भारतीय बैंकिंग क्षेत्र : उभरती चुनौतियाँ तथा आगे की रणनीति - आरबीआई - Reserve Bank of India
भारतीय बैंकिंग क्षेत्र : उभरती चुनौतियाँ तथा आगे की रणनीति
श्री एस.एस. मूंदड़ा, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक
उद्बोधन दिया
स्टेट बैंक ऑफ मैसूर के प्रबंध निदेशक श्री शरद शर्मा; भारतीय रिज़र्व बैंक, कर्नाटक के क्षेत्रीय निदेशक श्री कार्थक; सीनियर बैंकर्स; देवियों और सज्जनों! मैसूर के पूर्व महाराजा महामहिम श्री नलवाड़ी कृष्णराजा वडियार के सम्मान में आयोजित इस स्मृति व्याख्यान में शुरुआती भाषण देना मेरे लिए अत्यंत गौरव की बात है। स्टेट बैंक ऑफ मैसूर द्वारा श्री कृष्ण राजा वडियार के सम्मान में इस स्मृति व्याख्यान का आरंभ एकदम प्रासंगिक है। मैसूर रियासत के इस संत महाराजा ने अपने जीवनकाल में किसी साधारण व्यक्ति से नहीं बल्कि राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से ‘दार्शनिक राजा’, ‘राजर्षि’ तथा “संत राजा” की उपाधि अर्जित की थी। उनके शासनकाल में मैसूर को “विश्व का सर्वश्रेष्ठ प्रशासित राज्य’’ माना जाता था जो उनकी लोकप्रियता तथा योग्यता का साक्षात प्रमाण है। एक जगह लॉर्ड सैंकी ने लिखा है “भारत के दूसरे भागों से राजाओं को प्रशासनिक प्रशिक्षण हेतु मैसूर भेजा जाता था” इस पृष्ठभूमि में इस नए ज्ञानार्जन केंद्र में स्मृति व्याख्यान का महत्व और भी बढ़ जाता है। अपने शासनकाल के दौरान महाराजा वडियार ने ग्रामीण पुनर्संरचना, स्वास्थ्य, उद्योग तथा शिक्षा में सुधार के द्वारा गरीबी उन्मूलन तथा आर्थिक पुनरुथान जैसे समाज कल्याणकारी कार्य किए थे और आज के नीति निर्माता बैंकिंग क्षेत्र के सहयोग से आज भी इस उद्देश्य को पूरा करने में लगे हुए हैं। 2. बैंक किसी भी अर्थव्यवस्था की जीवन रेखा है तथा आर्थिक विकास को सक्रिय बनाने और उसे कायम रखने में उत्प्रेरक की भूमिका निभाते है, विशेष रूप से विकासशील देशों में, और भारत भी इसका अपवाद नहीं है। हालांकि हमारी बैंकिंग प्रणाली इस समय कई तरह की चुनौतियों का सामना कर रही है लेकिन इन चुनौतियों पर यदि तत्काल पर्याप्त ध्यान नहीं दिया गया तो आर्थिक विकास के गति पकड़ने पर मौका हाथ से निकल जाएगा। इसका बैंकों तथा अर्थव्यवस्था दोनों पर ही प्रभाव पड़ेगा क्योंकि विकास के लिए सशक्त बैंकिंग प्रणाली एक अत्यावश्यक घटक है। आज अपने व्याख्यान में, मैं मौजूदा आर्थिक परिदृश्य तथा परिस्थितियों में बैंकिंग प्रणाली की उभरती चुनौतियों पर प्रकाश डालना चाहूँगा । माइक्रो इकॉनॉमिक परिदृश्य 3. वर्ष 2008 में वित्तीय संकट शुरू होने के बाद से, वैश्विक अर्थव्यवस्था पर संकट के बादल मँडराते रहे हैं तथा भारतीय अर्थव्यवस्था और हमारी बैंकिंग प्रणाली भी इससे अछूती नहीं रही है। अब स्थिति में कमोबेश मामूली सुधार हुआ है लेकिन अभी भी बहुत से क्षेत्र वित्तीय कमजोरियों तथा माइक्रो इकॉनॉमिक असंतुलनों का सामना कर रहे हैं। तेल की कीमतों से जुड़े भौगोलिक-राजनैतिक जोखिम तथा मुद्रा और पण्यों की कीमतों में उठा-पटक से आर्थिक स्थिरता को खतरा बना हुआ है। विकसित अर्थव्यवस्थाओं में उच्च सामंजस्यकारी मौद्रिक नीति का बना रहना भारत जैसे उभरते बाज़ारों में मौद्रिक नीति की चुनौतियाँ पैदा कर रहा है। बैंकिंग प्रणाली के लिए चुनौतियाँ 4. भारत की बैंकिंग प्रणाली ऐसी चुनौती भरी पृष्ठभूमि में अपेक्षाकृत लंबे समय से कार्य कर रही है जिसके कारण हमारे बैंकों की आस्ति गुणवत्ता, पूंजी पर्याप्तता तथा लाभ पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। किन्तु आज जिस संकटपूर्ण स्थिति में बैंकिंग प्रणाली अपने आप को पा रही है वह काफी हद तक बैंकरों के अनुभवहीन होने तथा पूरे जोश-खरोश से काम न करने के कारण है। मैं इन चुनौतियों तथा आगे की रणनीति पर विस्तार से प्रकाश डालना चाहूँगा। i) आस्ति गुणवत्ता यद्यपि देखा