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भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति, 2007-08 पर रिपोर्ट जारी किया

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17 दिसंबर 2008

भारतीय रिज़र्व बैंक ने भारत में बैंकिंग की
प्रवृत्ति और प्रगति, 2007-08 पर रिपोर्ट जारी किया

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज भारत में बैंकिंग की प्रवृत्ति और प्रगति, 2007-08 पर रिपोर्ट जारी किया। यह सांविधिक रिपोर्ट वर्ष 2007-08 के दौरान नीति गतिविधियों तथा वाणिज्यिक बैंकों, सहकारी बैंकों और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों का एक विस्तृत ब्यौरा उपलब्ध कराती है। इस वर्ष इस रिपोर्ट में व्यष्टि वित्त पर एक नया अध्याय शामिल किया गया है। यह रिपोर्ट वित्तीय स्थिरता दृष्टिकोण से भारतीय वित्तीय प्रणाली का एक विस्तृत विश्लेषण भी प्रस्तुत करती है।

इस रिपोर्ट में आठ अध्याय हैं। रिपोर्ट में संलग्न सांख्यिकीय सारणियाँ बैंकों/वित्तीय संस्थाओं दोनों की अलग-अलग तथा सकल स्तरों पर परिचालनों और कार्यनिष्पादन पर सूचना उपलब्ध कराती हैं।

यह रिपोर्ट जारी वैश्विक वित्तीय संकट के सदर्भ में भारत में बैंकिंग प्रणाली तथा भारतीय रिज़र्व बैंक के समक्ष प्रमुख चुनौतियों का उल्लेख करती है। प्रमुख समस्याएं जिनका सामना बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर किया है वे हैं: अनकदी परिसंपत्तियाँ, पूँजी की कमी तथा प्रति-पक्ष विश्वास का ढह जाना। रिज़र्व बैंक इस संकट से उत्पन्न सबक के बारे में सतर्क है। संकट यह प्रस्तावित करती है कि जोखिम प्रबंध तथा पर्यवेक्षी प्रभावों में वित्तीय नवोन्मेषीकरण तथा उभरते हुए कारोबारी प्रतिदर्शों की कमी है। रिपोर्ट उल्लेख करती है कि रिज़र्व बैंक ने पहले ही बहुत अल्प समय के लिए चलनिधि जोखिमों, प्रणालीगत स्तर तथा संस्था स्तर पर जोखिमों में कमी के लिए एक प्रणाली लागू की है। भारत में चलनिधि जोखिम प्रबंध को अधिक सूक्ष्म बनाया गया है तथा बैंकों के तुलनपत्रेतर निवेश के लिए विवेकपूर्ण मानदण्ड निर्धारित किए गए हैं। पूँजी अपेक्षाओं को और सुदृढ़ करने के लिए ऋण परिवर्तन कारकों, व्युत्पन्नी सहित जोखिम भार तथा विशिष्ट तुलनपत्रेतर मदों के लिए प्रावधानीकरण अपेक्षाओं की समीक्षा की गई है। इसके अतिरिक्त भारत में सिंथेटिक प्रतिभूतिकरण जैसे जटिल संरचित उत्पाद को अब तक अनुमति नहीं दी गई। जब समुचित पाया जाएगा तो ऐसे उत्पादों का प्रवर्तन प्रणाली की जोखिम प्रबंध क्षमता द्वारा निर्देशित किया जाएगा।

