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मध्यकालीन भारतीय सिक्के
अरबों ने 712 ई.में सिंध को फतह किया और खलिफत का सूबा बनाकर इस पर शासन किया। 9 वीं शताब्दी में सूबे के गवर्नरों ने अपना स्वतंत्र शासन स्थापित किया और अपने ही सिक्कों को उन्होंने खारिज़ कियापरंतु 12 वीं शताब्दी में दिल्ली में तुर्की सुल्तानों के आगमन के साथ ही भूतकाल की परंपरा को छोड़ने का निर्णायक मौका आया और सिक्कों पर लिखी विद्यमान अवधारणाओं को क्रमशः हटाकर उनकी जगह इस्लामी विधाओं आम तौर पर लिखावट (कैलिओग्राफी) ने ले ली। लेखा इकाई का समेकन किया गया और इसे ‘टंका’ नाम दिया गया, जबकि छोटे मूल्यवर्ग के सिक्कों को 'जिट्टल' नाम दिया गया। ऐसा करके (1206-1526 ई.) दिल्ली सल्तनत ने मानकीकरण का प्रयास किया। इस अवधि को इसलिए भी जाना जाता है क्योंकि इस दौरान ही मुद्रा के अर्थशास्त्र का महत्वपूर्ण विस्तार हो गया। सिक्कों की ढलाई स्वर्ण, रजत और ताम्र धातुओं में की जाती थी। मौद्रिक प्रणाली में स्वर्ण और रजत के बीच का अनुपात संभवतः 1:10 होता थाखिलजी शासकों ने विपुल मात्रा में आदर्श अल्फाज़वाले शीर्षकों के साथ सिक्के जारी किए (अला-उद-दिन खिलज़ी ने ‘सिकंदर अल सैनी 'अलेक्जेंडर द्वितीय खिताब खुद को अता फरमाते हुए सिक्के जारी किए) और साथ ही टकसालों के लिए सम्मानजनक उक्तियां गढ़वाईं (दिल्ली टकसाल के सिक्के ‘हज़रत-दर-अल-खिलाफ़त, जैसे खिताबों से सजे थे') ।
मध्यकालीन भारत का मानचित्र, भारत सरकार के सौजन्य से
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दिल्ली सल्तनत के सिक्के
नसीरुद्दीन महमूद का सिक्का
1246-1266 ई.
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गियासुद्दीन बलबान का सिक्का
1266 - 1287 ई.
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खिलज़ी शासकों के सिक्के
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तुगलक शासकों के सिक्के (1320-1412 ई.) डिजाइन और प्रचलन में खिलज़ी शासकों के सिक्कों से भी कहीं अधिक उत्कृष्ट थे। मोहम्मद बिन तुगलक (1325-1351 ई.) ने भी सिक्कों में अपनी दिलचस्पी दिखाई परंतु उसके मौद्रिक प्रयोग बेकार और कंगाल बनानेवाले साबित हुए। पहले प्रयोग में उसके सिक्कों में मुक्त बाजार में प्रचलित स्वर्ण/रजत मूल्य अनुपात की नांकी थी। इस प्रयोग के असफल हो जाने पर पुराने स्वर्ण और रजत के लगभग 11 ग्रामवाले सिक्के पुनः प्रचलित किए गए। अगला प्रयोग चीन की कागणी-मुद्रा से प्रेरित था, जिसने व्यापार और वाणिज्य के विकास को आगे धकेला तुगलक ने 1329 से 1332 ई. के बीच सिक्कों की न्यास प्रणाली (फिड्यूसिअरी सिस्टम) स्थापित करने का प्रयास भी किया। उसने पीतल और ताम्र के टोकन भी जारी करने का काम किया। इन टोकनों पर पचास गनी के टंका रूप में सीलबंद के साथ-साथ जो सुल्तान का हुक्म बजाता है वह नियामत बख्से जाने का हकदार है' जैसी उक्तियां उद्धृत की हुई थीं। तमाम धांधलियों और जालसाजियों के कारण यह प्रयोग नेस्तनाबूत हो गया और इतिहास में तुगलक को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि उसने सभी