जाए तो समग्र रूप से बैंकिंग प्रणाली ने अपना दम-खम बनाए रखा है, लेकिन सतत मंदी के कारण आस्ति गुणवत्ता हमेशा दबावग्रस्त रही है। बैंकिंग प्रणाली में सकल अनर्जक अग्रिमों तथा निवल अनर्जक आस्तियों में बढ़ोतरी हुई है। रिज़र्व बैंक में 15 मार्च को प्राप्त प्राथमिक डाटा के अनुसार पूरी बैंकिंग प्रणाली में अनर्जक आस्तियां 4.45% तक तथा निवल अनर्जक आस्तियां 2.36% तक बढ़ गई हैं। यदि इसे अलग से देखा जाए तो अनर्जक आस्तियों का अनुपात अधिक दबावग्रस्त प्रतीत नहीं होता, लेकिन यदि हम सकल अनर्जक अग्रिमों में पुनर्संरचित आस्तियों की संख्या मिला दें तो यह भयावह रूप ले लेता है। मार्च 2015 के अंत में दबावग्रस्त आस्ति अनुपात (सकल एन पी ए + सकल अग्रिमों के प्रति पुनर्संरचित मानक अग्रिम) 10.9 प्रतिशत था। बैंक समूहों में दबाव का स्तर एक समान नहीं है, सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में यह अधिक पाया गया है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों का सकल एनपीए मार्च 2015 में 5.17% था जबकि दबावग्रस्त आस्ति अनुपात (stressed Asset ratio) 13.2% था जो संपूर्ण प्रणाली के अनुपात से करीब 230 आधार अंक अधिक है। हाल ही में आईएमएफ़ द्वारा प्रकाशित वैश्विक वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट में की गई टिप्पणियों पर भी यहाँ गौर किया जाना चाहिए। यदि हम कॉर्पोरेट लीवरेज के उच्च स्तरों को देखें तो रिपोर्ट दर्शाती है कि भारत के कुल ऋण का 36.9 प्रतिशत जोखिम में है, जो कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं में सबसे अधिक है जबकि भारतीय बैंकों के पास झेलने का ही बफर सबसे कम मात्र 7.9 प्रतिशत है। इन संख्याओं की वैधता को शायद अलग से प्रमाणित करने की जरूरत पड़े, इसके बावजूद यह भारतीय बैंकों के आस्ति पोर्टफोलियो के सापेक्ष जोखिम को प्रकट करती हैं। जैसा कि आप सभी जानते है, रिज़र्व बैंक ने कॉर्पोरेट तथा वित्तीय संस्थाओं की परेशानी से निपटने के लिए प्रणालीगत क्षमता को सुधारने हेतु कई कदम उठाए हैं। इसमें “वित्तीय दबाव की शुरू में ही पहचान करना; ऋणदाताओं के लिए समाधान तथा उचित वसूली हेतु तुरंत उपाय; अर्थव्यवस्था में दबावग्रस्त आस्तियों को फिर से दुरुस्त करने की रूपरेखा; संयुक्त ऋणदाता फोरम (जेएलएफ़) के गठन पर विस्तृत दिशानिर्देश; सुधारात्मक कार्य योजना (सीएपी); प्रोजेक्ट ऋणों का पुनर्वित्तीयन; बैंकों द्वारा एनपीए की बिक्री तथा अन्य विनियामक उपायों’’ पर दिशानिर्देश जारी करना शामिल है, जो वित्तीय दबाव की शुरू में ही पहचान करने की आवश्यकता तथा इन्हें सुधारने, पुनर्संरचित करने या वसूली हेतु तुरंत उपाय करने पर बल देता है, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि ऋणदाताओं तथा निवेशकों के हितों की रक्षा की जाती है। मुझे मिलनेवाली विभिन्न रिपोर्टें यह दर्शाती हैं कि जेएलएफ़ रूपरेखा को लागू करने में अभी जमीनी स्तर पर और सुधार की आवश्यकता है। कुछ ऋणदाताओं से असहयोग मिलने के बारे में हमें बड़े ऋणदाताओं से एक ओर अभ्यावेदन प्राप्त हुए है तो दूसरी ओर, छोटे ऋणदाताओं ने बड़े ऋणदाताओं द्वारा सताये जाने की समस्या को भी व्यक्त किया है। जब तक, इच्छुक पार्टियों के बीच आपसी तालमेल नहीं बैठ जाता, सुधार के सभी प्रयासों के निष्फल होने की संभावना बनी रहेगी। रिज़र्व बैंक ने काफी पहले पुनर्संरचित खातों के आस्ति वर्गीकरण पर विनियामक नरमी को समाप्त करने के लिए एक रोडमैप तैयार किया था जिसके अनुसार 31 मार्च 2015 को यह नरमी समाप्त हो गई। इस नरमी को आगे भी बनाए रखने के लिए सभी तरफ से शोर शराबा हुआ। इस मुद्दे पर हमारा दृष्टिकोण पूरी तरह से स्पष्ट है। मैं इस पर प्रकाश डालना चाहूँगा कि इस रूप में पुनर्संरचना एक वर्जित शब्द नहीं है बल्कि यह एक न्यायसंगत वित्तीय गतिविधि है जो पूरे विश्व