रिपोर्ट उल्लेख करती है कि बैंकों के लिए चुनौती यह है कि वित्तीय उत्पादों के साथ-साथ औद्योगिकी उन्नति में नवोन्मेषीकरणों से उभरती हुई जोखिमों का प्रबंध करने के लिए पर्याप्त कौशल विकसित किया जाए। रिज़र्व बैंक जोखिमों के प्रबंध हेतु एक समेकित दृष्टिकोण विकसित करने तथा चलनिधि और ऋण जोखिम प्रबंध दोनों के लिए तनाव जाँच अभ्यास शुरू करने के लिए भी बैंकों को प्रोत्साहित करता रहा है। इस संदर्भ में विश्वनीय सूचना की उपलब्धता बैंकों तथा बैंकिंग प्रणाली के नियंत्रकों/पर्यवेक्षकों दोनों के लिए महत्त्वपूर्ण है। रिज़र्व बैंक ने ऑन-लाइन विवरणी दर्ज करने की प्रणाली के कार्यान्वयन द्वारा एक अधिक सक्षम वित्तीय आँकड़ा रिपोर्टिंग प्रणाली की दिशा में पहला कदम उठाया है। दूसरा महत्त्वपूर्ण कदम बैंकों से बासेल II रिपोर्टों के लिए एक्सबीआरएल-आधारित डेटा रिपोर्टिंग को अंगीकार करना था। यह रिपोर्ट उल्लेख करती है कि एक प्रमुख चुनौती यह है कि
ऋण गुणवत्ता में सुधार किए बिना ऋण माँग को किस प्रकार पूरा किया जाए। बैंकों को प्रणाली स्तर पर बैंक ऋण में जारी उच्चतर वृद्धि के संदर्भ में अपने ऋण पोर्टफालियो की निकट से निगरानी करनी होगी तथा कारोबारी चक्रों और प्रति-चक्रीय मौद्रिक नीति उपायों की वास्तविकता की पहचान करते हुए अनुचित आस्ति देयता असंतुलनों अथवा ऋण गुणवत्ता में ह्रास के लिए यथोचित सुधारात्मक कार्रवाई शुरू करनी होगी। बैंकों को अपनी ओर से यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होगी कि उनकी कारोबारी रणनीतियाँ और निर्णय प्रणालीगत और समष्टि आर्थिक गतिविधियों के दीर्घावधि परिप्रेक्ष्य द्वारा नेर्देशित हो रहे हैं तथा अपवादात्मक घटनाओं की वर्तमान धारा से अनुचित रूप से प्रभावित नहीं हो रहे हैं।

रिपोर्ट में यह टिप्पणी की गई है कि भारत में परिचालनरत विदेशी बैंक तथा विदेशों में कार्य कर रहे भारतीय बैंकों ने 31 मार्च 2008 से बासेल II ढाँचे को स्वीकार कर लिया है। सभी अन्य अनुसूचित वाणिज्यिक बैंक (क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और स्थानीय क्षेत्र के बैंकों को छोड़कर) से यह आशा की जाती है कि वे 31 मार्च 2009 तक संशोधित ढाँचे को स्वीकार करें। जैसाकि रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है आधारगत, मानकीकृत दृष्टिकोणों के अंतर्गत भी बासेल II ढाँचे का पूर्ण कार्यान्वयन बैंकों तथा रिज़र्व बैंक दोनों के लिए आनेवाले कुछ समय में एक प्रमुख चुनौती बना रहेगा। बैंकों के स्तर पर इस कार्यान्वयन के लिए अन्य बातों के साथ-साथ बेहतर शाखा संयोजन के माध्यम से बैंकवार सूचना प्रणाली के उन्नयन की अपेक्षा होगी जो लागतवाली होगी तथा उसमें कुछ सूचना प्रौद्योगिकी-सुरक्षा मामले भी उठ सकते हैं। बासेल II का कार्यान्वयन मानव संसाधन कौशल तथा डेटाबेस प्रबंध के विकास से संबंधित कई मामलों को सामने ला सकता है। बैंकों को बासेल II ढाँचे के अंतर्गत पूँजी की भारी मात्रा की अपेक्षा होगी। अत: उन्हें विभिन्न पूँजी संग्रह विकल्पों का पता लगाने की आवश्यकता होगी।

रिज़र्व बैंक ने बैंकों से आग्रह किया है कि वे यह सुनिश्चित करें कि जब वे ऋण गुणवत्ता बनाए रखने के लिए उचित दबाव डालते हैं तो अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों के लिए ऋण प्रवाह पर प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। ऋण प्रवाह में वृद्धि के लिए वर्ष के दौरान प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र उधार मानदण्डों को और सहज बनाए जाने तथा भारत सरकार द्वारा घोषित कृषि ऋण माफी और ऋण राहत योजना, 2008 के कार्यान्वयन सहित महत्त्वपूर्ण प्रयास किए गए।

