुगुनी होकर वर्ष 2010 में 10.1 प्रतिशत होने की संभावना है। यूरो क्षेत्र में स्पेन में वर्ष 2010 में 19.3 प्रतिशत की सर्वाधिक बेरोजगारी होने का पूर्वानुमान है। इसके लिए इन देशों में शुरू किये गये राजकोषीय प्रोत्साहन से इनकी राजकोषीय स्थिति और बिगड़ रही है। ओईसीडी देशों में राजकोषीय स्थिति वर्ष 2008 के -3.2 प्रतिशत से घटकर 2009 में -7.7 प्रतिशत और 2010 में और खराब होकर -8.8 प्रतिशत होने वाली है। वर्ष 2009 में अमरीका , जापान और यूरो क्षेत्र में राजकोषीय घाटा दुगुना से अधिक तथा वर्ष 2010 में और खराब होने की ओर अग्रसर है। वर्ष 2010 के अंत तक जीडीपी की तुलना में सकल सरकारी ऋण का अनुपात अमरीका में 98 प्रतिशत, जर्मनी में 87 प्रतिशत, फ्रांस में 80 प्रतिशत और यू.के. में 73 प्रतिशत होने का अनुमान है। दुनिया में वित्तीय स्थिरता बहुत बड़ी लागत पर आई है। वित्तीय स्थिरता लागत अमरीका में, जीडीपी के 12.7 प्रतिशत पर सर्वाधिक और इटली में जीडीपी के 0.9 प्रतिशत पर सबसे कम रही है। यू.के. में यह 9.1 प्रतिशत, कनाडा में 4.4 प्रतिशत, जर्मनी में 3.1 प्रतिशत और फ्रांस में 1.8 प्रतिशत रही है (जीएफएसआर, 2009)।

3. उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में विकास में गिरावट से ईएमई के आर्थिक कार्यकलापों में, अन्य बातों के साथ-साथ निर्यात मांग में अभूतपूर्व कमी के कारण, अचानक तेजी से कमी हुई और इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय बैंक उधार और विदेशी पोर्टफोलियो निवेश में उल्लेखनीय उक्रमण हुआ है।  वर्ष 2009 की दूसरी छमाही के दौरान विकास की गति में वृद्धि होने की संभावना के बावजूद वर्ष 2009 में उभरती और विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में 1.5 प्रतिशत की बहुत ही कम वृद्धि होना प्रक्षेपित है। चीन (7.5 प्रतिशत और 8.5 प्रतिशत) और भारत (5.4 प्रतिशत और 6.5 प्रतिशत) में सुधार की संभावनाओं के कारण उभरते एशिया में वर्ष 2009 में 5.5 प्रतिशत और वर्ष 2010 में 7.0 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान है। अफ्रीकी देशों में वर्ष 2009 में 1.8 प्रतिशत की बहुत कम वृद्धि और वर्ष 2010 में 4.1 प्रतिशत सुधार होने का पूर्वानुमान है। इसके विपरीत, लातीनी अमरीका में वर्ष 2010 में 2.3 प्रतिशत के सुधार से पहले वर्ष 2009 में 2.6 प्रतिशत की कमी प्रक्षेपित है। पूंजी प्रवाह के उक्रमण और पण्य निर्यातों में तीव्र कमी से बुरी तरह प्रभावित केंद्रीय एवं पूर्वी यूरोप के देशों और स्वतंत्र देशों के राष्ट्रमंडल में वर्ष 2009 में क्रमश: 5.0 प्रतिशत और 5.8 प्रतिशत की और अधिक तीव्र कमी होने की संभावना है (डब्ल्यूईओ, 2009ए)।  ये देश पश्चिमी यूरोपीय बैंकों पर अत्यधिक निर्भर हैं जो इन देशों की अधिसंख्यक बैंकिंग प्रणाली के मालिक हैं।  सीमा-पारीय बैंकिंग निधीयन में बाधा आई है क्योंकि पश्चिमी यूरोप में बैंकिंग संकट गहरा गया है। इन देशों में नकारात्मक प्रतिसूचना पाश के जरिये वास्तविक क्षेत्र की कमजोरी बैंकिंग क्षेत्र को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रही है।