में उधारकर्ताओं को अल्प अवधि की समस्याओं से उबारने तथा प्रणालीगत आर्थिक मूल्यों को बचाए रखने में सहायक है। मुझे नहीं मालूम कि क्यों एक ऐसे ऋण की पुनर्संरचना नहीं की जानी चाहिए जो अल्पावधि दबाव में है। हमारा कहना है कि बैंक यह स्वीकार करें कि समस्या है, वे यह स्वीकार करें कि खाता अभी दबावग्रस्त है, किन्तु भविष्य में उसमें सुधार की संभावना है, अत: लघु प्रावधान करें तथा जब उक्त खाता संतोषजनक हो जाये और लाभ देने लगे तो उसे रिवर्स कर दें। नकारने की अवस्था में बना रहना किसी के लिए भी लाभकारी नहीं होगा, विशेष रूप से परस्पर जुड़े वैश्विक माहौल में जहां विनियम बनाना वैश्विक हो गया है तथा उसी तरह से सार्वजनिक जांच भी वैश्विक हो गई है। विनियामक द्वारा बैंक की वित्तीय जांच करते समय बरती गई किसी भी तरह की नरमी को निवेशक/विश्लेषक समुदाय खारिज कर देगा। ii) बैंकों की पूंजी पर्याप्तता अपने कारोबार को मजबूती प्रदान करने के लिए अतिरिक्त पूंजी की उगाही करने में हमारे बैंकों की क्षमता के बारे में चिंता व्यक्त की गई है और मेरा यह मानना है कि इन्हें पूरी तरह से गलत भी नहीं ठहराया जा सकता, विशेष रूप से सरकारी बैंकों के मामले में। आस्ति गुणवत्ता में गिरावट, बासल ॥। पूंजी मानकों के लागू होने, आनेवाले कल में ऋण मांग के बढ़ने तथा जोखिम आधारित पर्यवेक्षण ढांचे के अंतर्गत अतिरिक्त जोखिम क्षेत्रों को कवर करने के लिए अपेक्षित पूंजी के फलस्वरूप अधिक प्रावधान की आवश्यकता होगी और उसके लिए उच्च स्तर की पूंजी पर्याप्तता जरूरी है। यद्यपि वर्तमान में, बैंकिंग प्रणाली में पर्याप्त पूंजी है लेकिन फिर भी कुछ बैंकों के लिए निकट भविष्य में चुनौतियाँ आने वाली हैं। कुल मिलाकर पूरी प्रणाली के लिए CRAR में धीरे-धीरे गिरावट आ रही है तथा यह मार्च 2014 के अंत में 13.01% की तुलना में मार्च 2015 के अंत में 12.70% पर पहुंच गई। सरकारी बैंकों के संबंध में हमारी चिंताएं अधिक हैं जहां CRAR पिछले वर्ष के 11.40% से गिरकर 11.24% पर पहुंच गया। बैंक स्टॉक के खराब मूल्यांकन से, विशेष रूप से सरकारी बैंकों के मामले में स्थिति और भी बिगड़ गई है क्योंकि इक्विटी की उगाही करना कठिन हो गया है। ऐसी स्थिति में जबकि सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने वाले सरकारी बैंक भी अपने पूंजी स्तरों को बढ़ाने के लिए बाज़ार का फायदा उठाने में झिझक रहे हैं, कमजोर सरकारी बैंकों के लिए बाज़ार से संसाधनों की उगाही करना कठिन होगा। सार्वजनिक बैंकों की पूंजी आवश्यकताओं को पूरा करने में उनका स्वामित्व रखनेवालों को बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है, अत: अच्छा प्रदर्शन न करने वाले बैंकों के समक्ष अपनी पूंजी आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नए माध्यमों को तलाशने की चुनौती है। एकमात्र लाभप्रदता अनुपात (आरओए तथा आरओई पर आधारित) पर ही बल देने से शायद बैंकों के प्रदर्शन के अन्य पक्षों को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है तथा शायद इससे बैंक प्रबंधन अल्पावधि लाभप्रदता-उन्मुख दृष्टिकोण की ओर मुड़ जाता है। तथापि, इस दृष्टिकोण के नफा-नुकसान को नजरंदाज करते हुए एक विनियामक नजरिए से हम महसूस करते हैं कि यदि खराब प्रबंधन वाले बैंक जल्द से जल्द अपनी कार्यक्षमता में सुधार नहीं लाते हैं तो इनमें से कुछ विनियामक द्वारा तय किए गए थ्रेशहोल्ड से नीचे जा सकते हैं। तथापि आगे चलकर यदि उच्च वृद्धि के कारण आस्ति गुणवत्ता में सुधार आता है और इसके कारण बैंकों का प्रतिधारित अर्जन बढ़ जाता है तो दबाव कुछ कम हो सकता है, समय की मांग है कि सभी बैंक विशेष रूप से सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक अपनी पूंजी को जहां तक संभव हो संरक्षित रखें और उसका उपयोग अत्यधिक दक्षता पूर्वक करें। iii) एलसीआर