वाणिज्यिक बैंकों के परिचालन और कार्यनिष्पादन

‘वाणिज्यिक बैकों के परिचालन और कार्यनिष्पादन’ शीर्षक अध्याय में प्रस्तुत किए गए विश्लेषण से उभरते हुए मुख्य बिंदु निम्नप्रकार हैं :

  • जमा वृद्धि मज़बूत बनी हुई है यद्यपि, मुख्यत: मीयादी जमाराशियों में गिरावट के कारण पिछले वर्ष की अपेक्षा यह सीमांत रूप से कम थी। अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के बैंक ऋण में वृद्धि ने रिज़र्व बैंक द्वारा शुरू किए गए नीति प्रयासों के अनुरूप वर्ष के दौरान कुछ सुधार दर्शाया। सेवाओं को छोड़कर (पैरा 3.10 और 3.17; पृष्ठ 91 और 93) सभी क्षेत्रों में ऋण में सुधार पाया गया।
  • विभिन्न बैंक समूहों में अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की उधार दरों ने वर्ष के दौरान (पैरा 3.5.9; पृष्ठ 108) सामान्यत: तेजी की गति दर्शाई।
  • अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों के निवल लाभ में वर्ष 2007-08 के दौरान उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुई। परिसंपत्तियों पर प्रतिलाभ में भी (पैरा 3.76 और पैरा 3.77; पृष्ठ 115) वृद्धि हुई।
  • अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की सकल अनर्जक आस्तियाँ वर्ष 2007-08 के दौरान बढ़ गईं। वर्ष 2001-02 के बाद से यह पहला वर्ष था जब सकल अनर्जक आस्तियाँ निरपेक्ष रूप में बढ़ीं। तथापि, सकल अग्रिम के प्रतिशत के रूप में सकल अर्नजक आस्तियों में कमी (पैरा 3.80; पृष्ठ 117-118) जारी रही।
  • मार्च 2008 के अंत तक सभी अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों का समग्र जोखिम भारित परिसंपत्ति की तुलना में पूँजी के अनुपात (सीआरएआर) में जोखिम भारित आस्तियों (पैरा 3.91; पृष्ठ 122) की अपेक्षा बैंकों द्वारा अनुरक्षित पूँजी निधियों में अपेक्षित उच्चतर वृद्धि दर दर्शाते हुए पिछले एक वर्ष के स्तर से और सुधार हुआ। अलग-अलग बैंक स्तरों पर अनुसूचित वाणिज्यिक बैंकों की जोखिम भारित आस्तियों की तुलना में पूँजी का अनुपात मार्च 2008 के अंत तक (पैरा 3.95; पृष्ठ 123) 9 प्रतिशत की निर्धारित अपेक्षा से अधिक था।
  • क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों की सकल आय में उच्चतर ब्याज के साथ-साथ गैर ब्याज आय (पैरा 3.133; पृष्ठ 142) के कारण वर्ष 2007-08 के दौरान वृद्धि हुई।

सहकारी बैंकिंग में गतिविधियाँ

‘सहकारी बैंकिंग में गतिविधियाँ ’ शीर्षक अध्याय की विषयवस्तु में सभी शहरी सहकारी बैंकों (अनुसूचित तथा गैर-अनुसूचित) के लिए तुलनपत्रों और वित्तीय कार्यनिष्पादन दोनों पर आँकड़े शामिल करने के द्वारा सुधार हुआ है। इस विश्लेषण से उभरनेवाले मुख्य बिंदु निम्नप्रकार हैं:

