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रिज़र्व बैंक वार्षिक रिपोर्ट-2003-04 : खास-खास बातें

30 अगस्त 2004

रिज़र्व बैंक वार्षिक रिपोर्ट-2003-04 : खास-खास बातें

भारतीय रिज़र्व बैंक ने 2003-04 के लिए अपनी वार्षिक रिपोर्ट जारी की। कुछ खास-खास बातें :

2003-04 के लिए मूल्यांकन

समग्र निष्पादकता

भाारतीय अर्थव्यवस्था का कार्य-निष्पादन 2003-04 के दौरान काफी अच रहा है। जहां वफ्द्धि का प्रमुख कारक तत्व पिचले वर्ष के सूखे की स्थिति से निकलकर वफ्षि उत्पादन की पुनर्बहाली रहा है, वहीं इसमें शामिल अन्य घटक थे - भाारी उत्साहजनक बाह्य मांग और निरंतर चली औद्योगिक बहाली। जैसा कि पहले के अवसरों पर देखा गया है, 2003-04 में वफ्षि का कार्य-निष्पादन सूखे के वर्ष के बाद सामान्य मानसून की तरह का रहा। इस बार की उल्लेखनीय बात थी - उद्योग और सेवाओं की समानान्तर रूप से सभाी क्षेत्रों में आयी गतिविधियों में मज़बूती। निर्यातों ने विनिर्माण उद्योगों की एक व्यापक श्रेणी - मशीनें और परिवहन उपकरण, ऑटोमोबाइल, लोहा और इस्पात, रसायन और रासायनिक उत्पाद - की उच्चतर वफ्द्धि में उल्लेखनीय योगदान किया जो भाारतीय उद्योग की बढ़ती अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धात्मकता का प्रमाण है। कई विनिर्माण उद्योगों एवं विद्युत निर्माण तथा खनन और उत्खनन में क्षमता - उपयोग में सुधार हुआ। व्यापार, होटल, परिवहन और संचार की गतिविधि में हुए बहुत अधिक विस्तार के कारण सेवा क्षेत्र में भाारी वफ्द्धि के लिए जो 1993-2003 की अवधि के औसत से काफी अधिक है, मार्ग प्रशस्त किया। एक दूसरा सुखद पहलू था कि प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में बढ़ते संरक्षणवादी रुख की कुच घटनाओं के बावजूद सूचना प्रौद्योगिकी से जुड़ी सेवाओं और बीपीओ (कारोबारी प्रक्रियाओं का बाहरी देशों में करना) क्षेत्र में आयी तेजी।

बाह्य क्षेत्र में उल्लेखनीय लाभा दर्ज हुए जो देशी गतिविधियों को बाह्य तथा आंतरिक आघातों से बचाने की अर्थव्यवस्था की बढ़ती हुई अधिकाधिक आन्तरिक शक्ति पा जाने का संकेतक है। 2001-02 में प्रारंभा हुई चालू खाता अधिशेष की स्थिति 2003-04 में भाी जारी रही और यह निरंतर बढ़ते हुए सदेउ के 0.2 प्रतिशत से बढ़कर 1.4 प्रतिशत हो गयी। विदेशी मुद्रा भंडार मार्च 2004 के अंत में बढ़कर 113 बिलियन अमेरिकी डालर हो गया था तथा 13 अगस्त 2004 को और बढ़कर 119.3 बिलियन अमेरिकी डालर पर पहुंच गया।