फ्रेमवर्क जैसा कि आप जानते हैं, 1 जनवरी 2015 से बैंकों के लिए चलनिधि कवरेज अनुपात (एलसीआर) प्रणाली 60% की न्यूनतम अपेक्षा के साथ आरंभ की गई और इसे 1 जनवरी 2019 तक चरणबद्ध रूप से 100% तक बढ़ाया जाना है। बैंकों की अल्पावधि तरलता जोखिम से निपटने के लिए एलसीआर कुल निवल नकद प्रवाह के प्रति उच्च गुणवत्ता तरल आस्ति (HQLA ) का अनुपात है तथा बैंकों से अपेक्षित है कि वे कुल निवल नकद प्रवाह के बराबर HQLA का स्टॉक सतत आधार पर बनाए रखें। बैंक LCR ढांचे को लागू किए जाने का उल्लेख करते हुए SLR घटाने की मांग करते रहे हैं। कुछ हद तक उनकी मांग जायज है। निश्चित रूप से SLR उन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति करता जो LCR के द्वारा भी साध्य किए जा सकते है है। तथापि, SLR देयताओं के लिए कतिपय outflow दर का अनुमान नहीं लगाता, जबकि LCR ढांचे के अंतर्गत outflow तथा inflow दरें दबाव के कतिपय अनुमानों पर आधारित हैं। वर्तमान में, 60% पर LCR बनाए रखने के अलावा, बैंकों को NDTL का 21.5% SLR के रूप में बनाए रखना है। आगे चलकर, जैसे ही LCR अपेक्षाएँ क्रमिक रूप से बढ़ती हैं यह वांछनीय हो सकता है कि SLR को धीरे-धीरे घटाया जाए। वर्तमान में, एक विशेष दिशानिर्देश के तहत रिज़र्व बैंक ने बैंकों को यह अनुमति दी हुई है कि वे SLR का 7% LCR के लिए रखें (एमएसएफ़ का 2% तथा FALLCR[1] के तहत 5%) हमारे विनियामक विभाग के ध्यान में यह समस्या आ चुकी है तथा आगे चलकर वह इस पर ध्यान देने के लिए उचित उपाय करेगा। iv) अनहेज्ड फोरेक्स जोखिम विदेशी मुद्रा बाज़ार में जबरदस्त उथलपुथल, विदेशों से भारी मात्रा में ऋण लेनेवाली भारतीय कंपनियों की बहियों पर बड़ा दबाव डालने की क्षमता रखती है। इस दबाव से उनकी विदेशी मुद्रा देयताओं की चुकौती तो प्रभावित होती ही है लेकिन साथ ही घरेलू ऋणदाताओं का ऋण चुकाने की उनकी क्षमता भी बाधित होती है। यही वह वजह है जिसके कारण रिज़र्व बैंक कॉरपोरेटों को पर्याप्त जोखिम बचाव के बिना डॉलर में ऋणों को बढ़ाने की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने का समर्थन करता रहा है। बैंको के पर्यवेक्षण में हमने यह पाया है कि बैंकों के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने कॉर्पोरेट उधारकर्ताओं के अनहेज्ड फोरेक्स एक्सपोजर से संभावित जोखिम को कम करने हेतु अधिक सशक्त नीतियाँ बनाएँ। अपर्याप्त डाटा से समस्त बैंकिंग प्रणाली में ऐसे एक्सपोजरों के प्रभाव का मूल्यांकन और भी जटिल हो जाता है। बैंकों को यह सूचित किया गया है कि वे अपनी नीतियों/कीमत निर्धारण निर्णय में इस जोखिम पर ध्यान दें तथा बैंकों के बीच ऐसे एक्सपोजरों पर सूचना शेयर करने हेतु माध्यमों को भी प्रारम्भ करें। इस बीच बड़े अनहेज्ड फोरेक्स एक्सपोजरों वाली इकाइयों से जुड़े एक्सपोजर के लिए पूंजी तथा प्रावधान करने की अपेक्षाओं पर ज़ोर देते हुए विनियामक दिशानिर्देश भी जारी किए गए हैं। v) मानव संसाधन मुद्दे मुझे बैंकों में मानव संसाधन से जुड़े मुद्दों पर ज़ोर देने की आवश्यकता नहीं है। यह दशक सरकारी बैंकों से सेवानिवृत्ति का दशक है तथा दैनिक परिचालनों में अनुभवी व्यक्तियों की कमी वहाँ काम करने वालों को पहले ही खल रही है। हालांकि कनिष्ठ स्तरों पर भर्तियाँ हो रही होंगी, किन्तु आने वाले कुछ समय तक मिडल तथा सीनियर लेवल पर वस्तुत: खालीपन रहेगा। मिडल लेवल के प्रबंधन के अभाव में बैंकों के निर्णयन प्रक्रिया पर प्रतिकूल असर पड़ेगा क्योंकि अधिकारियों का यह वर्ग वरिष्ठ प्रबंधन की रणनीति को अमली जामा पहनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। कुछ बड़े बैंक शीर्ष स्तर पर लंबे समय से नेतृत्व की कमी की मार झेल रहे है। निजी क्षेत्र के बैंकों सहित सभी बैंक बड़ी संख्या में कार्मिकों के छोड़कर जाने की समस्या का सामना कर रहे हैं जिससे