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भारतीय रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2009-10 के लिए वार्षिक रिपोर्ट जारी की

24 अगस्त 2010

भारतीय रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2009-10 के लिए वार्षिक रिपोर्ट जारी की

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज वर्ष 2009-10 के लिए वार्षिक रिपोर्ट जारी की। रिज़र्व बैंक के बोर्ड की यह सांविधिक रिपोर्ट में निम्नलिखित विषयों पर ध्यान केंद्रीत किया गया है : (क) वर्ष के दौरान देखे गए प्रमुख नीति विषयों और समष्टि आर्थिक चुनौतियों का एक विश्लेषणात्मक मूल्यांकन, (ख) रिज़र्व बैंक के व्यापक समष्टि-वित्तीय उद्देश्यों के संबंध में वर्ष के दौरान शुरू किए गए प्रयासों के अलावा चुनौतियों को संबोधित करने के लिए की गई नीति कार्रवाईयाँ, (ग) किस तरह से अपने उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए रिज़र्व बैंक के परिचालनों को अपने वित्तीय खातों में दर्शाया गया है। वर्ष 2008-09 के मध्य के बाद की अवधि रिज़र्व बैंक के लिए खास चुनौतिपूर्ण रही क्योंकि उसे इस दौरान वित्तीय स्थिरता, विकास और मुद्रास्फीति के बीच संतुलन बनाए रखना पड़ा।

रिपोर्ट की मुख्य-मुख्य बातें :

समष्टि आर्थिक और वित्तीय स्थितियों का समग्र आकलन

  • वैश्विक वित्तीय संकट के बाद, 2008-09 की दूसरी छमाही से प्रारंभ करके चार अलग-अलग छमाही चरणों में देशी समष्टि-आर्थिक वातावरण में उल्लेखनीय बदलाव आया है। प्रत्येक चरण में रिज़र्व बैंक को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पड़ा।

  • पहला, 2008-09 की दूसरी छमाही में सकल देशी उत्पाद (जीडीपी) की वृद्धि में कमी आयी, जो वैश्विक संकट के प्रभाव को दर्शाता है। रिज़र्व बैंक ने देशी वित्तीय प्रणाली और अर्थव्यवस्था पर वैश्विक गतिविधियों के प्रतिकूल प्रभाव को सीमित करने के लिए तेजी से परंपरागत और गैर-परंपरागत उपाय भी व्यापक मात्रा में शुरू किए।

  • दूसरा, 2009-10 की पहली छमाही में, आर्थिक कार्यकलाप में मौजूद कमजोरी के कारण मौद्रिक नीति संबंधी उत्प्रेरणा को जारी रखना जरूरी हो गया। कम मुद्रास्फीति के माहौल ने भी निभावकारी मौद्रिक नीति संबंधी रुख को जारी रखने की गुजाइश पैदा कर दी। परंतु, साल के मध्य तक, कम दक्षिण-पश्चिम मानसून के कारण रिकवरी तथा खाद्य मुद्रास्फीति के बारें में नये सिरे से चिंता उत्पन्न हो गई।

  • तीसरा, कम मानसून के मंदक प्रभाव तथा प्रतिकूल वैश्विक आर्थिक वातावरण के बावजूद, जीडीपी की वृद्धि में 2009-10 की दूसरी छमाही में वैश्विक अर्थव्यवस्था के पहले सुदृढ़ रिकवरी आई। खाद्य मुद्रास्फीति, जो खरीफ के खराब उत्पादन की अनुक्रिया में बढ़नी शुरू हो गई थी, साल की दूसरी छमाही में अधिक दृढ़ हो गई। बढ़ रही मुद्रास्फीति और अधिकाधिक सामान्यीकृत मुद्रास्फीति के कारण नीतिगत प्रोत्साहनों को वापस लेना जरूरी हो गया। चूँकि, रिज़र्व बैंक के सामने नीतिगत चुनौती यह थी कि रिकवरी को नुकसान पहुँचाए बिना मुद्रास्फीतिकारी प्रत्याशाओं पर लगाम लगाया जाए, अत: मौद्रिक अनवाईंंडिंग के प्रति एक सुविचारित दृष्टिकोण अपनाया गया।

  • चौथा, हेडलाइन मुद्रास्फीति 2010-11 के चार अनुक्रमिक महीनों में दुहरे अंकों में या उसके निकट बनी रही तथा मुद्रास्फीति की प्रक्रिया भी अधिक सामान्यीकृत हो गई। इस प्रकार शेष नीतिगत ध्यान रिकवरी से हटकर मुद्रास्फीति की ओर चला गया।

