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रिज़र्व बैंक वार्षिक रिपोर्ट 2002-2003 : खास खास बातें

रिज़र्व बैंक वार्षिक रिपोर्ट 2002-2003 : खास खास बातें

27 अगस्त 2003

भारतीय रिज़र्व बैंक ने 2002-2003 के लिए अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की। कुछ खास-खास बातें :

2002-2003 का मूल्यांकन

समग्र निष्पादकता

वर्ष के दौरान, भीतरी और बाहरी, दोनों क्षेत्रों में कई प्रतिकूल गतिविधियों के असर के बावजूद भारतीय अर्थव्यवस्था का निष्पादन ठीक-ठाक रहा है। देश में सूखा पड़ा जो पिछले पन्द्रह वर्षों में सबसे भयंकर रहा। इसकी वज़ह से अनाज के उत्पादन में लगभग 29 मिलियन टन की गिरावट आयी जोकि आज़ादी के बाद के किसी एक वर्ष में सबसे बड़ी गिरावट थी।इराक युद्ध की वजह से होनेवाले तनाव से तेल मूल्यों में तीव्र वृद्धि हुई। इतना ही नहीं, वैश्विक अर्थव्यवस्था में आमतौर पर अनिश्चितता और मंद वृद्धि का माहौल बना रहा।

लचीली अर्थव्यवस्था

आज़ादी के बाद से भारत की अर्थव्यवस्था की समीक्षा करने पर यह बात सामने आती है कि इस तरह के किसी भी झटके लगने की वज़ह से अनिवार्य रूप से आर्थिक संकट सामने आ खड़े होते हैं। इनमें वृद्धि की तीव्र हानि, उच्चतर मुद्रास्फीति, भुगतान संतुलन में तकलीपें और यहां तक कि अर्थव्यवस्था में वित्तीय अस्थिरता जैसे लक्षण देखने को मिलते हैं। इस संदर्भ में देखें तो भारतीय अर्थव्यवस्था ने बीते हुए वर्ष में उल्लेखनीय लचीलापन दर्शाया है। समय पर और तालमेल के साथ अपनायी गयी आपूर्ति प्रबंधन रणनीतियों ने अपना असर दिखाया और हमेशा सुर्खियों में बनी रहने वाली मुद्रास्फीति, वर्ष के अधिकांश हिस्से में नरम बनी रही; औद्योगिक गतिविधि में कई बरसों की मंदी के बाद एक बार जीवन का संचार हुआ; मंद विश्वव्यापी व्यापार वृद्धि के बावजूद कारोबारी निर्यातों में 19.2 प्रतिशत की वृद्धि हुई; विदेशी मुद्रा के भण्डारों में 22 बिलियन अमेरिकी डॉलर की बढ़ोतरी हुई, जो कि भारत के लिए किसी भी राजकोषीय वर्ष के लिए अपने आप में एक रिकाड़ है। यह जानना रुचिकर होगा कि अतीत के इस तरह के मुश्किल वर्षों के विपरीत, जब भारत को मदद के लिए अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के आगे हाथ फैलाने पड़ते थे, भारत दरअसल अपनी वित्तीय लेनदेन योजना (फाइनान्शियल ट्रांजैक्शंस प्लान) के अंतर्गत अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का लेनदार बन गया है।

औद्योगिक वृद्धि

पिछले राजकोषीय वर्ष के दौरान देश की आर्थिक निष्पादकता की एक उल्लेखनीय विशेषता यह रही कि काफी अरसे तक चलती रहने वाली मंदी के बाद औद्योगिक क्षेत्र ने सुधार दर्शाया। बड़ी कंपनियों की बिक्रियों और लाभों में वृद्धि ने उत्साहवर्धक प्रवृत्ति दर्शायी। पिछले दो वर्षों के दौरान सांकेतिक और वास्तविक ब्याज दरों में जो गिरावट आयी है, उसने सुधार की प्रक्रिया में योगदान दिया। वृहत् आधार पर औद्योगिक निर्यातों में उच्च वृद्धि दर दर्शायी, भले ही विश्वव्यापी कारोबार में वृद्धि की दर धीमी बनी हुई थी। मौजूदा राजकोषीय वर्ष में गैर-तेल, गैर-स्वर्ण आयातों में बढ़ी हुई वृद्धि लगातार औद्योगिक वृद्धि की ओर इशारा करती है। इस तरह से घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय, दोनों स्रोतों से सामने आने वाले प्रतिस्पर्धात्मक दबावों से ज़रूरी हो गया आंतरिक पुनर्विन्यास लंबी अवधि के बाद उद्योग में बढ़ी हुई प्रतिस्पर्धात्मकता के संकेत दे रहा है।

