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विकास की संभावनाओं को बनाए रखना : प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना * - उषा थोरात

श्रीमती उषा थोराट, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक

उद्बोधन दिया

विकास की संभावनाओं को बनाए रखना : प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना *
उषा थोरात

* हैदराबाद में 11 सितम्बर 2009 को इंस्टिट्यूट ऑफ पब्लिक एंटरप्राइजेज एंड एनएमडीसी लि., सीआइआइ (आंध्र प्रदेश) और सीईओ क्लब्स इंडिया द्वारा आयोजित ‘सीईओ एवं सीएफओ की सभा’ के उद्घाटन सत्र में भारतीय रिज़र्व बैंक की उप गवर्नर श्रीमती उषा थोरात द्वारा दिया गया प्रमुख संबोधन। इस प्रमुख संबोधन को तैयार करने में श्री राजीब दास द्वारा दी गई सहायता के लिए उनके प्रति आभार प्रकट किया जाता है।

इस सभा में ‘नये शासन की उच्च प्राथमिकताएं - विकास रणनीतियां’ विषय पर विद्वान लोगों के सामने बोलने का मुझे सौभाग्य मिला है। हमारी जैसी उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए विशेषकर वर्तमान संदर्भ में यह विषय विशेष रूप से प्रासंगिक है।

2. जैसाकि यह भलीभांति माना जाता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में अत्यधिक विकास की संभावना है और यह वर्तमान सहस्राब्दि के आर्थिक शक्ति केंद्रों में से एक हो सकती है। संकट के बाद विकास का केंद्र उभरते एशिया की ओर अंतरित होने के कारण चीन के साथ भारत का आर्थिक प्रभुत्व अधिक होने की संभावना है। जहां चालू वैश्विक हलचल और बृहत्-आर्थिक जोखिमों पर इसके प्रभाव के बारे में चितांओं पर विचार-विमर्श जारी है और यह प्रासंगिक भी है, वहीं हमारे लोगों के कल्याण के लिए दीर्घकालिक मुद्दों और कार्यसूची से हमारा ध्यान नहीं हटना चाहिए।

3. आज के मेरे संबोधन में मैं कुछ ऐसे मुद्दों को उठाऊंगी जो हमारी विकास संभावनाओं को बल देने के लिए हमारी बैंकिंग प्रणाली से संबद्ध हैं। लेकिन उनके बारे में बताने से पहले संक्षिप्त बृहत् विहगावलोकन उपयोगी होगा।

4. वर्ष 2003-08 के दौरान भारतीय अर्थव्यवस्था की 8.8 प्रतिशत औसत विकास दर, समकालीन दुनिया में चीन के बाद अब तक दर्ज सर्वाधिक दर है। उच्च विकास देशी बचत दर में वृद्धि (2001-02 के 23.5 प्रतिशत से 2007-08 में 37.7 प्रतिशत) से उत्पन्न हुआ, जिसे मामूली मुद्रास्फीति और बृहत्-आर्थिक स्थिरता के माहौल में निवेश दर में वृद्धि (22.8 प्रतिशत से बढ़कर 39.1 प्रतिशत) का सहयोग मिला। हालांकि, वैश्विक आर्थिक संकट से प्रभावित होने के कारण, 2008-09 की दूसरी छमाही में 5.8 प्रतिशत के साथ, 2008-09 में विकास दर घटकर 6.7 प्रतिशत रह गई, यह मुख्यत: कम निर्यात मांग और घटती विदेशी चलनिधि के कारण हुआ। अर्थव्यवस्था के पुन: विकास की प्रवृत्ति की ओर बढ़ने की संभावना नहीं है क्योंकि उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में मंदी जारी रहेगी और विश्व व्यापार में 12 प्रतिशत की बड़ी गिरावट के साथ अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक निधि द्वारा वैश्विक विकास में 1.4 प्रतिशत की कमी प्रक्षेपित है। रिज़र्व बैंक द्वारा हाल में किये गये निर्धारण के अनुसार भारतीय अर्थव्यवस्था में 6 प्रतिशत वृद्धि की संभावना है। वर्ष 2009-10 की पहली तिमाही में जीडीपी वृद्धि मोटे तौर पर उसके अनुरूप (6.1 प्रतिशत) है।