संसाधनों की कमी महसूस की जा रही है। आगे चलकर यह समस्या और भी विकट हो जाएगी क्योंकि जिन नए बैंकों को लाइसेंस मिला है/मिलने की संभावना है वे पुराने एवं अनुभवी कार्मिकों को अपने साथ जोड़ना चाहेंगे। अत:, संसाधन की कमी को दूर करना तथा कर्मचारी टर्नओवर का प्रबंधन ऐसी बड़ी चुनौतियाँ है जिनसे बैंकों को निपटना होगा। बैंकों को नियमित रूप से अपने कर्मचारियों के कौशल स्तरों को समृद्ध करने की जरूरत है ताकि वे अर्थक्षम और प्रतिस्पर्धा में बने रहे और नए अवसरों का लाभ उठा सकें। सभी वर्गों के बैंकिंग कर्मचारियों को उनके अपने कार्यों को और अधिक निपुणता से करने में दक्ष बनाने के लिए उचित रूप से प्रशिक्षित किए जाने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी चुनौती है उसी तेजी से दक्षता निर्माण करना जो सेवानिवृत्ति तथा सेवा-त्याग की वजह से घट रही मौजूदा योग्यता और कौशल की भरपाई कर सके। प्रशिक्षण पहल में यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि बैंकों में उपलब्ध सुयोग्य कर्मचारियों का समूह हमेशा तेजी से बदलती बैंकिंग के तौर-तरीकों के साथ कदमताल कर सके। वास्तव में, इन चुनौतियों में बैंकों के लिए संभावनाएं भी मौजूद हैं जिससे वे अपने संगठनात्मक प्रोफाइल को नया स्वरूप प्रदान कर सकते हैं और भविष्य की आवश्यकताओं के लिए सर्वाधिक उपयुक्त एचआर प्रणालियाँ तथा पद्धतियां तैयार कर सकते है। vi) प्राथमिक क्षेत्र ऋण दिशानिर्देशों में संशोधन प्राथमिक क्षेत्र को दिए जाने वाले ऋणों से संबंधित दिशानिर्देश पिछले सप्ताह ही संशोधित किए गए हैं। कुछ नए उप-क्षेत्रों जैसे नवीकरणीय ऊर्जा और सामाजिक आधारभूत संरचना तथा मध्यम उद्यमों को दिए जाने वाले ऋण अब से प्राथमिक क्षेत्र ऋण माने जाएंगे। कारोबारीय प्राथमिक क्षेत्र ऋण प्रमाणपत्र (PSLC) की संकल्पना भी आरंभ की गयी है, जो ‘घाटे’ के बैंकों को अपने लक्ष्यों को पूरा करने में ‘सरप्लस’ बैंकों से इन प्रमाणपत्रों को खरीदने में मददगार होगा । कुछ उप-लक्ष्यों में पुन: समायोजन भी हुआ है जिसमें बैंकों से यह अपेक्षा की गई है कि वे चरणबद्ध रूप में छोटे तथा मझले किसानों को 8% तक ऋण देंगे तथा एमएसई के माइक्रो उद्यमों को 7.5% तक ऋण देंगे। सबसे ज़रूरतमन्द तथा सबसे अलग-थलग पड़े उधारकर्ताओं को वित्त उपलब्ध करने के अंतर्निहित उद्देश्य से इसे अपनाया गया है। इससे शुरुआत में थोड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है किन्तु मुझे विश्वास है कि उचित योजना के साथ, इन लक्ष्यों को देर-सवेर प्राप्त किया जा सकता है। vii) प्रधानमंत्री जन धन योजना तथा उससे आगे मैं प्रधानमंत्री जन धन योजना योजना की सफलता हेतु पूरी लगन एवं निष्ठा से काम करने के लिए बैंकिंग क्षेत्र को बधाई देता हूँ। आंकड़े स्वयं इसकी गवाही देते हैं। 14.5 करोड़ से अधिक खाते खोले गए। इससे प्रश्न उठता है – आगे क्या? व्यक्तिगत बचत का प्रवाह भले ही छोटा क्यों न लगे लेकिन वह प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के साथ जुड़कर इन खातों को चालू रखने में एक शुरुआती प्रोत्साहन का काम तो करेगा ही जबकि उत्पादक/आवश्यकता आधारित ऋण देना दूसरा महत्वपूर्ण कदम होगा। हम सभी का यह उत्तरदायित्व है कि हम यह सुनिश्चित करें कि इतनी बड़ी संख्या में खाते खोलने से जो अवसर मिला है, वह इन खातों के निष्क्रिय होने से व्यर्थ न होने पाए। स्वयं सहायता समूह अथवा भूमि सुधार के माध्यम से जमीन के छोटे-छोटे टुकड़ों को एक साथ लाकर किसानों की ऋण लेने की क्षमता को बढ़ाया जा सकता है। इसी प्रकार से, ग्राहकों को गैर-कृषि कार्यों को करने के लिए भी प्रशिक्षित किया जा सकता है। ऋण लेने की क्षमता को बढ़ाने के प्रयासों को वित्तीय साक्षरता तथा व्यावसायिक प्रशिक्षणों का साथ मिलना चाहिए। बेहतर वित्तीय साक्षरता से ग्राहकों में बचत की भावना पैदा