मौद्रिक प्रबंधन

मौद्रिक नीति घरेलू मुद्रा, ऋण और विदेशी मुद्रा बाज़ारों में स्थिरता और अनुशासन बनाये रखने में कारगर रही। भारी पूंजी प्रवाहों के मुद्रास्फीतिगत प्रभाव को, बाह्य अंतर्राष्ट्रीय संव्यवहारों का क्रमबद्ध रूप से उदारीकरण करते हुए खुले बाज़ार बिक्री और चलनिधि समायोजन सुविधा (एलएएफ) के परिचालनों पर उचित समय पर कार्रवाई करते हुए नियंत्रित किया गया। एक ऐसी नरम ब्याज दर की स्थिति जो निवेशगत मांग को बढ़ाने में सहायता करे, को बनाये रखने पर मौद्रिक नीति में दिये गये बल के परिणामस्वरूप समूचे बाज़ार के सभी खण्डों में ब्याज दरें घट गयीं। चलनिधि स्थिति के सक्रिय प्रबंधन से केंद्र और राज्य सरकारों के बाज़ार उधार कार्यक्रम को सफलतापूर्वक संपन्न करने में सहायता मिली। उच्च लागत के बाह्य ऋणों की समयपूर्व चुकौती, केंद्र और राज्यों के बीच ऋण की अदला-बदली (स्वैप) और राज्यों के लिए अर्थोपाय अग्रिमों एवं ओवरड्राफ्ट योजना में व्यापक संरचनागत सुधार करके लोक ऋण प्रबंधन को सुदृढ़ बनाया गया।

वित्तीय स्थिरता

वर्ष 2002-2003 के दौरान वित्तीय क्षेत्र में किये गये सुधारों को सघन बनाने के अंतर्गत वित्तीय स्थिरता को सुनिश्चित करने का उद्देश्य प्रमुख बना रहा। विवेकपूर्ण मानदण्डों को ऐसी रणनीति अपनाते हुए सुदृढ़ किया गया है जो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम संव्यवहारों के काफी अनुरूप बनाती है। बैंकों के तुलनपत्रों को साफ-सुथरा और सुदृढ़ बनाने के लिए महत्वपूर्ण पहलें की गयीं। गैर-निष्पादक आस्तियों के प्रबंधन को, कंपनी ऋण पुनर्गठन (सीडीआर) प्रणाली लागू करके और वित्तीय आस्तियों के प्रतिभूतिकरण एवं पुनर्गठन तथा प्रतिभूति हित प्रवर्तन (एसएआरएफएइएसआइ) अधिनियम लागू करवे सशक्त बनाया गया है, जो ऋणदाताओं के अधिकारों के प्रवर्तन को सांविधिक समर्थन प्रदान करता है और, अन्य बातों के साथ साथ यह आस्ति पुनर्गठन कंपनियों (एआरसी) की स्थापना के लिए मार्ग प्रशस्त करता है। जल्दी चेतावनी देने के साधन के रूप में तत्काल सुधारात्मक कार्रवाई को लागू कराने से पर्यवेक्षीय कार्य में काफी सुधार हुआ है। आदेश चालित पद्धति द्वारा सरकारी प्रतिभूतियों के फुटकर व्यापार हेतु बुनियादी सुविधाएं विकसित करके, स्टॉक एक्सचेंजों में स्क्रीन आधारित लेनदेन प्रारंभ करके और एक्सचेंजों में लेनदेन की जानेवाली ब्याज दर व्युत्पन्न लिखतों (डेरिवेटिव्स) की शुरुआत करके वित्तीय बाज़ारों के विकास को गति दी गयी। विकास की इन गतिविधियों से बाज़ार सहभागी बाज़ार के जोखिमों को बेहतर तौर पर प्रबंधन कर सकेंगे। वित्तीय क्षेत्र में किये गये सुधारों का प्रभाव बैंकों की लाभप्रदता और वित्तीय क्षेत्र की समग्र क्षमता में वृद्धि के रूप में देखा जा सकता है।