5. वर्तमान में ध्यान अर्थव्यवस्था को पुन: उच्च विकास पथ पर लाने पर है जिसका मुख्य आशय सभी के लिए उच्चतर जीविका स्तर सुनिश्चित करना है। ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना दस्तावेज (2007-12) में योजना आयोग ने समावेशी विकास प्रक्रिया को तेज करने के लिए अनेक प्राथमिकताएं अभिनिर्धारित की हैं ताकि योजना अवधि के दौरान अर्थव्यवस्था लगभग 9 प्रतिशत की दर से बढ़ सके। विकास की प्रमुख अपेक्षाओं में से एक पूंजी निर्माण है और इसके लिए यह अनिवार्य है कि अधिकाधिक घरेलू बचतों को वित्तीय बचतों की ओर निर्देशित किया जाये जिससे पूंजी निर्माण में सहायता मिले। वर्तमान में कुल घरेलू बचतों में वित्तीय बचतों का हिस्सा 48.5 प्रतिशत है। यदि इस हिस्से को बढ़ाना है तो देश में बैंकिंग, बीमा और पूंजी बाजार उत्पादों के और अधिक व्यापन की जरूरत है। अत: उच्चतर और दीर्घकालीन विकास सुनिश्चित करने के लिए अधिक पूंजी निर्माण हेतु वित्तीय समावेशन की नीति महत्वपूर्ण है।

6. मैं कृषि, सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों और बुनियादी संरचना के लिए पर्याप्त ऋण सुनिश्चित करने वाले मुद्दों पर विशेष रूप से चर्चा करना चाहूंगी, ये सभी कायम रहने योग्य एवं समावेशी विकास हासिल करने के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण हैं। इस कार्यशाला में इन्हें विकास के साधन के रूप में मानना ठीक ही है।

कृषि

7. वर्ष 2003-08 के दौरान जबरदस्त और उपर्युक्त प्रवृत्ति विकास दर्ज करने के बाद, 233.9 मिलियन टन का रिकॉर्ड खाद्यान्न उत्पादन के बावजूद वर्ष 2008-09 के दौरान समग्र कृषि उत्पादन में कमी हुई। जहां रबी की फसलों में अधिक उत्पादन हुआ, वहीं कुछ राज्यों में बाढ़ के कारण खरीफ की फसलें प्रभावित हुईंं। वर्ष में मोटे अनाजों, दालों, तिलहनों के उत्पादन में कमी हुई तथा गन्ने और कपास के उत्पादन में गिरावट आई। कुछ वर्षों में भारतीय कृषि का बागबानी, पशुधन और मछलीपालन की ओर विशाखन देखा गया है, कृषि और संबद्ध जीडीपी में इनका संयुक्त हिस्सा लगभग 60 प्रतिशत हो गया। वर्ष 2008-09 के दौरान संबद्ध क्षेत्र में 5 प्रतिशत से 6 प्रतिशत के बीच वृद्धि होने की आशा है। यद्यपि जीडीपी में कृषि का हिस्सा अस्सी के दशक के 36.4 प्रतिशत से घटकर अब लगभग 17.0 प्रतिशत रह गया है लेकिन अपने भोजन और आजीविका के लिए कृषि पर निर्भर लोगों की संख्या लगभग 60 प्रतिशत पर अपरिवर्तित है, यह देश में वृद्धि को बनाये रखने के लिए कृषि के महत्व को रेखांकित करता है।

8. विभिन्न अध्ययनों में यह भविष्यवाणी की गई है कि दीर्घकाल में जनसंख्या में वृद्धि और बढ़ती प्रति व्यक्ति आय के कारण बढ़ी मांग अनाज, दालों, खाद्य तेल और चीनी की आपूर्ति को पीछे छोड़ देगी। इस संदर्भ में जिन मुद्दों का समाधान निकालने की जरूरत है उनकी पहचान निम्नानुसार की गई है। पहला, भारतीय कृषि की मानसून पर निर्भरता समाप्त करने के लिए सिंचाई महत्वपूर्ण है। देश में वास्तविक निवल सिंचित क्षेत्र 62.31 एमएच है जो देश के निवल बुवाई क्षेत्र का केवल 43 प्रतिशत है। दूसरा, गत तीन दशकों के दौरान प्रमुख फसलों की उपज की तुलना मिश्रित परिणाम देती है। जहां गेहूं की उपज 82 प्रतिशत से बढ़कर विश्व के औसत की 93 प्रतिशत हो गई, धान की उपज स्थिर रही और मक्का की उपज तेजी से अर्थात् 98 प्रतिशत घटकर विश्व औसत का 40 प्रतिशत रह गई। तीसरा, खेत की जोत का औसत आकार लगातार घट रहा है। भारत के 116 मिलियन किसानों में से लगभग 60 प्रतिशत के पास 1 हेक्टेयर से कम है और उनके पास कुल मिलाकर भूमि का 17 प्रतिशत हिस्सा है। इस प्रकार, कई बहुत छोटे खेत आजीविका संबंधी जोत हैं, जिनमें कम निवेश और कम उत्पादकता होती है। चौथा, नाइट्रोजन-फॉसफोरस-पोटाशियम (एनपीके) उर्वरकों के उपयोग में असंतुलन से भूमि में अवक्रमण (डिग्रेडेशन) की समस्या उत्पन्न हो गई है और यह उत्पादकता को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर रही है। पांचवां, बढ़ती आर्थिक सहायता ने निवेश को अवरुद्ध कर दिया है।

