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भारतीय रिज़र्व बैंक ने "भारत में नगर निगम वित्त - एक आकलन" पर विकास अनुसंधान समूह अध्ययन जारी किया

14 जनवरी 2008

भारतीय रिज़र्व बैंक ने "भारत में नगर निगम वित्त - एक आकलन" पर
विकास अनुसंधान समूह अध्ययन जारी किया

[टिप्पणी : विकास अनुसंधान समूह का गठन वर्तमान अभिरूचि के विषयों पर मजबूत विश्लेषणात्मक और वैश्विक आधार पर समर्थित प्रभावी नीति-उन्मुख अनुसंधान शुरू करने के लिए रिज़र्व बैंक के आर्थिक विश्लेषण और नीति विभाग में किया गया है। इन अध्ययनों में व्यक्त विचार लेखकों के हैं और वे रिज़र्व बैंक के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं]

भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआइ) ने आज "भारत में नगर निगम वित्त - एक आकलन" शीर्षक अध्ययन प्रकाशित किया। यह अध्ययन डॉ. पी.के.मोहंती, मिशन निदेशक, जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन, भारत सरकार के साथ रिज़र्व बैंक के तीन अनुसंधान स्टाफ सदस्यों (बी.एम.मिश्र, राजन गोयल और पी.डी.जेरोमी) द्वारा संयुक्त रूप से तैयार किया गया है। यह अध्ययन विकास अनुसंधान समूह (डीआरजी) के तत्त्वाधान में शुरू किया गया था।

35 महानगर निगमों (एमसी) के आँकड़ों का उपयोग करते हुए यह अध्ययन नागरिक सुविधाओं के राजकोषीय मानदण्डों और प्रावधान के संबंध में शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) के अलग-अलग कार्यनिष्पादनों के लिए कारणों के विश्लेषण का प्रयत्न करता है। यह अध्ययन संविधान (74वाँ संशोधन) अधिनियम 1992 के अंतर्गत शहरी स्थानीय निकायों के महत्त्वपूर्ण दायित्त्वों के समनुदेशन की पृष्ठभूमि में शुरू किया गया।

इस अध्ययन के प्रमुख निष्कर्षों का सार-संक्षेप निम्नप्रकार हैं :