मौद्रिक गतिविधियां

2003-04 में समष्टिगत आर्थिक और वित्तीय स्थिरता के परिवेश में अर्थव्यवस्था में निवेशगत मांग को पुन:बहाल करने को मौद्रिक नीति में प्राथमिकता दी गयी। भाारी पूंजी आगमों के विस्तारक प्रभााव ने मौद्रिक नीति के समक्ष चुनौती खड़ी कर दी, विशेष रूप से चलनिधि को खाद्येतर ऋण के जरिये खपा लिये जाने से वर्ष की अंतिम तिमाही को चोड़कर वह निष्क्रिय रही। इसके कारण पूंजी आगमों को निष्प्रभाावी करने और अनावश्यक मौद्रिक विस्तार से बचने के लिए पूरे वर्ष में लगभाग लगातार नीतिगत हस्तक्षेप करना पड़ा। अप्रैल 2004 में लागू की गयी बाजार स्थिरीकरण योजना ने, जिसमें कि निष्प्रभाावीकरण कार्यों के लिए ही केवल सरकारी प्रतिभाूतियां जारी करने की व्यवस्था है, भाविष्य में पूंजी प्रवाह से निपटने की रिज़र्व बैंक की क्षमता बढ़ा दी है। 2003-04 में समष्टिगत आर्थिक प्रबंधन की अन्य विश्ेाष उल्लेखनीय बात थी - मुद्रास्फीतिकारी दबावों का फिर से उभारना । वर्ष की पहली चमाही में मुद्रास्फीति घट गयी परंतु अगस्त 2003 में निम्नतम स्तर पर पहुंच गयी। अंतर्राष्ट्रीय और देशी घटकों दोनों ही कारणों से करीब करीब जनवरी 2004 तक लगातार बढ़ती रही। तथापि, वर्ष के अंत तक, मुद्रास्फीति फिर से रिज़र्व बैंक द्वारा प्रत्याशित स्तर तक आ गयी।

2003-04 के दौरान, देशी वित्तीय बाजारों में सामान्यत: प्रचुर चलनिधि की स्थिति के रहते ठीक-ठीक और स्थिर गतिविधियां रहीं। वर्ष के दूसरे भााग में आय वक्र में पैनापन आया जो मुद्रास्फीतिकारी दबावों और कुच प्रमुख अंतर्राष्ट्रीय ब्याज दरें बढ़ जाने से संबंधित बाजार प्रत्याशाओं के कारण था। वर्ष के दौरान, भाारतीय विदेशी मुद्रा बाजार में व्यवस्थित स्थिति बनी रही। उक्त अवधि के दौरान रुपये की विनिमय दर अमरीकी डालर की तुलना में बढ़ गयी, परंतु वह यूरो, पौंड स्टर्लिंग और जापानी येन की तुलना में कम हो गयी।

वित्तीय स्थिरता

वित्तीय प्रणाली के दक्षतापूर्वक कार्य करने और वित्तीय स्थिरता का परिवेश बनाये रखने - ये दोनों ही लक्ष्य रिज़र्व बैंक ने साथ-साथ अपनाये। 2003-04 में इन दोनों ही लक्ष्यों के प्रति रखी गयी अत्यधिक संवेदनशीलता वित्तीय नीतियों के स्वरूप में परिलक्षित हुई । कंपनी संचालन और यथोचित प्रकटीकरण पर वित्तीय विनियमन के संचालन पर मुख्य ध्यान दिया गया। साथ ही साथ, विवेकपूर्ण मानदंडों और पर्यवेक्षण को सख्त किया जाता रहा और उन्हें अंतर्राष्ट्रीय सर्वोत्तम संव्यवहारों के अनुरूप बनाने का लक्ष्य रखा गया, साथ ही साथ इस बात पर भाी बल दिया जाता रहा कि व्यष्टिगत विनियमन की जगह जोखिम आधारित पर्यवेक्षण पर ध्यान दिया जाए। आलोच्य वर्ष के दौरान, जोखिम आधारित पर्यवेक्षण को प्रायोगिक तौर पर सफलतापूर्वक चलाना एक उल्लेखनीय गतिविधि रही, जिसका लक्ष्य था - पर्यवेक्षी संसाधनों को बैंकों के जोखिम स्थिति के अनुरूप आबंटित करना। हाल के वर्षों में की गयी शुरुआतें सम्पूर्ण वित्तीय प्रणाली में लाभाप्रदता, आस्ति गुणवत्ता और पूंजी में उल्लेखनीय सुधार के रूप में प्रतिबिंबित हुई।