9. कृषि और संबद्ध जीडीपी की तुलना में कृषि में सकल पूंजी निर्माण 1999-2000 के 11.2 प्रतिशत से थोड़ा-सा बढ़कर वर्ष 2007-08 में 14.2 प्रतिशत हो गया। इस वृद्धि में बड़ा अंशदान सार्वजनिक क्षेत्र का रहा, जिनका हिस्सा 1999-2000 के 6.0 प्रतिशत से बढ़कर 2006-07 में 8.2 प्रतिशत हो गया। निजी क्षेत्र का तदनुरूप हिस्सा 10.2 प्रतिशत से घटकर 7.0 प्रतिशत रह गया।

10. कृषि ऋण की दृष्टि से अपनाई गई व्यापक नीतियां निम्नानुसार हैं

  • वाणिज्य बैंक ऋण का 18 प्रतिशत कृषि क्षेत्र को उधार देने का अधिदेश, जिसका कम से कम 13.5 प्रतिशत प्रत्यक्ष कृषि के लिए हो। कृषि ऋण को तीन वर्षों में दुगुना करने की नीति 2004-05 में शुरू हुई।
  • वर्ष 2006-07 से भारत सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों द्वारा दिये गये फसली ऋणों के लिए ब्याज दर सब्सिडी प्रदान की है। यह दर 2 प्रतिशत से बढ़ाकर 3 प्रतिशत कर दी गई है। गत तीन वर्षों की सब्सिडी की राशि 6019 करोड़ रुपये है।
  • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और ग्रामीण सहकारी ऋण संरचना को सुदृढ़ करना।
  • ग्रामीण एवं अर्ध शहरी क्षेत्रों में अधिक शाखा विस्तार तथा अधिक बैंकिंग व्यापन के लिए मध्यवर्तियों और आइटी समाधान के उपयोग को प्रोत्साहित करना।
  • प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र और कमजोर वर्गों को ऋण देने में कमी होने पर आरआइडीएफ में निवेश। वर्ष 1995-96 में इसकी शुरुआत से लेकर जून 2009 तक आरआइडीएफ की विभिन्न परियोजनाओं में संचयी संवितरण 58041 करोड़ रुपये हुआ।
  • वर्ष 2008-09 के केंद्रीय बजट में ऋण माफी कार्यक्रम के तहत कृषक ऋणों को बट्टे खाते डाला गया और उन्हें बैंकिंग प्रणाली तक पुन: पहुंचने में समर्थ बनाया गया।

11. इन नीतियों के कारण कृषि ऋण के हिस्से में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और कृषि एवं संबद्ध जीडीपी का हिस्सा वर्ष 2004-05 के 22.7 प्रतिशत से बढ़कर वर्ष 2008-09 में 33.3 प्रतिशत हो गया। वर्ष 2003-08 के दौरान कृषि ऋण की चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर इस अवधि में समग्र बैंक ऋण के 24.5 प्रतिशत की तुलना में 28.4 प्रतिशत रही। इस अवधि के दौरान कृषि में समग्र निजी पूंजी निर्माण में कटौती यह संकेत करती है कि अधिकांश वृद्धिशील ऋण उत्पादन के लिए दिया गया है न कि निवेश के लिए। यह एक ऐसा मुद्दा है जिसका और अध्ययन करने की जरूरत है ताकि उन कारकों को समझा जा सके जो कृषि में निजी पूंजी निर्माण को रोकते हैं। स्पष्टत: ये कृषि में विकास को रोकने वाले कारकों के रूप में अभिनिर्धारित कारकों से गहन रूप से जुड़े होंगे।

सूक्ष्म एवं लघु उद्यम (एमएसई)

12. जहां कृषि क्षेत्र में गैर-वित्तीय कारक अधिक महत्वपूर्ण हो सकते हैं, वहीं एमएसई क्षेत्र में विकास के लिए ऋण अनिवार्य निविष्टि है। सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय की वर्ष 2006-07 की वार्षिक रिपोर्ट में दिये गये सूक्ष्म एवं लघु उद्यमों (एमएसई) के आंकड़ों के अनुसार इस क्षेत्र का कुल औद्योगिक उत्पादन में लगभग 39 प्रतिशत हिस्सा, औद्योगिक क्षेत्र के निर्यातों में 34 प्रतिशत और विनिर्माण एवं सेवा क्षेत्र में लगी इकाइयों में कुल रोजगार में इनका हिस्सा लगभग 35 प्रतिशत है। इस क्षेत्र ने वर्ष 2007-08 में मंदी के संकेत, विशेषकर रोजगार वृद्धि 2.9 प्रतिशत, दिखाने से पहले वर्ष 2003-07 के प्रसरणशील चरण के दौरान उत्पाद के मूल्य, निर्यात और रोजगार में क्रमश: 16.8 प्रतिशत, 20.0 प्रतिशत और 4.4 प्रतिशत की जबर्दस्त वार्षिक औसत वृद्धि दर्ज की।

13. सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम मंत्रालय की 2006-07 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2005-06 में इस क्षेत्र से उत्पादन के मूल्य में स्थायी निवेश का हिस्सा 37.8 प्रतिशत रहा (जिसमें वर्ष 1999-2000 के 59.9 प्रतिशत और वर्ष 2002-03 के 51.6 प्रतिशत की तुलना में तेजी से कमी हुई)। हालांकि, इस क्षेत्र के जीडीपी के हिस्से के रूप में इस क्षेत्र को ऋण वर्ष 1999-2000 के 55.0 प्रतिशत से थोड़ा बढ़कर वर्ष 2006-07 में 56.7 प्रतिशत हो गया। समग्र बैंक ऋण में एमएसई को ऋण वर्ष 1999-2000 के 14.5 प्रतिशत से घटकर वर्ष 2006-07 में 7.2 प्रतिशत रहा। हालांकि इस अवधि में इस क्षेत्र को ऋण की वार्षिक वृद्धि दर 20.5 प्रतिशत से अधिक रही, संपूर्ण प्रणाली को ऋण में 30.3 प्रतिशत की वृद्धि हुई। वर्ष 2008-09 में एमएसई का हिस्सा बढ़कर 11.4 प्रतिशत हो गया, लेकिन यह परिभाषा बदलने के कारण गत आंकड़ों से तुलनीय नहीं है।

14. बैंक से ऋण लेने में एमएसई उधारकर्ताओं द्वारा बताई गई समस्याओं में संपार्श्विक प्रतिभूति/गारंटी का आग्रह,  बैंकों की सीमित पहुंच, सख्त दृष्टिकोण, उच्च ब्याज एवं अन्य लागतें, जटिल दस्तावेजीकरण, समर्थक कारोबार विकास सेवाओं की कमी आदि शामिल हैं।  बैंकर की दृष्टि से इस क्षेत्र को ऋण की सुपुर्दगी को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण कारकों में निम्न इक्विटी आधार, विपणन व्यवस्था का अभाव, निधियों का विपथन, कमजोर प्रबंधन और बुककीपिंग, उच्चतर अनर्जक आस्तियां और बिलों के भुगतान में देरी, विशेषकर मंदी के दौरान, के कारण बढ़ती प्राप्यराशियां शामिल हैं।

15. इस क्षेत्र को ऋण देने संबंधी प्रमुख नीतियों में निम्नलिखित हैं

  • ऋण प्रवाह बढ़ाने के उपाय, जिससे सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों से इस क्षेत्र को ऋण में लगभग तीन गुना वृद्धि हुई और यह 31 मार्च 2005 के 67,600 करोड़ रुपये से 31 मार्च 2009 को 1,90,958 करोड़ रुपये हो गया।
  • सूक्ष्म इकाइयों के लिए उप-सीमा के साथ एमएसई (संशोधित परिभाषा के अनुसार) को प्राथमिकताप्राप्त क्षेत्र में शामिल करना।
  • यह शर्त कि एमएसई इकाइयों से 5 लाख रुपये तक के ऋणों के लिए संपार्श्विक प्रतिभूति नहीं लिया जाना चाहिए।
  • सिडबी द्वारा प्रबंधित ऋण गारंटी न्यास निधि से संपार्श्विक प्रतिभूति-मुक्त ऋणों के लिए ऋण गारंटी प्रदान करना।

