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गरीबी को मात देना: समस्याएं एवं चुनौतियाँ

श्री एस.एस. मूंदड़ा, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक

उद्बोधन दिया

स्कॉच ग्रुप के अध्यक्ष श्री समीर कोचर, मंच पर विराजमान महानुभाव एवं सभा में उपस्थित अन्य विद्वतजन; इस सम्मेलन में भाग लेनेवाले प्रतिनिधिगण; प्रिंट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के सदस्य; देवियों एवं सज्जनों! यह मेरे लिए अत्‍यंत हर्ष एवं सौभाग्य की बात है कि मैं आज “गरीबी को मात देना” इस विषय पर आयोजित 39वें स्कॉच शिखर सम्मेलन के उदघाटन सत्र में यहां उपस्थित हूँ। शिखर सम्मेलन का यह विषय इस समय बहुत ही प्रासंगिक है जब प्रधानमंत्री जन-धन योजना के अंतर्गत प्रत्येक परिवार को बैंकिंग से जोड़ने का मिशन अपने आखिरी पड़ाव पर पहुंच चुका है। मैं स्कॉच ग्रुप को बधाई देना चाहूंगा कि उन्होंने अपने शिखर सम्मेलन के लिए ऐसी विशिष्ट थीम को चुना।

2. वर्ष 1944 में फिलाडेल्फिया के आईएलओ घोषणा के अनुसार “गरीबी कहीं की भी हो वह सर्वत्र समृद्धि के लिए खतरा है”। अतः, पूरे विश्व के नीति निर्माताओं ने यह माना है कि वैश्विक स्थिरता गरीबी से प्रभावित होती है। पूरे विश्व के समान ही, भारत के नीति निर्माता जैसे भारत सरकार और वित्तीय क्षेत्र के विनियामक विशेष रूप से भारतीय रिज़र्व बैंक ने भी यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि गरीबी के हर स्वरूप को नियंत्रित कर आर्थिक संवृद्धि का लाभ गरीबों और समाज के वंचित वर्गों तक पहुंचाया जाए।

3. फ्रैंकलिन डी. रुज़वेल्ट ने कहा है कि “हमारी प्रगति की कसौटी इसमें नहीं है कि हम उन लोगों को समृद्ध बनाएं जो कि पहले से ही समृद्ध हैं, बल्कि इसमें है कि जिनके पास अत्यल्प साधन हैं क्या उन्हें हम पर्याप्त मात्रा में साधन उपलब्ध करा पाते हैं।” यदि हम अपने विकास को मापने के लिए इस मापदंड को अपनाते हैं तो हम पूर्ण रूप से असफल माने जाएंगे। आजादी के लगभग 68 साल के बाद भी, गरीबी भारत की सबसे बड़ी समस्याओं में से एक है। यह अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि कोई भी राष्ट्र महान तब तक नहीं बन सकता जब तक कि वहां के लाखों नागरिकों का जीवन कुपोषण और लिंग भेद से से ग्रसित हो तथा सीखने के अवसर सीमित हों।

गरीबी क्या है?

4. मेरियम वेब्स्टर शब्दकोश के अनुसार “गरीबी किसी की वह स्थिति है जब उसके पास आम तौर पर या सामाजिक रूप से मान्य मात्रा में मुद्रा अथवा भौतिक वस्तुओं का स्वामित्व नहीं हो” तथापि, गरीबी केवल पर्याप्त मात्रा में आय की कमी मात्र नहीं है। इसके दूरगामी प्रभाव हैं। गरीबी से ग्रसित लोगों को कई तरह के अभावों एवं बाधाओं का सामना करना पड़ता है। इसमें भुखमरी और कुपोषण, शिक्षा एवं अन्य बुनियादी सेवाओं का अभाव, सामाजिक भेद-भाव एवं छुआ-छूत के साथ-साथ निर्णयन प्रक्रिया और राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक जीवन में भागीदारी की कमी भी शामिल है। यह गौरतलब है कि गरीबी को दान से दूर नहीं किया जा सकता। लोगों को सुविधाएं देकर उन्हें आगे के लिए सशक्त बनाकर ही गरीबी पर सफलता हासिल की जा सकती है।

