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भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामायिक पेपर का शीतकालीन 2007 अंक जारी किया

05 फरवरी, 2009

भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामायिक पेपर का
शीतकालीन 2007 अंक जारी किया

 

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने भारतीय रिज़र्व बैंक सामायिक पेपर का शीतकालीन 2007 अंक जारी किया जो रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है तथा बैंक के स्टाफ के योगदान को शामिल करता है तथा इसके लेखकों के विचारों को दर्शाता है। यह अंक कुछ महत्वपूर्ण विषयों के अनुसार तैयार किया गया है जो नीति चर्चा के प्रमुख विषय रहे हैं। इसमें आलेख, विशेष नोट और पुस्तक समीक्षाएं शामिल हैं।

  
श्री भूपाल सिंह द्वारा तैयार किया गया ‘समुद्रपारीय उधार के लिए कंपनी विकल्पःभारतीय अनुभव’ शीर्षक पहला पत्र उन समष्टिआर्थिक कारकें की जाँच करता है जो समुद्रपारीय उधारों के लिए भारतीय कंपनियों की अधिमानता को संचालित करता है। पेपर ने यह टिप्पणी की है कि विदेशी वाणिज्यिक उधारों पर नीति ढाँचा एक संतुलित परिपक्वता प्रोफाईल को प्राप्त करने तथा उत्पादक क्षेत्रों को निधियों का माध्यम उपलब्ध कराने में प्रभावी रहा है। यह देखा गया है कि कंपनियों द्वारा विदेशी उधार और पूंजीगत माल के आयात एक नज़दीकी सकारात्मक संबंध दर्शाते हैं। पेपर का यह निष्कर्ष है कि समुद्रपारीय वाणिज्यिक उधारों के लिए कंपनियों की दीर्घावधि मांग व्यापक रुप से घरेलू वास्तविक गतिविधि की गति द्वारा प्रभावित होती है जिसके बाद घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों (अधिनिर्णय सहित ) के बीच ब्याज दर विभेदक और ऋण स्थितियाँ प्रभावित करती हैं। वास्तविक चर - वस्तुं समुद्रपारीय वाणिज्यिक उधारों के लिए मांग को संचालित करने में मूल्य परिवर्तन को प्रभावित करती है। जबकि पूंजीगत माल का आयात औद्योगिक उत्पादन में वृध्दि से नजदीकी संबंध रखता है, इसमें कंपनियों द्वारा विदेशी उधारों के लिए मांग वास्तविक गतिविधि में निहित गति द्वारा उत्पन्न होती है।

  
डॉ. शरद कुमार और श्री एम.श्रीरामुलु द्वारा प्रस्तुत ‘ कर्मचारी उत्पादकता और लागत - वर्ष 1997 से वर्ष 2006 के दौरान भारत में बैंकों का तुलनात्मक अध्ययन ’ शीर्षक दूसरा पत्र वर्ष 1997 से वर्ष 2006 तक पारंपरिक बैंकों और आधुनिक बैंकों के बीच कर्मचारी उत्पादकता और कर्मचारी लागत अनुपात की तुलना करता है। अध्ययन यह निष्कर्ष देता है कि, आधुनिक बैंकों (विदेशी और निजी क्षेत्र के नये बैंकों) का कार्यनिष्पादन पारंपरिक बैंर्कें (सार्वजनिक क्षेत्र तथा निजी क्षेत्र के पुराने बैंकों) से उच्चतर था । तथापि, आधुनिक और पारंपारिक बैंकों के कार्य निष्पादन के बीच अंतर ने अध्ययन के दौरान 10 वर्षों की अवधि में घटती हुई प्रवृत्ति दर्शायी है जिसमें परिचालनात्मक दक्षता में सुधार के लिए आधुनिक बैंकों से चुनौतियों का सामना करने हेतु पारंपरिक बैंकों द्वारा किये गए उपाय भी दर्शाए गये हैं।


विशेष नोट के खंड में श्री अभिमान दास और मंजूषा सेनापति द्वारा प्रस्तुत ‘भारतीय कंपनी क्षेत्र की लाभप्रदता : उत्पादकता, मूल्य अथवा वृध्दि ?’ शीर्षक पेपर हाल के वर्षों में भारतीय विनिर्माण कंपनियों की मजबूत लाभप्रदता के प्रमुख ॉााटतों की जांच करता है। इस पेपर ने कंपनियों के पूंजी में वास्तविक सकल प्रतिलाभ में परिवर्तनों को वर्ष 2000 - 2006 से सात वर्षों की अवधि के दौरान उत्पादकता, मूल्य और इनपुट वृध्दि मे परिवर्तनों के योगदान में संम्मिलित किया है। भारतीय विनिर्माण कंपनियों की उत्पादकता वर्ष 2000 की तुलना में वर्ष 2006 में 24 प्रतिशत अधिक पायी गयी है। कंपनियों के लाभ में वास्तविक वृध्दि एक औसत आधार पर इनपुट की आकार में वृध्दि से भी अधिक हो गई है। यदि इनपुट गुणवत्ता और वास्तविक उत्पादन तथा इनपुट कीमतों में कोई परिवर्तन किए बिना उत्पादकता वृध्दि से लाभ कंपनियों द्वारा धारण किया गया होता तो कंपनियों का लाभ प्रतिवर्ष 6.8 प्रतिशत से अधिक बढ़ गया होता। अनुभवजन्य परिणाम आगे यह संकेत देते हैं कि कंपनियों ने उत्पादकता सुधार से लाभ को उपभोक्ताओं में अंतरित नहीं किया है।


डॉ. हिमांशु जोशी द्वारा प्रस्तुत ‘भारत में पूंजी निर्माण में घरेलू बचत और विदेशी पूंजी प्रवाहों की भूमिका’ शीर्षक पेपर पूंजी निर्माण में भुगतान संतुलन (बीओपी) के पूंजी खाते की भूमिका की जांच करता है। घरेलू बचत ओर पूंजी खाते के विभिन्न संघटकों पर विचार करते हुए यह पेपर पूंजी निर्माण और विभिन्न बचत संघटको तथा पूंजी खाता शेष के बीच एक दीर्घावधि तीव्र स्थितिवाले संबंध के अस्तित्व को स्थापित करता है। पेपर का एक उल्लेखनीय परिणाम यह है कि पूंजी निर्माण की अल्पावधि गतिविधि उल्लेखनीय रुप से पूंजी खाते द्वारा इस प्रकार निर्देशित होती है कि भुगतान संतुलन में पूंजी प्रवाहों में वांछित राशि में परिवर्तनों के माध्यम से कुछ समय के बाद तीव्र स्थिति वाले संतुलन में अवरोध ठीक हो जाते हैं। इस प्रकार यह पेपर बाह्य पूंजी बाध्यताओं को कम करने के लिए एक समेकित दृष्टिकोण की मांग करता है जो उत्पादक गतिविधियों के लिए पूंजी अधिग्रहण चक्र को सहज बनाने और उस पर समेकित ध्यान देने में योगदान करेगा और पूंजी निर्माण तथा आर्थिक वृध्दि के उच्चतर स्तरों को प्राप्त करने में सहायता करेगा।

 
 
अल्पना किल्लावाला
मुख्य महाप्रबंधक
प्रेस प्रकाशनी : 2008-2009/1241 

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