16. इस क्षेत्र को वर्ष 2003-08 की तेजी की अवधि में सभी श्रेणियों के बैंकों ने निधियां प्रदान कीं। चूंकि ऑटोमोबाइल और अन्य क्षेत्रों के कई प्रमुख निर्माताओं ने अपनी निविष्टियां और आपूर्तियां लघु उद्यमों से लेनी आरंभ कीं, अत: बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों ने ऐसे लघु उद्यमों को ऋण देना अच्छा कारोबार माना। कई मामलों में बैंक बड़े निर्माताओं को पहले से ही वित्तपोषण कर रहे थे, अत: वे उनके माध्यम से सुपुर्दगी और वसूली की व्यवस्था कर पाये। अत: इनवॉइस वित्तपोषण या चैनल वित्तपोषण कहे जाने वाले मॉडल से लघु उद्यमों को ऋण प्रवाह बढ़ा। हालांकि मंदी के समय लघु इकाइयों की प्राप्यराशियां एवं इन्वेंटरी बढ़ गई तथा बैंक उनको और उधार देने के अनिच्छुक हो गये जिसके कारण कई इकाइयों को कठिनाई हुई। इस स्तर पर भारत सरकार और रिज़र्व बैंक ने परिचालन जारी रखने तथा प्रभावित इकाइयों को सहायता सुनिश्चित करने के लिए कई उपाये किये। 31 अक्तूबर 2008 को बैंकों को सूचित किया गया कि वे जिन मामलों में आवश्यक हो, एमएसई द्वारा देयराशियों की पुनर्संरचना करने पर विचार करें और मंजूर सीमाओं के अंतर्गत ऋण संवितरण जारी रखें। एमएसई क्षेत्र को सहायता करने के लिए पुनर्वित्त की विशेष सीमाएं शुरू की गईंं और सिडबी को 7000 करोड़ रुपये की सीमा प्रदान की गई। राज्य स्तरीय बैंकर समिति के आयोजक बैंकों को एमएसई क्षेत्र की समस्याओं के निदान के लिए विशेष बैठकें आयोजित करने के लिए सूचित किया गया। बैंकों के क्षेत्रीय/अंचल कार्यालयों को एमएसई को ऋण प्रवाह पर गहनता से निगरानी रखने और प्रमुख केंद्रों पर सहायता डेस्क शुरू करने के लिए सूचित किया गया।

17. बड़ी कंपनियों की तुलना में लघु उद्यमों की पूंजी जुटाने और दीर्घकालिक निधियों के लिए पूंजी बाजारों तक पहुंच सीमित है। इसके अलावा, ऐसी इकाइयों को शुरुआती चरणों में सहारा और कारोबार विकास एवं सहायता सेवाओं की जरूरत होती है। अक्सर उन्हें परियोजना रिपोर्टें और समुचित लेखे तैयार करने के लिए भी सहायता की जरूरत होती है। बिना ट्रैक रिकॉर्ड वाले नये उद्यमों के लिए जोखिम पूंजी या प्रारंभिक निधीयन अधिकांशत: मित्रों एवं रिश्तेदारों से प्राप्त होता है और यह एक ऐसा क्षेत्र है जहां मांग आपूर्ति से काफी अधिक है। कार्यशील पूंजी में देरी या अपर्याप्तता से परिचालन प्रभावित हो सकते हैं। बड़ी संख्या से डील करने के लिए बैंकों को बड़े जोखिम स्कोरिंग मॉडलों और आइटी क्षमताओं की जरूरत है। यदि निधियां जुटाने की समग्र लागत को कम करना है तो लेनदेन लागत को कम करने की जरूरत है। जहां इस क्षेत्र के लिए तेजी से प्रॉसेसिंग करने और मंजूरी में मदद के लिए कई बैंकों की विशिष्टीकृत शाखाएं एवं योजनाएं हैं, वहीं बैंकों से काफी सारी प्रत्याशाएं हैं, साथ ही उनके समक्ष कई चुनौतियां भी हैं।

बुनियादी संरचना

18. ग्याहरवीं पंचवर्षीय योजना में बुनियादी संरचना के क्षेत्र में सकल पूंजी निर्माण को वर्ष 2006-07 में जीडीपी के 5 प्रतिशत से 2011-12 में योजना अवधि की समाप्ति तक जीडीपी का 9 प्रतिशत तक बढ़ाना परिकल्पित है जो 9 प्रतिशत की विकास दर को प्राप्त करने के लिए महत्वपूर्ण है। इसके लिए बुनियादी क्षेत्र में 502.88 बिलियन अमरीकी डॉलर (20,11,521 करोड़ रुपये) के निवेश की की जरूरत का अनुमान है जिसका लगभग 30 प्रतिशत (लगभग 6 लाख करोड़ रुपये) निजी क्षेत्र द्वारा वित्तपोषित किए जाने की आशा है।