5. गरीबी का मूल कारण बेरोजगारी है। गरीबों के लिए मजदूरी ही एक उपाय है जो उनके जीवन और सुख-समृद्धि में सुधार ला सकता है। यह महत्वपूर्ण है कि हम ऐसे गरीबों को सशक्त बनाए जिनके पास सामर्थ्य तो होता है लेकिन जिन्‍हें जीवन को सुधारने के लिए पर्याप्त अवसर नहीं मिल पाते हैं।

वित्तीय वंचन और गरीबी के बीच द्विदिशी कारण एवं परिणाम संबंध

6. जैसा कि मैंने पहले बताया, गरीबी को आम तौर पर निम्न आय से जोड़ा जाता है। यह आय भी मुख्य रूप से उपभोग के ही काम आती है जिसके फलस्वरूप बचत / निवेश के लिए बहुत थोड़ा ही बच पाता है। कम बचत के कारण बैंक खाते की जरूरत नहीं होती जिससे वित्तीय वंचन और निवेश के अवसरों की कमी होती है। मांग के दृष्टिकोण से वित्तीय समावेशन में इससे बाधाएं उत्पन्न होती हैं। इसके विपरीत, वित्तीय वंचन के कारण लोगों को वित्तीय प्रणाली द्वारा प्रदान किए जाने वाले लाभों और प्रोत्साहनों से वंचित रहना पड़ता है। अतः गरीबी अपने आप पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती है।

इस दुष्चक्र को कैसे तोड़ा जाए?

7. मैं कोई अर्थशास्त्री नहीं हूँ। कई प्रसिद्ध वक्तागण आज इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करेंगे। फिर भी मैं कुछ पहलुओं पर आपके समक्ष अपनी राय प्रस्तुत करना चाहूंगा। हम गरीबी के निर्धारण से शुरुआत करते हैं। मैं इससे सहमत नहीं हूं कि वे लोग जो ग्रामीण क्षेत्र में 32 रुपए और शहरी क्षेत्र में 47 रुपए से कम खर्च करते हैं (रंगराजन समिति द्वारा परिभाषित) अथवा इससे पहले तेंदुलकर समिति द्वारा निर्धारित क्रमशः 27 रुपए और 33 रुपए खर्च करते हैं उन्हें गरीब माना जाए। मेरा सवाल है कि चिकित्सा सेवा, शिक्षा, परिवहन, स्वच्छता आदि जैसी आधारभूत सुविधाओं की उपलब्धता, गुणवत्ता और लागत पर विचार किए बिना क्या पूरे देश या सभी राज्यों के इन आय स्तरों (क्रय शक्ति समानता को समायोजित करने के बाद भी) की तुलना की जा सकती है। क्या इन दोनों कारकों का एक मिला-जुला सूचकांक (यदि ऐसा कोई सूचकांक बनाए जा सके) वास्तविक गरीबी के स्तरों का सही सूचकांक नहीं हो सकता है? इसे विभिन्न मापने वाले उदाहरणों से समझाया जा सकता है लेकिन समय सीमा हमें इसकी अनुमति नहीं देती।

8. इस तर्क को आगे बढ़ाते हुए मैं जानना चाहूंगा, तो क्या इसका मतलब यह है कि गरीबी को मात देने के दो उपाय हो सकते हैं ?

अ) सरकार यह सुनिश्चित करे कि मैंने अभी जिन गुणवत्ता पूर्ण सुविधाओं का जिक्र किया है वे सभी जरूरतमन्द लोगों को उपलब्ध हों - प्रश्न यह है कि क्या यह व्यवहार्य है?

ब) सभी नागरिकों को इस योग्य बनाया जाए कि वे इतनी आय अर्जित करने में सक्षम हों जिससे बाजार से इन सुविधाओं को खरीद सकें। विचार करने की बात यह है कि क्या इसे अल्प अवधि में पूरा किया जा सकता है या मध्यावधि में।

9. तब क्या यह मानना सही होगा कि इसमें निहित कार्य के दायरे को देखते हुए कुछ समय तक उपर्युक्त दोनों का संयुक्त रूप ही एक उचित वास्तविक लक्ष्य होगा? क्या यह मानना भी सही होगा कि भिन्न-भिन्न स्तरों पर इनमें से किसी एक अथवा दोनों पर अलग-अलग ज़ोर दिए जाने पर भी इस प्रयोजन को पूरा नहीं किया जा सकता?

