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शहरी सहकारी बैंक भावी सुधारों के लिए कार्यसूची *

श्री जगदीश कपूर, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक

उद्बोधन दिया

शहरी सहकारी बैंक
भावी सुधारों के लिए कार्यसूची *

चूंकि शहरी सहकारी बैंक वित्तीय प्रणाली का अटूट हिस्सा होते हैं, रिज़र्व बैंक ने इनमें कई सुधार किये हैं। हाल ही की माधव राव समिति, जिसे शहरी सहकारी बैंकों पर उच्चाधिकार प्राप्त समिति भी कहा जाता है, ने शहरी सहकारी बैंकों को लाइसेंसिंग नीति, कमजोर और गैर-लाइसेंस प्राप्त बैंकों के भावी ढांचे, पूंजी पर्याप्तता मानदंडों का अनुप्रयोग, शहरी सहकारी बैंकों के दोहरे नियंत्रण से उभरने वाले विवादों का निपटारा आदि से संबंधित कतिपय विनियामक मामलों पर गहराई से पड़ताल की है। रिज़र्व बैंक ने इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है और उन्हें लागू कर दिया है। अलबत्ता, दोहरे नियंत्रण से संबंधित मामलों में राज्य और केंद्र सरकार के अधिनियमों में विधायी परिवर्तनों की ज़रूरत होगी और इस दिशा में कोई प्रगति नहीं हो पायी है। मौजूदा दृश्यपटल की पृष्ठभूमि में शहरी सहकारी बैंकों के सुधारों के लिए भावी कार्यसूची में, मेरे विचार से निम्नलिखित चार मुद्दे आते हैं :

(क) शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र को शेष वित्तीय प्रणाली के साथ एक सीध में लाना।

(ख) कमज़ोर इकाइयों के भविष्य के बारे में निर्णय लेना

(ग) शासन व्यवस्था में सुधार लाना

(घ) दोहरे नियंत्रण से उभरनेवाले मामलों को सुलझाना

(क) शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र को शेष वित्तीय प्रणाली के साथ एक सीध में लाना

सहकारी ऋण क्षेत्र के अन्य घटकों के विपरीत शहरी सहकारी बैंक आज बहुविध बैंकिंग गतिविधियों में संलग्न हैं। उनमें से कुछेक को तो विदेशी मुद्रा व्यापार और मर्चेंट बैंकिंग गतिविधियां करने की भी अनुमति दी गयी है। हाल ही में एक विचार उभर कर सामने आ रहा है कि चूंकि शहरी सहकारी बैंक भुगतान प्रणाली के सदस्य हैं, निक्षेप बीमा योजना के हिताधिकारी हैं और उन्हें जनता की जमाराशियों तक असीमित पहुंच का लाभ मिल रहा है तो इस बात की अनिवार्य ज़रूरत है कि जिस तरह के कड़े विनियम वाणिज्यिक बैंकों पर लागू किये गये हैं, उन्हें शहरी सहकारी बैंंकों पर भी लागू किया जाये। इस तर्क से मोटे तौर पर सहमत होते हुए भी, मैं यह महसूस करता हूं कि उन पर कड़े पर्यवेक्षी तथा विनियामक निर्णय लेते समय उनके संस्थागत ढांचे, परिचालनों के आकार तथा तुलन-पत्र, कारोबार की प्रकृति, उत्पाद मिश्र और सबसे ऊपर दक्षता स्तरों को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत होगी। अतएव, विनियामक प्रभावों को कम किये बिना इस बात की ज़रूरत है कि विवेकशील निर्धारणों को उनके अनुसार ढाला जाये।