संक्षेप में

इस तरह से, आर्थिक सुधारों और सजग मैक्रोइकॉनामिक प्रबंधन के परिणामस्वरूप भारतीय अर्थव्यवस्था परिपक्व हो गयी प्रतीत होती है। घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय प्रतिकूल ज़रूरतों की मौजूदगी में इस तरह की आर्थिक स्थिरता को आगे बढ़ाने में विदेशी मुद्रा और खाद्यान्न भंडारों की भूमिका को खास तौर पर रेखांकित किये जाने की ज़रूरत है। खाद्यान्न भंडार जून 2002 में लगभग 63.1 मिलियन टन से गिर कर एक वर्ष बाद 35.2 मिलियन टन रह गये। अगर खाद्यान्न भंडार काफी कम स्तर पर होते तो इससे मूल्यों पर बहुत अधिक दबाव पड़ सकता था। इसी तरह से बहुत बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भंडारों की मौजूदगी ने अंतर्राष्ट्रीय तेल मूल्यों में वृद्धि से उपज सकने वाले विश्वास के किसी भी अभाव को उभरने से अर्थव्यवस्था को सहारा दिया है।

2003-2004 के लिए संभावना

सकल देशी उत्पाद वृद्धि दर

वर्ष 2003-2004 की शुरुआत सुदृढ़, सकारात्मक स्थिति से हुई है। जुलाई 2003 में दीर्घावधि औसत की तुलना में अधिक वर्षा के होने और संशोधित पूर्वानुमानों में सामान्य मानसून होने की भविष्यवाणी ने इस वर्ष कृषि में सुधार की संभावनाओं को काफी बढ़ा दिया है। उस समय उपलब्ध सूचना के आधार पर रिज़र्व बैंक ने अप्रैल 2003 में मौद्रिक और ऋण नीति वक्तव्य में 2003-2004 के लिए वास्तविक सकल देशी उत्पाद में 6.0 प्रतिशत वृद्धि का अनुमान लगाया था। स्वस्थ औद्यागिक निष्पादकता के साथ अपेक्षित सुदृढ़ कृषिगत सुधार को देखते हुए उस अनुमान में अब उल्लेखनीय रूप से सुधार हो सकता है। अलबत्ता, चालू वर्ष के लिए प्रक्षेपित वृद्धि दर का पूर्ण पुनर्मूल्यांकन अक्तूबर 2003 में मौद्रिक और ऋण नीति की मध्यावधि समीक्षा के दौरान करने का प्रयास किया जायेगा। उस वक्त तक मानसून की प्रगति पर और औद्योगिक उतार-चढ़ाव के फैलाव के बारे में विश्वसनीय जानकारी उपलब्ध हो जायेगी।

मुद्रास्फीति

पिछले राजकोषीय वर्ष के अंत तक आते आते मुद्रास्फीति ने ऊपर उठने की प्रवृत्ति दर्शायी थी और मार्च 2003 के अंतिम सप्ताह में यह 6.5 प्रतिशत की अंतिम दर तक जा पहुंची थी। घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय मूल्य गतिविधियों के सजग अध्ययन पर आधारित रिज़र्व बैंक ने इस वर्ष की दूसरी तिमाही से मुद्रास्फीति में गिरावट का अनुमान लगाया था। वास्तव में ऐसा हुआ है और सुर्खियों में रहने वाली मुद्रास्फीति गिर कर इस समय 4.0 प्रतिशत से कम हो गयी है। सामान्य मानसून और उसके परिणामस्वरूप कृषिगत सुधार को देखते हुए यह उम्मीद की जाती है कि मुद्रास्फीति राजकोषीय वर्ष के बाकी हिस्से के दौरान नरम बनी रहेगी और यह 5.0 से 5.5 प्रतिशत की प्रक्षेपित दर से काफी नीची रहेगी।