प्रभुसत्ता संपन्न देशों और विनियामकों द्वारा वैश्विक प्रतिक्रिया

4. अत: यह आश्चर्य की बात नहीं है कि विशेषकर उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में इस बात का कारण अत्यधिक संवेदनशीलता से खोजा जा रहा है कि अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रणाली में ऐसी क्या गंभीर खराबी आ गई ,जिसके कारण महा मंदी के बाद सर्वाधिक खराब संकट आ गया। ऐसे विभिन्न कारक, जिनके कारण और जिनसे संकट उत्पन्न हुआ, अब सुपरिचित और प्रलेखित हैं तथा मैं उनके बारे में चर्चा नहीं करना चाहती। गत एक वर्ष के दौरान सरकारों, केंद्रीय बैंकरों और विनियामकों ने अब तक जो कार्रवाई की गई है, उनके बारे में मैं चर्चा करना चाहूंगी। पिछले सप्ताह ही हमें दो बहुत ही महत्वपूर्ण कथन प्राप्त हुए हैं - एक, जी-20 के वित्त मंत्रियों और गवर्नरों द्वारा तथा दूसरा, बासेल निरीक्षण के पर्यवेक्षण निकाय द्वारा - जो गवर्नरों और पर्यवेक्षण प्रमुखों का समूह है। ये कथन वित्तीय विनियमन और पर्यवेक्षण को सुदृढ़ करने के लिए अब तक हुई सर्वसम्मति को इंगित करते हैं और क्या किया जाना है उनका खाका प्रस्तुत करते हैं। अत: यह बहुत की समयोचित है कि हम भारत जैसे उभरते देशों पर बदलते अंतरराष्ट्रीय ढाँचे के प्रभावों पर चर्चा और विचार-विमर्श करने के लिए आज यह सेमिनार आयोजित कर रहे हैं।

5. मैं अपनी बात बासेल समिति से शुरू करती हूं। इस वर्ष जुलाई में समिति ने व्यापार बही के लिए अधिक पूंजी हेतु अनेक मानक जारी किये, क्योंकि यह माना गया कि बासेल II ढाँचे में व्यापार बही के लिए पूंजी की जरूरत को काफी कम आंका गया है। अत: बासेल समिति ने व्यापार बही के लिए नये पूंजी नियम शुरू किये जिसमें व्यापार बही के लिए पूंजी जरूरतों को काफी बढ़ाया गया है। इसने पुन:प्रतिभूतिकरण और तुलन-पत्र से इतर माध्यमों में निवेश के लिए अधिक पूंजी की जरूरत तय की है। इसने दबाव परीक्षण और जटिल उत्पादों के मूल्यांकन, साथ ही चलनिधि जोखिम के निधीयन के पर्यवेक्षण एवं प्रबंधन के लिए भी सिद्धांत तैयार किये हैं। इसने स्तंभ 2 पर्यवेक्षी समीक्षा प्रक्रिया में एफएसबी क्षतिपूर्ति मानकों को समाविष्ट किया है और व्यापारिक गतिविधियों, प्रतिभूतिकरण और तुलन-पत्र से इतर माध्यमें में निवेश पर ध्यान केंद्रित कर स्तंभ 3 के प्रकटन बढ़ाये हैं। कल अर्थात् 7 सितम्बर 2009 को गवर्नरों और पर्यवेक्षण प्रमुखों की बैठक के बाद 27 महत्वपूर्ण क्षेत्राधिकारों का प्रतिनिधित्व करने वाली बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासेल समिति के पर्यवेक्षण निकाय ने बैंकिंग क्षेत्र के विनियमन, पर्यवेक्षण और जोखिम प्रबंधन को सुदृढ़ करने के लिए उपायों के व्यापक सेट के बारे में प्रेस विज्ञप्ति जारी की। इन उपायों में निम्नलिखित शामिल हैं