शहरी सहकारी बैंकों और वाणिज्यिक बैंकों के बीच सांस्कृतिक अंतर के होते हुए भी, रिज़र्व बैंक दोनों के लिए विनियामक समीपता लाने के लिए धीरे-धीरे प्रयास कर रहा है। शुरूआत के तौर पर 1993 में, उनके लिए एकल/समूह उधारकर्ताओं के संबंध में विवेकशील प्रकटीकरण मानदण्ड भी लागू किये गये थे। अलबत्ता, शहरी सहकारी बैंकों की असीमित पूंजी जुटाने के अधिकार की सांविधिक सीमाओं के कारण पूंजी पर्याप्तता मानदण्ड उन पर लागू करने में कुछ विलम्ब हुआ है लेकिन अब इन्हें भी 31 मार्च 2002 तक चरणबद्ध रूप में लागू किया जायेगा। जहां तक मैं देख पा रहा हूं, सुधारों के लिए भावी कार्यसूची निम्नलिखित मुद्दों के आसपास केंद्रित होनी चाहिए।

(i) आज शहरी सहकारी बैंकों के मुख्य जोखिम मात्र ऋण जोखिम नहीं हैं बल्कि ब्याज दर जोखिम हैं। अधिकांश शहरी सहकारी बैंकों की ब्याज दरें, विशेष रूप से जमाराशियों पर ब्याज दरें, शेष बैंकिंग क्षेत्र की ब्याज दरों से मेल नहीं खातीं। इस पृष्ठभूमि में जोखिम और आस्ति देयता प्रबंधन दिशानिर्देशों का महत्त्व बढ़ जाता है। रिज़र्व बैंक ने हाल ही में शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र की विशिष्टताओं को देखते हुए दिशानिर्देश तय करने के लिए एक कार्यदल गठित किया है। आशा है कि कार्यदल जल्दी ही अपनी सिफारिशें प्रस्तुत कर देगा।

(ii) चूंकि नये पूंजी पर्याप्तता ढांचे तक पहुंचने के लिए बाज़ार अनुशासन एक महत्त्वपूर्ण पर्यवेक्षी माध्यम है, शहरी सहकारी बैंकों के लिए प्रकटीकरण मानकों का निर्धारण शायद एक ऐसी ज़रूरत है जिससे बचा नहीं जा सकता। अतएव, शहरी सहकारी बैंक इस स्थिति में होने चाहिए कि वे अपने तुलनपत्र आंकड़ों से अपने स्वामित्व वाली निधियों के स्तर, हानिरहित कुल मिल्कियत, सीआरएआर, सकल निवल अनुत्पादक आस्तियां, परिचालनगत परिणाम, आरओए, प्रारक्षित निधि की अपेक्षाओं के संबंध में अनुपालन, प्रति कर्मचारी उत्पादकता आदि के संबंध में जानकारी देने की स्थिति में होने चाहिए। रिज़र्व बैंक इस मामले की तरफ ध्यान दे रहा है।

(iii) लेखा-परीक्षा प्रणालियों को मजबूत करने की बात रिज़र्व बैंक की चिंताओं में सबसे ऊपर है। यह एक ऐसा क्षेत्र है जो रिज़र्व बैंक के पर्यवेक्षी व्यवस्था में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हथियार है। रिज़र्व बैंक ने शहरी सहकारी बैंकों में प्रचलित लेखा-परीक्षा प्रणालियों में सुधार के लिए 1995 में एक विशेषज्ञ पैनल नियुक्त करके पहल की थी। पैनल ने लेखा-परीक्षा के व्यावसायीकरण, अपेक्षाकृत बड़े बैंकों के लिए अनिवार्य सहवर्ती लेखा-परीक्षा, लेखा-परीक्षा ढांचे को नये सिरे से तैयार करने आदि के संबंध में सिफारिशें की थीं। रिज़र्व बैंक ने इन सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था और राज्यों को सूचित किया था कि वे कार्रवाई शुरू करें। दुर्भाग्य से रिज़र्व बैंक द्वारा लगातार पांच वर्ष तक याद दिलाये जाने के बावजूद अधिकांश राज्य सरकारों की ओर से सकारात्मक उत्तर नहीं मिले हैं।

(iv) एक और महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है जिस पर सहकारी बैंकिंग आंदोलन के पर्यवेक्षकों का ध्यान लगा हुआ है, वह है शहरी सहकारी बैंकों की भौगोलिक सीमाओं की परिभाषा। क्या उन्हें अंतर बैंक बाज़ार में असीमित पहुंच दी जानी चाहिए? क्या उनकी पहुंच देशव्यापी होनी चाहिए? क्या उनकी पहुंच पूंजी बाज़ार तक हो सकती है?

