द करेंसी म्यूजियम, मुंबई - एक्सप्लोर द कलेक्शन पेज - एन्शिएंट इंडिया कोइनेज - आरबीआई - Reserve Bank of India
प्राचीन भारत के सिक्के
आहत सिक्के
मोहनजोदड़ो और हड़प्पा की सिंधु घाटी सभ्यता 2500 ई. और 1750 ई. के बीच की है। तथापि स्थलों की खुदाई में प्राप्त सील (मुहर) क्या वास्तव में सिक्के ही थे, इस बात पर अभी तक सहमति नहीं बन पाई है।
मोहनजोदड़ो की मुहरे
ऐसा माना जाता है कि प्रथम प्रलेखित सिक्कों, जिनमें आहत सिक्के सम्मिलित थे, का जारी किया जाना ई.पू. सातवीं और छठीं शताब्दी के बीच और प्रथम शताब्दी ई. में प्रारंभ हुआइन सिक्कों को उनकी निर्माण तकनीक के कारण आहत सिक्का के नाम से जाना जाता हैइनमें से ज्यादातर सिक्के चांदी के बने होते थे तथा उन पर प्रतीक अंकित होते थे। सिक्के पर प्रत्येक प्रतीक अलग से आहत किया जाता था।
चांदी के आहत सिक्के
ये सिक्के प्रारंभ में व्यापारी संघों और बाद में राज्यों के द्वारा जारी किए जाने लगे। ये सिक्के उस अवधि से संबंधित व्यापारिक करेंसी को प्रदर्शित करते हैं जब व्यापारिक गतिविधियां तथा शहरी विकास शिखर पर थे। इस अवधि को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है- प्रथम अवधि (जनपद और छोटे राज्यों से संबंधित) और द्वितीय अवधि (साम्राज्यकीय मौर्यकाल से संबंधित ) । इन सिक्कों पर अंकित अवधारणाएं (मोटिफ) अधिकतर प्रकृति अर्थात सूर्य, विभिन्न जानवरों, वृक्षों, पहाड़ों इत्यादि से ग्रहण की गई हैं और कुछ अवधारणाएं ज्यामितीय प्रतीकों से प्राप्त हुई हैं
सात प्रतीक
पांच प्रतीक
पांच प्रतीक
आहत सिक्कों पर उभरे प्रातिनिधिक प्रतीक
साम्राज्यकीय आहत सिक्के
मौर्यकालीन कला का रूप
राजवंशीय सिक्के
राजवंशीय सिक्कों के निर्गम की तारीखें निर्दिष्ट करना विवादास्पद है। इन सिक्कों में से प्रारंभिक सिक्कों का संबंध इंडो-ग्रीक, शक - पहलवी और कुषाणों से रहा है। इन सिक्कों को आम तौर पर ई.पू.द्वितीय शताब्दी और द्वितीय ईसा (ई.) के बीच चलाया गया। यूनानी परंपरा में इंडो-ग्रीक चांदी के सिक्कों पर ग्रीक देवी और देवताओं के चित्रों को प्रमुखता से अंकित करने के साथ-साथ निर्गमकर्ता के पोर्ट्रेट भी उन पर अंकित किए जाते थे। ग्रीक कृतियों के साथ जारी ये सिक्के ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इंडो-ग्रीक इतिहास की पुनर्रचना लगभग संपूर्णतया इन्हीं प्रमाणों पर आधारित है। पश्चिमी क्षत्रपों के शक काल के सिक्के संभवतः सर्वप्रथम दिनांकित सिक्के रहे हैं। इन सिक्कों पर शक संवत में तारीखें लिखी गई हैं, जिनका प्रारंभ 78 ई. में हुआ था। शक संवत भारतीय गणतंत्र के आधिकारिक कैलेंडर का प्रतिनिधित्व करता है।
इंडो-ग्रीक सिक्के
पूर्व काल के कुषाण सिक्कों को आमतौर पर विमा कडफिसेज से जुड़ा हुआ माना जाता है। कुषाण कालीन सिक्के आम तौर पर ग्रीक, मेसोपोटामिया, जोराष्ट्रयिन और भारतीय माइथोलोजी से ग्रहण किए गए आइकोनोग्राफिक रूपों को प्रदर्शित करता है। शिव, बुद्ध और कार्तिकेय की छवियां प्रमुखतापूर्वक इन सिक्कों पर प्रदर्शित की गई हैं। कुषाण स्वर्ण सिक्कों ने बाद के निर्गमों, मुख्य रूप से गुप्तकाल के निर्गमों को प्रभावित किया।
