भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2010 अंक जारी किया - आरबीआई - Reserve Bank of India
भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2010 अंक जारी किया
16 अगस्त 2010 भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2010 अंक जारी किया भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने सामयिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2010 अंक जारी किया। सामयिक पेपर रिज़र्व बैंक की अनुसंधान पत्रिका है जिसमें स्टाफ के योगदान शामिल हैं और यह लेखकों के विचारों को दर्शाती है। ये अंक कुछ उन महत्वपूर्ण विषयों पर तैयार किए गए हैं जो नीति चर्चाओं की अग्रपंक्ति में हैं। इन अंकों में विशेष टिप्पणियाँ और पुस्तक समीक्षाएँ भी शामिल हैं। इस अंक में चार पेपर शामिल हैं। जी. पी. सामंत, पृथ्वीस जना,अंगुष्मान हाइत और विवेक कुमार द्वारा तैयार किया गया ‘बाजार जोखिम का मापन-भारत में सरकारी बॉण्डों का चयन करने के लिए जोखिम वाले मूल्य का अनुप्रयोग’शीर्षक पहला पेपर जोखिम वाले मूल्य (वीएआर) की भूमिका का पता करता है जो आस्ति पोर्टफोलियो की बाजार जोखिम के मापन के लिए व्यापक रूप से प्रयुक्त उपकरण है। बैंक जो बासेल समझौते का ‘आंतरिक प्रतिदर्श दृष्टिकोण’(आइएमए) अपनाते हैं उन्हें स्वयं के वीएआर प्रतिदर्श के माध्यम से बाजार जोखिम की मात्रा तय करनी होती है। उन्हें नियंत्रक द्वारा यथानिर्धारित मात्रात्मक जोखिम के लिए न्यूनतम पूँजी बनाए रखने की जरूरत होती है। अत: बैंकों और जोखिम प्रबंधकों के बीच एक चुनौतीभरा कार्य संभावित विकल्पों के एक व्यापक और विविधतापूर्ण सेट से समुचित जोखिम प्रतिदर्श का चयन करना रहा है। व्यवहार में किसी पोर्टफोलियो के लिए जोखिम प्रतिदर्श का चयन का निर्णय अनुभवजन्य होता है। यह पेपर भारत में सरकारी प्रतिभूति बाजार के लिए एक उपयुक्त वीएआर प्रतिदर्श चयन करने का अनुभवजन्य प्रयत्न करता है। अनुभवजन्य परिणाम यह दर्शाते हैं कि इन बॉण्डों पर प्रतिलाभ एक सामान्य वितरण का पालन नहीं करते हैं-वितरण में भारी अवरोध होता है और कभी-कभी इससे बचा जाता है। प्रतिलाभ वितरणों की देखी गई गैर-सामान्यता विशेषत: भारी अवरोध वीएआर के आकलन में भारी कठिनाई उत्पन्न करते हैं। यह पेपर चयनित बॉण्डों की सहायता से ऐसे कार्य में शामिल उपायों को दर्शाने में अधिक ध्यान देता है। यह पेपर चयनित सरकारी बॉण्डों के लिए वीएआर के आकलन हेतु कई प्रतिस्पर्धी प्रतिदर्शों/पद्धतियों का मूल्यांकन करता है। यह पेपर ऐतिहासिक अनुकरणों, जोखिम मापन प्रणाली, अतिश्योक्तिपूर्ण वितरण योग्यता, संलग्न-सूचकांक पर आधारित पद्धति जैसे कई गैर-सामान्य वीएआर प्रतिदर्शों का उपयोग करते हुए वीएआर का आकलन करते समय उपयुक्त ढंग से प्रतिलाभों की गैर-सामान्यता के समाधान का प्रयत्न भी करता है। सुनील कुमार द्वारा तैयार किया गया ‘भारत में वास्तविक विनिमय दर के नियामक:एक एआरडीएल दृष्टिकोण’ शीर्षक पेपर भारत में वास्तविक विनिमय दर के नियामकों की पहचान करने का प्रयत्न करता है। वास्तविक विनिमय दर के संभावित नियामकों पर एक सैद्धांतिक पृष्ठभूमि उपलब्ध कराने के अलावा यह पेपर स्वत:प्रतिगामी वितरित अंतराल(एआरडीएल)प्रतिदर्शी दृष्टिकोण का उपयोग करते हुए उनके सांख्यिकीय महत्व की जाँच करता है। इसका निष्कर्ष है कि वास्तविक विनिमय दर (आरइआर), उत्पादकता विभेदक, बाह्य खुलापन, कारोबार की शर्तें और निवल विदेशी आस्तियों के नियामक के रूप में सैद्धांतिक तर्कों पर आधारित प्राथमिकता के रूप में चयनित ज्ञात चर वस्तुएँ संतोषप्रद ढंग से उल्लेखनीय बन जाती हैं। अल्पावधि गतिशील प्रभाव के चिहन दीर्घावधि नियामकों के अनुरूप पाए गए हैं तथा दीर्घावधि समतुल्यन मार्ग पर संकेंद्रित करते हुए भूल सुधार की अवधि नकारात्मक और सांख्यिकीय रूप से उल्लेखनीय है। चूँकि समायोजित वास्तविक विनिमय दर वास्तविक विनिमय दर द्वारा