2004-05 के लिए संभावनाएं

सकल देशी उत्पाद वफ्द्धि दर

2004-05 की प्रारंभिाक गतिविधियां अर्थव्यवस्था में अनेक सुदृढ़ स्थितियों की बनी रहने का संकेत देती है, हालांकि उनके साथ कुच अनिश्चितताएं भाी बनी रहीं। जैसे-जैसे मानसून मध्य भारत और उत्तरी मैदानी प्रदेशों की ओर बढ़ता जायेगा, वर्ष के सुस्पष्ट आकलन द्वारा वफ्षि की संभावनाएं तय की जायेंगी। निवेश मांग और क्षमता निर्माण के रूप में औद्योगिक वातावरण में बहाली देखी गयी। विशेष रूप से, पूंजी वस्तुओं और मध्यवर्ती वस्तु उद्योग क्षेत्रों में भाारी वफ्द्धि दर्ज हुई जो निवेश गतिविधि में आयी तेजी को विशेष रूप से उजागर करती है। इसे बढ़ी हुई कंपनी लाभाप्रदता, खाद्येतर ऋण में वफ्द्धि और उत्पादन और निर्यात वफ्द्धि में मामूली आशाजनक स्थिति का समर्थन मिला। दूसरी ओर, उपभाोक्ता वस्तुओं का उत्पादन काफी गिर गया। इसके साथ-साथ टिकाऊ उपभाोक्ता वस्तुओं में निरंतर वफ्द्धि हुई जिससे आशा की किरण दिखाई देती है। सेवा क्षेत्र में वफ्द्धि से पिचले वर्ष प्राप्त स्थिति में गति के बढ़ने और प्रचलित स्तरों से अधिक बने रहने की आशा है। उपर्युक्त के परिप्रेक्ष्य में जहां चालू संकेतकों के संबंध में जहां सदेउ में वफ्द्धि की संभाावनाएं, विशेष रूप से, विश्व के उत्पादन में वफ्द्धि में संभााव्य तेजी और बढ़ी हुई देशी निवेश गतिविधि के कारण अच्ची बनी हुई है, वहीं अनिश्चित मानसून तथा उच्च और अनिश्चित तेल मूल्यों के बने रहने की संभाावना से आनेवाली गिरावट का जोखिम विद्यमान भाी है। ये जोखिम वर्ष के प्रारंभा में किये गये सदेउ के अनुमानों को कम करते हैं। परंतु, वर्ष की शेष अवधि में मिलनेवाली मजबूती से स्थिति पूर्ववत हो सकती है चाहे जो भाी हो, भाारत वैश्विक रूप से सर्वोत्तम कार्य-निष्पादकों में एक बना रहेगा।