19. बुनियादी क्षेत्र को ऋण देने संबंधी बैंकों का एक्सपोजर मार्च 2005 की तुलना में लगभग चार गुना हो गया है, यह बैंक ऋण के 6 प्रतिशत से बढ़कर मार्च 2009 में लगभग 9.25 प्रतिशत हो गया है। जहां इस क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश की प्रधानता होगी, वहीं इस क्षेत्र में निजी क्षेत्र की निधियों को आकर्षित करना एक चुनौती है। अधिकांश देशों में बुनियादी क्षेत्र का वित्तपोषण सरकार द्वारा स्वयं या सरकार की स्पष्ट या अंतर्निहित गारंटी से हुआ है। निजी निवेश को आकर्षित करने के लिए कई देशों ने नीति संबंधी गारंटी, पुनर्वित्त और परिपक्वता विस्तार गारंटी तथा व्यवहार्यता अंतराल निधीयन आदि का ऑफर किया है। मोनोलाइन बीमाकर्ताओं द्वारा ऋण बीमा भी प्रदान किया गया था।
20. बुनियादी क्षेत्र को बैंकों द्वारा निधियां उपलब्ध कराने पर कई प्रकार की जोखिमें हैं - यथा आस्ति-देयता बेमेल जिससे चलनिधि और ब्याज दर जोखिमें होती हैं जिससे ऋण जोखिम उत्पन्न हो सकता है, कार्यान्वयन में देरी जिससे लागत/समय में बढ़ोतरी होती है, उपयोग एवं लागत वसूली पर आधारित प्रत्याशित नकदी प्रवाह कार्यान्वित नहीं होता, नकदी प्रवाह को एक्रो में रखने के बावजूद सेवाओं के अंतिम क्रेता की वित्तीय स्थिति अनिश्चित हो जानी, एक समूह द्वारा अनेक योजनाएं निष्पादित करने पर संकेंद्रण जोखिम उत्पन्न हो जाना, आदि। भारत में कार्यान्वयन जोखिम और प्रयोक्ता प्रभार वसूली जोखिम अधिक प्रासंगिक समझे जाते हैं। संरचित योजनाओं के जरिये जोखिम को रोकने के लिए सावधानीपूर्वक सोचना चाहिए ताकि बैंकिंग प्रणाली या अंतरसंबद्ध संस्थाओं में अनुचित लीवरेज और जोखिम बढ़ने से बचा जा सके जैसाकि हाल के वैश्विक संकट ने अर्थपूर्ण ढंग से प्रदर्शित किया है।

21. रिज़र्व बैंक ने बुनियादी क्षेत्र को वित्त प्रदान करने के लिए अनेक प्रकार के उपाय किये हैं जैसे बैंकों को अंतरण (टेक-आउट) वित्तपोषण व्यवस्था करने की अनुमति प्रदान करना, बुनियादी क्षेत्र के वित्तपोषण के लिए दीर्घकालिक बांड जारी करने की स्वतंत्रता, बुनियादी क्षेत्र के लिए अतिरिक्त ऋण एक्सपोजर हेतु एकल एवं समूह उधारकर्ता सीमाओं में कुछ छूट, गैर-एसएलआर प्रतिभूतियों की 10 प्रतिशत की समग्र सीमा के भीतर बुनियादी क्षेत्र के कार्यकलापों में लगी कंपनियों के गैर-श्रेणीकृत बांडों में निवेश का लचीलापन, बुनियादी क्षेत्र के विशेष प्रयोजन माध्यम (एसपीवी) में प्रमोटरों के हिस्से को पूंजी बाजार एक्सपोजर में शामिल न करना, बैंकों को उन प्रमोटरों की इक्विटी के निधीयन के लिए वित्त प्रदान करने की अनुमति प्रदान करना जिसमें भारत में बुनियादी क्षेत्र की परियोजना को कार्यान्वित करने या परिचालित करने में लगी मौजूदा कंपनी के शेयरों के अधिग्रहण का प्रस्ताव शामिल हो। हमने हाल में वाणिज्यिक भूसंपदा क्षेत्र की परिभाषा को संपार्श्विक प्रतिभूति की बजाय चुकौती के स्रोत से जोड़कर संशोधित किया है ताकि होटल, अस्पताल, कतिपय प्रकार की विशेष आर्थिक क्षेत्र परियोजनाओं आदि को वाणिज्यिक भूसंपदा क्षेत्र (सीआरई) में न शामिल होने के रूप में वर्गीकृत किया जा सके।

22. बुनियादी क्षेत्र में सार्वजनिक निवेश को प्रोत्साहित करने के लिए विशेष प्रयोजन माध्यम - इंडिया इंफ्रास्ट्रक्चर फाइनैंस कंपनी लिमिटेड (आइआइएफसीएल) - बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाओं को दीर्घकालिक वित्तीय सहायता प्रदान करने के लिए स्थापित की गई। 2009-10 के केंद्रीय बजट में यह घोषणा की गई कि बैंकों से परामर्श कर आइआइएफसीएल बुनियादी क्षेत्र को उधार देने में सहायता के लिए ‘अंतरण वित्तपोषण’ की शुरुआत करेगा। सार्वजनिक-निजी सहभागिता (पीसीपी)तरीके से बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाओं को वित्तपोषण में आनेवाले अवरोधों को दूर करने के लिए सरकार ने यह निर्णय लिया है कि अगले पंद्रह से अठारह महीनों में महत्वपूर्ण क्षेत्र की पीपीपी परियोजनाओं के लिए वाणिज्य बैंकों के ऋणों का 60 प्रतिशत पुनर्वित्त आइआइएफसीएल प्रदान करेगा। आइआइएफसीएल को वर्ष 2008-09 के अंत तक सरकारी गारंटीप्राप्त कर मुक्त बांडों के माध्यम से 10,000 करोड़ रुपये जुटाने और वर्ष 2009-10 में जरूरत के अनुसार उसी आधार पर 30,000 करोड़ रुपये जुटाने के लिए प्राधिकृत किया गया। पुनर्वित्तपोषण विकल्प से लगभग 1,00,000 करोड़ रुपये तक पीपीपी कार्यक्रमों के लिए बैंक वित्त को लीवरेज किए जाने की आशा है। बुनियादी क्षेत्र की विशाल वित्तपोषण आवश्यकता को देखते हुए आइआइएफसीएल को सीधे ऋण जोखिम उठाने की जरूरत है। इसके अलावा, आइआइएफसीएल ऋण बढ़ाने, जोखिम को कम करने, बैक-स्टॉप चलनिधि और अंतरण वित्तपोषण के लिए कर मुक्त बांड जुटाने के लिए अपनी पूंजी और बजट आबंटन को लीवरेज करने की संभावनाएं तलाश कर सकता है जिससे बुनियादी क्षेत्र के लिए अधिक निजी निधीयन (बैंक निधीयन सहित) आकर्षित किया जा सके।