  • टियर 1 पूंजी आधार की गुणवत्ता, सुसंगति और पारदर्शिता को बढ़ाना। टियर 1 पूंजी का बड़ा हिस्सा सामान्य शेयर और प्रतिधारित अर्जन के रूप में होना चाहिए। कटौतियों और विवेकपूर्ण फिल्टरों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुमेलित किया जायेगा और प्राय: सामान्य इक्विटी के स्तर पर लागू किया जायेगा।
  • समुचित समीक्षा और सुविचार के आधार पर स्तंभ 1 में अंतरण करने की दृष्टि से लीवरेज अनुपात की शुरुआत, जो शुरू में बासेल II जोखिम-आधारित ढाँचे का पूरक उपाय होगा। तुलनीयता सुनिश्चित करने के लिए, लीवरेज अनुपात के ब्यौरों को लेखांकन में अंतरों को पूरी तरह से समायोजित कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सुमेलित किया जायेगा।

  • चलनिधि के निधीयन के लिए न्यूनतम वैश्विक मानक की शुरुआत, जिसमें दबाव चलनिधि कवरेज अनुपात संबंधी अपेक्षा शामिल होगी जो दीर्घकालिक संरचनागत चलनिधि अनुपात द्वारा समर्थित होगी।

  • न्यूनतम अपेक्षा से ऊपर प्रति-चक्रीय पूंजी बफर के लिए ढाँचा निर्धारित करना। इस ढाँचे में पूंजी वितरण पर प्रतिबंध जैसे पूंजी संरक्षण उपाय शामिल होंगे। संकेतकों का एक उचित सेट, जैसे अर्जन और ऋण-आधारित चर, पूंजी बफर तैयार करने और छोड़ने की शर्त के रूप में प्रयुक्त किया जायेगा।
  • संभावित हानि के सिद्धांत का प्रयोग कर भावी दिशा के आधार पर प्रावधान करने की अपेक्षा।

  • सीमापार बैंकों के विघटन से जुड़ी प्रणालीगत जोखिम को कम करने की सिफारिश।

  • प्रणालीगत बैंकों की जोखिम को कम करने के लिए पूंजी अधिभार की जरूरत का निर्धारण।

पूंजी के उच्चतर स्तर और गुणवत्ता के प्रति संक्रमण सुनिश्चित करने के लिए पर्यवेक्षकों को अत्यधिक लाभांश भुगतान, शेयर पुनर्खरीद और क्षतिपूर्ति की सीमा तय करने के लिए प्रोत्साहित किया जायेगा।

6. जी-20 के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों ने 5 सितम्बर को अत्यधिक जोखिम एवं भावी संकट के सृजन को रोकने और कायम रहने योग्य विकास की सहायता के लिए वित्तीय प्रणाली को सुदृढ़ करने के प्रति अपनी वचनबद्धता को पुन: पुष्ट करते हुए बयान जारी किया। इस समूह ने एफएसबी द्वारा अब तक की गई कार्रवाई को नोट किया, जिसमें अधिकांश ऋण चूक स्वैपों को समाप्त करने के लिए सीसीपी की शुरुआत, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों के लिए अधिक सुदृढ़ पर्यवेक्षण प्रणाली, बचाव निधियों के पर्यवेक्षण के लिए अंतरराष्ट्रीय रूप से सहमत सिद्धांत, संरचनागत वित्त उत्पादों में निवेश करते समय आस्ति प्रबंधकों द्वारा सम्यक सचेतना के लिए अच्छी पद्धतियां और मंदड़िया बिक्री के विनियिमन के लिए अंतरराष्ट्रीय रूप से सहमत सिद्धांत जारी करना शामिल हैं। समूह द्वारा निम्नलिखित क्षेत्रों में और कार्रवाई करना अपेक्षित है