होगी और निवेश की आदत बनेगी, जिसका बैंकों द्वारा छोटे बचत, निवेश तथा पेंशन उत्पाद शुरु करके लाभ उठाया जा सकता है। बैंकों के लिए अपने बैंकिंग करेस्पोंडेंट मॉडल का प्रभावी रूप से प्रबंधन करना एक बड़ी चुनौती होगा। उनकी व्यवहार्यता, गवर्नेंस, नकदी प्रबंधन तथा एक मूल शाखा से लिंकेज एवं पर्यवेक्षण से जुड़ी समस्याओं पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है। यदि सभी हिताधिकारियों के चहुंमुखी लाभ के लिए प्रधानमंत्री जन धन योजना से मिले वेग को बनाये रखना है तो समस्त वित्तीय समावेशन प्रणाली का उत्तरोत्तर विकास होना चाहिए। viii) विनियमन बनाने की प्रक्रिया का वैश्वीकरण जैसा कि मैंने थोड़ी देर पहले जिक्र किया था, कतिपय राष्ट्रीय विवेकपूर्ण निर्णयों के अधीन बैंकिंग विनियमों का लगातार वैश्वीकरण हो रहा है। मानक निर्धारित करने वाले निकायों जैसे BCBS तथा FSB के सदस्य के रूप में, हम अपने अधिकार क्षेत्र में इन विनियमनों को लागू करने के लिए प्रतिबद्ध हैं। वैश्विक मानकों के अनुपालन की जांच करने हेतु विभिन्न अधिकार क्षेत्रों द्वारा जारी किए गए विनियामक दिशानिर्देशों की समकक्ष समीक्षा की एक प्रक्रिया है, जिसका अनुपालन न करने से उक्त अधिकार क्षेत्र मानकों का अनुपालन न करने वाला बन जाएगा। जहां हम विनियम बनाने की प्रक्रिया में भाग लेते हैं तथा घरेलू अर्थव्यवस्था के वैध हितों का संरक्षण करने के लिए सुधारों का सुझाव देते हैं, वहीं बहुधा हमें बड़े फ्रेमवर्क की अपेक्षाओं का पालन भी करना पड़ता है। मैं केवल एक उदाहरण देना चाहूँगा जैसे कि बड़े एक्सपोजर का दौर, जिसके लिए नए SBL/GBL मानकों पर एक चर्चा पत्र भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा पहले ही जारी कर दिया गया है। ix) प्रौद्योगिकी तथा इसके प्रभाव मैं इस विषय पर थोड़ी बात करना चाहूँगा जो कि सरकारी बैंकों के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा उपयुक्त है, यहां मेरा तात्पर्य बैंकिंग में प्रौद्योगिकी के उपयोग से है। सभी सरकारी बैंक अब सीबीएस प्लेटफार्म पर हैं तथा उन्होंने ‘कहीं भी कभी भी’ बैंकिंग सेवा प्रदान करने की क्षमता विकसित कर ली है। कुछ बैंकों ने अपने ग्राहकों को मोबाइल पर मूल बैंकिंग कारोबारी सेवाएँ प्रदान करना भी शुरू कर दिया है, किन्तु यह तो एक छोटी सी शुरुआत है क्योंकि प्रौद्योगिकी से दूरगामी लाभ उठाया जा सकता है। सरकारी बैंकों को डाटा वेयरहाउस बनाने के लिए प्रौद्योगिकी का लाभ उठाना चाहिए तथा उसके बाद प्रौद्योगिकी की मदद से डाटा माइनिंग तथा विश्लेषण भी करना चाहिए। मांग आधारित उत्पाद तैयार करने से कारोबारी मॉडल तथा डिलीवरी चैनल विकसित करने सहित विभिन्न स्तरों पर प्रभावी निर्णय लेने हेतु डाटा का उपयोग करना इसका उद्देश्य होना चाहिए। सरकारी बैंकों को इन्टरनेट तथा बैंकिंग चैनलों के माध्यम से अपने ग्राहकों के लिए उपयुक्त उत्पाद प्रदान करने में समर्थ होना चाहिए। पारंपरिक व्यवसाय धीरे-धीरे ऑन-लाइन हो रहे हैं तथा ई-कॉमर्स अगली पीढ़ी के ग्राहकों की पहली पसंद बन चुका है। सरकारी बैंकों के समक्ष यह चुनौती है कि वे अपनी क्षमताएँ सुधारें, प्रौद्योगिकी को अपनाने से मिलनेवाले अवसरों का लाभ उठाने हेतु नई प्रौद्योगिकी पर अपने कर्मचारियों को प्रशिक्षित करें। बैंकों के लिए अच्छी बात यह है कि इस समय बैंकों में बड़े पैमाने पर नवयुवकों की भर्ती हो रही है। नई पीढ़ी का यह स्टाफ टेक-सॅवी है तथा प्रौद्योगिकी से तुरंत सामंजस्य बिठा सकता है। इनमें से जो उद्यमशील हैं उन्हें नए प्रयोग करने और सुझाव देने की छूट दी जानी चाहिए जिससे कि बैंक अपने तथा अपने ग्राहकों के लाभ के लिए अपनी प्रक्रियाओं को नया आकार दे सकें। इसके लिए वरिष्ठ/शीर्ष प्रबंधन की सोच में बदलाव आवश्यक है तथा यदि सरकारी बैंकों को भविष्य में निजी क्षेत्र के बैंकों के साथ दक्षतापूर्वक एवं प्रभावी ढंग से प्रतिस्पर्धा करनी है तो यह जरूरी भी है । x) ग्राहकों के साथ अच्छा व्यवहार करना हाल के समय में रिज़र्व बैंक के लिए बैंक ग्राहकों का संरक्षण एक प्रमुख मुद्दा रहा है। जैसा कि आपको ज्ञात है, रिज़र्व बैंक ने वैश्विक श्रेष्ठ प्रक्रियाओं के आधार पर ग्राहक अधिकारों का एक चार्टर जारी किया है। चार्टर में निम्नलिखित पाँच अधिकार शामिल हैं :