शहरी सहकारी बैंकों को सौंपी गयी विशिष्ट भूमिका को देखते हुए गवर्नर महोदय द्वारा मौद्रिक तथा ऋण नीति पर दिये गये वक्तव्य में यह बात निर्णायक रूप से कही गयी थी कि उन्हें अंतर-बैंक बाज़ारों में असीमित पहुंच नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि इस रास्ते को अनिवार्य रूप से तभी अपनाया जाता है जब उनकी अल्पकालिक नकदी के बेमेल को पूरा करना हो, न कि उनके दीर्घकालिक आस्तियों के निधियन के लिए अल्पकालिक निधियां जुटाने के लिए। उनकी अत्यंत चंचल प्रकृति के कारण न तो पूंजी बाज़ार और न ही उसके उपकरण ही शहरी सहकारी बैंकों के लिए निवेश के रास्ते हो सकते हैं। शहरी सहकारी बैंक मूलत: छोटे जमाकर्ताओं के प्रतिनिधि हैं। जहां तक उनके परिचालनों के क्षेत्र का प्रश्न है, हमने हाल ही में केवल ऐसे शहरी सहकारी बैंकों को अपने क्षेत्राधिकार के राज्य के बाहर जाने देने की अनुमति देने का निर्णय लिया है जिनकी स्वयं की निधि 50 करोड़ रुपये हैं।

(v) क्या शहरी सहकारी बैंकों को भुगतान प्रणाली की सदस्यता बिना किसी शर्त के होनी चाहिए? यह मामला माधवपुरा मर्वेंटाइल को-आपरेटिव बैंक के संकट को देखते हुए सामने आ खड़ा हुआ है। वाणिज्यिक बैंकों के संबंध में, भुगतान संकट की स्थिति में, एसएलआर प्रतिभूतियों के अलावा सीआरआर शेष भी उपलब्ध होंगे, लेकिन शहरी सहकारी बैंकों के मामले में ज़रूरी नहीं कि उनके एसएलआर निवेश पूरी तरह से सरकारी प्रतिभूतियों में ही हों और गैर-अनुसूचित बैंकों के मामले में रिज़र्व बैंक के पास सीआरआर शेष राशियां रखना अनिवार्य नहीं होता। क्या कोई ऐसी प्रणाली विकसित की जा सकती है जिसके द्वारा कतिपय सरकारी प्रतिभूतियां रख कर नकदी संकट के आ खड़े होने की स्थिति में भुगतान दायित्वों को पूरा करने के लिए समाशोधन गृहों के पास अनिवार्य नकदी जमाराशियां रख कर सहकारी बैंकों के भुगतान संकटों को टालने के लिए एक सुरक्षा कवच (फायर वाल) खड़ा किया जा सके। क्या इस तरह की कोई कार्रवाई शहरी सहकारी बैंकों के खाली खज़ानों को और अधिक खाली करेगी? या इस तरह की जमाराशियां एसएलआर निधियों का हिस्सा बनेंगी? इन मामलों की पड़ताल के लिए गहराई से सोचने की ज़रूरत है।

ये ऐसे मामले हैं जिन पर नीतिगत निर्णय लेने से पहले सुविचारित विचार-विमर्श किये जाने की ज़रूरत है।