  • शहरी सहकारी बैंकों के लिए कार्यदल (टीएएफसीयूबी) के गठन ने शहरी सहकारी बैंक क्षेत्र में आम जनता के विश्वास को बढ़ाया जो लगातार तीन वर्षों अर्थात् 2005-06 से 2007-08 (पैरा 4.3; पृष्ठ 1) के लिए जमाराशियों में वृद्धि से स्पष्ट है।
  • श्रेणी I और श्रेणी II बैंकों की कुल संख्या में पिछले तीन वर्षों के दौरान वृद्धि हुई है जबकि श्रेणी III और श्रेणी IV के बैंकों की संख्या में (पैरा 4.64; पृष्ठ 162) गिरावट हुई है।
  • कमज़ोर संस्थाओं का मज़बूत संस्थाओं में विलय की प्रक्रिया के माध्यम से शहरी सहकारी बैंकों का समेकन रिज़र्व बैंक द्वारा शुरू किया गया जो वर्ष 2007-08 के दौरान (पैरा 4.11; बॉक्स IV.2; पृष्ठ 149 और 150) और आगे बढ़ा।
  • शहरी सहकारी बैंकों के तुलनपत्रों (अनुसूचित और गैर-अनुसूचित दोनों) में वर्ष 2007-08 के दौरान (पैरा 4.71, पैरा 4.77 और पैरा 4.80; पृष्ठ 165, 167 और 168) उल्लेखनीय रूप से विस्तार हुआ।
  • सभी शहरी सहकारी बैंकों के निवल लाभ में प्रावधानों, आकस्मिकताओं और करों में वृद्धि के कारण गिरावट हुई। जबकि अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों का निवल लाभ वर्ष 2007-08 के दौरान बढ़ा, गैर अनुसूचित शहरी सहकारी बैंकों के निवल लाभ ने (पैरा 4.72, पैरा 4.78 और पैरा 4.81; पृष्ठ 166, 167 और 169) गिरावट दर्ज की।
  • मार्च 2008 के अंत तक कुल 1,770 शहरी सहकारी बैंकों में से 1,457 शहरी सहकारी बैंकों का जोखिम भारित परिसंपत्ति की तुलना में पूँजी का अनुपात (सीआरएआर) 9 प्रतिशत और उससे अधिक (पैरा 4.75, पृष्ठ 167) था।
  • सकल और निवल अनर्जक आस्तियाँ निरपेक्ष रूप से बढ़ीं तथापि कुल अग्रिमों के प्रतिशत के रूप में सकल अनर्जक आस्तियों और निवल अनर्जक आस्तियों दोनों में (पैरा 4.76, पृष्ठ 167) गिरावट हुई।
  • राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (एससीएआरडीबी) को छोड़कर ग्रामीण सहकारी बैंकिंग क्षेत्र के सभी खण्डों के तुलनपत्रों में वर्ष 2006-07 (पैरा 4.6, पृष्ठ 147) के दौरान विस्तार हुआ।
  • ग्रामीण सहकारी बैंकों की अल्पावधि संरचना में राज्य सहकारी बैंकों तथा जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों के परिचालन लाभ तथा निवल लाभ दोनों में वर्ष 2006-07 के दौरान गिरावट हुई। जबकि लाभ अर्जित करनेवाली प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों द्वारा अर्जित कुल लाभ में वृद्धि हुई, हानि उठानेवाली प्राथमिक कृषि सहकारी समितियों द्वारा उठाई गई हानि में भी (पैरा 4.101, पैरा 4.107 और पैरा 4.114; पृष्ठ 178, 180 और 182) में बढोतरी हुई।
  • दीर्घावधि संरचना के मामले में राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (एससीएआरडीबी) के परिचालन लाभ ने वर्ष 2006-07 के दौरान गिरावट दर्ज की। तथापि, प्राथमिक सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों (पीसीएआरडीबी) ने गत वर्ष में गिरावट के बदले (पैरा 4.121, और पैरा 4.126; पृष्ठ 185, और 187) के बदले वर्ष 2006-07 के दौरान परिचालन लाभ में तेजी से वृद्धि करते हुए सुधार प्रदर्शित किया।
  • राज्य सहकारी बैंकों, जिला मध्यवर्ती सहकारी बैंकों, राज्य सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों तथा प्राथमिक सहकारी कृषि और ग्रामीण विकास बैंकों की आस्ति गुणवत्ता में वर्ष 2007-08 के दौरान (पैरा 4.102, पैरा 4.108, पैरा 4.122 और पैरा 4.127; पृष्ठ 178, 180, 185, और 187) में सुधार हुआ।