आधारभूत सुधार

आधारभूत सुधारों ने परिणाम दिखाने शुरू कर दिये हैं। पिछले राजकोषीय वर्ष ने राष्ट्रीय महामार्ग विकास कार्यक्रम और ग्रामीण सड़कों, दोनों में सड़क क्षेत्र में तीव्र प्रगति दर्शायी थी। पत्तन सेवाओं और बर्थ के निजीकरण के ज़रिए पत्तनों में सुस्पष्ट क्षमता सुधार देखने में आया है। पोतों के आने-जाने, लादने, माल उतारने के (टर्न अराउंड) समय में उल्लेखनीय रूप से गिरावट आयी है और पोतों के लिए प्रतीक्षा का समय (वेटिंग टाइम) लगभग समाप्त हो गया है। टेलिकॉम क्षेत्र में शायद सर्वाधिक उल्लेखनीय गतिविधियां देखने को मिली। विनियमन हटाने, प्रतिस्पर्धा तथा प्रौद्योगिकीकरण, टेलिकॉम क्षेत्र में किराया दरों में तीव्र गिरावट हुई। इसके परिणामस्वरूप टेलिफोन लाइनों, खास तौर पर मोबाइल सेवाओं में वृद्धि में बहुत तेज़ी आयी है। अलबत्ता, पॉवर क्षेत्र में सुधार अभी भी प्रक्रिया स्तर पर है लेकिन बिजली विधेयक के पारित हो जाने के बाद उनमें तेज़ी आने की संभावना है। अहलुवालिया समिति की रिपोर्ट को अब लागू किया जा रहा है और राज्य बिजली बोर्डों की पिछली देय राशियों का प्रतिभूतिकरण किया जा रहा है तथा अब से देय राशियों की अदायगी में मौजूदा राशियों तक आने की राज्य सरकारों की वचनबद्धताएं पूरी की जा रही हैं। अलबत्ता, नागर विमानन, शहरी आधारभूत ढांचे तथा रेलवे में सुधारों ने अभी जड़ नहीं पकड़ी है।

मध्यकालिक मामले

दसवीं पंचवर्षीय योजना ने अपने लक्ष्य के रूप में सकल देशी उत्पाद में 8.0 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि दर प्रक्षेपित की थी। यह वृद्धि दर किसी भी योजना अवधि में अब तक प्राप्त की गयी दर से सबसे ऊंची है। इस तरह की वृद्धि दर को प्राप्त करने के लिए बढ़ी हुई निवेश दरें और उनके साथ सर्वांगीण कुशलता में सुधारों की ज़रूरत होगी। बढ़ी हुई निवेश दर के वित्तपोषण के लिए बढ़ी हुई घरेलू बचत दर में उल्लेखनीय रूप से बढ़ोतरी की ज़रूरत होगी और उसके साथ ही निवेश के लिए उच्च स्तर पर विदेशी बचतों को खपाने के लिए और अधिक कुशलता की भी ज़रूरत होगी। सतत चलने वाली सुधार प्रक्रिया को इस तरह से सभी क्षेत्रों में, खास तौर पर कृषि, उद्योग और आधारभूत ढांचे में सघन बनाये जाने की ज़रूरत होगी।

कृषि

2002-2003 के सूखे ने मानसून की निष्पादकता से जुड़े कृषिगत उत्पाद की उच्च संभावनाओं से जुड़ी चिंताओं को फिर से सामने ला खडा किया है। इसकी आंशिक वजह यह है कि फसलों के नमूने का संकेंद्रण हो रहा है, जो कि चावल और गेहूं के पक्ष में न्यूनतम समर्थन मूल्य नीति के कारण हुआ है और जो प्रोत्साहन ढांचे को अन्य कृषिगत उत्पादों से परे ले जाता है। इस नीति से सामने आनेवाले मामले और साथ ही साथ इसके फायदे जगजाहिर है। खाद्यान्न प्रतिभूति के लिए आवश्यक खाद्यान्नों की पर्याप्त उपलब्धता के आश्वासन के ज़रिए तथा खाद्यान्न का स्टॉक बनाये रखने के ज़रिए सतत ज़ोर देने की ज़रूरत होगी, वहीं दूसरी ओर उच्चतर कृषि वृद्धि को और अधिक अलग-अलग तरह की खेती से सामने आना होगा। इस तरह के विकेंद्रीकरण के लिए खेत और बाज़ार के बीच और अधिक जटिल वाणिज्यिक संपर्क बिंदुओं की ज़रूरत होगी तथा रोज़गार के लिए संभावनाओं की ओर और अधिक ध्यान दिया जाना होगा तथा खाद्यान्न प्रसंस्करण गतिविधियों द्वारा उपलब्ध कराये गये मूल्य संवर्धन की ओर ध्यान देने की ज़रूरत होगी। ग्रामीण सड़क, भंडारण सुविधाएं, दूरसंचार, बिजली तथा इस तरह की दूसरी ग्रामीण आधारभूत चीज़ों में निवेश को बढ़ाने की ज़रूरत होगी। चुनौती यह होगी कि वित्तपोषण के लिए यथोचित स्रोत और अधिक तेज़ कार्यान्वयन के लिए नवोन्मेषी प्रक्रियाओं और इस तरह की आधारभूत आस्तियों के बेहतर रखरखाव के लिए यथोचित संसाधन खोजे जाएं। सार्वजनिक निजी भागीदारियों को मज़बूत करने तथा स्थानीय सरकारों की अधिक हिस्सेदारी को और बढ़ाये जाने की ज़रूरत होगी।