10. इस व्यापक मुद्दे को लंबी चर्चा के लिए छोड़ते हुए अब मैं गत कुछ वर्षों में गरीबी उन्मूलन / वित्तीय समावेशन / रोजगार उन्नयन आदि के संबंध में उठाए गए विभिन्न कदमों पर प्रकाश डालना चाहूंगा।

प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को उधार

11. आज के विकास और समावेशन एजेंडा की प्राप्ति के लिए प्राथमिकता प्राप्त क्षेत्र को ऋण प्रदान करने से संबंधित दिशा-निर्देशों में सुधार करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। भारतीय रिज़र्व बैंक के एक आंतरिक कार्यदल ने वर्तमान दिशा-निर्देशों पर पुनर्विचार किया है और कुछ संशोधन सुझाए हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि विशेष लक्ष्यों के अभाव में पीछे छूट रहे समूहों को भी ऋण सुविधा उपलब्ध कराई जा सके। इसमें छोटे एवं मझौले किसान, सूक्ष्म उपक्रम और कमजोर वर्ग शामिल हैं जबकि कृषि संबंधी आधारभूत सुविधाएं, सामाजिक सुविधाएं, नवीकरणीय ऊर्जा, निर्यात और मझौले उद्यमों आदि जैसे राष्ट्रीय प्राथमिकता-प्राप्त रहित क्षेत्रों को भी शामिल करने के लिए इसके क्षेत्र में विस्तार किया जाए।

वित्तीय समावेशन योजना

12. मैं संक्षेप में भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा समाज के अधिकार विहीन वर्गों को मुख्य धारा में लाने और देश की एक समान संवृद्धि के लिए किए जा रहे प्रयासों पर प्रकाश डालना चाहूंगा। भारतीय रिज़र्व बैंक संरचित एवं योजनाबद्ध ढंग से कदम उठाते हुए सर्वत्र वित्तीय समावेशन को प्राप्त करने में प्रयासरत है। जैसा कि मैंने पहले बताया कि वित्तीय सेवाओं एवं उत्पादों तक पहुंच प्रदान किया जा रहा है अपितु मांग पक्ष से उभरने वाले मुद्दों को वित्तीय शिक्षा संबंधी उपायों के माध्यम से दूर करने के प्रयास भी किए जा रहे हैं। इस समय वित्तीय समावेशन अपने दूसरे दौर में है जिसके अंतर्गत देश में 6,00,000 से अधिक गावों को बैंक की शाखाओं अथवा बीसी एजेंटों के माध्यम से इस वर्ष के अंत तक बैंकों से जोड़ा जाना है।

प्रधानमंत्री जन-धन योजना

13. यह कहना कि सरकार की प्रधानमंत्री जन-धन योजना सफल रही है स्थिति को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना होगा। तथापि इस कार्यक्रम के उद्देश्य एवं उसके पीछे छिपी भावना की हम सभी को प्रशंसा करनी चाहिए। बैंकों में खाता खोलने के लिए काफी प्रयास किए गए हैं और अधिकांश परिवारों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली से जोड़ भी दिया गया है। अब समय की मांग यह है कि खाता धारकों को जो सेवाएं आसानी से उपलब्ध हैं वे किफायती एवं बेहतर हों और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ऐसे खाते सक्रिय बने रहें। खातों को सक्रिय रखने के लिए यह जरूरी होगा कि खाता धारकों को आय एवं लाभार्जन होता रहे। लोगों में बचत की आदत को बढ़ाने पर भी ज़ोर दिया जाना चाहिए। एक बार जब उनमें बचत की आदत पड़ जाएगी तो वे निवेश की ओर स्‍वत: ही अग्रसर होंगे और तब जाकर यह वयापक प्रक्रिया सार्थक हो पाएगी