  • क्षतिपूर्ति पद्धति।

  • व्यवस्थागत रूप से महत्वपूर्ण फर्मों के लिए अधिक सुदृढ़ विनियमन और पर्यवेक्षण तथा संकट में हस्तक्षेप एवं बंद होने वाली फर्मों के लिए विधिक ढाँचे को सुदृढ़ करना।
  • विनियामक मानकों, एएमएल/ सीएफटी और कर सूचना विनिमय मानकों को पूरा करने में विफल होनेवाले सहयोग न करनेवाले  अधिकार-क्षेत्रों का सामना करने के लिए समकक्ष समीक्षा, क्षमता निर्माण और प्रत्युपायों के लिए प्रभावी कार्यक्रम तैयार करना।

  • विशेषकर ऋण व्युत्पन्नियों के लिए केंद्रीय प्रतिपक्षियों के संबंध में बासेल II सहित अंतरराष्ट्रीय मानकों का सतत और समन्वित कार्यान्वयन, क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों और बचाव निधियों के पर्यवेक्षण तथा प्रतिभूतिकरण के लिए मात्रात्मक प्रतिधारण अपेक्षाओं के संबंध में नयी जोखिमों के आविर्भाव और विनियामक अंतरपणन को रोकने के लिए बासेल II सहित अंतरराष्ट्रीय मानकों का सतत और समन्वित कार्यान्वयन ।
  • वित्तीय लिखतों, ऋण-हानि प्रावधानीकरण, तुलनपत्र से इतर एक्सपोजर और वित्तीय आस्तियों की क्षति एवं मूल्यांकन के लिए उच्च गुणवत्तापूर्ण, वैश्विक, स्वतंत्र लेखांकन मानकों के एक सेट की ओर अभिसरण।

भारत की स्थिति

7. भारत में वित्तीय क्षेत्र को सुदृढ़ और विकसित करना वास्तविक क्षेत्र की जरूरतों का सहायक रहा है। भारतीय अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों का सुमेलित विकास सुनिश्चित करने के लिए हमेशा प्रयास किये जाते रहे हैं। अब अंतरराष्ट्रीय रूप से स्वीकृत सिद्धांतों पर आधारित अनेक उपाय संकट से पहले ही कार्यान्वित किये जा चुके थे। इनमें बैंकिंग और गैर-बैंकिंग संस्थाओं के लिए लीवरेज पर प्रतिबंध, चलनिधि की सख्त अपेक्षा, प्रति-चक्रीय विवेकपूर्ण उपाय, जिन मदों को अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर घटाने की मांग की जा रही है उन्हें कई बार टियर 1 पूंजी में नहीं लिया जाना, विशेष प्रयोजन माध्यमों को बेची गई प्रतिभूतिकृत आस्तियों से प्राप्त लाभ को जारी प्रतिभूतियों के जीवन काल में फैलाकर मानना, अर्जन या टियर 1 पूंजी में अप्राप्त लाभ को न मानना शामिल हैं। पर्याप्त सुरक्षा उपायों के अधीन और सुदृढ़ जोखिम प्रबंध नीतियां अपनाकर वित्तीय उत्पादों और नवोन्मेष के जरिये वास्तविक क्षेत्र के विकास को सुकर बनाना हमारी चुनौती है। वित्तीय विनियमन और पर्यवेक्षण को अधिक सुदृढ़ करने के लिए निम्नलिखित उपाय रिज़र्व बैंक के पास विचाराधीन ह:ं

  • बासेल II ढाँचे की ओर जाने के लिए बीसीबीएस से प्राप्त जुलाई 2009 के अंतिम दस्तावेजों के आधार पर मानकीकृत विधि से सुसंगत और दिशानिर्देश जारी किये जा रहे हैं।