मूल्य स्थिति

थोक मूल्य सूचकांक में वर्ष-दर-वर्ष होनेवाले परिवर्तनों द्वारा मापी जानेवाली मुद्रास्फीति 15 मई 2004 से बढ़ती जा रही है जिसके कारक तत्व थे - लोहा और इस्पात, खनिज तेल, कोयला और वनस्पति। वर्ष के शेष भााग में , देशी मुद्रास्फीति पर अंतर्राष्ट्रीय मूल्यों से पड़नेवाले दबाव से मुद्रास्फीति मामूली बनी रहने की आशा है। हालांकि अंतर्राष्ट्रीय कच्चे तेल मूल्यों में होनेवाली अल्पावधिक घट-बढ़ के कारण काफी अनिश्चितता है। पीओएल मूल्य देशी मुद्रास्फीति संभाावना के प्रमुख घटक रहेंगे। भाारत में मुद्रास्फीति संभाावना को निर्धारित करनेवाले अन्य घटक हैं - जुलाई, जो कि खरीफ मौसम का बुवाई महीना है में हुई कम या असमान वर्षा को ध्यान में लेने के बाद प्रदर्शित मानसून की प्रगति। चलनिधि के बने रहने के कारण भाी उसकी मूल्यों पर मांग के दबाव डालने की संभााव्य क्षमता के परिप्रेक्ष्य में सावधानी से निगरानी रखनी होगी। चालू संकेतों के आधार पर शीर्ष मुद्रास्फीति की संभावना वर्ष के प्रारंभ में की गयी परिकल्पना की तुलना में कम आशाजनक है, यह कुछ चिंता का कारण हो सकती है, हालांकि आयातित तेल मूल्य आघात वैश्विक रूप से किस प्रकार उत्पन्न होते हैं और इन्हें देशी आधार पर कस प्रकार खपा लिया जाता है, यह देखना है। विदेशी मुद्रा प्रारक्षित निधि के अच्चे स्तर से पर्याप्त आपूर्ति सुनिश्चित करने और आम आदमी पर पड़नेवाले मुद्रास्फीति के दबाव को कम करने के लिए साधन उपलब्ध होता है, क्योंकि अंतर्राष्ट्रीय बाजारों में इन पण्यों के मूल्य कम होते जा रहे हैं। किसी भाी मामले में, मुद्रास्फीति परिवेश पर वैश्विक या देशी वातावरण में किसी अप्रत्याशित रूप में होनेवाली गतिविधि के संबंध में निरंतर आधार पर निकट से निगरानी रखनी होगी ताकि तत्परता तथा उचित मात्रा में यथोचित उपाय किये जा सकें।

मौद्रिक प्रबंधन

2004-05 की मौद्रिक नीति का बल ऋण वफ्द्धि की मांग को पूरा करने के लिए पर्याप्त चलनिधि उपलब्ध कराने, निवेश और निर्यात मांग को समर्थन देने के साथ-साथ मूल्य स्तर में होनवाली घट-बढ़ पर निकट निगरानी करने की रही है। उपर्युक्त के अनुरूप ही, मौद्रिक नीति में जहां यथावत स्थिति जारी रखने की बात है, वहीं एक ऐसा ब्याज दर परिवेश बनाय जाने पर आग्रह किया जायेगा जो कि वफ्द्धि की गति बनाये रखने तथा साथ ही, समष्टिगत आर्थिक एवं मूल्य स्थिरता को सुनिश्चित करने में सहायक सिद्ध होगा। पूंजी प्रवाहों (आगमों) चलनिधि प्रबंधन और आपूर्ति आघातों का अप्रत्याशित प्रभााव संबंधी वैश्विक कारकों - विशेष रूप से ब्याज दरों में होनेवाली असन्न वफ्द्धि तथा देशी गतिविधियों एवं आपूर्ति आघातों के प्रभााव के कारण स्थिरता के प्रति बरती जानेवाली नीतिगत अधिमानता को ध्यान में रखते हुए मूल्यों की प्रवफ्त्तियों की निकटता से और सावधानी से निगरानी करनी जरूरी हो गया है। इस पफ्ष्ठभाूमि में, नीति की समीक्षा किये जाने की जरूरत, मात्रा एवं समय का निर्धारण केवल इन सामने खड़ी परिस्थितियों पर ही, बल्कि उनकी वैश्विक एवं देशी परिस्थितियों के प्रति संवेदनशीलता के अनुसार वित्तीय बाजारों में किये जानेवाले समायोजनों पर भाी निर्भार करेगा। अंतत:, मौद्रिक नीति वित्तीय बाज़ार के विभिन्न घटकों को एक जगह पर लाने को आगे बढ़ाने, ऋण सुपुर्दगी प्रणालियों का स्तर ऊपर उठाने, एक सकारात्मक ऋण संस्वफ्ति विकसित करने और वित्तीय सेवाओं की गुणवत्ता में सुधार लाना जारी रखेगी।