व्यष्टि वित्त

हाल के वर्षों में भारत में व्यष्टि वित्त आंदोलन ज़ोर पकड़ रहा है और यह अब गरीबों तक पहुँच के लिए एक महत्त्वपूर्ण वितरण व्यवस्था में विकसित हो गया है। वर्तमान में भारत में व्यष्टि वित्त सुपुर्दगी के लिए दो प्रमुख नमूने हैं। अर्थात् स्वयं सहायता समूह - बैंक सहबद्ध कार्यक्रम (एसबीएलपी) नमूना और व्यष्टि वित्त संस्था (एमएफआइ) नमूना। भारत में व्यष्टि वित्त की गति को और आगे बढ़ाने के लिए गरीब वर्ग की आय और सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों पर सक्रिय प्रभाव डालने की समष्टि वित्त की सक्षमता को पहचानते हुए रिज़र्व बैंक, नाबार्ड और सिडबी ने वर्ष के दौरान कई प्रयास किए। इस नीति की गतिविधियों की पृष्ठभूमि में इस आंदोलन के द्वारा प्रगति प्राप्त करने के संबंध में जानकारी उपलब्ध कराने को ध्यान में रखते हुए इस रिपोर्ट में "व्यष्टि वित्त" पर एक नया अध्याय शुरू किया गया है। वित्तीय स्थ्रिता पर अध्याय के विश्लेषण से उभरी प्रमुख मदें निम्नप्रकार हैं :

  • स्वयं सहायता समूह - बैंक सहबद्ध कार्यक्रम (एसबीएलपी) ने बैंक के साथ स्वयं सहायता समूह ऋण सहबद्ध तथा स्वयं सहायता समूह द्वारा बैंक ऋण दोनों ने 1990 शुरुआत में अपनी स्थापना से काफी अधिक प्रगति की है (पैरा 5.58; पृष्ठ 210)।
  • विभिन्न एजेंसियों के संबंधित शेयरों के अंतर्गत क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों के बाद वाणिज्य बैंक दोनों स्व-सहायता समूह ऋण सहबद्ध और बैंक ऋण संवितरण की संख्या के अंतर्गत बड़े हिस्से को रखना जारी रखा (पैरा 5.60; पृष्ठ 210)।
  • बैंकों से सहबद्ध स्वयं सहायता समूह के क्षेत्रवार पैटर्न ने दक्षिणी क्षेत्र में अत्यधिक प्रभाव दर्शाया। हालांकि पिछले कुछ वर्षों अन्य क्षेत्रों के हिस्से में कुछ वृद्धि के साथ कुछ कमियाँ आई हैं (पैरा 5.63; पृष्ठ 212)।
  • 31 मार्च 2007 को क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों और सहकारी बैंकों के बाद वाणिज्य बैंकों ने स्वयं-सहायता समूह बचत का सबसे बड़ा हिस्सा धारित किया है (पैरा 5.65; पृष्ठ 212)।
  • स्वयं सहायता समूह - बैंक सहबद्ध कार्यक्रम (एसबीएलपी) के अंतर्गत वसूली दर 37 प्रतिशत बैंकों द्वारा 95 प्रतिशत से अधिक वसूली दर्ज करने से उच्च स्तर पर रहा (पैरा 5.66; पृष्ठ 213)।
  • रिज़र्व बैंक ने वर्ष 2007 में लघु वित्त संस्थाओं का सर्वेक्षण किया था जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ यह दर्शाया कि लघु वित्त संस्थाओं तथा राज्यों के बीच व्यापक रूप से उत्पाद भिन्न-भिन्न रहे और वाणिज्यिक बैंक लगभग सभी लघु वित्त संस्थाओं के लिए निधियों के श्रोत का प्रमुख केंद्र बना रहा (बॉक्स V.6, पृष्ठ 215)।

