भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का मॉनसून 2008 अंक जारी किया - आरबीआई - Reserve Bank of India
भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का मॉनसून 2008 अंक जारी किया
3 अगस्त 2009 भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का मॉनसून 2008 अंक जारी किया भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर का मॉनसून 2008 अंक जारी किया। यह रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है और इसमें बैंक के स्टाफ का योगदान है तथा यह इसके लेखकों के विचारों को दर्शाता है। इसे कुछ महत्त्वपूर्ण विषयों के अनुसार तैयार किया गया है जो नीति चर्चा के प्रमुख विषय रहे हैं। इसमें आलेख, विशेष नोट और पुस्तक समीक्षाएं शामिल है। राजीव रंजन, सरत ढाल और भूपाल सिंह द्वारा तैयार किया गया "भारत में विनिमय दर का व्यष्टि ढाँचा दृष्टिकोण : तकनीकी व्यापार से साक्ष्य" नामक पहला पेपर भारत में विनिमय दर की अल्प गति को समझाने में बाज़ार व्यष्टि ढाँचे की भूमिका को दर्शाता है। अंतर-दिवस उच्च, निम्न और बंद होने के समय विनिमय दरों की एक दूसरे पर निर्भरता से संबंधित बाज़ार व्यष्टि ढाँचा की जाँच वेक्टर गलती सुधार और समेकन नमूने (वीइसीएम) के साथ पैरामैट्रीक तकनीकी व्यापार रणनीति की रूपरेखा के भीतर की जाती है। पेपर में यह दर्शाया गया है कि विनिमय दर के ये बाज़ार व्यष्टि ढाँचे के बीच, संबंध विदेशी विनिमय बाज़ार में माँग और आपूर्ति परिस्थितियों से संबंधित है। बंद होने के समय का विनिमय दर लगभग उच्च और निम्न विनिमय दरों के साथ संतुलित प्रतिक्रिया दर्शाते है। बाज़ार सहभागी शायद लंबी अवधि के बोली अंतर से बंधे होते है। चलनिधि, विदेशी ब्याज दर और स्टॉक लाभ से संबंधित जैसे समष्टि आर्थिक कारकों का दैनिक उच्च, निम्न और बंद होने के समय के विनिमय दर पर भिन्न-भिन्न प्रभाव हो सकता है। नीति के परिप्रेक्ष्य में इन निष्कर्षों में विनिमय दर प्रबंधन के लिए उपयोगी जानकारी हो सकती है। जीवन के.खुंद्राकपम द्वारा प्रस्तुत ‘भारतीय मुद्रास्फीतिकारी प्रक्रिया कितनी दृढ़ है, क्या उसमें कोई परिवर्तन हुआ है?’ नामक दूसरे पेपर में स्वत: अधोगामी विशेषताओं तथा 1982:4 से 2008:3 की अवधि के लिए सुचारू मौद्रिक नीति का मुद्रास्फीति पर प्रतिक्रिया का अभाव के अंतर्गत भारत में मुद्रास्फीति बनी रहने के स्वरूप का विश्लेषण किया गया है। विभिन्न वैकल्पिक मुद्रास्फीति उपायों की स्वत: अधोगामी विशेषताओं पर आधारित यह पेपर में यह निष्कर्ष किया है कि मुद्रास्फीति का बने रहना निम्नतर स्तर पर है। खासकर, नब्बे के दशक के दूसरे हिस्से के आस-पास देखे गए मुद्रास्फीति के औसत में विभाजन की अनुमति दी जाती है। थोक मूल्य सूचकांक के घटकों में ‘विनिर्माण’ मुद्रास्फीति सबसे अधिक दृढ़ता से बनी हुई है जबकि ‘खाद्य" और ‘ईंधन’ कम स्तर की दृढ़ता पर बने हुए है। सामान्य रूप से भी मुद्रास्फीति दृढ़ता से मुद्रास्फीति के औसत दर को घटाने से कमी आयी हालांकि नमूना अवधि के बाद की अवधि में कुछ वृद्धि दिखाई दी। पेपर में यह दर्शाया गया है कि मुद्रास्फीति के विभिन्न उपायों पर मुद्रा आपूर्ति का प्रभाव सकारात्मक है और पूववर्ती निम्नतर मुद्रास्फीतिकारी वातावरण के दौरान से नब्बे के दशक के मध्य से पहले उच्चतर मुद्रास्फीतिकारी अवधि के दौरान काफी अधिक समय के अंतर के साथ अपना अधिकतम प्रभाव रहा था। दूसरी