मौद्रिक नीति का मुख्य उद्देश्य रहता है - मूल्य स्थरता, विशेषकर भारत जैसे देश में, जहां अधिकांश जनसंख्या के पास मुद्रास्फीति के विरुद्ध कोई बीमा उपलब्ध नहीं है। इस प्रकार मुद्रास्फीतिगत अपेक्षाओं को नियंत्रित करने से हुए लाभों को समेकित करने की आवश्यकता है, विशेषकर जबकि विभिन्न देशों के अनुभव यह सुझाते हैं कि मूल्यों में प्रतिकूल गतिविधियां होने की स्थिति में जनता का विश्वास बहुत तेज़ी से उठ जाता है। इसका एक नया आयाम यह है कि अर्थव्यवस्था के खुलने से अंतर्राष्ट्रीय पण्य मूल्यों में घट-बढ़ होने की प्रति घरेलू मुद्रास्फीति की संवेदनशीलता बढ़ जाती है। अत: भविष्य में मूल्यस्थिरता का लक्ष्य सावधानीपूर्वक बनायी गयी रणनीति की मांग करेगा जिसमें मौद्रिक नीति को न केवल अर्र्थव्यवस्था की मांग को ध्यान में रखना होगा, बल्कि वफ्द्धि की संभावनाओं को बढ़ते हुए मुद्रास्फीति की आपूर्ति की स्थिति का आकलन करने में एक बेहतर संतुलन भी बैठना होगा।

वास्तविक क्षेत्र

वफ्षि

समग्र आर्थिक वफ्द्धि पथ को 7 प्रतिशत और उससे ऊपर रखने के लिए वफ्षि की वफ्द्धि दर को बढ़ाकर न्यूनतम 4 प्रतिशत वार्षिक के आसपास करना आवश्यक है। यदि वफ्षि की वफ्द्धि दर 2.5 से 3.5 प्रतिशत के अपने दीर्घावधिक औसत पर ही बनी रही तो उद्योग और सेवाओं का 9-10 प्रतिशत के दायरे में बढ़ना कठिन हो जायेगा, जो कि 7 से 8 प्रतिशत की वफ्द्धि दर प्राप्त करने के लिए आवश्यक है। वफ्षि में ऐसी वफ्द्धि प्राप्त करने के लिए वित्तीय क्षेत्र में अन्य क्षेत्रों के साथ-साथ जिन प्रमुख क्षेत्रों में ध्यान देने की आवश्यकता है, वे हैं - फसलों की हानि के प्रति बीमा, मूल्यों में अनिश्चितताओं के प्रभाव को न्यूनतम रखने के लिए पण्य-व्युत्पन्नी बाज़ार का विकास तथा केवल ऋण की आवश्यकता की पूर्ति ही नहीं, ग्रामीण अर्थव्यवस्था की सभी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सुविधाएं।

उद्योग

औद्योगिक क्षेत्र की बहाली जो 2002-03 की पहली तिमाही में शुरू हुई थी, अब दृढ़ता से निरंतर गति पकड़ रही है। प्रतिस्पर्धा दबाव, तीव्रगामी प्रौद्योगिकीय परिवर्तन, उत्पादों और वित्तीय बाज़ारों का अप-विनियमन तथा संगठनात्मक परिवर्तन के कारण भारतीय उद्योग रूपांतरण के दौर से गुज़र रहा है। चिंता का एक मुद्दा 1990 के दशक के उत्तरार्ध में औद्योगिक उत्पादन में आया उतार-चढ़ाव रहा है जिससे विनिर्मित उत्पादों की प्रतिस्पर्धात्मकता के प्रतिकूल परिणाम हुए हैं। जहां निर्यातगत मांग उद्योग में प्रतिस्पर्धी गतिशीलता लाती है, वही इस बात की आवश्यकता है कि उत्पादों के व्यापक दायरे में प्रतिस्पर्धा की भावना को व्यापक आधार प्रदान किया जाए। इसके अलावा, जहां भारी निर्यात गत मांग समग्र औद्योगिक मांग को समर्थन प्रदान करती है, वहां इस बात की भी आवश्यकता है कि वफ्द्धि की भावना को बनाये रखने के लिए घरेलू मांग को अधिक टिकाऊ आधार पर पैदा किया जाए।