इन अधिकारों को शामिल करते हुए IBA तथा BCSBI द्वारा संयुक्त रूप से तैयार की गई एक मॉडल ग्राहक अधिकार नीति IBA द्वारा सभी बैंकों को परिचालित की गई है। इन बैंकों को यह सूचित किया गया है कि वे 31 जुलाई 2015 से पहले इस मॉडल नीति पर आधारित बोर्ड द्वारा अनुमोदित एक नीति तैयार करें। रिज़र्व बैंक अगले 12-18 महीनों के दौरान हमारी पर्यवेक्षणीय जांच के भाग के रूप में बैंकों द्वारा तैयार की गई नीतियों तथा उनके कार्यान्वयन की समीक्षा करेगा। xi) केवाईसी/एएमएल अनुपालन अब मैं एक अन्य महत्वपूर्ण मुद्दे की ओर रुख करना चाहूँगा जो कि निजी क्षेत्र के बैंकों के लिए भी समान रूप से चुनौतीपूर्ण है, वह है केवाईसी/एएमएल मानकों का अनुपालन। हाल के समय में बैंकिंग क्षेत्र के विनियामक द्वारा की गई अधिकांश प्रवर्तन कार्रवाई इन मानकों के उल्लंघन के कारण हुई है। विदेश से इनाम राशि या लॉटरी जीतने के उपलक्ष्य में अग्रिम भुगतान के रूप में कतिपय बैंक खातों में राशि जमा करने के लिए सीधे-साधे ग्राहकों से फर्जी ई-मेलों द्वारा अनुरोध किए जाने की घटनाएँ आम बात हो गई हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि पढे-लिखे शिक्षित व्यक्ति भी ऐसे अविश्वासी प्रस्तावों के झांसे में आ रहे हैं। यद्यपि वित्तीय साक्षरता का प्रसार एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, लेकिन ऐसी घटनाओं की बढ़ती संख्या को देखते हुए बैंक अपनी ज़िम्मेदारी से पीछे नहीं हट सकते। ऐसा अधिकांश धन बैंकिंग माध्यमों द्वारा से ही भेजा जा रहा है जिसका स्पष्ट मतलब है कि केवाईसी अनुपालन में खामी है। धन की तस्करी एक और आम घटना है जो यह दर्शाती है कि ग्राहकों के जोखिम वर्गीकरण तथा लेन-देन की निगरानी में कमियाँ हैं। मैं इस मुद्दे पर इसलिए जोर दे रहा हूँ क्योंकि निर्देशों का अनुपालन न करने पर विनियामक द्वारा की जाने वाली सख्त कार्रवाई/दंड की संभावना के प्रति बैंकों को सतर्क होने की आवश्यकता है। धन की तस्करी रोकने हेतु लेन-देन की नियमित निगरानी करना आवश्यक है। विगत समय में केवाईसी/एएमएल मानकों का अनुपालन न करने पर कुछ बैंकों पर पहले ही जुर्माना लगाया जा चुका है तथा FATF मानकों का अनुपालन करने की हमारी प्रतिबद्धता को देखते हुए मैं पहले से आगाह करना चाहता हूँ कि भविष्य में ऐसे जुर्मानों की बारंबारता तथा सख्ती और भी बढ़ सकती है। xii) तुलन पत्र प्रबंधन पिछले कुछ वर्षों के दौरान ऊंचे निवल लाभ दर्ज करने के झूठे प्रयास में प्रावधानों को टालने या विलंब करने की बढ़ती प्रवृत्ति हमने देखी है। संभवत: ऐसा अल्पकालीन दृष्टिकोण बैंकों के CEOs/CMDs के अल्पकालीन कार्यकाल की वजह से रहता हो। लेकिन यह समझना चाहिए कि CEOs/CMDs आएंगे और चले जाएँगे पर संस्था हमेशा बनी रहेगी। केवल एकमात्र वस्तु जो उनके अस्तित्व को बनाए रखेगी वह है एक मजबूत एवं स्वस्थ तुलन पत्र। यह समझना चाहिए कि किसी समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब उसके अस्तित्व को स्वीकार किया जाए। जो समस्याएँ एक तिमाही या छमाही से ठंडे बस्ते में पड़ी रहेंगी वे आगे चलकर और भी जटिल रूप धारण कर सकती हैं। उच्च प्रावधान करने से न केवल तुलन पत्र को मजबूती मिलेगी, बल्कि टैक्स आउट-गो तथा डिविडेंड पे-आउट पर बेहतर नियंत्रण किया जा सकेगा, इसके अतिरिक्त बैंक की वित्तीय विवरणियों पर भरोसा कायम होगा। हालांकि कम निवल लाभ एक या दो दिन के