(ख) कमज़ोर बैंकों का भावी ढांचा

कमज़ोर बैंकों की संख्या ही सबसे बड़ी चिंता का कारण है। यह संख्या 200 से भी अधिक है। अधिकांश मामलों में तो बैंकों के लाइसेंस पहले ही रद्द किये जा चुके हैं और बैंक बंद हो चुके हैं। इस प्रक्रिया को बहुत सावधानीपूर्वक किया जाता है ताकि समाज में किसी तरह की अफरा तफरी न मच जाये। बंद करने का फैसला तभी लिया जाता है जब बाकी सारे विकल्प बंद हो चुके हों। पूंजी का स्तर, हानियों का इतिहास, तथा अनुत्पादक आस्तियों का आकार कुछेक ऐसे मुद्दे हैं जिनके आधार पर बैंक के बंद करने के संबंध में निर्णय आधारित होता है। इस तरह का कोई भी निर्णय लेने से पहले पुनर्वास की संभावनाओं की अनिवार्य रूप से पड़ताल की जाती है। पुनर्वास के अंतर्गत निम्नलिखित रणनीतियां अपनायी जा सकती हैं।

(i) पंजीयक, सहकारी अदालतों को निदेश दें कि वे वसूली प्रक्रिया में तथा डिक्रियों के निपटान में तेजी लायें।

(ii) हानि दे रही शाखाओं की या तो जगह बदली जाये या उन्हें बंद कर दिया जाये।

(iii) ऐसे विकल्पों का पता लगाया जाये कि बैंक को अतिरिक्त पूंजी मिल सके।

(iv) किसी सुव्यवस्थित बैंक के साथ उसका विलयन। अलबत्ता, जबरन विलय को हर हालत में टाला जाये।

(ग) शासन व्यवस्था में सुधार

यह अत्यंत ज़रूरी है कि कोई ऐसा तंत्र मौजूद हो जिससे आंतरिक व्यवस्था की कारगर प्रणाली सुनिश्चित की जा सके। मुख्य कार्यपालक, स्वच्छ छवि वाला कोई व्यक्ति होना चाहिए जो व्यावसायिक नज़रिया प्रदर्शित कर सके। बोड़ में ऐसे जानकार व्यक्तियों का समावेश होना चाहिए जो बोड़ के सदस्य के रूप में अपने उत्तरदायित्वों के प्रति जागरूक हों। बोड़ के स्तर की एक समिति भी होनी चाहिए जो लेखा-परीक्षा तथा निरीक्षण दलों के निष्कर्षों पर ध्यान केंद्रित करें और उनका अनुपालन सुनिश्चित करे। समिति रिज़र्व बैंक और साथ ही साथ राज्य सरकारों द्वारा जारी विभिन्न विनियामक अनुदेशों का अनुपालन भी सुनिश्चित करे। अंतत: यह बोड़ का उत्तरदायित्व होगा कि शासन व्यवस्था संबंधी सभी विवेकशील मानदंडों का बैंक द्वारा पालन किया जाता है।