सेवाएं

सेवा क्षेत्र भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए वफ्द्धि के इंजिन के रूप में उभर कर आया है। सेवा क्षेत्र की शक्ति को और भी बढ़ाने की आवश्यकता है, क्योंकि इसमें अभी भी भारी वफ्द्धि की संभावना विद्यमान है तथा पण्य उत्पादक क्षेत्रों के लिए बाहरी परिस्थितियां अनुकूल हैं। जहां सकल देशी उत्पाद में सेवाओं का बढ़ता हुआ अंश भारतीय अर्थव्यवस्था के विशाखीकरण की बढ़ती हुई मात्रा का उत्साहवर्धक संकेत है, वहीं पण्य उत्पादक क्षेत्रों के अंश में तदनुरूपी गिरावट में यह निहितार्थ है कि अर्थव्यवस्था में समग्र उत्पादकता लाभ सेवा क्षेत्र द्वारा प्राप्त की गयी दक्षता की बढ़ती हुई मात्रा पर निर्भर करेगा।

राजकोषीय नीति

राजकोषीय दायित्व तथा बजट प्रबंध नियमावली, 2004 को लागू करके राजकोषीय समेकन करने का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य है - राजस्व घाटे को 2008-09 तक समाप्त करना। इस उद्देश्य की प्राप्ति सतत वफ्द्धि और बेहतर कर-अनुपालन से कर-प्राप्तयों में वफ्द्धि करके कर सकल देशी उत्पाद अनुपात को बढ़ा कर की जानी है। इसके अलावा कर - रियायतों को समाप्त करके और कर - संरचना को युक्तिसंगत बनाने पर ज़ोर दिये जाने की आवश्यकता है ताकि कर प्रणाली में व्यक्तिनिष्ठता को समाप्त किया जा सके। इस संदर्भ में यह भी उचित होगा कि आयातों पर एक समान प्रशुल्क (टैरिफ) दरों को लागू करने की संभावना का पता लगाया जाये। राजस्व व्यय में निम्न स्तर पर पायी जानेवाली अनियमितताओं को देखते हुए राजकोषीय दायित्व संबंधी नियमावली द्वारा निर्धारित किये गये लक्ष्यों को प्राप्त करना अनुमानित राजस्व में बढ़ी हुई वसूलियों की स्थिति पर निर्भर करेगा।

बाह्य क्षेत्र

भारत के बाह्य क्षेत्र की बढ़ती हुई शक्ति ने बाह्य क्षेत्र के उदारीकरण की गति को तेज करने के लिए समर्थक परिस्थितियां प्रदान की है। इसने पिछली व्यवस्था में अंतर्मुखी दृष्टिकोण को काफी सीमा तक हटा दिया है और निर्यातगत आय तथा विप्रेषणों के आगमों की दृष्टि से एक स्वस्थ दृष्टिकोण उभरा है। विदेशी मुद्रा संबंधी लेनदेनों के उदारीकरण को प्रशुल्क की दरों में कमी किये जाने के रूप में मूल्यों को समान स्तर पर लाकर समर्थन दिया जाना है। अधिकांश उदीयमान बाज़ारों के अनुभव यह सुझाते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय रूप से प्रतिस्पर्धी दरें निरंतर आधार पर निर्यात-कार्य-निष्पादन को बढ़ाने की दिशा में योगदान करती हैं।

