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A Brief History of Public Debt in India

18वीं शताब्दी की ओर, भारतीय रियासतों की उधारी आवश्यकताएं देशी बैंकरों व फाइनैंसियर्स द्वारा पूरी की जाती थीं। भारत में लोक से उधार लेने की अवधारणा की शुरुआत ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अपने दक्षिण भारतीय अभियानों (एंग्लो फ्रेंच युद्धों) के वित्तपोषण के लिए हुई। कालांतर में, सरकार के पास जनता का उधार लोक ऋण के रूप में जाना गया। अपने से जितना हो सकता था, उससे अधिक संतोषजनक शर्तों पर बैंकों से मीयादी व अल्पावधि वित्तीय निभाव (एकोमोडेशन) की उगाही का 18वीं शताब्दि के अंत की ओर कंपनी द्वारा सरकारी बैंकों की स्थापना में कम योगदान नहीं था। ऋण प्रबंधन सरकारी बैंक (केंद्रीय बैंक पढ़ें) स्थापित करने का एक बड़ा प्रोत्साहन बना।

लोक ऋण की उगाही सरकार के राजस्व घाटों (सरकार की आय और सरकार चलाने में खर्च किए गए पैसे का अंतर) को पूरा करने अथवा लोक कार्यों (पूँजी निर्माण) के लिए की जाती है। रेलवे निर्माण और सिंचाई नहर जैसे लोक कार्यों के लिए उधार का कार्य पहले पहल 1867 में हुआ। प्रथम विश्व युद्ध में युद्ध की लागत के लिए ब्रिटिश कोषागार में भारत के योगदान के कारण भारत का लोक ऋण बढ़ा। ब्रिटिश भारत के प्रांतों (प्रॉविन्स) को पहली बार ऋण जारी करने की अनुमति दिसंबर 1920 में मिली जब गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया ऐक्ट, 1919 की धारा 30 (ए) के तहत स्थानीय सरकार उधारी नियम जारी किए गए। प्रान्तीय स्वायत्तता की शुरुआत के पूर्व, केवल तीन प्रांतों यथा बॉम्बे, यूनाइटेड प्रॉविन्सेज़ और पंजाब ने इस अनुमति का उपयोग किया। 1913 तक लोक ऋण का प्रबंधन प्रेसिडेंसी बैंकों तथा भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक ने किया और उसके बाद मुद्रा नियंत्रक (कंट्रोलर ऑफ़ करेंसी) ने 1935 तक यह कार्य देखा जब रिज़र्व बैंक ने कार्य शुरू किया।

समय के साथ ब्याज दर बदलते रहे और 1857 के विद्रोह के बाद क्रमश: लगभग 5% और बाद में 1871 में 4% तक आ गए। 1894 में प्रसिद्ध 3 1/2 % कागज बना जो लगभग 50 वर्षों तक अस्तित्व में रहा। जब 1935 में रिज़र्व बैंक ने मुद्रा नियंत्रक से लोक ऋण प्रबंधन का कार्य अपने हाथ में लिया, केंद्र सरकार का कुल निधिक कर्ज 950 करोड़ रुपए का था जिसमें 54% स्टर्लिंग ऋण और 46% रुपया ऋण का था तथा प्रांतों का 18 करोड़ रु. था।