हरित क्रांति को सफलतापूर्वक सामने लाने और उसे लागू करने का सबसे अधिक श्रेय भारतीय कृषि अनुसंधान और विस्तार प्रणाली द्वारा दिये गये समर्थन को दिया जा सकता है। अब इस प्रणाली को निश्चय ही नयी प्रौद्योगिकियों पर निवेश के लगाये जाने की ओर मोड़े जाने की ज़रूरत होगी ताकि उच्चतर उत्पादकता स्तरों को प्राप्त करने के लिए कृषि विकेंद्रीकरण को तेज़ किया जा सके। फसलों की व्यापक वैराइटियों में तथा अन्य कृषि उत्पादों में नयी प्रौद्योगिकियों को कारगर ढंग से अपनाने के लिए एक अलग तरह की विस्तार प्रणाली की ज़रूरत होगी जो अधिक लचीली हो और देश के अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग किसान समूहों की ज़रूरतों के हिसाब से ढाली जा सके। यहां पर भी व्यापक हित के लिए निजी क्षेत्र की ऊर्जाओं को धार देने की ज़रूरत होगी।

उद्योग

अब यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि नये वैश्विक आर्थिक परिवेश की प्रतिस्पर्धात्मक मुश्किलों का सामना करने के लिए औद्योगिक क्षेत्र नब्बे के दशक वे दूसरे हिस्से से बेहद महत्वपूर्ण बदलाव के दौर से गुज़र रहा है। बदलाव की इस सतत प्रक्रिया के लाभ अब 2002-2003 में सुधरी हुई औद्यागिक निष्पादकता के ज़रिए सामने आने लगे हैं और इस राजकोषीय वर्ष में इसके जारी रहने से विनिर्मित उत्पादों के निर्यात निष्पादकता में उछाल आया है और औद्योगिक कंपनियों ने बेहतर वित्तीय परिणाम दर्शाये हैं। दसवीं योजना में कल्पना की गयी 10.0 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि को प्राप्त करने के लिए इस औद्योगिक सुधार को और गति देना एक प्रमुख चुनौती है जिस पर औद्योगिक सुधारों पर नये सिरे से ज़ोर दिये जाने की ज़रूरत होगी। पहली बात, निचले टैरिफ स्तरों की दिशा में सतत औद्योगिक टैरिफ सुधार प्रक्रिया को भारतीय उद्योग में बढ़ती हुई प्रतिस्पर्धात्मकता और उसके परिणामस्वरूप चालू खाता अधिशेष को देखते हुए तेज़ किया जा सकता है। औद्योगिक टैरिफों को व्यवस्थित रूप से 1992-1997 की अवधि के दौरान और उसके बाद फिर से 2001 से घटाया गया था। दोनों ही बार औद्योगिक और निर्यात वृद्धि ने अच्छा प्रतिसाद दिया। दूसरी बात, हाल ही में निरंतर बदलते आर्थिक परिवेश के होते हुए संभावित व्यापक निगमित लचीलापन लाने के लिए अच्छी प्रगति हुई है। दिवालियापन कानून निगम ऋण पुनर्विन्यास तंत्र को लागू करना, ऋण वसूली ट्रिब्यूनलों का काम करना शुरु करना तथा एसएआरएफ-एईएसआइ अधिनियम का अधिनियमन, ये सभी सही दिशा में उठाये गये कदम हैं। प्रस्तवित श्रम सुधार, बाकी राज्यों में शहरी भूमि अधिकतम सीमा कानून को खत्म करना तथा लघु उद्योग आरक्षणों को हटाने में और अधिक प्रगति करके इन कदमों को मज़बूत किये जाने की ज़रूरत है। औद्योगिक क्षेत्र में और अधिक लचीलापन प्राप्त करने से औद्योगिक उत्पादन और रोज़गार, दोनों में और अधिक वृद्धि लाने में मदद मिलेगी।