टोकनों, फर्जी अथवा असली जो भी हों, के मूल्य का भुगतान किया। यह ध्यान देने योग्य है कि तुगलक के सभी प्रयोग वास्तविक थे जनता को इन सिक्कों को स्वीकार करने के लिए बाध्य तो किया गया परंतु ऐसा नहीं था कि उन पर तानाशाही करने के लिए खजाने में रोकड़ा नहीं था। मोहम्मद बिन तुगलक के शासन के दौरान स्वर्ण सिक्के बहुत बड़ी मात्रा में जारी किए गए परंतु इसके बाद स्वर्ण सिक्के मिलने दुर्लभ हो गए। लोधी के शासन में लगभग सभी सिक्के ताम्र और बिलॉन मात्र के निर्मित होते थे। सूबों में बंगाल के सुल्तान, जौनपुर के सुल्तान, दक्खन के बहमनी शासकों, मालवा के सुल्तान, गुजरात के सुल्तान, आदि ने सिक्कों की ढलाई करवाई । तथापि दक्षिण में विजयनगर साम्राज्य ने भिन्न-भिन्न मेट्रोलॉजी और डिजाइन के सिक्कों को प्रचलित किया जो प्रांत में मानक माना जाता रहा और 19 वीं शताब्दी तक सिक्कों की डिजाइनों को प्रभावित करता आया।
मालवा के रजत सिक्के
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![](/documents/87730/49071272/silver-coin-malwa-2.webp/0d54c150-7239-745c-49aa-ca170ab0859b?t=1684680726692)
विजयनगर साम्राज्य
दक्षिण में दिल्ली सल्तनत और मुगलों के समकालीन विजयनगर अन्य ऐसा रागवंश था जिनकी मुद्रा मानकीकृत निर्गम का सर्वाधिक दुर्लभ उदाहरण प्रस्तुत करती थी तथा जो बाद में यूरोपियन और इंग्लिश ट्रेडिंग कंपनियों के लिए आदर्श बनी विजयनगर राज्य की स्थापना दक्षिण में कृष्णा नदी के निकटवर्ती क्षेत्र में हरिहर और बुक्क द्वारा लगभग 1336 ई. के आस पास की गई थी। विजयनगर का काल यूरोपियन व्यापारियों के आगमन, विशेषरूप से पुर्तगालियों का गवाह रहा है। कृष्णदेवराय ने विदेश व्यापार को बढ़ावा दिया जिसके कारण मुद्रा को अधिकाधिक आवश्यकता होती गई। विजयनगर साम्राज्य के सिक्के ज्यादातर स्वर्ण और ताम्र में ढले होते थे। विजयनगर के अधिकतर सिक्कों के मुख भाग पर कोई उपास्य प्रतिमा छपी होती थी तथा पृष्ठ भाग पर राजकीय उक्ति गढ़ी होती थी। विजयनगर साम्राज्य के महत्वपूर्ण स्वर्ण सिक्कों में वे सिक्के जिन पर तिरु पति भगवान वेंकटेश्वर की प्रतिमा उकेरी गई होती थी. एकल रूप को अथवा उनकी दोनों पत्नियों के साथ युगल रूप को प्रतिबिंबित करते थे। इन सिक्कों ने इन और फ्रेंच के एकल स्वामी पगोडा तथा इंग्लिश ईस्ट इंडिया कंपनी के 'त्रि स्वामी पगोडा को अभिप्रेरित किया।
विजयनगर साम्राज्यके सिक्के
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![](/documents/87730/49071143/coins-of-the-vijayanagar-empire-3.webp/f4051c70-834a-c642-6d7a-5b6b73cc519e?t=1684680672487)
![](/documents/87730/49071143/coins-of-the-vijayanagar-empire-4.webp/feec62e6-062f-a959-bbac-32b75419f4a3?t=1684680673044)
विजयनगर साम्राज्य के सिक्कों की अभिप्रेरणा से निर्मित पगोडा, ईस्ट इंडिया कंपनी
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![](/documents/87730/49071143/pagoda-east-india-company-inspired-by-the-coins-of-the-vijayanagar-empire-2.webp/86f12118-f060-e749-d68e-fd2a95cae680?t=1684680674367)