अगली संभावनाएं
  • जहाँ 2010-11 के लिए वृद्धि की संभावना सुदृढ़ बनी हुई है, वहीं मुद्रास्फीति एक बड़ी चुनौती के रूप में उभरकर सामने आयी है। आगे चलकर, मौद्रिक स्थिति सामान्य होते ही गई महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में संरचनागत बाधाओं का समाधान करना जरूरी है ताकि वृद्धि को बनाए रखा जा सके तथा मुद्रास्फीति के प्रति आपूर्ति पक्ष संबंधी जोखिमों को भी नियंत्रित किया जा सके।

  • राजकोषीय समेकन, कम और स्थिर मुद्रास्फीति संबंधी युग, वित्तीय स्थिरता संबंधी ढाँचे के सुदृढ़ीकरण तथा संरचनागत सुधार में प्रगति के माध्यम से समग्र समष्टि-वित्तीय माहौल में सुधार लाने से वृद्धि को बनाए रखने तथा उत्पादकता बढ़ाने में मदद मिलेगी।

  • रिज़र्व बैंक ने अपने मौद्रिक नीति के प्रति समायोजित मौद्रिक नीति सामान्यीकरण के माध्यम से मुद्रास्फीति को रोक रखने तथा अगली नीति दरों पर स्पष्टता के साथ-साथ मुद्रास्फीति और वृद्धि दोनों के प्रति जोखिमों के सतर्क आकलन पर आधारित सावधानीपूर्वक किए गए उपायों में सामयिक कार्रवाई करने की अपनी प्रतिबद्धता व्यक्त की है।

  • घरेलू संभावनाओं द्वारा संचालित होते हुए रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति के संचालन को वैश्विक दृष्टिकोण में अचानक परिवर्तनों की संभावना की पहचान करनी होगी। वैश्विक आघातों का प्रबंध करते समय भारत को अपनी लचीलेपन तथा उत्पादकता स्तरों में वृद्धि करनी होगी ताकि वैश्विक अर्थव्यवस्था में इसकी स्थिति मज़बूत हो सके।

प्रमुख संदेश
  • चूँकि भारत घरेलू वित्तीय संकट से बच गया संभाव्य उत्पाद आघात की जोखिम बिलकुल नहीं है। राजकोषीय समेकन, उचित जनसांख्यिकी और अतिरिक्त ढाँचागत सुधारों से संभाव्य विकास द्वि-अंकों के स्तर तक बढ़ा दिया जा सकता है।

  • जबकि कम मानसून के चलते वर्ष 2009-10 में कृषि क्षेत्र का कार्यनिष्पादन पिछले कुछ सुखा के अवसरों से बेहतर रहा किन्तु फिर भी लगातार सुखा वर्षों का सामना करने की योग्यता की चिंता बनी हुई है।

  • विकास पर कम मानसून का प्रभाव कमज़ोर हो रहा है जबकि मुद्रास्फीति पर उसका प्रभाव विशिष्ट होना जारी है।

  • वर्ष 1990-2010 के दौरान 1.6 प्रतिशत पर अनाज उत्पादन की औसत वृद्धि दर 1.9 प्रतिशत की औसत जनसंख्या वृद्धि के पीछे चल रही है।

  • समग्र बचत दर वर्ष 2008-09 में सामान्य रही जो राजकोषीय प्रोत्साहन उपायों के प्रभाव के कारण सार्वजनिक क्षेत्र बचत में तेज गिरावट को दर्शाते है। अद्यतन उपलब्ध जानकारी पर आधारित प्राथमिक अनुमान ने वर्ष 2009-10 में घरेलू क्षेत्र की वित्तीय बचतों (निवल) को मौजूदा बाज़ार मूल्यों पर सकल घरेलू उत्पाद के 11.9 के लिए अनुमानों से अधिक है।

  • थोक और उपभोक्ता मूल्य सूचकांकों द्वारा मापी गई मुद्रास्फीति के बीच व्यापक भिन्नता वर्ष 2009-10 के दौरान भारत में मुद्रास्फीति प्रवृत्तियों की प्रमुख विशिष्टता थी। राज्यों के बीच मुद्रास्फीति में भिन्नता भी उल्लेखनीय रही है।