23. चूंकि बुनियादी क्षेत्र की परियोजनाएं बड़े आकार की होती हैं और प्राय: कुछ बड़े समूहों द्वारा निष्पादित की जाती हैं, अत: एक्सपोजर सीमा की अपेक्षाओं के कारण बैंक निधीयन आवश्यक रूप से सीमित है। पहले एक्सपोजर सीमा - विशेषकर समूह सीमा - में उस स्थिति में छूट देने का सुझाव आया था जहां परियोजनाएं विशेष प्रयोजन माध्यम से किसी संस्था द्वारा निष्पादित की जाती हैं और ऐसी परियोजनाओं से उत्पन्न नकदी प्रवाह को अलग से ‘एक्रो’ खाते में रखा जाता है। समूहों के लिए एक्सपोजर सीमा का उद्देश्य संकेंद्रण जोखिम को न्यूनतम करना है। यह परिकल्पना करना मुश्किल है कि समूह के सामने आने वाली समस्याएं सहयोगी संस्थाओं तक नहीं पहुंचेंगी या इसके विपरीत नहीं होगा अथवा यह कि समूह से सहयोग वह कारक नहीं है जो वित्तपोषण को पहली ही बार में प्रोत्साहित करता है। किसी भी स्थिति में, मुद्दा यह है कि क्या अतिरिक्त जोखिम के लिए अतिरिक्त सुरक्षा उपाय चाहिए और इसी की हम जांच कर रहे हैं। उधारकर्ताओं को भी यह तथ्य स्वीकार करने की जरूरत है कि उनकी जरूरतें कुछ बैंकों या बैंकिंग प्रणाली द्वारा पूरी नहीं जा सकतीं और उन्हें अपनी बड़ी परियोजना अपेक्षाओं के लिए संघटित संरचनाओं और कॉरपोरेट बांड निर्गमों की संभावनाएं तलाशनी होंगी।

24. इस संदर्भ में, कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि कॉरपोरेट बांड बाजार के विकास के लिए बैंकों को गारंटी जैसे ऋण स्थानापन्न प्रदान करने चाहिए। अन्य देशों विशेषकर कोरिया और चीन का अनुभव प्रोत्साहित करने वाला नहीं रहा, जहां कोरिया ने अपने बांड बाजार को ‘कोई बैंक गारंटी नहीं’ बाजार बना रखा है, वहीं चीन के लिए कहा जाता है कि उसने ऐसी गारंटियों पर प्रतिबंध लगा रखा है। भारत में विद्यमान विनियामक नीतियां बैंकों को कॉरपोरेट बांडों की गारंटी देने की अनुमति प्रदान नहीं करतीं। इसके अनेक कारण हैं। 100 प्रतिशत बैंक गारंटी के साथ व्यापारयोग्य बांड जारी करना कॉरपोरेट बांड बाजार के विकास को कई प्रकार से रोकता है। पहला, ऐसा प्रॉडक्ट एक्सपोजर की पूरी जोखिम बैंकिंग प्रणाली पर डालता है और यह बैंक के स्वयं के द्वारा जारी किए गए बांड की तरह होता है। दूसरा, यह कॉरपोरेट बांडों के मूल्य निर्धारण को विरूपित करता है। तीसरा, ऐसी प्रथा संस्थागत और खुदरा निवेशकों को ऋण जोखिम के मूल्यांकन और उसे अपनाने से निरुत्साहित करती है। किसी भी ऋण वृद्धि या संरक्षण को अलग से प्रस्तावित और मूल्य-निर्धारित किए जाने की जरूरत होती है। वैश्विक संकट से प्राप्त सीख को ध्यान में रखते हुए ऋण व्युत्पन्नी शुरू करने के लिए नीतिगत ढाँचा तैयार किया जा रहा है।