वित्तीय क्षेत्र से जुड़े मामले

समग्र नीति परिवेश वित्तीय क्षेत्र में उल्लेखनीय सीमा तक सुदृढ़ता लाने में सफल रहा है। गिरती हुई ब्याज दरों से बैंकों को फायदा पहुंचा है और इससे वे बेहतरीन प्रतिभूतियों (गिल्टो) में अपनी बड़ी धारिताओं से काफी लाभ कमा सके हैं। अलबत्ता, इसी के साथ ही बैंकों को लचीली ब्याज दरों और विनिमय दरों के तंत्र में मौजूद संभावित जोखिमों की भरपाई करने के लिए निवेश उतार-चढ़ाव भंडारों के लिए और अधिक प्रावधान करने की ज़रूरत होगी। अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम व्यवहारों के अनुरूप रिज़र्व बैंक ने मार्च 2004 से ऋण हानि के लिए 90 दिवसीय मानदण्ड शुरू करने के लिए समय-सारणी घोषित की है। विनिमय दर और ब्याज दर उतार-चढ़ावों में हाल ही की प्रवृत्तियों से भारतीय बैंकों से निगमों द्वारा विदेशी मुद्रा ऋणों की मांग बढ़ गयी है। चूंकि उनमें से अधिकतर ऋण अनारक्षित (अनहेज्ड) हो सकते हैं, बैंकों को इस तरह के जोखिमों को कम करने के उपायों के साथ-साथ इस तरह की अनारक्षित बाह्य देयताओं की निगरानी करने के लिए तंत्र विकसित करने की ज़रूरत होगी। जैसे जैसे भारतीय अर्थव्यवस्था और अधिक खुलती जायेगी इस तरह की गतिविधियों पर और अधिक सावधानी से निगाह रखने की ज़रूरत होगी। इस तरह से वित्तीय प्रणाली में निवेश उतार-चढ़ाव प्रारक्षित निधि को सक्रिय रूप से तैयार करने, समस्यामूलक आस्तियों के संबंध में प्रावधान करने, उपलब्ध व्युत्पन्नों के अभिसंस्कृत उपयोग तथा जोखिम प्रबंधन उत्पादनों के लिए बाज़ार विकसित करने के ज़रिए बेहतर जोखिम प्रबंधन की आम ज़रूरत पड़ेगी।

अब जब कि वित्तीय क्षेत्र सुधारों ने अपना ध्यान बैंकिंग प्रणाली की कार्यकुशलता में सुधार लाने पर लगाया है और हाल ही के कुछ अरसे से जोखिम प्रबंधन पर ध्यान दिया जा रहा है, यह बात मायने रखती है कि बैंक ऐसी पर्याप्त गतिविधियों का वित्तपोषण करना जारी रखें जो वृद्धि के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। नयी औद्योगिक गतिविधियों में उभरते हुए सेवा क्षेत्र तथा गैर-परंपरागत कृषि गतिविधियों में उद्यमशीलता को बढ़ावा देने के लिए बैंकों तथा वित्तीय संस्थाओं से सक्रिय रूप से वित्तपोषण की ज़रूरत पड़ेगी। परांपरागत मीयादी ऋणदात्री संस्थाओं में गिरावट आने के साथ बैंकों को नयी मूल्यांकन क्षमताएं विकसित करनी होगी ताकि इन ज़रूरतों की अनदेखी न होने पाये। बृहत्तर निगमों के वित्तपोषण के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि शक्तिशाली निगम बांड बाज़ार विकसित किया जाये।