मोटे तौर पर भारत में लोक ऋण को निम्नलिखित चरणो में बाँटा जा सकता है।

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  • 1867 तक
    जब लोक ऋण मुख्यत: वित्तपोषण (फाइनैसिंग) अभियानों की जरूरतों से संचालित था।
  • 1867-1916
    जब रेलवे व नहरों और ऐसे अन्य उद्देश्यों के लिए लोक ऋण उगाहा गया।
  • 1917-1940
    जब मुख्यत: के आधार पर लोक ऋण काफ़ी बढ़ गया।
  • 1940-1946
    जब युद्ध जनित मुद्रा स्फीति के कारण चालू युद्ध कालीन आय को ज्यादा से ज्यादा समेट लेने की कोशिश हुई।
  • 1947-1951
    युद्ध के बाद व्यवस्था क्रम भंग का समय था और अर्थव्यवस्था अस्तव्यस्त थी। वार्षिक बजट में जिसके लिए क्रेडिट लिया गया था उन उधारी अनुमानों को भारत सरकार हासिल नहीं कर पाई।
  • 1951-1985
    जब उधारी पंच वर्षीय योजनाओं से प्रभावित हुई।
  • 1985-1991
    जब चक्रवर्ती समिति रिपोर्ट के सुझावों पर सरकारी प्रतिभूतियों की ब्याज दरों को बाजार ब्याज दरों से मिलाने का प्रयास हुआ।
  • 1991 से अब तक
    जब व्यापक सरकारी प्रतिभूति बाजार सुधार प्रारंभ हुए एवं एक सक्रिय ऋण प्रबंधन नीति लागू की गई। तदर्थ खजाना बिल समाप्त किए गए; नीलामी प्रक्रिया के जरिये प्रतिभूतियों की बिक्री शुरू हुई; जीरो कूपन बॉण्ड, फ्लोटिंग रेट बॉण्ड और पूंजी सूचकांकित बॉण्ड जैसे नए लिखतों की शुरुआत हुई; भारतीय प्रतिभूति व्यापार निगम की स्थापना हुई; सरकारी प्रतिभूतियों में प्राथमिक व्यापारी प्रणाली लागू हुई; परिपक्वता के दायरे को विस्तार दिया गया, सुपुर्दगी बनाम भुगतान की शुरुआत हुई; मानक मूल्यांकन मानक निर्धारित हुए; और बाजार प्रक्रियाओं द्वारा कार्यों में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के प्रयास किए गए, सूचनाओं का प्रसार और द्वितीयक बाजार को गति देने के प्रयास किए गए जिससे बाजार को व्यापकता व गहराई देकर सक्षम बनाया जा सके।

A Brief History of Public Debt in India 2

अनुमान है कि मार्च 2003 के अंत में केंद्र व राज्य सरकारों की संयुक्त बकाया देयताएं 18 ट्रिलियन हैं जो कि देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 75 प्रतिशत से अधिक है। भारत और विश्व भर में सरकारी बॉण्डों ने संसाधन जुटाने के लिए समय समय पर न केवल नवोन्मेषी पद्धतियां अपनाई हैं (भारत में 1940 के दशकों व 1950 के उत्तरार्ध में में जारी प्राइज बॉण्डों जैसी बाजी संविदा को वैध कर देना) अपितु विभिन्न नवोन्मेषी योजनाओं के लिए भी प्रयुक्त हुए हें जैसे विकास के लिए वित्त; जमींदारी प्रथा उन्मूलन जैसा सामाजिक सुधार; पर्यावरण की रक्षा; अथवा स्वर्ण (1993 में जारी स्वर्ण बॉण्ड) से लोगों को दूर करने के लिए।

सामान्यत: देश में सर्वोत्तम जोखिम सरकारी को माना जाता है और सरकारी प्रतिभूती अन्य जारीकर्ता इकाइयों की तत्संबंधी परिपक्वता पर ब्याज दरों के लिए मानक तय करती है। सैद्धांतिक रूप से, सरकार जो दे रही है, दूसरे, बाजार की जोखिम अवधारणा के अनुसार, उससे अधिक रेट पर उधार ले सकते हें। अत: एक सुविकसित सरकारी प्रतिभूति बाजार संसाधनों के कुशल आबंटन में सहायक होता है। देश का ऋण बाजार, काफ़ी हद तक सरकारी बॉण्ड मार्केट की गहराई पर निर्भर करता है। इसी संदर्भ में, सरकारी प्रतिभूति बाजार को व्यापकता व गहराई देकर सक्षम बनाने के हालिया कदम उठाए गए हैं।

भारत सरकार द्वारा जारी प्रीमियम प्राइज बॉण्ड
प्रीमियम प्राइज बॉण्डों का उद्घाटन करते वित्त मंत्री
बिहार जमींदारी उन्मूलन क्षतिपूर्ति बॉण्ड सामाजिक सुधार हेतु सरकारी बॉण्डों के उपयोग को दर्शाते हैं।

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