(घ) दोहरे नियंत्रण का संकट

शहरी सहकारी बैंकों पर दोहरे नियंत्रण का मामला सहकारी क्षेत्रों में संभवत: सर्वाधिक तूल पकड़ता जा रहा है। विद्वानों, सहकारिता के क्षेत्र के लोगों तथा बैंकरों ने माधव राव समिति के समक्ष खुले तौर पर प्रतिवेदन किये कि शहरी सहकारी बैंकों पर से दोहरा नियंत्रण समाप्त होना ही चाहिए और यह दोहरा नियंत्रण उनके प्रगति की राह में रोड़े अटका रहा है। नरसिम्हम समिति II ने भी इस बात की जोरदार सिफारिश की थी कि शहरी सहकारी बैंंकों पर से दोहरे नियंत्रण को हटाया ही जाना चाहिए। क्या दोहरा नियंत्रण ही शहरी सहकारी बैंकों की सारी बीमारियों की जड़ है? क्या यह उन पर कारगर पर्यवेक्षण करने में बाधाएं खड़ी कर रहा है? सहकारी ढांचे के विनियमन से काफी अरसे से बहुत निकटता से जुड़े रहने के कारण मैं वास्तव में माधव राव समिति की सिफारिश से सहमत होने के लिए तैयार हूं। समिति ने ठीक ही टिप्पणी की है, "अन्य बातों के साथ-साथ दोहरे नियंत्रण की व्यवस्था शहरी बैंकिंग आंदोलन की वृद्धि के रास्ते में आड़े नहीं आनी चाहिए। अगर कोई चीज रुकावट बन रही है तो वह है रिज़र्व बैंंक तथा राज्य सरकार के कार्यों के बीच साफ-साफ विभाजन। यही मुद्दा शहरी सहकारी बैंकों के सुचारु रूप से कार्य करने में बाधाएं खड़ी कर रहा है।" दोहरे नियंत्रण की व्यवस्था के कारण सामने आनेवाले अधिकतर मामले रिज़र्व बैंक तथा राज्य सरकारों के क्षेत्राधिकारों के दोहराव (ओवरलैपिंग) के कारण हैं। इसीलिए इसने सिफारिश की थी कि बैंकिंग से संबंधित कार्यों और ऐसे कार्यों में, जिनमें केवल राज्य सरकारों को कार्रवाई करने की जरूरत है, स्पष्ट विभाजन होना चाहिए। रिज़र्व बैंक ने समिति की सिफारिशों को अपनी सहमति दे दी है और राज्य सरकारों से आग्रह कर रहा है कि वे विधायी आशोधन लागू करें। नियंत्रण में दोहराव से कारगर पर्यवेक्षण में जरूर बाधा पड़ती है। जहां तक वाणिज्यिक बैंकों का प्रश्न है, रिज़र्व बैंक के पास वाणिज्यिक बैंकों के कार्यव्यापार के नाजुक पहलुओं से निपटने के लिए बैंकिंग विनियमन अधिनियम के अधीन साधन हैं। अलबत्ता, सहकारी बैंकों के मामले में, कई ऐसे क्षेत्र जो प्रत्यक्ष ही उनके पर्यवेक्षण से संबंध रखते हैं, रिज़र्व बैंक के प्राधिकार के दायरे से बाहर रखे गये हैं। इससे कई बार सांप और छछूंदर वाली स्थिति सामने आ जाती है। इस बात को नीचे बताये गये कुछ उदाहरणों से समझा जा सकता है :

i) रिज़र्व बैंक के पास ऐसा कोई प्राधिकार नहीं है कि वह सहकारी बैंकों के बेईमान प्रबंधतंत्र से निबट सके। इसके लिए सहकारी समितियों के रजिस्ट्रार के दखल की जरूरत पड़ती है।

ii) अतिरिक्त संसाधनों में ही निवेश करना एक ऐसा मामला है जो पूरी तरह से बैंकिंग कार्य है और यह रिज़र्व बैंक के दिशानिर्देशों के अधीन सहकारी बैंकों की निर्णय लेने की शक्ति के अधीन होना चाहिए लेकिन इसके लिए रजिस्ट्रार के अनुमोदन की ज़रूरत पड़ती है।

iii) इसी तरह, गैर-वसूली योग्य ऋणों को बट्टे खाते में डालने के लिए भी रजिस्ट्रार की अनुमति की ज़रूरत पड़ती है।

iv) एक ऐसी घटना हुई कि रिज़र्व बैंक द्वारा किये गये अनुरोध पर रजिस्ट्रार ने एक सहकारी बैंक के निदेशक मंडल को अधिक्रमित (सुपरसीड) किया। लेकिन बाद में राज्य सरकार ने अपनी विद्वता का परिचय देते हुए रजिस्ट्रार के आदेशों को निरस्त कर दिया और निदेशक मंडल को फिर से ला बिठाया। यह विचित्र किंतु सत्य है।

v) किसी बैंक का लाइसेंस रद्द हो जाने की स्थिति में उसे यह अधिकार होता है कि वह राज्य सरकार के समक्ष अपील करे। रिज़र्व बैंक को अपीलिय प्राधिकरण के समक्ष उपस्थित रहने की ज़रूरत होती है। अक्सर रिज़र्व बैंक को अपने निर्णय की समीक्षा करने के लिए कहा जाता है। अलबत्ता, यह एक संतोष की बात है कि रिज़र्व बैंक के निर्णयों को सरकार द्वारा समर्थन दिया जाता है और किसी भी मामले में रिज़र्व बैंक के निर्णय को काटा नहीं जाता। इसके बावजूद उसे पूरी प्रक्रिया से गुजरना तो पड़ता ही है।

