भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2009 अंक जारी किया - आरबीआई - Reserve Bank of India
भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2009 अंक जारी किया
1 फरवरी 2010 भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर का ग्रीष्मकालीन 2009 अंक जारी किया। यह रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है तथा बैंक के स्टाफ के योगदान को शामिल करती है तथा इसके लेखकों के विचारों को दर्शाती है। इसमें आलेख, विशेष टिप्पणियाँ तथा बॉण्डों के ब्याज दर जोखिमों का आकलन, अंतर-क्षेत्रीय सहबद्धता, गृह मूल्य सूचकांक और ईक्विटी बाज़ार से सीख जैसे मामलों पर पुस्तक समीक्षाएँ शामिल रहती हैं जो नीति मामलों के महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं। श्री ए.के.श्रीमणी और स्नेहार्थी गायन द्वारा तैयार किया गया "बॉण्डों के ब्याज दर जोखिमों के बेहतर आकलन की खोज में : कोन्वेक्सीटी समायोजित घातांकी अवधि पद्धति" शीर्षांकित पहला पेपर में बॉण्डों के ब्याज दर जोखिम के आकलन के लिए आशोधित अवधि और उन्नतोदर का प्रयोग करते हुए नई पद्धति का प्रस्ताव किया है जिसे "घातांकी अवधी" पद्धति से अवधारणा के आधार पर बेहतर माना जा सकता है। इस पेपर ने विश्लेषणात्मक और प्रायोगिक रूप से यह सिद्ध किया है कि यह नई पद्धति आशोधित अवधि पर आधारित पारंपरिक पद्धति से कई गुना बेहतर है और कम-से-कम प्रमुख अर्थव्यवस्थाओं की बॉण्डों को शामिल करने वाले अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार के लिए "घातांकी अवधि" पद्धति भी कई गुना बेहतर है। तथापि, एक स्वाभाविक प्रश्न यह होगा कि इस प्रस्तावित पद्धति अर्थात् आशोधित अवधि और उन्नोदर पर आधारित पारंपरिक पद्धति का कार्यनिष्पादन कैसा होगा। नमूना मामलों पर आधारित संकेत यक दर्शाते है कि इस प्रस्तावित पद्धति का कार्यनिष्पादन उपर्युक्त अन्य सभी पद्धतियों से बेहतर होगा। गुंजीत कौर, संजीव बार्डोलाइ और राज राजेश द्वारा तैयार किया गया "भारत में अंतर-क्षेत्रीय सहबद्धता की एक अनुभवमूलक जाँच" शीर्षांकित इस खण्ड के दूसरे पेपर में दोनों आइ-ओ दृष्टिकोण और सह-समेकन का प्रयोग करके तथा राज्य में उपलब्ध जगह नमूना का प्रयोग करते हुए भारतीय अर्थव्यवस्था में अंतर-क्षेत्रीय सहबद्धता की जाँच और विश्लेषण करने का प्रयास किया गया है। व्यापक क्षेत्रीय स्तर पर प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीयक (सामुदायिक, सामाजिक और व्यक्तिगत सेवाओं को छोड़कर) क्षेत्र प्रत्येक के बीच में मज़बूत दीर्घावधि संतुलित संबंध दर्शाते है। ये क्षेत्र दो विभिन्न ढाँचे में एक दूसरे के साथ मज़बूत दीर्घावधि संतुलित संबंधों को दर्शाते है। उप-क्षेत्रीय स्तर पर ‘व्यापार, हॉटेल, परिवहन और संचार’ तथा ‘विनिर्माण’ क्षेत्रों के बीच दीर्घावधि का संतुलन देखा गया। वे क्षेत्र जो दीर्घावधि संतुलन संबंधो को दर्शाते है का कलमन फिल्टर का प्रयोग करते हुए राज्य में उपलब्ध जगह नमूने के माध्यम से पुन: आकलन किया गया। इसने इस बात का भी समर्थन किया कि एक क्षेत्र में हुई घट-बढ़ ने कुछ समय बाद दूसरे क्षेत्र के कार्यनिष्पादन को भी प्रभावित किया है। मौजूदा क्षेत्रीय अंतर-संबंधों को ध्यान में रखते हुए इस पेपर ने नीति विकल्पों की जाँच की है ताकि क्षेत्रों के बीच उभर रहे सकारात्मक विकास को प्रोत्साहित किया जा सके। विशेष टिप्पणियों के एक खण्ड के अंतर्गत अभिमान दास, मंजूषा सेनापति और जॉइस जॉन द्वारा ‘भारत में भूसंपदा कीमतों के लिए सुखद गुणवत्ता समायोजन’ नामक एक पेपर यह तर्क देता है कि गुणवत्ता समायोजन के लिए सुखद मूल्य सूचकांक व्यापक रूप से स्वीकृत प्रणाली है। यह पेपर दो विभिन्न सुखद पद्धतियों उदाहरणार्थ समय प्रदर्शक (टाइम डमी) पद्धति और विशिष्ट मूल्य सूचकांक पद्धति द्वारा जनवरी 2004 से नवंबर 2007 की अवधि के लिए मुंबई में आवासीय संपत्तियों के किराए और बिक्री/पुनर्विक्रय कीमतों पर सर्वेक्षण आँकड़ों का प्रयोग करते हुए सुखद मूल्य सूचकांक की रचना करने का प्रयास करता है। परिणाम यह बताते हैं कि गुणवत्ता समायोजन का प्रभाव व्यापक है तथा सुखद आवास कीमत संकेतक पारंपरिक मध्यवर्ती भारित औसत मूल्य संकेतकों की अपेक्षा बहुत कम हैं। सुखद मूल्य संकेतक विचाराधीन अवधि के लिए अन्य संकेतकों की तुलना में कम है। अर्थात् मूल्य वृद्धि को एक बार रोक देने से गुणवत्ता योगदान का प्रभाव नियंत्रित हो जाता है। इससे यह संकेत मिलता है कि आवासीय क्षेत्र की मूल्य गतिविधियों का आकलन करने के लिए गुणवत्ता योगदान के प्रभाव पर अवश्य विचार किया जाए। इस खण्ड में आर. के. जैन और इंद्राणी मन्ना द्वारा ‘वैश्विक निजी ईक्विटी बाज़ार का विकास : भारत के लिए सबक, प्रभाव और संभावनाएं’ शीर्षक दूसरा पेपर यह तर्क देता है कि उद्यम पूँजी और निजी ईक्विटी उद्योग कंपनी क्षेत्र के लिए पूँजी के संभावित ॉााटत के रूप में उभरे हैं। यह अप्रयुक्त क्षमता वाली कंपनियों की पहचान करने तथा उनके परिचालन को उनके मूल्य बढ़ाने के तरीके के साथ संगठित करने के द्वारा प्राय: विद्यमान आस्तियों और संसाधनों के उत्पादक उपयोग को सुविधा प्रदान करता रहा है। वित्तीय क्षेत्र में उनकी बढ़ी हुई क्षमता को देखते हुए हाल में उनके विनियमन के बारे में चिंता प्रकट की गई है। यह पेपर विश्व में निजी ईक्विटी बाज़ार के विकास का मूल्यांकन करता है और भारत के लिए इसकी संभावनाओं और जटिलताओं का विश्लेषण करता है। अजीत प्रसाद |