  • एकीकृत चलनिधि जोखिम प्रबंधन प्रणाली अपनाने के लिए कार्यविधि का पूरा ब्योरा देते हुए मसौदा परिपत्र तथा सितम्बर 2008 में प्रकाशित बासेल समिति के ‘सुदृढ़ चलनिधि जोखिम प्रबंधन एवं पर्यवेक्षण के लिए सिद्धांत’ पर आधारित ‘चलनिधि जोखिम प्रबंध’ पर निर्देशन नोट तथा साथ ही अन्य अंतरराष्ट्रीय बेहतरीन पद्धतियां 31 अक्तूबर 2009 तक रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर डाली जायेंगी।
  • वित्तीय बाजार की बुनियादी संरचना विकसित करने के अंग के रूप में हाल में सीसीपी के लिए पूंजी पर्याप्तता मानदंड निर्धारित किये गये हैं। सीसीआइएल की भूमिका धीरे-धीरे ओटीसी ब्याज दर और विदेशी विनिमय व्युत्पन्नी खंड तक बढ़ाई जा रही है, जिसे प्रारंभ में रिपोर्टिंग खंड तक और उसके बाद निपटान पहलू तक बढ़ाना है।

  • बैंकों द्वारा उद्भूत और क्रय किये गये ऋणों के प्रतिभूतिकरण के लिए न्यूनतम अवरुद्धता अवधि और न्यूनतम प्रतिधारण मानदंड पर ध्यान केंद्रित करते हुए प्रतिभूतिकरण पर अतिरिक्त निर्देश शीघ्र ही जारी करना प्रस्तावित है।

  • व्यवस्था को बढ़ाने के लिए हाल में वित्तीय संगुटों के विनियामक और पर्यवेक्षी ढाँचे की समीक्षा की गई है। इस वृद्धि को शीघ्र ही परिचालन में लाया जायेगा।

  • रिज़र्व बैंक शीघ्र ही बैंकों द्वारा पूंजी के निजी पूल जारी करने और उनका प्रबंधन करने के बारे में विवेकपूर्ण मुद्दों पर मसौदा चर्चा पत्र जारी करेगा ताकि ऐसे कार्यकलापों में निहित जोखिमों के बारे में बैंकों को सुग्राहित किया जा सके और उनके जोखिम प्रबंधन एवं उपलब्ध पूंजी के अनुरूप ऐसे एक्सपोजर की सीमा निर्धारित की जा सके।

  • जैसाकि अप्रैल 2009 में घोषित वार्षिक नीतिगत वक्तव्य में इंगित किया गया है, रिज़र्व बैंक क्षतिपूर्ति पैकेज के संबंध में वित्तीय संस्थाओं के लिए एफएसबी द्वारा तैयार की जा रही सुदृढ़ प्रक्रियाओं/सिद्धांतों को लागू करने की सिफारिश करेगा।

  • लेखांकन मानकों के अभिसरण के क्षेत्र में उल्लेखनीय प्रगति हुई है। भारतीय लेखांकन मानकों के अप्रैल 2011 से आइएफआरएस के साथ पूरी तरह से अभिसारी होने की उम्मीद है। बैंकिंग प्रणाली द्वारा सुगम अभिसरण की तैयारी सुनिश्चित करने के लिए भारतीय रिज़र्व बैंक सरकार, लेखांकन मानक निकायों और बैंकों के साथ सक्रिय रूप से कार्य कर रहा है।

भावी दिशा

8. वित्तीय क्षेत्र के विनियमन एवं पर्यवेक्षण को सुदृढ़ करने के लिए तैयार की जा रही कार्यसूची बहुत महत्वाकांक्षी है। विनियामक सहयोग के लिए राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय दोनों स्तरों पर विवादास्पद मुद्दे उठेंगे। जहां इस विनियामक पुन:कल्पन में अंतर्निहित सिद्धांतों को अधिकाधिक रूप में स्वीकार किया जा रहा है, वहीं उनकी व्यावहारिकता और कार्यान्वयन के तरीकों के संबंध में कई चुनौतियां सामने आएंगी :