दोहरे नियंत्रण वाले मसलों को सुलझाने के तीन तरीके हैं :

(क) एक नज़रिया तो यह हो सकता है कि सहकारिता के विषय को सहवर्ती सूची में ले आया जाये ताकि केंद्र सरकार, सहकारी बैंंकिंग से संबंधित मामलों में विधि संबंधी कार्रवाई कर सके। इस तरह के किसी भी प्रयास के लिए संविधान में आशोधन की ज़रूरत पड़ेगी।

(ख) इस मामले से निपटने का दूसरा तरीका यह हो सकता है कि राज्य सरकारें क्रमिक रूप से विधि कार्रवाइयों का अधिनियमन करें और उसके द्वारा रजिस्ट्रारों के कार्य केवल पंजीकरण करने तथा उपनियम स्वीकार करने तक सीमित कर दें। इसका परिणाम यह होगा कि शहरी सहकारी बैंकों पर दोहरा नियंत्रण अपने आप खत्म हो जायेगा। हालांकि आंध्र प्रदेश और कर्नाटक सरकारों द्वारा इस दिशा में शुरूआत की जा चुकी है,बहुत-से राज्यों द्वारा इसका अनुपालन किया जाना है। आंध्र-प्रदेश और कर्नाटव में भी मौजूदा बैंकों की स्थिति में तब तक कोई परिवर्तन नहीं आयेगा जब तक उन्हें नये कानूनों के अंतर्गत पंजीकृत न किया जाये। जब तक सभी राज्यों द्वारा एकसमान पहल न की जाये, तब तक दोहरी नियंत्रण व्यवस्था से होनेवाली परेशानियों को दूर करना मुश्किल होगा।

(ग) एक और नज़रिया यह हो सकता है कि राज्य अधिनियमों में राज्य सरकारों तथा रिॅज़र्व बैंक की विनियामक भूमिकाएं अलग-अलग तय कर दी जायें। माधव राव समिति ने ऐसा ही सुझाव दिया है। मैं काफी हद तक इस तरह के नज़रिये के पक्ष में हूं क्योंकि दोहरे नियंत्रण के मामले को सुलझाने का यही सबसे अच्छा तरीका प्रतीत होता है। ऐसे भी सुझाव मिले हैं कि बैंंकिंग विनियमन अधिनियम, जो कि केंद्र की संविधि है, में इस तरीके से आशोधन किये जायें कि इनसे रिज़र्व बैंक को कुछ ऐसी शक्तियां मिल जायें जो फिलहाल संबंधित राज्य सहकारी समितियां अधिनियम के अंतर्गत राज्य सरकारों को प्राप्त हैं। अलबत्ता, रिज़र्व बैंक को दी गयी कानूनी सलाह इसका समर्थन नहीं करतीं।

यहां मैं इस बात को स्पष्ट करना चाहूंगा कि हालांकि रिज़र्व बैंक दोहरा नियंत्रण खत्म करने के पक्ष में है, जहां तक माधवपुरा प्रसंग का प्रश्न है, इसकी समस्या का तत्काल कारण दोहरे नियंत्रण की मौजूदा व्यवस्था से तो नहीं ही उपजा था। माधवपुरा के मामले में जो कुछ भी हुआ, इसका साफ-साफ कारण यह था कि विवेकशील बैंकिंग व्यवहारों का पालन करने में चूक हुई।