प्रत्यक्ष लाभ अंतरण

14. यह आशा की जा रही है कि नए खाता धारकों को औपचारिक वित्तीय प्रणाली से जोड़े रखने में सरकार की प्रत्यक्ष लाभ अंतरण योजना एक अहम भूमिका निभाएगी। इससे यह सुनिश्चित किया जा सकेगा कि लाभ लक्षित जनसंख्या को सीधे ही अंतरित हो जाएगा और उसमें रिसाव नहीं होने पाएगा।

पेमेंट एवं लघु वित्त बैंकों को लाइसेन्स प्रदान करना

15. वित्तीय समावेशन को आगे बढ़ाने और लघु कारोबार यूनिटों, छोटे एवं मझौले किसानों, सूक्ष्म एवं लघु उद्योगों और अन्य असंगठित क्षेत्र के उद्यमों को ऋण की आपूर्ति करने के उद्देश्य से भारतीय रिज़र्व बैंक ने निर्णय लिया है कि ज्यादा से ज्यादा लघु वित्तीय बैंकों को लाइसेन्स प्रदान किया जाए। इसके अतिरिक्त, कुछ पेमेंट बैंकों को भी लाइसेन्स प्रदान किया जा रहा है ताकि प्रवासी मजदूर वर्ग, निम्न आय वाले परिवारों, छोटे व्यापारियों, असंगठित क्षेत्र की अन्य इकाइयों और अन्य उपभोक्ताओं को भुगतान / विप्रेषण सेवाएं प्रदान की जा सकें।

उद्यमिता और स्व-रोजगार को बढ़ावा देना

16. गरीब लोगों को स्व-रोजगार के लिए तैयार करना संभवतः गरीबी उन्मूलन का चिर स्थायी हल हो सकता है। विकसित एवं विकासशील दोनों तरह के देशों में आर्थिक संवृद्धि एवं विकास और गरीबी तथा बेरोजगारी उन्मूलन के लिए उद्यमिता को मुख्य उत्प्रेरक माना गया है। उद्यमिता नवोन्मेष को बढ़ावा देती है, प्रतिस्पर्धात्मक लाभ और आर्थिक समृद्धि को बढ़ाती है और संपन्नता एवं नौकरी के अवसर प्रदान करती है जिसके परिणामस्वरूप व्यक्ति, उसके परिवार और समुदाय के जीवन-स्तर में सुधार होता है।

माइक्रोफाइनेंस के माध्यम से सशक्तिकरण

17. माइक्रोफाइनेंस गरीबों एवं दबे-कुचले लोगों को सशक्त बनाने का एक प्रभावी ज़रिया है और इससे उन्हें गरीबी एवं दयनीयता की स्थिति से बाहर निकालने में मदद मिलती है। यह इस विश्‍वास पर आधारित है कि किसी को सीधे मछली देने से अच्छा है उसे मछली पकड़ने का तरीका सिखाया जाए। इससे गरीबों को आवश्यक साधन, कौशल और संसाधन उपलब्‍ध होता है जिससे वे लाभकारी गतिविधियों को संपादित करने एवं गरीबी के दुष्चक्र से बाहर निकलने में कामयाब हो सकते हैं।

स्व-सहायता समूह बैंक लिंकेज मॉडल

18. राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक द्वारा 1992 में ग्रामीण निर्धनों के 500 स्व-सहायता समूहों के साथ एसएचजी बैंक लिंकेज प्रोग्राम की शुरुआत की गई थी जो अब विश्व की सबसे बड़ी माइक्रोफाइनेंस पहल बन चुकी है जिसमें 97 मिलियन ग्रामीण परिवारों का प्रतिनिधित्‍व कर रहे 7.4 मिलियन स्व-सहायता समूह शामिल हैं। यह महिलाओं को ऋण प्रदान करने का प्रमुख ज़रिया बन चुका है क्योंकि 31 मार्च, 2014 तक कुल स्व-सहायता समूहों में से 84% स्व-सहायता समूह महिलाओं के हैं। यह कार्यक्रम विशाल स्‍वरूप धारण कर चुका है क्योंकि 31 मार्च, 2014 तक महिला स्व-सहायता समूहों द्वारा बैंकों में की जाने वाली बचत 80 बिलियन रु. से अधिक और उनका बकाया ऋण 360 बिलियन रु. से अधिक पाया गया है। स्व-सहायता समूह कार्यक्रम में अब इस बात पर ज़ोर दिया जा रहा है कि पूरे देश में इसका विस्तार करने के अलावा स्व-सहायता समूह के सदस्यों को जीविका के अवसर उपलब्ध कराए जाएं।