आधारभूत ढांचा

मध्यावधि में और अधिक तेज़ वित्तीय विस्तार का सूत्र यह है कि आधुनिकीकरण किया जाए और भौतिक आधारभूत ढांचे को गहरा बनाया जाए। आधारभूत ढांचे में निवेश में तीव्र वृद्धि में सबसे बड़ी रुकावट यह रही है कि अपर्याप्त उपभोक्ता प्रभारों की लेवी के कारण पर्याप्त लागत वसूली का अभाव तथा अकुशल वसूली तंत्र हैं। सार्वजनिक सामान के लिए प्रावधान कर संसाधनों में से किया जाना होगा जबकि निजी सामान तथा सेवाओं के लिए वित्तपोषण उपभोक्ता प्रभारों की लेवी के ज़रिए किये जाने की ज़रूरत होगी। सार्वजनिक निजी भागीदारी को भी आधारभूत सेवाओं की कुशल सुपुर्दगी में लाभकारी तरीके से इस्तेमाल में लाया जा सकता है। यह मुद्दा राज्य सरकार स्तर पर हो कि कई आधारभूत सेवाएं उपलब्ध करायी जाएं; इसीलिए आधारभूत क्षेत्र में सुधार, जिसमें सार्वजनिक क्षेत्र के सुधार भी आ जाते हैं, केंद्र तथा राज्य स्तर, दोनों जगहों पर समान रूप से महत्वपूर्ण हैं। आधारभूत ढांचे का वित्तपोषण एक महत्वपूर्ण चिंता बनी हुई है। इसे व्यापक सार्वजनिक निवेश के साथ साथ निजी निवेश को बड़े पैमाने पर उपलब्ध कराके इन दोनों के संयोजन से पूरा किया जा सकता है। इसलिए देश में राजकोषीय स्थिति में सुधार तीव्र सर्वव्यापी वृद्धि के लिए मूलभूत ज़रूरत है।

राजकोषीय नीतिगत मामले

मैक्रो इकॉनामिक परिदृश्य में मुख्य चुनौती जिस पर लगातार निगाह रखने की ज़रूरत है, यह है कि केंद्र तथा राज्य, दोनों स्तरों पर उच्च राजकोषीय घाटों को कम किया जाए। राजकोषीय समस्याओं को संचालित करने वाले मामले जगजाहिर है। उभरने वाले लंबे समय से चले आ रहे राजकोषीय असंतुलनों को ठीक करने की दिशा में जो महत्वपूर्ण कदम उठाया गया है वह है राजकोषीय उत्तरदायित्व तथा बजट प्रबंधन अधिनियम का अधिनियमन। कई राज्यों में भी इसी तरह के कानून अधिनियमित किये हैं जबकि व्यय को कम करना एक सतत कोशिश बनी रहनी चाहिए। अब यह मुश्किल हो चला है कि पर्याप्त मात्रा में बचतें की जाएं क्योंकि व्यय की बनावट में, सहायता राशियों को छोड़ कर, जड़ता बनी हुई है। पर्याप्त उपभोक्ता प्रभारों की लेवी तथा वसूली से सभी स्तरों पर कम महत्वपूर्ण (नॉन मैरिट)सहायता राशियों को कम करने में उल्लेखनीय रूप से मदद मिलेगी। अब राजस्व की तरफ और अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। सुदृढ़ आर्थिक वृद्धि के बावजूद कर/सकल देशी उत्पाद अनुपात नब्बे के दशक के दौरान घटता चला गया है और इसलिए राजस्व घाटे राजकोषीय घाटे के दो तिहाई से भी अधिक होते हैं। सभी स्तरों पर और अधिक कुशल तथा व्यापक कर राजस्व वसूली के ज़रिए इस प्रवृत्ति को बदलना होगा। देश की सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र की ताकत को इस प्रयोजन के लिए बेहतर तरीके से इस्तेमाल में लाया जा सकता है। हाल ही के वर्षों में सार्वजनिक क्षेत्र में बचत न करने की जो प्रवृत्ति उभर कर आ रही है उसे ठीक करने और पलटने के लिए यह कार्रवाईयां ज़रूरी हैं। अनिवार्य भौतिक तथा सामाजिक क्षेत्र निवेशों के वित्तपोषण के लिए सकारात्मक सार्वजनिक क्षेत्र की बचतें ज़रूरी हैं। ये उच्चतर आत्मनिर्भरता तथा बढ़ी हुई वृद्धि को प्राप्त करने के लिए निजी क्षेत्र के निवेशों को भी अपने साथ लायेंगी।

अल्पना किल्लावाला
महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2003-2004/269

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