  • वायदा बाज़ार गतिविधियों और पण्ययों के स्पॉट मूल्यों के बीच संबंध के बारे में जारीर् ीस्ंiल्iिूब् के बावजूद समग्र मुद्रास्फीति परिस्थितियों के लिए इस बाज़ार की संभाव्य भूमिका को ध्यान में रखते हुए वायदा बाज़ार की गतिविधियों की बेहतर निगरानी की आवश्यकता है।

  • मौद्रिक नीति के आयोजन के लिए मुद्रास्फीति के स्त्रोतों की पहचान आवश्यक है। जब मुद्रास्फीतिकारी दबाव प्रतिकूल आपूर्ति आघातों से प्रभावित होता है तब मौद्रिक नीति मूल्य दबावों को रोकने में कम प्रभावी होती है।

  • नवंबर 2009 से मुद्रास्फीति अधिक बनी रहने के बावजूद संबंधित मूल्य घट-बढ़ कम हुई जो यह दर्शाती है कि मुद्रास्फीति और अधिक फैल गई है और इसीलिए मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं को नियंत्रित करने के लिए उचित मौद्रिक नीति कार्रवाईयाँ करने की आवश्यकता है।

  • वर्ष 2009-10 के दौरान वित्तीय बाज़ारो ने सुचारू रूप से कार्य किया जो बाज़ारों के विभिन्न खण्डों में रिज़र्व बैंक के स्थिरीकरण परिचालनों तथा वैश्विक संकट के पूर्व सुदृढ़ विनियामक ढाँचे को दर्शाती है।

  • सरकार द्वारा व्यापक बाज़ार उधार ने वर्ष 2009-10 के दौरान सरकारी प्रतिभूतियों के प्रतिलाभ पर अधिक दबाव डाला। तथापि रिज़र्व बैंक ने इसे सक्रिय चलनिधि प्रबंधन के द्वारा रोका।

  • वर्ष 2009-10 के दौरान आवास मूल्यों में पुन:वृद्धि हुई। विदेशी मुद्रा दरों ने बेहतर लचीलापन दर्शाया।

  • लगातार जारी व्यापक राजकोषीय घाटा के उच्च मुद्रास्फीति से लेकर निम्न बचत, निजी निवेश पर निष्कासक दबाव, संभाव्य उत्पाद में कमी और बाह्य असंतुलन का बिगड़ने जैसे कई प्रतिकूल समष्टि आर्थिक जोखिम होते है।

  • जबकि आर्थिक मंदी के इस दौर में अल्पावधि के लिए उक्त चिंताएं नहीं होंगी जिसे राजकोषीय प्रोत्साहन की आवश्यकता नहीं है फिर भी मध्यम अवधि में उक्त जोखिम होंगे यदि राजकोषीय घाटे को उचित राजकोषीय समेकन रणनीति के अंतर्गत उल्लेखनीय रूप से कम नहीं किया जाता है। वैश्विकृत दुनिया में एक स्थिर विकास के नीति लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए एक सहयोगी वैश्विक आर्थिक वातावरण और स्थिर भुगतान संतुलन की स्थिति अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

  • निम्न व्यापार घाटा के बावजूद अदृश्य अधिशेष में कमी के कारण पिछले वर्ष के सकल घरेलू उत्पाद के 2.4 प्रतिशत की तुलना में वर्ष 2009-10 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद के 2.9 प्रतिशत का उच्चतर चालू खाता घाटा हुआ। उच्चतर चालू खाता घाटा के कारण विदेशी पूँजी की मज़बूत प्राप्ति हुई।

  • वर्ष 2010-11 के प्रारंभिक महीनों में पूँजी प्रवाह कुछ हद तक सामान्य रहे जो यूरो ज़ोन में जोखिम चिंताओं की प्रतिक्रिया में वैश्विक निवेशकों की जोखिम लेने की क्षमता में कमी को दर्शाता है। भारत का मज़बूत विकास दृष्टिकोण और विकसित अर्थव्यवस्थाओं द्वारा मौद्रिक निकासी की संभाव्यता को ध्यान में रखते हुए पूँजी अंतर्वाह के बढ़ने की अपेक्षा है जिसका पहले की तरह ही प्रबंधन किया जाना है।

  • भारत के सामने विकास संभाव्यता को बढ़ाने की एक बड़ी चुनौती है। इस चुनौती का सामना वित्तीय रूप से वंचित लोगों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली के भीतर लाकर, वित्तीय साक्षरता उपलब्ध करा कर और ऋण सुर्पुदगी व्यवस्था को मज़बूत बनाकर किया जा सकता है जो बदले में उच्च विकास के लाभों के वितरण को सुधार सकता है।

  • बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थानों के लिए सुदृढ़ विनियामक और पर्यवेक्षी ढाँचा भारतीय वित्तीय प्रणाली पर वैश्विक वित्तीय संकट से संक्रमण के प्रभाव को रोकने में महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुआ। वर्ष 2009-10 के दौरान वित्तीय स्थिरता ढाँचे को और अधिक मज़बूत करने के लिए कई कदम उठाए गए।

  • महत्त्वपूर्ण वित्तीय सुदृढ़ता संकेतक (एफएसआइ) और तनाव जाँच परिणाम यह सुझाव देते है कि वित्तीय प्रणाली सुदृढ़ और लचीली बनी रहेगी।

  • वर्ष 2010-11 के लिए उधार कार्यक्रम का प्रबंधन बढ़ी हुई मुद्रास्फीति के कारण प्रतिलाभ पर दबाव, अत्यधिक चलनिधि को धीरे-धीरे वापस लेना और निजी क्षेत्र की ऋण माँग में मज़बूत बढ़ोतरी को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए।

  • रिज़र्व बैंक की स्वच्छ नोट नीति को दर्शाते हुए नए नोटों की उच्च आपूर्ति के साथ-साथ परिचालन से गंदे नोटों को अधिक संख्या में वापस ले लिया गया।

  • वर्ष 2009-10 के दौरान पहचान की गई जाली नोटों की संख्या पिछले वर्ष की संख्या जितनी ही थी।

वर्ष 2009-10 (जुलाई-जून) के लिए रिज़र्व बैंक का खाता

  • रिज़र्व बैंक के तुलनपत्र का प्रबंधन विवेकपूर्ण रूप से किया गया और आस्ति और देयता की गतिविधियाँ अपनी व्यापक समष्टि आर्थिक और वित्तीय क्षेत्र लक्ष्यों के अनुसरण में वर्ष के दौरान किए गए बैंक के परिचालनों के परिणाम को दर्शाते हैं।

  • आस्ति की ओर रिपो के अंतर्गत निधियाँ प्राप्त करने के लिए रिज़र्व बैंक के पास बैंकों द्वारा रखी गई सरकारी प्रतिभूतियों के रूप में घरेलू आस्तियों के बैंक के संविभाग में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। विदेशी मुद्रा आस्तियों में मूल्यांकन प्रभाव और ऐसी आस्तियों के एक भाग का प्रयोग अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष से स्वर्ण की खरीद के कारण व्यापक कमी आई।

  • वर्ष 2009-10 के लिए रिज़र्व बैंक की सकल आय में कमी आई। जैसे ही विकसित अर्थव्यवस्थाओं के केंद्रीय बैंकों द्वारा रखे गए लगभग शून्य नीति दरों पर विदेशी आस्तियों की वापसी हुई ऐसी आस्तियों पर आय में उल्लेखनीय रूप से कमी आई। मौद्रिक परिचालनों में रिवर्स रिपो के माध्यम से चलनिधि का व्यापक निवल अवशोषण की बनी हुई अवधि में उच्चतर निवल ब्याज का बाह्य प्रवाह भी शामिल था।

  • देयताओं की ओर आरक्षित नकदी निधि अनुपात में नीति युक्त वृद्धियों तथा बैंकिंग प्रणाली में जमा वृद्धि और रिज़र्व बैंक के पास केंद्रीय सरकार की जमाराशियों के कारण परिचालन में नाटों और रिज़र्व बैंक के पास बैंकों के जमा में उच्च वृद्धि हुई। तथापि बाज़ार स्थिरीकरण योजना (एमएसएस) के अंतर्गत केंद्रीय बैंक द्वारा रखे जानेवाले बकाया शेषों में कमी आई।

आपूर्ति आघातों के प्रति रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति कार्रवाईयों से जुड़ी मध्यावधि चुनौतियाँ
  • आपूर्ति संबंधी आघातों के दुहराए जाने से भारत में कम मुद्रास्फीति की व्यवस्था सुनिश्चित करने के प्रति निरंतर चुनौती सामने आती है, जो समावेशक उच्च वृद्धि का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए जरूरी है। आपूर्ति संबंधी संरचनागत अवरोधों, विशेष रूप से सामान्य उपभोग की मदों में, का समाधान करके आपूर्ति बढ़ाने के लिए एक मध्यावधि दृष्टिकोण अपेक्षित है।