गरीबी उन्मूलन में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यमों की भूमिका

19. भारत में विकास कार्य के लिए मुख्य उत्प्रेरक माने जाने वाले सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्योगों को रोजगार सृजन के नजरिए से बढ़ाया जाना अत्यंत आवश्यक है। एमएसएमई क्षेत्र का योगदान कुल औद्योगिक उत्पादन में लगभग 45 %, निर्यात में 40 %, सकल घरेलू उत्पाद में 8% है। इसके अलावा, कृषि के बाद सबसे अधिक श्रमशक्ति इसी क्षेत्र में है तथा यह संतुलित क्षेत्रीय विकास भी सुनिश्‍चत करता है। एमएसएमई से संबंधित प्रधान मंत्री टास्क फोर्स की सिफारिश के संदर्भ में, बैंकों को सूचित किया गया है कि वे सूक्ष्म एवं लघु उद्यमों के क्रेडिट में वर्ष-दर-वर्ष 20 % की वृद्धि तथा सूक्ष्म उद्यम खातों में 10 % की वार्षिक वृद्धि के लक्ष्य को हासिल करें। यह भी आदेश दिया गया है कि एमएसई अग्रिमों का 60% सूक्ष्म उद्यमों को दिया जाए क्योंकि औपचारिक बैंकिंग प्रणाली से वंचित रहने वालों में उनकी संख्या बहुत ही ज्यादा है।

कौशल विकास पर ज़ोर

20. पूरी दुनिया में यह माना जाता है कि 12 वीं उत्तीर्ण करने के बाद अधिकांश छात्र रोजगार के लायक हो जाते हैं क्योंकि शिक्षा प्रणाली उन्हें अपना मन-पसंद रोजगार चुनने के लिए तैयार कर देती है। लेकिन भारत में बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने के बाद भी रोजगार के अवसरों की कमी के कारण मुख्यत: दो परिणाम सामने आते हैं, पहला शिक्षा प्रणाली से निराशा और दूसरा रोजगार पाने के लिए उच्चतर शिक्षा में अध्ययनरत रहना।

21. व्यावसायिक शिक्षा की कमी, हाई-स्कूल छोड़ने की ऊंची दर, अपर्याप्त कौशल प्रशिक्षण क्षमता, कौशल के प्रति नकारात्मक सोच, उद्योग आधारित कौशलों में कमी (व्यावसायिक कोर्स सहित) ऐसे कुछ प्रमुख कारण हैं जो भारत में खराब कौशल स्तर एवं श्रमिक-बल की उद्यमशीलता के अभाव के लिए उत्तरदायी हैं। प्रशिक्षण के माध्यम से एसएसएमई क्षेत्र के रोजगार प्रदाताओं सहित असंगठित श्रमबल के कौशल में निखार लाया जाना अत्यंत आवश्यक है। सेकंडरी और इंटरमीडिएट स्तर की शिक्षा में कौशल विकास की पहल को शामिल किए जाने से निचले स्‍तर की शिक्षा की चुनौती का सामना किया जा सकेगा और साथ ही स्कूली पढ़ाई बीच में ही छोड़नेवालों को रोजगार अर्जन के लिए जरूरी कौशल प्रदान करने की समस्या से भी निपटा जा सकेगा।

22. यह बहुत ही हर्ष की बात है कि सरकार 2009 की राष्ट्रीय कौशल विकास नीति में संशोधन के माध्यम से उद्यमिता उभारने के लिए कटिबद्ध है ताकि विभिन्न मंत्रालयों की योजनाएं नवगठित कौशल विकास मंत्रालय से होते हुए आगे बढ़ें। यह वर्तमान सरकार के “मेक इन इंडिया” पर दिए जा रहे ज़ोर के परिप्रेक्ष्य में बहुत ही महत्वपूर्ण होगा।