कुषाण
पूर्व काल के कुषाण सिक्कों को आमतौर पर विमा कडफिसेज से जुड़ा हुआ माना जाता है। कुषाण कालीन सिक्के आम तौर पर ग्रीक, मेसोपोटामिया, जोराष्ट्रयिन और भारतीय माइथोलोजी से ग्रहण किए गए आइकोनोग्राफिक रूपों को प्रदर्शित करता है। शिव, बुद्ध और कार्तिकेय की छवियां प्रमुखतापूर्वक इन सिक्कों पर प्रदर्शित की गई हैं। कुषाण स्वर्ण सिक्कों ने बाद के निर्गमों, मुख्य रूप से गुप्तकाल के निर्गमों को प्रभावित किया।
कुषाणों के सिक्के
कुषाण कला का रूप, कनिष्क का बुत, मथुरा संग्रहालय
सतवाहन
गोदावरी और कृष्णा नदियों के बीच के भू-भाग पर सर्वप्रथम सतवाहन का राज्य था। उन्हें आंध्र भी कहा जाता था। शीघ्र ही उन्होंने परि मी दक्खन और मध्य भारत को अपने नियंत्रण में ले लिया। उनके राज करने की तारीखों पर अभी भी एकमत नहीं हो सका है, तथापि ई.पू. 270 और ई.पू. 30 के बीच इनका शासन माना जाता है। उनके सिक्के मुख्यतया ताम्र और पारद निर्मित थे। इसके अतिरिक्त चांदी के सिक्के भी जारी किए गए थे। इन सिक्कों पर हाथी, सिंह,सांड़ और घोड़ों इत्यादि जानवरों की आकृतियां पायी जाती हैं, बल्कि कई बार प्रकृति के प्रतीकों से-पहाड़ों, वृक्षों इत्यादि की और इनकी आकृति आमने-सामने होती थीसतवाहन के चांदी के सिक्कों पर चित्र और द्विभाषी उक्तियां उकेरी होती थीं जो क्षत्रप प्रकार से अभिप्रेरित थी।
सतवाहन के सिक्के
पश्चिमी क्षत्रप
पश्चिमी क्षत्रप शब्द उन राजाओं के समूह का द्योतक है जिन्होंने प्रथम और चतुर्थ शताब्दी ई.राज किया था। सिक्कों पर उकेरी गई उक्तियां आम तौर पर ग्रीक और ब्राह्मी लिपि में हैं। खरोष्टी का भी प्रयोग किया गया है। पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्कों को प्रथम दिनांकित सिक्के भी माना जाता है। आम प्रचलन में रहनेवाले ताम्र सिक्के सांड़ और पहाड़' तथा 'हाथी और पहाड़' की चित्रकारी वाले होते थे।
पश्चिमी क्षत्रपों के सिक्के
रुद्रसिंह I, 180-196 ई.
वीरदमन, 234-238 ई.
अन्य सिक्के
मौर्यवंश के ढहने और गुप्तवंश का उदय होने के अन्तराल में पंजाब के कई जन-तीय गणतंत्र और इंडो-गांगेय मैदानी इलाकों के राजाओं के द्वारा सिक्के ारी किए गए। ज्यादातर सिक्के तांबे के जारी किए गए । यौधेय के सिक्कों पर कुषाणों द्वारा जारी सिक्कों की डिजाइन और अवधारणा का प्रभाव है। इन सिक्कों के मानदंड में इंडो- बैक्ट्रियन के राजाओं का अनुसरण किया ाता था
यौधेय के सिक्के
गुप्तवंश
गुप्तवंश के सिक्कों (4-6 शताब्दी ई.) में भी कुषाणों की परंपरा की झलक मिलती है, जिसमें मुख भाग पर राजा का चित्र अंकित है और पृष्ठ भाग पर किसी देवी या देवता का चित्र अंकित है; देवी या देवता का चित्र भारतीय होता था तथा लिपि ब्राह्मी होती थीगुप्तवंश के प्रारंभिक सिक्कों के प्रचलन का श्रेय समुद्रगुप्त, चंद्रगुप्त II और कुमारगुप्त को ता है। ये सिक्के आमतौर पर राजवंश के उत्तराधिकारी की स्मृति में और साथ ही महत्वपूर्ण घटनाओं जैसे - वैवाहिक समारोह, अश्व बलिदान इत्यादि (रा-रानी प्रकार के चंद्रगुप्त I के सिक्के, अश्वमेध प्रकार, इत्यादि) सामाजिक-राजनीतिक अथवा ऐसे ही विषयों पर राजकुल के सदस्यों (संगीतकार, धनुर्धर, सिंह-वधिक इत्यादि) की कलात्मक और वैयक्तिक उपलब्धियों पर जारी किए जाते थे।