मौद्रिक नीति अंतरण में सुधार
  • भारत में चूँकि वित्तीय प्रणाली के सामने संकट नहीं आया, अत: संचारण सारणी को न्यूनतम नुकसान हुआ, हालांकि वैश्विक संकट के पहले के समय की संरचनागत अनम्यताएं रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति संबंधी कार्रवाईयों की प्रभावशालिता को सीमित करती रहीं। इस प्रकार आधार दर से ऋण बाजारों के प्रति मौद्रिक नीतिगत संकेतों के संचारण में सुधार लाने और उसकी दृश्यता बढ़ाने में मदद मिलने की आशा है।

मौद्रिक नीति के लचीलेपन को बढ़ाने के लिए राजकोषीय गुंजाइश
  • लंबे समय तक राजकोषीय असंतुलन बने रहने से कुल माँग पर मुद्रा द्वारा वित्तपोषित दबाव के माध्यम से मुद्रास्फीति, निष्कासक दबावों के माध्यम से ब्याज दरों, तथा द्वैध घाटा सरणी के माध्यम से विनिमय दर संबंधी जोखिम बढ़ने की प्रवृत्ति होती है। भारत में राजकोषीय गुंजाइश न सिर्फ उच्च वृद्धि पथ के चारों ओर सामान्य उत्पादन स्थिरीकरण अपेक्षाओं के लिए, अपितु हेडलाइन मुद्रास्फीति पर अस्थायी परंतु बढ़े आपूर्ति आघातों के प्रभाव को सीमित करने के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।

पूँजी प्रवाह - उछालों और अचानक अवरोधों का प्रबंध
  • पूँजी का अस्थिर प्रवाह उभरती बाज़ार अर्थव्यवस्थाओं के लिए अस्थिरता का एक संभावित ॉााटत है। पूँजीगत प्रवाह बहुत कम तथा बहुत अधिक होने संबंधी दोनों ही स्थितियों में अर्थव्यवस्था के लिए लागत बढ़ सकती है, यदि उनका विवेकपूर्ण तरीके से प्रबंधन न किया जाए। हाल के वर्षों में भारत को वैश्विक संकट के बीच बड़े निवल अंतर्वाहों तथा आकस्मिक बहिर्वाहों वाली अवस्थाओं का प्रबंधन करना पड़ा।

  • पूँजीगत प्रवाहों के प्रतिकूल प्रभावों से निपटने के लिए लचीली विनिमय दर, देशी चलनिधि पर अंतर्वाहों के प्रभाव के निष्प्रभावीकरण, पूँजी खाते के उदारीकरण के प्रति सतर्क दृष्टिकोण, तथा विदेशी मुद्रा संबंध आरक्षित निधियों के कुशन के विवेकपूर्ण मिश्रण का उपयोग किया गया है।

मूलभूत सुविधा को वित्तीय सहायता
  • अन्य प्रमुख देशों के संबंध में तथा इसकी अपनी बढती हुई माँग दोनों ही कारणों से भारत का बुनियादी ढाँचागत अंतराल निवेशों की समग्र उत्पादकता को प्रभावित करनेवाला एक मुख्य कारक है। लंबे समय के लिए उच्च आरंभिक पूंजी परिव्यय की अपेक्षा के कारण बुनियादी ढांचा के क्षेत्र में क्षमता विस्तार के लिए वित्तपोषण संबंधी अवरोधों को दूर करने संबंधी उपाय जरूरी हो जाते हैं।

  • पिछले दस वर्षों के दौरान बुनियादी ढांचा क्षेत्र को बैंक ऋण में वार्षिक चक्रिय वृद्धि देखी गई है तथा कुल बैंक ऋण में बुनियादी ढांचा को बैंक वित्त का हिस्सा लगभग 2 प्रतिशत से बढ़कर तदनुरूप अवधि के दौरान 12 प्रतिशत से अधिक हो गया। इस प्रकार, जहाँ बैंक बुनियादी ढाँचा संबंधी परियोजनाओं के लिए वित्तीयन के प्रमुख ॉााटत बने रहे, वहीं बुनियादी ढाँचा में वृद्धि के लिए वित्तपोषण संबंधी अवरोधों को दूर करने के लिए उपयुक्त नीतियों के साथ वैकल्पिक गैर बैंकिंग वित्तीयन को आकृष्ट किया जाना है।