वित्तीय क्षेत्र

रिज़र्व बैंक बाज़ारों, संस्थाओं, उत्पादों और संव्यवहारों की दृष्टि से वित्तीय क्षेत्र में एक प्रतिस्पर्धी परिचालनपरक परिवेश का विकास करने पर अपना ध्यान केंद्रित करता रहा है। एक प्रतिस्पर्धी परिवेश में विनियामक स्वरूप के लिटमस परीक्षण का उद्देश्य जहां वित्तीय स्थिरता को सुदृढ़ करने का है, साथ ही वित्तीय विनियमन की लागत को न्यूनतम करने का भी है। इसके बदले में इसमें यह निहित है कि जैसे जैसे अपविनियमन की प्रक्रिया गहरी होती जाती है, वैसे वैसे विनियामक शुरुआतों को वित्तीय प्रणाली के पर्यवेक्षण की एक अधिक प्रभावी निगरानी की ओर उन्मुखी बनाना होता है। इसी संदर्भ में रिज़र्व बैंक की पर्यवेक्षी रणनीति व्यष्टिगत अवधारण से उन्मुख प्रत्यक्ष पर्यवेक्षण से हटकर जोखिम आधारित पर्यवेक्षण की ओर बढ़ने की रही है। बाज़ारोन्मुखी जोखिम आधारित पर्यवेक्षी रणनीति का एक मुख्य तत्व ऐसी सुदृढ़ कंपनी संचालन की परंपरा विकसित करना है जो प्रक्रिया केंद्रित पर्यवेक्षण की आवश्यकता को न्यूनतम कर देगी। अत: रिज़र्व बैंक सार्वजनिक और निजी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं में कंपनी संचालन और बेहतर जोखिम आकलन पर महत्त्व देता रहा है।

रिज़र्व बैंक इसके पक्ष में रहा है कि ऐसे अंतर्राष्ट्रीय मानकों और सर्वोत्तम संव्यवहारों के साथ जो अपने देश के अनुकूल हों, क्रमिक रूप से एकीकरण प्रक्रिया अपनायी जाए। नयी बेसिल संधि के दृष्टिकोण में भी यह मार्गदर्शक सिद्धांत रहा है। अप्रैल 2003 में, सैद्धांतिक रूप में, बेसिल संधि को अपनाने का निर्णय लेने के बाद रिज़र्व बैंक बेसिल घ्घ् की ओर बढ़ने के पथ की निगरानी कर रहा है जिसके लिए की गयी प्रगति की समीक्षा तिमाही अंतरालों पर की जाती है।

भारतीय अर्थव्यवस्था की पूरी क्षमताओं का दोहन करने के लिए मैदान तैयार करने हेतु काफी प्रगति कर ली गयी है। बेरोज़गारी, गरीबी और असमानता के उच्च स्तरों द्वारा खड़ी की गयी बाधाओं को दूर करने के लिए इस क्षमता को मूर्त रूप देने की तत्काल आवश्यकता है। वफ्द्धि की रणनीति, जो बनायी जा रही है, उसमें समानता पर नये सिरे से बल प्रदान किया जा रहा है। अत: यह नयी नीति के अनुरूप है। संरचनागत सुधारों की प्रक्रिया ने अर्थव्यवस्था को एक नयी आंतरिक शक्ति और गति प्रदान की है। इसलिए व्यापक आर्थिक और वित्तीय स्थिरता के उद्देश्य से किये गये, इन सुधारों के लाभ, उन अनेक उदीयमान अर्थव्यवस्थाओं तथा ऊजर्स्वित और भली प्रकार काम कर रही ऐसी प्रणालियों की तुलना में, कहीं ज्यादा है। विनियामक और पर्यवेक्षी कार्य को उत्तरोत्तर तेज़ी से बदल रहे वित्तीय परिवेश के अनुकूल बनाया जा रहा है। वित्तीय क्षेत्र सहज रूप से कार्य करें इसके लिए उपर्युक्त विधायी ढांचा स्थापित करने के लिए जहां प्रयासों को गहन किया जा रहा है, वहीं बेहतर कंपनी संचालन और पारदर्शिता इस परिवर्तन में सबसे आगे हैं।

अल्पना किल्लावाला

मुख्य महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2004-2005/235

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