निष्कर्ष

23. अपना भाषण समाप्त करने से पहले, मैं कुछ मुद्दों को आपके समक्ष रखना चाहता हूं जो वित्तीय समावेशन और गरीबी उन्मूलन के क्षेत्र में अब तक किए गए महत्वपूर्ण कार्यों के समेकन और उन्हें आगे ले जाने में बाधा उत्पन्न कर सकते हैं।

  • क्या बैंकिंग प्रणाली संसाधनों से बहुत ज्यादा अपेक्षा की जा रही है? इस समय बैंक पूरी तरह से एक मात्र ऐसी इकाई है जिससे यह अपेक्षा की जा रही है कि वे नए ग्राहकों की पहचान और उनका नामांकन करे, उनको शिक्षित करे, आधार पंजीकरण कराए, जीवन / गैर-जीवन बीमा योजना और पेंशन उत्पादों आदि से संबंधित प्रशासनिक कार्य वगैरह करे। मुद्दा यह है कि क्या इससे उनका ऋण वितरण, आस्तियों की गुणवत्ता को बनाए रखने, सेवा मानकों जैसे अन्य उत्तरदायित्वों पर अतिक्रमण नहीं हो रहा है।

  • ऋण-माफी योजनाएं अथवा सामाजिक आधारभूत संरचनाओं / उत्पादक आस्तियों का सृजन न कर सकने वाले रोजगारों से देश की व्‍यापक कार्य संस्कृति / ऋण संस्कृति के लिए जोखिम उतपन्‍न हो रहा है।

  • राज्यों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्धारण जैसे आधारभूत अनुशासन को न मानने से आगे चलकर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

  • सहकारिता के क्षेत्र में कमजोर गवर्नेंस और विनियमों की विविधता- क्या हम सहकारिता क्षेत्र के सामर्थ्य का लाभ उठाने के लिए पर्याप्त प्रयास कर रहे हैं?

  • बीसी मॉडल का अनुसरण करते समय क्या हमें क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों के इतिहास से कुछ सीख लेने की आवश्यकता है?

इसके अलावा ग्रामीण और शहरी गरीबी उन्मूलन दोनों के संबंध में दो महत्वपूर्ण मुद्दे सामने आते हैं :

  • क्या हमें उत्पादकता को बढ़ाने के लिए तथा पहले से ही छोटे भूमि जोत क्षेत्रों को और छोटा होने से रोकने के लिए नए मॉडल की आवश्यकता नहीं है – क्या प्रत्यक्ष लाभ हस्तांतरण / दीर्घावधि आर्थिक अनुदान ही इन समस्याओं का निदान है?

  • देश के ग्रामीण इलाकों से पलायन और तेजी से शहरीकरण सामाजिक, बुनियादी, रोजगार और समावेशन पहलू की वास्तविकता है – क्या हम इनसे निपटने के लिए उचित रूप से तैयार हैं?

24. अतः यह स्‍पष्‍ट है कि गरीबी उन्मूलन एक लंबे समय तक चलनेवाली प्रक्रिया है तथा इसके लिए सरकार, अन्य नीति निर्माताओं, मीडिया और समाज के सभी तबकों का सहयोग आवश्यक है। हममें से हर एक को यह सुनिश्चित करने के लिए अपना योगदान देना होगा कि गरीबी समाप्त हो जाए ताकि समृद्धि उसका स्‍थान ले सके। एक ऐसा स्वाभाविक माहौल बनाना होगा जिसमें गरीबी के सभी स्वरूपों पर विजय हासिल की जा सके।

इस सम्मेलन में आमंत्रित करने के लिए मैं पुनः श्री कोचर और स्कॉच को धन्यवाद देता हूँ तथा सार्थक विचार-विमर्श के लिए आप सभी को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं ।

धन्यवाद।


1 नई दिल्ली में आयोजित 39 वें स्कॉच सम्मेलन में दिनांक 20 मार्च, 2015 को श्री एस एस मूंदड़ा, उप गवर्नर, भा.रि.बैं द्वारा “गरीबी को मात देना: समस्याएं एवं चुनौतियां” पर दिया गया प्रमुख व्‍याख्‍यान

 

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