वित्तीय समावेशन - धारणीय वृद्धि के लिए वित्त के अंशदान को सुदृढ़ करना
  • वित्तीय प्रणाली की संभाव्यता का पूर्ण दोहन आज मौजूद वित्तीय निष्कासन के परिमाण के कारण नहीं हो सका है। रिज़र्व बैंक ने उपर्युत विनियमन तथा नैतिक प्रत्यायन का प्रयोग कर अर्थव्यवस्था में बैंक वित्त की पैठ का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से अपने प्रयासों में उल्लेखनीय वृद्धि की है।

वित्तीय क्षेत्र सुधार - अगला कदम क्या होगा ?
  • वैश्विक संकट के बाद ‘प्रणालीगत पर्यवेक्षण’ तथा ‘समष्टि विवेकपूर्ण विनियमन’ दोनां के लिए केंद्रीय बैंकों को अधिक दायित्व देने की प्रवृत्ति की ओर निर्णयात्मक बदलाव हुआ है। यह गुरूतर उत्तरदायित्व लक्षित कार्य पूरा करने हेतु विनियामकों तथा सार्वजनिक संस्थाओं के बीच केंद्रीय बैंकों की क्षमता द्वारा चालित है। रिज़र्व बैंक इस प्रकार के दायित्व कारगर तरीके से निभा सके इसके लिए संस्थागत स्वतंत्रता और स्वायत्तता का मुद्दा महत्त्वपूर्ण है।

  • आगे चलकर नीति चर्चाओं अर्थात् दीर्घावधि कंपनी बाण्ड बाज़ारों के विकास, बेहतर मूल्य का पता लगाने तथा जोखिम अंतरणों को सुविधा प्रदान करने के लिए व्युत्पन्नी बाज़ार तथा व्यापक विदेशी सहभागिता की अनुमति देने के द्वारा और अधिक प्रतिस्पर्धा में यह क्षेत्र महत्त्वपूर्ण बने रहेंगे।

प्रणालीगति स्थिरता जोखिम - वित्तीय प्रणाली के लिए नया विनियामक ढांचा
  • वित्तीय स्थिरता के विनियमन के क्षेत्र में अधिकांश चुनौतियाँ प्रणालीगत जोखिम के आकलन से जुड़ी जटिलताओं, अंतर-संबद्धता, सामान्य एक्सपोजर, जटिल नवोन्मेषी उत्पादों में जोखिम के संकेद्रण तथा मूल्य जोखिम के प्रबंधन हेतु मॉडलों के उपयोग, जो कई बार जानकारी को छुपा देता है, से उत्पन्न होती हैं।

  • भारत जैसे देश को वृद्धि संबंधी संभावनाओं के दोहन तथा विभिन्न विकासात्मक लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु वित्तीय प्रणाली से पूरी तरह लाभ मिलना शेष है। ऐसी किसी भी विनियामक कार्रवाई से, जिससे अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों में ऋण का प्रवाह सीमित होता हो, स्थिरता तथा वृद्धि के बीच तालमेल करने की जरूरत स्पष्टत: सामने आ जाती है।

मौद्रिक तथा वित्तीय क्षेत्र की नीतियों के प्रति वैश्वीकरण जनित चुनौतियाँ

  • वैश्विक संकट ने स्पष्ट कर दिया है कि विभिन्न देश व्यापार तथा पूँजी प्रवाह के पारंपरिक चैनलों के अलावा किस प्रकार एक दूसरे से आपस में जुड़े हुए हैं। देश की वृद्धि की संभावना को उच्चतम स्तर तक ले जाने के लिए वैश्वीकरण अवसरों का एक ॉााटत बना रहेगा, परंतु वैश्विक अर्थव्यवस्था से देशी अर्थव्यवस्था में आघातों के शीघ्रता से संचारण की संभावना को बढ़ाने के अतिरिक्त इसके कारण भारत के लिए हाल की तुलनात्मक बेहतर स्थिति को बनाये रखने संबंधी दबाव बढ़ेगा।

  • देशी वास्तविक अर्थव्यवस्था पर वैश्विक आघातों के प्रभाव को कम-से-कम करने के लिए सुदृढ़ देशी नीतिगत वातावरण का महत्त्व काफी अधिक है। पिछला अनुभव बताता है कि अधिकांश वैश्विक आघात काले हंस की तरह अकस्मात आ जाते हैं तथा इस प्रकार के आघातों से निपटने के लिए प्रत्येक चरण पर नीतिगत संभावनाओं का सृजन करके उसे संरक्षित रखना चाहिए।

अजीत प्रसाद
प्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2010-2011/286

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