लिए सुर्खियां बटोरेगा, लेकिन यह पक्का है कि दूर की सोच रखने वाले निवेशक/विश्लेषक ऐसी अल्प अवधि वाले लाभ पर ध्यान भी नहीं देते। यदि उन्हें लगता है कि प्रबंधन तुलन पत्र में सुधार करने के बारे में गंभीर है, वे आपके स्टॉक का मूल्यांकन करना चाहेंगे, जिससे आपको लंबी अवधि के लिए लाभ होगा। अधिकतर बैंकों की पूंजी की अत्यंत आवश्यकता को देखते हुए धारित आय में क्रमिक बढ़ोतरी की जरूरत है। तुलन पत्र प्रबंधन प्रक्रिया के भाग के रूप में, बोर्ड/शीर्ष प्रबंधन को तुलन पत्रों के संभावी घटकों तथा तुलन पत्र की भावी रूपरेखा बनाने के लिए तुरंत कार्रवाई करनी होगी। तुलन पत्र प्रबंधन नीतियाँ बनाते समय पूंजी के इष्टतम उपयोग के उद्देश्य पर पूरा ध्यान दिया जाना चाहिए। xiii) जोखिम प्रबंधन बैंकिंग व्यवसाय में जोखिम से बचना असंभव है तथा इस कारण, एक सक्षम बैंक के लिए बेहतर जोखिम प्रबंधन फ्रेमवर्क अत्यंत जरूरी है। जोखिम प्रबंधन का लक्ष्य है प्रभावी रूप से जोखिम-प्रतिफल ट्रेड-ऑफ में संतुलन बनाए रखना जिसका तात्पर्य है “दिये गए जोखिम के लिए अधिकतम प्रतिफल” तथा “ दिए गए प्रतिफल के लिए न्यूनतम जोखिम।” किसी बैंक की जोखिम वहन करने की क्षमता के निर्धारण की जिम्मेदारी उसके बोर्ड तथा शीर्ष प्रबंधन के कंधों पर है। जबकि वास्तव में, हम सरकारी बैंकों द्वारा जोखिम वहन करने की क्षमता के बारे में शायद ही कोई वक्तव्य देखते हों। यदि आपने बैंक के सम्मुख आने वाले प्रत्येक प्रकार के जोखिम के लिए जोखिम सीमा तथा बैंक की समग्र जोखिम वहन करने की क्षमता निर्धारित नहीं की है तो आप जोखिम का मापन या निगरानी कैसे कर सकते है? हमें यह समझना होगा कि बैंक की सफलता के लिए जोखिम प्रबंधन बहुत ही महत्वपूर्ण है अत: शीर्ष प्रबंधन को बाज़ार के बदलते समीकरणों तथा विनियमन दिशानिर्देशों को ध्यान में रखते हुए एक प्रभावी जोखिम प्रबंधन फ्रेमवर्क लागू करने का प्रयास करना चाहिए। निष्कर्ष 5. अंत में, मैं फिर से कृष्णाराजा वाडियार का उल्लेख करना चाहूँगा जिनकी स्मृति में इस व्याख्यान का आयोजन किया गया है। महाराजा को एक कर्मयोगी, कर्मठ, दयावान तथा अपनी प्रजा के प्रति करूणा एवं सहानुभूति रखने वाले शासक के रूप में जाना जाता था। यहाँ बैठे सभी बैंकर यदि अपने रोज़मर्रा के परिचालनों में इन गुणों का समावेश कर सकें, विशेष रूप से अपने ग्राहकों से लेन-देन करते समय तो वे महाराजा की स्मृति को अमर बना सकते हैं। 6. हमने देखा कि बैंकिंग क्षेत्र के लिए ये बेहद चुनौतीपूर्ण समय है, पर जैसा कि एक कहावत है “अंधेरे में आशा की एक किरण अवश्य होती है”। बैंकिंग उद्योग में भविष्य के नेता वहीं होंगे जो इस आशा की किरण को पहले पहचान कर उसका लाभ उठाने के लिए आवश्यक उपाय करेंगे। नए बैंकों के आगमन से होने वाली प्रतिद्वंदिता तथा प्रधानमंत्री जन धन योजना के अंतर्गत खोले गए नए खातों की बड़ी संख्या दो ऐसी बातें है जो चुनौती के रूप में उभरी हैं जिन्हें संभावनाओं के रूप में बदला जा सकता है। इसके अलावा आर्थिक चक्र के अनुकूल होते ही देश की वित्तीय प्रणाली में मुख्य किरदार निभानेवाले बैंकों पर आर्थिक विकास में सहायक बनने का उत्तरदायित्व भी है। बैंकों को अपने तुलन पत्र में मजबूती लाते हुए इस उत्तरदायित्व को निभाने के लिए तैयार रहना होगा। मैं स्टेट बैंक ऑफ मैसूर के प्रबंधन को शुभकामना देते हुए अपना भाषण समाप्त करना चाहूँगा और मेरा भाषण धैर्यपूर्वक सुनने के लिए आप सभी का आभार भी व्यक्त करना चाहूंगा। * महामहिम श्री नलवाड़ी कृष्णाराजा वडियार की स्मृति में स्टेट बैंक ऑफ मैसूर द्वारा आरंभ किए गए स्मृति व्याख्यान के भाग के रूप में दिनांक 29 अप्रैल 2015 को बेंगलुरु में भारतीय रिज़र्व बैंक के उप गवर्नर, श्री एस एस मूंदड़ा द्वारा दिया गया व्याख्यान। 1 चलनिधि समायोजन अनुपात के लिए चलनिधि का लाभ उठाने हेतु सुविधा |