  • शहरी स्थानीय निकायों के कार्यों और वित्त के बीच असंतुलन है जो प्रारंभिक रूप से उर्ध्वमुखी असंतुलन को व्यक्त करता है।
  • भारत में नगरपालिका निकायों द्वारा निष्पादित किए जानेवाले 18 कार्यों में से आधे से कम में तदनुरूपी वित्तीय ॉााटत हैं।
  • भारत में शहरी स्थानीय निकायों के स्वाधिकृत कर और उपयोगकर्ता प्रभार शहरी स्थानीय निकायों के आवश्यक व्यय को पूरा करने में सकल रूप से अपर्याप्त हैं।
  • कर प्रभारित करने और उपयोगिता प्रभार, दर निर्धारित करने, छूट देने, निधि उधार लेने आदि तथा अभिकल्प, मात्रा और समय पर अंतर-सरकारी अंतरण में नगरपालिका प्राधिकारियों पर राज्य सरकार का भारी नियंत्रण संसाधनों के संग्रहण की सामर्थ्य को बाधित करता है।
  • अध्ययन यह बताता है कि नगरपालिकाओं के राजस्व और व्यय के विश्लेषण के अनुसार नगरपालिका वित्त का आकलन करने के लिए पारंपरिक पद्धति समुचित नहीं हो सकती है क्योंकि शहरी स्थानीय निकायों से यह अपेक्षित है कि वे सांविधिक अपेक्षाओं के कारण राजस्व अधिशेष का निर्माण करें।
  • जैसा कि नगरपालिका बज़ट में देखा जाता है शहरी स्थानीय निकायों के समग्र संसाधन अंतर बहुत नहीं हैं। तथापि, सभी महानगर निगमों द्वारा किया गया व्यय नागरिक सुविधाओं का एक न्यूनतम स्तर उपलब्ध कराए जाने की अपेक्षा से कम है।
  • महानगर निगमों द्वारा मुख्य सेवाओं पर किए जाने वाले प्रति व्यक्ति व्यय के आधार अध्ययन यह उल्लेख करता है कि औसत अल्प व्यय का स्तर लगभग 76 प्रतिशत है। अध्ययन यह प्रस्तावित करता है कि शहरी स्थानीय निकायों के लिए ऋण वित्त पोषण हेतु व्यापक संभावना है क्योंकि उनके पास कम ऋण और ब्याज व्याप्ति अनुपात है।
  • मूलभूत सुविधाओं की शहरों और नगरों की पिछली और वर्तमान आवश्यकता में वृद्धि, शहरी स्थानीय निकाय के पास उपलब्ध संसाधनों से कई गुना अधिक है।
  • कतिपय पूर्वानुमानों के आधार पर अध्ययन ने दस वर्ष की अवधि (2004-05 से 2013-14) के लिए देश में शहरी मूलभूत सुविधाओं के लिए निधि की आवश्यकता को लगभग 63,000 करोड़ रुपए प्रति वर्ष के अनुमानित निवेश का आकलन किया है। इसमें शहरी गरीबी उन्मूलन जैसे पुनर्वितरणशील कार्य के लिए आवश्यकताएं शामिल नहीं हैं। यह अनुमान लगाते हुए कि देश में संघीय राजकोषीय संबंधों में यथापूर्व स्थिति है, देश के नगर-निगमों द्वारा अधिकतम लगभग 27,285 करोड़ रुपए प्रति वर्ष की राशि एकत्र की जा सकती है। इस दायरे में, वर्तमान व्यय को पूरा करने के बाद आस्तियों के सृजन के लिए उपलब्ध संसाधन अधिकतम लगभग 17,736 करोड़ रुपए तक हो सकते हैं जिससे यह पता चलता है कि महत्त्वपूर्ण शहरी सेवाएं उपलब्ध कराने के लिए भी कम-से-कम 10,000 करोड़ रुपए (2004-05 के मूल्यों के आधार पर) का वार्षिक घाटा है।
  • अध्ययन में यह सुझाव दिया गया है कि भारत में नगर-निगम वित्त की समस्याओं को व्यापक सुधारों के माध्यम से संपूर्ण रूप में देखने की आवश्यकता है। उसमें यह सुझाव दिया है कि व्यय समनुदेशन कार्य और राजस्व में स्पष्टता, सामंजस्य तथा अनुमान-योग्यता के अभाव का समाधान करने की आवश्यकता है। विशेषत:, शहरी स्थानीय निकायों के संबंध में उनकी कर प्रणाली, उपयोगकर्ता प्रभार, अंतर-सरकार अंतरण तथा उधार में उनकी पर्याप्तता और उपयुक्तता की समीक्षा करने की आवश्यकता है ताकि उनकी व्यय आवश्यकता अनुकूल हो।
  • अध्ययन की मुख्य-मुख्य बातें यह हैं कि संविधान की 12वीं अनुसूची में शामिल किए गए कार्यों की सूची के अनुकूल होने के लिए शहरी स्थानीय निकायों को कार्य सौंपने हेतु "नगर-निगम वित्त अनुसूची" पर राष्ट्रीय सहमति की आवश्यकता है।
  • अध्ययन में कार्य को वित्त से जोड़ने पर भी ज़ोर दिया गया है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि शहरी स्थानीय निकायों द्वारा किए जानेवाले प्रत्येक कार्य के लिए तदनुरूपी वित्त-पोषण करने का ॉााटत हो।
  • अध्ययन के अनुसार संपत्ति कर में सुधार, भूमि का उपयोग करने के लिए ‘उपभोक्ता प्रभार’, ‘लाभार्थी प्रभार’ और ‘प्रदूषित करने पर प्रभार’ का सिद्धांत अपनाकर प्रत्येक सेवाओं को उपभोक्ता प्रभार से और सामूहिक सेवा को लाभ कर से जोड़कर उसे सावधानीपूर्वक राजस्व और व्यय के साथ अनुकूल बनाना चाहिए।
  • अध्ययन में आगे यह सुझाव दिया गया है कि सरल संवितरणीय फॉर्मूले को अपनाते हुए अंतर-सरकारी अंतरणों की पुनर्रचना करनी चाहिए जिसमें जरूरतों, न्यूनतम मूल सेवाओं का अधिकार, कार्य-निष्पादन के लिए प्रोत्साहन और अंतर-क्षेत्राधिकार समानता पर समुचित ज़ोर दिया गया हो।
  • इसके अलावा यह सुझाव दिया गया है कि शहरी स्थानीय निकायों पर उधार प्रतिबंधों को आसान बनाया जाए और निम्नलिखित विकल्पों की जाँच करके शहरी मूलभूत सुविधाओं का वित्त-पोषण किया जाए:
(i) नगर-निगम बाण्ड बाज़ार (ii) विशेष नगर-निगम निधि और (iii) सार्वजनिक-निजी भागीदारी
  • अध्ययन में यह सुझाव दिया गया है कि व्यय प्रबंध में सुधार, स्टाफ में व्यावसायीकरण और शहरी स्थानीय निकायों द्वारा सेवा प्रदान करने में दक्षता में सुधार लाना चाहिए।
  • अध्ययन में यह भी सुझाव दिया गया कि शहरी स्थानीय निकायों की बज़ट और लेखा पद्धतियों में सुधार लाना चाहिए और शहरी स्थानीय निकायों द्वारा नियमित अंतराल में जनता को पर्याप्त जानकारी देनी चाहिए।
  • अध्ययन में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि नए समूहों का गठन करके और प्रारंभिक अध्ययनों द्वारा भारत में नगर-निगम की सेवाओं की लागत का अनुमान लगाने के लिए नए न्यूनतम मानदण्ड तैयार करने की आवश्यकता है।

संपूर्ण अध्ययन रिज़र्व बैंक की वेबसाइट (www.rbi.org.in) के प्रकाशन खण्ड में उपलब्ध है।

सबीता बाडकर
सहायक प्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2007-2008/928

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