गुप्त राजाओं के सिक्के
घुड़सवारी की मुद्रा में राजा
सिंह वधिक की मुद्रा में राजा
राजा और रानी प्रकार
पंख फैलाए हुए मोर
गुप्तवंश के बाद के सिक्के
गुप्तवंश के बाद के सिक्कों (छठवीं और बारहवीं शताब्दी ई.) में राजवंशों के एक ही प्रकार के और कम सौंदर्य बोधवाले सिक्के हैं, जिनमें हर्ष (सातवीं शताब्दी ई., कलाचुरी त्रिपुरी - ग्यारहवीं शताब्दी ई.) और आरंभिक मध्ययुगीन राजपूत राजाओं (नवीं और बारहवीं शताब्दी ई.) की शृंखलाएं सम्मिलित हैं। इस अवधि में स्वर्ण सिक्के यदा-कदा ही जारी हुए । इन स्वर्ण सिक्कों को कलाचुरी के शासक गांगेयदेव, जिन्होंने ‘आसनारू] लक्ष्मी' सिक्के जारी किए थे तथा जिसकी नकल बाद के राजाओं ने स्वर्ण के सिक्कों और संमिश्र रूप में की, ने पुनर्जीवित किया। राजपूत राजाओं द्वारा जारी सिक्कों पर आम तौर पर सांड़ और घुड़सवार के मोटिफ अंकित हुआ करते थे। पश्चिमी भारत में बाइजेंटाइन सोलिदी जैसे सिक्कों का आयात होता था जो अधिकांशतया पूर्वी रोमन साम्राज्य के साथ व्यापारिक संबंधों को प्रतीक रूप में दर्शाते थे।
आसनारू लक्ष्मी
सांड़ और घुड़सवार
दक्षिण भारतीय सिक्के
जारी किए गए दक्षिण भारतीय सिक्कों पर प्रतीकों और अवधारणाओं (मोटिफ ) की चित्रकारी राजवंशों तक ही सीमित थी जैसे सूअर (लुक्य), सांड़ (पल्लव), शेर (ल), मत्स्य (पांड्या और अलुपा), तीर-धनुष (चेरा) और सिंह (होयसाल) इत्यादि । देवगिरि के यादवों सिक्के के मुख भाग और रिक्त रहे पृष्ठ भाग पर अष्टपर्णी कमल के साथ 'पद्मतनक' किए। सिक्के पर अंकित उक्तियां स्थानीय लिपि और भाषाओं में उनके निर्गमकर्ता के नाम और हकदारी को संदर्भित करती हैं। अलंकरणयुक्त विशेषताएं बहुत ही दुर्लभ सिक्कों में पायी गई तथा मध्यावधि विजयनगर की अवधि के सिक्कों (चौदहवीं से सोलहवीं शताब्दी ई.) तक देवताओं का लगभग अभाव ही पाया गया
चेरों के सिक्के
11वीं-13वीं शताब्दी के सिक्के
चेरों के सिक्के
11 वीं 13वीं शताब्दी
चोलों के सिक्के
9वीं - 13वीं शताब्दी
उडपी के अनुपा के सिक्के
11वीं - 13वीं शताब्दी
पद्मतनक, देवगिरि के यादवों के सिक्के
12वीं 14वीं शताब्दी
प्राचीन भारत का नक्शा, भारत सरकार के सौजन्य से
भारत में पाए गए विदेशी सिक्कों का खजाना
प्राचीन भारत के व्यापारिक संबंध महत्वपूर्ण रूप से मध्य-पूर्व, यूरोप ( ग्रीस और रोम) तथा चीन के साथ थे। व्यापार का कुछ भाग भू-मार्ग, जो सिल्क मार्ग के नाम से प्रख्यात था. तथा कुछ भाग जल-मार्ग दोनों से ही किया जाता था। रोमन इतिहासकार प्लिनी के समय भारत के साथ रोमन व्यापार न सिर्फ तेज गति से फल-फूल रहा था बल्कि रोमन साम्राज्य के लिए भुगतान संतुलन की समस्या भी आ खड़ी हुई थी। दक्षिण भारत में, जहाँ समुद्र मार्ग से व्यापार तेज गति से फल-फूल रहा था, रोमन सिक्के मूल रूप में प्रचलन में थे परंतु कभी-कभी वे लगे होते थे जो विदेशी साम्राज्य को नकारने का प्रतीक हुआ करता था ।