गैर-बैंकिंग वित्तीय संस्थाएं

इस अध्याय में प्रमुख नीतिगत गतिविधयों तथा वित्तीय संस्थानों (एफआइ), गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (एनबीएफसी) और प्राथमिक व्यापारियों (पीडी) के कारोबार परिचालनों और वित्तीय कार्य निष्पादन का विश्लेषण किया गया है। इस अध्याय में किए गए विश्लेषण से उभरी प्रमुख मदें निम्नप्रकार हैं :

  • वर्ष 2007-08 के दौरान वित्तीय संस्थानों द्वारा स्वीकृत और संवितरित की गई दोनों वित्तीय सहायता में वृद्धि जारी रही किन्तु संवितरण की तुलना में संस्वीकृति संबंधी वृद्धि अधिक रही (पैरा 6.17; पृष्ठ 220)।
  • वर्ष 2007-08 के दौरान चयनित वित्तीय संस्थाओं के सम्मिलित तुलन-पत्रों में तेज़ी से वृद्धि हुई। देयताओं की ओर जमाराशियों और उधारों में तेज़ वृद्धि के बावजूद बॉण्डों और डिबेंचरों (जो प्रमुख घटक हैं) द्वारा उगाहे गए संसाधन में कमी आयी। आस्तियों की ओर ऋण और अग्रिमों में वृद्धि जारी रही जबकी निवेश संविभाग में कमी जारी रही (पैरा 6.18; पृष्ठ 221)।
  • वर्ष 2007-08 के दौरान वित्तीय संस्थाओं की गैर-ब्याज आय तथा उनके परिचालनगत व्यय में उल्लेखनीय वृद्धि हुई। वित्तीय संस्थाओं के परिचालनगत लाभ तथा निवल लाभ में वृद्धि हुई (पैरा 6.24; पृष्ठ 223)।
  • वित्तीय संस्थाओं की पूंजी पर्याप्तता अनुपात में 9 पतिशत के निर्धारित न्यूनतम मानदण्ड से उल्लेखनीय रूप से अधिक बनी रही (पैरा 6.28; पृष्ठ 224)।
  • वर्ष 2006-07 की तुलना में वर्ष 2007-08 के दौरान गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (अवशिष्ट गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपानियों को छोड़कर) की आस्तियों / देयताओं में उच्च दर से वृद्धि हुई (पैरा 6.52; पृष्ठ 233)।
  • वर्ष 2007-08 के दौरान गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के वित्तीय कार्य-निष्पादन में सुधार होना जारी रहा। निधि आधारित आय और शुल्क आधारित आय दोनों में तेज़ वृद्धि हुई (पैरा 6.64; पृष्ठ 239)
  • अनर्जक आस्तियों (गैर-मानक, संदिग्ध हानि) की विभिन्न श्रेणियों में दर्शाई गई विभिन्न प्रकार की गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों की आस्ति गुणवत्ता व्यापक रूप से पूर्ववर्ती वर्ष के स्तर पर बनी रही (पैरा 6.69; पृष्ठ 241)
  • वर्ष 2007-08 के दौरान अवशिष्ट गैर-बैंकिंग कंपनियों की आय में वृद्धि उसकी व्यय की वृद्धि से अधिक रही जिसके फलस्वरूप अवशिष्ट गैर-बैंकिंग कंपनियों के परिचालनगत लाभ में तेज़ वृद्धि हुई (पैरा 6.74)(पृष्ठ सं.244)।
  • पूर्ववर्ती वर्ष की तुलना में मार्च 2009 को समाप्त वर्ष के दौरान जमाराशियाँ स्वीकार नहीं करनेवाली प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (100 करोड़ रुपए और उससे अधिक राशिवाली आस्तियाँ) (एनबीएफसी-एनडी-एसआइ) की देयताओं/आस्तियों में वृद्धि हुई (पैरा 6.78)(पृष्ठ सं.246)।
  • मार्च 2008 को समाप्त वर्ष के दौरान प्रणालीगत रूप से महत्त्वपूर्ण जमाराशियाँ स्वीकार नहीं करनेवाली गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियों के कुल आस्ति अनुपात की तुलना में सकल अनर्जक आस्तियाँ अपरिवर्ति रही (पैरा 6.82)(पृष्ठ सं.247)।
  • प्राथमिक व्यापारियों द्वारा किए गए कारोबार की पुनर्संरचना और अन्य क्रियाकलाप जिसे करने की प्राथमिक व्यापारियों को अनुमति नहीं दी गई थी की आय में लगातार कमी के कारण वर्ष 2007-08 के दौरान प्राथमिक व्यापारियों द्वारा प्राप्त आय में कमी आई।
  • एकल प्राथमिक व्यापारियों की जोखिम भारित आस्तियों के प्रति पूंजी अनुपात, 15 प्रतिशत के निर्धारित न्यूनतम जोखिम भारित आस्तियों के प्रति पूँजी अनुपात से अधिक बना रहा (पैरा 6.97)(पृष्ठ सं.252)।