प्रदर्शित वास्तविक व्यवहार के अधिक नजदीक है, अत: कतिपय अंतरालों में पहचान की गई चर वस्तुएँ वास्तविक विनिमय दर व्यवहार के अग्रणी संकेतकों के रूप में काम करती हैं। परिणामों के आधार पर यह पता किया जा सकता है कि वास्तविक विनिमय दर में मूल्यांकन को कारोबारी क्षेत्र की अंतर्राष्ट्रीय प्रतिस्पर्धा में सर्वदा गिरावट के रूप में नहीं देखा जाए क्योंकि वास्तविक विनिमय दर मूल्यांकन में सहयोग करनेवाला एक कारक प्रतिस्पर्धा में उन्नयन को दर्शानेवाली उच्चतर वृद्धि के लिए उत्तरदायी है। विशेष टिप्पणी भाग में ‘ओवरनाइट सूचकांक स्वैप (ओआइएस) दरों के नियामक:एक उभरती हुई बाजार अर्थव्यवस्था, भारत से कुछ अनुभवजन्य निष्कर्ष’ शीर्षक पेपर सौरभ घोष और अमरेद्र आचार्य द्वारा तैयार किया गया है। यह भारत में ‘ओवरनाइट सूचकांक स्वैप (ओआइएस) दरों के नियामकों का विश्लेषण करने के लिए पिछले दो वर्षों के दौरान की वित्तीय क्षेत्र चर वस्तुओं का उपयोग करता है। पेपर का निष्कर्ष है कि अल्पावधि में विचारित वित्तीय चर वस्तुओं के बीच सरकारी प्रतिभूति दर और मॉंग दर का ओआइएस दर के साथ सकारात्मक और उल्लेखनीय संबंध है जबकि मुद्रास्फीति दर ओआइएस दर के अनुरूप संबंधित नहीं है। अन्य कारक जो उल्लेखनीय रूप से ओआइएस दर गतिशीलता को उल्लेखनीय ढंग से उत्पन्न करते हैं वे भारतीय मुद्रा बाजार में माँग और रिपो दर के बीच अंतर द्वारा मापे गए चलनिधि हालात हैं। ये कारक वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान भी और उसके बाद महत्वपूर्ण बने रहे हैं। आघात प्रतिक्रिया कार्यों ने संकेत दिया कि बाजार आघातों के प्रति लचीला था। ओआइएस, सरकारी प्रतिभूति और माँग दरों के बीच दीर्घावधि समतुल्य संबंध की संपुष्टि कम-से-कम एक सह-समेकित मात्रा द्वारा की गई। आकलित सह-समेकन में सरकारी प्रतिभूति का नियामक सकारात्मक और महत्वपूर्ण पाया गया। तथापि, माँग दर का नियामक नकारात्मक और निम्नतर पाया गया। इससे यह संकेत प्राप्त हो सकता है कि आज एक उच्चतर (निम्नतर) माँग दर की आशा ओआइएस द्वारा यथा उल्लिखित दीर्घावधि बाजार प्रत्याशाओं को संकेंद्रित करने के लिए की गई थी। भूल सुधार अवधि यद्यपि नकारात्मक थी, पारंपरिक स्तरों पर संख्यिकीय दृष्टि से उल्लेखनीय नहीं पाई गई। ऐसा ओआइएस बाजार में निम्नतर मात्रा के कारण हुआ होगा। विशेष टिप्पणी भाग में ब्रिजेश पजयाथोड़ी द्वारा तैयार किया गया ‘भारत से अंतर्राष्ट्रीय आउटसोर्सिंग: एक अध्ययन’ शीर्षक पेपर भारत से अंतर्राष्ट्रीय आउटसोर्सिंग के अंत:संबंध का मूल्यांकन करता है। पेपर का निष्कर्ष है कि भारत को आइटीइएस-बीपीओ सेवाओं के निर्यात में प्रत्यक्ष तुलनात्मक लाभ हुआ है। यह इस क्षेत्र में भारत के तुलनात्मक लाभ के स्रोत का भी पता करता है। लेखक कहते हैं कि सेवाओं की विश्व व्यापार में तेज वृद्धि भारत को विश्व कारोबार में अपना हिस्सा बढ़ाने में एक अच्छा अवसर उपलब्ध कराएगी। तथापि, सूचना प्रौद्योगिकी मूलभूत सुविधा तथा सामान्य कारोबारी वातावरण ऐसे दो क्षेत्र हैं जहाँ आउटसोर्सिंग घेरे में अन्य प्रतिस्पर्धी देशों से भारत स्पष्ट रूप से पीछे है। दूसरा महत्वपूर्ण निष्कर्ष यह है कि भारत और अन्य विकासशील देशों में आउटसोर्सिंग क्षेत्र पर मीडिया का अत्यधिक ध्यान होने के बावजूद सेवा कारोबार में अधिकतम आधिक्य वस्तुत:विकसित देशों द्वारा उत्पन्न किया जाता है। सूचना प्रौद्योगिकी संबंधित सेवाओं के विविध प्रकार के लिए एक स्रोत देश के रूप में यद्यपि भारत अपनी अग्रणी स्थिति बनाए हुए है, पश्चिमी देशों में प्रतिकूल-आउटसोर्सिंग विधायीकरण और प्रतिरक्षण, प्रतिस्पर्धी देशों की संख्या में वृद्धि आदि जैसी कई उभरती हुई चुनौतियाँ हैं। पेपर अग्रणी स्थिति बनाए रखने और नए बाजारों तथा क्षेत्रों पर कब्जा करने की चेतावनी देता है जिसके लिए भारतीय सेवा उद्योगों को सतर्क रहना होगा। अजीत प्रसाद प्रेस प्रकाशनी : 2010-2011/248 |