ओर ब्याज दर का सभी मुद्रास्फीति श्रृंखला पर नकारात्मक प्रभाव होता है और सामान्यत: मुद्रा आपूर्ति में परिवर्तन की तुलना में काफी अधिक अंतर के साथ मुद्रास्फीति पर अपना अत्यधिक प्रभाव होता है। विशेष टिप्पणी खण्ड के अंतर्गत जनक राज और सरत डाल द्वारा प्रस्तुत "भारत में मुद्रास्फीति दर : कुछ लागू विषय" नामक पेपर मौद्रिक समग्र, आउट-पुट, ब्याज दर और इक्विटी मूल्यों के बीच संबंध को देखते हुए भारतीय संदर्भ में माह-प्रति-माह और वर्ष-दर-वर्ष थोक मूल्य सूचकांक मूल्य मुद्रास्फीति दर से संबंधित चक्रीय मामलों पर आधारित है। पेपर में यह पाया गया है कि जबकि दो मुद्रास्फीति दरों का नमूना औसत सांख्यिकी रूप से एक दूसरे से भिन्न नहीं हो सकता हैं इसकी घट-बढ़ उल्लेखनीय रूप से भिन्न हो सकती है और वार्षिक मुद्रास्फीति दर का बना रहना मासिक मुद्रास्फीति दर से अधिक हो सकता है। पेपर में यह भी पाया गया है कि वार्षिक मुद्रास्फीति दर मुद्रास्फीति प्रत्याशा और उसकी दृढ़ता को मापने के लिए नमूनों में बेहतर निर्धारित होती है तथा उसका मासिक मुद्रास्फीति दर की तुलना में मौद्रिक समग्र और औद्योगिक उत्पादन के साथ मज़बूत संबंध होता है। अत: पेपर यह सुझाव देता है कि नीति विश्लेषण के लिए मासिक मुद्रास्फीति दर की तुलना में मानक वर्ष-दर-वर्ष मुद्रास्फीति दर अधिक उपयोगी हो सकती है। अनुपम प्रकाश द्वारा प्रस्तुत "बैंक पूँजी विनियमन पर बासल ढाँचे का विकास" नामक इस खण्ड का दूसरा पेपर बैंक पूँजी के विनियमन के विषय से संबंधित है। हाल ही के वैश्विक वित्तीय संकट के चलते बैंक पूँजी विनियमन में चुनौतियों को पिछले दो दशक के दौरान बैंकिंग पर्यवेक्षण पर बासल समिति (बीसीबीएस) द्वारा इस क्षेत्र में प्रमुख प्रयासों की पृष्ठभूमि में प्रस्तुत किया गया है। कतिपय देश विशिष्ट अनुकूलता के साथ विभिन्न देशों द्वारा अपनाया गया बासल I ने अपने आप को बैंकिंग प्रणाली की सुदृढ़ता और स्थिरता के मूल्यांकन के मूल के रूप में स्थापित किया है। तथापि, बासल I ढाँचे की विसंगतियों को ध्यान में रखते हुए संशोधित ढाँचा (बासल II) का विकास बेहतर जोखिम मापन तकनीक के माध्यम से आने वाले जोखिम के लिए पूँजी आवश्यकताओं को शामिल करते हुए किया गया। बासल II को ढाँचे के भीतर कठिनाइयाँ होने के कारण मिश्रित प्रतिक्रिया प्राप्त हुई। वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान हाल ही के अनुभवों के कारण बासल II को संशोधित करने और सुगम बनाने की आवश्यकता को ध्यान में लिए बिना कई विशेषज्ञों ने बासल II के त्वरित लागू करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया। हाल ही में इस मामले की पुन: जाँच की जा रही है जिसमें अन्य बातों के साथ-साथ लेन-देन बही और तुलन-पत्र से इतर निवेशों पर जोखिम की पहचान को मज़बूत बनाना, चक्रियता को कम करना, बैंकों में चलनिधि के आकलन के लिए मज़बूत रूपरेखा तैयार करना और वैश्विक रूप से समेकित पर्यवेक्षी अनुपालन कार्य शामिल किया गया है। हाल के समय में वित्तीय स्थिरता द्वारा प्रमुखता प्राप्त करने से इन उपायों को भविष्य के संकट से बचने के लिए अपनी योग्यता का मूल्यांकन करने की आवश्यकता है। अत: पूँजी विनियमन पर बासल ढाँचे का वित्तीय नवोन्मेष और बैंकिंग विनियमन और पर्यवेक्षण में उभर रही अन्य चुनौतियों की प्रतिक्रिया में विकसित होना जारी है। जे.डी.देसाई प्रेस प्रकाशनी : 2009-2010/187 |