वित्तीय स्थिरता

इस अध्याय में खासकर वर्ष 2007-08 और अप्रैल-अक्तूबर 2008 के दौरान वित्तीय स्थिरता के परिप्रेक्ष्य में भारतीय वित्तीय प्रणाली की गतिविधियों की समीक्षा और उसका विश्लेषण किया गया है। वित्तीय स्थिरता पर अध्याय के विश्लेषण से उभरी प्रमुख मदें निम्नप्रकार हैं :

  • पिछले डेढ़ वर्ष के दौरान व्यापक विस्तार के साथ जारी वित्तीय संकट के कारण वित्तीय स्थिरता नीति मामलों में केंद्रीय मुद्दा बनी हुई है (पैरा 7.1; पृष्ठ 253)। तथापि, भारत में वैश्विक वित्तीय संक्रामक का प्रारंभिक प्रभाव कई कारणों से सीमित रहा है। तथापि, ऋण, ईक्विटी और विदेशी मुद्रा बाज़ारों के माध्यम से कुछ प्रभाव पड़ा है (पैरा 7.6)(पृष्ठ सं.255)।
  • भारत का वित्तीय क्षेत्र सुदृढ़ और मज़बूत है (पैरा 7.22; पृष्ठ सं.260)। बैंकिंग और गैर-बैंकिंग संस्थाएं प्रतिस्पर्धात्मक वातावरण में कार्य कर रही हैं और उनका विनियामक ढाँचा अंतर्राष्ट्रीय उत्कृष्ठ प्रणाली के अनुरूप है (पैरा 7.16)(पृष्ठ सं.258)।
  • वर्ष 2007-08 के दौरान घरेलू वित्तीय बाज़ार परिस्थितियाँ अगस्त 2007 की दूसरी छमाही, दिसंबर 2007 की दूसरी छमाही और जनवरी 2008 के दूसरे सप्ताह की शुरूआत के दौरान माँग मुद्रा बाज़ार में उतार-चढ़ाव की छिट-पुट घटनाओं और ईक्विटी बाज़ार में कभी-कभार हुए उतार-चढ़ाव को छोड़कर सामान्य रूप से सुगम बनी रही। वर्ष के अधिकतर भाग में सरकारी प्रतिभूति बाज़ार के प्रतिलाभ में नरमी आई (पैरा 7.37; पृष्ठ 265-266)। प्रतिलाभ में गति मॉद्रिक नीति के उपायों के अनुरूप रही (पैरा 7.53; पृष्ठ 271) वर्ष 2007-08 के दौरान भारतीय रुपए ने दुतरफा गति प्रदर्शित की और अंतत: जुलाई 2008 (पैरा 7.49; पृष्ठ 270) की शुरूआत से मूल्यह्रास की प्रवृत्ति दर्शाई।
  • जबकि गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियाँ वाणिज्यिक पेपर (सीपी) के प्रमुख उपयोगकर्ता हैं; पारस्परिक निधि (एमएफ) वाणिज्यिक पेपर के प्रमुख निवेशक हैं। सितंबर 2008 से पारस्परिक निधियों द्वारा विप्रेषण दबाव ने मुद्रा बाज़ार में चलनिधि परिस्थितियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाला और जिससे वाणिज्यिक पेपर बाज़ार पर भी उसका प्रभाव फैल गया (पैरा 7.45; पृष्ठ 269)।
  • भारतीय जमाकर्ता उच्च डिग्री की सुरक्षा प्राप्त करते हैं। लगभग 93 प्रतिशत के जमा खाता और 61 प्रतिशत की कुल मूल्यांकन योग्य जमाराशियाँ मार्च 2008 के अंत में पूर्ण तरह से सुरक्षित की गई(पैरा 7.123 पृष्ठ 298)।
