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भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का शीतकालीन 2008 अंक जारी किया

03 अगस्त, 2009

भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने सामयिक पेपर का
शीतकालीन 2008 अंक जारी किया

भारतीय रिज़र्व बैंक ने आज अपने भारतीय रिज़र्व बैंक सामयिक पेपर का शीतकालीन 2008 अंक जारी किया। यह रिज़र्व बैंक की एक अनुसंधान पत्रिका है तथा बैंक के स्टाफ के योगदान को शामिल करती है तथा इसके लेखकों के विचारों को दर्शाती है। इसमें आलेख, विशेष टिप्पणियाँ तथा स्थिरीकरण के लिए सरकारी घाटे की प्रासंगिकता, वित्तीय समावेशन के लिए बैंकिंग का प्रसार, आयातित मुद्रास्फीति और इसके प्रभाव तथा सरकारी प्रतिभूतियों की नीलामी में दक्षता जैसे मामलों पर पुस्तक समीक्षाएँ शामिल रहती हैं जो नीति मामलों के महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं।

श्री जीवन के. खुद्राक्पम और राजन गोयल द्वारा तैयार किया गया ‘क्या भारत में सरकारी घाटा अभी भी प्रासंगिक है?’ शीर्षक पहला पेपर सरकारी घाटा और मुद्रा और बाद में सह-समेकन विश्लेषण के लिए एआरडीएल दृष्टिकोण का प्रयोग करते हुए वर्ष 1951-52 से वर्ष 2006-07 की अवधि के लिए भारत में वास्तविक उत्पादन और कीमतों के बीच आकस्मिक संबंध की पुनरीक्षा करता है। यह पेपर सरकारी घाटे के प्रमाण प्रस्तुत करता है जिससे प्रारक्षित मुद्रा के सृजन के परिणामस्वरूप मुद्रा आपूर्ति में वृद्धि होती है। यह सरकारी घाटे के कारण हो सकता है जिससे सरकार को निवल भारतीय रिज़र्व बैंक ऋण के तात्कालिक माध्यम को हटाते हुए सरकारी उधार के लिए पर्याप्त बाजार अभिदान को सक्षम बनाने के अभिप्राय से निवल आस्ति (एनएफए) संचय का अधूरा स्थिरीकरण होता है। पेपर का निष्कर्ष है कि मूल्य का निर्धारण जबकि अल्पावधि के साथ-साथ दीर्घावधि दोनों में मुद्रा और वास्तविक उत्पादन द्वारा होता है, मुद्रा उत्पादन निरपेक्ष है। पेपर यह निष्कर्ष देता है कि सरकारी घाटा स्थिरीकरण के लिए प्रासंगिक बना रहता है क्योंकि इससे मुद्रा का सृजन होता है जिसके बदले मुद्रास्फीतिकारी प्रभाव होते हैं।

श्री रवि शंकर और संजय बोस द्वारा तैयार किया गया ‘ भारत में सरकारी प्रतिभूतियों की नीलामी-एक विश्लेषण’ नामक दूसरे पेपर में भारत सरकार की दिनांकित प्रतिभूतियों की नीलामी से जुड़े विभिन्न निष्पादन मानदंडों का नीलामी पद्धति के बढ़ते हुए महत्व और वर्ष 1990 के दशक के बाद से बाजार उन्मुख व्यवस्था में इसके व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से मूल्यांकन किया गया है। पेपर की टिप्पणी यह है कि भारत में सरकारी प्रतिभूति नीलामियाँ निष्पक्षतः सक्षम हैं क्योंकि मूल्य निर्धारण व्यवहारों में नीलामी संवितरण सामान्यतः काफी कम है। भारतीय सरकारी प्रतिभूति नीलामियों का नीलामी व्यवहार विश्लेषण यह दर्शाता है कि बोलीकर्ता की मूल्यनिर्धारण रणनीति पर नीलामी के आकार, नीलामी में शामिल अनुपात और प्रतिभूति की अवधि का नकारात्मक प्रभाव होता है। नीलामियों में ‘विजेता-अभिशाप’ को कम करने के लिए बोलीकर्ता उच्चतर मूल्य वाली नीलामियों के लिए अपनी नीलामी राशि में कमी कर रहे हैं। पेपर में सांख्यिकी विश्लेषण विभिन्न मानक नीलामी विशेषताओं को मान्यता भी देता है तथा यह भी स्थापित करता है कि सुव्यवस्थित नीलामी मूल्य वितरण में से अधिक सामान्य रूप से देखी गई बाजार समाशोधन दरों के निर्धारण में भी सहायता करता है।