  • पहली, यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि विनियामक एवं पर्यवेक्षक यह सुनिश्चित करने के लिए अपने संकल्प में दृढ़ रहें कि प्रणाली में जोखिम नहीं बढ़ने पाए और तैयार किये गये सिद्धांतों और ढाँचे का अक्षरश: पालन किया जाए।
  • दूसरी, संस्थाओं एवं बाजारों की अन्तर-संबद्धता यह अपेक्षा करती है कि केंद्रीय बैंक, बैंकिंग एवं प्रतिभूति विनियामक सूचना के पूर्ण आदान-प्रदान के साथ गहन समन्वय में कार्य करें और किसी भी समय प्रणालीगत जोखिम का निर्धारण करने के लिए अक्सर बातचीत करें।
  • तीसरी, राष्ट्रीय क्षेत्राधिकार में कई प्रति-चक्रीय प्रस्ताव आर्थिक और बैंकिंग स्थिति के निर्धारण पर निर्भर हैं जो पूंजी बफर अपेक्षा का निर्धारण करेंगे। ये स्पष्टत: एक अधिकार-क्षेत्र से दूसरे में भिन्न होंगे क्योंकि इनका चक्र भी भिन्न होगा। बैंक विश्व भर में कार्यरत हैं जिसका यह अर्थ है कि अलग-अलग क्षेत्राधिकार में पूंजी की अपेक्षा भिन्न होगी, अत: लेनदेन अधिक अनुकूल क्षेत्राधिकार में करने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।  जटिल संरचना और विभेदात्मक कर प्रणाली के साथ विनियामक एवं कर अंतरपणन को न्यूनतम बनाये रखना एक बड़ी चुनौती बनी रहेगी।
  • चौथी, सीमापारीय समाधान के मुद्दे निरुसाहित करने वाले बने रहेंगे, विशेषकर इसलिए क्योंकि राष्ट्रीय विनियामक देशी जमाकर्ताओं एवं पणधारियों की सुरक्षा करना चाहेंगे।
  • पांचवीं, अंतरराष्ट्रीय लेखांकन मानकों की ओर अभिसरण न केवल उन मानकों में परिवर्तन लाने के रूप में बड़ी चुनौती होगा, जो देश के लिए उपयुक्त हैं, बल्कि अभिसरण को सुगम बनाने के लिए प्रणालियां एवं क्षमताएं शुरू  करने की भी चुनौती होगी।  अप्राप्त लाभों का वितरण न करने के लिए विवेकपूर्ण फिल्टर लगाने जैसे मुद्दे भी उभर कर सामने आयेंगे।
  • छठी, जहां वैश्विक वित्तीय बाजारों में सुधार के संकेत दिख रहे हैं, वहीं वित्तीय प्रणाली में आघात-सहनीयता का वास्तविक परीक्षण निकास प्रक्रिया के जरिये इसका कार्यनिष्पादन होगा। हमारी जैसी उभरती बाजार अर्थव्यवस्थाओं के लिए वैश्विक स्थिरीकरण की इस प्रक्रिया के प्रभाव का प्रबंध करना एक चुनौती होगी।
  • सातवीं, भारत जैसे उभरते बाजारों में ऋण एवं चूक चक्रों के पर्याप्त ऐतिहासिक आंकड़ों के बिना, प्रत्याशित हानि प्रावधानीकरण, पीडी से संबद्ध अतिरिक्त पूंजी बफर जैसे विनियामक ढाँचे के अंतर्गत कई उन्नत कार्यविधियों को शुरू करना मुश्किल है।
  • आठवीं, ईएमई के लिए एक अतिरिक्त चुनौती यह है कि वे उन अस्थिर अंतरराष्ट्रीय पूंजी प्रवाहों से अरक्षित हैं जो वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए बृहत् आर्थिक स्थितियों के आधार पर उचित विनियामक नीतियों को आवश्यक बना देती हैं।
  • अंत में, भारत जैसे देशों के लिए इनका देरी से आने का लाभ यह है कि नये उत्पाद एवं लिखत शुरू करते समय उसे वैश्विक अनुभव का लाभ मिलेगा ताकि नवोन्मेष के लाभ प्राप्त करने के साथ कमियों से बचा जा सके।

संदर्भ

वैश्विक आर्थिक संभावना, (2009) : अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, अप्रैल।
वैश्विक आर्थिक संभावना, (2009क) : अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, अद्यतन, जुलाई।
वैश्विक वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट (2009), अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष, अप्रैल।

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