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भारतीय रिज़र्व बैंक वर्किंग पेपर श्रृंखला सं. 6: कॅपिटल स्‍ट्रक्‍चर, ओनरशिप एण्‍ड क्राइसेस: हाउ डिफरेंट आर बैंक्‍स ?

18 दिसंबर 2015

भारतीय रिज़र्व बैंक वर्किंग पेपर श्रृंखला सं. 6: कॅपिटल स्‍ट्रक्‍चर, ओनरशिप एण्‍ड क्राइसेस:
हाउ डिफरेंट आर बैंक्‍स ?

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपनी वेबसाइट पर भारतीय रिज़र्व बैंक वर्किंग पेपर श्रृंखला* के अंतर्गत भारतीय रिज़र्व बैंक वर्किंग पेपर श्रृंखला सं. 6: कॅपिटल स्‍ट्रक्‍चर, ओनरशिप एण्‍ड क्राइसेस: हाउ डिफरेंट आर बैंक्‍स ? शीर्षक से एक वर्किंग पेपर उपलब्ध कराया है। यह पेपर डा. सैबल घोष और डा. गौतम चटर्जी द्वारा लिखा गया है।

1980 के अंत में बासल समिति द्वारा पूंजी मानकों की शुरूआत के साथ, इस तरह के मानदंड, सामान्‍यत: देश विशेष के संबंध में उपयुक्त विशिष्‍ट सुधारों के साथ सार्वभौमिक रूप से अपनाए जा रहे है। एक दृष्टिकोण के अनुसार, विनियामक मानक न्यूनतम स्तर से ऊपर कुछ कुशन के साथ बैंकों का पूंजी अनुपात निर्धारित करते हैं । वैकल्पिक रूप से, बैंकिंग फर्म सिद्धांत के अनुसरण में, बैंकों को गैर वित्तीय फर्मों के समान अपनी पूंजी संरचना फैसलों में प्रेरक योजनाओं द्वारा गाईड किया जा सकता है।

इस संदर्भ में, 1992-2012 तक की अवधि के लिए भारतीय बैंकों के लिए पूंजी संरचना के निर्धारकों का विश्लेषण करके यह पेपर साहित्य में योगदान देता है।

इस पेपर के प्रमुख निष्कर्ष संक्षेप में निम्‍ननुसार है :

  • बैंक पूंजी को प्रभावित करनेवाले सबसे अधिक प्रासंगिक कारक हैं लाभप्रदता, विकास के अवसर और जोखिम। इन सभी वेरिएबल्‍स का लिवरेज के साथ विपरीत रिश्‍ता रहता है। इन परिणामों की तुलना गैर वित्तीय फर्मों के एक तुलनीय नमूने के साथ की जाने पर संकेत मिलता है कि भारतीय बैंकों की पूंजी संरचना मोटे तौर पर कंपनी वित्त परिदृश्‍य का अनुपालन करती है।

  • बुक और बाजार लिवरेज निर्धारकों के बीच कोई महत्वपूर्ण अंतर प्रतीत नहीं होता है। इस परिणाम से इस समझ का खंडन होता है कि बैंकों की पूंजी संरचना विशुद्ध रूप से विनियामक आवश्यकताओं की प्रतिक्रिया मात्र है।

  • तीसरी बात यह कि निजी बैंकों की तुलना में राज्य के स्वामित्व वाली बैंक (एसओबी ) अधिक लिवरेज के साथ संचालित की जा रही है। हालांकि मात्रात्मक प्रभाव कम है।

  • चौथी बात यह कि वित्‍तीय संकट ने बैंक पूंजी को सुस्‍पष्‍ट रूप से प्रभावित किया है। वित्‍तीय संकट के दौरान अनिवार्य रूप से जोखिम वाले बैंक डिलिवरेज हुए। इसी तरह से वित्‍तीय संकट के दौरान बड़े बैंकों के डिलिवरेज होने के सबूत पाए गए ।

  • बैंक देनदारियों की संरचना के संबंध में सबूत इंगित करता है कि बैंक निधियन संरचना में जमाओं की भूमिका कम कर रहे है। इस प्रकार की घटना विशेष रूप से उच्च विकास के अवसरों वाले बड़े बैंकों के विषय में स्पष्ट रूप से देखी गई ।

  • बैंकों की पूंजी व्यवहार को प्रभावित करने में विनियामक निदेश एक महत्वपूर्ण पहलु प्रतीत होता है। विशेष रूप से, निष्कर्ष से संकेत मिलता है कि नियामक दबाव शुरू में लाभ उठाने में वृद्धि के साथ जुड़ा हुआ है क्‍योंकि बैंक आक्रामक तरीके से बाजार में हिस्सेदारी को पूर्ण कर लेते हैं, किंतु एक बार शुरूआती सीमा को पार कर लेने पर बैंक विनियामक मानकों को पूरा करने के लिए इक्विटी बढ़ाने के लिए मजबूर हो जाते है।

*रिज़र्व बैंक ने आरबीआई वर्किंग पेपर श्रृंखला की शुरुआत मार्च 2011 में की थी। ये पेपर रिज़र्व बैंक के स्टाफ सदस्यों की प्रगति में अनुसंधान प्रस्तुत करते हैं और अभिमत प्राप्त करने और चर्चा के लिए इन्हें प्रसारित किया जाता है। इन पेपरों में व्यक्त विचार लेखकों के होते हैं, भारतीय रिज़र्व बैंक के नहीं होते हैं। अभिमत और टिप्पणियां कृपया लेखकों को भेजी जाएं। इन पेपरों के उद्धरण और उपयोग में इनके अनंतिम स्‍वरूप का ध्यान रखा जाए।

संगीता दास
निदेशक

प्रेस प्रकाशनी: 2015-2016/1438

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