विशेष टिप्पणियों के खण्ड के अंतर्गत जनक राज, सरत ढाल और राजीव जैन द्वारा तैयार किया गया ‘आयातित मुद्रास्फीतःभारत से प्रमाण’नामक पेपर पिछले चार दशकों के दौरान भारत में आयातित मुद्रास्फीति में स्रोत तथा पण्यवस्तु-वार प्रवृतियों का विश्लेषण करता है। वैश्विक स्तर पर, पेपर यह जानकारी देता है कि तेल निर्यातक देशों से मुद्रास्फीति का निर्यात औद्योगिक और गैर-तेल विकासशील देशों से उल्लेखनीय रूप से उच्चतर रहा है और बादवाले दोनों देशों के बीच मुद्रास्फीति का निर्यात पहले वाले से उच्चतर है। पेपर यह स्पष्ट करता है कि भारत में घरेलू मुद्रास्फीति सकारात्मक रूप से आयात मूल्य, पूँजी प्रवाहों और विनिमय दर से प्रभावित होती है। पेपर यह उल्लेख करता है कि पूँजी के सक्षम आबंटन के माध्यम से भविष्य में घरेलू अर्थव्यवस्था में पूँजी प्रवाहों की आमेलन क्षमता सुदृढ़ करने की आवश्यकता है जिसका अन्य रूप में विनिमय दर मूल्यांकन और घटी हुई परिणामी आयात कीमतों के माध्यम से घरेलू मुद्रास्फीति पर कुछ स्थिरीकरण प्रभाव हो सकता है और इससे आस्तियों में वृद्धि तथा अर्थव्यवस्था में अस्थिरता आ सकती है। आमेलन क्षमता का अभाव न केवल वैश्वीकरण से घरेलू अर्थव्यवस्था में संभावित लाभों के संबंध में संदेह पैदा कर सकता है बल्कि देश की समग्र सांस्थिक और नीति वातावरण में भी संदेह ला सकता है।

इस खण्ड में पंकज कुमार और रमेश गोलाइत द्वारा तैयार किया गया ‘बैंकों के प्रसार और स्व-सहायता समूह-बैंक सहबद्धता कार्यक्रमःएक समीक्षा’ नामक दूसरा पेपर भारत में क्षेत्रों के बीच बढ़ते हुए बैंकिंग और सामाजिक आर्थिक बँटवारे की पृष्ठभूमि में स्व-सहायता समूह-बैंक सहबद्धता कार्यक्रम (एसबीएलपी) तक पहुँच की जाँच करता है। पेपर यह स्पष्ट करता है कि प्रमुख वाणिज्यिक बैंकों के राष्ट्रीयकरण बैंक-रहित तथा कम बैंक वाले ग्रामीण क्षेत्रों में जारी बैंकिंग प्रणाली के उल्लेखनीय विस्तार ने ग्रामीण क्षेत्रों में ऋण के अनौपचारिक स्रोतों पर निर्भरता को कम नहीं किया है। एसबीएलपी का वितरण जिसे औपचारिक वित्तीय नेटवर्क में विद्यमान अंतराल को भरने और गरीबों तक बैंकिंग की पहुँच को बढ़ाने के रूप में देखा गया था, वह देश के सबसे गरीब और केंद्रीय क्षेत्रों के सामने सिकुड़कर रह गया है। यह पेपर कई सुझाव प्रस्तावित करता है जिसमें निष्पादन सहबद्ध प्रोत्साहन लागू करते हुए सबसे गरीब क्षेत्रों में एसएचजी आन्दोलन की सहायता के लिए सुविधाप्रदाता बनने हेतु बैंकों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता; एसबीएलपी में क्षेत्रीय असंतुलनों के समाधान के लिए विशिष्ट निधियों का सृजन; लघु सिंचाई तालाबों, फीडर चैनलों, ग्रमीण सड़कों आदि के निर्माण और नवीकरण जैसी एसएचजी के इर्द-गिर्द ग्रमीण मूलभूत सुविधा गतिविधियों के सृजन जो कृषि उपजों तथा समग्र ग्रमीण विकास के लिए उल्लेखनीय बाह्य आर्थिक गतिविधियाँ पैदा कर सकते हैं; तथा एसएचजी प्रतिमान में आजीविका गतिविधियाँ, व्यष्टि-बीमा अनाज बैंक को सन्निहित करने के प्रयास शामिल हैं।

जी. रघुराज
 उप महाप्रबंधक

प्रेस प्रकाशनी : 2009-2010/188

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