एक अलग पर्यवेक्षी ढांचा

एक संस्था के रूप में, सहकारी बैंकों ने अपने लिए खास जगह बनायी है और अपने अपने क्षेत्र में काफी अच्छा काम कर रहे हैं। उनके पक्ष में जो सबसे अच्छी बात जाती है वह यह है कि ग्राहकों की उन तक आसानी से पहुंच है। अलबत्ता, अब चूंकि उनकी संख्या बहुत ज्यादा है, इससे पर्यवेक्षी और निगरानी प्रणाली पर बहुत अधिक बोझ पड़ता है। अधिकतर बैंक लो प्रोफाइल पर काम करते हैं और बहुत ज्यादा तड़क भड़क के बिना अपने काम से काम रखते हैं। रिज़र्व बैंक आम तौर पर दो वर्ष में एक बार उनका निरीक्षण करता है। हां, तब की बात अलग है जब किसी पर्यवेक्षी चिंता का मामला हो। ऐसी स्थिति में निरीक्षण की आवधिकता (फ्रिक्वेंसी) बढ़ा दी जाती है। अलबत्ता, यह प्रश्न उठाया जा सकता है कि अगर वाणिज्यिक बैंकों की तर्ज पर हमारे निरीक्षण वार्षिक आधार पर होते तो माधवपुरा कांड न हो पाता तो मेरा विनम्र अनुरोध है कि माधवपुरा कांड का निरीक्षण की फ्रिक्वेंसी से कुछ ज्यादा लेना-देना नहीं था। इसका कारण यह है कि बैंक के प्रबंधतंत्र के लिए यह हमेशा संभव होता है कि वे दो निरीक्षणों के बीच की अवधि में किन्हीं भी आपत्तिजनक गतिविधियों में अपने आपको लिप्त कर लें। इस बात को स्वीकार करने की ज़रूरत है कि बैंकों के दिन प्रतिदिन के कार्यव्यापार पर निगरानी रखना रिज़र्व बैंक के लिए संभव नहीं है।

हाल ही में रिज़र्व बैंक ने शहरी सहकारी बैंकों के निरीक्षण के लिए विचार किया है कि इस कार्य को एक स्वतंत्र शीर्षस्थ प्राधिकरण को सौंप दिया जाये। इसका कारण यह है कि इनकी संख्या 2000 से भी अधिक है और ये भारत भर में फैले हुए हैं। इनकी संख्या के इतने अधिक फैलाव और इनके भौगोलिक विस्तार और साथ ही साथ इन बैंकों को आमतौर पर उपलब्ध व्यावसायिक बोध से ही इस बात की ज़रूरत का पता चलता है कि इनके अधिक ध्यानपूर्वक पर्यवेक्षण के लिए एक अलग एजेंसी की ज़रूरत है। इस संबंध में जिन मुद्दों पर ध्यान दिये जाने की ज़रूरत होगी वे हैं - उस निकाय की हैसियत, ढांचा और प्रबंधन, रिज़र्व बैंक के साथ उसका संबंध, उसके संसाधन, स्टाफिंग तथा लोकेशन। इस बारे में अभी तक कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है, क्योंकि अभी प्रस्ताव को परामर्शी प्रक्रियाओं से गुजरना है।

निष्कर्ष स्वरूप टिप्पणियां

शहरी सहकारी बैंकिंग क्षेत्र भारतीय वित्तीय प्रणाली में एक अनिवार्य स्थान प्राप्त कर चुका है। अलबत्ता, इसकी वृद्धि को बनाये रखना, इसके प्रबंधतंत्र के व्यावसायीकरण, जिसमें बेहतरीन निगम व्यवस्था, प्रौद्योगिकी को अपनाना तथा विनियामक ढांचे का कड़ाई से पालन करना शामिल है, निर्भर करता है। मैं विश्वास करता हूं कि यह क्षेत्र अपने अतीत के अनुभवों से सीखेगा और यह देखते हुए कि बैंंकिंग एक जोखिम भरा कारोबार है, अपने आपको नयी वास्तविकताओं के अनुरूप ढालेगा।


*श्री जगदीश कपूर, उप गवर्नर, भारतीय रिज़र्व बैंक द्वारा नई दिल्ली में फिक्की द्वारा 10 मई 2001 को आयोजित शहरी सहकारी बैंक: भावी सुधार पर सेमिनार में दिया गया मुख्य भाषण।

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