25. यह भी मत है कि कॉरपोरेट बांड बाजार केवल तब ही विकसित होगा जब रिज़र्व बैंक ऐसे बांडों की पुनर्खरीद की अनुमति प्रदान करे। सबसे पहले इस बात को स्वीकार किया जाना चाहिए कि दीर्घकालिक कॉरपोरेट बांडों के विकास के लिए दीर्घकालिक संस्थागत निवेशक यथा बीमा कंपनियां और पेंशन निधियां होनी चाहिए। बीमा और पेंशन क्षेत्रों को प्रोत्साहित करने के लिए सरकार द्वारा अनेक उपाय किये जा रहे हैं। जहां कुछ हद तक बैंक स्वीकार्य सीमा के आगे ऐसे रूपांतरण की जोखिम को कम करने के लिए परिपक्वता पर रूपांतरण कर सकते हैं वहीं जब तक स्वाभाविक रूप से बड़ी संख्या में दीर्घकालिक संस्थागत निवेशक उभर कर नहीं आते हैं तब तक एक ही विकल्प है कि स्वयं सरकार या आइआइएफसीएल जैसी सरकारी संस्थाएं समुचित जोखिम उपशामक प्रदान करें।

26. कॉरपोरेट बांडों में पुनर्खरीद के मामले में, रिज़र्व बैंक ने पहले ही कॉरपोरेट बांडों में पुनर्खरीद की अनुमति के लिए पूर्व-शर्तें निर्धारित की हैं यथा, डीवीपी पर आधारित कार्यक्षम एवं सुरक्षित निपटान प्रणाली तथा उचित मूल्यों की उपलब्धता। रिज़र्व बैंक के पास अस्थायी पूलिंग खाता खोलने के लिए शेयर बाजारों के समाशोधन गृहों को अनुमति प्रदान करना कार्यक्षम एवं सुरक्षित निपटान प्रणाली का माहौल प्रदान करने की ओर पहला कदम है। व्यापक प्रचार और अभिमतों के लिए रिज़र्व बैंक की वेबसाइट पर कॉरपोरेट बांडों में पुनर्खरीद की अनुमति के लिए मसौदा दिशानिर्देश रखे जाएंगे।

27. एएलएम मुद्दे के समाधान के लिए अंतरण वित्तपोषण एक तरीका है। कुछ लोग यह तर्क देते हैं कि अंतरण वित्तपोषण ने सही काम नहीं किया क्योंकि इसके लिए अंतरण के लिए आस्ति का प्रस्ताव करने वाली वित्तीय संस्था और बुनियादी क्षेत्र को वित्तपोषण करने वाले बैंक दोनों के द्वारा उच्चतर पूंजी अपेक्षा बनाये रखे जाने की जरूरत होती है। अंतरण सुविधा प्रदान करने वाले आइआइएफसीएल जैसे संगठनों के मामले में यह एक मुद्दा नहीं होना चाहिए। हालांकि हम इस अवरोध का पुनरावलोकन कर रहे हैं।

28. निवेशकों के लिए विशेष प्रोत्साहन के साथ बैंकों द्वारा दीर्घकालिक बांड जारी करना दूसरा सुझाव है, जो आस्ति देयता बेमेल की समस्या के समाधान के लिए दिया गया है। इसकी जांच की जा रही है, वहीं यह उल्लेख करने की जरूरत है कि शायद एक्सचेंजों में हाल में शुरू किया गया 10 वर्षीय फ्यूचर बुनियादी परियोजनाओं में ब्याज दर जोखिम को कम करने के लिए प्रॉडक्ट तैयार करने में सहायक हो सकता है।

29. अंत में, कृषि ऋण में गैर-ऋण मुद्दों, एमएसई वित्तपोषण में ऋण एवं ऋण से जुड़े और अधिक मुद्दों और बुनियादी क्षेत्र के वित्तपोषण में कई प्रकार के नवोन्मेषी जोखिम उपशामकों के समाधान की जरूरत है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली अर्थव्यवस्था के इन तीनों महत्वपूर्ण क्षेत्रों, जो बनाये रखने योग्य समावेशी विकास के लिए इतने महत्वपूर्ण हैं, में पूंजी निर्माण में अपनी यथोचित भूमिका निभा सकें।

संदर्भ

भारतीय रिज़र्व बैंक (2009) : वार्षिक रिपोर्ट
योजना आयोग (2008) : 11 वीं पंचवर्षीय योजना : 2007-12
भारत सरकार (2009) : आर्थिक सर्वेक्षण, 2008-09, वित्त मंत्रालय।
भारत सरकार (2009) : वार्षिक रिपोर्ट, सूक्ष्म, लघु एवं मझौले उद्यमों का मंत्रालय।

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