  • वर्ष 2008-09 के प्रथम छमाही में प्रतिकूल वैश्विक गतिविधियों ने औद्योगिक और सेवा क्षेत्रों में विकास को सामान्य बनाया। हाल के सप्ताह में चलनिधि और ऋण पर प्रभाव भी देखा गया है (पैरा 7.89; पृष्ठ सं.285)।
  • 9 अगस्त 2008 से थोक मूल्य सूचकांक के अंतर्गत मुद्रास्फीति लगातार सुगम रही। वैश्विक रूप से कच्चे तेल सहित पण्य मूल्यों से प्रभाव दूर होते प्रतीत होते हैं। प्रमुख वैश्विक पण्य मूल्यों में सुगमता यदि बनी रही तो मुद्रास्फीतिकारक दबाव और कम होंगे(पैरा 7.88; पृष्ठ सं.284)।
  • जबकि ईक्विटी मूल्य अपने सर्वोत्तर स्तर से लगभग 56.1 प्रतिशत (8 दिसंबर 2008 को) द्वारा सही किया गया है, संपदा मूल्य अपने उच्च स्तर को बनाए हुए है। हालांकि कुछ रिपोर्ट यह सुझाते हैं कि हाल के महीनों में देश के कुछ हिस्सों में मूल्यों में कुछ सुगमता आई है (पैरा 7.95; पृष्ठ सं.286)। संपदा क्षेत्र में निवेशों के बढ़ने से आई जोखिम को ध्यान में रखते हुए रिज़र्व बैंक ने कई विनियामक उपायों को लागू किया (पैरा 7.98; पृष्ठ सं.287)।
  • रिज़र्व बैंक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय विनियम और पर्यवेक्षण की गतिविधियों पर नज़दिकी से निगरानी रखे हुए हैं। अप्रैल-2008 में जारी किए गए वर्ष 2008-09 के लिए वार्षिक नीति वक्तव्य में रिज़र्व बैंक ने हाल के वित्तीय संकट से प्रभावित देशों द्वारा वित्तीय स्थिरता फोरम के कार्यान्वयन द्वारा तैयार की गई कार्य योजना के साथ-साथ अपनी स्थिति को दर्शाया (पैरा 7.105; पृष्ठ सं.289; अनुबंध VII.1, पृष्ठ सं.329-332)।
  • सितंबर 2008 से हुई घटनाओं के बाद विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा संविभाग बहिर्वाह, शेयर बाज़ारों में तेज़ गिरावट, अंतरबैंक दरों के बढ़ते उच्च स्तर और रुपए के मूल्य ह्रास से बाज़ार में चलनिधि के अभाव के कारण रिज़र्व बैंक ने सितंबर के मध्य और 6 दिसंबर 2008 के दौरान त्वरित सुधारात्मक उपायों के द्वारा जनता के विश्वास को बनाए रखने के कार्रवाई की (पैरा 7.107; पृष्ठ सं.291)।
  • भारत अपने विकास के मज़बूत चालकों के कारण वैश्विक वित्तीय संकट के बुरे प्रभावों से निपट सकता है। एक बार वित्तीय स्थिति में स्थिरता आ जाए और सुदृढ़ता और विश्वास लौट आए तो भारत उच्च विकास की ओर वापस लौट आएगा (पैरा 7.144; पृष्ठ सं.309)।

    अजीत प्रसाद
    प्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2008-2009/907

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